Wednesday, November 25, 2009

...तो सीएम-पीएम क्यों न चुने जनता?

गुलाबीनगरी में गत 23 नवंबर को हुए शहरी निकाय के चुनाव में पहली बार जनता ने अपना महापौर चुनने के लिए मतदान किया। जी हां, पहले जनता पार्षदों को चुनती थी और फिर वे सब मिलकर महापौर चुनते थे। इस बार चुनाव में दो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की व्यवस्था की गई थी। यानी मतदाताओं ने महापौर और पार्षद के लिए अलग-अलग वोट डाले। आज यानी 26 नवंबर को इस चुनाव का रिजल्ट आ जाएगा।
इस नई व्यवस्था के कई फायदे हैं। जैसे-पार्षदों के चुने जाने के बाद महापौर के लिए होने वाली रस्साकसी की नौबत नहीं आएगी और न ही पार्षदों की खरीद-फरोख्त हो सकेगी। इसके अलावा यह भी संभव हो सका कि यदि महापौर का उम्मीदवार आपकी पसंद के राजनीतिक दल का नहीं है, या उसके व्यक्तित्व से आपको शिकायत है तो आप उसकी जगह अन्य प्रत्याशी को अपना वोट दे सकते हैं और अपनी निष्ठा वाले राजनीतिक दल के पार्षद प्रत्याशी के पक्ष में मतदान कर सकते हैं।
इस चुनाव के बाद से ही बुद्धिजीवियों ही नहीं, आम लोगों में भी इस बात को लेकर चरचा गर्म है कि राज्य विधानसभाओं और लोकसभा चुनाव में भी यही प्रणाली क्यों न अपनाई जाए। फिर, वहां भी दल-बदल कानून, आलाकमान की ओर से यस मैन को थोपने के हालात, विधायकों-सांसदों की खरीद-फरोख्त पर रोक लग सकेगी।
हां, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के उम्मीदवारों को लेकर सार्वजनिक मंच पर विस्तृत रूप से खुली बहस होनी चाहिए। वे आम जनता के बीच खुलकर अपना पक्ष रखें और फिर मैरिट के आधार पर जनता उनका चयन करे। ऐसे में ही हमारा लोकतंत्र मजबूत हो सकेगा। आखिरकार लोकतंत्र के जनक भारतवर्ष में ही लोकतंत्र का गला कब तक घोंटा जाएगा। क्यों न हम पुरानी दकियानूसी व्यवस्था को उखाड़ फेंकें। यदि हर जायज-नाजायज बात के लिए-राजनीतिक दलों के के हितों के लिए-संविधान में संशोधन किया जा सकता है तो लोकतंत्र में प्राणवायु फूंकने के इस पवित्र उद्देश्य के लिए क्यों न संविधान में एक और संशोधन किया जाए।

Monday, November 16, 2009

जीते-जी क्यों न पढ़ लें गरुड़ पुराण ?

महानगरीय जीवन की कुछ मान्यताएं बीतते हुए समय के साथ परंपरा में तब्दील हो जाती हैं। गुलाबी नगर में भी ऐसी ही एक परंपरा है। यहां किसी के परलोकगमन पर मृत्यु के तीसरे दिन तीये की बैठक होती है, जिसमें परिजन-पुरजन-मित्रजन-रिश्तेदार-साथ काम करने वाले सभी एकत्रित होते हैं और मृत व्यक्ति को श्रद्धांजलि-पुष्पांजलि निवेदित करते हैं। आम तौर पर यह कार्यक्रम एक घंटे का होता है। जिनकी मृत्यु हो चुकी है, उनके प्रति श्रद्धा निवेदित करना और उनके परिजनों के प्रति शोक-संवेदना व्यक्त करना भारतीय परंपरा के अनुकूल है।
मैं यहां कुछ अलग किस्म की पीड़ा को शेयर करने के लिए मुखातिब हूं। यहां अमूमन तीये की बैठक के दौरान पंडितजी गरुड़ पुराण के कुछ अंशों का पाठ करते हैं। जैसा कि सर्व विदित है, गरुड़ पुराण में व्यक्ति के जीवन में किए गए काम के आधार पर भोगे जाने वाले हजारों तरह के नरक का वर्णन किया गया है।
भारतीय मान्यताओं के अनुसार, यदि हमारे पुराणों में कही गई बातें सत्य हैं और हमारे जीवन के कामकाज का फल हमें मरने के बाद भोगना ही पड़ता है, तो सावधानी के तौर पर हम जीवनकाल में ही गरुड़ पुराण को क्यों न पढ़ लें, जिससे हम अपने जीवन में अच्छे काम करके अपना अगला जन्म भी संवार लें।
गरुड़ पुराण के पाठ के दौरान पंडितजी जब प्रेत के द्वारा भोगे जाने वाले असह्य कष्टों का वर्णन करते होंगे, तो उनके प्रियजनों-परिजनों को कितनी पीड़ा होती होगी। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि ऐसे अवसरों पर गरुड़ पुराण की बजाय श्रीमद्भगवद्गीता के कुछ श्लोकों का पाठ किया जाए, जिमें मानव जीवन का सार छिपा हुआ है।

