Tuesday, May 25, 2010

पैसा दीजिए, पानी देखिए


पेयजल समस्या पर होने वाली सेमिनारों-संगोष्ठियों में वक्ता बड़ी संजीदगी से कहते हैं कि यदि पानी का मोल नहीं समझा, इसे व्यर्थ बहाना नहीं छोड़ा ...तो आने वाले दिनों में पानी के लिए विश्वयुद्ध लड़े जाएंगे। भविष्य की बातें तो भविष्य पर ही छोड़ दें, फिलहाल ख्यातनाम व्यंग्य लेखक शरद जोशी की एक अति लघु चुटीली रचना के सहारे अपनी बात कहना चाहता हूं। (स्मृति दोष के कारण संभव है इसमें कुछ त्रुटि भी हो)

18वीं सदी: दूध की नदियां बहती हैं, बच्चों को दूध में नहलाइए।
19 वीं सदी : दूध कुछ कम हुआ, बच्चों को दूध पिलाइए।
20वीं सदी : दूध और कम हो गया, बच्चों को दूध दिखाइए।
21 वीं सदी : दूध अब बीते दिनों की बात हो गई, बच्चों को दूध की कहानियां सुनाइए।

नित्य-प्रति दूध के बढ़ते दामों ने स्वर्गीय शरद जोशी की रचना को सच कर दिखाया है। कम से कम मध्यमवर्गीय परिवारों की तो ऐसी ही स्थिति हो गई है।

हां, तो मैं पानी की बात कह रहा था और रास्ता भटकर दूध पर आ गया। दूध की तो छोडि़ए, यह तो कुछ दिनों में विलासिता संबंधी वस्तु में शामिल कर ली जाएगी।
...तो मैं पानी पर ही आता हूं। गुलाबी नगर में प्यास के मारे लोगों की परेशानियों की खबर अखबारों की सुर्खियां बनी हुई हैं। ऐसे में नगरीय विकास के लिए जिम्मेदार सरकारी संस्था जयपुर विकास प्राधिकरण (जेडीए) ने शहर की मुख्य सड़क जवाहरलाल नेहरू मार्ग के किनारे ‘जलधारा’ परियोजना शुरू की है। यह शाम 5 से रात 9 बजे तक खुली रहती है। करीब आधा किलोमीटर लंबे नाले के किनारे लाइटें लगाई गई हैं और इसके दोनों ओर 15-20 फुट ऊंचे फव्वारे लगाए गए हैं। इसकी टिकट दर 10 रुपए प्रति व्यक्ति है, लेकिन जयपुरवासियों की इसके प्रति दीवानगी को देखते हुए शनिवार-रविवार और छुट्टियों के दिन यह दर दोगुनी अर्थात 20 रुपए कर दी गई है। इसके बावजूद इसके प्रति लोगों की दीवानगी कम नहीं हो पाई है।
इस तरह लोग पानी देखने के लिए पैसे दे रहे हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले दिनों में अन्य स्थानों पर नदी की लहरों और समंदर में उठ रहे ज्वारभाटों को देखने के बदले भी पैसे देने पड़ेंगे। ईश्वर करे, ऐसा दिन नहीं आए और आने वाले मानसून में पर्याप्त बारिश हो, जिससे धरती संतृप्त हो, नदी-नालों में पानी भर जाए और हां, ...इतना पानी अवश्य ही बचे जो लोगों की आंखों में बना रहे।

Monday, May 10, 2010

आस्था अपार, भाषा बनी दीवार


विश्व क्षितिज पर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने भारत को जो पहचान दिलाई, उसके लिए प्रत्येक भारतवासी उनके प्रति कृतज्ञ है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उनकी अमर कृति 'गीतांजलि ' अधिकतर बंगाली परिवारों में 'गीता' और 'रामचरितमानस' की तरह रखी जाती है। रेल मंत्री ममता बनर्जी ने बंगभूमि निवासिनी का कर्तव्य निभाते हुए रेलवे मंत्रालय की ओर से रवींद्र नाथ टैगोर की 150 वीं जयंती वर्ष के उपलक्ष में 9 मई को दिल्ली तथा राजस्थान से प्रकाशित होने वाले हिंदी के अखबारों में पूरे पृष्ठ का विज्ञापन प्रकाशित कराया। जिसे जैसे मौका मिलता है, अपनी जन्मभूमि, भाषा, आकाओं तथा जिस किसी के भी वह कृतज्ञ होता है, से उऋण होने के लिए इस प्रकार के प्रयास करता है। इससे मुझे कोई एतराज भी नहीं है, लेकिन हिंदी भाषी पाठक होने के नाते मेरी यह पीड़ा रही कि गुरुदेव के चित्र के नीचे बांगला भाषा में लिखी पंक्तियां मेरे लिए 'काला अक्षर भैंस बराबर' थीं। ममता बनर्जी को यदि यह राष्ट्रव्यापी विज्ञापन छपवाना ही था तो क्षेत्र विशेष की भाषा में यदि इसका लिप्यांतरण करवा देतीं तो अच्छा रहता।