Sunday, June 28, 2020

दू गो जामुन गिरा दे...

...दू गो जामुन गिरा दे

कैसे विपरीत हालात हैं। जून और आषाढ़ का जो महीना आम की मिठास से मह-मह करता रहता था, वह आज कोरोना महामारी की दहशत में बीत रहा है। सारी दुनिया खौफजदा है। बड़े-बड़े चिकित्सा विशेषज्ञ किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। लोग समझ नहीं पा रहे कि कब इस भय भरे माहौल से मुक्ति मिलेगी। 

बचपन के दिनों को याद करता हूं तो यह मौसम हमारे लिए फुल मौज-मस्ती से भरा हुआ करता था। दिन भर दोस्तों-भाई-बहनों के साथ इस बगीचे से उस बगीचे तक डोलते रहना, खूब छककर तरह-तरह के अद्भुत-अनुपम स्वाद वाले आम खाना... गाछी में दीदी और उनकी सहेलियों के बनाए गए सुस्वादु व्यंजनों के साथ वनभोज का आनंद... क्या-क्या गिनाऊं।

तब स्कूलों का सत्र जनवरी से दिसंबर तक चला करता था। पांच महीने की पढ़ाई और स्कूल के अनुशासन की कैद के बाद जून का पूरा महीना गर्मी की छुट्टी के नाम हुआ करता था। शहर के बच्चों को जहां साल भर जून महीने का इंतजार रहता था कि कब गर्मी की छुट्टी हो और ननिहाल जाएं। वहीं, हम गांव के बच्चों के लिए यह प्रकृति मां की गोद में समय बिताने का सुअवसर होता था। 

मई मध्य तक अमूमन आम के बगीचों में घर से एक मड़ैया लाकर प्रतिस्थापित कर दिया जाता। फिर बाग की रखवाली के लिए दिन में परिवार की बुजुर्ग महिला का बसेरा वहीं हुआ करता था। शाम होने पर बुजुर्ग महिला घर लौट आतीं और परिवार के कोई वरिष्ठ और जिम्मेदार पुरुष रात का खाना खाकर आम के बगीचे में ही सोते थे। यह क्रम आखिरी पेड़ से आम तोड़े जाने तक चला करता था। 

हम बच्चे तेज धूप के बावजूद दोपहर में बगीचे में पहुंच जाते। वहां हमारी आंखें पेड़ पर सबसे पहले पकने वाले आमों को खोजने लगतीं। मनपसंद आम तोड़कर खाने के बाद बच्चों की टोली जामुन की तलाश में निकल जाती। उस जमाने में जामुन का कोई व्यावसायिक महत्व नहीं  होता था। ऐसे में किसी दूसरे के बगीचे में लगे पेड़ से भी जामुन तोड़ने की मनाही नहीं थी। मगर जामुन के पेड़ काफी लंबे होते थे। हम बच्चों के लिए उस पर चढ़ना बड़ा मुश्किल होता था। हर साल जामुन के पेड़ से गिरने के कारण आस-पड़ोस के दो-चार लोगों के हाथ-पैर टूट जाया करते थे। लोगों में इस बात का भय रहता था कि जामुन के पेड़ पर भूत रहते हैं जो उस पर चढ़कर जामुन तोड़ने वालों को गिरा देते हैं।

 ऐसे में आम के पेड़ पर चढ़कर फुनगी पर लगे पके आम को तोड़ लाने वाले हम बहादुर बच्चों की हिम्मत जामुन के पेड़ पर चढ़ने में जवाब दे जाती। ...और ऐसे में हम बच्चे पेड़ पर जामुन की मिठास का लुत्फ उठा रहे पक्षियों से एक स्वर में मनुहार करने लगते : 
मैना के बच्चा सुमैनी गे
 दू गो जामुन गिरा दे
कच्चा गिरैबे तऽ मारबऊ गे
दू गो पाकल गिरा दे। 
...और फिर पक्षियों की मेहरबानी कहें या हवा के वेग का असर, थोड़ी देर में दो-चार जामुन गिर ही जाते और हम खुश हो जाते कि सुमैनी ने हमारी मनुहार सुन ली।  

खिलाने का सुख
हमारे गांव में आम के बाग तब बहुत कम ही लोगों के लिए कमाई का जरिया थे, लेकिन आम की अच्छी फसल उन्हें आम से खास जरूर बना देती थी। बाग में जब किसी पेड़ से आम टूटता तो वहां से गुजरते हुए  ऐसे बच्चों को जिनके खुद के बाग नहीं होते, बुलाकर दस-पांच आम दे देने से उनके अंदर दानवीर होने  की भावना का संचार होता था। वहीं मेहमानों की आवभगत में भी ये आम अपनी खास भूमिका निभाते थे। पानी से भरी बाल्टी में रखे आम मनुहार के साथ एक-एक कर अतिथि को खिलाने में उन्हें जो अद्भुत आनंद आता था, उसे शब्दों में पिरोना संभव नहीं।

( फोटो प्रिय मित्र प्रो. सुशील तिवारी जी  Sushil Tiwari और इंटरनेट के सौजन्य से)

Thursday, June 25, 2020

गंगा तेरा पानी अमृत...


