Wednesday, September 30, 2009

...ज्यों मूक को मिल गई वाणी

आज रात दो बजे यूं ही कुछ मित्रों के ब्लॉग पढ़ रहा था कि अनायास ही ब्लॉगवाणी डॉट कॉम खोलने के लिए माउस क्लिक कर दिया। आज तो सचमुच कमाल हो गया वरना ब्लॉगवाणी की विदाई का संदेश देखकर मन खिन्न हो उठता था। ऐसा लगता है जैसे बहुत कुछ ऐसा खो गया है जो दिल की गहराइयों तक पैठ बना चुका था। मेरा आशय महज इन बातों से नहीं हुआ करता था कि ब्लॉगवाणी पर मुझे कितने लोगों ने पसंद किया या मेरा ब्लॉग सबसे अधिक पढ़े जाने वाले ब्लॉग की सूची में कितनी बार आया, बल्कि ब्लॉगवाणी खोलने के बाद पुस्तक की इंडेक्स की तरह पृष्ठ दर पृष्ठ आलेखों पर एक नजर डालना और पहली नजर में पसंद आने पर आलेख को पूरा पढ़ पाना। इतना ही नहीं, ब्लॉगवाणी ने एकाधिक बार कई सालों से बिछड़े मित्रों के ब्लॉग पढ़ने और उनसे संवाद साधने का अवसर भी उपलब्ध कराया।
ब्लॉगवाणी के बंद होने के बाद कई ब्लॉगर मित्रों से फोन पर अपनी व्यथा शेयर की, तो उधर भी पीड़ा कुछ वैसी ही महसूस हुई। ऐसा लग रहा था जैसे शब्दों से स्वर छिन गए हों। मुझ सरीखे मूकों को वाणी प्रदान करने के लिए ब्लॉगवाणी के नियंताओं का बहुत-बहुत स्वागत और हृदय से साधुवाद।

Monday, September 28, 2009

अर्द्धांगिनी मतलब....

चार दिन पहले मैंने पत्नी के सहयोग से ही बड़ी मंजिलें पाने का जिक्र किया था। आज सुबह एक मित्र से बात की तो पत्नी को लेकर अपनी पीड़ा वे दबा नहीं सके। हालांकि उनकी पीड़ा वैसी नहीं थी, जैसी पत्नी पीड़ितों की होती है। आज तक अमूमन हमलोग यही पढ़ते-सुनते आए हैं कि शादी के बाद पत्नी को पाकर ही मनुष्य का व्यक्तित्व पूर्णता को प्राप्त करता है। मित्र ने अर्द्धांगिनी शब्द की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की। उनका कहना था कि जिसके आधे अंग में हमेशा बीमारी रहती हो, उसे अर्द्धांगिनी कहते हैं। यह बीमारी मानसिक, शारीरिक, शक की या कुछ और तरह की हो सकती है। उनकी पीड़ा उनकी पत्नी के अभी हाल ही बीमार हो जाने को लेकर थी। उनकी पत्नी के आधे चेहरे पर लकवा हो गया था, जो उपचार के बाद अब काफी हद तक ठीक है। वे कह रहे थे कि आजकल महिलाओं में व्रत-उपवास करने की क्षमता पहले की तुलना में काफी कम हो गई है, फिर भी वे निर्जला उपवास करने से बाज नहीं आतीं। गांवों में तो महिलाएं आम तौर पर दोपहर दो बजे से पहले खाना नहीं खातीं। इस तरह खाली पेट रहने से होने वाली कई बीमारियां उन्हें घेर लेती हैं।
मित्र ने गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस का रेफरेंस देकर कहा -
नारी सुभाव सत्य कवि कहहिं। अवगुण आठ सदा उर रहहिं।
साहस अनृत चपलता माया। भय अविवेक असौच अदाया।
मैंने कहा कि तुलसी बाबा ने आदर्श नारी में ये अवगुण नहीं गिनाए हैं। काल के मुख में जाने को आतुर खुद अविवेक में अंधे रावण ने मंदोदरी को संबोधित करते हुए उपरोक्त पंक्तयां कही थीं। फिर कोई चाहे कुछ भी तर्क थे, गोस्वामी जी की इन पंक्तियों में कही गई नारी की भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता __
नारी विवश नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।
और तुलसी बाबा ने ही सर्वशक्तिमान ईश्वर के हाथों में मनुष्य की स्थिति का वर्णन करते समय भी कुछ ऐसे ही शब्दों का प्रयोग किया है -
सबहिं नचावत राम गोसाईं। नाचत नट मर्कट की नाईं।
इसलिए नारी के प्रति इस तरह के भाव लाना कदापि उचित नहीं है। मेरे काफी समझाने के बाद वे मेरे तर्क से सहमत हुए। यहां मेरे यह उद्धृत करने का उद्देश्य महज इतना ही है कि अपनी सहगामिनी के प्रति हम मनुष्यों (तथाकथित बुद्धिजीवियों) के मन में सदैव कुछ न कुछ चलता ही रहता है, जिसकी परिणति कभी इस तरह की अभिनव परिभाषाओं से हो जाया करती है।
इससे यदि किसी की भावनाएं आहत हुई हों तो किसी अज्ञात कवि की इन पंक्तियों के माध्यम से क्षमा चाहता हूं -
इस दुनिया में अपना क्या है, सब कुछ लिया उधार।
सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार।।

