Saturday, January 9, 2021

तिलबा, लाई, चुल्लर, कसार....

तिलबा, लाई, चुल्लर, कसार...मकर संक्रांति के उपहार

बचपन के दिन भी क्या दिन थे। तब बिहार में स्कूल का सेशन जनवरी से दिसंबर तक होता था। दिसंबर के दूसरे हफ्ते तक वार्षिक परीक्षा संपन्न हो जाती और 22-23 दिसंबर तक रिजल्ट घोषित कर दिया जाता। इसके बाद बड़ा दिन की छुट्टी शुरू हो जाती जो नववर्षारम्भ तक चलती। कहने को तो 2 जनवरी को स्कूल खुल जाते, लेकिन हर विद्यार्थी के लिए अगली कक्षा की किताबें-कॉपी आदि समय से खरीदना संभव नहीं हो पाता था। इसलिए पढ़ाई की विधिवत शुरुआत गणतंत्र दिवस के बाद ही हो पाती थी। ऐसे में हम बच्चों के लिए यह समय छुट्टियां मनाने का ही हुआ करता था। इस दौरान कभी धान की कटाई के समय खेतों का रुख करना तो कभी खलिहान में धान की दउनी (थ्रेशिंग) के समय मेहा में बंधे बैलों को हांकना हमारा मुख्य शगल हुआ करता था।

सनातन परंपरा के अनुसार हिंदू धर्म के पर्व-त्योहार हिंदी महीनों के हिसाब से मनाए जाते हैं। होली कभी मार्च में आती है तो कभी अप्रैल में, दिवाली कभी अक्टूबर की शुरुआत में मनाई जाती है तो कभी नवंबर के अंतिम हफ्ते तक इंतजार करना पड़ता है। मगर यह पक्का था कि मकर संक्रांति 14 जनवरी को ही मनाई जाएगी। इसलिए दिसंबर खत्म होने के साथ ही हम मकर संक्रांति के दिन गिनने लगते थे।

हमारा देश शुरू से ही कृषि प्रधान रहा है। पहले लोगों के पास नकदी की आमदनी न के बराबर थी। इसलिए आम जनजीवन में बाजार का दखल कम ही हुआ करता था। जिस इलाके में जिस फसल की बहुतायत होती थी, वहां के पर्व-त्योहार से लकर यज्ञ-प्रयोजन तक में भी उन्हीं वस्तुओं का इस्तेमाल हुआ करता था। उन दिनों हमारे यहां धान की ही खेती प्रमुख रूप से होती थी, सो मुख्य भोजन चावल ही हुआ करता था। सामान्य तौर पर रोज ही दिन या रात में भात और विशेष अवसर पर खीर। तब हर परिवार में दो-चार गाय-भैंस-बैल निश्चित रूप से होते थे, ऐसे में दूध-दही की चिंता की बात ही नहीं थी। गन्ना की भी खेती होती थी और कोल्हू से खुद ही गुड़ बनाया जाता था।

इस तरह चावल, चिवड़ा, गुड़, दूध-दही सभी चीजें घर में ही होतीं। शायद इसीलिए हमारे यहां मकर संक्रांति पर चिवड़ा-दही और लाई-कसार-तिलबा आदि खाने की परंपरा रही है। घरों में मकर संक्रांति के कई दिन पहले से ही चिवड़ा के लिए ओखली और मूसल के बीच धान की धुनाई शुरू हो जाती। लाई-कसार-तिलबा आदि के लिए गुड़ की चाशनी बनाना बड़ा मुश्किल भरा काम होता है। हर छह-सात घर के बीच कोई चाची या दादी इसमें निष्णात होती थीं, जिनकी पूछ-परख इस मौके पर बढ़ जाया करती थी। उनके बिजी शिड्यूल का ख्याल रखते हुए 14 जनवरी से एकाध हफ्ता पहले ही घरों में लाई-कसार आदि बनाने का सिलसिला शुरू हो जाता।