गंगा तेरा पानी अमृत...

किसी भी संकट की वजह से परेशान होना स्वाभाविक है, मगर इसकी सबसे बड़ी खूबी है कि संकट के क्षणों में हम एक-दूसरे के नजदीक आ जाते हैं। सुख तो अनचाहे ही एक अदृश्य दीवार सी खड़ी कर देता है। सो, कोरोना वायरस की महामारी के इस वैश्विक संकट की घड़ी में लोग खुद के साथ ही अपनों के लिए भी फिक्रमंद रहने लगे हैं। एक-दूसरे को फोन करके, व्हाट्सएप के माध्यम से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बेहतर बनाए रखने के लिए अपने-अपने हिसाब से सलाह देते रहते हैं।

मैं भी इन दिनों अपनों की इन्हीं स्नेह भावनाओं से आप्लावित होता रहता हूं। कोई नियमित रूप से योगाभ्यास करने की सलाह देता है तो कोई आर्ट ऑफ लिविंग की सुदर्शन क्रिया करने के लिए प्रोत्साहित करता है। कोई सद्गुरु जग्गी वासुदेव के बताए अभ्यास को दुहराने के लिए कहता है। अन्य वीडियो संदेश में भी अलग-अलग तरीके से कुछ ऐसे ही भाव सन्निहित रहते हैं। इन संदेशों का अनुशीलन करने के बाद जहां तक मैं समझ पाया हूं, सबका लक्ष्य एक ही है, हां, उस तक पहुंचने के लिए अलग-अलग रास्ते बना लिए गए हैं।

बचपन से हम गंगाजल की पवित्रता के बारे में सुनते रहे हैं। अपनी-अपनी भौगोलिक स्थिति के अनुसार हर जगह के गंगाजल को समान रूप से वंदनीय और सर्वोच्च महत्व देते हुए अनिवार्य रूप से पूजाघर में रखा जाता रहा है। हां, बढती उम्र, शिक्षा और संपन्नता तथा सामर्थ्य के कारण जब किसी को हरिद्वार जाने का अवसर मिला तो गंगा की धारा का सौंदर्य देखा तो स्वाभाविक रूप से ही मोहित हो गया। स्मृति स्वरूप अपने साथ गंगाजल लाना नहीं भूला। वहां उसे किसी ने ऋषिकेश के बारे में बताया तो तत्काल ही चल पड़ा। वहां गंगा का अविरल निर्मल प्रवाह देखकर वह आध्यात्मिक आनंदातिरेक से भर उठा। मां गंगा के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुए एक अन्य बर्तन में पवित्र गंगाजल सहेजना नहीं भूला। इस तरह गंगा तो एक ही रही, लेकिन गंगाजल की अलग-अलग श्रेणियां निर्धारित कर दी गईं। पटना का गंगाजल, वाराणसी का गंगाजल, हरिद्वार का गंगाजल, ऋषिकेश का गंगाजल, गंगोत्री का गंगाजल आदि-इत्यादि।

इसी तरह सनातन परंपरा में सदियों पहले से हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने मानव मात्र के शारीरिक-मानसिक विकास, उत्थान व कल्याण के लिए योग और अन्य विधाओं का विपुल भंडार संजो रखा है। विभिन्न मार्गों के प्रतिपादक आज इसी विपुल भंडार में से सामग्री लेकर उसे अपने हिसाब से अलग-अलग तरीके से पैकिंग करके हमारे सामने उपस्थित हैं।

 दूसरे शब्दों में कहें तो अमूमन दूध और चीनी के सम्मिश्रण से ही मिठाइयां बनाई जाती हैं। हां, इसे बनाने की प्रक्रिया अलग-अलग हो सकती है। कोई दूध को खौला-खौलाकर उसे खोया में परिणत कर उससे मिठाई बनाता है तो कोई दूध को फाड़कर छेना बनाकर उससे मिठाई बनाता है। कई बार अन्न और फल-सब्जी से भी मिठाई बनाई जाती है। मसलन बेसन के लड्डू, पेठे का मुरब्बा, आंवला का मुरब्बा, परवल की मिठाई आदि-इत्यादि।