Sunday, September 27, 2009

आस्था अपार, उल्लास अदृश्य


शक्ति की आराधना के पर्व शारदीय नवरात्र की पूरणाहुति महानवमी पर रविवार को हुई। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शुरू हुए इस पर्व में श्रद्धालुओं ने अपनी श्रद्धा और सामरथ्र्य के अनुसार मां भगवती की आराधना की। संपूर्ण भारतवर्ष में मां भगवती की आराधना हुई। गुलाबीनगरी में रह रहे बंगाली समाज के लोगों ने शहर में कई स्थानों पर सामूहिक दुगाü पूजा महोत्सवों का आयोजन किया। इन महोत्सवों में स्थानीय लोगों की भागीदारी न के बराबर रही। ऐसे में यह बात कचोटती है कि उनके मन में मां भगवती के प्रति आस्था की कोई कमी नहीं है, या यूं कहें कि चहुंओर आस्था का पारावार है, लेकिन हृदय से सहज निःसृत होने वाला उल्लास नहीं दिखा। पश्चिम बंगाल, पूवीü उत्तर प्रदेश, बिहार और पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह सार्वजनिक रूप से दुगाü पूजा उत्सव आयोजित न किए जाएं तो कोई बात नहीं, लेकिन स्थानीय लोगों को भी इन कार्यक्रमों में सहभागिता अवश्य निभानी चाहिए। इससे स्थानीय लोगों में आप्रवासी लोगों के प्रति अपनत्व का भाव बढ़ेगा तथा उन्हें बंगाली संस्कृति के बारे में बहुत कुछ जानने समझने का अवसर मिलेगा। आप्रवासी लोगों में भी अकेलेपन का बोध कम होगा। यहां यह तथ्य भी विचारणीय है कि राजस्थान या जयपुर में शारदीय नवरात्र के दौरान घरों में परंपरागत रूप से माता भगवती की सगुण रूप में ही पूजा-अर्चना की जाती है और कलशस्थापना के साथ ही पूजा-स्थल पर भगवती की तस्वीर भी रखी जाती है। इसके बावजूद सामूहिक पूजा पांडालों में आयोजित आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों से इस तरह की दूरी-बेरुखी को किसी भी तरह से अच्छा नहीं कहा जा सकता। स्थिति तो कई बार ऐसी होती है कि पूजा पांडाल से सटे इलाके में भी स्थानीय लोग इस उत्सव से बिल्कुल ही अनजान होते हैं। इस मुद्दे पर अवश्य ही पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
दशहरा मेले की रहेगी बहार
जयपुर के साथ ही पूरे राजस्थान में विजयादशमी पर सोमवार को दशहरा मेलों की बहार रहेगी। दशहरे का उत्साह तो यहां देखते ही बनता है। चंबल के किनारे बसे कोटा का दशहरा मेला तो देश ही नहीं, विश्व में प्रसिद्ध है। शहरों में जगह-जगह खानदान सहित दशानन के पुतले जलाए जाएंगे। आयोजकों में रावण के पुतले की ऊंचाई को लेकर होड़ रहेगी। इस दौरान मंचों पर सांस्कृतिक प्रस्तुतियों से कार्यक्रम में चार चांद लगाए जाएंगे, वहीं रंग-बिरंगी आतिशबाजी से आसमान अट जाएगा। इतना ही नहीं, गली-मोहल्लों में भी बच्चे अपने स्तर से रावण के पुतले बनाकर उसका दहन करेंगे।

Friday, September 25, 2009

पत्नी न चाहे तो...


