Friday, February 29, 2008

मछली पकड़ना सिखाते तो और बात होती

अपने केन्द्रीय वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने आज शुक्रवार को चित्त (दिल) खोलकर बजट भाषण पढ़ा। जैसी कि अथॅशास्त्र के विद्वानों, राजनीति के जानकारों के साथ आम लोगों को उम्मीद थी, वित्त मंत्री ने सबकी सुविधाओं का ख्याल रखा, हां, देश की सुविधा का ख्याल रखना भूल गए।
मैंने किसी लेख में किसी महान विचारक के विचार कभी पढ़े थे कि आप यदि बच्चे को मछली पकड़ना सिखा देते हो तो वह जिंदगी में कभी भूखा नहीं रहेगा, लेकिन यदि उसे मछली पकड़कर-पकाकर खिलाते हो, तो वह सदैव ही इस आस में रहेगा कि बिना मेहनत के ही फल की प्राप्ति हो जाए, इस तरह उसकी उद्यमशीलता हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी।
आज सुबह बजट भाषण में जब किसानों की कजॅमाफी की घोषणा की गई तो सहसा यह दृष्टांत स्मरण हो आया। न जाने हमारी सरकारें जीवट के धनी किसानों की उद्यमशीलता का हरण कर उन्हें काहिल बनाने में क्यों जुटी है। पूवॅ प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के राज में भी किसानों का कजॅ माफ किया गया था, लेकिन उस कड़वे तथ्य को कैसे झुठला दूं जिसे बचपन में किताबों में पढ़ा था कि भारतीय कृषि मानसून का जुआ है। अब मानसून तो चुनावों के मौसम का ख्याल रखने से रहा, सो इसका कोई भरोसा नहीं कि कब इतना मेहरबान हो जाए कि फसलों के ऊपर से पानी बहने लगे और कभी इतना खफा हो जाए कि फसलों का कंठ ही सूख जाए। दोनों ही स्थिति में किसानों की कमर तो टूटनी ही है। ऐसे में किसानों की कजॅमाफी के मद में जो साठ हजार करोड़ रुपए की भारी राशि दी गई है, वह राशि यदि बाढ़ और सूखा से फसलों को बचाने की चिरस्थायी योजना पर खचॅ करने का प्रस्ताव रखा जाता तो हमेशा हमेशा के लिए किसानों का भला हो जाता। आज जब आधुनिक तकनीकी का बोलबाला है तो किसानों के हित में विज्ञान के अधिकाधिक उपयोग को प्रश्रय क्यों नहीं दिया जाता। सभी छोटे-बड़े किसानों को गांवों-कस्बों तक में उन्नत बीजों और उवॅरकों की सप्लाई सुनिश्चित क्यों नहीं की जाती। किसानों को आत्मनिभॅर बनाने के और जतन क्यों नहीं किए जाते। खेती के साथ उद्यानिकी को बढ़ावा देकर मानसून की अनिश्चितता से काफी हद तक बचा जा सकता है। बरसात के मौसम में जहां नदियों में आने वाला उफान अभिशाप बन जाता है, उसका रुख कम बारिश वाले राज्यों की तरफ मोड़कर उसे वरदान में तब्दील क्यों नहीं किया जाता। पूवॅ प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शायद इसी उद्देश्य के मद्देनजर नदियों को जोड़ने का सपना देखा था, तो यदि उनकी सरकार चली गई तो आने वाली यूपीए सरकार ने उस सपने को सिरे से क्यों नकार दिया। क्या सत्तापक्ष और विपक्ष में नेवले और सांप जैसी दुश्मनी ही जरूरी है, क्या देश के व्यापक हित में विरोधी राजनीतिक दलों की योजनाओं पर अमल करना सत्तासीन राजनीतिक दल का कतॅव्य नहीं बनता।
किसानों के कजॅ माफ करने की घोषणा के बावजूद इतनी बड़ी राशि से केवल किसानों का ही भला होगा, इसकी क्या गारंटी है? क्या बिचौलिए इस राशि में अपना हिस्सा नहीं मार लेंगे? देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला जिस रवानी पर है, उससे मुकाबला करना कैसे संभव हो सकेगा? खैर, किसानों और किसानी के जो हालात हैं, उस पर तो अलग से भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है, मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि वित्तमंत्री ने देश के हित की कीमत पर अपनी पारटी के राजनीतिक हितों को जिस तरह तरजीह दी है, उसे देश का मतदाता अच्छी तरह समझता है। सुविधाओं के बदले ताली बजाने वाले हाथ चुनाव में आपके निशान पर ही ठप्पा लगाए या इलेक्ट्रॉनिक मशीन पर आपके चुनाव चिह्न वाला बटन ही दबाए...यह पब्लिक है सब जानती है।