कुल मिलाकर गंगाजल के माध्यम से हमारा उद्देश्य जहां जीवन में आध्यात्मिक पवित्रता लाना है, वहीं मिठाई के जरिए जुबान को तीखे, नमकीन, कड़वे स्वाद से मुक्ति दिलाकर मिठास का अहसास कराना है। इसी तरह हम किसी भी पंथ प्रतिपादक के सिद्धांतों से सहमत हों या न हों, मगर अपने शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए हमें योग-साधना को अवश्य ही अपने दैनंदिन जीवन का हिस्सा बनाना चाहिए। अफसोस, मैं खुद ही अभी पर उपदेश कुशल बहुतेरे का ही पथिक हूं, मगर आशा करता हूं कि आप मित्रों की प्रेरणा से इस पर अमल करने की कोशिश अवश्य कर पाऊंगा।    


Tuesday, June 16, 2020

माटी का धन, सोने सा मन

माटी का धन, सोने-सा मन

पहले के जमाने में अधिकतर लोगों के घर फूस के बने होते थे। इसे बनाने में लगी सभी चीजें बांस, खड़, इंकड़ी-कांड़ा ( सरकंडा), मूंज अपने या अपनों के खेत की होती थीं। दरअसल तब लोगों के पास अपनी कहलाने वाली और सबसे अधिक उपलब्ध वस्तु अपना खेत और उसकी माटी ही हुआ करती थी। वहीं, समाज में लेन-देन का अधिकतर व्यवहार परस्पर सहयोग और वस्तु-विनिमय प्रणाली पर ही आधारित था। यानी एक व्यक्ति के पास जो वस्तु होती, वह किसी और को देकर उससे अपनी जरूरत की दूसरी वस्तु ले ली जाती। यहां तक कि मजदूरी के बदले भी अनाज देने का ही चलन था। नकदी के नाम पर रुपये की कौन कहे, पैसे भी बहुत दूर की कौड़ी थी।

कुछ लोगों के घरों की दीवारें मिट्टी की भी होती थीं, जो औरों के मुकाबले उनकी अधिक संपन्नता का भी परिचायक होती थीं। जिनके पास अपने खेत नहीं होते, वे पड़ोसियों की खेत से माटी ले लिया करते थे। तब समाज में आपसी सहकार की भावना भी प्रबल हुआ करती थी। मसलन टोले-मोहल्ले के सभी लोग एक साथ किसी एक के घर की मिट्टी की दीवारें खड़ी करते। उसका काम पूरा होने के बाद यही प्रक्रिया दूसरे घर के निर्माण में अपनाई जाती। …और इस तरह पूरा घर बन जाता।

इक्के-दुक्के विशिष्ट लोगों के मकान ईंट से भी बने होते थे। हालांकि तब ईंट भी नकद रुपये देकर खरीदने की स्थिति कहां हुआ करती थी। लोग खुद का ही भट्ठा लगाते, जिसमें अपने ही खेत की मिट्टी से ईंटें पथवाई जातीं। हालांकि पक्की ईंटें होने के बाद भी लोगों का मिट्टी से मोह खत्म नहीं हो पाता था। तभी तो दीवारों के लिए ईंटों की चिनाई मिट्टी को गीला कर उससे ही की जाती थी। दीवारें चाहे मिट्टी की हों या ईंट की, अधिकतर मकानों के ऊपर छप्पर ही हुआ करता था। ...और जिन इक्के-दुक्के मकानों की छत होती तो वह भी लकड़ी के बीम और शहतीर के सहारे अपेक्षाकृत कम पतली ईंटों से बनाई जाती थी। तब आज की तरह गिट्टी-बालू-सीमेंट-सरिया का इस्तेमाल कर आरसीसी तकनीक से छत ढालने का चलन शुरू नहीं हो पाया था।   

...और  इन घरों की दीवारें बीस-तीस इंच तक मोटी हुआ करती थीं। मगर इतनी मोटी दीवारें होने के बावजूद इनमें रहने वालों के कान बहुत पतले होते थे। वे पड़ोस में रहने वाले की छोटी से छोटी परेशानी को भी जान लेते थे और उसके समाधान के लिए बिना कुछ कहे ही आगे आ जाते थे। एक-दूसरे की खुशियां भी सभी के लिए साझा हुआ करती थीं। बच्चों के लिए आस-पड़ोस से लेकर  दोस्त विशेष तक के घर अपने घर से बढ़कर हुआ करते थे। जहां जब मन हुआ, जी भरकर खा लिया। यहां तक कि तेज धूप होने पर मित्र की मां के आंचल की छांव में सो भी जाया करते थे। यही कारण था कि कभी कोई महिला अपने बच्चे को लेकर चिंतित नहीं होती थी।  अफसोस...आज तो अपने घर में हारी-बीमारी या गमी-मुसीबत में कोई अगर उसके बच्चों को दो-चार दिन खिला भी दे तो उम्र भर अहसान जताने के अलावा ताने मारने से भी बाज नहीं आती। 