मोबाइल क्यों नहीं होता मौन?
जब किसी व्यक्ति के चिरमौन धारण करने पर शोकाभिव्यक्ति के लिए लोग एकत्रित होते हैं, ऐसे में भी कुछ लोगों का मोबाइल जब वाचाल हो जाता है तो उक्त व्यक्ति के संवेदनाशून्य होने का बोध होता है। क्या कुछ देर के लिए मोबाइल को मौन मोड पर नहीं रखा जा सकता। भाई, यदि मोबाइल प्रेम इतना ही अधिक है और उसके मौन होने पर आपका भी दिल दुखता हो तो मोबाइल को कंपायमान मोड पर कर दें, ताकि उसकी धड़कनों का अहसास आपको हो जाए और फिर आप जैसा उचित समझें, कर डालें। इतना तो ध्यान रखना ही चाहिए कि एक दिन हम सबको सदा के लिए मौन धारण करना ही है तो फिर कुछ पलों के लिए मोबाइल क्यों नहीं मौन हो सकता?

Saturday, November 14, 2009

...और कैसा होता है प्रलय

शुक्रवार को फिल्में रिलीज होती हैं और फिल्मों के जानकार इसकी चीर-फाड़ करते हैं। आजकल जैसी फिल्में बन रही हैं, उनकी तारीफ तो विरले ही पढ़ने को मिलती है। शनिवार को भी बॉलीवुड की फिल्म -तुम मिले- और हॉलीवुड की फिल्म 2012 की समीक्षा पढ़ी। वैसे भी आजकल इन समीक्षाओं को पढ़कर और फिर किराये की सीडी लाकर ही फिल्में देखकर ही काम चलाना पड़ता है।
न तो फिल्मों के बारे में ज्यादा समझता हूं और न ही इसके बारे में जानना चाहता हूं। मैं किसी इतर कारण से आप लोगों से मुखातिब हूं। आजकल कई बार लोगों की जुबान से प्रलय की आशंका से जुड़े सवालों से दो-चार होना पड़ता है। जहां तक मैं समझता हूं, आज जिस वातावरण में हम जी रहे हैं, वह किसी प्रलय से कम नहीं है।
आप सोचिए, जब 20 रुपए किलो आटा, 20 रुपए किलो आलू और 90 से 100 रुपए किलो में दाल खरीदना पड़ रहा हो, ढाबे पर एक अति पतली रोटी के चार रुपए चुकाने पड़ रहे हों, निकम्मी सरकारों के कारण स्वाइन फ्लू के साये में जीने को आप विवश हों, सरकारी अस्पताल लोगों के उपचार का नहीं, बल्कि डॉक्टरों, कंपाउंडरों और अन्य कर्मचारियों की कमाई का सबब बने हों, मिलावटी मावा और सिंथेटिक दूध की खबरें अखबारों की मेन लीड बनती हो, ऐसे में आम आदमी के लिए एक-एक दिन गुजारना किसी प्रलय का सामना करने से कम नहीं होता। आमजन के भाग्य विधाताओं का इन समस्याओं से कोई वास्ता नहीं पड़ता, इसलिए वे इसकी फिक्र नहीं करते।
इसके बावजूद आगामी सालों में प्रलय की भविष्यवाणी करने वाले तथाकथित ज्योतिषियों से मेरा निवेदन है कि आम जनता के लिए खुद ही बहुत सारी परेशानियां मुंह बाए खड़ी रहती हैं, सो वे अपनी ऐसी भविष्यवाणियों से बाज आ जाएं ताकि लोग चैन से रह सकें।