Thursday, February 28, 2008

चिदम्बरम के घड़ियाली आंसू, बह मत जाना धार में


केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने आम बजट से पहले गुरुवार को संसद में वषॅ 2007-08 का आरथिक लेखा-जोखा पेश करते हुए आरथिक सरवेक्षण की रिपोटॅ में देश में लगातार बढ़ रही महंगाई पर गहरी चिंता जताई। इतना ही नहीं, उन्होंने खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों में हो रही बढ़ोतरी के मद्देनजर महंगाई के और भी बढ़ने की आशंका से इनकार नहीं किया। सत्तानशीं ही यदि आशंका जताकर ही अपने फजॅ की इतिश्री कर लें, तो जनता का तो भगवान ही रखवाला है। आज जैसे हालात हैं, इसमें आम आदमी को दाल-रोटी मिलना भी मुश्किल हो गया है, बात दीगर है कि मालदार लोगों को मटर-पनीर थोक में मिल रहा है।
अब चिदम्बरम साहब को कौन समझाए कि इस महंगाई के लिए उत्तरदायी कौन है। यूपीए सरकार आने से पहले महंगाई कितनी कम थी, देश में आरथिक इसके गवाह देश के करोड़ों नागरिक हैं और ये सभी नागरिक मेरी तरह भाजपा के वोटर नहीं हैं, लेकिन सच्चाई के आईने को तो वे तोड़ने से रहे। आपको याद होगा कि उस समय ब्याज दरों में भारी कमी के कारण कितनी अधिक संख्या में हाउसिंग लोन लेकर लोगों ने अपने घरों के सपने साकार किए थे। उस समय ब्याज दरें कम होने के बावजूद जिन्होंने फिक्स्ड रेट पर
हाउसिंग लोन नहीं कि फ्लोटिंग रेट रहेगी तो फायदे में रहेंगे, ऐसे लोगों के सपनों पर यूपीए सरकार की नीतियों ने जो हमला किया, उसके बाद वे चीखने लायक भी नहीं रहे।
गिनाने के लिए तो बहुत सी बातें हैं जिनका असर यूपीए की सरकार के दौरान आम आदमी को भुगतना पड़ रहा है। अब अंतिम साल में ऐसा लग रहा है कि चिदम्बरम का चित्त भी शुक्रवार को डोलेगा और वे आगामी चुनाव में यूपीए की चेयरपसॅन सोनिया गांधी की सोणी सी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मनमोहनी छवि बनाने के लिए कुछ ऐसा बजट लाएंगे कि आम आदमी को कुछ राहत मिल पाए। वैसे तो यह बजट आम आदमी के लिए आंकड़ों का मकड़जाल ही होता है, उसे तो बस इतने से ही मतलब होता है कि उसके जरूरत की चीजें कितनी सस्ती हो पाती हैं औऱ उसका जीवन कितने सहज-सरल तरीके से बीत सकता है। अगर कुछ ऐसा हुआ भी (जिसकी अत्यधिक आशा नहीं की जानी चाहिए) तो भी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार का बेड़ा गकॅ होने से कहां तक बच पाता है, यह तो इस देश का वोटर और आने वाला समय ही बताएगा।

Tuesday, February 26, 2008

थोड़ा है थोड़े की जरूरत है

महज घोषणाएं ही नहीं, उन्हें पूरा करने की इच्छाशक्ति भी हो
अभी चार-पांच दिन पहले एक मित्र ने बहुत आग्रह किया घर आने के लिए। महीनों से उन्हें गोली दे रहा था, मगर इस बार उन्होंने जिस कारण से बुलाया था, कि नकारना मुश्किल था। मित्र के वृद्ध माता-पिता सुदूर बिहार के किसी गांव से गुलाबीनगर आए हुए थे और उनसे आशीष लेने का सुअवसर मैं भी नहीं छोड़ना चाहता था। तो साहब अपने साप्ताहिक अवकाश की शाम को श्रीमतीजी और बच्चे को लेकर उनकी सेवा में पहुंच गया। मेरा बच्चा मित्र के बच्चों के साथ खेलने के लिए ऐसे भागा जैसे जेल से छूट गया हो, श्रीमतीजी मित्र की माताजी और पत्नी के साथ शायद अपने ददॅ बांटने लगी और बचा मैं तो मित्र से कम, उनके पिताजी से मुखातिब होकर उनसे बातें करने में मशगूल हो गया।

