Wednesday, November 25, 2009

...तो सीएम-पीएम क्यों न चुने जनता?

गुलाबीनगरी में गत 23 नवंबर को हुए शहरी निकाय के चुनाव में पहली बार जनता ने अपना महापौर चुनने के लिए मतदान किया। जी हां, पहले जनता पार्षदों को चुनती थी और फिर वे सब मिलकर महापौर चुनते थे। इस बार चुनाव में दो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) की व्यवस्था की गई थी। यानी मतदाताओं ने महापौर और पार्षद के लिए अलग-अलग वोट डाले। आज यानी 26 नवंबर को इस चुनाव का रिजल्ट आ जाएगा।
इस नई व्यवस्था के कई फायदे हैं। जैसे-पार्षदों के चुने जाने के बाद महापौर के लिए होने वाली रस्साकसी की नौबत नहीं आएगी और न ही पार्षदों की खरीद-फरोख्त हो सकेगी। इसके अलावा यह भी संभव हो सका कि यदि महापौर का उम्मीदवार आपकी पसंद के राजनीतिक दल का नहीं है, या उसके व्यक्तित्व से आपको शिकायत है तो आप उसकी जगह अन्य प्रत्याशी को अपना वोट दे सकते हैं और अपनी निष्ठा वाले राजनीतिक दल के पार्षद प्रत्याशी के पक्ष में मतदान कर सकते हैं।
इस चुनाव के बाद से ही बुद्धिजीवियों ही नहीं, आम लोगों में भी इस बात को लेकर चरचा गर्म है कि राज्य विधानसभाओं और लोकसभा चुनाव में भी यही प्रणाली क्यों न अपनाई जाए। फिर, वहां भी दल-बदल कानून, आलाकमान की ओर से यस मैन को थोपने के हालात, विधायकों-सांसदों की खरीद-फरोख्त पर रोक लग सकेगी।
हां, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के उम्मीदवारों को लेकर सार्वजनिक मंच पर विस्तृत रूप से खुली बहस होनी चाहिए। वे आम जनता के बीच खुलकर अपना पक्ष रखें और फिर मैरिट के आधार पर जनता उनका चयन करे। ऐसे में ही हमारा लोकतंत्र मजबूत हो सकेगा। आखिरकार लोकतंत्र के जनक भारतवर्ष में ही लोकतंत्र का गला कब तक घोंटा जाएगा। क्यों न हम पुरानी दकियानूसी व्यवस्था को उखाड़ फेंकें। यदि हर जायज-नाजायज बात के लिए-राजनीतिक दलों के के हितों के लिए-संविधान में संशोधन किया जा सकता है तो लोकतंत्र में प्राणवायु फूंकने के इस पवित्र उद्देश्य के लिए क्यों न संविधान में एक और संशोधन किया जाए।

Monday, November 16, 2009

जीते-जी क्यों न पढ़ लें गरुड़ पुराण ?

महानगरीय जीवन की कुछ मान्यताएं बीतते हुए समय के साथ परंपरा में तब्दील हो जाती हैं। गुलाबी नगर में भी ऐसी ही एक परंपरा है। यहां किसी के परलोकगमन पर मृत्यु के तीसरे दिन तीये की बैठक होती है, जिसमें परिजन-पुरजन-मित्रजन-रिश्तेदार-साथ काम करने वाले सभी एकत्रित होते हैं और मृत व्यक्ति को श्रद्धांजलि-पुष्पांजलि निवेदित करते हैं। आम तौर पर यह कार्यक्रम एक घंटे का होता है। जिनकी मृत्यु हो चुकी है, उनके प्रति श्रद्धा निवेदित करना और उनके परिजनों के प्रति शोक-संवेदना व्यक्त करना भारतीय परंपरा के अनुकूल है।
मैं यहां कुछ अलग किस्म की पीड़ा को शेयर करने के लिए मुखातिब हूं। यहां अमूमन तीये की बैठक के दौरान पंडितजी गरुड़ पुराण के कुछ अंशों का पाठ करते हैं। जैसा कि सर्व विदित है, गरुड़ पुराण में व्यक्ति के जीवन में किए गए काम के आधार पर भोगे जाने वाले हजारों तरह के नरक का वर्णन किया गया है।
भारतीय मान्यताओं के अनुसार, यदि हमारे पुराणों में कही गई बातें सत्य हैं और हमारे जीवन के कामकाज का फल हमें मरने के बाद भोगना ही पड़ता है, तो सावधानी के तौर पर हम जीवनकाल में ही गरुड़ पुराण को क्यों न पढ़ लें, जिससे हम अपने जीवन में अच्छे काम करके अपना अगला जन्म भी संवार लें।
गरुड़ पुराण के पाठ के दौरान पंडितजी जब प्रेत के द्वारा भोगे जाने वाले असह्य कष्टों का वर्णन करते होंगे, तो उनके प्रियजनों-परिजनों को कितनी पीड़ा होती होगी। क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि ऐसे अवसरों पर गरुड़ पुराण की बजाय श्रीमद्भगवद्गीता के कुछ श्लोकों का पाठ किया जाए, जिमें मानव जीवन का सार छिपा हुआ है।

मोबाइल क्यों नहीं होता मौन?
जब किसी व्यक्ति के चिरमौन धारण करने पर शोकाभिव्यक्ति के लिए लोग एकत्रित होते हैं, ऐसे में भी कुछ लोगों का मोबाइल जब वाचाल हो जाता है तो उक्त व्यक्ति के संवेदनाशून्य होने का बोध होता है। क्या कुछ देर के लिए मोबाइल को मौन मोड पर नहीं रखा जा सकता। भाई, यदि मोबाइल प्रेम इतना ही अधिक है और उसके मौन होने पर आपका भी दिल दुखता हो तो मोबाइल को कंपायमान मोड पर कर दें, ताकि उसकी धड़कनों का अहसास आपको हो जाए और फिर आप जैसा उचित समझें, कर डालें। इतना तो ध्यान रखना ही चाहिए कि एक दिन हम सबको सदा के लिए मौन धारण करना ही है तो फिर कुछ पलों के लिए मोबाइल क्यों नहीं मौन हो सकता?

Saturday, November 14, 2009

...और कैसा होता है प्रलय

शुक्रवार को फिल्में रिलीज होती हैं और फिल्मों के जानकार इसकी चीर-फाड़ करते हैं। आजकल जैसी फिल्में बन रही हैं, उनकी तारीफ तो विरले ही पढ़ने को मिलती है। शनिवार को भी बॉलीवुड की फिल्म -तुम मिले- और हॉलीवुड की फिल्म 2012 की समीक्षा पढ़ी। वैसे भी आजकल इन समीक्षाओं को पढ़कर और फिर किराये की सीडी लाकर ही फिल्में देखकर ही काम चलाना पड़ता है।
न तो फिल्मों के बारे में ज्यादा समझता हूं और न ही इसके बारे में जानना चाहता हूं। मैं किसी इतर कारण से आप लोगों से मुखातिब हूं। आजकल कई बार लोगों की जुबान से प्रलय की आशंका से जुड़े सवालों से दो-चार होना पड़ता है। जहां तक मैं समझता हूं, आज जिस वातावरण में हम जी रहे हैं, वह किसी प्रलय से कम नहीं है।
आप सोचिए, जब 20 रुपए किलो आटा, 20 रुपए किलो आलू और 90 से 100 रुपए किलो में दाल खरीदना पड़ रहा हो, ढाबे पर एक अति पतली रोटी के चार रुपए चुकाने पड़ रहे हों, निकम्मी सरकारों के कारण स्वाइन फ्लू के साये में जीने को आप विवश हों, सरकारी अस्पताल लोगों के उपचार का नहीं, बल्कि डॉक्टरों, कंपाउंडरों और अन्य कर्मचारियों की कमाई का सबब बने हों, मिलावटी मावा और सिंथेटिक दूध की खबरें अखबारों की मेन लीड बनती हो, ऐसे में आम आदमी के लिए एक-एक दिन गुजारना किसी प्रलय का सामना करने से कम नहीं होता। आमजन के भाग्य विधाताओं का इन समस्याओं से कोई वास्ता नहीं पड़ता, इसलिए वे इसकी फिक्र नहीं करते।
इसके बावजूद आगामी सालों में प्रलय की भविष्यवाणी करने वाले तथाकथित ज्योतिषियों से मेरा निवेदन है कि आम जनता के लिए खुद ही बहुत सारी परेशानियां मुंह बाए खड़ी रहती हैं, सो वे अपनी ऐसी भविष्यवाणियों से बाज आ जाएं ताकि लोग चैन से रह सकें।

Wednesday, November 11, 2009

बच्चों के मरने का है इंतजार


गत वर्ष दिसंबर में हुए विधानसभा चुनाव के बाद अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनी तो प्रदेशवासियों में स्वच्छ प्रशासन की उम्मीद जगी थी। गहलोत चूंकि गांधीवादी माने जाते हैं और उनके सादगी भरे आचार-व्यवहार से उनके ईमानदार होने में कोई संशय नहीं होता। इसके बावजूद पिछले कुछ दिनों से कुछ घटनाएं ऐसी हो रही हैं, जिनसे बार-बार ऐसा आभास होता है कि राजस्थान में सरकार है ही नहीं। जब तक कोई राजनीतिक दल और उसके नुमाइंदे विपक्ष में होते हैं, तब तक तो -हमें ऐसा करना चाहिए-ऐसा होना चाहिए- यह वक्त की जरूरत है- सरीखे जुमले जनता को भी अच्छे लगते हैं, लेकिन सत्तासीन होने के बाद ये जुमले जनता को डंक मारने लगते हैं, चुभने लगते हैं।
पिछले 29 अक्टूबर को जयपुर शहर से महज 16-17 किलोमीटर दूर बने इंडियन ऑयल डिपो के टैंकरों में आग लग गई थी। आग ने प्रलंयकारी रूप धारण कर लिया और सरकार ने हाथ खड़े कर दिए कि इसमें हम कुछ नहीं कर सकते। यह तो ईश्वर की कृपा थी कि हवा ने आग का साथ नहीं दिया, अन्यथा मरने वालों की संख्या दर्जन में नहीं, सैकड़ों में होती और घायलों की संख्या हजारों में। भवनों व संपत्ति का नुकसान भी अरबों-खरबों तक पहुंच जाता। इस अग्निकांड के बाद प्रशासन ने जिस रूप में आपदा प्रबंधन का धर्म निभाया, वह निहायत ही दिशाहीन और अप्रभावी रहा।
आग की लपटें थमने के बाद कारबन भरे जहरीले धुएं के बादल छंटे भी नहीं थे कि तीन नवंबर को शहर के नामी अंग्रेजी मीडियम एसएमएस स्कूल की प्राइमरी कक्षा की एक बच्ची को स्वाइन फ्लू होने की जानकारी उसके पिता ने स्कूल प्रशासन को दी। इसके बाद स्कूल ने स्वविवेक से एहतियात बरतते हुए एक सप्ताह की छुट्टी की घोषणा कर दी। उसके बाद से स्वाइन फ्लू से संक्रमित होने वाले बच्चों का आंकड़ा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। बुधवार को प्रदेश में स्वाइन फ्लू के 83 नए मरीज मिले, जिनमें 71 अकेले राजधानी जयपुर में थे। इनमें भी स्वाइन फ्लू से प्रभावित बच्चों की संख्या 41 थी। चिकित्सा मंत्री और जिला प्रशासन अभी भी निजी स्कूलों को स्वविवेक से ही स्कूल बंद करने की हिदायत दे रहे हैं। और इन निजी स्कूलों का आलम यह है कि जिन स्कूलों में किसी बच्चे की स्वाइन फ्लू की रिपोर्ट पॉजीटिव मिलती है, तो उसमें अवकाश की घोषणा कर दी जाती है। ऐसे में कई अभिभावकों में दहशत का माहौल है और कई अभिभावक प्री-कॉशन लेते हुए भय के मारे अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज रहे। सरकारी स्कूलों के बच्चों को तो भगवान भरोसे ही छोड़ दिया गया है। उनके बच्चों के लिए या उन स्कूलों में छुट्टी घोषित करने के कोई इंस्ट्रक्शन नहीं दिए जा रहे।
स्वाइन फ्लू का प्रकोप जिस तरह से बढ़ रहा है, इसमें संदेह नहीं कि आने वाले दिनों में यह महामारी का रूप धारण कर ले। बीमारी कैसी भी हो, उपचार से बचाव का महत्व अधिक होता है और इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता। अगस्त में पुणे में जब स्वाइन फ्लू फैला था, तब वहां के प्रशासन ने बिना देर किए स्कूल-कॉलेजों में छुट्टी की घोषणा कर दी थी। एहतियात के तौर पर मॉल और मल्टीप्लेक्स भी बंद कर दिए गए थे। स्थिति सामान्य होने पर स्कूल-कॉलेज, मॉल-मल्टीप्लेक्स सभी खुल गए और आज वहीं सब कुछ पटरी पर है।
क्या राजस्थान सरकार इस तरह के निर्णय नहीं ले सकती? मुख्यमंत्री गहलोत बहुत ही ईमानदार हैं, लेकिन उनके ईमानदार होने भर से प्रदेश की जनता का भला नहीं होने वाला। जनता की रक्षा और भले के लिए सरकार को जरूरी और त्वरित निरणय भी लेने होंगे, तभी उसकी उपादेयता सिद्ध हो पाएगी।
मुझे तो लगता है कि राजस्थान में सरकार नाम की कोई चीज है ही नहीं या है भी तो वह कहीं लापता हो गई है, जिसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवानी पड़ेगी। या फिर इस सरकार को बड़ी संख्या में बच्चों के मरने का इंतजार है...उसके बाद ही यह चेतेगी। ईश्वर सरकार को सद्बुद्धि दे जिससे प्रदेशवासियों को इस संक्रामक बीमारी से शीघ्रातिशीघ्र मुक्ति मिल सके।