आज से पैंतीस-चालीस साल पहले शहरों में भी हर किसी के लिए रसोई गैस कनेक्शन लेना आसान नहीं था, फिर गांवों में तो इसके बारे में सोच भी नहीं सकते थे। तब गांवों में संयुक्त परिवार हुआ करते थे, ऐसे में महिलाओं का काफी समय चूल्हे के पास ही जैसे तैसे उपलब्ध जलावन से भोजन पकाने में बीतता था। ऐसे में मकर संक्रांति पर लाई आदि बनाने का अतिरिक्त बोझ उन पर आ जाता। इसके लिए बड़ी मात्रा में मूढ़ी (लइआ), चावल आदि को भूनने के लिए अपेक्षाकृत अच्छे जलावन की जरूरत होती थी। चूंकि यह समय खेती-किसानी के लिहाज से अधिक महत्वपूर्ण होता था और परिवार के पुरुष उसी में व्यस्त रहते थे। ऐसे में हम भाई-बहन कुल्हाड़ी आदि लेकर गाछी चल देते और सूखी लकड़ियां काटकर लाते, ताकि मां और चाचियों को लाई-कसार बनाने में सुविधा रहे। इससे उनकी नजरों में हमारा रुतबा बढ़ जाता और हमारी छवि अच्छे बच्चे की बन जाती थी।
बदलते हुए समय के साथ बहुत कुछ पीछे छूट गया।

 पच्चीस साल से भी ज्यादा हो गये, मकर संक्रांति पर गांव जाने का सुअवसर नहीं मिल पाया। इस बीच खाने वाली ही नहीं, बनाने वाली पीढ़ी भी बदल गई। अब तो न जाने गांव में भी कैसे मनती होगी मकर संक्रांति...।
कल देर रात फेसबुक वॉल पर तिल के लड्डू की फोटो देखी तो रात भर सपने में खुद को कभी गाछी में लकड़ी काटते तो कभी मकर संक्रांति के दिन तड़के स्नान के बाद गांती बांधे घूरा (अलाव) तापते हुए लाई-तिलबा खाते पाया। नींद खुलने पर इन यादों को शब्दों में संजोने से खुद को नहीं रोक पाया।

ऐसे पड़े नाम

धान को पानी में भिगोने के बाद हल्की आंच पर छोड़ दिया जाता था। सुखाकर उसे कूटने के बाद बने चावल को भूनने पर वह मूढ़ी की तरह फूल जाता, जिसके गोल लड्डू जैसे बनाए जाते, जिसे लाई कहते हैं। चिवड़ा (पोहा) को भूनकर उसकी भी लाई बनाई जाती थी, जिसे चुल्लर कहते। जनेरा (बाजरे की प्रजाति का मोटा अनाज) को भूनकर उसकी भी लाई बनाई जाती। चावल को भूनकर उसका आटा पीसकर उसका कसार बनाया जाता। ये सभी आकार में गोल होते थे, जबकि काले तिल का तिलबा पेड़ा की तरह चिपटा हुआ करता। इन सभी को बनाने में एक चीज जो कॉमन होती थी, वह थी गुड़ की चाशनी।

खिचड़ी के क्या कहने...
मकर संक्रांति पर दिन में चिवड़ा-दही, लाई-तिलबा का जलवा रहता तो शाम में खिचड़ी की खुशबू से घर मह-मह करता। यह खिचड़ी भी मजबूरी वाली खिचड़ी नहीं होती थी कि सब्जी न होने पर या फिर बनाने में आलस के चलते चावल-दाल में हल्दी-नमक डालकर बना ली जाती हो। मकर संक्रांति पर बनने वाली खिचड़ी बहुत ही खास हुआ करती थी। भांति-भांति की सब्जियों, मटर के दानों, आम मसालों के साथ गरम मसाले की संगति और धनिया के पत्तों की खुशबू मकर संक्रांति पर बनने वाली खिचड़ी को वीवीआईपी भोजन का दर्जा दिला देती। ... और घी, दही, पापड़ और अचार रूपी चार यार का साथ मिल जाने पर यह खिचड़ी इतनी स्वादिष्ट हो जाती कि लोग अंगुलियां चाटते रह जाते। इस खास खिचड़ी का इंतजार हम अगली मकर संक्रांति तक करते थे।  

चलते-चलते
लहरा की लहर...