दरअसल पीढ़ियों में अंतराल को महसूस करने की मेरी सहज पिपासा कभी शांत नहीं हो पाती। पिताश्री का कहना था कि अब गांव में भी पहले से हालात नहीं रहे। भौतिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर तीव्रतर बदलाव हो गए हैं। बांस और (खर) फूस की कोई कद्र नहीं है, इनसे छप्पर बनाने वाले कारीगर बेरोजगार हो रहे हैं। हां, ईंट-गाड़े के कंक्रीटों के जंगल गांवों में भी उग आए हैं। भित्ति के घर तो अब दिखते ही नहीं। नए बनते नहीं और पुराने जो थे, उन्हें बाढ़ का पानी बहा ले गए। उन्होंने बड़े ही व्यंग्यपूणॅ लहजे में कहा कि भैंस चराता किशोर भी साथ में मोबाइल लेकर चलता है। मोबाइल की उसके लिए क्या उपयोगिता या उपादेयता है,यह सवाल उनके लिए भी अनसुलझा था, मैं भला क्या जवाब दे पाता। गुलाबीनगर में व्याप्त महंगाई पर बात छिड़ी तो उनका कहना था कि गांव में भी आटा 15-16 रुपए किलो के हिसाब से मिलता है। सामान्य चावल के दाम की शुरुआत ही 18-20 रुपए किलो से होती है। सब्जियों के भाव भी यहां से कुछ कम नहीं हैं। इसके बाद जब मैंने उनसे गांव के और भी हालात के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि गांवों में रोजगार नहीं होने के कारण बच्चे किशोर होने से पहले ही परिवार का बोझ उठाने के लिए अपने बड़े भाई या पिता या फिर किसी रिश्तेदार की अंगुली पकड़कर शहरों की राह पकड़ लेते हैं। (फिर बड़े शहरों में राज ठाकरे और बाल ठाकरे जैसों के बयानों के बाद उनकी क्या दुःस्थिति होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। )
गांव की इस प्रगति के बावत पूछे जाने पर उन्होंने संतोष जताया कि हालात अवश्य ही सुधरे हैं। पुराने दिनों की याद ताजी करते हुए उन्होंने कहा कि अब गांव में भूले से भी कोई गूलर के फलों से अपनी भूख नहीं मिटाता। महुआ के रस से बनने वाले देसी दारू के बारे में आप सबने सुना होगा, लेकिन सूखे हुए महुए की खीर और लट्टा से गांवों में गरीब तबके के लोग कभी अपनी भूख भी मिटाया करते थे, लेकिन अब तो बीपीएल या उससे भी आगे अन्त्य स्तर पर रहने वाला भी मड़ुवा-सामा-कादो ही क्या, मकई की रोटी भी खाना पसंद नहीं करता। (यह बात दीगर है कि फाइव स्टार होटलों और बड़ी-बड़ी पारटियों में आजकल मक्के की रोटी अमीरों की पहली पसंद हुआ करती है )। कपड़े-लत्ते का स्तर भी उसी तुलना में सुधरा है, इसमें कोई शक नहीं है।
इतना सब सुनने के बाद मैं यह सोचने को विवश हो गया कि आदमी भले जिस भी स्थिति में गुजर-बसर कर रहा हो, अपनी बेहतरी के लिए प्रयासरत रहता ही है। यदि हमारे राजनेताओं में भी दृढ़ इच्छाशक्ति होती तो गांवों का ही क्या, पूरे देश का नजारा आज कुछ और होता। आजादी के 60 साल बाद भी हमें आज जो एपीएल-बीपीएल की रेखा खींचनी पड़ रही है और अन्त्योदय के बारे में इतनी मशक्कत करनी पड़ती है, वैसा कुछ नहीं होता। जनता तो अपने स्तर पर पसीने बहाते रही, लेकिन जनारदन ( सत्तासीन राजनेताओं) ने उनकी बेहतरी के लिए उस शिद्दत से प्रयास नहीं किए। आम बजट में आज तक जो सब्जबाग दिखाए गए, यदि उन्हें हकीकत में तब्दील करने का जीवट होता, तो कुछ भी मुश्किल नहीं था। समय तो अब भी नहीं बीता है, 29 फरवरी को केन्द्रीय वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम बजट रखने वाले हैं, चूंकि यह उनकी सरकार का अंतिम साल है, इसलिए सभी को काफी उम्मीदें हैं, आशा है, वे लॉलीपॉप नहीं देंगे, बल्कि देश को विकास के राह पर अग्रसर करने की सच्ची कोशिश अवश्य ही करेंगे।
राजनेता से प्रबंधन गुरु बने करिश्माई नेतृत्व के धनी बड़बोले रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने लगातार पांचवीं बार किराया नहीं बढ़ाकर अपने नाम रिकॉडॅ बनवा लिया, लेकिन चिदम्बरम के लिए शायद राह इतना आसान नहीं होगा। फिर भी सोचने में क्या जाता है और हम सोचे ही क्यों, ईश्वर से प्राथॅना करें कि वह चिदम्बरम के हृदय में सच्चिदानंद का वास करे जो जनारदन बनकर जनता के ददॅ को दूर करने को तत्पर दिखें।