अभी शçक्त की आराधना का पर्व नवरात्र चल रहा है। सच है, शçक्त के बिना व्यçक्तत्व की कल्पना बेमानी है। शçक्त - वैचारिक, शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, राजनीतिक हर रूप में जरूरी है। इस शçक्त की पहली इकाई पत्नी है, जिसके मिलने के बाद ही व्यçक्त पूर्ण हो पाता है। व्यçक्त की परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के प्रति जो भी जिमेदारियां हों, लेकिन एक पति की सबसे बड़ी जिमेदारी पत्नी के अरमानों को पूरा करना ही होता है। ऐसा मैं नहीं कह रहा, बल्कि महान लोगों का भी यही कथन है। मैं तो महज -महाजनो गतो स पन्थाज् -का अनुपालन करते हुए इसकी पुनरावृçत्त कर रहा हूं। सच है, यदि पति के व्यवहार से पत्नी संतुष्ट नहीं हो तो तिल का ताड़ बनाकर आदमी का जीना मुश्किल कर सकती है। बाद में बच्चों का साथ भी यदि मां को मिल जाए तो पति के लिए तो इहलोक और परलोक दोनों ही बिगड़ जाते हैं।
यह तो पृष्ठभूमि थी। भागीरथी सेवा प्रन्यास और अन्य सहयोगी संस्थाओं की ओर से जयपुर में गुरुवार को आयोजित एक कार्यक्रम में मुयमंत्री अशोक गहलोत ने यात पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा की पत्नी को क्वकस्तूरबा गांधी सेवा पुरस्कारं प्रदान किया। इस अवसर पर विमला बहुगुणा ने अपने संबोधन में महात्मा गांधी की शिष्या सरला बहन के साथ पहाड़ों में किए गए समाज सुधार के कामों से लोगों को अवगत कराया।
प्रन्यास के अध्यक्ष पंचशील जैन ने बताया कि यह पुरस्कार पति के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलने वाली विभूति को दिया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि मोहनदास करमचंद गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी ने यदि उनका हर कदम पर साथ नहीं दिया होता, तो शायद वे महात्मा गांधी, राष्ट्रपिता और बापू नहीं बन पाते। ऐसी किस्मत विरले लोगों को ही मिल पाती है और फिर वे अपने जीवन में यथेष्ट की प्राçप्त कर पूर्ण संतुष्ट होकर जीते हैं और कई मामलों में मील के पत्थर भी साबित होते हैं। प्रन्यास ने पिछले वर्ष प्रथम कस्तूरबा गांधी पुरस्कार प्रसिद्ध समाजसेवी बाबा आटे की पत्नी साधना ताई को उनके आश्रम में जाकर दिया था।
निष्काम कर्मयोगी का समान


कार्यक्रम में दो दर्जन से अधिक संस्थाओं के संस्थापक, महात्मा गांधी की नीतियों को आत्मसात करने वाले निष्काम कर्मयोगी मोहनभाई को 90 वर्ष पूरे कर दसवें दशक में प्रवेश पर समानित किया गया। 91 वर्ष की आयु में भी मोहनभाई की सक्रियता युवाओं का मार्ग प्रशस्त करती है। जब वे माइक पर आए तो उनकी उपस्थिति तथा वक्तृत्व को पूरा सभागार अनुभूत कर रहा था। इतनी उपलçब्धयों के बावजूद इतनी सरलता-सहजता से परिपूर्ण व्यçक्तत्व जिसके बारे में बताने के लिए शब्द नहीं मिलें। ईश्वर से प्रार्थना कि ऐसी विभूति को अच्छे स्वास्थ्य के साथ लंबी आयु प्रदान करे जिससे भावी पीढ़ी उनका मार्गदर्शन ले सके।
(तकनीकी कारणों से हुई अशुद्धियों के लिए खेद है)

Sunday, September 20, 2009

देव तुम्हारे, मंत्र हमारे - यह कैसी घुसपैठ ?


