Thursday, December 1, 2011

'बड़की मायÓ के साथ एक युग का अवसान

आजकल बाबूजी का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं चल रहा। नौकरी की अपनी मजबूरियां हैं कि चाहकर भी भौतिक दूरियां कम नहीं हो पा रहीं। हां, मन तो वहीं लगा रहता है, बाबूजी का हालचाल जानने के लिए फोन किया तो छोटा भाई घर से दूर कहीं खेत में मजदूरों से काम करवा रहा था। उसने बाबूजी के स्वास्थ्य में सुधार की सूचना दी तो मन को तसल्ली मिली लेकिन अगले ही पल उसने कहा-'बड़की माय नहीं रहींÓ। यह समाचार सुनते ही फ्लैश बैक में कई सारे दृश्य घूमने लगे। भला हो बाबूजी का जिनकी प्रेरणा से गत अगस्त में गृह प्रवास के दौरान ' बड़की मायÓ के अंतिम दर्शन का सौभाग्य मिल पाया। संयोग ऐसा कि साथ में मां-बाबूजी के साथ मेरा लंगोटिया यार अरविंद भी था जिसके साथ मैंने न जाने कितनी बार 'बड़की मायÓ के हाथों से बने व्यंजनों का लुत्फ उठाया होगा।
आज जब पुरानी यादों को सहेजने बैठा हूं तो सब कुछ किसी काल्पनिक कहानी सा लगता है। मेरा गांव बिहार का नामी ब्राह्मण बहुल गांव है। हमारे पड़ोस में है धनकौल। दूरी महज इतनी कि हमारे खेतों के पार से थोड़ा आगे बढ़ो तो वहां पहुंच जाओ। उस गांव की सर्वाधिक महत्वपूर्ण हस्ती थे श्री योगेंद्र सिंह। मेरे गांव के लगभर हर परिवार के साथ उनका उठना-बैठना-अपनापा था। यूं कहें कि मेरे गांव में होने वाले आपसी विवादों के निबटारे में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी और इसमें उनका राजपूत होना कभी आड़े नहीं आता। सही मायने में वे मानव थे-महामानव। अक्सर शाम को वे नियम से पैदल ही हमारे गांव में आते और कभी हमारे दरवाजे पर तो पड़ोस में या फिर गांव में और कहीं उनकी महफिल सजती। लोग बैठकर दिनभर का हाल-ए-बयां करने के साथ ही अपनी परेशानियां भी आपस में बांटकर मन हल्का कर लेते थे। बहुत बचपन की बात करूं तो तब तक चाय का चलन शुरू नहीं हुआ था, सो खैनी और सुपारी से ही एक-दूसरे का स्वागत किया जाता था। चूंकि मेरे बाबूजी का नाम भी योगेंद्र मिश्र है और बिहार में ऐसी परंपरा है कि लोग अपने नाम वाले व्यक्ति को नाम लेकर नहीं पुकारते बल्कि आपस में एक-दूसरे को 'मीतÓ कहा करते हैं। सो बाबूजी भी उन्हें 'मीतÓ कहा करते थे और हम सभी भाई-बहन उन्हें 'बाबाÓ या 'धनकौल वाले बाबाÓ कहकर पुकारते थे। मेरे ताऊजी 'बाबाÓ के हमउम्र थे, लेकिन बाबूजी से भी उनकी अच्छी पटती थी। 'बाबाÓ के छोटे भाई श्री देवेंद्र सिंह हाई स्कूल में गणित के सिद्धहस्त शिक्षक थे और अंग्रेजी पर भी उनका अधिकार था। पढ़ाने का तरीका इतना सहज कि एक बार जो बता दिया वह कभी भूलता नहीं था। उन्हीं का आशीर्वाद था कि बीजगणित और त्रिकोणमिति के सवालों ने मुझे कभी परेशान नहीं किया।
खैर, बात 'बाबाÓ की दरियादिली की। उनका स्टेटस क्या था, इसका अंदाजा तो मुझे किशोरावस्था में भला क्या होना था, लेकिन एक बात थी कि अपनी कैसी भी परेशानी लेकर उनके शरण में जो भी आता, उसकी समस्या लौटते वक्त नहीं रहती थी। ऐसे में मैंने ' बड़की मायÓ के चेहरे पर भी कभी शिकन या शिकायत का भाव नहीं देखा। न जाने क्या हुआ कि जब मैं बीए में पढ़ रहा था, एक दिन खबर मिली कि डकैतों ने पीट-पीटकर 'बाबाÓ की हत्या कर दी। उसके बाद जब कभी उनके घर पर गया तो जैसे लगता था कि 'बाबाÓ के साथ ही उस घर के सारे संस्कार भी विदा हो गए। कुछ वर्षों बाद देवेंद्र बाबू भी नहीं रहे। इतना ही नहीं, हमारी पीढ़ी में भी सेंध लग गया और एक असाध्य बीमारी ने अवधेश भाई साहब को भी असमय हमसे छीन लिया। रही-सही यादें 'बड़की मायÓ के साथ जुड़ी थीं, लेकिन उनके परलोकगमन के साथ ही जैसे एक युग का अवसान हो गया। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि इन पुण्यात्माओं को शांति प्रदान करे और आने वाली पीढ़ी में ऐसे संस्कार जिनसे लोगों को याद करने का चलन बना रह सके।

Wednesday, November 16, 2011

दृढ़ इच्छाशक्ति से रुकेगी कालाबाजारी


तत्काल कोटे में दलाली रोकने के लिए नियमों में संशोधन के साथ मॉनिटरिंग भी है जरूरी
मोहन कुमार मंगलम्
रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी की तत्काल कोटे में रिजर्वेशन के नियमों में परिवर्तन की घोषणा स्वागतयोग्य है। कई बार अपरिहार्य कारणों से बहुत ही कम समय में रेलयात्रा की योजना बनानी पड़ती है। ऐसे यात्रियों की सुविधा के लिए ही तत्काल कोटा शुरू किया गया था, लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे कि आम आदमी की सुविधा के लिए जो नियम-कानून बनाए जाते हैं, उसका लाभ अवांछित लोग उठाने लगते हैं।
शुरुआत में पांच दिन पहले तत्काल टिकट लेने का नियम था, लेकिन टिकटों की कालाबाजारी की काफी शिकायतें मिलने के बाद वर्ष 2009 में इसे घटाकर दो दिन कर दिया गया था। इसके बावजूद बड़े पैमाने पर टिकटों की कालाबाजारी जारी रही। इसके मद्देनजर पिछले दिनों देशभर में सीबीआई ने छापेमारी भी की थी। इसमें सामने आया था कि एजेंट समय से पहले ही बुकिंग करा लेते थे और फिर वे इन टिकटों की कालाबाजारी करते थे। इसमें रेलवे काउंटर पर बैठे कर्मचारियों की मिलीभगत की बात भी सामने आई थी। नए नियमों के अनुसार तत्काल कोटे में टिकट अब दो दिन की बजाय एक दिन पहले ही बुक करवाए जा सकेंगे और टिकट लेते समय आईडी प्रूफ दिखाना जरूरी होगा। इसके साथ ही रेलवे काउंटरों पर सीसीटीवी कैमरे लगाने की भी घोषणा की गई है, जिससे दलालों के साथ ही इस घालमेल में लिप्त रेलकर्मियों के चेहरे भी सामने आ सकेंगे। कन्फर्म तत्काल टिकट कैंसिल कराने पर रिफंड नहीं मिलने से भी दलाल हतोत्साहित होंगे।
(जयपुर से छपने वाले हिंदी दैनिक डेली न्यूज में 15 नवंबर को संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)