Monday, February 25, 2008

जुगाड़ टैक्नोलॉजीः अपना हाथ जगन्नाथ

अभी कुछ दिन पहले ट्रेन में करीब डेढ़ हजार किलोमीटर यात्रा करने का सुयोग मिला। सहयात्री सरल औऱ मधुर स्वभाव के थे, इसलिए यात्रा मंगलमयी रही। हालांकि भारतीय ट्रेन में यात्रा के दौरान हमेशा सुखद अनुभव नहीं होते। हमारे स्वनामधन्य रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव अपनी प्रबंधन कला के लिए नाम कमाने के अभियान में जुटे हैं और एक रिकाडॅ बनाने की ओर अग्रसर हैं। मीडिया में ऐसी खबरें आ रही हैं कि लगातार चार साल तक उन्होंने अपने रेल बजट में किराया नहीं बढ़ाया और शायद पांचवीं बार भी वे ऐसा ही करेंगे।
अब पिछली गली से उन्होंने रेलयात्रियों से कितनी वसूली की है,इसका तो प्रमाण उपलब्ध है ही। रेलवे की लाखों एकड़ जमीन के व्यावसायिक उपयोग से होने वाली आमदनी हो या फिर उनसे पहले वाले रेल मंत्री नीतीश कुमार के दूरदरशितापूणॅ फैसलों की क्रियान्विति का सुफल लालू जी को मिल रहा हो, (हालांकि मैं न तो नीतीश कुमार का मुरीद हूं और न ही समथॅक, लेकिन यह मानने को विवश जरूर हूं कि लालूजी यदि प्रबंधन में इतने ही कुशल होते तो पंद्रह वषॅ के प्रत्यक्ष परोक्ष शासनकाल में बिहार की वह दुरदशा नहीं होती, जैसी हुई। )
खैर, यह तो रेल मंत्री का विशेषाधिकार है कि वे किस तरह रेलवे की आमदनी बढ़ाते हैं और किस तरह सब कुछ करने के बावजूद अपनी लोकप्रियता का डंका पीटते रहते हैं।
मैं जिस बात को लेकर मुखातिब होना चाहता था उससे शायद डिरेल हो गया हूं, क्षमा करेंगे। पिछले बजट में लालूजी ने ट्रेनों के शयनयान वाली बोगियों में बथॅ की संख्या 72 से 81 करने की घोषणा की थी। अब बोगियों की लंबाई तो बढ़नी नहीं थी सो नहीं बढ़ी, हां, उसी में बथॅ की संख्या बढ़ा दी गई। मेरा ऐसी ट्रेन में यात्रा करने का यह पहला अनुभव था, सो डिब्बे में जगह संकुचित होने के कारण परेशानी तो झेलनी ही पड़ी। इसके अलावा खिड़की के शीशे भी गायब थे। हाड़ कंपाती सरदी में यात्रा का सारा मजा काफूर हो जाता, लेकिन भला हो मुझसे पहले यात्रा करने वालों का, जिन्होंने शटर टाइप खिड़कियों के छिद्रों को अखबार के टुकड़ों से बखूबी भरकर हवा के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। शताब्दी और राजधानी में यात्रा करने वालों के मनोरंजन का ध्यान ही लालूजी रख पाते हैं, अब जनता क्लास क्या करे। वह तो अपने स्तर पर ही मनोरंजन के साधन जुटाएगी। सो एक बैंक कमॅचारी सहयात्री ने फिलिप्स की रेडियो पर फरमाइशी गीतों के कायॅक्रम सुनवाए तो बाकी सहयात्रियों के एफएम वाले मोबाइल सेट भी अपना दायित्व बखूबी निभा रहे थे। ये है अपनी आम जनता की जुगाड़ टैक्नोलॉजी, जो कभी किसी का इंतजार नहीं करती, जिसके लिए अपना हाथ ही जगन्नाथ हुआ करता है।
जहां तक मैं मानता हूं,आरक्षित श्रेणी में यात्रा करने वाले रेल किराये में प्रति सौ-दो सौ किलोमीटर के हिसाब से दो-पांच रुपए की बढ़ोतरी को कदापि बुरा नहीं मानेंगे, यदि उन्हें टिकट आरक्षित करवा लेने के बाद यात्रा के दौरान किसी दुखद अनुभव का सामना नहीं करना पड़े। पैंट्री कार में अच्छा खाना मिले, डिब्बे के अंदर स्वच्छता के साथ ही शौचालयों की नियमित साफ-सफाई हो, बीच रास्ते चलते हुए शौचालयों के नलों की टोंटी न सूख जाएं। बिना किसी लूट-मार के, सुरक्षा के लिए तैनात तथाकथित पुलिस के जवानों की ज्यादतियों के बिना यात्री सुरक्षित अपने गंतव्य पर पहुंच जाएं, टीटी बिना बात भोले-भाले ग्रामीण अंचल के यात्रियों को टिकट होने के बावजूद परेशान न करें। शयनयान श्रेणी की प्रतीक्षा सूची में यात्रियों की संख्या सुनिश्चित की जाए और यदि फिर भी यह सूची लंबी होती है तो प्रतीक्षा सूची के यात्रियों के लिए अलग से बोगी लगाने की व्यवस्था की जाए।
ये तो मेरे अरमान हैं, जिसे आपलोगों की समानानुभूति (empathy) भले ही मिल जाए, लालू जी को तो जो करना था, वे कर चुके, जिससे मंगलवार सुबह हमारा सामना होगा। देखना है, लालूजी क्या-क्या लाते हैं हमारे लिए अपनी छुक-छुक गाड़ी में।

