Wednesday, November 16, 2011

दृढ़ इच्छाशक्ति से रुकेगी कालाबाजारी


तत्काल कोटे में दलाली रोकने के लिए नियमों में संशोधन के साथ मॉनिटरिंग भी है जरूरी
मोहन कुमार मंगलम्
रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी की तत्काल कोटे में रिजर्वेशन के नियमों में परिवर्तन की घोषणा स्वागतयोग्य है। कई बार अपरिहार्य कारणों से बहुत ही कम समय में रेलयात्रा की योजना बनानी पड़ती है। ऐसे यात्रियों की सुविधा के लिए ही तत्काल कोटा शुरू किया गया था, लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि आम आदमी की सुविधा के लिए जो नियम-कानून बनाए जाते हैं, उसका लाभ अवांछित लोग उठाने लगते हैं।
शुरुआत में पांच दिन पहले तत्काल टिकट लेने का नियम था, लेकिन टिकटों की कालाबाजारी की काफी शिकायतें मिलने के बाद वर्ष 2009 में इसे घटाकर दो दिन कर दिया गया था। इसके बावजूद बड़े पैमाने पर टिकटों की कालाबाजारी जारी रही। इसके मद्देनजर पिछले दिनों देशभर में सीबीआई ने छापेमारी भी की थी। इसमें सामने आया था कि एजेंट समय से पहले ही बुकिंग करा लेते थे और फिर वे इन टिकटों की कालाबाजारी करते थे। इसमें रेलवे काउंटर पर बैठे कर्मचारियों की मिलीभगत की बात भी सामने आई थी। नए नियमों के अनुसार तत्काल कोटे में टिकट अब दो दिन की बजाय एक दिन पहले ही बुक करवाए जा सकेंगे और टिकट लेते समय आईडी प्रूफ दिखाना जरूरी होगा। इसके साथ ही रेलवे काउंटरों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने की भी घोषणा की गई है, जिससे दलालों के साथ ही इस घालमेल में लिप्त रेलकर्मियों के चेहरे भी सामने आ सकेंगे। कन्फर्म तत्काल टिकट कैंसिल कराने पर रिफंड नहीं मिलने से भी दलाल हतोत्साहित होंगे।
(जयपुर से छपने वाले हिंदी दैनिक डेली न्यूज में 15 नवंबर को संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