Wednesday, November 11, 2009

बच्चों के मरने का है इंतजार


गत वर्ष दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव के बाद अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी तो प्रदेशवासियों में स्वच्छ प्रशासन की उम्मीद जगी थी। गहलोत चूंकि गांधीवादी माने जाते हैं और उनके सादगी भरे आचार-व्यवहार से उनके ईमानदार होने में कोई संशय नहीं होता। इसके बावजूद पिछले कुछ दिनों से कुछ घटनाएं ऐसी हो रही हैं, जिनसे बार-बार ऐसा आभास होता है कि राजस्थान में सरकार है ही नहीं। जब तक कोई राजनीतिक दल और उसके नुमाइंदे विपक्ष में होते हैं, तब तक तो -हमें ऐसा करना चाहिए-ऐसा होना चाहिए- यह वक्त की जरूरत है- सरीखे जुमले जनता को भी अच्छे लगते हैं, लेकिन सत्तासीन होने के बाद ये जुमले जनता को डंक मारने लगते हैं, चुभने लगते हैं।
पिछले 29 अक्टूबर को जयपुर शहर से महज 16-17 किलोमीटर दूर बने इंडियन ऑयल डिपो के टैंकरों में आग लग गई थी। आग ने प्रलंयकारी रूप धारण कर लिया और सरकार ने हाथ खड़े कर दिए कि इसमें हम कुछ नहीं कर सकते। यह तो ईश्वर की कृपा थी कि हवा ने आग का साथ नहीं दिया, अन्यथा मरने वालों की संख्या दर्जन में नहीं, सैकड़ों में होती और घायलों की संख्या हजारों में। भवनों व संपत्ति का नुकसान भी अरबों-खरबों तक पहुंच जाता। इस अग्निकांड के बाद प्रशासन ने जिस रूप में आपदा प्रबंधन का धर्म निभाया, वह निहायत ही दिशाहीन और अप्रभावी रहा।
आग की लपटें थमने के बाद कारबन भरे जहरीले धुएं के बादल छंटे भी नहीं थे कि तीन नवंबर को शहर के नामी अंग्रेजी मीडियम एसएमएस स्कूल की प्राइमरी कक्षा की एक बच्ची को स्वाइन फ्लू होने की जानकारी उसके पिता ने स्कूल प्रशासन को दी। इसके बाद स्कूल ने स्वविवेक से एहतियात बरतते हुए एक सप्ताह की छुट्टी की घोषणा कर दी। उसके बाद से स्वाइन फ्लू से संक्रमित होने वाले बच्चों का आंकड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। बुधवार को प्रदेश में स्वाइन फ्लू के 83 नए मरीज मिले, जिनमें 71 अकेले राजधानी जयपुर में थे। इनमें भी स्वाइन फ्लू से प्रभावित बच्चों की संख्या 41 थी। चिकित्सा मंत्री और जिला प्रशासन अभी भी निजी स्कूलों को स्वविवेक से ही स्कूल बंद करने की हिदायत दे रहे हैं। और इन निजी स्कूलों का आलम यह है कि जिन स्कूलों में किसी बच्चे की स्वाइन फ्लू की रिपोर्ट पॉजीटिव मिलती है, तो उसमें अवकाश की घोषणा कर दी जाती है। ऐसे में कई अभिभावकों में दहशत का माहौल है और कई अभिभावक प्री-कॉशन लेते हुए भय के मारे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज रहे। सरकारी स्कूलों के बच्चों को तो भगवान भरोसे ही छोड़ दिया गया है। उनके बच्चों के लिए या उन स्कूलों में छुट्टी घोषित करने के कोई इंस्ट्रक्शन नहीं दिए जा रहे।
स्वाइन फ्लू का प्रकोप जिस तरह से बढ़ रहा है, इसमें संदेह नहीं कि आने वाले दिनों में यह महामारी का रूप धारण कर ले। बीमारी कैसी भी हो, उपचार से बचाव का महत्व अधिक होता है और इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता। अगस्त में पुणे में जब स्वाइन फ्लू फैला था, तब वहां के प्रशासन ने बिना देर किए स्कूल-कॉलेजों में छुट्टी की घोषणा कर दी थी। एहतियात के तौर पर मॉल और मल्टीप्लेक्स भी बंद कर दिए गए थे। स्थिति सामान्य होने पर स्कूल-कॉलेज, मॉल-मल्टीप्लेक्स सभी खुल गए और आज वहीं सब कुछ पटरी पर है।
क्या राजस्थान सरकार इस तरह के निर्णय नहीं ले सकती? मुख्यमंत्री गहलोत बहुत ही ईमानदार हैं, लेकिन उनके ईमानदार होने भर से प्रदेश की जनता का भला नहीं होने वाला। जनता की रक्षा और भले के लिए सरकार को जरूरी और त्वरित निरणय भी लेने होंगे, तभी उसकी उपादेयता सिद्ध हो पाएगी।
मुझे तो लगता है कि राजस्थान में सरकार नाम की कोई चीज है ही नहीं या है भी तो वह कहीं लापता हो गई है, जिसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवानी पड़ेगी। या फिर इस सरकार को बड़ी संख्या में बच्चों के मरने का इंतजार है...उसके बाद ही यह चेतेगी। ईश्वर सरकार को सद्बुद्धि दे जिससे प्रदेशवासियों को इस संक्रामक बीमारी से शीघ्रातिशीघ्र मुक्ति मिल सके।