... प्रकृति में घुली अनुपम सुगंध
कुम्हार जब आवा में मिट्टी के बर्तन या फिर खपड़े पकाते तो उससे निकलने वाले धुएं की सुगंध से मन आह्लादित हो उठता। ऐसे ही ईंट पकाने के लिए भट्ठा में आग लगाए जाने के बाद उससे निकलने वाले धुएं की विशिष्ट सुगंध से पूरा माहौल कई दिनों तक मह-मह करता रहता। मानों किसी यज्ञ की अग्नि में डाली गई समिधा की सुगंध उसके पावन उद्देश्य का अहसास करा रही हो। 

मिट्टी और आग के मिलन का उत्सव
गांव के लोग आनंद मनाने के लिए किसी उत्सव विशेष का इंतजार नहीं करते, बल्कि खुद ही उत्सव के अवसर बना लिया करते हैं। ईंट पकाने के लिए भट्ठा फूंकने का मौका भी ऐसे ही मानों अग्निदेव की आराधना का उत्सव हुआ करता था। ...और उत्सव के पल में अपनों के साथ भोजन तो लाजिमी है ही। बाबूजी के साथ उनके एक सहयोगी मित्र के यहां ऐसे ही अवसर पर भात-दाल के सामान्य भोजन का विशेष स्वाद 35-40 साल बाद भी भूल नहीं पाया हूं।

Tuesday, June 9, 2020

गांव-गांव गंगा, द्वार-द्वार प्याऊ

गांव-गांव गंगा, द्वार-द्वार प्याऊ

कहते हैं मन चंगा तो कठौती में गंगा। ...और जब मन में परोपकार तथा जीव मात्र के कल्याण की भावना से संकल्पबद्ध होकर तालाब खुदवाया जाए तो फिर ऐसे तालाब को तो गंगा का दर्जा दिया ही जा सकता है। पहले अमूमन हर गांव में सार्वजनिक रूप से या कोई संपन्न व्यक्ति खुद के खर्च से ही तालाब खुदवा देता था। हालांकि व्यक्तिगत प्रयास से खुदवाए गए इस तालाब का उपयोग गांव के सभी लोग स्नान करने, कपड़े और बर्तन धोने के अलावा धार्मिक क्रियाकलाप के लिए भी किया करते थे। यहां तक कि पशुपालक अपने पशुओं को नहाने और पानी पिलाने के लिए इन तालाबों का उपयोग निर्बाध रूप से किया करते थे।
वैशाली के ऐतिहासिक पुष्करणी सरोवर की ख्याति तो भगवान बुद्ध, भगवान महावीर और अनिंद्य सुंदरी आम्रपाली के साथ भारत की सीमा को पार कर संपूर्ण विश्व में व्याप्त हुई। मिथिला क्षेत्र में तालाब की बहुतायत के कारण " पग-पग पोखर माछ मखान"  जैसी लोकोक्ति प्रचलित हो गई।  ...और बिहार में कार्तिक शुक्ल षष्ठी-सप्तमी के दिन भगवान सूर्य की उपासना के महापर्व छठ के अवसर पर तालाबों के सजे-धजे घाट और श्रद्धालुओं की भीड़ सहज ही गंगा तट का अहसास कराती है। वहीं, दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा के दौरान प्रतिमा विसर्जन से मानव शरीर की नश्वरता का संदेश भी अनायास ही मिल जाता।
 वहीं, पहले गांवों में हर पांच-दस घर के बीच एक कुआं ( इनार-इंडा)  अवश्य ही हुआ करता था। इन कुओं पर डोरी से बंधी बाल्टी रखी रहती, ताकि वहां से गुजर रहा कोई भी व्यक्ति अपनी प्यास बुझा सके। कई बार असावधानीवश हाथ से रस्सी छूट जाने से बाल्टी कुएं में गिर जाती, जिससे बड़ी समस्या हो जाती। तब कुआं में कांटा डाल उसमें फंसाकर बाल्टी निकाली जाती। हर टोले-मोहल्ले में कुआं में गिरी बाल्टी को हिकमत से निकालने वाले विशेषज्ञ भी हुआ करते थे। बार-बार कुएं में बाल्टी गिरने की समस्या का सामना न करना पड़े, इसलिए कई कुओं पर दो खंभों के बीच एक बांस को फंसा दिया जाता। बांस के एक छोर पर कोई वजनी लकड़ी बांध दी जाती तथा बांस के दूसरे छोर से रस्सी से बंधी बाल्टी होती, जिससे बच्चों तक के लिए कुएं से पानी निकालना आसान हो जाता। हमारे यहां स्थानीय भाषा में इसे "ढेकुल" कहा जाता था।
परिवर्तन संसार का नियम है। किसी की सत्ता हमेशा कायम कहां रह पाती है। सो बीतते हुए समय के साथ इन कुओं का कमाल भी धीरे-धीरे कम होने लगा और लोहे के पतले पाइप के जरिए पाताल से पानी खींचने वाले चांपाकल (हैंडपंप) का जलवा छाने लगा। ये चांपाकल अमूमन दरवाजे पर गड़वाए जाते, ताकि वहां से गुजरते हुए राहगीर भी अपनी प्यास बुझा सकें। वहीं, परिवार के लोग किसी काम से बाहर जाने पर लौटने के बाद हाथ-पैर धोकर ही घर में प्रवेश करते। इससे बाहर की गंदगी घर की चौखट के अंदर प्रवेश नहीं कर पाती।

