Friday, December 12, 2008

`चिवड़ा-दही´ का जवाब नहीं

आइए, आज आपको बिहार के सुप्रसिद्ध डिश `चिवड़ा-दही´ की महत्ता सुनाता हूं। अभी कुछ दिनों पहले जनसत्ता में मृदुला सिन्हा का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्हें नारी के आंचल के दर्जनों गुण गिनाए थे। इसी बहाने उन्होंने बरगुन्ना (डेगची) के भी बारह गुणों से संपन्न होने की बात कही थी। संयोग से उसी रात जयपुर में मुझे एक शादी में जाने का अवसर मिला। जिन्होंने हमें निमंत्रण दिया था, वे हमारी प्रोफेशनल मजबूरी से वाकिफ थे कि हम देर रात ही शादी में शरीक हो सकेंगे। ऑफिस की ड्यूटी से फ्री होते-होते हम पांच-छह मित्र करीब 15 किलोमीटर की दूरी तय करके विवाह स्थल पर पहुंचे। पहुंचते-पहुंचते घड़ी की सूइयां साढ़े बारह से अधिक बजने का संकेत दे रही थीं। वहां बराती-घराती दोनों ही पक्ष के लोग भोजन कर चुके थे, दूल्हा-दुल्हन भी भोजन का स्वाद लेने के बाद विवाह-वेदी पर बैठने चले गए थे। पंडितजी व्यवस्थाएं जुटाने में लगे थे। कैटरिंग वाले और हलवाइयों ने भी भोजन शुरू कर दिया था। जो भोजन कर चुके थे, वे टेबल आदि समेट रहे थे। हमें पहुंचते ही कहा गया कि हम भी भोजन कर लें। मना करना शिष्टाचार के विपरीत होता, सो हमने भी `दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम´ पर अमल करते हुए भोजन के उस अंश को उदरस्थ करना शुरू कर दिया, जिन पर हमारा नाम लिखा था।
खाते-खाते मुझे बिहार में विवाह-शादी या अन्य अवसरों पर होने वाले भोज की याद आ गई। ऐसे अवसरों पर `चिवड़ा-दही´ ऐसा डिश होता है, जो मेजबान के पास मेहमान के लिए हर समय उपलब्ध होता है। चार बजे भोर में भी कोई छूटा हुआ बराती या अन्य अतिथि आ जाए तो बिना पेशानी पर बल लाए हुए उसके सामने `चिवड़ा-दही´ परोस दिया जाता है। सब्जी बची हो तो ठीक नहीं तो कोई बात नहीं। वैसे अमूमन ऐसे अवसरों पर आलू का अचार भी बनाया जाता है जो कई दिनों तक खराब नहीं होता और `चिवड़ा-दही´ के साथ इसका कंबिनेशन भी सही बैठता है। वैसे बतौर सहायक सब्जी या अचार न भी हो तो भी `चिवड़ा-दही-चीनी´ की त्रिवेणी ऐसा स्वाद जगाती है कि क्षुधा ही नहीं, मन भी तृप्त हो जाता है।
ऐसे में एक और वाकया याद आता है। भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी किशनगंज आए थे। मैं भी चला गया था भाषण सुनने। उन्होंने अपने भाषण में फास्ट फूड संस्कृति के बढ़ते प्रचलन का उल्लेख करते हुए कहा था कि `चिवड़ा-दही´ से अच्छा फास्ट फूड क्या होगा। बस चिवड़ा भिगोया, दही और चीनी से उसकी संगत कराई और हो गए तृप्त। बिहार के अधिकतर शहरों के भोजनालयों में भी नाश्ते के रूप में यह डिश आसानी से उपलब्ध हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि राजस्थान में ऐसा कोई टिकाऊ डिश नहीं होता है। जरूर होगा, लेकिन बदलते हुए दौर में हम अपनी संस्कृति से ही नहीं, पारंपरिक खान-पान से भी दूर होते जा रहे हैं और ऐसे में जब चूल्हा बुझ चुका होता है, तंदूर ठंडा हो चुका होता है, हलवाई जा चुके होते हैं और फिर कोई मेहमान (असमय) आ धमकता है तो मेहमान व मेजबान दोनों को ही इन परिस्थितियों से रू-ब-रू होना ही पड़ता है।