Friday, October 9, 2009

पहले सिरदर्द देते हैं और फिर हैड मसाजर...


जी हां, अभी कुछ दिनों पहले मैंने एक पोस्ट में भारतीय बाजार में चीन की घुसपैठ पर चिंता जताई थी। सच, अपने हाथ में ज्यादा कुछ नहीं है, लेकिन सोचने और कोसने से तो कोई रोक नहीं सकता। एक सप्ताह बाद दिवाली आने वाली है। कोई जमाना था जब घी के दीये जलते थे, फिर तेल के दीये हुए और अब बिजली की जगमग की इस दुनिया में भावनाएं हमारी होंगी, लेकिन लड़ियां तो चीन की ही होंगी। हमारे नीति नियंता बिजली बचाने के लिए सीएफएल जलाने की सलाह देते हैं, लेकिन भारतीय सीएफएल इतने महंगे होते हैं कि आम भारतीय चाइनीज सीएफएल जलाकर ही बिजली बचाता है, जिससे हमारी बिजली बचे न बचे, चीन की कमाई तो हो ही जाती है। सो, मेरा कहना है कि चीन की इस घुसपैठ ने मुझ जैसे हजारों लोगों को सिरदर्द दिया हुआ है।
दिवाली की बात पर आऊं, तो हमारी गुलाबीनगरी भी इन दिनों ज्योति के इस उत्सव के उल्लास में सराबोर है। पिछले दिनों दिवाली पर खरीदारी के लिए आयोजित मेले में गया तो भीड़ में एक व्यक्ति ने मेरे बालों में कुछ फिराया। एकबारगी तो यह अच्छा लगा, लेकिन तुरत ही सिर चकराया पुराने अनुभव को याद करके। करीब पंद्रह साल पहले एक मित्र ने कलकत्ता यात्रा का एक संस्मरण सुनाया था। चलती ट्रेन में एक फेरीवाला आया और चीनी बाम-चीनी बाम कहते-कहते अपनी झोली में से एक डिबिया निकाली और ----एक बार लगाते ही सिरदर्द को जड़ से मिटा देगा यह चीनी बाम......कहकर यात्रियों के माथे और आंखों के ऊपर वह बाम लगाने लगा। बाम लगाते ही ऐसी जलन हुई कि यात्रियों की आंखें खुल नहीं पा रही थीं। उसी बीच उस तथाकथित फेरीवाले के कुछ साथी अचानक प्रकट हो गए और अल्पकालिक अंधे हुए उन यात्रियों का सामान पार कर ले गए तथा चेन पुलिंग कर उतर गए। यात्रियों की आंखों में जब तक ज्योति लौटी, तब तक उनका बहुत कुछ गायब हो चुका था। मेरा मित्र भी उसी ट्रेन की दूसरी बोगी में था, जिसे कलकत्ता उतरने पर इस वाकये का पता चला।
जब मैं दिवाली मेले में गया था, तो संयोग से उस दिन पांच सौ के तीन-चार नोट शर्ट की ऊपर वाली जेब में ही थे, सो डर लगा रहा था कि उसने सिर में जादू भरे तार फिराने की आड़ में पैसे तो पार न कर लिए हों। खाली जगह पर जाकर जेब चेक की तो संतोष हुआ। अब बारी थी पता करने की उस यंत्र के बारे में जिसे सिर में फिराने पर मालिश का सा अहसास हुआ था। मेले की एक रो में गया तो वहां कई सारी दुकानों पर वह यंत्र बिक रहा था, जिसके पैकेट पर Handy head massager लिखा हुआ था। पैकेट के नीचे छोटे अक्षरों में made in china छपा हुआ था।
यह देखकर मलाल हुआ कि चीन पहले तो अपनी करनी से चाहे सैन्य घुसपैठ हो या हमारे बाजार में सेंध लगाकर-पहले तो हमें सिरदर्द देता है और फिर उससे निजात पाने के लिए हैंडी मसाजर। हर किसी उत्पाद की नकल करने में सिद्धहस्त हमारे अपने देश के महारथी कब इन छोटी-छोटी चीजें बनाने में अपनी कुशल कला का परिचय देंगे, जिससे ऐसी चीजों पर खर्च होने वाला हमारा पैसा विदेशियों की जेब के बजाय हमारे अपने उद्यमी भाइयों की तिजोरी में जाएगा।
(संभव है आपमें से बहुतों को इस चाइनीज हैड मसाजर के बारे में काफी पहले से पता हो, लेकिन मैंने तो उस दिन पहली बार ही इसे देखा था, इसलिए ऐसे मित्रों से अपने अल्पज्ञान के लिए क्षमा चाहता हूं।)

Sunday, October 4, 2009

चांदनी रात में कुछ गीत गुनगुनाइए...


गुलाबी नगर में 38 साल पहले साहित्य और संस्कृति से अंतर्मन से जुड़े कुछ लोगों ने तरुण समाज की स्थापना की थी। तभी से इस संगठन ने होली के अवसर पर महामूरख सम्मेलन और शरदोत्सव के रूप में गीत चांदनी का आयोजन शुरू किया। इन दोनों ही कवि सम्मेलनों की आज देश के गिने-चुने कवि सम्मेलनों में गिनती होती है। गुलाबी नगर के बाशिंदों को सालभर इसका इंतजार रहता है। इसके संस्थापक महानुभाव निस्संदेह अब मध्यवय के हो गए होंगे, लेकिन उनके हृदय में तरुणाई अभी शेष है और यह आयोजन अनवरत-अबाध रूप से जारी है। अभी कल शनिवार 3 अक्टूबर को आश्विन की पूनम पर शरद ऋतु की रात जयपुर के जय क्लब लॉन पर गीत चांदनी कवि सम्मेलन हुआ। आइए, गीत चांदनी के कुछ गीत आप भी हमारे साथ मिलकर गुनगुनाइए -
दिल्ली की डॉ. कीर्ति काले ने
जब बंधे बिजली स्वयं ही मोहपाशों में,
चांदनी छिप जाए शरमाकर पलाशों में,
जब छमाछम बाज उठे पायल घटाओं की,
मांग जब भरने लगे सूरज दिशाओं की।
तब हृदय के एक कोने में कोई कुछ बोल जाता है।
रचना से चांदनी और सौंदर्य व मोहब्बत का रिश्ता जोड़ा।

लखनऊ के देवल आशीष ने
हमने तो बाजी प्यार की हारी ही नहीं है,
जो चूके निशाना वो शिकारी ही नहीं है।
कमरे में इसे तू ही बता कैसे सजाएं,
तस्वीर तेरी दिल से उतारी ही नहीं है।।
के माध्यम से प्रेम को रवानी दी।

किशन सरोज ने
बिखरे रंग तूलिकाओं से, बना न चित्र हवाओं का,
इंद्रधनुष तक उड़कर पहुंचा, सोंधा इत्र हवाओं का...
से हवा की फितरत और वाराणसी के श्रीकृष्ण तिवारी ने
रेत पर एड़ी रगड़कर थक गया तो मन हुआ,
अब मैं नदी बनकर बहूं...बहने लगा।
हाथ में पत्थर लिए बच्चे मिले तो मन हुआ...
अब मैं दरख्तों सा फलूं, फलने लगा।।
के माध्यम से अपने ही रौ में बहने का अंदाजे बयां किया।

मेरठ से आए सत्यपाल सत्यम ने
हो गए संपन्न सब उपवास नभ में चांद निकला।।
बुझ गई अनगिन दृगों की प्यास नभ से चांद निकला।।
भावना जितनी अपावन थी सब हुई विसर्जित,
अब सुखद संभावना को रिक्त है मन।।
लहलहा उट्ठा है पतझर में बगीचा,
अब तो बारह मास सावन है या फागुन,
हर दिवस त्यौहार सा उल्लास, नभ में चांद निकला
से चांद के महत्व पर प्रकाश डाला।

इलाहाबाद से आई रागिनी चतुरवेदी ने
मेरे मन का फूल खिला है, हवा बताती है,
शायद तुमने याद किया है, हिचकी आती है।।
जिधर-जिधर जाती हैं नजरें, शगुन दिखाई देते,
फड़क रहीं पलकें रुक जाती नाम तुम्हारा लेते,
पिंजरे की चिड़िया भी कैसा पंख फुलाती है।।
...शायद तुमने याद किया, हिचकी आती है।।
के माध्यम से प्रियतम की यादें ताजी कीं।

बगड़ के भागीरथ सिंह भाग्य ने मीठी राजस्थानी में मरुथली माटी के सौंदर्य और महत्ता को कुछ इस तरह शब्द दिए -
म्हारे खेतां में मौसम मजूरी करे
बाजरो रात-दिन जी हजूरी करे
म्हारे खेतां री रेतां रमे रामजी
आज तन्ने रमा ल्याऊंली
चाल रे सातीड़ा म्हारे खेतां में आज
तन्नै काकड़ी खुआ ल्याऊं ली।।

ग्वालियर से आए रामप्रकाश अनुरागी ने सुनाया -
हम नदी बनकर बहे तो, सिंधु का जल हो गए।
आग सी दहती किरण से, लिपट बादल हो गए।।
फूल-फल-पत्ते टहनियां, हम तना, जड़ भी हम्हीं,
सृष्टि-बीजों को बचाने हम धरातल हो गए।।

मध्य प्रदेश के खरगौन से आए दर्द शुजालपुरी ने
उधर से तुम इधर आओ, इधर से हम उधर आएं,
हमारी राह-रोशन को सितारे भी उतर आएं।।
हमें दुनिया से क्या मतलब, हमें अपनों से क्या रिश्ता
हमें तुम ही नजर आओ, तुम्हें हम ही नजर आएं।।
के माध्यम से प्रेम में दो दिलों के एकाकार होने की कथा काव्य में कही।