Saturday, February 23, 2008

कीचड़ कैसे धुलेगा कीचड़ से

सपा नेता अबू आजमी और मनसे प्रमुख राज ठाकरे के बीच शुरू हुए विवाद की चिनगारी अब लपटों की शक्ल अख्तियार कर चुकी है। शुक्रवार को बिहार विधानसभा में बड़बोले लालू यादव की पारटी राजद के विधायकों के साथ विपक्ष ने राज्यपाल आर. एस. गवई का जमकर विरोध किया और राज्यपाल वापस जाओ के नारे लगाने लगे। गवई का यह दोष है कि वे मराठी हैं। नारे लगा रहे विधायकों की शिकायत थी कि राज्यपाल ने अभिभाषण में मुंबई और महाराष्ट्र में हुए बिहारियों और उत्तर भारतीयों पर हमले की चरचा क्यों नहीं की। अब इन बददिमाग बुद्धिशून्य विधायकों को कौन बताए कि अभिभाषण राज्यपाल खुद तैयार नहीं करता, बल्कि सत्तारूढ़ दल ही तैयार करता है। अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पारटी व सहयोगी दलों ने यदि अभिभाषण में इस पचड़े को नहीं डालना चाहा तो इसमें बुरा क्या है। क्या अभिभाषण में मुंबई में बिहारियों पर हुई ज्यादतियों की चरचा करने से उनका जख्म दूर हो जाता। क्या अभिभाषण में इसके जिक्र से बिहारियों या उत्तर भारतीयों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हो जाएंगे। हां, नीतीश कुमार की मंशा यदि सही है तो वे बिहार में ही बिहारपुत्रों को रोजगार उपलब्ध कराने के मिशन पर अवश्य ही काम कर रहे होंगे। और यही उसका सही प्रतिवाद भी होगा जो कुछ मुंबई, पुणे, नासिक या और भी कहीं हुआ।
पटना में आर. एस. गवई का विरोध हुआ तो भला मुंबई में राज ठाकरे कैसे चुप रहते। उन्होंने तो मराठियों के आत्मसम्मान की रक्षा का ठेका लिया हुआ है। उन्होंने सोनिया गांधी से बिहारियों को बिहार भेजने की मांग कर डाली, जैसे कौन कहां रहेगा और क्या करेगा, यह सोनिया गांधी और राज ठाकरे ही मिलकर तय करेंगे। हां, केंद्र में शासन चला रहे सबसे बड़े दल कांग्रेस की मुखिया होने के कारण उन्होंने और उनकी मनमोहनी सरकार ने उस समय जो चुप्पी बनाए रखी थी, उसी ने राज ठाकरे को उनसे यह मांग करने की हिम्मत दे डाली है।
इतना कुछ होने के बाद पुराना अनुभव कहता है कि इन वाद-विवादों के बावजूद बड़ी हस्ती वाले राजनेताओं का तो इससे कुछ नहीं बिगड़ेगा, संभव है कि कुछ दिनों बाद सब कुछ शांत हो जाएगा और ये तथाकथित हस्तियां इन बातों को भुलाकर फिर किसी व्यक्तिगत आयोजन या सावॅजनिक समारोह में गलबहियां डाले दिख जाएं। मुसीबत तो उन गरीब उत्तर भारतीयों की हुई जो अपनी रोजी-रोटी (चाहे जैसी ही रही हो) को छोड़कर वापस अपने देस जाने को विवश हुए और वहां रोजगार ही क्या, दो जून की रोटी को भी मोहताज होंगे। उनके पेट भरने की जिम्मेदारी न तो लालू यादव लेंगे और न ही अमर सिंह या अबू आजमी। इसका दूसरा पहलू भी आज ही किसी अखबार में दिखा कि मुंबई और महाराष्ट्र के अन्य शहरों के उद्योगों को मजदूरों की कमी का सामना करना पड़ रहा है। हो गया न सब गुड़ गोबर। जिसे काम चाहिए उसका काम छिन गया औऱ उद्योगों को मजदूर नहीं मिल पा रहे। अब बढ़ाते रहो विकास दर। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम कितना भी कुछ कर लें, इन दुष्परिणामों से देश को कैसे बचा पाएंगे।
एक पुराना वाकया याद आता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के नेतृत्व में चल रही सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भारी मन से युवा तुकॅ के इस नेता ने कहा था-
गैर मुमकिन है कि हालात की गुत्थी सुलझे
अहले दानिश ने बड़ा सोचकर उलझाया है।
लगता है एक बार फिर वैसी ही परिस्थितियां बन आई हैं हमारे प्यारे देश के सामने। ऊपरवाले से प्राथॅना है कि वही सद्बुद्धि दे इन बददिमागों को और भारत देश महान जैसा है वैसा ही बना रहे-अनेकता में एकता का परचम लहराने वाला।