Wednesday, November 9, 2011

नारायणी में स्नान, नारायण के दर्शन


आज कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी पर बचपन या कहें किशोरावस्था की अचानक याद आ गई। मेरे गृह जिला वैशाली के मुख्यालय हाजीपुर में कार्तिक पूर्णिमा पर नारायणी (गंडक) नदी के किनारे कौनहारा घाट पर श्रद्धालुओं का भारी मेला भरता है। हर साल हम भाई-बहनों की दिली ख्वाहिश होती थी कि बाबूजी से कैसे भी मेला जाने की अनुमति मिल जाए। बाबूजी की दमा की बीमारी तथा बूढ़ी दादीजी की देखभाल की जिम्मेदारी के कारण मां को इन धार्मिक प्रयोजनों में सहभागिता का अवसर नहीं मिल पाता था, लेकिन मेरी सबसे बड़ी चाची (जिनकी कोई संतान नहीं थी) बिना नागा हर साल इस पुण्य वेला में नारायणी-स्नान करने अवश्य जाती थीं। तीन-चार दिन पहले से ही हम भाई-बहन चाची की खुशामद में लग जाते थे कि बाबूजी को मनाकर वे हमें भी अपने साथ ले चलने को राजी कर लें। बूढ़ी दादी का भी बिना शर्त समर्थन हमें मिलता था और देर-सवेर बाबूजी भी हमें भी मेला जाने की इजाजत दे ही दिया करते थे। इस मेला में जाने पर ही पता चला कि वैशाली की विश्वप्रसिद्ध ऐतिहासिकता से भी कहीं बढ़कर हाजीपुर की ऐतिहासिकता है। अमूमन हम आज के दिन ही कौनहारा घाट पहुंच जाते और जहां जगह मिलती, अपने आस-पड़ोस के लोगों और दूर-दूर के रिश्तेदारों को खोजकर उनके साथ जगह छेककर अपना ठिया बना लेते। वहां गज-ग्राह के मंदिर में जाकर बाल मन गौरव से भर जाता कि हमारी इसी धरती पर कभी भगवान विष्णु को एक हाथी की पुकार सुनकर आना पड़ा था।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार विष्णुभक्त गज एक बार नारायणी नदी में पानी पीने गया तो जल में छिप ग्राह उसका पैर पकड़कर उसे खींचने लगा। गज ने बार-बार उससे छोडऩे की विनती की, लेकिन ग्राह ने एक न सुनी। इस पर गज ने अपने प्रभु की शक्ति को याद करते हुए ग्राह से कहा कि जब तक मेरे विष्णु हैं, तुम मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते। इस पर ग्राह उसे खींचकर पानी में ले जाने लगा। गज ने आत्र्त स्वर में भगवान विष्णु को पुकारा तो क्षणभर में वे प्रकट हो गए। इससे प्रफुल्लित गज ने ग्राह को ललकारते हुए कहा कि अब बताओ-कौन हारा? भगवान ने दुष्ट ग्राह को मारकर अपने प्रिय भक्त गज को मुक्ति दिलाई। आज भी गजेंद्रमोक्ष के श्लोक इस पौराणिक कथा की पुष्टि करते हैं। भगवान विष्णु अर्थात हरि के आने के कारण ही प्राचीन समय में इस शहर का नाम हरिपुर था, जिसे कालांतर में मुगल शासनकाल में हाजी शमसुद्दीन के नाम पर हाजीपुर कर दिया गया। न जाने हमारे राजनेताओं को इस गौरव का भान क्यों नहीं होता कि वे मुगल शासक हाजी शमसुद्दीन के नाम पर आज तक हाजीपुर नाम को ढो रहे हैं। कौनहारा घाट पर ही नेपाली छावनी मंदिर है, जो अपनी काष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है। वैशाली, हाजीपुर या कहें कि बिहार के राजनेताओं की ही कमजोर इच्छाशक्ति का दुष्परिणाम यह नेपाली छावनी भुगत रही है, अन्यथा यहां बने काठ के मंदिरों पर जितनी बारीकी से कलाकारी उकेरी गई है, उसके सामने अजंता-एलोरा की कलाकृतियां कहीं भी न टिकें।
इस मेले के साथ ही गंडक के उस पार सोनपुर का विश्वप्रसिद्ध मेला भरता है। इसे हरिहर क्षेत्र कहा जाता है, जहां भगवान विष्णु और शंकर एक साथ विराजते हैं। कार्तिक पूर्णिमा पर तड़के तीन-चार बजे ही नारायणी में डुबकी लगाने के बाद चाची से अनुमति लेकर अपने हमउम्र दोस्तों के साथ हम सोनपुर का रुख कर लेते थे। कौनहारा से सोनपुर की लगभग तीन-चार किलोमीटर तथा कई किलोमीटर में फैले सोनपुर मेले को हम बिना किसी थकान के अपने नन्हे कदमों से ही नाप देते थे। पाथेय के रूप में नया चिवड़ा (पोहा), गुड़ और डाला छठ महापर्व का प्रसाद ठेकुआ-टिकड़ी ही हमारा नाश्ता और भोजन सभी हुआ करते थे। गिनती के पांच-दस रुपए किसी बार बाबूजी से मिल जाते थे तो कई बार उनकी आज्ञा की अवहेलना कर मेला देखने की सजा के रूप में खाली हाथ भी जाना पड़ता था। ऐसी स्थिति में मेला में कुछ खरीदने की हमारी ख्वाहिश भी जन्म नहीं ले पाती थी, लेकिन उस मानव समुद्र में सामाजिकता के विकास के कई पाठ वहां सहज ही सीखने को मिल जाते थे। मेले में खोये बच्चों-बुजुर्गों को उनके परिजनों तक पहुंचाने के लिए लाउड स्पीकर पर अनाउंस करते स्काउट के जवान, पग-पग पर व्यवस्था संभालने को तैनात विभिन्न संगठनों के स्वयंसेवक, रेलवे, कृषि विभाग, पुलिस सहित विभिन्न सरकारी विभागों की कार्यप्रणाली को दर्शाती प्रदर्शनियों में संपूर्ण भारतीयता के दर्शन से जो सीख मिली, उसे कैसे भुलाया जा सकता है।
हाई स्कूल पास कर जब कॉलेज में गया तो कुछ तो पढ़ाई का बोझ, फिर मा-बाबूजी से दूर रहने के कारण आत्मानुशासन का अंकुश कि अकेले रहते हुए भी कभी मुजफ्फरपुर से हाजीपुर जाकर मेला देखने की हिम्मत नहीं जुटा सका। कॉलेज-यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी करने के बाद हाजीपुर तो क्या, बिहार ही बहुत पीछे छूट गया। बचपन के मित्र जो अब भी सौभाग्य से वहां हैं, शायद इन मेलों की भीड़ का हिस्सा बन पाते होंगे। तकनीक जब आधुनिकता की सीढ़ी पर नित नए परवान चढ़ रही है, न जाने मेले का स्वरूप भी अब कितना बदल गया होगा। विगत करीब तीन दशक से जब भी कार्तिक पूर्णिमा आती है, दिल में एक कसक सी उठती है और सोचता हूं कि अगले साल अवश्य ही ऐसी जुगत बैठाऊंगा कि इस मेले में जाऊं, लेकिन कब यह दिन दुबारा आ जाता है और मन में मलाल लिए एक साल और इसी उधेड़बुन में बिताते हुए पुरानी यादें संजोने को विवश हो जाता हूं।

Wednesday, November 2, 2011

तन-मन-जीवन कर दो निर्मल



संपूर्ण चराचर जगत को अपने आलोक से प्रकाशित करने वाले भगवान सूर्य की आराधना-उपासना अनादि काल से होती रही है। इसी क्रम में कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से सप्तमी तक मनाए जाने वाले सूर्य षष्ठी पर्व का महत्वपूर्ण स्थान है। बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड के जन-मन में बसे इस पर्व को 'छठ महापर्वÓ भी कहा जाता है। इस पर्व में भगवान सूर्य को अघ्र्य दी जाने वाली सामग्री कच्चे बांस की टोकरी (डाला) में रखकर नदी या तालाब किनारे तक ले जाई जाती है, इसलिए इसे 'डाला छठÓ के नाम से भी जाना जाता है।
ऋग्वेद में देवता के रूप में सूर्य की पूजा का उल्लेख है। कई पुराणों में भी भगवान सूर्य की उपासना की चर्चा की गई है। पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य प्रदाता देवता के रूप में माना जाने लगा था। ऐसी मान्यता है कि नियम-निष्ठापूर्वक यह पर्व करने से कुष्ठ रोग ठीक हो जाता है। सनातन धर्म के देवताओं में अग्नि के बाद सूर्य ऐसे अकेले देवता हैं जिन्हें मूर्त रूप में देखा जा सकता है।
छठ पर्व का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी, पवित्रता और आडंबर व दिखावा से रहित होना है। इस पर्व में न तो मंदिर की जरूरत होती है, न प्रतिमा की, न ऋचाओं-मंत्रों की, न पंडित-पुरोहितों की। पूजन सामग्री जुटाने के लिए भी ज्यादा भागदौड़ अपेक्षित नहीं होती। इसमें बांस की टोकरी, सूप, मिट्टी के बरतनों, दीपकों, गन्ना, गुड़, चावल, गेहूं से निर्मित प्रसाद, शकरकंद, हल्दी-अदरक की गांठ, केला, नींबू जैसी सामग्री का प्रयोग किया जाता है, जो सहज ही उपलब्ध हो जाती हैं। सहकार का भाव भी इस पर्व के मूल में है, जिसके तहत हर व्यक्ति अपने पास उपलब्ध सामग्री खुले मन से आस-पड़ोस में वितरित करता है, जिससे किसी को भी किसी सामग्री की कमी नहीं रह पाती है। पर्यावरण संरक्षण का भाव भी इस महापर्व से अनायास ही जुड़ा हुआ है। इस पर्व में नदी-तालाब-जलाशयों के घाटों की सफाई कर इसे सजाया जाता है, जिससे इनका अलग ही रूप निखरकर सामने आता है। भगवान सूर्य और छठ मइया की आराधना में गाए जाने वाले सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर यह पर्व लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
जिस तरह सूर्य बिना किसी भेदभाव के संपूर्ण जगत पर अपनी कृपा-किरणों की बौछार करते हैं, उसी प्रकार जाति-धर्म-संप्रदाय की सीमाओं से ऊपर उठकर यह पर्व मनाया जाता है। इसी भावना का प्रमाण है कि बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और झारखंड के अनेक मुस्लिम परिवारों में भी दशकों से छठ पूजा की परंपरा चली आ रही है।
छठ पर्व के रूप में पूरब से प्रस्फुटित सूर्य आराधना की रश्मियां इसे मनाने वालों के अन्य प्रदेशों का रुख करने के साथ ही साल-दर-साल विस्तार पाती हुई संपूर्ण भारतवर्ष को अपनी ज्योति से आलोकित करती जा रही है। विदेशों में भी जहां-जहां इस पर्व को मनाने वाले गए, वे अपने साथ सांस्कृतिक-धार्मिक विरासत के रूप में इस पर्व को ले गए और धीरे-धीरे कहीं लघु तो कहीं वृहद स्तर पर छठ पर्व मनाया जाने लगा है। छठ व्रत प्राय: महिलाओं द्वारा किया जाता है किंतु विशेष मनौती पूरी होने पर कुछ पुरुष भी यह कठिन व्रत रखते हैं। सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी पत्नी उषा और प्रत्यूषा हैं। छठ पर्व के दौरान सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) तथा प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (उषा) को अघ्र्य देकर भगवान भास्कर के साथ-साथ इन दोनों शक्तियों की संयुक्त आराधना की जाती है। कमर भर पानी में खड़े होकर भगवान सूर्य का ध्यान करते समय व्रतियों के मन में प्रार्थना का यह भाव रहता है कि हे सूर्यदेव, हमारे तन-मन-जीवन का खारापन मिटाकर इसे निर्मल-मधुर कर दो जिससे बादलों से बरसने वाले पवित्र जल की तरह हम स्वयं के साथ ही जन-गण-मन के लिए मंगलकारी हो सकें।

