Friday, November 30, 2007

जीवन का गणित, कैसे छूटे पीछा

कविताओं के प्रति शायद मेरा मोह कुछ बढ़ गया है, सो प्रस्तुत है मेरे पसंद की एक और कविता। गणित से हम सबका साबका पड़ता है और अधिसंख्य इससे पीछा भी छुड़ा लेते हैं किसी तरह, लेकिन गणित जीवन में कभी पीछा नहीं छोड़ता।
जयपुर के ही कवि गोविंद माथुर की इस कविता में जीवन से जुड़े गणित को सधे हुए शब्दों में बखूबी उतारा गया है। जयपुर से प्रकाशित हिंदी अखबार के २५ नवंबर को प्रकाशित रविवारीय परिशिष्ट में यह कविता छपी। आपको यदि अच्छी लगे तो रचनाकार को धन्यवाद ज्ञापित करें, अच्छी नहीं लगे तो इसका जिम्मेदार मैं हूं--

कला में गणित

मैं गणित में बहुत कमजोर था
यदि मेरी गणित अच्छी होती
शायद मैं इंजीनियर होता
विज्ञान वगॅ में अनुत्तीणॅ होते रहने पर
मैं कला वगॅ में आ गया
विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में
उत्तीणॅ होता चला गया
मुझे मास्टर ऑफ आट्सॅ की
उपाधि भी मिल गई
पर गणित में कमजोर ही रहा
बीज गणित एवं रेखा गणित से
तो मैंने छुटकारा पा लिया पर
जीवन की गणित में फंस गया
संबंधों में गणित/ मित्रों में गणित
सम्मान में गणित/अपमान में गणित
पुरस्कार में गणित/तिरस्कार में गणित
साहित्य में गणित/कला में गणित
मेरा सोचना गलत था
गणित अच्छी होने पर
इंजीनियर ही बना जा सकता है
सच तो ये है कि
कुछ भी बनने के लिए
गणित अच्छी होना जरूरी है

Thursday, November 29, 2007

जयपुर समारोह में कविताओं की बरसात-चार

कवि सम्मेलन चूंकि मरुधरा राजस्थान की राजधानी में हो रहा था, सो वीरभूमि राजस्थान की शौयॅगाथा और राजस्धानी भाषा को महत्व मिलना स्वाभाविक था। राजस्थान की आंचलिक ढूंढाड़ी भाषा के कवि दुरगादान गौड़ ने बड़े ही अनूठे अंदाज में गीत सुनाए---
मीठा गीत जवानी मीठी, मीठा ढोला मारू
हाय म्हारी चांद कुंवर तने हिवड़ा बीच उतारूं
मीठा सपना मीठी यादां मीठी बात वचन अरु वादा
जग सूं थाणी हांसी पी ग्या म्हां भी हो गया मीठा ज्यादा
म्हारी भी तकदीर संवर जा आ जा थारी केश संवारूं।
लोकभाषा का सहज प्रवाह इतनी रवानी में था कि मैं खो सा गया उसमें.... और सुध-बुध खोने के कारण उन पंक्तियों को नोट नहीं कर पाया।
कोटा से ही आए डॉ. अतुल कनक ने लड़कियों के बारे में समाज में व्याप्त कुमानसिकता को दूर करने का बहुत ही अच्छा जतन किया--
सुबह से स्निग्धता, रात से गहनता, हवा से तरलता
और खुशबू से विरलता लेकर
नदी से एक बूंद उठाई होगी
इस तरह परमात्मा ने लड़की बनाई होगी।
श्रद्धा के क्रम की ये तेजस्वी शृंखला
गंगा की अस्मिता है यमुना की धारा है
लड़की कोई माल नहीं, परमात्मा का कमाल है
प्रेम की पराकाष्ठा है, प्यार का तपोवन है
लड़की तो दुरगा की दुदॅम्य शक्ति है
ये लड़कियां तो सृष्टि का सोलहवां शृंगार है.....
उन्होंने ---पिता---शीषॅक कविता के माध्यम से पिता की महिमा का गुणगान किया। डॉ. कनक के काव्यपाठ की गति कुछ तेज होने के कारण मैं श्रवण और लेखन में संतुलन नहीं बना पाया, इसलिए ये कविताएं अधूरी रह गई हैं, प्रयास करूंगा कि निकट भविष्य में उनकी पूरी कविता से आपके सम्मुख रखूं।
........कवि सम्मेलन अब अपने चरम पर था, श्रोताओं में सार ही सार शेष रह गया था, नींद का झोंका, रात की गहराई या फिर कहूं कि जाड़े के असर से सारा थोथा उड़ चुका था। चित्तौड़गढ़ से आए वयोवृद्ध कवि पं. नरेंद्र मिश्र सबसे अंत में आए और आते ही टिप्पणी की कि वरिष्ठता के दुरभाग्य तक आते-आते मेरे हिस्से में गिनती के ही श्रोता बचे हैं। उन्होंने आयोजकों के सामने अगले वषॅ से यह कवि सम्मेलन शहर के मध्य में कराने की बात कही, तो श्रोताओं ने भी खड़े होकर इसका समथॅन किया। इस पर कितना अमल हो पाएगा, यह तो समय ही बताएगा। मेवाड़ की धरती से आए पं. मिश्र ने
---राणा प्रताप इस भरत भूमि के मुक्ति मंत्र का गायक था.....
के माध्यम से महाराणा प्रताप की शौयॅगाथा का गुणगान किया। इसके अलावा उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से ---गोरा-बादल---की वीरता का भी बखान किया। विस्तार में ये कविताएं फिर कभी...। आजकल टेलीविजन पर हास्य शो में हो रही कविताई पर उन्होंने कुछ इस तरह प्रहार किया---

फीचर फिल्म बाद में देखो पहले विज्ञापन
डेढ़ मिनट की कविता आधे घंटे का भाषण
लंगूरों ने लूट लिया कविता का नंदन वन।
कवि सम्मेलनों में कविता कम, श्रोताओं से तालियों की चिरौरी ज्यादा करने वाले तथाकथित कवियों पर पं. मिश्र ने कुछ यूं कटाक्ष किया----
चुटकुले गजलों पर भारी हो गए
जितने बंदर थे मदारी हो गए
गिड़गिड़ाते तालियों के वास्ते
शब्द के साधक भिखारी हो गए।

वतॅमान राजनीतिक व्यवस्था और आधुनिक नेताओं पर उन्होंने कुछ इस तरह चुटकी ली----
देश ये कैसा बनाया आपने
उम्रभर पैसा बनाया आपने
गांव के जलते दीये भी बुझ गए
अजब दीपक राग गाया आपने।....
मैंने भी बहुत लंबा राग आलापा। कवि सम्मेलनों में कवियों से कविताएं सुनना मेरा भी शौक रहा है, लेकिन कई बार ऐसा होता है कि किन्हीं अपरिहायॅ कारणों से समय नहीं निकाल पाता, सो मैंने सोचा कि ऐसे जो लोग किन्हीं कारणों से---दूरी या मजबूरी--या फिर कोई और जरूरी---से इस काव्य निशा का आनंद नहीं उठा पाए, उनके सम्मुख कविताओं की यह रात ले आऊं। इसमें कुछ अशुद्धियां भी रह गई होंगी, खामियां भी रह गई होंगी, इसके लिए जिगर मुरादाबादी की दो पंक्तियां उधार लेकर क्षमा चाहता हूं---
हाय ये मजबूरियां, महरूमियां, नाकामियां
इश्क आखिर इश्क है तुम क्या करो हम क्या करें।
धन्यवाद.... शुक्रिया....गुड बाय। मिलते रहेंगे......।

Wednesday, November 28, 2007

जयपुर समारोह में कविताओं की बरसात-तीन

और अब हाजिर हैं गाजियाबाद से आए युवा गीतकार डॉ. कुमार विश्वास की कुछ रचनाएं, जिनसे उन्होंने रसिक श्रोताओं की काव्य पिपासा को शांत किया, गहराती सदॅ रात में इश्क-ओ-हुस्न की गरमाहट परोसी, आप भी लीजिए इसका आनंद-----
महफिल महफिल मुस्काना तो पड़ता है, खुद ही खुद को समझाना तो पड़ता है
उनकी आंखों से होकर दिल तक जाना, रस्ते में ये मयखाना तो पड़ता है
तुमको पाने की कोशिश में खत्म हुए, इश्क में इतना जुरमाना तो पड़ता है

पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार क्या करना
जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार क्या करना
मोहब्बत का मजा तो डूबने की कशमकश में है
जो हो मालूम गहराई तो दरिया पार क्या करना

....... चूडि़यों से भरे हाथ लिपटे रहे, सुखॅ होठों से झरना सा झरता रहा
एक नशा सा अजब छा गया कि हम खुद को खोते रहे,
तुमको पाते रहे पनघटों से बहुत दूर पीपल तले,वेग के व्याकरण पायलों ने गढ़े
शाम गीतों के आरोह-अवरोह में मौन के चुम्बनी सूक्त हमने पढ़े
सौंपकर उन अंधेरों को सब प्रश्न हम एक अनोखी दीवाली मनाते रहे
देह की उरमियां बन गईं भागवत, हम समपॅण भरे अथॅ पाते रहे
मन में अपराध की एक शंका लिए, कुछ क्रियाएं हमें जब हवन सी लगीं
एक-दूजे की सांसों में घुलती हुई, बोलियां भी हमें जब भजन सी लगीं
कोई भी बात हमने न की रातभर, प्यार की धुन कोई गुनगुनाते रहे

बात इश्क से दुनियादारी तक कुछ यूं पहुंची--
रंग दुनिया ने दिखाया है निराला देखूं, है अंधेरे में उजाला तो उजाला देखूं
आईना रख दे हाथ में मेरे आखिर, मैं भी कैसा लगता है तेरा चाहने वाला देखूं
जिसके आंगन से खुले थे मेरे सारे रास्ते, उस हवेली पे भला कैसे मैं ताला देखूं

फिर कुमार के दिल की कुछ बातों से श्रोता भी हमराज हुए-------
उनकी खैरो खबर नहीं मिलती, हमको ही खासकर नहीं मिलती
शायरी को नजर नहीं मिलती, मुझको तू ही अगर नहीं मिलती
जिस्म में दिल में रूह में दुनिया, ढूंढता हूं मगर नहीं मिलती
लोग कहते हैं रूह बिकती है, मैं जिधर हूं उधर नहीं मिलती

और अब वे बातें, जिन्हें कवि हृदय दो-चार होता है, हमारा और आपका भी अक्सर इनसे सामना होता है--------
इतनी रंग-बिरंगी दुनिया दो आंखों में कैसे आए
हमसे पूछो इतने अनुभव एक कंठ से कैसे गाए
ऐसे उजले लोग मिले जो अंदर से बेहद काले थे
ऐसे चतुर मिले जो मन से सहज सरल भोले भाले थे
ऐसे धनी मिले जो कंगालों से भी ज्यादा रीते थे
ऐसे मिले फकीर जो सोने के घट में पानी पीते थे
मिले परायेपन से अपने अपनेपन से मिले पराये
हमसे पूछो इतने अनुभव एक कंठ से कैसे गाए
जिनको जगत विजेता समझा मन के द्वारे हारे निकले
जो हारे-हारे लगते थे अंदर से ध्रुवतारे निकले
जिनको पतवारें सौंपी थीं वे भंवरों के सूदखोर थे
जिनको भंवर समझ डरता था आखिर वही किनारे निकले
वे मंजिल तक कैसे पहुंचें जिनको खुद रस्ता भटकाए
हमसे पूछो इतने अनुभव एक कंठ से कैसे गाए।

कवि सम्मेलन की कुछ और रचनाओं के लिए कीजिए इंतजार....पढ़ते रहिए दिल से दिल की बात...शुक्रिया

Tuesday, November 27, 2007

जयपुर समारोह में कविताओं की बरसात-दो (कसक)

हां, तो मैं चरचा कर रहा था गुलाबी नगर की स्थापना के वषॅगांठ के उपलक्ष में मनाए जा रहे जयपुर समारोह के तहत आयोजित महाकवि बिहारी स्मृति कवि सम्मेलन की। आयोजन चूंकि सरकारी था,इसलिए खामियां भी थोक में थीं। पहले तो महान गीतकार गोपालदास नीरज के कवि सम्मेलन में आने का विज्ञापन अखबारों में प्रकाशित किया गया। कारतिक पूरणिमा के अबूझ सावे पर शादियों की भरमार थी,सो लोग उनमें व्यस्त थे और उनमें काव्यप्रेमी भी रहे ही होंगे। कारतिक पूरणिमा को तो नहीं बदला जा सकता था,लेकिन कवि सम्मेलन की तिथि तो बदली ही जा सकती थी। नगर निगम ने बड़ा सा पांडाल लगवाया था,वीआईपी के अलावा प्लास्टिक की कुरसियां लगाई गई थीं, लेकिन उन पर बैठने वाले नदारद थे। सदॅ रात में खुले में बैठकर कविता सुनना भी कम जीवट का काम नहीं है, जब सैकड़ों चैनल्स पर हजारों प्रोग्राम आपकी ड्राइंग रूम में मौजूद हों। पिंकसिटी का इस कदर विस्तार हो चुका है कि कुछ लोग तो १८-२० किलोमीटर की दूरी तय करके भी आए थे। इस सबके बावजूद गोपाल दास नीरज को न सुन पाने का उनको कितना मलाल हुआ होगा, इसका सहज अंदाजा आप लगा सकते हैं। हद तो तब हुई जब मुझे आज सीनियर ब्लॉगर व वेब पत्रिका इंद्रधनुष के संपादक डॉ. डी. पी. अग्रवाल से पता चला कि नीरज उस दिन भी अपनी पौत्री की शादी के सिलसिले में जयपुर में ही थे। वे एक होटल में बैठे आयोजकों का इंतजार करते रहे कि कोई उन्हें लेने आए और उधर श्रोताओं के इंतजार की इंतहा हो रही थी। एक और वरिष्ठ गीतकार जयपुर के ही ताराप्रकाश जोशी भी न जाने किन कारणों से कायॅक्रम में नहीं आ पाए। खैर, इन दोनों कवियों की रचनाओं से आपको भविष्य में जरूर रू-ब-रू कराऊंगा, यह वादा है मेरा।
हमारे राजनेताओं के दिल में कवियों के प्रति कितना सम्मान रह गया है, इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि कायॅक्रम के मुख्य अतिथि सांसद गिरधारीलाल भागॅव मध्यरात्रि १२ बजे बाद प्रकट हुए। वह तो भला हो आयोजकों का कि उनकी प्रतीक्षा किए बगैर कायॅक्रम शुरू कर दिया, अन्यथा कौन किसका इंतजार करता, और इस बीच क्या-क्या होता, कहना मुश्किल होता। महापौर-उपमहापौर ने तो देर से ही सही, आने की जुरॅत ही नहीं समझी। आयोजन समिति के दो महानुभाव साहित्य साधना की नहीं, सत्ता के बल पर मंच पर आसीन थे। उनमें से एक सो रहे थे तो दूसरे मोबाइल की दुनिया में खो रहे थे। ऐसे में कवियों का हृदय भी उनके व्यवहार से हरषित नहीं हो रहा होगा, यह तो जगजाहिर है ही, श्रोता भी उनकी इन हरकतों को सहने को मजबूर थे।
ये कुछ हालात थे, मैं इनकी चरचा करना चाहता भी नहीं था, मेरा उद्देश्य आप काव्य रसिकों को महज कविताओं की दुनिया में ले जाने का था, लेकिन जब नीरज जी को न सुन पाने का वास्तविक कारण पता चला, तो कसक को दबा नहीं सका। जल्दी ही आपको कवि सम्मेलन के शेष कवियों की मधुर रचनाएं लेकर आपकी सेवा में उपस्थित होऊंगा। तब तक धन्यवाद,,, मेरी मनोव्यथा को आपने अनुभूत किया।