Thursday, February 21, 2008

आस्था और शक्ति प्रदशॅन में अंतर समझें बाल ठाकरे


हादसों का शहर मुंबई मनसे प्रमुख राज ठाकरे के दिए सदमे से उबरने की कोशिश में ही लगा था कि इस बीच शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे ने अपनी पारटी के मुखपत्र -सामना- में फिर जहर उगल दिया। उन्होंने बड़बोले रेल मंत्री लालू यादव को अपने लेख में चुनौती देते हुए कहा कि उनमें हिम्मत है तो वे चेन्नई के मरीना बीच पर जाकर छठ पूजा मनाकर दिखाएं।
मराठियों के स्वयंभू तारणहार बाल ठाकरे को अब कौन समझाए कि छठ भगवान सूयॅ की उपासना का महापवॅ है न कि शक्ति प्रदशॅन का। बिहार (अब झारखंड भी) और पूरबी उत्तर प्रदेश के लोग संसार में जहां भी हैं, वहां चाहे कैसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति हो, चार दिन तक चलने वाला यह पवॅ पूरे मनोयोग और श्रद्धाभाव से मनाते ही हैं। इसमें भक्तिभाव की तो प्रबलता होती है, लेकिन शक्ति प्रदशॅन का भाव कहीं नहीं होता। हां, यह जरूर है कि जिन स्थानों पर इस पवॅ को मनाने वालों की संख्या हजारों में होती है, वहां मेले सा माहौल अवश्य उपस्थित हो जाता है। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुवाहाटी से गंगानगर तक कारतिक महीने के शुक्ल पक्ष में षष्ठी की शाम और सप्तमी को सूरयोदय के समय पूरे देश में छठ पूजा के दौरान भगवान सूयॅ की उपासना का यह दृश्य आम होता है। देश की सीमा के बाहर काठमांडू, नेपाल के अन्य शहरों, मालदीव, फिजी, मॉरीशस और यहां तक कि लंदन-अमेरिका के शहरों में भी उपलब्ध संसाधनों के बीच इस पवॅ को मनाने वाले पूरी आस्था के साथ भगवान सूयॅ की उपासना में रत होते ही हैं। उनके पड़ोसी भी इस कायॅ में उनकी मदद अवश्य करते हैं।
तीन-चार साल पहले मेरे एक मित्र जयपुर से ट्रांसफर होकर मुंबई गए। छठ की शाम को मैंने जब उनसे मुंबई में छठ मनाने के बारे में पूछा तो उनका कहना था कि यहां तो विभिन्न संगठनों की ओर से छठ व्रत करने वालों के लिए विशेष इंतजाम किए जाते हैं और बिहार-उत्तर प्रदेश से गायक कलाकार भी बुलाए जाते हैं। भारत में चूंकि लोकतंत्र है, सो भीड़ इकट्ठी होते ही राजनेताओं में इस बात की होड़ लग जाती है कि इसे वोट में कैसे तब्दील किया जाए। इसमें छठ पूजा करने वाले लोगों का भला क्या अपराध है?
बाल ठाकरे अब शायद उम्र के इस पड़ाव पर अपनी पारटी को व्यापक जनाधार दिलाने में स्वयं को असफल पाकर ऐसे बचकाने बयान दे रहे हैं तो उनके भतीजे राज ठाकरे मीडिया में छा जाने और सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए उत्तर भारतीयों को मुंबई से भगाने का फतवा जारी करते हैं, जिसकी चहुंओर आलोचना की जा रही है। यह तो हमारे देश का दुरभाग्य है कि केंद्रीय सत्ता इस मामले में मूकदशॅक बनी हुई है। कुछ भी हो, यह सोलहो आने सच है कि चाहे कुछ भी हो जाए, न तो मानवता हारेगी और न ही छठ व्रत का आयोजन रुकेगा। हां, लालू यादव का यह बयान कि वे मुंबई में राज ठाकरे के घर में छठ पूजा मनाकर दिखाएंगे, भी अवश्य ही निंदनीय है। लालू यादव को कदापि इस तरह का बयान नहीं देना चाहिए क्योंकि वे छठ व्रत के महत्व से वाकिफ हैं। छठ व्रत कदापि इन राजनेताओं की बयानबाजी के केंद्रबिंदु में नहीं होना चाहिए।