Monday, October 10, 2011

सनातन धर्म की गौरवशाली परंपराएं



'पितृ देवो भवÓ की संस्कृति वाले देश में पूर्वजों के तर्पण और शक्तिस्वरूपा मां भगवती की आराधना के बाद आती है देवोत्थान एकादशी


अभी हाल ही संपन्न हुए शारदीय नवरात्र के दौरान जब हिंदू परिवारों में घर-घर शक्तिस्वरूपा मां भगवती की साधना-आराधना का दौर चल रहा था, मंदिरों में घंटा-घडिय़ाल से लेकर दुर्गा सप्तशती के श्लोकों की गूंज सुनाई दे रही थी, ऐसे में सनातन धर्म की गौरवशाली परंपराओं का सहज ही स्मरण हो आया। 'पितृ देवो भवÓ का उद्घोष करने वाले सनातन धर्म ने इसे महज वक्तव्यों और शास्त्रों तक में ही सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे आचरण में भी अपनाया। इसी का परिणाम है कि सनातन परंपरा में हमें जीवन देने वाले पूर्वजों-पितरों का स्थान देवताओं से भी ऊपर माना गया है। हिंदी पंचांग में पितृपक्ष के बाद देवोत्थान एकादशी का आना भी इसका ही सूचक है। पितरों के प्रति श्रद्धा के समर्पण को ध्यान में रखते हुए भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन माह की अमावस्या तक को पितृपक्ष या कनागत के रूप में वर्णित किया गया। इस दौरान पूर्वजों-पितरों की मृत्यु तिथि के हिसाब से उनके श्राद्ध-तर्पण-पिंडदान का विधान किया गया है। किसी भी महत्वपूर्ण तिथि को भूल जाने की मनुष्य की सहज प्रवृत्ति का भी सनातन धर्म के पुरोधाओं ने ध्यान रखा, जिसे उनकी दूरंदेशी का सूचक माना जा सकता है। किसी कारणवश यदि अपने पितरों की मृत्यु तिथि याद नहीं रख पाएं तो उनके श्राद्ध-तर्पण के लिए आश्विन अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या का विधान रखा गया है। इस दिन लोग अपने घर पर तो पितरों का तर्पण-श्राद्ध करते ही हैं, कई स्थानों पर सामूहिक श्राद्ध-तर्पण की व्यवस्था की जाती है ताकि साधनविहीन आदमी भी पितृ ऋण से मुक्ति पा सके।
सनातन धर्म की उदात्त सोच के विस्तार का ही परिणाम है कि भारत में पुरुष प्रधान समाज होने के बावजूद शक्ति की आराधना को वरीयता दी गई है। पितृपक्ष-कनागत की समाप्ति के तुरंत बाद आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को नारी शक्ति की प्रतीक के रूप में मां भगवती की पूजा-अर्चना का दौर शुरू हो जाता है। शारदीय नवरात्र के दौरान नौ दिनों तक शक्तिस्वरूपा मां दुर्गा के विविध रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। राजस्थान में जहां घर-घर घट स्थापना कर मां दुर्गा की आराधना की जाती है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में सामूहिक स्तर पर उत्सव के रूप में यह त्यौहार मनाया जाता है। लाखों-करोड़ों रुपए खर्च कर पांडाल बनाए जाते हैं और सांस्कृतिक-धार्मिक आयोजन होते हैं। इसके बावजूद मां दुर्गा, महिषासुर, लक्ष्मी-सरस्वती तथा कार्तिकेय-गणपति की मिट्टी की ही प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। दुर्गा पूजा की पूर्णाहुति कन्याओं के पूजन और जीमन से होती है। आज जब समाज से कन्या भ्रूणहत्या का कलंक मिटाने के लिए सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर किए जा रहे प्रयास भी नाकामी साबित हो रहे हैं, ऐसे में इस बात पर हमें गर्व करना चाहिए कि सनातन धर्म के कर्ता-धर्ताओं ने इस स्थिति को सदियों पहले भांप लिया था और कन्या-पूजन के रूप में नारी के महत्व को प्रतिपादित कर दिया था। शारदीय नवरात्र के दौरान नौ दिनों तक रोज विधि-विधान से पूजा-अर्चना करते हुए इन प्रतिमाओं के प्रति लोगों की श्रद्धा और प्रीति सहज ही बढ़ जाती है, इसके बावजूद मानव जीवन को क्षणभंगुर मानने वाला सनातन दर्शन देवी-देवताओं को भला कहां स्थायी मानने की भूल करता। ऐसे में विजयादशमी पर इन प्रतिमाओं को शोभायात्रा के रूप में ले जाकर जलाशयों-नदियों में विसर्जन कर दिया जाता है। प्रकाश के साधनों के आविष्कार के बाद मनुष्य ने अंधकार पर विजय पाई, लेकिन धरती से अंधकार को दूर भगाने का उदाहरण केवल सनातन परंपरा में ही मिलता है, जब कार्तिक कृष्ण अमावस्या पर दीपों की जगमगाहट अंधकार के साम्राज्य को पूरी तरह मात दे देती है। अंधकार पर प्रकाश के विजय के इस पर्व के बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थान एकादशी के रूप में मनाया जाता है और सनातन परंपरा स्वयं को देवताओं की पूजा-अर्चना में संलग्न कर देव ऋण से मुक्त होने का प्रयास करती है।

Thursday, September 22, 2011

घटती लोकप्रियता का संकेत


जनकल्याण के मूल उद्देश्य को भूल रही सरकार के प्रति लोगों में बढ़ा असंतोष


इस माह के पहले सप्ताह में कराए गए 'लेंसऑनन्यूजÓ सर्वेक्षण के अनुसार केंद्र सरकार के प्रति देशवासियों का असंतोष काफी बढ़ गया है। सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार करीब 74 प्रतिशत देशवासी यूपीए सरकार के कामकाज से असंतुष्ट हैं। सर्वेक्षण में शामिल लोगों ने माना कि मुद्रास्फीति, भ्रष्टाचार, नक्सली तथा आतंकी हिंसा पर लगाम लगाने में केंद्र पूरी तरह विफल रहा। इससे पहले अगस्त में हुए सर्वेक्षण में 61 प्रतिशत लोगों ने केंद्र सरकार के प्रति असंतोष जताया था।
बेलगाम महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया है। महंगाई को रोकने के लिए किए जा रहे प्रयास जनता को राहत नहीं पहुंचा रहे। पेट्रोल की कीमत में की गई बढ़ोतरी ने महंगाई से त्रस्त लोगों की परेशानी और भी बढ़ा दी है। महंगाई पर काबू पाने के उपाय के नाम पर हाल ही रेपो और रिवर्स रेपो दर में बढ़ोतरी से ऋणों पर ब्याज दर बढऩे की मार भी आमजन को झेलनी पड़ेगी। वहीं इस सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार 84 प्रतिशत लोगों ने अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों द्वारा तैयार जन लोकपाल विधेयक को समर्थन दिया। लोगों का मानना है कि देश के विकास को दीमक की तरह चाट रहे भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने में यह विधेयक काफी हद तक प्रभावी होगा। ऐसे में केंद्र सरकार को चाहिए कि जनकल्याण के अपने मूल उद्देश्य को ध्यान में रखकर आमजन की परेशानियां दूर करने की पहल करे, अन्यथा आमजन की उपेक्षा उसे भारी पड़ सकती है।
(जयपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक समाचार पत्र डेली न्यूज में 22 सितंबर को प्रकाशित)