Monday, November 26, 2007

जयपुर समारोह में कविताओं की बरसात-एक


गुलाबी नगर इन दिनों अपनी स्थापना का वषॅगांठ मना रही है। इस उपलक्ष में नगर निगम की ओऱ से एक माह तक चलने वाला--जयपुर समारोह-- आयोजित किया जा रहा है। इसके तहत नित नए कायॅक्रम हो रहे हैं। इसी कड़ी में कारतिक पूरणिमा पर शनिवार की रात को आमेर महल के पास, जहां जयपुर राजघराने ने महाकवि बिहारी का दयार बनाया था, उसी के समीप --महाकवि बिहारी स्मृति कवि सम्मेलन-- का आयोजन किया गया। आइए, आप भी कीजिए कुछ कविताओं का रसास्वादन।

इलाहाबाद से आए युवा कवि इमरान ने कुछ इस तरह से की शुरुआत-
अपने शहर की ताजा हवा ले के चला हूं, हर ददॅ की यारों मैं दवा ले के चला हूं
मुझको यकीन है कि रहूंगा मैं कामयाब, क्योंकि मैं घर से मां की दुआ ले के चला हूं।

२४ नवंबर को ही दिन में उत्तर प्रदेश के कई शहरों की अदालतों में बम धमाके हुए थे, फिर भी सांप्रदायिक सद्भाव हमारे देश की आत्मा में है, इसे जेहन में रखते हुए इमरान ने अपना हाल-ए-दिन कुछ यूं बयां किया-

चाक है जिगर फिर भी आए हैं रफू करके, जाएंगे हकीकत से तुमको रूबरू करके
प्यार की बड़ी इससे और मिसाल क्या होगी, हम नमाज पढ़ते हैं गंगा में वजू करके।

और फिर जग उठा इस युवा कवि का प्रेमी हृदय----

मेरा मन ये कहता है कह दूं मैं जमाने से, इक चुभन सी होती है इश्क को छुपाने से
जब से प्यार की मैंने शमां जलाई है, तब से डर नहीं लगता आंधियों के आने से

और अब प्यार के प्रतिमान बदले, उपमेय और उपमान बदले इन लफ्जों में......

तेरा चेहरा लगे अप्सरा की तरह, मैं गगन की तरह तू धरा की तरह
ये अदाओं का पेट्रोल छिड़को नहीं, वरना जल जाऊंगा गोधरा की तरह
ना हंसो दिल मेरा चाक हो जाएगा, हर इरादा खतरनाक हो जाएगा
मुस्कुराने की बमबारी जारी रही, तो दिल मेरा जलके इराक हो जाएगा।

रात जैसे-जैसे गहरा रही थी, कवि सम्मेलन अपने परवान पर पहुंचता जा रहा था। काव्य रसिक श्रोता कविताओं के समंदर में डूबने-उतराने लगे थे।
कानपुर से आईं शबीना अदीब बड़े ही अदब ओ करीने से श्रोताओं से रू-ब-रू हुईं। इश्क तो हुस्न की गलियों में भटकता ही रहता है, हुस्न भी कभी-कभी इश्क के लिए तड़प उठता है। उन्होंने इश्क से हुस्न की मनुहार और गरीबी को दुनिया से विदा करने का इजहार इन अल्फाजों में किया----

हमें बना के तुम अपनी चाहत, खुशी को दिल के करीब कर लो
तुम्हें हम अपना नसीब कर लें, हमें तुम अपना नसीब कर लो
गरीब लोगों की उम्र भर की गरीबी मिट जाए गर अमीरों
बस एक दिन के लिए अगर तुम जरा सा खुद को गरीब कर लो।

और फिर संग जीने-मरने की कसमें, प्यार का फसाना इन शब्दों में मुखातिब हुई श्रोताओं से........

हमेशा एक दूसरे के हक में दुआ करेंगे ये तय हुआ था
मिले कि बिछुड़ें मगर तुम्हीं से वफा करेंगे ये तय हुआ था
कहीं रहो तुम कहीं रहें हम मगर मोहब्बत रहेगी कायम
जो ये खता है तो उम्रभर ये खता करेंगे ये तय हुआ था
उदासियां हर घड़ी हों लेकिन, हयात कांटों भरी हो लेकिन
खुतूत फूलों की पत्तियों पर लिखा करेंगे ये तय हुआ था
जहां मुकद्दर मिलाएगा अब वहां मिलेंगे ये शतॅ कैसी
जहां मिले थे वहीं हमेशा मिला करेंगे ये तय हुआ था
लिपट के रो लेंगे जब मिलेंगे, गम अपना-अपना बयां करेंगे
मगर जमाने से मुस्कुरा कर मिला करेंगे ये तय हुआ था
किसी के आंचल में खो गए तुम, बताओ क्यों दूर हो गए तुम
जान देकर हक वफा का अदा करेंगे ये तय हुआ था

कवि सम्मेलन की बाकी कविताएं फिर कभी.....

Saturday, November 24, 2007

राह दिखाती है भूल-भुलैया


-सांविरया-का जलवा कब का खत्म हो चुका है और भारत कुमार फेम मनोज कुमार पर अनावश्यक छींटाकशी के कारण-ओम शांति ओम-का भी देशभर में-ओम नमः शिवाय- हो रहा है। ऐसे में -भूल-भुलैया- की चरचा अब बेमानी सी लगती है। आपका ऐसा मानना जायज है, लेकिन मैं भी क्या करूं, मेरे मन में विचारों के जो गुबार उठ रहे हैं, उनसे तो अब दो-चार होना ही पड़ेगा।
हुआ यूं कि बेटेजी ने कॉमेडी की दुहाई देकर-भूल-भुलैया-दिखाने की जिद की। सिनेमाहॉल के परदे पर तो फिल्म देखना महानगरों में मध्यवरगीय परिवार के वश में रहा नहीं, भला हो उनका जिन्होंने बीच का रास्ता निकाल दिया है। दाम भी कम खरचो और मजे भी पूरे ले लो यदि आपकी किस्मत से सीडी की प्रिंट सही हो। तो साहब, मैं भी ले आया सीडी और अवकाश के दिन देख डाली पूरी फिल्म। प्रियदशॅन के निरदेशन में असरानी, परेश रावल, अक्षय कुमार, विद्या बालान व अन्य कलाकारों ने अपनी भूमिका को बखूबी अंजाम दिया और हंसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन मुझे तो इस फिल्म में कुछ और ही दिखा---कुछ और ही संदेश मिला। आइए, आप भी देखें यह नजारा मेरी नजरों से और महसूस करें इसकी शिद्दत को...।
विज्ञान ने विकास के कितने ही आयाम स्थापित कर दिए हों, भारतवंशी सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष की सैर कर सकुशल धरती पर लौट आई हों, लेकिन आज भी हमारे देश के गांवों में डायन के नाम पर भोली-भाली महिलाओं को सरेआम नंगा कर घुमाया जाता है, मारा-पीटा जाता है तथा दूसरी अमानवीय यातनाएं दी जाती हैं। भूत ने हमारे देश का न केवल भूत (अतीत) बिगाड़कर रख दिया, बल्कि वतॅमान को भी अपनी जद में लिए हुए है, अब भी हम नहीं चेते तो यह हमारा भविष्य भी बरबाद करके रख देगा।....और यह सब होता है उन पोंगापंथियों के इशारे पर जिनका न तो विज्ञान से कुछ लेना-देना है और न ही मनोविज्ञान से। असामान्य मनोविज्ञान को जिस बारीकी से इस फिल्म में समझाया गया है, वह काबिले तारीफ है। दरअसल मनोविकारों के कारण ही कल की आई नई-नवेली दुल्हन अपनी ससुराल के सात पुरखों के नाम गिनाने लगती है, और उस पर प्रेतबाधा का प्रकोप मानकर तथाकथित तांत्रिक अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। इसकी आड़ में मोहल्ले की किसी भोली-भाली लाचार महिला को प्रताड़ित करने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है। मैं तो चाहता हूं कि ऐसी फिल्में बननी चाहिए, जिनसे समाज सुधार की दिशा में साथॅक संदेश जाए। ...फिर जब --चक दे इंडिया--को टैक्सफ्री किया जा सकता है, तो--भूल-भुलैया को क्यों नहीं। जब--चक दे इंडिया--से प्रेरणा लेकर खिलाड़ियों का तथाकथित रूप से कायाकल्प हो सकता है तो --भूल-भुलैया--देखकर सदियों से भूत-प्रेतबाधा के संताप से मुक्ति पाकर हमारे समाज का कायाकल्प क्यों नहीं हो सकता। ....आमीन...