आजकल मीडिया में चीन के घुसपैठ की खबरें रोज ही आ रही हैं। होना तो यह चाहिए कि हमारे देश की सीमाओं की ओर जो आंखें उठें, उन्हें बिना समय गंवाए फोड़ दिया जाए, लेकिन जब देश का शीर्ष नेतृत्व ही लचर व्यक्तित्व के हाथों में है तो कोई क्या करे। खैर, हमारे राजनेता जो भी करें, इस देश की सेना पर हमें पूरा भरोसा है कि सीमा की ओर बढ़ने वाले किसी भी हाथ को मरोड़ने की ताकत उनमें है।
मैं यहां दूसरे घुसपैठ की बात कर रहा हूं जो पिछले कई सालों से चल रही है और हमारे नीति नियंता हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। शनिवार को शारदीय नवरात्र शुरू हुए। इससे दो दिन पहले किसी अखबार में खबर पढ़ी कि नवरात्र में पूजन के लिए चीन में बनी मां भगवती की प्रतिमाएं बाजार में आ गई हैं। यह कैसी बात है कि होली पर चाइनीज पिचकारियां और मकर संक्रांति पर चीन में बने पतंगों और मांझे की बाजार में बाढ़ आ जाती है। अभी आने वाले दिनों में दीपावली भी रंग-बिरंगी चाइना मेड बिजली के बल्वों की लड़ियां भी बाजार में धड़ल्ले से बिकेंगी। बिजली का खरचा बचाने वाली सीएफएल लाइटों में भी चाइनीज सीएफएल का बाजार में काफी दखल है। खरीदने वालों का तर्क होता है कि चाइनीज सामान की गुणवत्ता भले दोयम दरजे की हो, वे टिकाऊ नहीं होते हों, लेकिन उनकी कीमत भारतीय उत्पादों की तुलना में काफी कम होती है।
ऐसे में सरकार से मेरा सवाल है कि यदि चीन सस्ती दरों पर बिकने वाली वस्तुएं बेचकर मुनाफा कमा सकता है तो हमारे देश की कंपनियां ऐसा क्यों नहीं कर पातीं। व्यापारियों के मुनाफे पर मैं बंदिश लगाने का पक्षधर कदापि नहीं हूं, लेकिन कम लाभ से अधिक बिक्री करके भी तो मुनाफा बढ़ाया जा सकता है।
बचपन में सीख मिली थी कि किसी रेखा को बिना मिटाए छोटी करने की तरकीब है कि उसके नीचे बड़ी रेखा खींच दी जाए। हमारे देश के राष्ट्रप्रेमी व्यापारी भी इस तरकीब से अपना मुनाफा बरकरार रखते हुए चीनी घुसपैठ से देश को बचा सकते हैं। अन्यथा बच्चे हमारे खिलौने उनके, उड़ान हमारी डोर उनकी और मंत्र हमारे, देव उनके का राग आने वाले दिनों में हमारे देश पर काफी भारी पड़ सकता है।