Friday, August 5, 2011

मूल उद्देश्यों की पटरी से उतरता रेलवे

नए रेल मंत्री ने व्यवस्था सुधारने की बजाय किराया नहीं बढ़ाने पर दिया जोर
हाल ही केंद्रीय मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल में रेल मंत्री बने दिनेश त्रिवेदी ने निकट भविष्य में रेल किराया नहीं बढ़ाने की बात कही है। उनका यह बयान पूर्ववर्ती रेल मंत्रियों की तरह अपनी लोकप्रियता का ग्राफ बढ़ाने की कवायद ही प्रतीत होता है। ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल चुनाव में लीन हो जाने के कारण लंबे अरसे तक रेल मंत्रालय मुखियाविहीन सा हो गया था। ऐसे में नए रेल मंत्री से रेलवे की व्यवस्थाओं में सुधार की आस लगाए रेलयात्रियों को त्रिवेदी के इस बयान से झटका लगा है।
भारतीय रेलवे का ध्येय वाक्य है 'संरक्षा, सुरक्षा और समय पालनÓ अर्थात् यात्रियों को अपने संरक्षण में सुरक्षित रूप से बिना किसी परेशानी के निर्धारित समय से गंतव्य पर पहुंचाना, लेकिन वर्तमान समय में भारतीय रेल ने अपने मूल ध्येय को पूरी तरह भुला दिया है। वर्तमान समय में रिजर्वेशन के बावजूद आरक्षित कोच में सामान्य टिकट या वेटिंग लिस्ट वालों की भीड़ के कारण बैठना तक मुहाल हो जाता है। जैसे-तैसे बैठ भी गए तो ट्रेन सही-सलामत निर्धारित समय से गंतव्य पर पहुंचा देगी, इसकी कोई गारंटी नहीं होती। पिछले दिनों हुई रेल दुर्घटनाओं तथा ट्रेनों में हुई आपराधिक घटनाओं के कारण यात्रियों के मन में एक अज्ञात भय समाया रहता है। ऐसे में रेल मंत्री
को चाहिए कि वे रेल किराया न बढ़ाने का आश्वासन देने की बजाय सुरक्षित व सुखद रेलयात्रा की गारंटी देने की बात करते। इस गारंटी के लिए तो रेलयात्रियों को किराये में दो-पांच रुपए की बढ़ोतरी भी नहीं खलती।
(जयपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक समाचार पत्र डेली न्यूज में 2 अगस्त को प्रकाशित)

Monday, August 1, 2011

...मोर अंगना नहि बरसे बदरवा

कविकुलगुरु कालिदास ने अपनी कालजयी रचना ' मेघदूतम्Ó में कुबेर के शाप से निर्वासित यक्ष की प्रियतमा की विरह-व्यथा को शब्दों में पिरोकर बादलों की महत्ता को अलग तरीके से रूपायित किया। इसके साथ ही ' मेघदूतम्Ó में 'आषाढ़स्य प्रथम दिवसे...Ó से आषाढ़ आने पर मन के आह्लादित होने का भी बखूबी वर्णन किया। वैशाख-ज्येष्ठ में सूर्य की प्रचंड किरणों के प्रभाव से प्रकृति व अन्य प्राणियों के साथ मानव-मन भी झुलस जाता है और हर किसी की तमन्ना रहती है कि बादल बरसें और मन को हरसाएं। आषाढ़ से यह सिलसिला शुरू होकर सावन आते-आते मन में इतना बस जाता है कि प्रफुल्लित मन हर्ष के झूले पर प्यार की पींगे मारने को हर पल व्याकुल सा रहता है। तभी तो काव्य से लेकर फिल्में तक सावन के स्नेह से अभिसिक्त होकर हमारा मन हर लेती हैं।
खैर, मेरा उद्देश्य न तो कालिदास की प्रशंसा में कसीदे काढऩा था और न ही सावन को शब्दों में सजाने का है। आज तो किसी और ही कारण ने मुझे मैं तो किसी और ही उद्देश्य से आज यहां मुखातिब हूं। बरसों से रात की नौकरी के कारण सोते-जगते उनींदे ही में कब दिन बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। आज भी दोपहर में खाना खाकर सो गया था। ऑफिस जाने के लिए चार बजे जगा तो बाहर झमाझम बरसात हो रही थी। पत्नी ने कहा कि करीब आधे घंटे पहले ही बरसात शुरू हो गई थी। मेरे ऑफिस जाने का जैसे-जैसे समय होता जा रहा था, मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी। अखबार की नौकरी भी सीमा पर तैनात जवानों से कम महत्वपूर्ण नहीं होती। यदि ऐसे प्राकृतिक कारणों से दो-चार साथी अनुपस्थित हो जाएं तो काम काफी प्रभावित होता है। सर्दी-जुकाम से ग्रस्त मैं बुखार की आशंका के कारण बारिश में निकलने की हिम्मत भी नहीं कर पा रहा था। खैर, जैसे-तैसे साढ़े पांच बजे जब बादलों का कोष रिक्त हो गया तो मैं हल्की फुहारों के बीच रेनवाटर कोट का कवच धारण कर घर से निकला। घर से ऑफिस की 14-15 किलोमीटर की दूरी में भिगोने के लिए फुहारें भी काफी होती हैं। खैर, आधे रास्ते तक तो सड़कों पर जमा पानी भरपूर बारिश का अहसास करा रही थीं, लेकिन जैसे-जैसे ऑफिस नजदीक आता जा रहा था, अपेक्षाकृत सूखे मौसम में रेनवाटर कोट पहने मैं शायद साथी राहगीरों के लिए अचरज का केंद्र भी बना हुआ था। ऑफिस आने पर दूसरे साथियों को भी बिल्कुल सूखा देखकर अब मुझे आश्चर्य हो रहा था। कुछ साथियों के निवास के करीब तो बिल्कुल ही बरसात नहीं हुई थी और कुछ के यहां बादल दो-चार छींटे देकर गुजर लिए। सबसे आश्चर्य तो तब हुआ जब मौसम की खबर बनाने वाले साथी ने मौसम विभाग के अधिकारियों के हवाले से बताया कि गुलाबी नगर में महज 0.9 मिलीमीटर बरसात हुई है। इसका कारण यह था कि जयपुर में मौसम विभाग का कार्यालय एयरपोर्ट के पास है, जो सांगानेर इलाके में है और उधर आज महज नाममात्र को बरसात हुई थी। ऐसे में जिन इलाकों में बरसात नहीं हुई, उन लोगों के लिए तो मलाल हुआ कि वे सावन की भीगी-भीगी रुत में मौसम या फिर बादलों की मेहरबानी से महरूम रह गए वहीं इसका भी अफसोस हुआ कि मौसम विभाग को बरसात नापने के लिए इतने बड़े शहर के अलग-अलग हिस्सों में व्यवस्था होनी चाहिए ताकि मौसम विभाग का आंकड़ा हास्यास्पद न लगे। मुझमें यक्ष जैसी क्षमता तो नहीं है कि बादल मेरी मनुहार सुन पाएं, लेकिन मौसम विभाग भी यदि मेरी सलाह पर अमल कर ले तो उसकी हेठी नहीं होगी।

Sunday, July 24, 2011

...जन्मदिन के बहाने

नौकरी पूरी करने के बाद कल रात दो बजे घर पहुंचा तो हॉल में कुर्सी पर कुछ चमकता हुआ सा प्रतीत हुआ। उठाकर देखा तो पता चला कि बेटे ने बर्थडे विश करने के लिए ग्रीटिंग कार्ड रखा हुआ था। देखकर अच्छा लगा कि बाजार से रेडिमेड कार्ड खरीदने के बजाय उसने अपनी कल्पनाओं को खुद ही आकार देने की कोशिश की थी। इसके बाद तो दिनभर मोबाइल पर शुभकामनाओं के एसएमएस आते रहे। फेसबुक पर तीस-चालीस मित्रों की शुभकामनाएं पाकर भी काफी अच्छा लगा। विशेष रूप से आदरणीय कुमार विश्वास की काव्यमय मंगलकामनाएं-
देर रात जागा होगा उस दिन ऊपर वाला ,
जिस दिन उसने तुम को अपने हाथों से था ढाला ...
जन्म दिन की ढेर सारी शुभकामनाएं.. ...
स्वस्थ रहो ...मस्त रहो ...व्यस्त रहो ...