Saturday, December 6, 2008

प्रतीकों के पचड़े क्यों, गढ़ो नए प्रतिमान

उरदू जगत की स्वनामधन्य हस्ती शायर शीन काफ निजाम के जन्मदिन पर गत 26 नवंबर को आबशार संस्था की ओर से जयपुर के पिंकसिटी प्रेस क्लब में `नज्म और निजाम´ कार्यक्रम आयोजित किया गया। कार्यक्रम में अलीगढ़ के प्रो. शाफअ किदवई ने निजाम साहब की हाल ही प्रकाशित किताब `गुमशुदा दैर की गूंजती घंटियां´ की नज्म दर नज्म व्याख्या की। उनके बाद दिल्ली से आए प्रोफेसर डॉ. सादिक ने जब इस किताब और निजाम साहब और उक्त किताब पर बोलना शुरू किया तो कई बार उनमें मुझे कमलेश्वर का अक्स दिखा। जिन्होंने कमलेश्वर को सुना होगा, शायद मेरी बातों से इत्तफाक रखेंगे।
खैर, डॉ. सादिक ने बहुत सारी बातें कहीं, जो मुझ जैसे उरदू नहीं जानने वालों के लिए भी बोझिल नहीं थीं। इसी क्रम में उन्होंने सत्यजित राय की फिल्म `पाथेर पांचाली´ से जुड़ा एक रोचक वाकया सुनाया। यह फिल्म मैंने तो नहीं देखी, लेकिन जैसा कि उन्होंने कहा कि इस फिल्म के कई दृश्यों में बार-बार एक आवारा-सा कुत्ता दिखाई देता है। जैसा कि सादिक साहब ने बताया कि जब यह फिल्म रिलीज हुई तो उस समय के फिल्म समीक्षकों ने उन दृश्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की, जिनमें वह कुत्ता दिखता है। समीक्षकों का कहना था कि सत्यजित राय ने कुत्ते के प्रतीक के माध्यम से बहुत बड़ी बात सहज ही कह दी। यह तो हुई भेड़चाल वाली बात, लेकिन कुछ लोग इतर नजरिया भी रखते हैं। एक ऐसे ही अखबारनवीस ने हिम्मत करके खुद सत्यजित राय साहब से पूछ लिया कि कुत्ते को प्रतीक बनाने के पीछे उनकी क्या सोच थी। इस पर सत्यजित राय ने खुलासा किया कि दरअसल उनकी फिल्में आम जिंदगी के आसपास होती थीं। इसलिए वे बिना किसी भव्य सैटअप के सामान्य वातावरण में शूटिंग किया करते थे। ऐसी ही एक जगह पर पाथेर पांचाली की शूटिंग हो रही थी। शूटिंग के दौरान यूनिट के लोग बार-बार उस आवारा कुत्ते को भगा देते थे, लेकिन वह थोड़ी देर में वापस आ धमकता था। कई बार भगाने के बावजूद जब कुत्ता अपने कुत्तेपना से बाज नहीं आया तो हारकर फिल्म की शूटिंग शुरू कर दी गई और इस तरह उस फिल्म के दृश्यों में उक्त कुत्ता भी अमर हो गया।
सादिक साहब के कहने का मतलब यह था कि आजादी के पहले हमारे लेखक-कवि भी प्रतीकों में बात कहने को बाध्य थे, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऐसी स्थिति नहीं है। इसलिए लेखकों को प्रतीकों के पचड़े में पड़ने की बजाय नए प्रतिमान गढ़ने चाहिए तथा समाज को अपना सरवोत्तम देना चाहिए।
चलते-चलते : कुत्ते की बात चली तो बताता चलूं कि यह हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाला। महाभारत काल में कुत्ते ने जब स्वर्ग जाने के समय युधिष्ठिर का साथ नहीं छोड़ा, तो आज यह केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंदन का साथ कैसे छोड़ देता। मुंबई आतंकी हमले में शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने जब अच्युतानंदन को दुत्कारा तो वे अपनी औकात पर आ गए औऱ इतना घटिया बयान दिया कि पूरा देश उसके खिलाफ हो गया। हारकर उन्हें अपने उस बयान के लिए माफी मांगनी पड़ी। आज किसी ब्लॉगर भाई ने लिखा कि अच्युतानंदन यदि सीएम नहीं होते, तो कुत्ता भी उन्हें नहीं जानता।