Friday, November 23, 2007

चलें कौनहारा....सोनपुर मेला घूम आएं


भारतीय समाज में कारतिक महीने को जो गौरव प्राप्त है, वह दूसरे महीनों को नहीं है। इस पूरे महीने में विभिन्न धारमिक आयोजन-प्रयोजन होते रहते हैं। कारतिक पूरणिमा पर गंगा और गंडक के संगम पर हाजीपुर में भारी मेला भरता है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहां इस पावन संगम में डुबकी लगाने आते हैं।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार, दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले वैशाली जिले की इस धरती ने शक्ति पर भक्ति की विजय का संदेश दिया था। जी हां, आप जब हाजीपुर जंक्शन पर उतरेंगे, तो इसके बाहर आपको भगवान विष्णु द्वारा ग्राह से गज को बचाने वाली प्रतिमाएं दिखेंगी। ऐसी मान्यता है कि विष्णुभक्त गज जब गंडक में अपनी प्यास बुझाने गया, तो ग्राह ने उसका पैर अपने जबड़ों में भींच लिया। गज की गुहार पर भगवान विष्णु आए और उन्होंने ग्राह को मारकर गज के प्राण बचाए। शक्ति पर भक्ति की इसी विजय के कारण इस स्थान विशेष का नाम--कौनहारा--पड़ा। आज भी कारतिक पूरणिमा पर हजारों-हजार श्रद्धालु कौनहारा घाट पर गंडक में स्नान करते हैं और ईश्वर की कृपा की कामना करते हैं।
गंडक के पार सोनपुर में एक मंदिर है, जिसमें एक साथ भगवान विष्णु और शिव की पूजा होती है। इसे हरिहरक्षेत्र कहा जाता है, और लोकभाषा में यही अपभ्रंश होकर --छत्तर मेला-- भी कहलाता है। यह मेला एशिया में ही नहीं, विश्व में अपना स्थान रखता है। उन्नत नस्लों की गाय-भैंस, हाथी-घोड़े, ऊंट और दूसरे पशु-पक्षी एक माह तक इस मेले की शोभा बढ़ाते हैं। केंद्र व राज्य सरकार की उपलब्धियों का बखान करने वाली प्रदशॅनियां मेले में आने वालों को सम्मोहित करने की कोशिश में जुटी रहती हैं। मेले में दिनभर घूमने से होने वाली थकान शाम को तब काफूर हो जाती है, जब यहां लगे थियेटर के तम्बुओं में लोकगीतों और फिल्मी गानाओं पर बालाओं के कदम थिरकते हैं। चूंकि यह मेला आज से शुरू होकर पूरे एक महीने तक चलेगा, तो आप भी आइए, कारतिक पूरणिमा पर संगम में डुबकी नहीं लगा पाए तो क्या हुआ, मेले का आनंद तो ले ही सकते हैं। स्वागतम्...सुस्वागतम्......

शुक्रिया...याद तो आई

कल शाम एक मित्र घर पर आए। मेरे आठ बरस के बच्चे ने दरवाजा खोला और अंदर के कमरे में चला गया। वहां डीवीडी पर उसकी मनपसंद फिल्म चल रही थी। हम दोनों मित्र विभिन्न मुद्दों पर गपियाने लगे। करीब १५-२० मिनट बाद बच्चा दुबारा आया और मित्र के पैर छुए। देर से पैर छूने पर मित्र सहसा बोल उठे-धन्यवाद बेटा, तुम्हें पैर छूने की याद आ तो गई।
इस पर मेरे दिमाग में जो हलचल हुई, उसे आप भी महसूस करें। आजकल हम जिस युग में जी रहे हैं, उसमें बहुत ही कम बेटों को मां-बाप के साथ रहने का अवसर मिल पाता है। जीवन में आजीविका के अवसर तलाशते-तलाशते आज का युवक अक्सर मां-बाप की सेवा का सुनहरा अवसर गंवा बैठता है। कुछ मां-बाप भी गांव छोड़ शहर में पराश्रित सा जीवन बिताने से मना कर देते हैं। ...और शहरों में जहां दोनों ही सुयोग प्राप्त होते हैं, वहां जेनरेशन गैप या फिर दूसरे कारणों से सुयोग्य सुस्थापित बेटे अपने बूढ़े मां-बाप को वृद्धाश्रम में छोडकर उनसे पीछा छुड़ा लेते हैं। फिर बेटे के हाथ से एक लोटा पानी के लिए भी वे भले ही तरस जाएं।
हां, भारतीय समाज में पौराणिक व्यवस्था ऐसी है कि जिस माता-पिता को बेटा जिंदगी में पानी नहीं पिला पाता, उनके मरने के बाद वह आश्विन महीने कृष्ण पक्ष (कनागत) में तपॅण कर उन्हें तृप्त तथा स्वयं को पितर ऋण से उऋण होने का उपक्रम जरूर कर लेता है। फिर मृत्युभोज के नाम पर समाज में अपना स्टैंडडॅ बनाए रखने के लिए ब्राह्मणभोज से लेकर पितृभोज तक आयोजित करने में भी गवॅ महसूस किया जाता है।
ऐसे में मैं तो यही कहूंगा कि परिस्थितियों पर तो अपना वश नहीं होता, परवश होने के कारण कई बार चाहकर भी मातृ-पितृभक्ति की चाह पूरी नहीं हो पाती, लेकिन फिर भी हमें यह प्रयास तो अवश्य करना चाहिए कि माता-पिता के मनोनुनूकूल व्यवहार कर हम उन्हें जीने का अच्छा वातावरण उपलब्ध कराएं, मृत्यु के बाद की तृप्ति को किसने देखा है। ....और पितृऋण से मुक्त होना तो मुमकिन ही नहीं है।

Friday, November 16, 2007

छठ का विस्तार, जयपुर बना बिहार


उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में सूयॅ भगवान के प्रति श्रद्धालुओं की आस्था इन दिनों आसमान छू रही है। छठ मइया की महिमा की गूंज सवॅत्र सुनाई दे रही है। इन प्रदेशों के लोग विभिन्न परिस्थितियों के शिकार होकर जीवन यापन के लिए या फिर अपनी प्रतिभा का परचम लहराने के लिए देश के सभी राज्यों या यूं कहें कि महत्वपूणॅ नगरों-महानगरों में विराजते हैं। अब ये जहां होंगे, वहां अपनी संस्कृति के परिचायक छठ पवॅ को तो साथ लाएंगे ही, सो पूरे भारतवषॅ में छठ पवॅ की धूम मची हुई है। नेपाल की तराई, मॉरीशस, फिजी के अलावा अन्य देशों में भी वृहद् या लघु स्तर पर यह पवॅ मनाया जा रहा है। इसे विश्वव्यापी बनाने में अखबारों, इंटरनेट और टीवी चैनलों की भूमिका भी प्रभावी रही है।
पिछले दिनों दिल्ली सरकार ने छठ पवॅ पर ऐच्छिक अवकाश की घोषणा की थी, आज बिहार से किसी मित्र का फोन आया कि इस वषॅ से बैंकों में भी अवकाश की घोषणा कर दी गई है। (राज्य सरकार के विभागों में तो शुरू से ही अवकाश रहता आया है। ) संसद की कायॅवाही शुक्रवार को छठ के कारण स्थगित कर दी गई थी, यह तो सवॅविदित है ही। अब मेरी इस इच्छा को पंख लगने लगे हैं कि देर-सबेर ही सही, इस पवॅ पर राष्ट्रीय स्तर पर या फिर अन्य राज्यों में भी अवकाश (ऐच्छिक ही सही) की घोषणा हो सकेगी।
मैं भी किन ख्वाबों-खयालों में खो गया, हां, तो यह बताने जा रहा था कि अन्य शहरों की तरह गुलाबी नगरी में पूणॅ श्रद्धाभाव से छठ पवॅ मनाया गया। पवित्र गलता तीथॅ में जुटी श्रद्धालुओं की अपार भीड़, बज्जिका, भोजपुरी, मैथिली, मगही में छठ गीतों की गूंज, आतिशबाजी का शोर मिल-जुलकर यहां मिनी बिहार का दृश्य उपस्थित कर रहे थे। दोपहर बाद से ही यहां मेला सा नजारा उपस्थित हो गया था। हालांकि शहर की कॉलोनियों से दूरी, जगह की कमी, पहाड़ी की चढ़ाई, सरकार की ओर से कोई इंतजाम नहीं होने के कारण अव्यवस्था ये कुछ परेशानियां भी थीं, लेकिन धमॅप्राण लोगों की आस्था के सामने ये कैसे बाधक बन पाते। लोगों ने पूणॅ भक्तिभाव से की भगवान भास्कर की आराधना---छठ मइया की अचॅना। सदॅ खुली रात में हजारों श्रद्धालु यहां रुके हुए थे, जो शनिवार सुबह उगते हुए भगवान दीनानाथ को दूसरा अघ्यॅ देने के साथ ही घर लौट गए। ......और इस तरह संपन्न हो गया यह चार दिवसीय महापवॅ।