Friday, September 18, 2009

...ये कहां आ गए हम

... तो आज अमिताभ बच्चन की फिल्म -सिलसिला-से अपनी बातचीत का सिलसिला शुरू करता हूं। सुबह बिहार के किशनगंज से एक डॉक्टर मित्र का फोन आया। वे बिहार में विधानसभा की 18 सीटों पर हुए उपचुनाव में सत्तारूढ़ जनता दल यू और भाजपा की करारी शिकस्त से दुखी थे। उपचुनाव में जनता दल यू को तीन और भाजपा को मात्र दो सीटों पर संतोष करना पड़ा। पटरी से उतरे लालू यादव की लालटेन अचानक चमक उठी और राजद ने सबसे अधिक छह सीटों पर जीत हासिल की। लालू का गमछा पकड़कर रामविलास पासवान भी वैतरणी पार उतर गए और उनके प्रत्याशियों ने तीन सीटें झटक लीं। आमजन को महंगाई के मझधार में छोड़कर मितव्ययिता का राग अलापने वाली कांग्रेस के उम्मीदवार भी दो सीटें निकाल ले गए।
मेरा मकसद यहां उपचुनाव के परिणाम का विश्लेषण नहीं करना नहीं, बल्कि अपने मित्र की पीड़ा पर मरहम लगाना भर है। यह पक्की बात है कि मेरे मित्र किसी राजनीतिक दल की विचारधारा से ताल्लुकात नहीं रखते, लेकिन धरा से जुड़े होने के कारण धरातल पर होने वाले काम उनकी नजरों से नहीं बच पाते। कभी आम सुविधाएं नहीं मिलने से त्रस्त थे तो आज चिकनी सड़क पर उनकी कार भी बिना धचके दिए चलती है। आज से पांच साल पहले यदि कोई बिहार गया हो तो उसे अहसास होगा कि लालू-राबड़ी के पंद्रह साल के शासनकाल में बिहार किस हद तक पिछड़ गया था।
मेरे मित्र का तर्क था कि नीतीश कुमार ने सत्ता संभालने के बाद बिहार के कायाकल्प का प्रयास अवश्य शुरू किया है और आज सड़कों से लेकर अस्पतालों तक के सुधरे हुए हालात इसका बयान करते हैं। अन्य क्षेत्रों में भी प्रगति की रफ्तार देखी जा सकती है। मित्र की चिंता इस बात की है यदि हालात ऐसे ही रहे और लोग विकास को दरकिनार कर यदि जात-पांत जैसे मुद्दों पर मतदान करते रहे तो बिहार एक बार फिर पिछड़ेपन की गर्त में चला जाएगा। हालात बदलने के साथ विचारों में भी नयापन आना चाहिए और हमारे सोचने के स्तर में भी विकास अपेक्षित है। अन्यथा हम यही कहने को विवश होंगे.....ये कहां आ गए हम।
मैंने मित्र को दिलासा दिया कि संभव है कि नीतीश और सुशील मोदी भारतीय क्रिकेट टीम की तरह लीग मैचों में करारी शिकस्त के बाद फाइनल में शानदार वापसी करें। हालांकि उपचुनाव के परिणामों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि जनता दल यू ने रमई राम और श्याम रजक को अपनी गोद में बिठा लिया, जिनकी करतूत का फैसला जनता ने कर दिया और जनता दल यू को सीट के साथ साख व प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ी।
किसी विचारधारा का समर्थक होना एक बात है और किसी एक के खिलाफ बाकी सभी का एकजुट हो जाना दूसरी बात। हालांकि राजनीति में किसका गठजोड़ किसके साथ कितनी अवधि के लिए रहेगा, इसकी भविष्यवाणी करना आसान नहीं है। अंत में उधार की चार पंक्तियों के साथ अपनी बात खत्म करूंगा, शायद मेरे मित्र को कुछ तसल्ली मिले-
राजनीति में मित्र कठिन है, खुद से परे चरित्र कठिन है।
किसी जुआरी के अड्डे पर वातावरण पवित्र कठिन है।।

Thursday, September 17, 2009

सैशे में बिकता सुख


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहा करते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और उनके तथाकथित अनुयायियों ने गांधी दर्शन को दरकिनार कर दिया। सत्तासीन नेताओं ने गांवों को उनके हाल पर छोड़ दिया। सुविधाओं के अभाव में गांव लाचार लोगों की शरणस्थली बनकर रह गए और न जाने क्या-क्या खोने की कीमत पर आज भी शहरों की ओर पलायन थमा नहीं है।
कवि गाते-गाते अघाते नहीं रहे कि भारतमाता ग्रामवासिनी, लेकिन कविहृदय व्यक्ति के सत्ता के शीर्षस्थ पद पर पहुंचने के बावजूद गांवों की तकदीर नहीं बदली। गांव में रहने वालों की न जाने कितनी लालसाएं धन के अभाव में दम तोड़ती रहीं।
बदलते समय के साथ राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने गांधी के गांवों की ओर रुख किया है और आज सैशे की शक्ल में गांव और गरीबों की जेब के हिसाब से सारे उत्पाद उपलब्ध कराए जा रहे हैं। जी हां, नीम-बबूल की दातुन करने वाले बच्चे कॉलगेट पाउडर और डाबर दंतमंजन से दांत साफ कर रहे हैं। झोपड़ी में रहने वाली रमणी भी एक रुपए के शैंपू से अपने बालों को रेशमी लुक देती है। अब वह कपड़े धोने वाले पाउडर से बालों की गंदगी मिटाने को मजबूर नहीं है। पीयर्स जैसा अभिजात्य वर्ग का साबुन छोटी साइज में आने के कारण सर्वसुलभ हो गया है।
राम करे ऐसा न हो
महंगाई ने सुरसा की तरह मुंह फाड़ना शुरू कर दिया है और हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कोई हनुमानजी तो हैं नहीं कि अपनी बुद्धिमत्ता से सुरसा से पार पा जाएं। आज की तारीख में आम आदमी का जीना मुश्किल हो रहा है। आटा-दाल-आलू-सब्जियों के भाव आसमान छू रहे हैं। टिफिन में रोटियां कम हो रही हैं, दाल पतली हो रही है, सब्जी की गिरती क्वालिटी का तो कहना ही क्या? अभी पिछले दिनों मीडिया में खबर आई कि मध्य प्रदेश में पाउच में दाल बिक रहा है। महंगाई की रफ्तार यही बनी रही तो वह दिन दूर नहीं जब आटा-चावल भी पाउच में मिले। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि ऐसा दिन कभी न आए और आम आदमी को पेट भरने में कोई मुसीबत नहीं आए।