शहरों में अपेक्षाकृत अधिक संपन्नता होने के कारण सुरक्षा का भाव भी अधिक प्रबल होता है। सो शहरों में मकान चारदीवारी के कवच में सिमटे होते हैं। इन मकानों में गांवों की तुलना में काफी अधिक सुविधाएं उपलब्ध होती हैं, मगर इनके सामने से गुजरते हुए किसी राहगीर को प्यास लग जाए, तो उसकी समस्या का समाधान कदापि संभव नहीं हो पाता। महज प्यास बुझाने के लिए बड़ी अट्टालिकाओं की कॉल बेल बजाने की हिम्मत करना इतना आसान भी कहां होता है। हां, कुछ उदारमना लोग अपनी चारदावारी के बाहर वाटर कूलर जरूर लगा देते हैं। हालांकि हाइजिन के प्रति अधिक जागरूक शहरी लोग जूते-चप्पल के साथ आई बाहर की गंदगी लिए बेझिझक अंदर चले जाते हैं, क्योंकि उनके मकान में मेन गेट के बाहर हाथ-पैर धोने की व्यवस्था होती ही नहीं।
कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी ने लोगों की जान सांसत में डालने के साथ ही आचार-व्यवहार सब कुछ बदलकर रख दिया है। कल एक अखबार में इसी बदलाव को रेखांकित करती खबर पढ़ी। इसका लब्बोलुआब यह था कि डवलपर्स अब घरों की डिजाइन में कोरोना नॉर्म्स को शामिल कर रहे हैं। इसके तहत , घर के बाहर हाथ-पैर धोने का स्पेस रखा जा रहा है। इस खबर को पढ़ने के बाद सहसा ही याद आ गए गांव के दिन जब बाहर से आने के बाद हाथ-पैर धोकर ही घर के अंदर प्रवेश करना हर आम-ओ-खास की आदत में शुमार था।

इतिहास हो गये इनार
बदलते हुए समय के साथ गांवों में भी बहुत कुछ बदल गया। कुआं खुदवाने की तुलना में हैंडपंप लगवाना ज्यादा आसान और कम श्रमसाध्य था। फिर हैंडपंप कुआं के मुकाबले जगह भी कम घेरता था और इससे पानी निकालना भी कहीं अधिक आसान होता है। इसके साथ ही कुएं की तरह हैंडपंप में न बाल्टी गिरने की चिंता रही न किसी बच्चे के गिरने की आशंका, सो धीरे-धीरे हैंडपंप का चलन बढ़ता चला गया और इनार इतिहास बनकर रह गए। अब तो गांव में बमुश्किल एकाध कुआं ही बचा है, जहां लड़की की शादी के अवसर पर पनकट्टी की रस्म के लिए मंगलगान करती हुई महिलाओं का हुजूम उमड़ता है।

झूठी हो गई कहावत
पहले के समय में मनुष्य मशीनों कां दास नहीं हुआ था। उसे अपने बाहुबल पर भरपूर भरोसा था। सो, इन तालाबों की खुदाई कुदाल-फावड़े से इस कदर की जाती थी कि गहराई धीरे-धीरे बढ़ती थी। तभी तो कहते थे कि अपने गांव के तालाब और दूसरे के गांव के श्मशान में डर नहीं लगता। दरअसल लोगों को अपने गांव के तालाब की गहराई का अंदाजा होता था, जबकि दूसरे गांव में तालाब की गहराई से अनभिज्ञ होने के कारण डर लगता था। मगर अब तो गांवों में तालाब महज मछली पालन की जगह बनकर रह गए हैं। जेसीबी से इस कदर खुदाई करा दी जाती है कि पता ही नहीं चलता कहां कितनी गहराई है। रही-सही कसर पूरी कर देती है तालाब में मछलियों की उदरपूर्ति अथ च पोषण के लिए डाली गई सामग्री। इससे पानी में ऐसी बदबू भर जाती है कि बताना मुश्किल है। यही वजह है कि गांवों में भी अब तालाब में नहाने का चलन खत्म हो गया है। छठ पूजा भी दरवाजे पर गड्ढा खोकर कर ली जाती है।

Wednesday, June 3, 2020

जन-जन के मन में मानस...