गीत चांदनी का संचालन कर रहे जयपुर के हास्य व्यंग्य के कवि सुरेंद्र दुबे ने भी कुछ गंभीर पंçक्तयों से अपने फौलादी इरादों का इजहार किया -
मेरे कदमों का मंजिल से नाता है,
मुझको भी इतिहास बनाना आता है।।
हर इक बाधा शर्म से पानी-पानी है,
मेरी गति से दूरी को हैरानी है।।
हर पत्थर के मकसद से परिचित हूं मैं,
गड्ढों की फितरत जानी पहचानी है।।
मेरे पांवों से हर कांटा नजर चुराता है,
मुझको भी इतिहास बनाना आता है।।
मेरे कदमों का मंजिल से नाता है

Saturday, October 3, 2009

गांधी का गुणगान, लालबहादुर लापता


कल यानी शुक्रवार दो अक्टूबर को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती धूमधाम से मनाई गई। संयोग कहें या दुरयोग कि पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का जन्मदिवस भी इसी दिन था। कल के अखबारों में विभिन्न राज्य/केंद्र सरकारों और सरकारी संस्थाओं की ओर से भरपूर मात्रा में विज्ञापन प्रकाशित हुए। खलने वाली बात यह रही कि इस तुलना में लाल बहादुर शास्त्री को दस प्रतिशत भी तवज्जो नहीं दी गई। इस अवसर पर हुए आयोजनों के केंद्रबिंदु में भी महात्मा गांधी ही थे। शास्त्रीजी को याद करने के कार्यक्रम तो महज रस्म अदायगी जैसे थे। क्या लालबहादुर शास्त्री के महान व्यक्तित्व को हमारे नीति नियंताओं ने इतनी जल्दी भुला दिया। हालांकि ऐसा करने से शास्त्रीजी का कद कदापि छोटा नहीं पाएगा। शास्त्रीजी ने अपने चरित्र से जो मिसाल कायम की, उसे भुलाया नामुमकिन है। इक्के-दुक्के संगठनों को छोड़कर अधिकतर ने महात्मा गांधी पर केंद्रित कार्यक्रम ही आयोजित किए।
कायस्थ समाज से जुड़े कुछ संगठनों ने लालबहादुर शास्त्री को अवश्य याद किया, लेकिन यहां सोचने का विषय है कि क्या शास्त्रीजी को याद करने का दायित्व महज एक समाज विशेष का ही है। इसे हम देश की बदकिस्मती ही कहेंगे कि आजादी के बाद से सत्ता में आए लोगों ने जगह-जगह गांधी की प्रतिमाएं स्थापित कर, उनके नाम से संस्थाएं स्थापित कर, देश की करेंसी पर राष्ट्रपिता की फोटो छापकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, यदि वे गांधी के आदरशों को आचरण में लाते तो ऐसी महान विभूतियों को को इस तरह भुलाने की आदत उनमें नहीं पनपती।
अपने-अपने आराध्य
कांग्रेस ने अपने आकाओं को हर तरह से तवज्जो दी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। इसमें भी नेहरू परिवार से जुड़े नेताओं का नाम प्रथम गण्य है। भाजपा ने भी आरएसएस और जनसंघ के संस्थापकों और सरदार पटेल जैसे अपनी पसंद के नेताओं को ही अपना आराध्य समझा। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की मेहरबानी से पूरा सूबा बाबा साहब अंबेडकर की प्रतिमाओं के पार्क के रूप में विकसित हो रहा है। इतना ही नहीं, अपने अनुयायियों द्वार भुलाए जाने की आशंका से ग्रसित बसपा सुप्रीमो जीते जी अपनी प्रतिमाएं स्थापित करने में लगी हैं। हालात ऐसे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में दखल देना पड़ा।
नीतीश कुमार की सार्थक पहल
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शनिवार को घोषणा की कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की समाधि स्थल को दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जाएगा। वे प्रथम राष्ट्रपति की 125 वीं जयंती के उपलक्ष में उनकी पुनर्प्रकाशित पुस्तकों के लोकार्पण अवसर पर बोल रहे थे।

उन्होंने शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव को निर्देश दिया कि डॉ. राजेन्द्र बाबू की समाधि स्थल पर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी शिलालेख के माध्यम से उल्लिखित कराएं ताकि नई पीढ़ी को इस महान विभूति के बारे में जरूरी जानकारियां मिल सकें। नीतीश ने केन्द्र सरकार से भी राजेन्द्र बाबू के कृतित्व एवं व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को नयी पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए यथासंभव प्रचार-प्रसार कराए जाने का अनुरोध किया।

Friday, October 2, 2009

बापू के बहाने


आज शाम साढ़े चार बजे टेलीविजन का स्विच ऑन किया तो दूरदर्शन के नेशनल चैनल पर नई दिल्ली स्थित तीस जनवरी मार्ग से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जयंती पर आयोजित कार्यक्रम का सीधा प्रसारण चल रहा था। आज की ताजा खबरों से अवगत होने के लिए दूरदर्शन के न्यूज चैनल पर गया तो वह भी राष्ट्रीय धर्म का निर्वहन करते हुए इसी कार्यक्रम को लाइव टेलीकास्ट कर रहा था।
अच्छी बात है, राष्ट्रपिता और जन-जन के बापू के प्रति कृतज्ञता का भाव हमें प्रकट करना ही चाहिए, सो लाइव टेलीकास्ट ही देखता रहा। इस बीच सर्वधर्म प्रार्थना सभा शुरू हुई। इसमें विभिन्न धरमों के प्रतिनिधियों ने अपने-अपने धर्मग्रंथ से प्रार्थना-मंत्र आदि का वाचन किया। मुझे जो बात खली वो यह थी कि हममें से अधिकतर लोगों को अलग-अलग धरमों की प्रार्थना का शब्दार्थ या भावार्थ समझ में नहीं आया। (शायद मुझ सरीखे अन्य लोगों को भी यह बात खली हो।)
ऐसे में मेरी गुजारिश है कि इन धर्म विशेष की प्रार्थना का शब्दार्थ-भावार्थ भी यदि टेलीविजन स्क्रीन पर दिखाया जाए, तो लोग अन्य धरमों की प्रार्थना और उसमें दिए गए मानव-कल्याण के संदेश के बारे में जान और समझ सकेंगे। इससे सर्वधर्म प्रार्थना सभा अपने उद्देश्य में सफल हो सकेगी और देश में सर्वधर्म समभाव का वातावरण भी बन सकेगा। मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से आयोजन में किसी प्रकार का विघ्न हो सकेगा।
...हो चुकी है शुरुआत
बचपन में गांव में सत्यनारायण भगवान की पूजा में जाता था तो पंडितजी संस्कृत में ही कथा का पाठ करते थे। तब अक्सर देखने में आता थी कि हम बच्चे ही नहीं, बल्कि बड़े-बुजुर्ग भी कथा का अर्थ समझें या न समझें, भक्ति भाव से हाथ जोड़े आरती होने और प्रसाद मिलने तक बैठे रहते थे। आजकल गांवों में ही नहीं, शहरों में भी कई बार देखने को मिलता है कि सत्यनारायण भगवान की पूजा के दौरान हिंदी में ही कथा होती है और लोग भक्ति भाव से साथ ही कथा का अर्थ भी समझ पाते हैं। ऐसे में निस्संदेह कथा से उनका जुड़ाव अधिक हो पाता है। हिंदू परिवारों के विवाह समारोहों में भी पंडितजी अक्सर संस्कृत मंत्रों के हिंदी अनुवाद भी बोलते हैं, जिससे परिणय सूत्र में बंधने वाला युगल अपने भावी जीवन के आदरशों को समझ पाता है और विवाह के आयोजन में शामिल होने वाले लोग भी इन वैदिक मंत्रों में निहित भावार्थ के बारे में जान पाते हैं।
...इनका क्या करें?
बापू को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित कार्यक्रम में एक केंद्रीय मंत्री बार-बार घड़ी देख रहे थे। उनकी यह मनोदशा मन को कचोटती है कि यदि इनके पास समय नहीं था तो महज दिखावे के लिए ऐसे कार्यक्रमों में आने की क्या जरूरत थी। यदि आप स्वर्ग में ही नहीं, बल्कि जन-जन के मन में विद्यमान इन महान विभूतियों के प्रति सच्ची श्रद्धा नहीं रखेंगे, तो आपके अनुयायियों या मतदाताओं में आपके प्रति आस्था कैसे जगेगी।

Wednesday, September 30, 2009

...ज्यों मूक को मिल गई वाणी

आज रात दो बजे यूं ही कुछ मित्रों के ब्लॉग पढ़ रहा था कि अनायास ही ब्लॉगवाणी डॉट कॉम खोलने के लिए माउस क्लिक कर दिया। आज तो सचमुच कमाल हो गया वरना ब्लॉगवाणी की विदाई का संदेश देखकर मन खिन्न हो उठता था। ऐसा लगता है जैसे बहुत कुछ ऐसा खो गया है जो दिल की गहराइयों तक पैठ बना चुका था। मेरा आशय महज इन बातों से नहीं हुआ करता था कि ब्लॉगवाणी पर मुझे कितने लोगों ने पसंद किया या मेरा ब्लॉग सबसे अधिक पढ़े जाने वाले ब्लॉग की सूची में कितनी बार आया, बल्कि ब्लॉगवाणी खोलने के बाद पुस्तक की इंडेक्स की तरह पृष्ठ दर पृष्ठ आलेखों पर एक नजर डालना और पहली नजर में पसंद आने पर आलेख को पूरा पढ़ पाना। इतना ही नहीं, ब्लॉगवाणी ने एकाधिक बार कई सालों से बिछड़े मित्रों के ब्लॉग पढ़ने और उनसे संवाद साधने का अवसर भी उपलब्ध कराया।
ब्लॉगवाणी के बंद होने के बाद कई ब्लॉगर मित्रों से फोन पर अपनी व्यथा शेयर की, तो उधर भी पीड़ा कुछ वैसी ही महसूस हुई। ऐसा लग रहा था जैसे शब्दों से स्वर छिन गए हों। मुझ सरीखे मूकों को वाणी प्रदान करने के लिए ब्लॉगवाणी के नियंताओं का बहुत-बहुत स्वागत और हृदय से साधुवाद।

Monday, September 28, 2009

अर्द्धांगिनी मतलब....