दिल को छू गईं।
उनकी शुभकामनाओं पर इतना ही कहना चाहूंगा कि मेरी काया को अपने हाथों से ढालने के लिए विधाता अवश्य ही देर रात तक जागा था क्योंकि मेरा जन्म वाकई तड़के करीब पौने चार बजे हुआ था। खैर, इसके बाद विधाता की नाइट शिफ्ट बंद हुई या जारी रही यह तो पता नहीं, लेकिन मैं तकरीबन 14-15 साल से जीविकोपार्जन के लिए अखबार की नौकरी में रात्रि जागरण करने को विवश हूं। फेसबुक पर अन्य मित्रों की शुभकामनाओं के लिए भी हृदय से आभारी हूं, जिसके कारण अपनी मनोभावनाएं उनसे बांटने की प्रेरणा मिली।
तो पेश है मेरी रामकहानी की पहली कड़ी....
मेरे से बड़े दो भाइयों के असमय काल कवलित हो जाने के कारण पूरा परिवार मेरे जीवित रहने के प्रति आशंकित था। यही कारण रहा कि जन्म के बाद पारंपरिक रूप से होने वाले रस्मो-रिवाज व अनुष्ठानों को भी स्थगित कर दिया गया। नए कपड़ों की बजाय पुराने कपड़ों में ही लपेटकर रखा जाता था। भय इतना कि कपड़े की पुरानी मच्छरदानी को काले रंग में रंगकर उसे ही मेरा पहनावा बनाया गया।
नामकरण करने की जहमत नहीं उठाई गई। सबका मानना था कि जब इसे जीना ही नहीं है, तो नामकरण कर नवजात से अपनापन क्यों बढ़ाया जाए। परंपरागंत मान्यताओं के अनुसार एकाध किलो मड़ुआ (मोटा अनाज) के बदले गांव में प्रसव कराने वाली दाई के हाथों मुझे बेच दिया गया। इस प्रकार बेचे जाने के कारण परिवार में मुझे 'बेचनाÓ नाम से पुकारा जाने लगा। कुछ दिनों पहले हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार पांडेय बेचन शर्मा ' उग्रÓ के बारे में पढ़ते हुए पता चला कि उनके नाम में शामिल बेचन के साथ भी कुछ ऐसा ही वाकया छिपा था।
नानाजी को किसी ने कहा कि लड़के की नाक छिदवा दो तो शायद इसकी आयु बढ़ जाए। नानाजी ने नाक छेदने वाले को बुलवाया और सुनार से कहकर नथनी भी बनवा दी। सौंदर्य में अभिवृद्धि के लिए बच्चियों की नाक पांच-छह साल की उम्र में छिदवाई जाती है और तब तक शायद भविष्य में इसकी उपयोगिता को वे समझ जाती हैं और इससे छेड़छाड़ नहीं करतीं, लेकिन कुछ माह का अबोध शिशु मैं किसी अवरोध को कैसे सहन कर पाता, इसका परिणाम यह हुआ कि एक दिन मैंने उस नथनी को खींच दिया जिससे कोमल नाक को चीरती हुई वह बाहर आ गई और उसका निशान आज भी मेरे चेहरे पर बाकायदा चस्पां है।
आगे की कहानी अगले जन्म दिन पर। तब तक गुड बॉय....

Wednesday, July 20, 2011

अक्षर के जादू से तरक्की का टोटका !

राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में पश्चिम बंगाल का नाम बदलने का प्रस्ताव

पश्चिम बंगाल का इतिहास बहुत ही समृद्ध और गौरवशाली रहा है। 'गीतांजलिÓ के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने का गौरव गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के नाम के साथ जुड़ा है तो स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की भूमिका नौजवानों के लिए अनुकरणीय रही है। समाज सुधार में राजा राम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम अग्रगण्य हैं तो फिल्म निर्माण-निर्देशन में सत्यजित राय अद्वितीय हैं। चिकित्सा क्षेत्र से राजनीति में आए डॉ. विधानचंद्र राय ने सेवा की ऐसी छाप छोड़ी कि आज उनका जन्मदिन डॉक्टर्स डे के रूप में मनाया जाता है। जादू के लिए भी प्रसिद्ध पश्चिम बंगाल में लंबे संघर्ष के बाद गत विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस का जादू ऐसा चला कि बाकी दलों का अस्तित्व ही कहीं खो सा गया। ऐसे में पिछले दिनों पश्चिम बंगाल मंत्रिमंडल की बैठक में राज्य का नाम बदलने का प्रस्ताव आया और बंग प्रदेश, बांग्ला प्रदेश, बंगराष्ट्र आदि नामों पर चर्चा की जा रही है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि अंग्रेजी वर्णक्रम में नाम नीचे होने से राष्ट्रीय मंचों पर राज्य को अपनी बात रखने का मौका अंत में मिलता है। वर्तमान समय में प्रदेश की जनता मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में अपने दमित सपनों को साकार होते देखना चाहती है। ऐसे में तृणमूल कांग्रेस सरकार को चाहिए कि अक्षर के जादू से तरक्की का टोटका करने की बजाय ईमानदार और पारदर्शी शासन से विकास की नई इबारत लिखे, जिससे नाम नहीं, बल्कि काम के आधार पर पश्चिम बंगाल पहली पंक्ति में आ जाए।

Thursday, June 30, 2011

आम हुए खास, आटे का भी टोटा

' सहदेव बोला- वैसे इन दिनों आसपास के वनों में फलों की कमी नहीं है। वृक्ष फलों के बोझ से लदे पड़े हैं। हमारा प्रयत्न है कि अन्न को अभी सुरक्षित रखा जाए और जब तक फल उपलब्ध हैं, फलाहार ही किया जाए।Ó नरेंद्र कोहली के 'महासमरÓ के पंचम खंड 'अंतरालÓ के अंतिम पृष्ठों में पांडवों के बारह वर्ष के वनवास के प्रसंग को पढ़ते हुए अचानक अपना बचपन याद आ गया। मैं गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ता था, जहां आज के इंग्लिश मीडियम स्कूल की तरह गर्मी की छुट्टी में होमवर्क का बोझ बच्चों के सिर पर नहीं लादा जाता था। ऐसे में गर्मी की छुट्टी का मतलब होता था नॉन स्टॉप मस्ती। ज्येष्ठ-आषाढ़ के महीने में हम पूरी तरह आम के बगीचे के होकर रह जाते थे। बगीचे में अस्थायी मड़ैया बना दी जाती थी, जहां हम सभी भाई-बहन दिनभर आम की रखवारी के साथ ही कोयल के साथ 'कू-कूÓ कूकने की प्रतियोगिता करते। आम के साथ ही जामुन का स्वाद भी बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता और कई बार जामुन के पेड़ से गिरने के बाद भी उसके प्रति हमारा प्रेम कम नहीं हो पाता। ऐसी कपोल कल्पित अफवाह थी कि रात में इन बगीचों में भूत-प्रेत आते हैं, इसलिए शाम होते ही घर आ जाते थे और रात में बगीचे की रखवारी की जिम्मेदारी हमारे ताऊजी ही संभाला करते थे।
हां, तो मुझे जिस संदर्भ में 'महासमरÓ की उपरोक्त पंक्तियां मेरे बचपन में ले गईं वो कुछ यूं थीं कि घर की माली हालत सामान्य ही थी। दो ताऊ किसान ही थे और बाबूजी की शिक्षक की नौकरी से मिलने वाली पगार परिवार की गाड़ी को जैसे-तैसे खींच पाती थी। ऐसे में जब हम खाना खाने बैठते तो दादी कहतीं कि रोटी कम से कम खाओ और आम से ही पेट भरो। हालांकि विभिन्न प्रजातियों के आम से स्वाद की एकरसता की समस्या भी नहीं हुआ करती थी, फिर भी बालसुलभ मन उन तर्कों को कहां माना करता था।
उन दिनों आम हर आमजन को सुलभ था। जिनके बगीचे नहीं होते और वे बगीचे में या घर पर आते तो कभी खाली हाथ नहीं लौटते। आम बेचने का चलन तो बिल्कुल ही नहीं था या यूं कहें कि इसे बुरा माना जाता था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुझे लगता है कि हर किसी की पहुंच में होने के कारण ही फलों के राजा का नामकरण 'आमÓ किया गया होगा।
आज जब गुलाबी नगर में रहते हुए 50 से 70 रुपए किलो तक आम खरीदना पड़ता है तो आटे-दाल का भाव सहज ही याद आ जाता है। बचपन से मुंह लगा आम का स्वाद अन्य खर्चों में कटौती की कीमत पर ही पूरा हो पाता है। इसके साथ ही सामान्य परचूनी की दुकान में भी 15 रुपए किलो आटा मिलता है और पैकेटबंद आटा भी 20-22 रुपए किलो तक मिल पाता है। ऐसे में आम भी खास लोगों की पहुंच तक सिमटकर रह गया है और आटे के लिए भी आम आदमी को इस कदर अंटी ढीली करनी पड़ती है कि जरूरत की बाकी चीजों के लिए समझौते के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।

Sunday, June 19, 2011

सदैव सामयिक है संस्कृत

राजस्थान संस्कृत अकादमी व रामानंद आध्यात्मिक सेवा समिति की ओर से झालाना सांस्थानिक क्षेत्र स्थित राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी सभागार में 'पत्रकारिता में संस्कृत : वर्तमान और भविष्यÓ पर चल रही दो दिवसीय संगोष्ठी के अंतिम दिन रविवार सुबह 'संस्कृत की सामयिकताÓ विषयक सत्र में मुझ नाचीज को भी कुछ कहने का अवसर मिला। करीब 15 साल बाद कोई सार्वजनिक मंच मिला था, इसलिए काफी संकोच भी हो रहा था, फिर पत्रकारिता को आजीविका के रूप में अपनाने तथा अन्यान्य कारणों से संस्कृत का साथ छूटे भी करीब डेढ़ दशक हो गए। एक सप्ताह पहले सूचना मिली कि मुझे भी 'संस्कृत की सामयिकताÓ पर कुछ कहना होगा और मैं पिछले एक माह से किसी और काम में लगा था, जो शनिवार शाम को ही पूरा हुआ था। ऐसे में शनिवार मध्यरात्रि ऑफिस के काम से फ्री होने के बाद जहां तक मैं सोच सका, वही मेरे वक्तव्य का हिस्सा बना। मेरी अल्पज्ञता अपनी जगह पर थी, लेकिन सौभाग्य उससे कहीं अधिक था कि श्रद्धेय बलदेवानंद सागर, प्रो. अर्कनाथ चौधरी, देवर्षि कलानाथ शास्त्री, प्रो. सुदेश शर्मा सहित संस्कृत के दशाधिक स्वनामधन्य विद्वानों के सान्निध्य में कुछ बोलने का अवसर मिला। मैंने इस आलेख को जस का तस तो नहीं पढ़ा, क्योंकि देखकर पढऩे से संप्रेषणीयता में कमी आती है और मेरा कॉन्शस भी इसकी अनुमति नहीं दे पाया, लेकिन मेरा वक्तव्य इसी के आसपास केन्द्रित था।