Thursday, December 4, 2008

...और हो गया मतदान


चार दिसंबर यानी गुरुवार को राजस्थान विधानसभा की दो सौ सीटों के लिए मतदान संपन्न हो गया। इसी के साथ ही चार राज्यों दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हजारों प्रत्याशियों के भाग्य ईवीएम में बंद हो गए। आठ दिसंबर को दोपहर बारह बजते-बजते सैकड़ों प्रत्याशियों के चेहरों पर विजय की मुस्कान होगी तो हजारों प्रत्याशियों के सपने के साथ दिल भी टूटेंगे। उनके लाखों समर्थकों के दिल पर जो बीतेगी, इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है।
सत्तासीन राजनीतिक दल चाहे विकास के कामों की कितनी भी दुहाई देते रहे, विपक्षी दल सब कुछ जनता के मनोनुकूल कर डालने के सब्जबाग दिखाते रहे, लेकिन हुआ वही जो होना था। जितने लोगों से बात हुई, उसमें यही ज्ञात हुआ कि भारतीय जनमानस को पूरवाग्रह से मुक्त करना आसमान से तारे तोड़ने से भी कठिन है। चाहे बरसों से किसी दल विशेष से चिपके आम मतदाता हों या फिर भी जातिगत आधार पर पैमाने तय करने वाले कंजरवेटिव मतदाता, सभी अपनी धुरी पर कायम रहे। इन सबसे अलहदा अभिजात्य वर्ग के मतदाताओं ने सरकारी छुट्टी का इस्तेमाल मतदान की बजाय तफरी में किया या फिर टीवी पर बैठकर धारावाहिक व फिल्में देखने में।
हमारे स्वनामधन्य मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने भारतीय चुनाव प्रक्रिया में आमूलचूल सुधार के तहत फोटो पहचान पत्र की अनिवार्यता लागू करवाई, लेकिन व्यवस्थागत दोष को क्या कहें कि विसंगतियां खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं। आज दशकों बाद भी प्रत्येक मतदाता के पास फोटो पहचान पत्र नहीं हैं। जिनके पास पहचान पत्र हैं, उनके नाम मतदाता सूची में नहीं हैं। किराये पर रहने वालों के नाम मतदाता सूची से हट जाना तो उनकी नियति का दोष है ही, कई तो ऐसे भी मामले दिखे जहां किरायेदारों के पहचान पत्र भी थे और मतदाता सूची में नाम भी था, फलस्वरूप उन्होंने अपने मताधिकार का प्रयोग भी किया, लेकिन बेचारे मकान मालिक हाथ में पहचान पत्र लिए बूथ से सपत्नीक उदासमना लौट आए क्योंकि उनके नाम मतदाता सूची से गायब थे।
...तो फिर इन चुनावों में विजयश्री का वरण करने वाले प्रत्याशियों को अग्रिम बधाई और हारने वालों के प्रति हृदय से संवेदना क्योंकि केवल वे ही नहीं हारेंगे, हमारे देश में हजारों -लाखों लोगों की उम्मीदें छह दशकों से हार रही हैं, फिर भी उन्होंने उम्मीदों का दामन छोड़ा नहीं है।
(मिजोरम की बात मैंने इसलिए नहीं की क्योंकि उस छोटे से राज्य का राजनीतिक महत्व है ही कितना और जम्मू-कश्मीर में चुनाव आज के इंटरनेट के युग में भी आकाशवाणी पर आने वाले धीमी गति के समाचार की तरह हो रहे हैं, फिर भी संतोष की बात यही है कि जब हम चांद पर जाने में गर्व महसूस कर रहे हैं, आज भी धीमी गति के समाचार के श्रोता हैं और इसके प्रसारण की उपयोगिता बरकरार है। कुछ ऐसा ही हाल जम्मू-कश्मीर का है, जहां भले ही दर्जनों चरणों में चुनाव हों, लोकतांत्रिक प्रक्रिया को जिंदा रखने के लिए प्राणवायु की तरह जरूरी हैं। )

Monday, December 1, 2008

आई कार्ड मांगा क्या?