चार दिन पहले मैंने पत्नी के सहयोग से ही बड़ी मंजिलें पाने का जिक्र किया था। आज सुबह एक मित्र से बात की तो पत्नी को लेकर अपनी पीड़ा वे दबा नहीं सके। हालांकि उनकी पीड़ा वैसी नहीं थी, जैसी पत्नी पीड़ितों की होती है। आज तक अमूमन हमलोग यही पढ़ते-सुनते आए हैं कि शादी के बाद पत्नी को पाकर ही मनुष्य का व्यक्तित्व पूर्णता को प्राप्त करता है। मित्र ने अर्द्धांगिनी शब्द की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की। उनका कहना था कि जिसके आधे अंग में हमेशा बीमारी रहती हो, उसे अर्द्धांगिनी कहते हैं। यह बीमारी मानसिक, शारीरिक, शक की या कुछ और तरह की हो सकती है। उनकी पीड़ा उनकी पत्नी के अभी हाल ही बीमार हो जाने को लेकर थी। उनकी पत्नी के आधे चेहरे पर लकवा हो गया था, जो उपचार के बाद अब काफी हद तक ठीक है। वे कह रहे थे कि आजकल महिलाओं में व्रत-उपवास करने की क्षमता पहले की तुलना में काफी कम हो गई है, फिर भी वे निर्जला उपवास करने से बाज नहीं आतीं। गांवों में तो महिलाएं आम तौर पर दोपहर दो बजे से पहले खाना नहीं खातीं। इस तरह खाली पेट रहने से होने वाली कई बीमारियां उन्हें घेर लेती हैं।
मित्र ने गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस का रेफरेंस देकर कहा -
नारी सुभाव सत्य कवि कहहिं। अवगुण आठ सदा उर रहहिं।
साहस अनृत चपलता माया। भय अविवेक असौच अदाया।
मैंने कहा कि तुलसी बाबा ने आदर्श नारी में ये अवगुण नहीं गिनाए हैं। काल के मुख में जाने को आतुर खुद अविवेक में अंधे रावण ने मंदोदरी को संबोधित करते हुए उपरोक्त पंक्तयां कही थीं। फिर कोई चाहे कुछ भी तर्क थे, गोस्वामी जी की इन पंक्तियों में कही गई नारी की भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता __
नारी विवश नर सकल गोसाईं। नाचहिं नट मर्कट की नाईं।।
और तुलसी बाबा ने ही सर्वशक्तिमान ईश्वर के हाथों में मनुष्य की स्थिति का वर्णन करते समय भी कुछ ऐसे ही शब्दों का प्रयोग किया है -
सबहिं नचावत राम गोसाईं। नाचत नट मर्कट की नाईं।
इसलिए नारी के प्रति इस तरह के भाव लाना कदापि उचित नहीं है। मेरे काफी समझाने के बाद वे मेरे तर्क से सहमत हुए। यहां मेरे यह उद्धृत करने का उद्देश्य महज इतना ही है कि अपनी सहगामिनी के प्रति हम मनुष्यों (तथाकथित बुद्धिजीवियों) के मन में सदैव कुछ न कुछ चलता ही रहता है, जिसकी परिणति कभी इस तरह की अभिनव परिभाषाओं से हो जाया करती है।
इससे यदि किसी की भावनाएं आहत हुई हों तो किसी अज्ञात कवि की इन पंक्तियों के माध्यम से क्षमा चाहता हूं -
इस दुनिया में अपना क्या है, सब कुछ लिया उधार।
सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार।।

Sunday, September 27, 2009

आस्था अपार, उल्लास अदृश्य


शक्ति की आराधना के पर्व शारदीय नवरात्र की पूरणाहुति महानवमी पर रविवार को हुई। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शुरू हुए इस पर्व में श्रद्धालुओं ने अपनी श्रद्धा और सामरथ्र्य के अनुसार मां भगवती की आराधना की। संपूर्ण भारतवर्ष में मां भगवती की आराधना हुई। गुलाबीनगरी में रह रहे बंगाली समाज के लोगों ने शहर में कई स्थानों पर सामूहिक दुगाü पूजा महोत्सवों का आयोजन किया। इन महोत्सवों में स्थानीय लोगों की भागीदारी न के बराबर रही। ऐसे में यह बात कचोटती है कि उनके मन में मां भगवती के प्रति आस्था की कोई कमी नहीं है, या यूं कहें कि चहुंओर आस्था का पारावार है, लेकिन हृदय से सहज निःसृत होने वाला उल्लास नहीं दिखा। पश्चिम बंगाल, पूवीü उत्तर प्रदेश, बिहार और पूर्वोत्तर के राज्यों की तरह सार्वजनिक रूप से दुगाü पूजा उत्सव आयोजित न किए जाएं तो कोई बात नहीं, लेकिन स्थानीय लोगों को भी इन कार्यक्रमों में सहभागिता अवश्य निभानी चाहिए। इससे स्थानीय लोगों में आप्रवासी लोगों के प्रति अपनत्व का भाव बढ़ेगा तथा उन्हें बंगाली संस्कृति के बारे में बहुत कुछ जानने समझने का अवसर मिलेगा। आप्रवासी लोगों में भी अकेलेपन का बोध कम होगा। यहां यह तथ्य भी विचारणीय है कि राजस्थान या जयपुर में शारदीय नवरात्र के दौरान घरों में परंपरागत रूप से माता भगवती की सगुण रूप में ही पूजा-अर्चना की जाती है और कलशस्थापना के साथ ही पूजा-स्थल पर भगवती की तस्वीर भी रखी जाती है। इसके बावजूद सामूहिक पूजा पांडालों में आयोजित आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों से इस तरह की दूरी-बेरुखी को किसी भी तरह से अच्छा नहीं कहा जा सकता। स्थिति तो कई बार ऐसी होती है कि पूजा पांडाल से सटे इलाके में भी स्थानीय लोग इस उत्सव से बिल्कुल ही अनजान होते हैं। इस मुद्दे पर अवश्य ही पुनर्विचार किया जाना चाहिए।
दशहरा मेले की रहेगी बहार
जयपुर के साथ ही पूरे राजस्थान में विजयादशमी पर सोमवार को दशहरा मेलों की बहार रहेगी। दशहरे का उत्साह तो यहां देखते ही बनता है। चंबल के किनारे बसे कोटा का दशहरा मेला तो देश ही नहीं, विश्व में प्रसिद्ध है। शहरों में जगह-जगह खानदान सहित दशानन के पुतले जलाए जाएंगे। आयोजकों में रावण के पुतले की ऊंचाई को लेकर होड़ रहेगी। इस दौरान मंचों पर सांस्कृतिक प्रस्तुतियों से कार्यक्रम में चार चांद लगाए जाएंगे, वहीं रंग-बिरंगी आतिशबाजी से आसमान अट जाएगा। इतना ही नहीं, गली-मोहल्लों में भी बच्चे अपने स्तर से रावण के पुतले बनाकर उसका दहन करेंगे।

Friday, September 25, 2009

पत्नी न चाहे तो...


अभी शçक्त की आराधना का पर्व नवरात्र चल रहा है। सच है, शçक्त के बिना व्यçक्तत्व की कल्पना बेमानी है। शçक्त - वैचारिक, शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, राजनीतिक हर रूप में जरूरी है। इस शçक्त की पहली इकाई पत्नी है, जिसके मिलने के बाद ही व्यçक्त पूर्ण हो पाता है। व्यçक्त की परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व के प्रति जो भी जिमेदारियां हों, लेकिन एक पति की सबसे बड़ी जिमेदारी पत्नी के अरमानों को पूरा करना ही होता है। ऐसा मैं नहीं कह रहा, बल्कि महान लोगों का भी यही कथन है। मैं तो महज -महाजनो गतो स पन्थाज् -का अनुपालन करते हुए इसकी पुनरावृçत्त कर रहा हूं। सच है, यदि पति के व्यवहार से पत्नी संतुष्ट नहीं हो तो तिल का ताड़ बनाकर आदमी का जीना मुश्किल कर सकती है। बाद में बच्चों का साथ भी यदि मां को मिल जाए तो पति के लिए तो इहलोक और परलोक दोनों ही बिगड़ जाते हैं।
यह तो पृष्ठभूमि थी। भागीरथी सेवा प्रन्यास और अन्य सहयोगी संस्थाओं की ओर से जयपुर में गुरुवार को आयोजित एक कार्यक्रम में मुयमंत्री अशोक गहलोत ने यात पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा की पत्नी को क्वकस्तूरबा गांधी सेवा पुरस्कारं प्रदान किया। इस अवसर पर विमला बहुगुणा ने अपने संबोधन में महात्मा गांधी की शिष्या सरला बहन के साथ पहाड़ों में किए गए समाज सुधार के कामों से लोगों को अवगत कराया।
प्रन्यास के अध्यक्ष पंचशील जैन ने बताया कि यह पुरस्कार पति के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलने वाली विभूति को दिया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि मोहनदास करमचंद गांधी की पत्नी कस्तूरबा गांधी ने यदि उनका हर कदम पर साथ नहीं दिया होता, तो शायद वे महात्मा गांधी, राष्ट्रपिता और बापू नहीं बन पाते। ऐसी किस्मत विरले लोगों को ही मिल पाती है और फिर वे अपने जीवन में यथेष्ट की प्राçप्त कर पूर्ण संतुष्ट होकर जीते हैं और कई मामलों में मील के पत्थर भी साबित होते हैं। प्रन्यास ने पिछले वर्ष प्रथम कस्तूरबा गांधी पुरस्कार प्रसिद्ध समाजसेवी बाबा आटे की पत्नी साधना ताई को उनके आश्रम में जाकर दिया था।
निष्काम कर्मयोगी का समान


कार्यक्रम में दो दर्जन से अधिक संस्थाओं के संस्थापक, महात्मा गांधी की नीतियों को आत्मसात करने वाले निष्काम कर्मयोगी मोहनभाई को 90 वर्ष पूरे कर दसवें दशक में प्रवेश पर समानित किया गया। 91 वर्ष की आयु में भी मोहनभाई की सक्रियता युवाओं का मार्ग प्रशस्त करती है। जब वे माइक पर आए तो उनकी उपस्थिति तथा वक्तृत्व को पूरा सभागार अनुभूत कर रहा था। इतनी उपलçब्धयों के बावजूद इतनी सरलता-सहजता से परिपूर्ण व्यçक्तत्व जिसके बारे में बताने के लिए शब्द नहीं मिलें। ईश्वर से प्रार्थना कि ऐसी विभूति को अच्छे स्वास्थ्य के साथ लंबी आयु प्रदान करे जिससे भावी पीढ़ी उनका मार्गदर्शन ले सके।
(तकनीकी कारणों से हुई अशुद्धियों के लिए खेद है)

Sunday, September 20, 2009

देव तुम्हारे, मंत्र हमारे - यह कैसी घुसपैठ ?


आजकल मीडिया में चीन के घुसपैठ की खबरें रोज ही आ रही हैं। होना तो यह चाहिए कि हमारे देश की सीमाओं की ओर जो आंखें उठें, उन्हें बिना समय गंवाए फोड़ दिया जाए, लेकिन जब देश का शीर्ष नेतृत्व ही लचर व्यक्तित्व के हाथों में है तो कोई क्या करे। खैर, हमारे राजनेता जो भी करें, इस देश की सेना पर हमें पूरा भरोसा है कि सीमा की ओर बढ़ने वाले किसी भी हाथ को मरोड़ने की ताकत उनमें है।
मैं यहां दूसरे घुसपैठ की बात कर रहा हूं जो पिछले कई सालों से चल रही है और हमारे नीति नियंता हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। शनिवार को शारदीय नवरात्र शुरू हुए। इससे दो दिन पहले किसी अखबार में खबर पढ़ी कि नवरात्र में पूजन के लिए चीन में बनी मां भगवती की प्रतिमाएं बाजार में आ गई हैं। यह कैसी बात है कि होली पर चाइनीज पिचकारियां और मकर संक्रांति पर चीन में बने पतंगों और मांझे की बाजार में बाढ़ आ जाती है। अभी आने वाले दिनों में दीपावली भी रंग-बिरंगी चाइना मेड बिजली के बल्वों की लड़ियां भी बाजार में धड़ल्ले से बिकेंगी। बिजली का खरचा बचाने वाली सीएफएल लाइटों में भी चाइनीज सीएफएल का बाजार में काफी दखल है। खरीदने वालों का तर्क होता है कि चाइनीज सामान की गुणवत्ता भले दोयम दरजे की हो, वे टिकाऊ नहीं होते हों, लेकिन उनकी कीमत भारतीय उत्पादों की तुलना में काफी कम होती है।
ऐसे में सरकार से मेरा सवाल है कि यदि चीन सस्ती दरों पर बिकने वाली वस्तुएं बेचकर मुनाफा कमा सकता है तो हमारे देश की कंपनियां ऐसा क्यों नहीं कर पातीं। व्यापारियों के मुनाफे पर मैं बंदिश लगाने का पक्षधर कदापि नहीं हूं, लेकिन कम लाभ से अधिक बिक्री करके भी तो मुनाफा बढ़ाया जा सकता है।
बचपन में सीख मिली थी कि किसी रेखा को बिना मिटाए छोटी करने की तरकीब है कि उसके नीचे बड़ी रेखा खींच दी जाए। हमारे देश के राष्ट्रप्रेमी व्यापारी भी इस तरकीब से अपना मुनाफा बरकरार रखते हुए चीनी घुसपैठ से देश को बचा सकते हैं। अन्यथा बच्चे हमारे खिलौने उनके, उड़ान हमारी डोर उनकी और मंत्र हमारे, देव उनके का राग आने वाले दिनों में हमारे देश पर काफी भारी पड़ सकता है।