Wednesday, November 9, 2011

नारायणी में स्नान, नारायण के दर्शन


आज कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी पर बचपन या कहें किशोरावस्था की अचानक याद आ गई। मेरे गृह जिला वैशाली के मुख्यालय हाजीपुर में कार्तिक पूर्णिमा पर नारायणी (गंडक) नदी के किनारे कौनहारा घाट पर श्रद्धालुओं का भारी मेला भरता है। हर साल हम भाई-बहनों की दिली ख्वाहिश होती थी कि बाबूजी से कैसे भी मेला जाने की अनुमति मिल जाए। बाबूजी की दमा की बीमारी तथा बूढ़ी दादीजी की देखभाल की जिम्मेदारी के कारण मां को इन धार्मिक प्रयोजनों में सहभागिता का अवसर नहीं मिल पाता था, लेकिन मेरी सबसे बड़ी चाची (जिनकी कोई संतान नहीं थी) बिना नागा हर साल इस पुण्य वेला में नारायणी-स्नान करने अवश्य जाती थीं। तीन-चार दिन पहले से ही हम भाई-बहन चाची की खुशामद में लग जाते थे कि बाबूजी को मनाकर वे हमें भी अपने साथ ले चलने को राजी कर लें। बूढ़ी दादी का भी बिना शर्त समर्थन हमें मिलता था और देर-सवेर बाबूजी भी हमें भी मेला जाने की इजाजत दे ही दिया करते थे। इस मेला में जाने पर ही पता चला कि वैशाली की विश्वप्रसिद्ध ऐतिहासिकता से भी कहीं बढ़कर हाजीपुर की ऐतिहासिकता है। अमूमन हम आज के दिन ही कौनहारा घाट पहुंच जाते और जहां जगह मिलती, अपने आस-पड़ोस के लोगों और दूर-दूर के रिश्तेदारों को खोजकर उनके साथ जगह छेककर अपना ठिया बना लेते। वहां गज-ग्राह के मंदिर में जाकर बाल मन गौरव से भर जाता कि हमारी इसी धरती पर कभी भगवान विष्णु को एक हाथी की पुकार सुनकर आना पड़ा था।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार विष्णुभक्त गज एक बार नारायणी नदी में पानी पीने गया तो जल में छिप ग्राह उसका पैर पकड़कर उसे खींचने लगा। गज ने बार-बार उससे छोडऩे की विनती की, लेकिन ग्राह ने एक न सुनी। इस पर गज ने अपने प्रभु की शक्ति को याद करते हुए ग्राह से कहा कि जब तक मेरे विष्णु हैं, तुम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। इस पर ग्राह उसे खींचकर पानी में ले जाने लगा। गज ने आत्र्त स्वर में भगवान विष्णु को पुकारा तो क्षणभर में वे प्रकट हो गए। इससे प्रफुल्लित गज ने ग्राह को ललकारते हुए कहा कि अब बताओ-कौन हारा? भगवान ने दुष्ट ग्राह को मारकर अपने प्रिय भक्त गज को मुक्ति दिलाई। आज भी गजेंद्रमोक्ष के श्लोक इस पौराणिक कथा की पुष्टि करते हैं। भगवान विष्णु अर्थात हरि के आने के कारण ही प्राचीन समय में इस शहर का नाम हरिपुर था, जिसे कालांतर में मुगल शासनकाल में हाजी शमसुद्दीन के नाम पर हाजीपुर कर दिया गया। न जाने हमारे राजनेताओं को इस गौरव का भान क्यों नहीं होता कि वे मुगल शासक हाजी शमसुद्दीन के नाम पर आज तक हाजीपुर नाम को ढो रहे हैं। कौनहारा घाट पर ही नेपाली छावनी मंदिर है, जो अपनी काष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है। वैशाली, हाजीपुर या कहें कि बिहार के राजनेताओं की ही कमजोर इच्छाशक्ति का दुष्परिणाम यह नेपाली छावनी भुगत रही है, अन्यथा यहां बने काठ के मंदिरों पर जितनी बारीकी से कलाकारी उकेरी गई है, उसके सामने अजंता-एलोरा की कलाकृतियां कहीं भी न टिकें।
इस मेले के साथ ही गंडक के उस पार सोनपुर का विश्वप्रसिद्ध मेला भरता है। इसे हरिहर क्षेत्र कहा जाता है, जहां भगवान विष्णु और शंकर एक साथ विराजते हैं। कार्तिक पूर्णिमा पर तड़के तीन-चार बजे ही नारायणी में डुबकी लगाने के बाद चाची से अनुमति लेकर अपने हमउम्र दोस्तों के साथ हम सोनपुर का रुख कर लेते थे। कौनहारा से सोनपुर की लगभग तीन-चार किलोमीटर तथा कई किलोमीटर में फैले सोनपुर मेले को हम बिना किसी थकान के अपने नन्हे कदमों से ही नाप देते थे। पाथेय के रूप में नया चिवड़ा (पोहा), गुड़ और डाला छठ महापर्व का प्रसाद ठेकुआ-टिकड़ी ही हमारा नाश्ता और भोजन सभी हुआ करते थे। गिनती के पांच-दस रुपए किसी बार बाबूजी से मिल जाते थे तो कई बार उनकी आज्ञा की अवहेलना कर मेला देखने की सजा के रूप में खाली हाथ भी जाना पड़ता था। ऐसी स्थिति में मेला में कुछ खरीदने की हमारी ख्वाहिश भी जन्म नहीं ले पाती थी, लेकिन उस मानव समुद्र में सामाजिकता के विकास के कई पाठ वहां सहज ही सीखने को मिल जाते थे। मेले में खोये बच्चों-बुजुर्गों को उनके परिजनों तक पहुंचाने के लिए लाउड स्पीकर पर अनाउंस करते स्काउट के जवान, पग-पग पर व्यवस्था संभालने को तैनात विभिन्न संगठनों के स्वयंसेवक, रेलवे, कृषि विभाग, पुलिस सहित विभिन्न सरकारी विभागों की कार्यप्रणाली को दर्शाती प्रदर्शनियों में संपूर्ण भारतीयता के दर्शन से जो सीख मिली, उसे कैसे भुलाया जा सकता है।
हाई स्कूल पास कर जब कॉलेज में गया तो कुछ तो पढ़ाई का बोझ, फिर मा-बाबूजी से दूर रहने के कारण आत्मानुशासन का अंकुश कि अकेले रहते हुए भी कभी मुजफ्फरपुर से हाजीपुर जाकर मेला देखने की हिम्मत नहीं जुटा सका। कॉलेज-यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी करने के बाद हाजीपुर तो क्या, बिहार ही बहुत पीछे छूट गया। बचपन के मित्र जो अब भी सौभाग्य से वहां हैं, शायद इन मेलों की भीड़ का हिस्सा बन पाते होंगे। तकनीक जब आधुनिकता की सीढ़ी पर नित नए परवान चढ़ रही है, न जाने मेले का स्वरूप भी अब कितना बदल गया होगा। विगत करीब तीन दशक से जब भी कार्तिक पूर्णिमा आती है, दिल में एक कसक सी उठती है और सोचता हूं कि अगले साल अवश्य ही ऐसी जुगत बैठाऊंगा कि इस मेले में जाऊं, लेकिन कब यह दिन दुबारा आ जाता है और मन में मलाल लिए एक साल और इसी उधेड़बुन में बिताते हुए पुरानी यादें संजोने को विवश हो जाता हूं।