संस्कृत की सामयिकता

सबसे पहले तो मैं कहना चाहूंगा कि जिस विषय को आज की चर्चा का केंद्रबिंदु बनाया गया है, वह सही नहीं है। कोई वस्तु या विद्या यदि अप्रासंगिक हो जाती है तो इसकी प्रासंगिकता सिद्ध करने के लिए इसके पक्ष में विभिन्न तर्क रखे जाते हैं, लेकिन संस्कृत तो सदैव सामयिक है और रहेगी। जीवन में हर कदम पर संस्कृत हमें मार्ग दिखाती है। कोई भी जिज्ञासा हमारे मन में उठे, उसका समाधान पहले से संस्कृत के ग्रंथों में सन्निहित है। जिस तरह प्रत्येक जीवधारी के लिए ऑक्सीजन की उपयोगिता सदैव सामयिक है, वैसे ही मानव जीवन के लिए संस्कृत भाषा की उपयोगिता सर्वकालिक है।
चिकित्सा का क्षेत्र हो तो आयुर्वेद में मनुष्य के आरोग्य का वरदान संजोया हुआ है। यदि उनका पालन किया जाए तो इस आपाधापी के युग में भी सम्यक जीवन जीया जा सकता है।
संस्कृत ग्रंथों में आदर्श परिवार की व्याख्या की गई है। धर्मशास्त्रों में वर्णित जीवन पद्धति को अपनाने से परिवार में सदैव स्नेह, सामंजस्य और समरसता बनी रहती है और इन पर अमल नहीं करने से अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता के भावों का समावेश जीवन में होता है और परिवार के बिखराव से लेकर जीवन के असमय अंत के रूप में इसके परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं।
वर्तमान समय में पर्यावरण की सुरक्षा की चिंता बड़े जोर-शोर से की जाती है। संस्कृत ग्रंथों में ऋषि-मुनियों के जंगल में रहने, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी को अपना परिवार समझने की परिपाटी का चित्रण किया गया है। कविकुलगुरु कालिदास ने अभिज्ञानशाकुंतलम् में कण्व ऋषि और शकुंतला के माध्यम से इसका कितना मनोहारी वर्णन किया है।
व्यक्तित्व निर्माण के जो मार्ग संस्कृत ग्रंथों में दिखाए गए हैं, अन्यत्र दुर्लभ हैं। वसुधैव कुटुंबकम् का पाठ पढ़ाने वाली संस्कृत भाषा कभी भौतिकवाद को प्रश्रय नहीं देती। पुरुषार्थ चतुष्टय में भी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया गया है और धर्म के मार्ग पर चलने वाला अपना हित साधने के लिए कभी दूसरे का अहित नहीं कर सकता।
हर हाल में संतुलित जीवन जीने का जो उपदेश संस्कृत ग्रंथों (श्रीमद्भगवद्गीता) में --सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभे जयाजयौ...।। दिया गया, वह हजारों वर्ष बाद आज भी सामयिक है और आने वाली सदियों में भी सामयिक बना रहेगा।
आजकल तनाव और अवसाद की बातें बहुधा की जाती हैं। इसके दुष्परिणामों से समाचार पत्र भरे रहते हैं। इसके बावजूद मैं कहना चाहूंगा कि आज के आदमी के तनाव या अवसाद का स्तर कुरुक्षेत्र के अर्जुन की तुलना में पासंग में भी नहीं है। ऐसे में योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिए थे, वे देश-काल-व्यक्ति की सीमा से परे आज भी हर किसी के लिए हैं, बशर्ते हम उसका मनन-चिंतन करने के साथ ही उस पर अमल करें।
एक बात और, संस्कृत ग्रंथों-रामायण, श्रीमद्भगवद्गीता सरीखे ग्रंथों को हमने वंदनीय मानकर इसे पूजाघर में रख दिया और रोज इसे धूप-दीप दिखा रहे हैं। आज आवश्यकता है कि संस्कृत को पूजाघर से निकालकर प्रयोग में लाया जाए और इसके माध्यम से अपने जीवन को समुन्नत बनाया जाए।
आज कम्प्यूटर के इस युग में आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी संस्कृत को कम्प्यूटर के लिए सर्वाधिक योग्य भाषा माना है। ऐसे में युवाओं के लिए इसमें काफी अवसर हैं। संस्कृत को कम्प्यूटर के हिसाब से विकसित करने की बात की जा रही है और इसकी धीमी गति पर चिंता भी जताई जाती है, तो मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा कि देववाणी को मन से मानव की भाषा के रूप में जब हम अपना लेंगे तो यह मशीनों को भी रास आने लगेगी और संस्कृतनिष्ठ युवकों के लिए अवश्य ही रोजगार के द्वार खुलेंगे। संस्कृत पढऩे वालों के लिए अवसरों की कमी कदापि नहीं होगी, बशर्ते वे अपने आंख-कान खोले रखें, अन्यथा इंजीनियर भी ट्यूशन पढ़ाकर घरखर्च चला रहे हैं और डॉक्टरों को अपनी डल प्रैक्टिस में जान डालने के लिए खोजने से भी टॉनिक नहीं मिलता। इसलिए आज संस्कृत के विद्यार्थी संस्कृत पर अधिकार के साथ अन्य अन्य भाषाओं, विज्ञान, देश-दुनिया में हो रहे अनुसंधानों से खुद को अपडेट रखें और उसे संस्कृत के संदर्भ में देखने की भरसक कोशिश करें। अमरकोश के साथ फादर कामिल बुल्के की डिक्शनरी का ज्ञान भी जरूरी है।
संस्कृत किसी जाति--परिधान-यूनिफॉर्म विशेष वालों के लिए ही है, इस अवधारणा को भी हमें छोडऩा होगा। आज संस्कृत पढऩे-जानने वालों को चाहिए जहां कहीं उन्हें कोई संस्कृतानुरागी मिले तो आगे बढ़कर हृदय से उसे अपनाएं, यथोचित मार्गदर्शन करें। दूसरे शब्दों में कहूं तो हमारे लिए कोई भी त्याज्य नहीं हो और हम किसी के लिए अग्राह्य न हो पाएं।
एक बात और, स्कूल-कॉलेजों में संस्कृत की शिक्षा देने के साथ ही इसे आमजन के बीच ले जाना होगा। विभिन्न प्रोफेशनल्स को यदि उनके विषय से संबंधित संस्कृत ग्रंथों के बारे में भी बताया जाए तो यह मणिकांचन संयोग बनेगा। आज किसी फिजिशियन और सर्जन को आयुर्वेद का भी ज्ञान हो तो अपने रोगियों का और भी बेहतर इलाज कर सकता है। सिविल इंजीनियर यदि वास्तु विज्ञान के ज्ञान से भी लैस हों तो उनके बनाए भवनों की गुणवत्ता के क्या कहने। किसी न्यायाधीश को न्यायिक दर्शन की भी जानकारी हो तो उसके फैसले अन्य जजों को लिए भी अनुकरणीय हो जाएंगे।
आज हम जिस दौर में जी रहे हैं, ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार ने सदाचार को पग-पग पर पटखनी देने की ठान ली है और मनुष्य की भौतिक सुखों की लिप्सा ऐसे में आग में घी का काम करती है। जीवन मूल्यों के पतन का ऐसा सिलसिला चल निकला है कि इससे उबरने का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। एक शायर के शब्दों में कहूं तो -
पीछे बंधे हैं हाथ और तय है सफर।
किससे कहें कि पांव के कांटे निकाल दे।।
तो आचरण में अशुद्धि, जीवन मूल्यों की क्षति के इस दौर में एकमात्र संस्कृत में वह ताकत है जो इस कांटे को निकालकर मानव को संस्कारित करके उचित मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सकेगी और इसकी सामयिकता सदैव असंदिग्ध बनी रहेगी।