मुंबई में हुए आतंकी हमले में कई लोग मारे गए, जिनमें विदेशी मेहमान भी शामिल थे। एनएसजी व पुलिस के कई जवान शहीद हुए और अब राजनेताओं की विदाई शुरू हो गई है। गृहमंत्री शिवराज पाटिल के बाद महाराष्ट्र के बड़बोले गृहमंत्री व उपमुख्यमंत्री आर. आर. पाटिल ने भी इस्तीफा दे दिया। आसन्न खतरे को भांपकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने भी पद छोड़ने का संकेत दे दिया है और कांग्रेस आलाकमान भी इस पर सकारात्मक रुख अपनाते हुए उनका उत्तराधिकारी खोजने में जुटी है। पता नहीं वहां भी चिदंबरम जैसा कामचलाऊ विकल्प ही मिले। संभव है आने वाले दिनों में और भी राजनेता और वरिष्ठ अफसरों को भी पद छोड़ना पड़े। इसके बावजूद मुंबई में हुए आतंकी हमले ने हमारे देश के दामन को जिस तरह दागदार किया है, उन धब्बों को धोने में बरसों लग जाएंगे। जनता की अपनी पीड़ा है और पुलिस या सेना का अपना ददॅ। काफी दिनों पहले कहीं पढ़ा था-
पीछे बंधे हैं हाथ और तय है सफर।
किससे कहें कि पांव के कांटे निकाल दे।।
कुछ इसी तरह की निरीहता वाली स्थिति है। बड़े फैसले लेने वाले पदों पर ऐसे पिटे हुए प्यादों को बिठा दिया गया है, जो खुद अपने बारे में छोटे-छोटे निर्णय लेने के लिए अपने आकाओं का मुंह देखते रहते हैं, वे भला देशहित में फैसले कैसे ले पाएंगे।
मुंबई के होटलों में आतंकियों ने जिस तरह बसेरा किया और फिर आतंक का खूनी खेल खेला, इसके लिए होटल प्रबंधन भी काफी हद तक जिम्मेदार है। दसियों आतंकवादी होटल में कैसे दाखिल हुए, इस पर नजर क्यों नहीं रखी गई। इतनी अधिक मात्रा में विस्फोटक सामग्री होटल के अंदर कैसे गई, क्या इसकी पड़ताल करने वाला कोई नहीं था।
मेरे विचार से इन होटलों में एंट्री के समय मेहमानों से उनका परिचय पत्र अवश्य मांगा जाना चाहिए। अतिथियों को भी इसे अन्यथा नहीं लेते हुए सुरक्षा में सहयोग की तरह समझना चाहिए। संभव हो तो होटल की रजिस्टर में तथाकथित परिचय पत्र की फोटो कॉपी या अन्य डिटेल्स भी रखी जानी चाहिए। यह परिचय पत्र वोटर आई कार्ड या अन्य संस्थाओं से जारी पहचान पत्र भी हो सकते हैं। लंबे समय से बहु-उद्देश्यीय नागरिक पहचान पत्र की बात की जा रही है, लेकिन सरकारों की दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में इस योजना पर अमल नहीं किया जा रहा है।
इसके अलावा इन करोड़ों-अरबों रुपए की लागत से बने इन होटलों के मुख्य प्रवेश द्वार पर ऐसी एक्स-रे मशीन होनी चाहिए जिससे अंदर ले जाई जाने वाली सामग्री की असलियत का पता चल सके और इस तरह विस्फोटक सामग्री ले जाने की छूट किसी भी सूरत में नहीं मिलने पाए। समय रहते यदि ऐसे एहतियाती कदम नहीं उठाए गए तो फिर हम अपने सैकड़ों भाइयों को असमय खोते रहेंगे और फिर हादसे के बाद अरण्यरोदन कर आंसुओं से समंदर के पानी को और खारा बनाते रहेंगे।