Wednesday, November 2, 2011

तन-मन-जीवन कर दो निर्मल



संपूर्ण चराचर जगत को अपने आलोक से प्रकाशित करने वाले भगवान सूर्य की आराधना-उपासना अनादि काल से होती रही है। इसी क्रम में कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से सप्तमी तक मनाए जाने वाले सूर्य षष्ठी पर्व का महत्वपूर्ण स्थान है। बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड के जन-मन में बसे इस पर्व को 'छठ महापर्वÓ भी कहा जाता है। इस पर्व में भगवान सूर्य को अघ्र्य दी जाने वाली सामग्री कच्चे बांस की टोकरी (डाला) में रखकर नदी या तालाब किनारे तक ले जाई जाती है, इसलिए इसे 'डाला छठÓ के नाम से भी जाना जाता है।
ऋग्वेद में देवता के रूप में सूर्य की पूजा का उल्लेख है। कई पुराणों में भी भगवान सूर्य की उपासना की चर्चा की गई है। पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य प्रदाता देवता के रूप में माना जाने लगा था। ऐसी मान्यता है कि नियम-निष्ठापूर्वक यह पर्व करने से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता है। सनातन धर्म के देवताओं में अग्नि के बाद सूर्य ऐसे अकेले देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है।
छठ पर्व का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और आडंबर व दिखावा से रहित होना है। इस पर्व में न तो मंदिर की जरूरत होती है, न प्रतिमा की, न ऋचाओं-मंत्रों की, न पंडित-पुरोहितों की। पूजन सामग्री जुटाने के लिए भी ज्यादा भागदौड़ अपेक्षित नहीं होती। इसमें बांस की टोकरी, सूप, मिट्टी के बरतनों, दीपकों, गन्ना, गुड़, चावल, गेहूं से निर्मित प्रसाद, शकरकंद, हल्दी-अदरक की गांठ, केला, नींबू जैसी सामग्री का प्रयोग किया जाता है, जो सहज ही उपलब्ध हो जाती हैं। सहकार का भाव भी इस पर्व के मूल में है, जिसके तहत हर व्यक्ति अपने पास उपलब्ध सामग्री खुले मन से आस-पड़ोस में वितरित करता है, जिससे किसी को भी किसी सामग्री की कमी नहीं रह पाती है। पर्यावरण संरक्षण का भाव भी इस महापर्व से अनायास ही जुड़ा हुआ है। इस पर्व में नदी-तालाब-जलाशयों के घाटों की सफाई कर इसे सजाया जाता है, जिससे इनका अलग ही रूप निखरकर सामने आता है। भगवान सूर्य और छठ मइया की आराधना में गाए जाने वाले सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर यह पर्व लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
जिस तरह सूर्य बिना किसी भेदभाव के संपूर्ण जगत पर अपनी कृपा-किरणों की बौछार करते हैं, उसी प्रकार जाति-धर्म-संप्रदाय की सीमाओं से ऊपर उठकर यह पर्व मनाया जाता है। इसी भावना का प्रमाण है कि बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड के अनेक मुस्लिम परिवारों में भी दशकों से छठ पूजा की परंपरा चली आ रही है।
छठ पर्व के रूप में पूरब से प्रस्फुटित सूर्य आराधना की रश्मियां इसे मनाने वालों के अन्य प्रदेशों का रुख करने के साथ ही साल-दर-साल विस्तार पाती हुई संपूर्ण भारतवर्ष को अपनी ज्योति से आलोकित करती जा रही है। विदेशों में भी जहां-जहां इस पर्व को मनाने वाले गए, वे अपने साथ सांस्कृतिक-धार्मिक विरासत के रूप में इस पर्व को ले गए और धीरे-धीरे कहीं लघु तो कहीं वृहद स्तर पर छठ पर्व मनाया जाने लगा है। छठ व्रत प्राय: महिलाओं द्वारा किया जाता है किंतु विशेष मनौती पूरी होने पर कुछ पुरुष भी यह कठिन व्रत रखते हैं। सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी पत्नी उषा और प्रत्यूषा हैं। छठ पर्व के दौरान सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) तथा प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (उषा) को अघ्र्य देकर भगवान भास्कर के साथ-साथ इन दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना की जाती है। कमर भर पानी में खड़े होकर भगवान सूर्य का ध्यान करते समय व्रतियों के मन में प्रार्थना का यह भाव रहता है कि हे सूर्यदेव, हमारे तन-मन-जीवन का खारापन मिटाकर इसे निर्मल-मधुर कर दो जिससे बादलों से बरसने वाले पवित्र जल की तरह हम स्वयं के साथ ही जन-गण-मन के लिए मंगलकारी हो सकें।