Friday, September 18, 2009

...ये कहां आ गए हम

... तो आज अमिताभ बच्चन की फिल्म -सिलसिला-से अपनी बातचीत का सिलसिला शुरू करता हूं। सुबह बिहार के किशनगंज से एक डॉक्टर मित्र का फोन आया। वे बिहार में विधानसभा की 18 सीटों पर हुए उपचुनाव में सत्तारूढ़ जनता दल यू और भाजपा की करारी शिकस्त से दुखी थे। उपचुनाव में जनता दल यू को तीन और भाजपा को मात्र दो सीटों पर संतोष करना पड़ा। पटरी से उतरे लालू यादव की लालटेन अचानक चमक उठी और राजद ने सबसे अधिक छह सीटों पर जीत हासिल की। लालू का गमछा पकड़कर रामविलास पासवान भी वैतरणी पार उतर गए और उनके प्रत्याशियों ने तीन सीटें झटक लीं। आमजन को महंगाई के मझधार में छोड़कर मितव्ययिता का राग अलापने वाली कांग्रेस के उम्मीदवार भी दो सीटें निकाल ले गए।
मेरा मकसद यहां उपचुनाव के परिणाम का विश्लेषण नहीं करना नहीं, बल्कि अपने मित्र की पीड़ा पर मरहम लगाना भर है। यह पक्की बात है कि मेरे मित्र किसी राजनीतिक दल की विचारधारा से ताल्लुकात नहीं रखते, लेकिन धरा से जुड़े होने के कारण धरातल पर होने वाले काम उनकी नजरों से नहीं बच पाते। कभी आम सुविधाएं नहीं मिलने से त्रस्त थे तो आज चिकनी सड़क पर उनकी कार भी बिना धचके दिए चलती है। आज से पांच साल पहले यदि कोई बिहार गया हो तो उसे अहसास होगा कि लालू-राबड़ी के पंद्रह साल के शासनकाल में बिहार किस हद तक पिछड़ गया था।
मेरे मित्र का तर्क था कि नीतीश कुमार ने सत्ता संभालने के बाद बिहार के कायाकल्प का प्रयास अवश्य शुरू किया है और आज सड़कों से लेकर अस्पतालों तक के सुधरे हुए हालात इसका बयान करते हैं। अन्य क्षेत्रों में भी प्रगति की रफ्तार देखी जा सकती है। मित्र की चिंता इस बात की है यदि हालात ऐसे ही रहे और लोग विकास को दरकिनार कर यदि जात-पांत जैसे मुद्दों पर मतदान करते रहे तो बिहार एक बार फिर पिछड़ेपन की गर्त में चला जाएगा। हालात बदलने के साथ विचारों में भी नयापन आना चाहिए और हमारे सोचने के स्तर में भी विकास अपेक्षित है। अन्यथा हम यही कहने को विवश होंगे.....ये कहां आ गए हम।
मैंने मित्र को दिलासा दिया कि संभव है कि नीतीश और सुशील मोदी भारतीय क्रिकेट टीम की तरह लीग मैचों में करारी शिकस्त के बाद फाइनल में शानदार वापसी करें। हालांकि उपचुनाव के परिणामों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि जनता दल यू ने रमई राम और श्याम रजक को अपनी गोद में बिठा लिया, जिनकी करतूत का फैसला जनता ने कर दिया और जनता दल यू को सीट के साथ साख व प्रतिष्ठा भी गंवानी पड़ी।
किसी विचारधारा का समर्थक होना एक बात है और किसी एक के खिलाफ बाकी सभी का एकजुट हो जाना दूसरी बात। हालांकि राजनीति में किसका गठजोड़ किसके साथ कितनी अवधि के लिए रहेगा, इसकी भविष्यवाणी करना आसान नहीं है। अंत में उधार की चार पंक्तियों के साथ अपनी बात खत्म करूंगा, शायद मेरे मित्र को कुछ तसल्ली मिले-
राजनीति में मित्र कठिन है, खुद से परे चरित्र कठिन है।
किसी जुआरी के अड्डे पर वातावरण पवित्र कठिन है।।

Thursday, September 17, 2009

सैशे में बिकता सुख


राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहा करते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है और उनके तथाकथित अनुयायियों ने गांधी दर्शन को दरकिनार कर दिया। सत्तासीन नेताओं ने गांवों को उनके हाल पर छोड़ दिया। सुविधाओं के अभाव में गांव लाचार लोगों की शरणस्थली बनकर रह गए और न जाने क्या-क्या खोने की कीमत पर आज भी शहरों की ओर पलायन थमा नहीं है।
कवि गाते-गाते अघाते नहीं रहे कि भारतमाता ग्रामवासिनी, लेकिन कविहृदय व्यक्ति के सत्ता के शीर्षस्थ पद पर पहुंचने के बावजूद गांवों की तकदीर नहीं बदली। गांव में रहने वालों की न जाने कितनी लालसाएं धन के अभाव में दम तोड़ती रहीं।
बदलते समय के साथ राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने गांधी के गांवों की ओर रुख किया है और आज सैशे की शक्ल में गांव और गरीबों की जेब के हिसाब से सारे उत्पाद उपलब्ध कराए जा रहे हैं। जी हां, नीम-बबूल की दातुन करने वाले बच्चे कॉलगेट पाउडर और डाबर दंतमंजन से दांत साफ कर रहे हैं। झोपड़ी में रहने वाली रमणी भी एक रुपए के शैंपू से अपने बालों को रेशमी लुक देती है। अब वह कपड़े धोने वाले पाउडर से बालों की गंदगी मिटाने को मजबूर नहीं है। पीयर्स जैसा अभिजात्य वर्ग का साबुन छोटी साइज में आने के कारण सर्वसुलभ हो गया है।
राम करे ऐसा न हो
महंगाई ने सुरसा की तरह मुंह फाड़ना शुरू कर दिया है और हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह कोई हनुमानजी तो हैं नहीं कि अपनी बुद्धिमत्ता से सुरसा से पार पा जाएं। आज की तारीख में आम आदमी का जीना मुश्किल हो रहा है। आटा-दाल-आलू-सब्जियों के भाव आसमान छू रहे हैं। टिफिन में रोटियां कम हो रही हैं, दाल पतली हो रही है, सब्जी की गिरती क्वालिटी का तो कहना ही क्या? अभी पिछले दिनों मीडिया में खबर आई कि मध्य प्रदेश में पाउच में दाल बिक रहा है। महंगाई की रफ्तार यही बनी रही तो वह दिन दूर नहीं जब आटा-चावल भी पाउच में मिले। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि ऐसा दिन कभी न आए और आम आदमी को पेट भरने में कोई मुसीबत नहीं आए।

Friday, September 4, 2009

भुट्टे की भ्रूणहत्या


दसवीं पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए गांव छोड़कर शहर में आया तो मक्के का लावा (जिसे अब पॉप कॉर्न कहा जाने लगा है) ठेले पर बिकता देख अक्सर अचरज होता था कि यह भी कोई बिकने की चीज है। गांवों में तो इसे सबसे अधिक हेय समझा जाता था। हालात ऐसे थे कि मजदूर भी मजदूरी में मक्का लेना पसंद नहीं करते थे। बदलते हुए समय के साथ बहुत कुछ बदला। अब कभी काफी हिम्मत जुटाकर किसी मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने जाता हूं तो बच्चे के कहने पर पॉप कॉर्न खरीदना पड़ता है। पांच रुपए में गिनती के दाने मिलते हैं।
खैर, यह तो समय-समय की बात है। अभी चार-पांच दिन पहले पत्नी और बच्चे के साथ बिग बाजार गया। वहां पॉलीथिन में पैक भुट्टे देखकर बरबस ही निगाह उस ओर चली गई। देखा तो पचीस रुपए में दो भुट्टे थे और उस पर अंग्रेजी में अमेरिकन पॉप कॉर्न की परची चिपकी हुई थी। इंग्लिश स्कूल में पढ़ने वाले गांव की संस्कृति से अनजान बच्चा मचल गया तो मजबूरन दो भुट्टों का एक पैकेट लेना ही पड़ा। मजबूरी यह भी थी कि एक भुट्टा खरीदने की छूट नहीं थी। उसके बगल में ही मैंने एक और उससे भी छोटा पैकेट देखा, जिसमें भुट्टा खाने के बाद जो अवशिष्ट (जिसे हम गांव की भाषा में नेढ़ा कहते थे) जैसा कुछ था काफी पतला। सेल्समैन से पूछा तो उसने बताया कि यह भुट्टे में दाने आने से पहले की चीज है इसकी सब्जी बनती है। उसकी कीमत भी दो सौ रुपए प्रतिकिलो से अधिक थी। अपनी जेब और जरूरत से बाहर की चीज थी, सो मैंने खिसकना ही उचित समझा।
अब इसके दूसरे पहलू पर गौर करें तो कुछ बातें ऐसी हैं, जो कचोटती हैं। इस साल मानसून की बेरुखी ने विश्वभर के नीति नियंताओं की पेशानी पर पसीना ला दिया है। हर ओर यहीं चिंता है कि मंदी के इस दौर में बढ़ती महंगाई और अनाज के घटते उत्पादन के कारण लोगों का पेट भरना भी कहीं मुश्किल न हो जाए। ऐसे में मोटे अनाज से भी जरूरतमंदों का पेट भर जाए तो बड़ी बात है। इस तरह के हालात में हम यह सोचने को बाध्य हैं कि महज कुछ लोगों के मुंह के स्वाद के लिए इन तथाकथित अमेरिकन भुट्टे की भ्रूणहत्या न की जाए, तो इनसे होने वाला मक्का काफी लोगों के पेट भर सकता है।