देश और राज्य की तरह हर समाज-गांव की भी अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है। हमारे यहां सदियों से सामाजिक जीवन में धर्म पूरी तरह रमा-बसा हुआ है। इसकी झलक उस गांव विशेष की उपासना पद्धति, भजन-कीर्तन में सहज ही देखी जा सकती है।

बिहार के वैशाली जिला स्थित हमारा गांव आस-पड़ोस के गांवों के मुकाबले क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से अपेक्षाकृत काफी बड़ा है। ऐसे में भजन-कीर्तन की कमान गांव के हर टोले में अलग-अलग कीर्तन मंडली के पास थी। इन कीर्तन मंडलियों के पास साज के नाम पर महज एक ढोलक, चार-छह जोड़ी झाल (मंजीरा) और किसी-किसी के पास दो-चार जोड़ी करताल हुआ करती थी। मगर भक्ति भाव में तल्लीन होकर जब वे सामूहिक टेर छेड़ते तो मंत्रमुग्ध श्रोता भक्ति रस-गंगा में गोते लगाने लगते। 

आज से चार-पांच दशक पहले हमारे टोले में अमूमन हर मंगलवार और शनिवार की शाम किसी न किसी के यहां सुंदरकांड का पाठ हुआ करता था। इसका सुफल यह भी देखने में आता कि अक्षरज्ञान से अनभिज्ञ कई लोगों को भी पूरा सुंदरकांड कंठस्थ हो गया था। वहीं आश्विन महीने के शारदीय नवरात्र में दुर्गा पूजा के दौरान विभिन्न सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के साथ ही रामचरितमानस के नवाह्न पारायण पाठ नियमित रूप से होते थे। साल में दो-चार बार कहीं न कहीं रामचरितमानस का 24 घंटे का अखंड पाठ भी हो ही जाता था। इस दौरान सामूहिक समवेत स्वर में मानस के पाठ से बड़ा ही मनोरम और हृदयग्राही वातावरण उपस्थित हो जाता। इसके साथ ही ब्रह्म स्थान, शिव मंदिर पर सामूहिक रूप से या फिर व्यक्तिगत रूप से किसी के यहां अष्टयाम हरिनाम संकीर्तन के भी आयोजन होते थे। अष्टयाम हरिनाम संकीर्तन के बाद पूरे गांव में शोभायात्रा निकाली जाती, जिसमें कीर्तन मंडली भजन गाती चलती।

इन सभी आयोजनों की पूर्णाहुति के बाद आरती गायन का आनंद भी अद्भुत-अद्वितीय हुआ करता। बचपन के दिनों को याद करता हूं तो श्री टेकनाथ झा अपने भावपूर्ण स्वरों में जब "आरती कुंज बिहारी की...गिरिधर कृष्ण मुरारी की" गाते तो कीर्तन मंडली की कौन कहे, वहां उपस्थित पूरा जन समुदाय ही उनके पीछे-पीछे इस आरती को दुहराने लगता। उनकी मधुर आवाज में " आरती करो, हरिहर की करो, नटवर की भोले शंकर की..." सुनकर भी लोग भाव विभोर हो जाया करते। इस कीर्तन मंडली के व्यास हुआ करते थे श्री सत्यनारायण कुमर उर्फ नीरू कुमर। वे जब " करिअउन आरती मंगलिया बजरंग बली की"  और " बैसू बाबा कांवड़ में आरती उतारू हे..."  गाते तो ऐतिहासिक नगरी वैशाली की अपनी बोली वज्जिका और मिथिलेश नंदिनी की बोली मैथिली की मिठास वातावरण में घुल जाती।  

हमारे टोले की कीर्तन मंडली में ढोलक बजाने की जिम्मेदारी श्री बालेंद्र मिश्र बखूबी निभाते थे। बच्चे जब उन्हें प्रणाम करते तो वे आशीर्वाद देते - माखन-मिश्री खाओ, खूब मोटाओ। उनके स्वभाव की यह विशेषता शायद माखन-मिश्री के प्रेमी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति-भावना के फलस्वरूप थी। ...और यही कारण था कि भजन-कीर्तन के दौरान कई बार उनके अंदर का भी गायक जाग उठता और ढोलक बजाने के साथ-साथ वे गा उठते- "छोटी छोटी गैया मेरो, छोटे-छोटे ग्वाल बाल, छोटे-छोटे हमरो मदन गोपाल...घास खएतई गैया मेरो, दूध पीतई ग्वाल बाल, माखन खएतई हमरो मदन गोपाल। ...और इस भजन की प्रस्तुति से मानों गोकुल और नंदगांव का दृश्य साकार हो उठता।