Monday, November 12, 2007

सब मिल के आज बोलो जय छठी माई की


भगवान भास्कर से सारी सृष्टि आलोकित है, इसके कृतज्ञतास्वरूप वैदिक काल से ही विश्वभर में अलग-अलग तरीके से सूर्य की आराधना की जाती है , लेकिन दीपावली से छठे-सातवें दिन मनाए जाने वाले--छठ पर्व- में आस्था का जो स्वरूप दिखता है, उसका कोई सानी नहीं है। कोई समय था जब यह पर्व विशेष रूप से बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में मनाया जाता था, लेकिन बीतते हुए समय के साथ इसका अपार विस्तार हुआ है। अब यह पर्व कोलकाता से कोटा, मेरठ से मदुरै , गुवाहाटी से गंगानगर , मुम्बई से मुजफ्फरपुर, पटना से पुणे, शिलांग से शोलापुर , दीमापुर से दिल्ली और कटिहार से काठमांडू तक समान रूप से अपार श्रद्धा से मनाया जाता है।
पोखर-तालाबों, नदियों-नहरों के किनारों की साफ-सफाई की जाती है और इन्हें रंग-बिरंगी रोशनी से सजाया जाता है। इस सजावट और आतिशबाजी के आगे दिवाली की चमक भी फीकी सी पड़ जाती है। जिनके घर में यह पर्व मनाया जाता है, वे तो उपासना में रत रहते ही हैं, जिनके यहां पूजा नहीं होती , वे भी अगाध श्रद्धाभाव से इसमें हाथ बंटाते हैं।
एक और तथ्य है कि जितने भी देवी-देवताओं की पूजा होती है, उनमें से अधिकांशतया अदृश्य ही हैं। उनकी प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना की जाती है। इसका मतलब यह नहीं कि इससे उनका महत्व कम हो जाता है, लेकिन भगवान सूर्य एकमात्र ऐसे साक्षात देवता हैं, जिन्हें हम अपनी नंगी आंखों से देखते हुए उनकी उपासना में रत रहते हैं।
मैंने बात जिस मुद्दे पर शुरू की थी, उसे तो भुला ही बैठा। हुआ यूं कि बच्चे ने सेकंड टर्म की परीक्षा का टाइम टेबल दिखाया , जिसके अनुसार 15 नवंबर से उसकी परीक्षा शुरू हो रही है। इसमें शामिल नहीं हो पाने पर वह परीक्षा से वंचित रह जाएगा, बाद में परीक्षा लेने की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है। ऐसा राजस्थान जैसे अन्य राज्यों में भी होता होगा, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इन राज्यों में भी लघु या वृहद् स्तर पर -छठ पर्व- अवश्य ही मनाया जाता है। स्कूलों तथा दफ्तरों में अवकाश नहीं होने के कारण लोगों को व्रत-पूजा करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता ही है। ऐसे में क्या केंद्र सरकार इस पवॅ पर राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा नहीं कर सकती। ऐसा होने से लोग अपने पैतृक गांव जाकर भी यह पवॅ मना सकेंगे और उन्हें अवकाश के लिए चिंतित भी नहीं होना पड़ेगा।
धन्‍यवाद दिल्‍ली सरकार दिल्ली सरकार ने छठ पूजा के मौके पर इस बार भी ऐच्छिक अवकाश का ऐलान किया है। इसके अलावा दिल्ली सरकार ने हरियाणा सरकार से यमुना में अतिरिक्त पानी छोड़ने को भी कहा है, ताकि छठ के मौके पर दिल्लीवालों को यमुना में स्वच्छ पानी मिल सके।
दिल्ली के विकास मंत्री राजकुमार चौहान ने दिल्ली छठ पूजा आयोजन कमिटी के प्रमुख महाबल मिश्रा की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से मुलाकात के बाद यह घोषणा की।

Sunday, November 11, 2007

पूछो न कैसे दिन-रैन बिताई (दो)

दीपावली का त्यौहार मनाने का हर राज्य, जिला और कहें तो गांव तक का अपना-अपना विशिष्ट तरीका होता है। फिर बच्चों का क्या, वे तो इन तरीकों के जन्मदाता होते हैं, वे जो न कर बैठें, वह कम ही होगा। जब काफी छोटा था, (जहां तक याद कर पाता हूं) तो मां के साथ दीये जलाने का अलग ही आनंद होता था। कुछ बड़ा हुआ तो दीपावली की अगली सुबह सभी भाई-बहनों में होड़ होती थी कि कौन जल्दी जगेगा। कई बार तो हम इस चक्कर में सो भी नहीं पाते थे। पौ फटने से पहले ही हम बिस्तर छोड़ देते थे और मिट्टी के जले हुए दीये (जिन्हें हम गांव की भाषा में दीवौरी कहते थे)चुन-चुनकर इकट्ठा करते थे। दिन होते ही हमारी दुकान सज जाती थी। छोटे-छोटे हाथ पटसन की पतली रस्सी बांटते, पटसन की ही डंठल(संठी) से तराजू की डंडी और बड़े दीयों से तराजू के पलड़े बनाते थे। छोटी दीवौरियां मापने के काम आती थी। तौलना भी तो मिट्टी ही होता था और बेचना-खरीदना भी वही।
समझ बढ़ी तो खेल बदला, नाटक के प्रति रुझान बढ़ा। हम साथियों सहित दसेक दिन तक हिंदी की किताब में आए नाटक की रिहसॅल करते और फिर दीपावली की रात को बैडशीट व चादरों का परदा तानकर नाटक खेलते। गांव के हम भोले बच्चों की प्रस्तुतियों का इंतजार ग्रामीणों को बेसब्री से रहता था। उनकी तालियां और महज एक-दो रुपए के इनाम हमारे लिए किसी ऑस्कर से कम नहीं होते थे। जब हमने अपने टोले में चंदा कर नाटक के लिए पहली बार माइक किया था तो हमें जो खुशी हुई थी, वह राकेश शर्मा को चांद पर जाने के बाद भी नहीं हुई होगी। नाटक का शौक आगे भी बना रहा, लेकिन अब बीतते हुए समय ने मुझे कलाकार से कलाकारों का कद्रदान बना दिया है। पिछले 12-14 साल से किसी न किसी कारणवश दीपावली पर घर न जा पाने के कारण मन में जो मलाल रहता है, उसे किससे शेयर किया जाए,कुछ समझ नहीं पाता था, कई बार डायरी पर उतारने की कोशिश की तो आंखों के पानी से कागज भीग गया, लिखा नहीं जा सका। बीबी-बच्चे जिनके बचपन का परिवेश मुझसे सवॅथा ही भिन्न रहा है, वे मेरी टीस को क्या महसूस कर सकेंगे, सो उन्हें भी हमराज नहीं बना सका। इस बार ब्लॉग ने यह मंच उपलब्ध कराया तो सोचा कि इसे आपलोगों से ही शेयर करूं।
सॉरी, त्यौहार के इस उल्लास भरे मौसम में आपबीती ले बैठा, ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप सभी ऐसे हषॅ के क्षणों में उनके साथ हों, जिनके साथ रहने को आपका दिल करता है। धन्यवाद मेरी व्यथा को आपने आत्मसात किया।

