Saturday, October 26, 2019

घटता संवाद, परेशानी का सबब


संवादहीनता चाहे-अनचाहे हमारे स्वभाव में शामिल हो गई है। हर आदमी अपनी धुन में मगन है। खुशियां बांटने की कौन कहे, लोग अपनी परेशानी तक किसी से शेयर करने की जरूरत नहीं समझते। हाल ही ट्रेन में सफर के दौरान सहयात्री युवक की परेशानी को मैं भुला नहीं पा रहा हूं। उसकी मां कानपुर जंक्शन पर एस्केलेटर से गिरकर घायल हो गई थीं और उसे बिना इंतजार किए अगली सफर पर रवाना होना था। उसके पास मां के उपचार के लिए समय नहीं था। उसकी माताजी की चोट कितनी गहरी थी, इसका अंदाजा लगाना मेरे लिए क्या, किसी के लिए भी असंभव था। बेटे को बेबस जान कोई मां अपनी पीड़ा को कहीं अभिव्यक्त कर पाती है ? वह तो गनीमत रही कि समय रहते मेरी नींद खुल गई और युवक की सहायता के लिए मुझसे जो बन पड़ा, मैंने किया। इसके बावजूद कई सवाल मेरे मन को मथे हुए हैं। मैं उनसे उबर नहीं पा रहा। ट्रेन के उस डिब्बे में मैं उस युवक के सर्वाधिक नजदीक वाली बर्थ पर था। भले ही मैं सोया हुआ था, लेकिन वह मुझे जगाकर मुझसे अपनी परेशानी शेयर कर सकता था। इसके बावजूद उसने मुझे जगाना उचित नहीं समझा। शायद उसने मेरी असमर्थता भांप ली हो। सही भी है, हममें से कितने लोगों को प्राथमिक उपचार का एबीसीडी भी पता है ? उसके मन में यह भाव भी आया हो कि आजकल दूसरों की पीड़ा से कौन मतलब रखता है ? शायद मैं भी उसकी परेशानी सुनने के बावजूद मुंह फेर लूं। इसके बावजूद उसे कोशिश तो करनी ही चाहिए थी । मैं न सही, किसी और से उसे मदद मिल जाती। बात जब एक से दूसरे तक पहुंचती तो संभव था कि यात्रियों में से ही कोई डॉक्टर भी निकल आता। और घायल मां को दर्द से तत्काल राहत मिल जाती। December 30 2017

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