अपने टोले ही नहीं, गांव में भी कहीं सुंदरकांड और रामचरितमानस पाठ का आयोजन होता तो श्री विश्वनाथ मिश्र यदि गांव में रहते तो उनकी उपस्थिति अनिवार्य हुआ करती थी। रामचरितमानस की सैकड़ों चौपाइयां, दर्जनों छंद-दोहे उन्हें याद थे, जिन्हें परस्पर बातचीत के दौरान वे प्रसंग सहित सुनाया भी करते थे।

मेरे पिता तुल्य अग्रज श्री रामकुमार मिश्र भी इस कीर्तन मंडली की अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी थे। रामचरितमानस को  तो उन्होंने अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बना लिया था। प्रतिदिन सुबह पूजा के दौरान वे रामचरितमानस के कुछ पृष्ठ नियमित रूप से अवश्य पढ़ते। मानस के प्रति समर्पण का ही परिणाम था कि व्यस्तताओं के बावजूद वे सुंदरकांड और रामचरितमानस के अखंड पाठ में अवश्य ही शामिल होते। श्री भरतनारायण मिश्र भी इन आयोजनों में अवश्य ही सहभागिता निभाते। मुझे आज भी याद आता है जब पड़ोसी गांव मंडईडीह के एक मंदिर  में चंद्रग्रहण पर आयोजित रामचरितमानस के अखंड पाठ में अपने गांव के कई लोगों समेत मैं भी उनके साथ गया था। इनके अलावा श्री राम किशोर मिश्र भी नियमित रूप से सुंदरकांड पाठ के आयोजनों में अवश्य ही शामिल होते। अफसोस, यहां जिन भगवद्प्रेमियों का मैंने जिक्र किया है, वे सभी अब हमारे बीच नहीं रहे, परमपिता परमेश्वर के धाम के निवासी हो गए। हालांकि उनकी ओर से प्रवाहित भक्ति-सरिता आज भी समाज में अविरल रूप से प्रवाहित हो रही है।

नौ दिनों तक रहा भक्तिमय वातावरण
हमारे गांव के लोगों के पुण्य का फल कहें या फिर पूर्वजों का आशीर्वाद कि महान संत मौनी बाबा ने 1970 के दशक में नौ दिवसीय गायत्री महायज्ञ के लिए हमारे गांव का चयन किया था। उस दौरान जहां हवन-यज्ञ के दौरान गायत्री महामंत्र से वातावरण गुंजायमान रहा, वहीं अपने गांव समेत आस-पड़ोस के दर्जनों गांवों की कीर्तन मंडलियों ने लगातार नौ दिनों तक अहर्निश हरिनाम संकीर्तन " हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। " के मधुर गायन से वातावरण को भक्तिमय बनाए रखा। इसके अलावा प्रभु श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं के मंचन श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र होते। अपने जिले की कौन कहे, आस-पड़ोस के जिलों के हजारों लोग इस महायज्ञ में शामिल होकर पुण्य के भागीदार बने। हम बच्चे इस आयोजन के धार्मिक महत्व को तो क्या और कैसे समझ पाते, हमारे लिए तो यह नौ दिनों तक लगातार चलने वाला मेला ही था। ...और मेरा विशेष सौभाग्य कि गायत्री महायज्ञ का आयोजन स्थल मेरे घर से महज 100-150 मीटर की दूरी पर था, सो मां से  10-20 पैसे मांग लेता और दौड़ते हुए मेले में पहुंच जाता। हां, मौनी बाबा से मिले पेड़े का अद्भुत स्वाद करीब चार दशक बाद भी नहीं भूल पाया हूं। पुण्य अर्जित करने के नाम पर तो जहां तक याद कर पाता हूं, अपार जनसमूह के बीच दादी और चाची के साथ यज्ञशाला की परिक्रमा जरूर की थी।

Monday, June 1, 2020

भऊजी नाचे छमाछम...