Tuesday, August 18, 2009

...पेट भरे से काम


बचपन में हम चार भाई-बहनों में जो भी खाने के समय आनाकानी नहीं करता, नाक-भौं नहीं सिकोड़ता, उसकी बड़ाई में मां अक्सर एक जुमले का इस्तेमाल करती थी-भोनू भाव न जाने, पेट भरे से काम। तब तो यह सुनने में अच्छा लगता था और अब इस आदत का दूरगामी परिणाम यह देखने को मिलता है कि घरवाली भी जब कभी सब्जी में नमक डालना भूल जाती है या फिर दो दिन के कोटे का नमक एक ही दिन डाल देती है, तो भी बिना शिकायत के खाना खा लिया करता हूं। अपनी भूल का अहसास उन्हें तब होता है जब वे स्वयं उस भोजन को उदरस्थ करती हैं या फिर बेटा उन्हें टोक देता है। खैर, यहां इस चरचा का उद्देश्य अपने घर की रामकहानी को जगजाहिर करना कतई नहीं है। इसे तो बस एक पृष्ठभूमि के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता हूं। पीड़ा तो कोई और ही है जिसे शेयर किए बिना नहीं रह सका।
अभी अपने देश में चारों तरफ स्वाइन फ्लू का खौफ फैला हुआ है। हालांकि इसकी आशंका तो तीन-चार महीने से जताई जा रही थी, लेकिन हमारी सरकार भी अपनी आदतें छोड़ नहीं सकती। जब पानी सिर से गुजरा तो सुध लेने की सोची। यह बात दीगर है कि सरकार की इस नाकामी और सुस्ती के कारण बीसियों लोगों की सांसें थम गईं और हजारों की सांसें अटकी हुई हैं।
जैसा कि दस्तूर है, व्यापारियों का अपना हित सबसे बढ़कर होता है। उन्हें जनहित से क्या लेना-देना? तभी तो पांच-सात रुपए में बिकने वाला मास्क पचास से अस्सी रुपए में बिक रहा है और आम तौर पर पचास रुपए में मिलने वाला विशेष मास्क पांच सौ रुपए में भी उपलब्ध नहीं है।
कुछ ऐसा ही हाल महंगाई के साये में जी रहे करोड़ों लोगों का है। विख्यात इकोनॉमिस्ट डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में मुद्रास्फीति हर सप्ताह रसातल में जा रही है और उसी तुलना में महंगाई सातवें आसमान पर चढ़कर नित नई ऊंचाइयों को छू रही है। इसी का रोना है कि -दाल रोटी खाओ प्रभु का गुण गाओ- का जुमला अपना मायने खो चुका है। आम आदमी की थाली में सब्जियां तो वैसे ही नहीं हुआ करती थीं, बढ़ती कीमतों के कारण दाल रसोई से गायब होती जा रही है या फिर बनती भी है तो उसमें पानी की मात्रा जरूरत से अधिक होती ही है।
चीनी की बढ़ती कीमत ने मेहमानों की मनुहार में कटौती कर दी है। पहले जहां मेहमानों को पानी के साथ कुछ मीठा देना मुनासिब समझा जाता था, वहीं आज डायबिटीज वाले मेहमान (अल्पकालिक) का आना अच्छा लगता है क्योंकि वे फीकी चाय जो पीते हैं। मंदी के दौर में जमाखोरी करने वालों की चांदी हो रही है और सरकारी नीतियों के नियंता महज सावधान कर रहे हैं कि महंगाई और बढ़ेगी। कुछ कर सको तो कर लो अन्यथा स्वाइन फ्लू से बच भी गए तो भुखमरी से तो मरना ही पड़ेगा। ऐसे में इन जमाखोरों और मुनाफाखोरों के लिए उपरोक्त जुमले में थोड़ा सा बदलाव करते हुए कहना चाहता हूं-कोई जिए कोई मरे, पेट भरे से काम।

Sunday, June 7, 2009

न क्यू का झंझट, न बाबू से झिकझिक


अभी पिछले दिनों बहुत ही जल्दबाजी में ट्रेन यात्रा का शिड्यूल बनाना पड़ा। ऐसे में महज एकाध दिन में जयपुर से पटना की ट्रेन में आरक्षण मिल पाना बहुत ही मुश्किल था। वैसे अमूमन जयपुर से पटना के लिए साप्ताहिक ट्रेनें ही चलती हैं और उनमें बिल्कुल ही जगह नहीं थी। सुबह आठ बजे आरक्षण खिड़की खुलते ही तत्काल कोटे में टिकट बुक कराने पहुंचा तो बुकिंग क्लर्क ने सीट उपलब्ध नहीं होने की बात कही। उसका कहना था कि सीमित सीटें होती हैं और एक साथ हजारों काउंटर खुल जाते हैं, ऐसे में टिकट मिलना मुश्किल ही होता है। उससे कोई और विकल्प सुझाने को कहा तो उसका रुख तो नकारात्मक था ही, पीछे क्यू में खड़े यात्री भी अपनी बारी में देरी होने से झल्लाने लगे। ऐसे में किसी मित्र ने भारतीय रेलवे की वेबसाइट www.irctc.co.in पर अपना अकाउंट खोलकर वहां इन्क्वायरी करने और आरक्षण कराने की सलाह दी। उसके लिए किसी बैंक में अपना खाता होना जरूरी था और डेबिट कार्ड भी। वाकई यह सलाह काम की थी। आज के समय में हममें से अधिकतर के पास बैंक अकाउंट और डेबिट कार्ड अक्सर होते ही हैं। मैंने रेलवे की वेबसाइट पर अपना अकाउंट खोला। वहां तसल्ली से उस रूट की सभी ट्रेनों में सीटों की उपलब्धता देखी और रूट बदलकर जाने के भी विकल्पों की भी बिना किसी परेशानी के जानकारी ली। इसमें एक अन्य वेबसाइट www.erail.in से भी काफी मदद मिली। हां, बदले में आईसीआरटीसी सरविस चार्ज चुकाना पड़ा, लेकिन यह जेब पर विशेष भारी नहीं रहा।
मैं न तो रेलवे का मुलाजिम हूं कि उसकी तरफदारी करूं, लेकिन इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि आज हममें से अधिकतर कम्प्यूटर लिट्रेट हैं, ई-मेल और अन्य वेबसाइटों की जानकारी के लिए नेट सरफिंग करते ही हैं। आम तौर पर शहर में हम जहां रह रहे होते हैं, जरूरी नहीं कि रेलवे रिजरवेशन काउंटर आसपास हो। ऐसे में कई किलोमीटर की यात्रा तय करके घंटों लाइन में खड़े रहने और उसके बाद भी गंतव्य का आरक्षित टिकट नहीं मिलने पर निराश होकर लौटने से अच्छा है कि www.irctc.co.in पर अपना अकाउंट खोलकर आसानी से टिकट ले लिया जाए। यह सेवा सुबह पांच बजे से देर रात्रि साढ़े ११ बजे तक उपलब्ध रहती है। इस तरह सुबह आठ बजे रेलवे के आरक्षण काउंटर खुलने से पहले और रात्रि आठ बजे (कई आरक्षण केंद्रों पर अब रात्रि 10 बजे तक भी काउंटर खुले रहते हैं) के बाद भी टिकट बुक कराए जा सकते हैं और कैंसिल भी। इस तरह इस तकनीक का लाभ उठाने में कोई हर्ज मुझे नहीं लगता। संभव है हमारे कई साथियों को इसकी जानकारी हो और वे इसका लाभ उठा भी रहे होंगे, लेकिन महज अल्पज्ञतावश अपना अनुभव शेयर करना चाहता हूं। तो यह है अरजी मेरी आगे मरजी आपकी।

Thursday, June 4, 2009

अपहरण का ग्रहण - कब छूटेगा दाग


बस और ट्रेन के सफर में करीब 38 घंटे बिताने के कारण काफी थकान हो गई थी, सो बिस्तर पर जाते ही गहरी नींद की आगोश में समा गया। सुबह करीब छह बजे नींद खुली तो सामने रखे हिंदुस्तान अखबार के मुख्य शीर्षक -बेटा तो नहीं, लाश मिली- ने विचलित कर दिया। समाचार के अनुसार दो दिन पहले शहर के ही 14 वर्ष को दो किशोरों ने कंकड़बाग की पीसी कॉलोनी से एक व्यवसायी के आठ वर्षीय पुत्र सत्यम का अपहरण कर लिया और बाद में उसकी हत्या कर दी। इसके बाद अपहर्ताओं ने बच्चे के पिता से पचास लाख की फिरौती मांगी। पुलिस ने बच्चे का शव बरामद कर अपहरण और हत्या के आरोपी अविनाश और मो. खुर्शीद उर्फ मोनू को गिरफ्तार कर लिया।
यह दीगर बात है कि लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी के करीब पंद्रह वर्ष के शासनकाल में अपहरण उद्योग अपने चरम पर था, लेकिन नीतीश राज में भी यह सिलसिला थमा नहीं है। गाहे-बेगाहे ऐसी खबरें आती ही रहती हैं। सरकार यदि दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाए और सुशासन देने के अपने वादे पर कायम रहे तो अपहरण के दाग को भी धोया जा सकता है। अभी हाल ही हुए लोकसभा चुनाव में बिहार के मतदाताओं ने बाहुबलियों और उनके परिजनों को हराकर अपने दामन से बहुत बड़ा कलंक धो दिया है। जनता भी जागरूक रहे तो अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाना मुश्किल नहीं होगा।


यह कैसी प्रतिभा
बिहार में पिछले डेढ़ दशक के लालू-राबड़ी राज में अपहरण उद्योग जिस तरह चरम पर था, उससे प्रेरित होकर बिहार से ही जुड़े प्रकाश झा ने -अपहरण-फिल्म बनाई थी, जो देशभर में चरचा का विषय बनी थी। पुलिस पूछताछ में बालक सत्यम के अपहरण और हत्या के आरोपियों ने कबूल किया कि उन्होंने कई बार -अपहरण- फिल्म देखी और इसके एक-एक फ्रेम का गहन अध्ययन किया। दरअसल दोनों आरोपी फटाफट अकूत धन-संपत्ति हासिल कर रईसजादों की तरह जीना चाहते थे। ऐसे में यह जानकर अफसोस होता है कि एक फिल्म निर्माता निर्देशक बिहार की तथाकथित यथास्थिति को बखूबी रूपहले परदे पर उतारकर नाम और दाम कमाना चाहता है तो उससे प्रेरणा लेने वाले बिहार के ही किशोर किसी मासूम की जान लेकर अपना खुद का वर्तमान और भविष्य दोनों बिगाड़ लेते हैं। ऐसे में जरूरी है कि बिहार को बीमारू राज्य की श्रेणी से निकालने और बदहाली से मुक्ति दिलाने के लिए राजनीति से ऊपर उठकर उद्योग-धंधों का जाल बिछाया जाए। लोगों को काम मिलेगा तो वे संभवतया अपराध के दलदल में नहीं फंसेंगे और फिर इस तरह किसी का लाल असमय उससे नहीं छिनेगा।

Wednesday, June 3, 2009

पटना बाई मिडनाइट बदल गई है तस्वीर


अभी पिछले शनिवार को सात-आठ घंटे के लिए पटना जाने का अवसर मिला। वैसे तो साल में एकाध बार जाना होता ही है। अमूमन जयपुर से जिस ट्रेन से जाता हूं, वह मध्य रात्रि बारह बजे बाद ही पटना पहुंचाती है। हर बार ऐसा ही होता था कि पटना के रहवासी सहयात्री भी वहां के माहौल को देखते हुए स्टेशन पर ही रात बिताने की सलाह देते थे और वे खुद भी हमारे साथ वेटिंग रूम में बैठकर ऊंघते रहते थे। इस दफा पहली बार ऐसा हुआ कि ट्रेन मध्य रात्रि साढ़े बारह बजे पटना पहुंची और स्टेशन पर रात नहीं बितानी पड़ी। अगले दिन दोपहर को मेरी ट्रेन थी, सो मुझे पटना में ही भतीजे के कमरे पर रुकना था। मां-पिताजी को गांव ले जाने के लिए छोटा भाई गाड़ी लेकर आया था। मां-पिताजी और छोटे भाई को विदा करने के बाद भतीजे के साथ मैं महेंद्रू जाने वाली ऑटो पर बैठ गया। ऑटो में दो-तीन सवारियां और बैठीं। सवारियों को गांधी मैदान, अशोक राजपथ उतारने के बाद ऑटो चालक ने हमें भी सकुशल हमारे गंतव्य पर उतार दिया। वाकई जिस पटना में रात नौ बजे राहजनी के भय से गलियां सूनी हो जाती थीं, स्टेशन के बाहर बने होटल से रात को स्टेशन आकर गाड़ी पकड़ना भी खतरे से खाली नहीं हुआ करता था, वहां आधी रात को स्टेशन से महेंद्रू तक के बिना किसी विघ्न-बाधा के छोटे से सफर ने रोमांचित कर दिया। लालू-राबड़ी के करीब पंद्रह साल के शासनकाल में कानून-व्यवस्था की जिस कदर धज्जियां उड़ी थीं, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने उसमें वाकई सुधार किया है और इसके लिए वे प्रशंसा के पात्र हैं।