पूछो न कैसे दिन-रैन बिताई (एक)

दीपावली पर शुक्रवार को सुबह से ही घर में उत्सवी माहौल था। परिवार भले छोटा हो, किराये का घर उससे भी छोटा, लेकिन खुशियां बड़ी लग रही थीं। श्रीमतीजी किचन में भांति-भांति के व्यंजन बना रही थीं। बच्चे की फरमाइश पूरी करते हुए देर रात ही फुलझड़ियां, अनार, जमीन चक्कर और न जाने क्या-क्या ले आया था, सो वह भी शाम की प्लानिंग में मस्त था। मैं चूंकि सुबह तीन बजे लौटा था, सो कभी सोने का बहाना करके तो कभी रेडियो पर समाचार सुनने के बहाने आंखें मूंदे लेटा रहा। पत्नी ने झकझोरा तो दोपहर को बाजार गया और पूजा के लिए फल-फूल, मिठाई और दूसरे सामान लाकर दुबारा लेट गया। शाम हुई तो श्रीमतीजी ने सज-धजकर घर से लेकर मंदिर तक दीपक जलाए तथा आधुनिका नारी होने के नाते बच्चे को आतिशबाजी में भी साथ दिया। पूजा के समय मैं नहा-धोकर तैयार हुआ और दशॅक की भांति श्रद्धाभाव से बेटे के साथ बैठ गया। मेरा मानना है कि गृहलक्षमी ही महालक्षमी का मनुहार करे तो वे आ सकती हैं, और फिर त्रियाहठ के वशीभूत होकर टिक भी सकती हैं, चंचला जो ठहरीं। आधुनिक तकनीक ने हमें बहुत ही आजादी दे दी है। कभी लंदन-अमेरिका में पंडितों की कमी के कारण टेप चलाकर सत्यनारायण भगवान की कथा की बात किसी मैग्जीन में पढ़ी थी। मैंने भी डीवीडी प्लेयर पर महालक्षमी पूजन का एमपीथ्री चला दिया (पिछले साल पंडितजी की प्रतीक्षा में १२ ही नहीं, १-२ तक बज गए थे) और श्रीमतीजी उसी का अनुसरण करती हुई पूजा करती रहीं। आरती के दौरान स्पीकर से जब हम तीनों के समवेत स्वर मिले तो वातावरण वाकई भक्तिपूणॅ हो गया था। महालक्षमी की रखवाली का दायित्व घरवाली को सौंपकर गुरुजनों का आशीष लेने मैं निकल गया। माता-पिता से दूर रहने की एक कसक यह भी होती है ऐसे सुअवसरों पर उन सुपात्रों की तलाश करनी पड़ती है, जिनके चरण श्रद्धाभाव से छू सकूं, औपचारिकता पूरी करने भर के लिए नहीं। देर रात घर लौटा और फिर उन्हीं यादों में खो गया, जिन्होंने दिनभर मेरे अवचेतन मन को मथकर रख दिया था।
आगे की बातें फिर करेंगे....

Thursday, November 8, 2007

ज्योतिपवॅ दीपावली पर मंगलकामनाएं



दीवाली का पवॅ अलौकिक
नव ज्योति जगमगा रही,
जन-जन का पथ आलोकित हो
यह अभिलाषा जगा रही।।

दीवाली का पवॅ सुनहरा
आतिशबाजी न्यारी-न्यारी,
देख पटाखे और फुलझड़ियां
बच्चों की गूंजे किलकारी।

यहां-वहां हर गली-मोहल्ला
जिधर देखिए उधर तैयारी,
खुशियां बांटें, नाचें गाएं
बच्चे-बूढे़ सब नर नारी।

साभारः भाई किशन

धन की देवी मां लक्षमी और बुद्धि के दाता भगवान विनायक की कृपादृष्टि आप और आपके परिजनों, मित्रजनों पर बनी रहे इन्ही शुभकामनाओं के साथ
आप सबका सुहृद
मोहन मंगलम्

Wednesday, November 7, 2007

कैसे मना पाएंगे दिवाली


बड़ी अजीब बात है। अपने देश में हर कोई अपने-अपने तरीके से अपनी दुनिया को रोशन करने की जुगत में लगा हुआ है। अभी पिछले दिनों अखबारों में खबर पढ़ी कि लंदन में भी दिवाली फेस्टिवल मनाया जा रहा है और मैं हूं कि इसी चिंता में घुला जा रहा हूं कि कैसे हम मना पाएंगे दिवाली, किस मुंह से खाएंगे मिठाई। ....और घृष्टता की हद ये कि आपको भी खुशी के इस मौके पर हास्य-व्यंग्य की फुलझड़ियों की बजाय इन नीरस शब्दों को पढ़ने के लिए विवश कर रहा हूं।
एक तथ्य तो यह है कि सेंसेक्स आसमान छू रहा है, मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, एल. एन. मित्तल, वो डीएलएफ वाले , विप्रो वाले अजीमजी और ऐसे कितने उद्योगपति सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं, भारत में अरब-खरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, लेकिन गरीब हैं कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहे। या तो सरकारी योजनाएं मन से लागू नहीं की जातीं, या फिर उन्हें चलाने वाले उनसे भी ज्यादा गरीब होते हैं, जिनके लिए ये योजनाएं बनाई जाती हैं। कुछ ऐसे लोग सब्जियों का ठेला लगाकर, साइकिल पर फेरी लगाकर रेडिमेड कपड़े-साड़ियां बेचकर, गली-मोहल्ले में छोटी सी दुकान खोलकर खाने-कमाने लायक कमा लेते थे, वे सभी रिलायंस फ्रेश, बिग बाजार, स्पेंसर जैसी रिटेल चेन व बड़े-बड़े मॉल खुलने से बेरोजगार हो गए। लाखों लोग आतिशबाजी कर अपने सुखों का ढिंढोरा पीटेंगे तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ढोल बजाकर पैसे मांगते हैं और जैसे-तैसे दीवाली मनाने का जुगाड़ कर पाते हैं। जिनका स्वाभिमान इसकी भी इजाजत नहीं देता वे तो मन मसोसकर ही रह जाने को विवश होंगे। ऐसे में सही मायने में दीवाली मनाना तभी साथॅक हो सकेगा जब हम सभी अपने-अपने स्तर से ऐसे बेबस लोगों के चेहरे पर खुशियों की चमक लाने का अंजुरीभर प्रयास करें, ईश्वर ने कुछ दिया है तो उसको देने में संकोच कैसा। मां लक्षमी से भी प्राथॅना कि कभी तो उन अभागों के द्वार का भी रुख करो। कुबेरों के पास तो आप डेरा जमाए ही रहती हैं।
सबके जीवन में प्रसन्नता की ज्योति का निखार हो, इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ.........

Tuesday, November 6, 2007

अच्छा तो हम चलते हैं....


