Saturday, November 22, 2008

परेशानी अनलिमिटेड-लालू का नाम, जनता हलकान


बिहार में 15 साल के शासन के दौरान राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव कोई ऐसी उपलब्धि हासिल नहीं कर सके, जिससे उनका नाम हो। हां, उनके मसखरेपन और मीडिया के लालूप्रेम ने उन्हें समाचारों में जरूर बनाए रखा। इसके अलावा उन दिनों लालू को लेकर कहीं बात होती थी तो बस बिहार के पिछड़ते जाने की। रेलमंत्री बनने के बाद लालू यादव को मैनेजमेंट गुरु और न जाने किन-किन विशेषणों से विभूषित किया जाने लगा। लगातार रेल भाड़ा न बढ़ाकर भी उन्होंने आम जनता की सहानुभूति बटोरने में सफलता हासिल की। हालांकि भारतीय रेलवे यदि यात्रियों को बिना किसी परेशानी के गंतव्य पर पहुंचाने का वादा करे तो उन्हें किराये में पांच-दस रुपए की बढ़ोतरी कभी नहीं खलेगी। लालू यादव ने सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए किराया तो नहीं बढ़ाया, लेकिन कभी सुपरफास्ट के नाम पर तो कभी टिकट कैंसिल करने का शुल्क बढ़ाकर यात्रियों की जेब काटने में कसर नहीं छोड़ी। रेलवे आरक्षण की तिथि 60 दिन से बढ़ाकर 90 दिन करने का फैसला भी वास्तविक यात्रियों की बजाय दलालों के लिए ही लाभप्रद है। खैर, इन परेशानियों से तो हम सभी किस्तों में रू-ब-रू होते ही रहते हैं, लालू के शातिर दिमाग ने रेलवे कोचों में बर्थ की संख्या 72 से 81 करके तो कमाल ही कर दिया। कोच की लंबाई नहीं बढ़ाई फिर भी बर्थ बढ़ गए। इसका खमियाजा तो यात्रियों को तब भुगतना पड़ता है, जब उन्हें सिमट-सिमट कर हजारों किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है या फिर एक यात्री के माथे पर दूसरे यात्री का बर्थ झूलता नजर आता है और वे अपनी कमर सीधी नहीं कर पाते।
उरदू का ज्ञान जरूरी
पटना से अजमेर से के लिए साप्ताहिक ट्रेन बुधवार को रवाना होती है। मैंने जब इस ट्रेन का टिकट खरीदा तो इस पर `इबादत´ एक्सप्रेस लिखा था। जब ट्रेन पकड़ने आया तो ट्रेन पर कहीं `इबादत´ एक्सप्रेस का नामो-निशान नहीं था। हर डिब्बे पर `जियारत´ एक्सप्रेस लिखा था। अब आप इस ट्रेन से अजमेर में मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जियारत करने जाएं या इबादत के इरादे से सफर करें या फिर `कर्म ही पूजा है´ के सिद्धांत पर अमल करते हुए अपने काम के सिलसिले में यात्रा करें, आपको उरदू के समान अर्थ वाले शब्दों की जानकारी जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि आप इबादत एक्सपे्रस का इंतजार करते रहें और प्लेटफॉर्म से आपके देखते-देखते जियारत एक्सप्रेस एक-दो-तीन हो जाए।

Saturday, November 15, 2008

जूठे दोने में छिपा बड़ा सच



करीब सत्रह साल बाद इस बार छठ पर्व पर घर जाने का अवसर मिला। इतने लंबे अरसे बाद मां-बाबूजी, छोटे भाई, अन्य परिवारजनों, बचपन के दोस्तों और ग्रामजनों के सान्निध्य में इस पर्व के दौरान घर होने का जो सुख मिला, उसकी बात फिर कभी। अभी तो कुछ और ही...जो कई दिनों में मन में उमड़-घुमड़ रहा है। छठ के परना के दिन ही जयपुर लौटने का कार्यक्रम था। शाम को ट्रेन थी। पटना में पढ़ रहा भतीजा भी सी-ऑफ करने आया था।
बिहार की पहचान जिन कुछ चीजों से होती है, उनमें छठ पर्व, लिट्टी-चोखा, भिखारी ठाकुर का बिदेशिया, विद्यापति के गीत आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं। दोपहर को ही घर से निकला था, सो भूख लगी थी। स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक पर लिट्टी-चोखा का स्टॉल देखा, तो खाने का लोभ संवरण नहीं कर सका। चाचा-भतीजे दोनों ने चार-चार लिट्टी खाई। भतीजे के लिए तो यह विशेष मायने नहीं रखता, क्योंकि उसे तो घर पर भी जब चाहे, इसका स्वाद चखने को मिल जाता है, लेकिन मुझे तो यह सुख पाने के लिए बिहार की यात्रा ही करनी पड़ती है।
खैर....., स्टॉल के बगल की खाली जगह में जूठे दोने रखने के लिए प्लास्टिक की बड़ी बाल्टी रखी थी। ट्रेन आने में देर थी, सो मैं उस स्टॉल से थोड़ी दूर एक नंबर प्लेटफॉर्म पर ही बैठ गया। इसी बीच सहसा मेरी नजर उस जूठे दोने वाली बाल्टी पर चली गई। मैले-कुचैले कपड़ों में एक नौजवान जूठे दोनों से बचा हुआ चोखा एक दोने में इकट्ठा कर रहा था। लिट्टी तो बमुश्किल ही कोई जूठन छोड़ता होगा, सो जूठे चोखा से ही वह अपनी पेट की आग को बुझाने के जतन में लगा था। यह दृश्य देख आत्मा रो उठी। मन हुआ कि स्टॉल मालिक को कहकर उसे तृप्त करा दूं। मगर यह क्या, जैसे ही उस नौजवान के पास पहुंचा, वह डर के मारे नौ दो ग्यारह हो गया। मैं आवाज लगाता रह गया लेकिन उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। न जाने इससे पहले रेलवे विभाग के कर्मचारियों ने उससे ’यादती की हो, जिससे उसके मन में डर समा गया हो।
हमारे राजनेता भले ही विकास के कितने ढिंढोरे पीट लें, लेकिन जब तक ऐसे दृश्य बरकरार रहेंगे, हम सिर उठाकर अपने संपन्न होने की घोषणा नहीं कर सकते। कहीं न कहीं उन तथाकथित नीति नियंताओं के कारनामे ही ऐसे हालात के लिए जिम्मेदार हैं।