भउजी नाचे छमाछम...
आजकल न जाने क्यों लोग अपने बच्चों के लिए कुछ अधिक ही चिंतित रहने लगे हैं। ढाई-तीन साल का होते-होते बच्चे को प्ले स्कूल के नाम पर मानों किसीकैदखाने में भेज दिया जाता है। यही नहीं, इससे पहले सात-आठ महीने का होते-होते घर में ही नन्हे-मुन्ने बच्चे को तहजीब और सलीका सिखाने की क्लास शुरू हो जाती है। मासूम बच्चा मीठी तोतली जुबान में नाना-दादा बोलना शुरू करता ही है कि मां टोक देती है- नाना नहीं...नानाजी। दादा नहीं...दादाजी। नन्हा-सा बच्चा हक्का-बक्का रह जाता है। कुछ समझ ही नहीं पाता। और इसके साथ ही उसके नेचुरल विकास पर तमीज का ग्रहण जान-बूझकर लगा दिया जाता है।

पहले ऐसा नहीं था। चार-पांच दशक पहले के दिनों में लौटें तो उस समय गांव के लोग अपनी ही रौ में मस्त रहा करते थे। दुनियादारी से दूर अपने भदेसपन में रमे रहना उन्हें खूब भाता था। तब किसी संबोधन में जी नहीं लगाने से सभ्यता का संकट उत्पन्न नहीं होता था। तभी तो बचपन की बात तो दूर, उम्र बढ़ने के बाद भी सलीके  के नाम पर दादा-दादी, चाचा, चाची, मामू-मामी, मौसी-मौसा, फूआ-फूफा आदि शब्दों के साथ जी लगाना नहीं सिखाया जाता था। ...और फिर बच्चों की कौन कहे, बड़े भी इस तथाकथित तहजीब को निभाने की जरूरत नहीं समझते थे। 
इंसानी संबंधों की कौन कहे, सर्वशक्तिमान भगवान के साथ भी जी लगाने का चलन नहीं था।  यहां तक कि  लोग ईश्वर को तुम कहने तक में परहेज नहीं करते थे। प्रार्थना करते थे- "तुम्हीं हो माता,पिता तुम्हीं हो...", "तुम्हीं हो मेरे जीवन की नैया के खेवनहार..." आदि-इत्यादि। हां, समाज में एक बात जरूर देखने को मिलती थी। उस जमाने में भी तथाकथित भदेस कहे जाने वाले गांवों तक की महिलाओं में अपनी सास को सरकारजी या माताजी कहने का चलन अवश्य था। इसके पीछे वजह परिवार में सास की हनक थी या फिर बहू की ललक कि यह रिवाज चलता रहा तो भविष्य में उसकी बहू भी उसके संबोधन में जी लगाकर पुकारेगी, यह बता पाना मुश्किल है।

...मगर इन सारी आदतों-रिवाजों-रिवायतों से बेखबर एक रिश्ता ऐसा था, जिसमें बिना किसी के सिखाए अनायास ही "जी" जुड़ा था। जी हां, तब बड़े भाई की पत्नी को भउजी कहा जाता था। बच्चे अपनी रौ में आते तो अनायास ही टेर छेड़ देते- "भउजी नाचे छमाछम"।  हालांकि कभी किसी भउजी को मैंने छम-छम नाचते नहीं देखा। उनके पायल की रुनझुन अवश्य सुनी है। हां, भैया की शादी की चर्चा से बच्चों के दिल जरूर छमाछम करके नाचने लगते - झूम उठते कि भउजी के कदमों के साथ हमारे अंगना में भी बहार आएगी।

मैं जब मिडिल स्कूल में था तब भैया की शादी हुई थी। भउजी के आने के हफ्ते-दस दिन तक हम तीन-चार भाई-बहनों में होड़ रहा करती थी कि आज किसे भउजी के साथ खाने का सौभाग्य मिलता है। ...और सच कहूं तो आगे चलकर की विशेष अवसरों पर विशिष्ट व्यक्तियों के साथ डाइनिंग टेबल साझा करने का मौका मिला, लेकिन कभी उस आनंद की अनुभूति नहीं हुई जो तब भउजी के साथ एक थाली में खाने में मिलती थी। ...भाभी के साथ खेली गई होली आज भी दिल को गुदगुदा जाती है। कभी उन्हें बीते दिनों की याद दिलाता हूं तो अपनी जवानी और हमारे बचपन को याद कर षोडशी से साठोत्तरी हो चुकी भउजियों के चिपके हुए गालों पर आज भी बिना गुलाल के ही लाली छा जाती है।

...दरअसल श्रीमती जी का मोबाइल चार-पांच दिन से कोमा में है। उनके लिए मोबाइल खरीदने की राय लेने को एक मित्र को फोन किया तो वह कई सारे मॉडल्स के बारे में बताने लगा। इसी क्रम में उसने कहा कि फलाने-फलाने मॉडल में बैटरी अलग से नहीं आती, बल्कि इनबिल्ट होती है। यह सुनकर मुझे भउजी शब्द में इनबिल्ट "जी" की सहसा ही याद हो आई...और फिर दिमाग के मेमोरी कार्ड से यादों की फाइलें के बाद एक दिल के सॉफ्टवेयर में डाउनलोड होती चली गईं।