...अरे ये क्या....आप तो कुछ और ही सोचने लगे। मैं ब्लॉग की दुनिया में अभी-अभी तो आपसे जुड़ा हूं और अभी आपसे बहुत सारी बातें करनी हैं। आप ब्लॉगसॅ की भावनाओं के समंदर में उतरना है। ऐसे में मैं कहां जाऊंगा आपको छोड़कर। मैं तो जिक्र कर रहा हूं पिंकसिटी के जवाहर कला केंद्र में चल रहे सांस्कृतिक उत्सव---लोकरंग २००७---का। सुदूर पूरब-उत्तर के मणिपुर, मेघालय, सिक्किम से लेकर पश्चिम में गोवा, महाराष्ट्र, गुजरात, दक्षिण में आंध्र प्रदेश, करनाटक, उड़ीसा, मेजबान राजस्थान, पड़ोसी पंजाब-हरियाणा, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के लगभग डेढ़ हजार कलाकारों ने लगातार ग्यारह दिनों तक अपने-अपने प्रदेशों की संस्कृति का रंग जब बिखेरा, तो दशॅक उसमें रंग से गए। जवाहर कला केंद्र के प्रशासनिक अधिकारी राजीव आचायॅ ने अपने नित नूतन परिधान औऱ शब्दों की जादूगरी से अमिट छाप छोड़ी।
इसके अलावा केंद्र के शिल्पग्राम में लगे शिल्प मेले में २२ प्रांतों के शिल्पियों ने अपनी बेजोड़ कलाकृतियां सजाईं। फूड स्टॉल्स पर भी विभिन्न राज्यों के चटपटे व्यंजनों का भी लोगों ने खूब लुत्फ उठाया।
सोमवार को ग्रांड फिनाले के साथ लोकरंग का समापन हुआ और अगले वषॅ फिर अक्टूबर-नवंबर में मिलने के वादे के साथ सभी कलाकार दीपावली मनाने अपने घरों को रवाना हो गए। तो इंतजार करें एक और ---लोकरंग---का।

Sunday, November 4, 2007

.....तो क्या प्रेमचंद पोखर खुदवाते

आइए, आज आपको अपने गांव ले चलता हूं। जिन गिनी-चुनी प्रतिभाओं की बदौलत हमारे गांव की ख्याति राष्ट्रीय क्षितिज पर हैं, उनमें मैथिली अथ च हिंदी के भी स्वनामधन्य साहित्यकार व दशॅनशास्त्री हरिमोहन झा अग्रगण्य हैं। दसवीं के बाद से ही पहले पढ़ाई, फिर आजीविका के सिलसिले में लगातार गांव से बाहर रहने के कारण मैं भी उनकी कृतियों का आनंद नहीं ले सका। बमुश्किल दो-चार मैथिली कहानियां ही पढ़ पाया था। आजकल मुझ पर पढ़ने की धुन सवार है, सो हाल ही साहित्य अकादमी से प्रकाशित उनकी प्रतिनिधि कहानियों का संकलन--बीछल कथा (मैथिली)--और हास्य-व्यंग्य विधा की पुस्तक---खट्टर काका (हिंदी में)---पढ़ने का अवसर मिला। पढ़ा तो पढ़ता ही गया और दोनों पुस्तकें पूरी करके ही दम लिया। उनकी शेष रचनाएं भी मंगाने के लिए प्रयासरत हूं ताकि उनके समग्र कृतित्व से परिचित हो पाऊं। मैथिली में प्रकाशित उनकी रचनाओं का आज भी मिथिला क्षेत्र में क्या जलवा है, इसे तो वहां जाकर ही महसूस किया जा सकता है, उनकी अधिसंख्य रचनाएं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्वीकृत हैं।----खट्टर काका--- तो प्रकाशन काल से ही अखिल भारतीय स्तर पर (किंवा भारत से बाहर भी) साहित्यप्रेमियों की पसंद और चरचा का विषय रही है।
अब वो बात, जिसने मुझे प्रेरित किया यह सब लिखने को। जयपुर में हाल ही प्राथमिक शिक्षकों का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इसमें भाग लेने के लिए मेरे गांव से भी एक सेवानिवृत्त शिक्षक पधारे। मैंने सहज जिज्ञासावश उनसे स्वनामधन्य हरिमोहन झा के बारे में गांव और ग्रामीणों की राय के बारे में पूछा। अगला वषॅ उनका जन्म शताब्दी वषॅ होगा।
मास्टर साहब का कहना था कि हरिमोहन झा ने अपने लेखन से साहित्य जगत को भले ही उपकृत किया हो, लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों में अपनी जगह बनाई हो, साहित्यप्रेमियों के लिए पूज्य बने हों, लेकिन गांव या गांव वालों के लिए क्या किया।
इस जवाब ने मुझे झकझोरकर रख दिया। मैं कुछ समझ नहीं पाया कि एक नौकरीपेशा आदमी ऐसा क्या करे कि गांव वाले उपकृत हो सकें। प्लेस ऑफ वकॅ तथा नेचर ऑफ वकॅ और फिर सीमित मात्रा में उससे प्राप्त धन से अपना व अपने परिवार का गुजर-बसर करना क्या कम कठिन होता है। मुंशी प्रेमचंद ने जिस मुफलिसी में दिन काटे यह किसी से छिपा नहीं है, ऐसे में जनसेवा के लिए वे पोखर कैसे खुदवा पाते। तो क्या लमही (प्रेमचंद का जन्मस्थान) के लोग उन्हें भुला दें। गोस्वामी तुलसीदास का जीवन काल जिस तरह बीता, मुझे नहीं लगता कि उन्होंने अपने पैतृक गांव में तुलसी के दस-बीस बिरवे भी लगाए होंगे। निराला ने अपनी जन्मस्थली में कितने स्कूल खुलवाए? तो क्या इसी बिना पर उन्हें भुला दिया जाए।
मेरा तो मानना है कि आपके इदॅ-गिदॅ से निकले मुकेश-अनिल अम्बानी, एल. एन. मित्तल सरीखे धनकुबेर अकूत दौलत और ख्याति कमाने के बाद यदि अपनी जन्मस्थली को बिसरा दें, हां की जनता के कल्याण के लिए कुछ भी न सोचों तो आप भी बेशक उन्हें बिसरा दें, इससे आपका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा। आप यदि कतॅव्यपथ पर अग्रसर रहे, तो आपको भी जीने का रास्ता मिल ही जाएगा, लेकिन समाज को राह दिखाने वाले साहित्यकारों की उपेक्षा से आने वाली पीढियां उनके मागॅदशॅन से वंचित रह जाएंगी।
अतः मेरा निवेदन है कि आपके आसपास यदि कोई ऐसी विभूति हुई है, जिसने अपनी विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवाया है, तो उसके जीते-जी अथवा दिवंगत होने पर भी उनसे परिचित हों, गौरवान्वित महसूस करें, आने वाली पीढियों को भी परिचित कराएं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण बंगाली समाज में मिलता है जहां गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की ---गीतांजलि---को गीता से कम महत्व प्राप्त नहीं है। अधिकांश घरों में आपको यह अमर कृति मिल जाएगी।

Saturday, November 3, 2007

कुछ मीठा हो जाए ...


त्यौहार का माहौल है, बाजार सज रहे हैं, सपने खिल रहे हैं, उनमें रंग भरने के प्रयास जारी हैं। ऐसे शुभ दिनों में उन लोगों को भी मिठाई का स्वाद लेने का मौका मिल सकेगा, जो पहले इनके बारे में सोचकर ही रह जाते थे। जी हां, यह सब कुछ संभव हो रहा है गोमाता की कृपा से।
........तो चलें हम उस स्थान विशेष पर। राजस्थान के अजमेर जिले का एक शहर है किशनगढ़। वहां रहती हैं किन्नर सुरेश उफॅ सुशीला। (भाषा में लिंग निरधारण नहीं कर पा रहा हूं, सो स्त्रीलिंग ही मान लें ) उन्होंने दो गायें पाल रखी हैं मोना और गीता। तो यूं हुआ कि पिछले साल दीपावली पर इन गायों ने किशनगढ़ बाजार में मिठाई की दुकान पर मुंह मार दी, तो हलवाई ने उन्हें पलटे की दे मारी। गोपाल-भक्त और गोप्रेमी सुशीला को इससे बड़ी ठेस पहुंची और उन्होंने उस हलवाई को सबक सिखाने के लिए मिठाई की अस्थायी दुकान खुलवा दी। इस दुकान पर २५ रुपए किलो में शुद्ध घी की मिठाइयां खरीदने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी।
इसी सुशीला ने इस बार भी किशनगढ़ के एसडीएम राजेंद्र सारस्वत से चार स्थानों पर दुकानें खोलने की अनुमति मांगी है। इन दुकानों पर देशी घी की मिठाइयां १० रुपए किलो और वनस्पति घी की मिठाइयां ५ रुपए किलो मिलेंगी। उन गायों को पलटे मारने वाला हलवाई अपनी किसम्त के पलटा खाने की कसक से उबर नहीं रहा होगा, उसकी गलती की सजा शहर के दूसरे हलवाइयों को भी भुगतनी पड़ रही है, लेकिन इसका दूसरा उज्ज्वल पहलू है कि अब ऐसे हजारों बच्चे ही नहीं, उनके मां-बाप भी मिठाइयों का लुत्फ उठा सकेंगे, जो लाचारी के कारण ललचाई आंखों से मिठाइयों को ताकने भर के लिए ही मजबूर हुआ करते थे।
बढ़ती महंगाई के दौर में कीमतें कम नहीं होंगी, इसका अहसास तो हमें भी है, लेकिन यह आशा तो हम कर ही सकते हैं कि तरक्की की रफ्तार बढ़ती रहेगी, हर हाथ को काम मिलेगा और जेब में दाम होंगे। फिर -----मन के लड्डू फीके क्यों.......वाली कहावत को मानवता झुठला सकेगी। तो हम कृतज्ञता ज्ञापित करें सुशीला किन्नर के प्रति और कामना करें कि जब उसका हृदय मूक पशु के लिए द्रवित हो सकता है तो हमारी आंखें भी दीन-हीन मनुपुत्रों के दुख से नम हो सकेंगी।

Thursday, November 1, 2007

बिना ताम-झाम के तो...

