1990 के दशक की बात है। बीए की पढ़ाई अंतिम चरण में थी। हमारे सीनियर साथी और गहरे मित्र बीएससी पास करने के बाद करिअर को नई दिशा देने के लिए दिल्ली जाने वाले थे। वैसे तो वे अकेले ही जा रहे थे, लेकिन हमारे सपने भी उनके हमराही थे। ट्रेन के सफर में राहजनी का खतरा भांपते हुए उनके लिए ट्रैवलर्स चेक बनवाने हम दोनों साथ-साथ मुजफ्फरपुर में कल्याणी मार्केट स्थित एसबीआई की ब्रांच में गए। वहां बैंककर्मियों की मेहरबानी से काफी देर लगी और शायद हम दोनों की यह अंतिम सबसे बड़ी मुलाकात थी।
दिल्ली में कुछ दिनों रहने के बाद नियति उन्हें पूर्वोत्तर ले गई, जहां किसी प्राइवेट स्कूल में वे केमिस्ट्री पढ़ाने लगे। मैं भी पढ़ाई पूरी होने के बाद तीन-चार साल किशनगंज रहा और फिर जयपुर आ गया। गुलाबी नगर में पत्रकारिता मेरी आजीविका का साधन बन गई । इस बीच बिहार के सरकारी स्कूलों में वैकेंसी निकली, जिसमें चयन के बाद मेरे प्रिय मित्र बिहार लौट आए। पत्रों के माध्यम से हमारा संपर्क बना रहा, लेकिन प्रमाद कहें या आलस्य, कुछ दिनों बाद संवाद खत्म हो गया।
लंबे अरसे के बाद फेसबुक पर हम दोनों के एक कॉमन मित्र के जरिये उनका मोबाइल नंबर मिला तो संवाद पुन: शुरू हुआ । बात करने से मन ही नहीं भरता। मिलने की चाहत अंगड़ाई लेने लगी। साल में एकाध बार गांव जाना होता ही था, सो समय निकालकर उनके शहर पहुंचने का कार्यक्रम बनाया। बिहार में सफर में लगने वाला समय दूरी से नहीं, बल्कि सड़कों की दयनीय हालत और वक्त-बेवक्त लगने वाले जाम से तय होता है। सो दोपहर में पहुंचने की सोचकर घर से निकला था, लेकिन सूर्यास्त होने तक मंजिल दूर थी। नया शहर, अनजान डगर, सो मित्र बाइक लेकर बस स्टैंड आ गये थे।
उनके आवास पर पहुंचा, तो आदत के अनुकूल बिजली गुल थी। रात के अंधकार को मिटाने के लिए मोमबत्ती का संघर्ष जारी था। ऐसे में जब मित्र ने मेरा परिचय कराया तो उनके दोनों ही बच्चे बोल पड़े-चिट्ठी वाले अंकल! भाभीजी ने भी बताया कि उन्होंने मेरे भेजे गए पत्र आज तक संजोकर रखे हुए हैं। दरअसल उन्होंने पत्रों को नहीं, बल्कि हमारी भावनाओं और दोस्ती को सहेजकर रखा है।
आज सुबह एक मित्र को फोन किया तो कॉॅलेज में पढ़ने वाली उसकी बिटिया बोल उठी-पापा, जन्मदिन पर काव्यमय बधाई देने वाले अंकल का फोन है। ऐसे में सहसा ही यह वाकया याद आ गया।
January 05 2018
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