इस मौसम की बात करें तो हमारी बाल मंडली कई बार चने और खेसारी के खेत की ओर भी कूच करती। वहां पड़ोस के खेत से तोड़ी गई हरी मिर्च और घर से साथ में ले जाए गए नमक और अचार मिलाकर केले के पत्ते पर तैयार किए गए खेसारी और चने के लहरा की दावत उड़ाई जाती। उसका स्वाद याद कर आज भी बरबस ही मुंह में पानी भर आता है।

चित्र इंटरनेट से साभार

वेदना-संवेदना

कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी ने वर्ष 2020 में हम सभी को घरों में कैद रहने के लिए विवश कर दिया था। अब नया साल 2021 दस्तक दे चुका है और हम सभी उन पुरानी कड़वी यादों को भुलाकर एक नई आशा-उम्मीद से भर गए हैं। आखिर कब तक सीमाओं में बंधा रहा है मानव।  

    आज दोपहर में एक मित्र से मिलने गया। वे मोबाइल पर किसी से बात कर रहे थे। आजकल यह सब बहुत आम है। मैं उनके फ्री होने का इंतजार करने लगा। चूंकि वे ईयर फोन लगाकर बात कर रहे थे, ऐसे में इकतरफा संवाद सुनने से पूरा माजरा मेरी समझ में आना मुश्किल था। मगर मित्र के चेहरे पर आते-जाते भाव यह इशारा जरूर कर रहे थे कि मेरी उपस्थिति को इग्नॉर करते हुए लंबी बातचीत करना उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था। हालांकि संवाद का सिरा जहां तक मैं पकड़ पाया, उससे स्पष्ट था कि मेरे मित्र बेहद संवेदनशील मुद्दे पर चर्चा कर रहे थे और उसे बीच में छोड़ना संभव नहीं था। 

खैर...थोड़ी देर के बाद बातचीत का सिलसिला बंद करते हुए उन्होंने बताया कि गांव में पड़ोस के एक बुजुर्ग सज्जन का कल अचानक निधन हो गया। वे बड़े ही सरल और सौम्य स्वभाव के धनी थे। कभी किसी ने ऊंची आवाज में बातें करते उन्हें नहीं सुना। बच्चों के प्रति उनके सहज स्नेह भाव का तो कहना ही क्या। उनका दरवाजा बहुत बड़ा था। टोले भर के बच्चे अक्सर वहां खेलने आते थे। गांव में जरूरी नहीं कि संपन्न लोगों के घरों में भी हमेशा मिठाइयां रहती हों, मगर प्रकृति अपना खजाना खुले हाथों से गांवों में लुटाती है सो मौसम के हिसाब से आम, अमरूद, कटहल जैसे फल तो घर में रहते ही थे। ऐसे में वे दरवाजे पर खेलने आए बच्चों को बिना कोई फल खिलाए नहीं लौटने नहीं देते थे। 

यह सब सुनाते-सुनाते मेरे मित्र की आवाज भर्रा गई और वे अपने आंसुओं पर काबू नहीं रख सके। " जातस्य मृत्योर्ध्रुवम"  का हवाला देकर मैंने उन्हें चुप कराया, लेकिन उनकी यह संवेदनशीलता मुझे अंदर तक झकझोर गई।  पहले कॉलेज-यूनिवर्सिटी की पढ़ाई और फिर दाल-रोटी के चक्कर में चक्करघिन्नी बने बिहार के लाखों युवाओं की तरह मेरे ये मित्र भी बीस-पचीस साल से माता-पिता, गांव-घर सबसे दूर विभिन्न महानगरों में रहने को विवश हैं। इसके बावजूद गांव में पड़ोस के किसी आत्मीय बुजुर्ग के आकस्मिक निधन की वेदना को आंखों के रास्ते आंसुओं में विसर्जित करना आसान नहीं है। संवेदनाओं की धरातल से गहराइयों से जुड़ा व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। 