Monday, May 4, 2009

ऑरिजिनल तो यही है

डेढ़-दो माह के लंबे अंतराल के बाद आज फिर आपलोगों से मुखातिब हूं। बात ही कुछ ऐसी हुई कि व्यस्तताओं के बावजूद इस अनुभव को शेयर करने से खुद को रोक नहीं पाया। पिछले कुछ दिनों से अपना एक छोटा सा मकान बनवा रहा हूं। इसी के सिलसिले में आज प्लबंर से लैट-बाथ की फिटिंग की वस्तुएं लिखवा रहा था। जैसे-तैसे पूछ-पूछ कर वस्तुओं की लिस्ट बनाई। इस दौरान प्लम्बर ने एक वस्तु लिखवाई- ऑरिजिनल। मैं सकते में आ गया। यह क्या चीज है। आईएसआई मारका वस्तुएं खरीदने की ताकीद तो आम बात होती है और ब्रांड कंपनियों के डुप्लीकेट से बचने की सलाह भी दी जाती है परंतु खालिस ऑरिजिनल यह क्या बला है। मैंने जब उसे और स्पष्ट करने को कहा तो उसने कहा कि अरे भाई साहब, वही पेशाब करने वाला। तब बात मेरी समझ में आई कि वह यूरिनल की बात कह रहा है। उस बेचारे की भी क्या गलती है। कई सारी आम जरूरत की वस्तुएं अपने अंग्रेजी नाम से ही जानी-पहचानी जाती हैं। उनका हिंदी नाम जानने की न तो कोई कोशिश करता है और न ही यह प्रचलन में आ पाता है। दुआ करें कि ऐसी वस्तुओं के हिंदी नाम भी प्रचलन में आएं और जुबान पर चढ़ें।

Thursday, March 19, 2009

इंसान भूखे, देवताओं को आफरा

आज शीतलाष्टमी थी। शीतलाष्टमी से एक दिन पहले घरों में पुए-पुड़ियां और अन्य पकवान बनाए जाते हैं, जिन्हें अगले दिन शीतला माता को भोग लगाया जाता है। बाद में घरों में लोग वही कल वाला बासी भोजन ही शीतलाष्टमी को खाते हैं। ऐसी मान्यता है कि शीतला माता की ऐसी पूजा-अर्चना से छोटी माता, चेचक आदि के प्रकोप से बचाव होता है और माताजी की कृपा भक्तों पर बनी रहती है।
मुझे भी किसी मित्र से मिलने के लिए सुबह निकलना था, सो करीब साढ़े आठ बजे नहा-धोकर कॉलोनी के मंदिर पहुंचा। इस मंदिर में देवताओं में अच्छा सद्भाव है। पंचेश्वर महादेव मंदिर में शिव पंचायत के अलावा राधा-कृष्ण, मां दुरगा, हनुमानजी, नवग्रह, संतोषी माता, गणेशजी और शीतला माता की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर से पहले वाले चौराहे पर पुए-पकवानों का ढेर लगा था और पूजा के बाद उस पर पानी डाल देने से उसकी दुरगति हो रही थी। मंदिर पहुंचा तो वहां चौराहे से भी बड़ा ढेर था और भी स्वादिष्ट पकवानों की ऐसी ही दुरगति हो रही थी। जब तथाकथित मित्र के यहां गया तो रास्ते में भी अनेक चौराहों पर इस तरह स्वादिष्ट पकवानों को देखकर आत्मा रो उठी।
किसी की आस्था से मेरी कोई शिकायत नहीं है, लेकिन आज भी जब हमारे आस-पड़ोस में ही सैकड़ों लोग भूखे रहने को विवश हैं, अन्न की ऐसी बरबादी से क्या हासिल होगा। माना, बरसों से ऐसी परंपरा चली आ रही है, लेकिन कोई ऐसा भी रास्ता तो निकाला ही जा सकता है जिससे अन्न की बरबादी न होने पाए। प्रतीक रूप में एकाध ग्रास शीतला माता के नाम पर निकालने के बाद यह खाद्य सामग्री किसी अनाथालय, कुष्ठाश्रम, मंदिरों के बाहर बैठे भिखारियों को वितरित की जा सकती है। मुझे नहीं लगता ऐसा करने से किसी का अहित होगा। यह भी सत्य है कि इससे कोई शीतला माता का कोपभाजन भी नहीं बनेगा।
कभी पढ़ा था-`युगरूपेण ही ब्राह्मणः ` यानी ब्राह्मणों को युग धर्म के अनुसार आचरण करना चाहिए। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सतीप्रथा जैसी कुप्रथाओं का उन्मूलन नहीं हो पाता। ऐसा सुनते हैं कि बिहार-बंगाल-नेपाल के गांवों में पहले दुरगा पूजा के समय बकरे और भैंसे की बलि दी जाती थी, लेकिन आज प्रतीक रूप में फलों की बलि दी जाती है और भक्तों के सभी अरमान इसी से पूरे होते हैं, किसी पर माता का कोई प्रकोप नहीं होता।
आशा है आने वाले समय में लोग सीख लेंगे और अनाज का अनादर करने के बजाय इसे इसके योग्य पात्र तक पहुंचाकर अपना जीवन कृतार्थ करेंगे। इंसान भूखे, देवताओं को आफरा
आज शीतलाष्टमी थी। शीतलाष्टमी से एक दिन पहले घरों में पुए-पुड़ियां और अन्य पकवान बनाए जाते हैं, जिन्हें अगले दिन शीतला माता को भोग लगाया जाता है। बाद में घरों में लोग वही कल वाला बासी भोजन ही शीतलाष्टमी को खाते हैं। ऐसी मान्यता है कि शीतला माता की ऐसी पूजा-अर्चना से छोटी माता, चेचक आदि के प्रकोप से बचाव होता है और माताजी की कृपा भक्तों पर बनी रहती है।
मुझे भी किसी मित्र से मिलने के लिए सुबह निकलना था, सो करीब साढ़े आठ बजे नहा-धोकर कॉलोनी के मंदिर पहुंचा। इस मंदिर में देवताओं में अच्छा सद्भाव है। पंचेश्वर महादेव मंदिर में शिव पंचायत के अलावा राधा-कृष्ण, मां दुरगा, हनुमानजी, नवग्रह, संतोषी माता, गणेशजी और शीतला माता की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर से पहले वाले चौराहे पर पुए-पकवानों का ढेर लगा था और पूजा के बाद उस पर पानी डाल देने से उसकी दुरगति हो रही थी। मंदिर पहुंचा तो वहां चौराहे से भी बड़ा ढेर था और भी स्वादिष्ट पकवानों की ऐसी ही दुरगति हो रही थी। जब तथाकथित मित्र के यहां गया तो रास्ते में भी अनेक चौराहों पर इस तरह स्वादिष्ट पकवानों को देखकर आत्मा रो उठी।
किसी की आस्था से मेरी कोई शिकायत नहीं है, लेकिन आज भी जब हमारे आस-पड़ोस में ही सैकड़ों लोग भूखे रहने को विवश हैं, अन्न की ऐसी बरबादी से क्या हासिल होगा। माना, बरसों से ऐसी परंपरा चली आ रही है, लेकिन कोई ऐसा भी रास्ता तो निकाला ही जा सकता है जिससे अन्न की बरबादी न होने पाए। प्रतीक रूप में एकाध ग्रास शीतला माता के नाम पर निकालने के बाद यह खाद्य सामग्री किसी अनाथालय, कुष्ठाश्रम, मंदिरों के बाहर बैठे भिखारियों को वितरित की जा सकती है। मुझे नहीं लगता ऐसा करने से किसी का अहित होगा। यह भी सत्य है कि इससे कोई शीतला माता का कोपभाजन भी नहीं बनेगा।
कभी पढ़ा था-`युगरूपेण ही ब्राह्मणः ` यानी ब्राह्मणों को युग धर्म के अनुसार आचरण करना चाहिए। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सतीप्रथा जैसी कुप्रथाओं का उन्मूलन नहीं हो पाता। ऐसा सुनते हैं कि बिहार-बंगाल-नेपाल के गांवों में पहले दुरगा पूजा के समय बकरे और भैंसे की बलि दी जाती थी, लेकिन आज प्रतीक रूप में फलों की बलि दी जाती है और भक्तों के सभी अरमान इसी से पूरे होते हैं, किसी पर माता का कोई प्रकोप नहीं होता।
आशा है आने वाले समय में लोग सीख लेंगे और अनाज का अनादर करने के बजाय इसे इसके योग्य पात्र तक पहुंचाकर अपना जीवन कृतार्थ करेंगे। इंसान भूखे, देवताओं को आफरा
आज शीतलाष्टमी थी। शीतलाष्टमी से एक दिन पहले घरों में पुए-पुड़ियां और अन्य पकवान बनाए जाते हैं, जिन्हें अगले दिन शीतला माता को भोग लगाया जाता है। बाद में घरों में लोग वही कल वाला बासी भोजन ही शीतलाष्टमी को खाते हैं। ऐसी मान्यता है कि शीतला माता की ऐसी पूजा-अर्चना से छोटी माता, चेचक आदि के प्रकोप से बचाव होता है और माताजी की कृपा भक्तों पर बनी रहती है।
मुझे भी किसी मित्र से मिलने के लिए सुबह निकलना था, सो करीब साढ़े आठ बजे नहा-धोकर कॉलोनी के मंदिर पहुंचा। इस मंदिर में देवताओं में अच्छा सद्भाव है। पंचेश्वर महादेव मंदिर में शिव पंचायत के अलावा राधा-कृष्ण, मां दुरगा, हनुमानजी, नवग्रह, संतोषी माता, गणेशजी और शीतला माता की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर से पहले वाले चौराहे पर पुए-पकवानों का ढेर लगा था और पूजा के बाद उस पर पानी डाल देने से उसकी दुरगति हो रही थी। मंदिर पहुंचा तो वहां चौराहे से भी बड़ा ढेर था और भी स्वादिष्ट पकवानों की ऐसी ही दुरगति हो रही थी। जब तथाकथित मित्र के यहां गया तो रास्ते में भी अनेक चौराहों पर इस तरह स्वादिष्ट पकवानों को देखकर आत्मा रो उठी।
किसी की आस्था से मेरी कोई शिकायत नहीं है, लेकिन आज भी जब हमारे आस-पड़ोस में ही सैकड़ों लोग भूखे रहने को विवश हैं, अन्न की ऐसी बरबादी से क्या हासिल होगा। माना, बरसों से ऐसी परंपरा चली आ रही है, लेकिन कोई ऐसा भी रास्ता तो निकाला ही जा सकता है जिससे अन्न की बरबादी न होने पाए। प्रतीक रूप में एकाध ग्रास शीतला माता के नाम पर निकालने के बाद यह खाद्य सामग्री किसी अनाथालय, कुष्ठाश्रम, मंदिरों के बाहर बैठे भिखारियों को वितरित की जा सकती है। मुझे नहीं लगता ऐसा करने से किसी का अहित होगा। यह भी सत्य है कि इससे कोई शीतला माता का कोपभाजन भी नहीं बनेगा।
कभी पढ़ा था-`युगरूपेण ही ब्राह्मणः ` यानी ब्राह्मणों को युग धर्म के अनुसार आचरण करना चाहिए। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सतीप्रथा जैसी कुप्रथाओं का उन्मूलन नहीं हो पाता। ऐसा सुनते हैं कि बिहार-बंगाल-नेपाल के गांवों में पहले दुरगा पूजा के समय बकरे और भैंसे की बलि दी जाती थी, लेकिन आज प्रतीक रूप में फलों की बलि दी जाती है और भक्तों के सभी अरमान इसी से पूरे होते हैं, किसी पर माता का कोई प्रकोप नहीं होता।
आशा है आने वाले समय में लोग सीख लेंगे और अनाज का अनादर करने के बजाय इसे इसके योग्य पात्र तक पहुंचाकर अपना जीवन कृतार्थ करेंगे।

