लखनऊ से जयपुर के रास्ते में हूं। जीवन हो या ट्रेन का डिब्बा, गुलजार तो बच्चों से ही होता है। जिस कोच में हूं, उसमें कई बच्चे हैं। चूंकि मेरी बर्थ साइड लोअर है, सो मेरी नजरों का दायरा अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत है। बच्चों की गतिविधियों का आनंद लें रहा हूं। मेरी बर्थ पर एक सज्जन बैठ गये हैं। बगल की बर्थ पर बैठा उनका बेटा भी उनके पास आकर खड़ा हो गया है और हरियाणा रहा है। दसेक साल का यह बच्चा भी खास है, उसका किस्सा फिर कभी। ...तो हां, बच्चे ने पपींस निकाल कर खुद खाई है, पापा को भी दिया। इसी बीच उसकी नजर पड़ोस के बर्थ पर धूम मचा रहे तीन-चार साल के बच्चे पर पड़ती है। वह सहज ही एक पपींस निकाल कर उसे देने जाता है। बच्चा अपनी मां की ओर देखता है, और फिर आंखों का इशारा समझ कर पपींस लेने से मना कर देता है। बड़ा वाला बच्चा मायूस आंखों से पापा की ओर देखता है। पापा कहते हैं, रहने दो। बच्चा पापा की इजाजत लेकर खुद ही दूसरा वाला पपींस खा जाता है।
वाकई पढ़-लिख कर हम इतने सभ्य हो गये हैं कि राह चलते किसी सहयात्री पर भरोसा नहीं कर पाते। अविश्वास की विरासत सहेजे ये बच्चे जब बड़े होंगे तो न जाने यह दुनिया कैसी हो जाएगी और उसमें एक-दूसरे पर भरोसे का माद्दा बचा रहेगा भी या नहीं...
20 March 2019
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