इसी के साथ मुझे एक पुराना वाकया याद आ गया। तब मोबाइल नया-नया आया था और स्मार्ट होने की ओर कदम बढ़ा रहा था। लोग अपने मोबाइल में तरह-तरह के रिंग टोन सेट करके खुद को भीड़ से अलग दिखाने की कोशिश करते थे। एक परिचित के पिताजी का निधन हो गया था। दो-तीन दिन बाद पता चलने पर औपचारिकतावश फोन किया तो उनके मोबाइल पर रिंग टोन के रूप में उस समय का एक फूहड़ गीत सुनाई दिया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। अस्तु, उनके फोन उठाने पर जब मैंने उनके पिता के निधन पर संवेदना जताई तो वे गीता का पूरा उपदेश झाड़ने लगे कि क्षणभंगुर शरीर का त्याग तो करना ही था। सुनकर ऐसा लगा जैसे वे पिता के देहत्याग का इंतजार ही कर रहे थे।

5 जनवरी 2021 
जयपुर

इस कदर चोट खाए हुए हैं...


मानव को अस्तित्व में आए सदियां बीत गईं, मगर अफसोस... आज तक हम आधी आबादी को सही और सुरक्षित वातावरण मुहैया नहीं करा पाए हैं। कदम-दर-कदम कवायद जारी है। इसी कड़ी में महिलाओं को सुरक्षित सफर की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए यूपी रोडवेज ने पिंक सेवा शुरू की। पहले ये बसें केवल महिलाओं के लिए ही थीं, लेकिन खर्च निकलने लायक भी सवारियां न मिलने के कारण काफी दिनों तक घाटा उठाने के बाद पुरुषों को भी इसमें सफर की अनुमति दे दी गई। एक बार मुझे भी इस बस में नवाबों की नगरी लखनऊ से प्रेम की नगरी आगरा तक की यात्रा का सुअवसर मिला। उम्र के करीब चार दशकों की सीढियां चढ़ चुका ड्राइवर इस नौकरी को अपनी नियति मान चुका था। उसकी पहनी खाकी वर्दी इसकी मुनादी कर रही थी। मगर 22-25 साल का सुदर्शन गोरा गबरू जवान कंडक्टर भरसक इसे झुठलाने की कोशिश करता दिख रहा था।  वह अपने अरमानों की उड़ान को बखूबी जारी रखे था। 
यूपी रोडवेज की बसों में ड्राइवर के पीछे वाली दो सीटें माननीय सांसदों-विधायकों के लिए आरक्षित होती हैं। बात दीगर है कि चार्टर्ड प्लेन में चलने की हैसियत रखने वाले आज के सांसदों-विधायकों के साथ वाले भी 20-25 लाख की लग्जरी कारों में चलते हैं। ऐसे में यह सीट पूरी तरह से कंडक्टर-ड्राइवर के विवेकाधीन होती है और वे अपने उच्चाधिकारियों या फिर अपनी मर्जी से यह सीट अपने चाहने वालों को ऐन मौके पर आवंटित-समर्पित कर देते हैं। सांसद-विधायक के लिए आवंटित सीट के समानांतर और गेट के जस्ट पीछे वाली सीट कंडक्टर के लिए होती है, ताकि वह गाहे-बगाहे जरूरत पड़ने पर बाईं ओर देखकर ड्राइवर को बता सके।