Sunday, March 8, 2009

सबके थे गिरधारीलाल


जीवन अनिश्चित है और मौत ध्रुवसत्य है, लेकिन इस तथ्य को हम सभी झुठलाते रहते हैं। इस कटु सत्य का अहसास तभी होता है जब कोई गुजर जाता है। राजनीति से मेरा कोई विशेष लगाव नहीं रहा है लेकिन गुलाबी नगर में अपने 14-15 वर्ष के प्रवास के दौरान यहां के सर्वप्रिय सांसद गिरधारी लाल भार्गव की लोकप्रियता से अवश्य ही प्रभावित था। संसद में उनकी भूमिका कितनी प्रभावी रही, इसका आकलन तो राजनीति के पंडित करेंगे, लेकिन हर छोटे-बड़े, व्यक्तिगत-सामूहिक कार्यक्रमों में भार्गव की उपस्थिति उन्हें सहज ही आमजन में लोकप्रिय बनाती थी। कई कार्यक्रमों में उन्हें देखने-सुनने का मौका मिला, लेकिन कभी नहीं लगा कि यह व्यक्ति कभी `आम´ की बजाय खास बनने की इच्छा जता पाता हो। शायद यही वजह थी कि भाजपा ने उनकी लोकप्रियता का लाभ उठाते हुए छह बार सांसद बनने के बाद उन्हें लगातार सातवीं बार भी टिकट दिया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद उनकी वरिष्ठता का लाभ नहीं दे पाई। आज के जमाने में जब एक पार्षद और पंच भी जीतने के बाद आम जनता से दूरी बना लेता है, अपने मतदाताओं से `दूर´ हो जाता है, भार्गव देश की सबसे बड़ी पंचायत के सदस्य होने के बावजूद अपने क्षेत्र की जनता के लिए सर्वसुलभ थे।

Thursday, February 26, 2009

पेशे ने मुझे चुन लिया...


एक बौद्धिक अग्रज से पिछले दिनों लंबे अरसे बाद मिलना हुआ। कई सारे मसलों पर बातचीत हुई। इसी बीच उन्होंने फिल्म `वेलकम टू सज्जनपुर´ की तारीफ करते हुए इसे देखने की सलाह दी। कई सारी मजबूरियां होती हैं किसी फिल्म को सिनेमाहॉल में नहीं देख पाने की, सो रिलीज होने के समय नहीं देख पाया था। उनके आदेश पर इस फिल्म की सीडी किराये पर ले आया और देखने का समय भी निकाल लिया। श्याम बेनेगल ने हमारे गांवों की खांटी असलियत को परदे पर बखूबी उतारा है। इस बारे में समीक्षकों ने बड़ी-बड़ी तकरीरें की होंगी, बहुत कुछ लिखा गया होगा, मेरा उतना दखल भी नहीं है फिल्मों में। मैं तो महज उस एक डायलॉग से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं जिसमें कमला कुम्हारिन (अमृता राव) जब 16 साल के अंतराल के बाद पति के नाम चिट्ठी लिखवाने के लिए अपने बचपन के सहपाठी लेटर राइटर महादेव कुशवाहा (श्रेयस तलपड़े) से मिलती है तो दोनों बीते दिनों को याद करते हैं। इस बीच जब कमला पूछती है कि तुमने चिट्ठी लिखने का पेशा क्यों चुना, तो महादेव बेलाग कह उठता है-`मैंने कहां इस पेशे को चुना, ई ससुरा पेशा ही मेरे गले पड़ गया´।
यह इकलौते महादेव कुशवाहा की पीड़ा नहीं है। बच्चा चाहता क्या है और युवा होते-होते बन क्या जाता है। वाकई यह हमारे शिक्षा पद्धति का दोष है। हमारे देश के गांवों के लाखों बच्चे प्राइमरी से मिडिल, हाई, हायर सैकंडरी स्कूल पास करते हुए कॉलेज व यूनिवरसिटी तक की पढ़ाई पूरी कर लेते हैं, लेकिन उनके सामने अपने भविष्य को लेकर कोई निश्चित रूपरेखा नहीं होती। हालांकि शहर के बच्चों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनके भविष्य की चिंता करने की जिम्मेदारी उनके माता-पिता की हुआ करती है।
नौवीं-दसवीं की हिंदी की पाठ्यपुस्तक के एक निबंध `जीवन और शिक्षण´ में भी ऐसी ही चिंता से रू-ब-रू हुआ था। गांधीजी का नाम लेकर सियासतदानों ने दशकों तक सत्तासुख भोगा, लेकिन उनके शिक्षा दर्शन को भूल गए। शिक्षा पर न जाने कितने शोध हुए, लेकिन उनके नतीजों पर अमल करने की ईमानदार कोशिश नहीं करती हमारी सरकारें। भारतमाता ग्रामवासिनी के तथ्य को भुलाकर हम प्रगति के पायदानों पर कभी नहीं चढ़ सकते। जब तक बच्चे की अभिरुचि को तरजीह नहीं दी जाएगी, शिक्षा रोजगारोन्मुखी नहीं होगी, आजादी के बाद छह दशक बीतें या साठ दशक, यह तस्वीर जस की तस ही रहेगी। भगवान करे ऐसा न हो।

Wednesday, February 25, 2009

नौटंकी तो हम करते हैं


पिंकसिटी में सांस्कृतिक आयोजनों के हृदय स्थल जवाहर कला केंद्र के शिल्पग्राम में मंगलवार शाम नौटंकी देखने का सुयोग मिला। गांव छोड़े हुए करीब 25 साल हो गए, इस दरम्यान कभी नौटंकी देखने का मुहूर्त नहीं बना। वैसे भी महानगरों में ऐसे आयोजन विरले ही होते हैं, फिर रात की नौकरी के कारण इनसे महरूम ही रहना पड़ता है। बचपन से किशोरावस्था तक गांव में दुरगा पूजा के समय मेले में नौटंकी और बिदेसिया देखा करता था।
पुरानी बातें तो फिर कभी होंगी, अभी तो कल की बात। करौली से आए कलाकारों के दल ने आशा वरमा के निरदेशन में `हरिश्चंद्र तारामती´ की प्रस्तुति दी। गीत व नृत्य के साथ संवादों की बेहतरीन अदायगी ने दर्शकों को काफी प्रभावित किया। शिल्पग्राम में गांव सा माहौल साकार हो उठा और नगाड़े व ढोलक की जुगलबंदी ने इसमें चार चांद लगा दिए। पैर से बजने वाला हारमोनियम भी कई दर्शकों के लिए अजूबा बना हुआ था। कलाकारों ने राजा हरिश्चंद्र, उनकी पत्नी तारामती, पुत्र रोहिताश और ऋषि विश्वामित्र के पात्र में अपने जीवंत अभिनय से जान डाल दी। रोहिताश के मरने के बाद तारामती के विलाप के समय कई दर्शक आंसू पोंछते नजर आए। बिना किसी ताम-झाम और रीटेक की सुविधा के खुले रंगमंच पर ऐसी प्रस्तुतियों के लिए कलाकारों की सराहना की ही जानी चाहिए। हां, इस दौरान नगाड़ा व ढोलक बजाने वाले कलाकारों की आपस में हंसी-मजाक पर मुस्कुराहट अवश्य ही मुझ जैसे अन्य कई दर्शकों को भी खली होगी।
खैर, जिस विशेष बात ने मुझे यह ब्लॉग लिखने को प्रेरित किया, उसकी चरचा किए बिना बात अधूरी रह जाएगी। नाटक की समाçप्त के बाद आशा वरमा ने पात्रों का परिचय कराया। इस दौरान उन्होंने नौटंकी कला के अस्तित्व पर आ रहे संकट की बात की, सरकार की ओर से कलाकारों को प्रोत्साहन नहीं मिलने पर अफसोस जताया। इन सबसे आगे बढ़कर उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और फिल्मों में राजनेताओं को नौटंकीबाज कहने पर रुंधे गले और कड़े शब्दों में आपत्ति जताई। इस दौरान उनकी चिंता वाकई आंसुओं में डूबी हुई थी और यह दर्द उस दर्द से कहीं बढ़कर था, जो उन्होंने तारामती के किरदार में बेटे रोहिताश के निधन पर विलाप करते हुए दिखाया था। आशा वरमा का कहना था कि नौटंकी करना इतना आसान नहीं है कि राजनेता कुछ भी गलत-सलत करें तो इसे नौटंकी करार दे दिया जाए। उन्होंने कहा कि नौटंकी तो वह है जिसे हम कलाकारों ने तीन घंटे तक किया और आप सबने देखा। नौटंकी करने में कलाकारों को इन पात्रों में अपनी आत्मा डालनी पड़ती है, ये राजनेता क्या नौटंकी करेंगे जिनकी आत्मा होती ही नहीं है।

Sunday, February 22, 2009

चिठिया हो तो हर कोई बांचे...


कई महीनों से ब्लॉग और ब्लॉगरों की दुनिया से दूर हूं। कुछ ऐसी व्यस्तताएं थीं कि चाहकर भी लिखने-पढ़ने का समय नहीं निकाल पाया। किन कारणों से ऐसा हुआ, इसकी चरचा फिर कभी। आज तो कुछ विशेष अनुभूतियों को लेकर हाजिर हूं, जिन्हें शेयर करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं।
आज सुबह करीब साढ़े सात बजे मोबाइल की रिंगटोन से नींद खुली। अखबार के दफ्तर से दो बजे फ्री होने के बाद सोते-सोते करीब तीन बज ही जाते हैं। ऐसे में सुबह नींद में खलल पड़ती है तो बहुत ही बुरा लगता है, लेकिन जब मोबाइल के दूसरी ओर कोई ऐसा शख्स हो जिसकी मधुर आवाज सुनना नींद से अधिक प्रिय हो तो फिर कोई शिकायत नहीं होती। आज भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। उधर से आवाज आई---`आप मंगलम जी बोल रहे हैं। मैं भागलपुर से संजीव...बीएड में हम साथ थे।´ इन अल्फाजों को सुनते ही क्षणमात्र में महीनों साथ गुजारे गए लम्हों का फ्लैश बैक मानस पटल पर घूम गया। पूछा-आपको मेरा नंबर कैसे मिला? जो जवाब मिला, उससे और भी तसल्ली हुई। उन्होंने कहा-आपने कभी पोस्टकार्ड भेजा था मेरे नाम। मम्मी कहीं रखकर भूल गईं। आज सुबह नजर पड़ी तो मैंने सोचा देखता हूं नंबर मिलाकर और बात हो गई। फिर तो हम दोनों ने बीते हुए करीब 13-14 साल का ब्यौरा एक-दूसरे को सुनाया। जहां तक मुझे याद आता है, मैंने मोबाइल कनेक्शन लेने के बाद अपने कई मित्रों को पोस्टकार्ड लिखे थे और उसमें अपनी वर्तमान स्थिति, निवास और मोबाइल नंबर का भी जिक्र किया था ताकि संबंधों को पुनरजीवित किया जा सके। पत्र लिखने की मेरी आदत रही है, जो कई मित्रों की पत्रोत्तर देने की उदासीनता की भेंट चढ़ती जा रही है, लेकिन संजीव भाई के फोन ने पत्रों की उपादेयता की नई सिरे से व्याख्या कर दी है। मैं एक बार फिर इस तथ्य को कहना चाहूंगा कि मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में भी पत्रों की अहमियत कम नहीं हुई है।
कोशिश करूंगा कि अपने पुराने मित्रों से पत्राचार कर एक बार फिर संबंधों को रिन्यू करने की कोशिश करूं। उम्मीद है जीवन के इस मोड़ पर उन मित्रों से जुड़कर जीवन के पलों को और खुशनुमा बना सकूंगा।