Saturday, February 16, 2008

और कुछ...वगैरह...वगैरह

हममें से हर कोई भ्रष्टाचार के दुष्परिणामों का रोना रोता रहता है, लेकिन कोई इस तथ्य पर गौर फरमाने की जहमत उठाना नहीं चाहता कि इसकी जड़ कहां है और इसका उन्मूलन कैसे हो सकता है? कैसे बताया जाए कि कोसने भर से किसी समस्या का समाधान संभव नहीं है। यह तो वैसी ही बात हो गई जैसी बचपन में एक कहानी में पढ़ी थी कि पक्षियों को रोज यह पाठ पढ़ाया जाता कि बहेलिया आएगा, दाना डालेगा, जाल बिछाएगा...लोभ से फंसना मत। सारे पक्षी रोज यह पाठ पढ़ते और अंततः सबको यह कंठस्थ भी हो गया और इसका गान करते-करते आखिरकार एक दिन सभी पक्षी जाल में फंस गए।
मुंशी प्रेमचंद ने भी कहानी-नमक का दारोगा- में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का बड़ा ही सहज चित्रण किया है और अंत में ईमानदारी के विजय का संदेश भी दिया है, जिसे शायद आज तक आत्मसात नहीं किया जा सका। उपदेशात्मक बातें सद्ग्रंथों की शोभा बनी रह जाती हैं और जनता का चरित्र स्खलित होता रहता है, फिर इसका जो दुष्परिणाम मानवता को भुगतना पड़ता है, वह तो जगजाहिर है ही।
मैं शायद आज के अपने विषय से भटकता जा रहा हूं। हुआ यूं कि मेरे एक मित्र किसी प्राइवेट कंपनी में मुलाजिम हैं। अभी हाल ही वे अपने किसी जानकार से सालों बाद मिले। हाल-चाल, कुशलक्षेम के बाद उनके परिचित ने पूछ लिया कि आपकी सैलरी क्या होगी? मित्र ने जब सैलरी बताई तो उनके परिचित की सहज ही जिज्ञासा उठी-औऱ कुछ। मित्र ने कहा-औऱ कुछ क्या? कभी-कभी ओवरटाइम भी मिल जाता है। मित्र के परिचित की जिज्ञासा शांत होने का नाम नहीं ले रही थी। उन्होंने दुबारा पूछा-और कुछ वगैरह-वगैरह। अब तो मेरे मित्र की हालत देखने लायक थी। अपने मृदुल स्वभाव के कारण मेरे मित्र ने कोई अप्रिय प्रतिक्रिया नहीं जताई और साफ-साफ कह दिया कि भाई साहब, हर कहीं वगैरह-वगैरह की गुंजाइश नहीं होती औऱ शायद मैंने अपने क्षेत्र का चुनाव इसीलिए किया है कि यदि मैं अपने कतॅव्यपथ पर अग्रसर रहा तो अपनी दक्षता और मेहनत के बल पर मुझे अपना प्राप्य निश्चित रूप से मिल जाएगा।
ऐसा कहकर उन्होंने परिचित से विदा तो ले लिया, लेकिन इसके कई दिनों बाद जब वे मुझसे मुखातिब हुए, तब भी उनकी पीड़ा उनके चेहरे पर स्पष्ट झलक रही थी। वे मुझसे पूछ बैठे कि क्या वेतन और ओवरटाइम आदि ही एक कमॅचारी के लिए परयाप्त नहीं हो सकते। क्या ऊपरी आमदी (जो निश्चित रूप से गलत तरीके से ही होगी) के बिना जीना संभव नहीं है। क्या हम अपनी आवश्यकताओं को अपनी आय के दायरे में रखकर अपना जीवन नहीं बिता सकते। बात तो सोलहो आने सही है। यह सोचना और इस पर अमल करना ही चाहिए। कम से कम हमारे सरीखे युवाओं को तो इसे जीवन में अवश्य ही अपनाना चाहिए, तभी हमारे समाज-देश-राष्ट्र और अंततः विश्व की वास्तविक उन्नति संभव है।
उपदेशात्मक विचार लिखने के लिए माफी चाहता हूं, लेकिन मित्र की असीम पीड़ा को शब्द देना मैं अपना नैतिक दायित्व समझता हूं। शायद अपना कटु अनुभव यहां पढ़कर किसी रूप में उनके दिल पर लगे घाव को मरहम लग सके औऱ कुछ और लोग इस पथ पर अग्रसर हो सकें, तो मैं खुद को धन्य समझूं।

