Saturday, October 26, 2019

गुस्सा कैसे थूक दें


गैलरी में खड़े एक बुजुर्गवार मोबाइल फोन पर किसी को समझा रहे थे-अब गुस्सा थूक भी दो। आप बेवजह ही उसकी बात को इतना महत्व देते हो। वह तो इस लायक है ही नहीं। मैं तो उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं देता....। बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं कि किसी की बातचीत नहीं सुननी चाहिए, लेकिन जब ये बात कही गई थी, तब मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे। आज जब मोबाइल हमारी दिनचर्या में शामिल हो गया है, तो लोग इसे यूज करने के एटिकेट्स नहीं जानते। और जो जानते भी हैं, वे भी इनका पालन करने में अपनी तौहीन समझते हैं। कई बार तो इतनी ऊंची आवाज में बात करते हैं कि सुनने वाला बिना मोबाइल फोन के भी उनकी बातें सुन ले। खैर, 15-20 मिनट बाद दुबारा किसी काम से उधर जाना हुआ तो देखा कि बुजुर्गवार अब भी मोबाइल पर पिले हैं। पहले से भी अधिक ऊंची आवाज में बार-बार एक ही नसीहत पेले जा रहे हैं-अरे भाई, गुस्सा थूक दो। उनके इस अड़ियल रवैये ने मुझे भी सोचने पर विवश कर दिया कि इतना समझाने के बाद भी आखिर वह शख्स गुस्से को क्यों नहीं थूक पा रहा है। उस शख्स की क्यों, कोई भी इस तरह गुस्से को नहीं थूक सकता और इसकी पुख्ता वजह भी है। दरअसल गुस्सा मन में जन्म लेता है और बड़ी ही तेजी से दिल और दिमाग में पहुंच जाता है। इसके बाद गुस्सा से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं हो पाता। और फिर अंजाम...बुखार जब शरीर में हो तो उतारना आसान होता है, लेकिन दिमाग में चला जाए तो...फिर तो यह जान लेकर ही मानता है। यही हाल दिल का है। शरीर का कोई अंग काम करना बंद कर दे तो आदमी लाचार होकर ही सही, जीवन जी सकता है, लेकिन दिल काम करना बंद कर देता है तो जीवन की कहानी ही खत्म हो जाती है। इसी तरह गुस्सा जब मन में आए, तभी उसे खत्म करना आसान होता है, लेकिन जब गुस्सा दिल और दिमाग तक पहुंच जाता है, फिर तो आदमी अंजाम की फिक्र किए बगैर कुछ कर ही गुजरता है। भले ही बाद में इसके लिए पछताना क्यों न पड़े। ...तो कोशिश ऐसी होनी चाहिए कि गुस्सा आने ही न दें। हालांकि यह काम इतना आसान नहीं है, क्योंकि इसमें खुद से अधिक भूमिका उन लोगों की होती है, जिनकी वजह से हमें गुस्सा आता है। फिर भी अपने स्वभाव में गुस्सा को जगह न देने की कोशिश तो की ही जा सकती है। 05 May 2018

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