मगर जैसा कि मैंने कहा, आज की बेरोजगारी के माहौल से भयभीत यह नौजवान शायद परिवार वालों के दबाव में आकर कंडक्टर की नौकरी कर तो रहा था, मगर वह इसे अपनी नियति मानने को कतई तैयार नहीं था। यही वजह थी कि कंडक्टर के लिए निर्धारित यूनिफॉर्म के बजाय वह जींस-टीशर्ट में था। बस का राजा तो कंडक्टर ही होता है, सो सांसद-विधायक वाली एक सीट उसने एक खूबसूरत युवती को दे दी थी, जिसकी बातों से उसकी नफासत और लियाकत बरबस ही महसूस की जा सकती थी...और मैं यह सब काफी नजदीक से इसलिए महसूस कर पा रहा था क्योंकि मैं उसके बिल्कुल पीछे वाली सीट पर बैठा था।

ऐसा बिंदास कंडक्टर जो खुद को कुछ अलग दिखाने की मानसिकता से लबरेज हो, वह भला कंडक्टर के लिए निर्धारित सीट पर कैसे बैठता, सो अपनी सीट की बुकिंग उसने एक अन्य यात्री को कर दी, जिनकी उम्र करीब साठेक साल रही होगी। ….और बस की सवारियों से किराये की वसूली और टिकट चेक करने की कुछ मिनटों की जिम्मेदारी निभाने के बाद युवा कंडक्टर उस युवती के बगल में जाकर बैठ गया। फिर दोनों में बातचीत का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसमें युवती तो खैर कम ही बोल रही थी, लेकिन कंडक्टर अपने बुद्धि-बल-पराक्रम की दास्तानें सुनाते थक नहीं रहा था। मगर अफसोस, प्रेम की यादगार इमारत ताजमहल के सफर पर निकली यह बस अब अपनी मंजिल पर पहुंचने ही वाली थी। हमारे यहां बसें सीधे बस स्टॉप पर ही नहीं रुकतीं, उससे पहले भी कई स्थानों पर यात्रियों को उतारकर मानव सेवा का धर्म निभाती हैं, सो कंडक्टर को न चाहते हुए भी युवती से बातचीत का सिलसिला रोककर यात्रियों को उतारने के लिए आगे आना पड़ता। इसी सिलसिले में गेट खोलने-बंद करने की तरद्दुद उठानी पड़ती। इसी क्रम में उससे गेट के बिल्कुल पीछे वाली इकलौती सीट पर बैठे सज्जन के दाएं पैर में गेट की हल्की सी टक्कर लग गई। कंडक्टर ने सौजन्यतावश सॉरी कहा तो उन्होंने "कोई बात नहीं" कहकर उसका अहसान चुकाना चाहा , लेकिन जब कंडक्टर की गलती से दुबारा उनके पैर में चोट लगी और कंडक्टर ने पुनः सॉरी कहा तो उनका दर्द जुबां पर आ गया। बोले, कोई बात नहीं....दिल पर तो पहले भी कई बार खा चुका हूं, इस बार पैर पर भी सही। नौजवान कंडक्टर हाजिरजवाब था। उसने कहा-अंकल, हमारी उम्र में दिल पर चोट खाई होगी। इस पर वे सज्जन बोले, बेटा, दिल पर चोट खाने की कोई उम्र नहीं होती। यह मौका इस उम्र में भी मिल जाए तो अचरज नहीं किया करते। हां, एक बात जरूर कहना चाहता हूं कि मोहब्बत में सिर्फ माशूका ही दिल पर चोट नहीं देती, जिंदगी भी कई बार ऐसी चोट दे जाती है, जिससे उबरना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होता है।

कल रात फेसबुक पर एक मित्र की वॉल पर चस्पा यह गजल " इश्क में हम तुम्हें क्या बताएं..." सुनी तो पिंक बस का अपना वह  सफर बरबस ही याद आ गया।

15 दिसंबर 2020 जयपुर