Tuesday, February 5, 2008

हे प्रभो आनंददाता, ज्ञान सबको दीजिए

अपना देश तरक्की की राह पर अग्रसर है, इसमें किसी को गफलत नहीं हो सकती। हां, कुछ दकियानूसी लोग अलग-अलग तरीकों से विकास की गति में अवरोध डालने से बाज नहीं आते। यह अलग बहस का विषय हो सकता है, लेकिन मैं यहां न तो खुद इस पचड़े में पड़ना चाहता हूं, न ही आपको इसमें पचाना चाहता हूं।
यहां मैं कुछ दूसरे अनुभव शेयर करना चाहता हूं। आजादी के 60 साल बाद भी हमारे देश की हालत इतनी विकट है कि आज भी लोग घर-बार, परिवार-बच्चों से दूर महज डेढ़-दो हजार रुपए प्रतिमाह की नौकरी के लिए हजारों किलोमीटर दूर रहने को विवश हैं।
हुआ यूं कि अभी 3 फरवरी को किशनगंज से जयपुर की यात्रा के दौरान मुझे गुवाहाटी से आ रहे दो युवकों की परेशानी से रू-ब-रू होने का मौका मिला। दोनों युवक सगे भाई थे और इन्हें आरक्षित टिकट होने के बावजूद जलालत झेलनी पड़ी। हालांकि कमअक्ल टीटी की पेशानी पर भी इस सदॅ मौसम में पसीना चुहचुहाने लगा था, जब उन्हें टिकट होने के बावजूद चाटॅ में इन दोनों भाइयों के नाम ढूंढे नहीं मिलते। यह तो आमने-सामने बैठे हम छहों यात्रियों में सदाशयता थी, जिससे उन दोनों भाइयों को कोई परेशानी नहीं हुई।
इन भाइयों ने 19 दिसंबर को ही दिल्ली में ही 3 फरवरी को गुवाहाटी से नई दिल्ली का रिटनॅ रिजरवेशन गाड़ी संख्या 2505 नॉर्थ-इस्ट एक्सप्रेस में करवाया था। वे निश्चिंत थे लेकिन नियत तिथि पर जब गाड़ी पकड़ने आए तो आरक्षण चार्ट में अपने नाम नहीं देखकर परेशान हो गए। इन्क्वायरी पर पूछताछ की तो उन्हें 57-58 नंबर की बर्थ बता दी गई। जब गाड़ी में पहुंचे तो वहां पहले से दो सज्जन बैठे थे और उनके पास भी 57-58 नंबर बर्थ का टिकट था। थक-हारकर वे अपने टिकट पर अंकिट बर्थ नं. 37-38 पर आ गए, लेकिन यहां भी दो यात्री अपने टिकटों के साथ काबिज थे। जब भी कोई टीटी आता तो हम सबके टिकट चेक करता और उन युवकों के टिकट देखकर खुद ही परेशानी में पड़ जाता। इस बीच 12-14 घंटे बीत गए, मेरे मोबाइल में बीएसएनएल का सिग्नल दिखा तो मैंने रेलजोन को पीएनआर नं. एसएमएस भेजकर कन्फर्म किया तो पता चला कि उनकी टिकट तो 5 फरवरी की थी। टूंडला तक की यात्रा में तो मैं भी उनके साथ था, वे सकुशल अपने गंतव्य दिल्ली भी पहुंच गए। चूंकि वे दोनों भाई इतने पढ़े-लिखे नहीं थे कि रेलवे रिजरवेशन का फॉर्म खुद भर पाते, या फिर उन्हें खुद पर भरोसा नहीं रहा होगा कि वे रिजरवेशन फॉमॅ भर सकते हैं, सो उन्होंने अपने किसी परिचित (जो दलाल भी हो सकता है) के माध्यम से टिकट बनवाया। तारीख लिखने में भूल टिकट बनवाने वाले से हुई या फिर बुकिंग क्लर्क ही 3 को 5 समझ बैठा, कहना मुश्किल है।
हां, देखने लायक बात यह थी कि जैसे ही उन्हें पता चला कि उनका टिकट 5 फरवरी का है और वे 4 फरवरी को ही दिल्ली पहुंच जाएंगे, तो बड़े भाई के दिमाग में तपाक से यह बात आई कि वे दिल्ली पहुंचते ही अपना टिकट कैंसिल करा लेंगे और उससे जो भी बचेगा, उससे मौज-मस्ती करेंगे। अपनी तेज बुद्धि का सबूत उन्होंने मुझे फोन करके दे भी दिया कि उनके टिकट से कैंसिलेशन शुल्क काटकर बची राशि का भुगतान उन्हें कर दिया गया। लालू की रेल में मुफ्त की यात्रा हुई, उसका तो कहना ही क्या?
ऐसे हालात में पीड़ा यह जानकर होती है कि यदि हर किसी को इतना ज्ञान हो कि वह मनीऑर्डर फॉर्म भर ले, बैंक ड्राफ्ट बनवा ले, रजिस्ट्री करा ले तो ऐसी नौबत आए ही नहीं कि किसी को दूसरे पर निभॅर होना पड़े और बाद में उन्हें किन्हीं परेशानियों का सामना करना पड़े।
हां, बुद्धि की मात्रा साक्षरों के साथ निरक्षरों में भी कतई कम नहीं है। मौका मिलने पर भी आदमी ज्ञान अर्जित करने के प्रयास तो नहीं करता लेकिन बुद्धि का इस्तेमाल कर किसी को चूना लगाने से बाज नहीं आता। बुद्धि के साथ ज्ञान का समन्वय हो तो भारत का ही नहीं, मानवता का भी कल्याण हो सकता है।