Tuesday, May 17, 2011

कलम की ताकत से मिटाएं भ्रष्टाचार


राजस्थान उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश और मधुर गीतों-गजलों के रचयिता जस्टिस शिवकुमार शर्मा ने कहा कि पारदर्शिता के अभाव में भ्रष्टाचार पनपता है, जो लोकतंत्र के लिए दीमक की तरह है, इसलिए पत्रकारों को चाहिए कि भ्रष्टाचार मुक्त भारत के लिए कलम का इस्तेमाल करें। वे मंगलवार को शहर के गणमान्य पत्रकारों और साहित्यकारों से मुखातिब थे। राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी की ओर से प्रकाशित और वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश उपाध्याय लिखित पुस्तक 'पत्रकारिता : आधार, प्रकार और व्यवहारÓ के लोकार्पण समारोह में मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में जनता का स्थान सबसे ऊपर है, लेकिन वर्तमान में जनता ही सबसे उपेक्षित हो गई है। ऐसा लगता है जैसे लोकतंत्र शीर्षासन करने को बाध्य है। ऐसे में पत्रकारों का दायित्व है कि वे लोकतंत्र को इसके मूल स्वरूप में लाएं। उन्होंने अपनी नई गजल के दो शेरों से अपने वक्तव्य का समान यूं किया :
शजर हरे कोहरे के पीछे थे,
दर्द कई चेहरे के पीछे थे।
घुड़सवार दिन था और हम,
अनजाने खतरे के पीछे थे।
इससे पहले डॉ. राजेश कुमार व्यास ने पुस्तक की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि इस पुस्तक में पत्रकारिता की अकादमिक की बजाय व्यावहारिक शिक्षण की बात बड़े ही सरल और सहज तरीके से बताई गई है। इसमें पत्रकारिता के दौरान कार्य-व्यवहार के दौरान आने वाले द्वंद्व का उल्लेख करते हुए उनसे पार पाने का भी रास्ता सुझाया गया है। भाषा उपदेशात्मक नहीं होने से संप्रेषणीयता बहुत ही अच्छी है।
ेलेखक ज्ञानेश उपाध्याय ने पुस्तक-सृजन और इसके उद्देश्यों में संक्षेप में अपनी बात कही। 'मुझे जो लिखना था, मैंने पुस्तक में लिख दी, अब पाठक और आलोचक इसकी विवेचना करें Ó कहते हुए उन्होंने सधे हुए वक्ता की तरह गेंद सामने वालों के पाले में डाल दी।
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश ठाकुर ने कहा कि इस पुस्तक में अच्छे पत्रकार के गुणों का उल्लेख तो है ही, पत्रकार को अपने पेशे के प्रति प्रतिबद्ध होने के लिए आईना भी दिखाया गया है। हालांकि उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि वर्तमान दौर में पत्रकारों में पढऩे की आदत खत्म सी होती जा रही है और इसी का परिणाम है कि आज की पीढ़ी के पत्रकारों में कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, राजेंद्र माथुर जैसी प्रतिभाओं के दर्शन नहीं होते।
विशिष्ट अतिथि राजस्थान विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष डॉ. संजीव भानावत ने कहा कि पुस्तक में पत्रकारिता की अंदरूनी स्थितियों को सामने रखने के साथ ही शब्दों की सत्ता को बचाने की ईमानदार कोशिश की गई है। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक से नवागत पत्रकारों को मार्गदर्शन मिल सकेगा। उन्होंने पत्रकारिता की अंदरुनी स्थितियों को सामने रखने के साहस की भी सराहना की। डॉ. भानावत ने कहा कि पुस्तक में पत्रकारिता में स्थापित प्रतिमानों पर नए तरीके से विचार किया गया है तथा सिद्धांत खो चुके प्रतिमानों पर बेबाक टिप्पणी की गई है। इसके माध्यम से शब्द की सत्ता को बचाने की ईमानदार कोशिश की गई है। भाषा-प्रवाह से पुस्तक काफी रोचक बन पड़ी है और पाठक जब एक बार इसे पढऩा शुरू करता है तो पूरा करके ही दम लेता है। (डॉ. भानावत के इस कथन की पुष्टि अन्य वक्ताओं ने भी अपने संबोधन में की।)
अध्यक्षता करते हुए अकादमी निदेशक डॉ. आर. डी. सैनी ने कहा कि हिंदी पत्रकार को अन्वेषी होने के साथ ही तथ्यों पर पैनी दृष्टि रखनी चाहिए। उन्होंने राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी की ओर से पत्रकारिता के लिए प्रकाशित पुस्तकों के बारे में भी काफी कुछ बताया। कार्यक्रम का प्रभावी संचालन मोअज्जम अली ने किया।

Sunday, May 1, 2011

सिर्फ एक प्रतिशत...

राजस्थान प्रौढ़ शिक्षण समिति की ओर से झालाना स्थित राज्य संदर्भ केंद्र परिसर में पिछले दिनों 'जापान की आपदा : हमारी विपदाÓ विषयक संगोष्ठी आयोजित की गई। जापानी लेखिका तोमोको किकुचि, प्रसिद्ध लेखिका डॉ. राज बुद्धिराजा, डॉ. डी. आर. मेहता आदि ने संबोधित किया। इस अवसर पर प्रौढ़ शिक्षण समिति और प्राकृत भारती की ओर से प्रकाशित पुस्तक 'जापान की आपदा : हमारी विपदाÓ और पोस्टर 'धरती की चिंताÓ का लोकार्पण किया गया। संगोष्ठी के अंत में समिति की सचिव डॉ. अंजू ढढ्ढा मिश्र ने संकल्प पत्र प्रस्तुत किया। प्रस्तुत है संकल्प पत्र :

जापान के निवासियों पर गुजरी हृदय विदारक विभीषिका में हम सबकी संवेदना वहां के निवासियों के साथ है। इस भयंकर दुर्घटना से जूझने में जापान के निवासियों ने जिस सामथ्र्य, साहस और संयम का परिचय दिया है, वह दुनिया में एक सराहनीय मिसाल बन गया है। आइए, इसी आत्मबल का प्रयोग हम ऐसी विभीषिकाओं की संभावनाओं से लडऩे में करें, जिससे ऐसी स्थिति दुनिया को दोबारा न झेलनी पड़े।
दुनिया के ऊर्जा उत्पाद का जितना भाग आणविक ऊर्जा से प्राप्त होता है, उतना हम अपने आत्मबल से सहज ही बता सकते हैं। आइए, प्रतिज्ञा करें कि हम अपने जीवन, घर, संस्थान जहां भी हैं, वहां संसाधनों का दोहन सिर्फ एक प्रतिशत कम कर लें। हमारी यह छोटी सी चेष्टा दुनिया के वंचितों को उनके जीवन यापन के साधन मुहैया कराने के साथ ही हमें पर्यावरण संबंधी खतरों से मुक्त करा सकती है।

Friday, April 1, 2011

'अभिमन्युओंÓ का बलिदान लेता रहेगा जमाना

आज सुबह से ही मन खिन्न है, उदास है। पत्नी और बेटा बार-बार कारण पूछते रहे, लेकिन क्या बताता उनसे, ऐसा लगता है जैसे शब्द बेमानी हो गए हों। आजीविका के कारण मां-बाबूजी, घर-गांव-समाज, मित्र मंडली बहुत कुछ पीछे छूट गया, लेकिन किसी न किसी रूप में उनसे जुड़े रहने की कोशिश नहीं छोड़ी। पहले पत्र लिखता था, लेकिन जब प्रत्युत्तर आने बंद हो गए, तो धीरे-धीरे मेरा पत्रलेखन भी दम तोड़ चला। अब मोबाइल का युग है और उसी के सहारे संबंधों का सेतु बनाने का भरसक प्रयत्न करता हूं।
सुबह घर फोन किया तो मां के स्वर में उदासी थी। कई तरह की शंकाएं मन में तैरने लगीं। मैं चिंतित न होऊं, इसलिए मां कई बार मुझसे अपनी परेशानियों को साझा नहीं करतीं। बार-बार पूछने पर उन्होंने बताया कि पड़ोस का एक युवक सड़क हादसे में असमय काल के गाल में समा गया। वह बस कंडक्टर था और छुट्टी के दौरान गांव में ही कहीं जा रहा था कि किसी अज्ञात वाहन ने उसे टक्कर मार दी थी। उसका चेहरा सामने घूमने लगा। संयोगवश पिछली बार गांव की यात्रा के दौरान उसी की बस से गांव से पटना आया था। उसने बस लेकर अजमेर शरीफ आने पर जयपुर में मुझसे मिलने की बात कही थी, लेकिन उसकी यह इच्छा अधूरी ही रह गई।
मां ने एक और हादसे की सूचना दी। अपनी बेरोजगारी के दिनों में गांव के एक सज्जन बचपन में मुझे ट्यूशन पढ़ाया करते थे। अब शिक्षक की नौकरी से सेवानिवृत्त होकर गांव में ही रह रहे हैं। उनका पुत्र जो शायद गांव के ही स्कूल में शिक्षा मित्र या शिक्षक के पद पर कार्यरत था, वह भी अज्ञात वाहन की चपेट में आ गया। दोनों ही हादसे में मृतक मोटरसाइकिल से ही कहीं जा रहे थे। मोटरसाइकिल की स्पीड कितनी थी या किसकी गलती से हादसा हुआ, यह बताने वाला कोई नहीं है, क्योंकि दोनों ही हादसे ऐसी जगहों पर हुए, जहां सड़क किनारे बाग-बगीचे, खेत आदि ही हैं। ऐसे में कौन किसे दोषी ठहराए, लेकिन इन युवकों के मां-बाप, पत्नी, मासूम बच्चों व अन्य परिजनों को ढाढस बंधाने के लिए किसी के पास शब्द नहीं हैं।
बदलते हुए जमाने के साथ समय की कमी और अधिक गति की चाहत के कारण मोटरसाइकिल की ख्वाहिश अब विलासिता की बजाय जरूरत बनती जा रही है। इसके बावजूद गांव-देहात में हैलमेट नहीं पहनने का चलन भी जीवन पर भारी पड़ रहा है। शहरों की तरह सरकार को गांवों में भी दुपहिया वाहन चालकों के लिए हैलमेट पहनने की अनिवार्यता पर सख्ती करनी चाहिए अन्यथा यूं ही हादसे इन 'अभिमन्युओंÓ का बलिदान लेते रहेंगे। हालांकि मौत सबसे बड़ा सच है और इसे झुठलाया नहीं जा सकता, लेकिन जब यह इस तरह आती है तो समझना-समझाना मुश्किल हो ही जाता है।

Wednesday, March 23, 2011

पटरी पर ही निबटेंगे...