Friday, September 4, 2009

भुट्टे की भ्रूणहत्या


दसवीं पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए गांव छोड़कर शहर में आया तो मक्के का लावा (जिसे अब पॉप कॉर्न कहा जाने लगा है) ठेले पर बिकता देख अक्सर अचरज होता था कि यह भी कोई बिकने की चीज है। गांवों में तो इसे सबसे अधिक हेय समझा जाता था। हालात ऐसे थे कि मजदूर भी मजदूरी में मक्का लेना पसंद नहीं करते थे। बदलते हुए समय के साथ बहुत कुछ बदला। अब कभी काफी हिम्मत जुटाकर किसी मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने जाता हूं तो बच्चे के कहने पर पॉप कॉर्न खरीदना पड़ता है। पांच रुपए में गिनती के दाने मिलते हैं।
खैर, यह तो समय-समय की बात है। अभी चार-पांच दिन पहले पत्नी और बच्चे के साथ बिग बाजार गया। वहां पॉलीथिन में पैक भुट्टे देखकर बरबस ही निगाह उस ओर चली गई। देखा तो पचीस रुपए में दो भुट्टे थे और उस पर अंग्रेजी में अमेरिकन पॉप कॉर्न की परची चिपकी हुई थी। इंग्लिश स्कूल में पढ़ने वाले गांव की संस्कृति से अनजान बच्चा मचल गया तो मजबूरन दो भुट्टों का एक पैकेट लेना ही पड़ा। मजबूरी यह भी थी कि एक भुट्टा खरीदने की छूट नहीं थी। उसके बगल में ही मैंने एक और उससे भी छोटा पैकेट देखा, जिसमें भुट्टा खाने के बाद जो अवशिष्ट (जिसे हम गांव की भाषा में नेढ़ा कहते थे) जैसा कुछ था काफी पतला। सेल्समैन से पूछा तो उसने बताया कि यह भुट्टे में दाने आने से पहले की चीज है इसकी सब्जी बनती है। उसकी कीमत भी दो सौ रुपए प्रतिकिलो से अधिक थी। अपनी जेब और जरूरत से बाहर की चीज थी, सो मैंने खिसकना ही उचित समझा।
अब इसके दूसरे पहलू पर गौर करें तो कुछ बातें ऐसी हैं, जो कचोटती हैं। इस साल मानसून की बेरुखी ने विश्वभर के नीति नियंताओं की पेशानी पर पसीना ला दिया है। हर ओर यहीं चिंता है कि मंदी के इस दौर में बढ़ती महंगाई और अनाज के घटते उत्पादन के कारण लोगों का पेट भरना भी कहीं मुश्किल न हो जाए। ऐसे में मोटे अनाज से भी जरूरतमंदों का पेट भर जाए तो बड़ी बात है। इस तरह के हालात में हम यह सोचने को बाध्य हैं कि महज कुछ लोगों के मुंह के स्वाद के लिए इन तथाकथित अमेरिकन भुट्टे की भ्रूणहत्या न की जाए, तो इनसे होने वाला मक्का काफी लोगों के पेट भर सकता है।