आज शाम को एक ब्लॉगची मित्र के साथ नाश्ता करने गया। दुकान तो छोटी सी थी, लेकिन जैसा नाश्ता मिला, मन प्रफुल्लित हो गया। बदले में पैसे तो देने ही थे, लेकिन मुफ्त में सलाह देने की भारतीय आदत (रिलायंस कम्युनिकेशन के एक विज्ञापन में जैसा बताया जाता है) भी कहां छूटती है। मैंने दुकानदार को फटाफट सलाह दे डाली कि भाई, बाहर रंगीन बैनर लगवाओ, जिसमें आपकी दुकान की विशेषता और चटखारे व्यंजनों का बखान हो। इस पर साथ बैठे मित्र बेसाख्ता बोल उठे--आजकल तो बिना ताम-झाम के मुरगी भी अंडे नहीं देती। यह सुनते ही मेरे मन में कुछ कौंधा और मैं फ्लैशबैक में चला गया।
मित्र की बात में कितना दम है, यह तो वे भी नहीं बता पाए, और इसका सत्यापन करने के लिए महानगर में मुरगियां कहां से आएं, लेकिन पिछले दिनों इस मामले में मेरी जो ज्ञानवृद्धि हुई थी, उसे आपसे शेयर करते हैं।
.......तो यूं हुआ कि मैं पिछले मई-जून में एक परिचित के यहां गया था। वे मुझे अपनी पॉल्ट्री फामॅ दिखाने ले गए। रात के करीब दस बजे थे। फामॅ में २००-२०० वाट के बल्व जेनरेटर के बल पर जल रहे थे। मैंने पूछा कि भाई क्या मुरगियों को अंधेरे में नींद नहीं आती कि आपने बिजली नहीं रहने पर जेनरेटर चला रखा है। इस पर उन्होंने जो राजफाश किया, उससे मैं तो दंग रह गया। उन्होंने कहा कि रात में यह लाइट इसलिए जलाई जाती है कि मुरगियों को रात का अहसास न हो औऱ वे दिन के भ्रम में अनवरत दाना खाती रहें और मुटियाती रहें। मैं उनके इस जवाब से हक्का-बक्का सा रह गया। आदमी ने अपने लाभ के लिए क्या-क्या तरकीब निकाल लिए हैं। निरीह प्राणियों को निवाला बनाना तो न जाने प्रागैतिहासिक काल से ही चला आ रहा है, उन पर अत्याचार के कैसे-कैसे तरीके ईजाद किए जा रहे हैं। भगवान बचाए ऐसे आदमी से इन प्राणियों को, इस दुनिया को न जाने कब क्या सोच ले, कर डाले।

सपने में हकीकत से रू-ब-रू


भारतीय मनीषियों ने शकुन विचार पर कई सारे ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें सपनों के फलाफल पर काफी कुछ कहा गया है। आधुनिक मनोविश्लेषक फ्रायड ने भी चेतन--अवचेतन--और अचेतन का आधार लेकर सपनों के कारणों का बड़ा ही गहन विश्लेषण किया है।
तो आइए, आज आपको भी ले चलता हूं सपनों की दुनिया में।
आज के जमाने में जब कभी पुलिस की बात चलती है तो हमारे जेहन में पुलिस की जो छवि उभरती है, वह कामचोर, तोंदू, भ्रष्टाचारी और रौब जमाने वाले की ही होती है। आम आदमी या तो उसकी घुड़की से खौफजदा रहता है या फिर निकम्मेपन से खफा। कवियों के व्यंग्य प्रहार हों या कारटूनिस्ट की कूची, वे कभी भी पुलिसमैन को नहीं बख्शते। इसमें उनकी कोई गलती नहीं होती, न ही वे किसी पूरवाग्रह से ग्रस्त होते हैं। हालात ही ऐसे हैं कि सुस्ती और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी पुलिसिया व्यवस्था ने इसे हीरो से विलेन की कतार में ला खड़ा किया है। ऐसा नहीं है कि कतॅव्यपरायण पुलिसवाले हैं ही नहीं, ऐसे गिने-चुने चरित्र हमारे समाज में आज भी हैं और वे रोल मॉडल भी हैं। उनके साथ कुछ गलत होता है तो इलाके की पूरी जनता उनके साथ आ खड़ी होती है।
यह क्या, मैं सपना सुनाते-सुनाते कहानी सुनाने लगा। वापस आता हूं सपने पर। हां तो मैंने देखा कि मैं एक व्यस्ततम बाजार में मित्रों के साथ चाय की थड़ी पर बैठा हूं। अचानक पुलिस की जिप्सी आकर रुकती है, उसमें एक सबइंस्पेक्टर टाइप का खाकी वरदीवाला उतरता है तथा काफी तेजी में लहराते हुए आ रहे साइकिल सवार किशोर को रोककर उसके सामने सवालों की बौछार लगा देता है। साथ में यह नसीहत भी कि वाहन कोई भी चलाओ, सावधानी तो रखो ही, अन्यथा हादसे तो राह में मुंह बाए खड़े रहते हैं।
एक पुरानी सी मोपेड खड़ी है। उस पर नए मोबाइल हैंडसेट्स से भरे दो धैले लटक रहे हैं। पुलिस वाला उसके वारिस को आवाज लगाता है, काफी देर बाद बदहवास सा एक अधेड़ गलियों में से निकलता है तो वह एसआई उसे कहता है कि इस तरह कीमती सामान को लावारिस छोड़ना क्या उचित है। यदि आपका सामान चोरी चला जाएगा तो आप पुलिस व्यवस्था को दोष दोगे, कुछ तो आपका भी फजॅ बनता है।
माहौल में सन्नाटा सा छा जाता है। लोग खुसर-फुसर करते हुए पुलिस वाले की भूमिका पर बातें करने लगते हैं। इसी बीच पुलिस वाला हमारे बीच चाय की थड़ी पर आकर बैठ जाता है और हमें बताने लगता है कि हम पुलिस वालों ने खुद ही अपनी छवि बिगाड़ ली है। आज समाज में हमारी जो छवि है, उसके जिम्मेदार भी हमीं हैं। यदि पुलिस चौकस और चुस्त होकर दिलेरी से अपना काम करे तो जनता भी उसे दुश्मन नहीं दोस्त मानकर अपनी परेशानियां बता सकती है, अपराधियों को पकड़वाने में मदद कर सकती है। कद्र का कारवां कतॅव्यपरायणता की राह से होकर गुजरता है। यदि पुलिसवाले अपनी ड्यूटी को तरीके से अंजाम दें तो कोई शक ही नहीं समाज में उनकी इज्जत होगी।
इसी बीच मेरी नींद खुल गई। सपने में दी गई पुलिसवाले की सीख पर यदि हकीकत में अमल किया जाए तो वाकई व्यवस्था सुधर सकती है। ऐसी कामना तो हम करें ही। अंत में उधार की पंक्तियां लेकर यही अजॅ करूंगा.......
जो अब भी नहीं गौर फरमाइएगा,
तो बस हाथ मलते ही रह जाइएगा।