जब से सृष्टि की शुरुआत हुई है, तभी से शाश्वत सत्य की तरह प्रवृत्ति और निवृत्ति की परंपरा भी शुरू हो गई। सद्ग्रंथों से लेकर महापुरुषों तक ने समय-समय पर विभिन्न प्रसंगों में इसकी व्याख्या की, लेकिन यहां मेरा उद्देश्य उन उपदेशों की पुनरावृत्ति करना नहीं है। मैं तो सामान्य से मानव प्रवृत्ति की बात कर रहा हूं। पेट भरने की समस्या जितनी ज्वलंत है, शारीरिक प्रक्रिया उसी हिसाब से इसे खाली करने में यदि सक्षम नहीं हो तो आदमी को कई सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। आज यदि हमारे देश में लाखों लोग पेट नहीं भर पाने की समस्या से ग्रसित हैं तो हजारों लोग ऐसे भी हैं जो समय से पेट खाली नहीं होने के कारण वैद्यों-डॉक्टरों की शरण में जाकर भांति-भांति की चूरण-चटनी-पाचक का सेवन करने को बाध्य हैं। मन मुताबिक भोजन मिलने से जितनी संतुष्टि होती है, सुबह-सुबह बिना किसी रुकावट फारिग होने से होने वाला सुख भी उससे कम नहीं होता।
तो बात फिर वहीं आती है कि सृष्टि की शुरुआत से ही पेट भरने के साथ ही निबटना भी मूलभूत आवश्यकताओं में से एक रही है। भारत गांवों का देश है, तो जाहिर सी बात है कि सभी गांवों में दशकों पहले शौचालय नहीं थे, आज भी हजारों गांवों में शौचालय नहीं हैं। शौचालय की सुविधा हो न हो, निबटना तो पड़ेगा ही, सो आदमी ने अपनी सुविधा के हिसाब से विकल्प चुनने शुरू किए होंगे। खेतों से लेकर जंगल तक को उसने निबटने का आश्रय स्थल बनाया। सभ्यता के विकास के साथ पगडंडियां जब कच्ची सड़कों में तब्दील हुई होंगी तो उसके किनारे भी विकल्प के रूप में मनुष्य के सामने आए और उसने इसे बखूबी अपनाया और आज पक्की सड़कों, जीटी रोड, चमचमाती फोर लेन सड़कों के किनारे भी सुबह-शाम निबटने वालों की परेड आसानी से दृष्टिगोचर हो जाते हैं।
अंग्रेजों ने सोने की चिडिय़ा समझकर भारत को भले ही खूब लूटा, लेकिन कई मायनों में उन्होंने विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया। इसी कड़ी में वर्ष 1853 में भारत में पहली रेलगाड़ी चली। रेलगाड़ी चलने से पहले पटरी बिछाई गई और देशवासियों ने ट्रेन का सफर शुरू करने से पहले पटरी के किनारे या पटरी पर बैठकर निबटने का अपना मौलिक कर्तव्य निभाया। बदलते हुए समय के साथ बाकी सब कुछ बदल गया हो, लेकिन यह परंपरा आज भी सुदूर गांव-देहात से लेकर बड़े-बड़े महानगरों तक बखूबी जारी है।
रेल की दोनों पटरी भले ही अलग-अलग चलती हों, लेकिन वे मुसाफिर को उसके गंतव्य तक पहुंचा देती हैं। इसी से साहित्यकारों-व्याकरणाचार्यों ने पटरी बिठाने की बात कही।
भारत में जब स्वतंत्रता संग्राम लड़ा जा रहा था, तब अंग्रेजों का राज था और सात समंदर पार बैठी ब्रिटिश शासन व्यवस्था की कमर तोडऩे के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने रेल की पटरियां उखाड़ीं। भले ही देश स्वतंत्र हो गया, लेकिन तथाकथित आंदोलनकारी आज भी रेल यातायात बाधित करने से ही अपने संघर्ष की शुरुआत करते हैं। हमारे शासकों में भी अब इतना दमखम नहीं बचा कि वे इन आंदोलनकारियों से निबटने की माकूल योजना बना सकें। गुर्जरों ने आरक्षण के लिए राजस्थान में कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के नेतृत्व में रेल की पटरी पर पड़ाव डाला। कई चरणों में हुए इस आंदोलन में उन्हें कुछ उपलब्धि भी मिली और इसका प्रतिफल यह हुआ कि पटरी पर पड़ाव डालना आज रोल मॉडल हो गया है। गुर्जरों के बाद अब जाट समुदाय कई सप्ताह से पटरियों पर रास्ता रोककर बैठा है। सैकड़ों ट्रेनें रोज रद्द हो रही हैं, सैकड़ों को रूट डायवर्ट कर चलाया जा रहा है। इससे हजारों-लाखों यात्रियों को जो परेशानी हो रही है, वह तो है ही, रेलवे को भी प्रतिदिन करोड़ों का नुकसान हो रहा है, लेकिन जाट हैं कि एक ही रट लगाए बैठे हैं...आरक्षण के मसले पर पटरी पर ही निबटेंगे। देखते हैं देश के तथाकथित कर्ता-धर्ता कब तक शेष देशवासियों, विशेषकर रेलयात्रियों की राह कब तक सुगम कर पाते हैं। काश! किसी राजनीतिक दल में यह हिम्मत होती या सभी राजनीतिक दल मिलकर आरक्षण की इस अमरबेल को मिटाने का साहस दिखा पाते जो हमारे देश की प्रतिभा की जड़ों को खोखला कर रही है।

Friday, January 14, 2011

तिलकुट भरबे : मकर संक्रांति पर कर्तव्य निभाने का वादा

आज यानी 14 जनवरी को परंपरागत रूप से देशभर में मकर संक्रांति का त्योहार मनाया गया। वर्षों से यह पर्व नियत तारीख यानी 14 जनवरी को मनाया जाता है। हां, कभी-कभी हिंदी तिथियों में घट-बढ़ या अन्य कारणों से 15 जनवरी को भी लोग मकर संक्रांति का पर्व मनाते हैं। हिंदी पंचांगों के जानकारों के अनुसार इस बार भी दान-पुण्य के लिए 15 जनवरी ही श्रेष्ठतर रहेगा, इसके बावजूद मकर संक्रांति का उल्लास तो 14 जनवरी को ही दिखा।
विशाल भारत देश की विस्तृत भौगोलिक बसावट के साथ ही धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएं और परंपराएं भी प्रत्येक 200-400 किलोमीटर के बाद बदल जाया करती हैं, सो लोगों ने अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार यह पर्व मनाया। पैतृक गांव से दूर रहते हुए आज बरबस ही मकर संक्रांति की बिहार से जुड़ी यादें मानस पटल पर छा गईं। पूस-माघ की तेज सर्दी के बावजूद सभी भाई-बहनों में सुबह सबसे पहले नहाने की होड़ सी मच जाती थी, जैसे कोई मैडल मिलने वाला हो। इसके बाद दादीजी एक कटोरी में भीगा हुआ चावल-तिल और गुड़ लेकर आतीं और एक-एक कर सबकी हथेली पर देकर पूछतीं-तिलकुट भरबे? उनके सिखाए अनुसार ही जवाब में हम 'हांÓ कहते। यह क्रम वे तीन बार दुहरातीं। जब थोड़ी चेतना जगी तो मां से इसके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि इसका मतलब है कि जब वे बूढ़ी होंगी, बीमार होंगी तो उनकी सेवा और उनकी मृत्यु के बाद उनकी मुक्ति के लिए श्राद्ध-तर्पण आदि करने का वादा करना। दादीजी तो नहीं रहीं और पहले अध्ययन और आजीविका के सिलसिले में गांव छूट गया, लेकिन अब मोबाइल फोन ने मां के प्रति अपना वादा निभाने का एक अवसर उपलब्ध कराया है, ताकि उन्हें अपनी ओर से आश्वस्त कर सकूं। पिछले कई वर्षों से यह सिलसिला चल रहा है। मकर संक्रांति के दिन स्नान-पूजा के बाद सबसे पहले घर फोन करता हूं। सबसे पहले वे यही पूछती हैं-तिलकुट भरबे? और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहेगा और संतानें अपनी जन्मदात्री के प्रति अपना कर्तव्य निर्वहन की सीख लेती रहेंगी। नमन उन महापुरुषों को जिन्होंने इस परंपरा की शुरुआत की।