Thursday, May 29, 2008

...आखिर चुप होने का क्या लेंगे लालू


राजनेताओं में सबसे बड़े मसखरे लालू प्रसाद यादव गुरुवार को एक बार फिर मीडिया में छाए रहे। टीवी चैनल वालों को तो बस लालू यादव की बाइट चाहिए, भले उनके बयानों के दुष्परिणाम उनके सूबे के लाखों लोगों को भुगतना पड़े। हां तो लालू जी ने कहा कि वे मुंबई में छठ मनाकर मानेंगे। शाहरुख खान के `क्या आप पांचवी पास से तेज हैं?´ कार्यक्रम में भाग लेने गुरुवार को मुंबई पहुंचे लालूप्रसाद यादव ने राज ठाकरे की धमकियों को दरकिनार करते हुए कहा कि वे मुंबई में ही छठ मनाएंगे। उन्होंने कहा कि छठ पूजा से वे सांस्कृतिक रूप से जुड़े हैं और इस त्यौहार को देश के किसी भी कोने में मनाया जा सकता है।
अब कुछ कड़वी हकीकत पर नजर डालें तो पता चलेगा कि बिहार का बहुत बड़ा तबका लालू यादव (और फिर राबड़ी देवी) के सुशासन के कारण घर-बार छोड़कर दो जून की रोटी के लिए दो सौ से दो हजार किलोमीटर दूर रहने को मजबूर हैं। बिहार के वयोवृद्ध ख्यातनाम साहित्यकार ने कुछ दिनों पहले जनसत्ता में दिए साक्षात्कार में राजकपूर की फिल्म `तीसरी कसम´ का हवाला देते हुए कहा था कि बिहार के लोगों ने घर न लौटने की `चौथी कसम´ खाई हुई है। लालू के शासन में जिनका भला हुआ, उनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक भले ही हो सकती है, लेकिन उन्होंने किन तरीकों से अपना भला किया, यह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। अपहरण-डकैती-रंगदारी का पर्याय बन गया था बिहार। वहां की सड़कों का जो बंटाधार हुआ, उसका अहसास उन लोगों को अवश्य ही हुआ होगा, जिन्होंने वहां यात्रा की हो या फिर चैनलों पर उसके दीदार नहीं हुए हों।
अब आते हैं छठ की बात पर। मैंने पहले भी कभी अपने ब्लॉग में एक बार कहा था और अब भी कह रहा हूं कि छठ न तो बिहार की संस्कृति का परिचायक है और न ही शक्ति प्रदर्शन का अवसर। यह तो भगवान भास्कर के प्रति अटूट आस्था का पर्व है जिसमें केवल और केवल आस्था की ही प्रधानता होती है, दिखावा नहीं। लालू यादव जब मुख्यमंत्री बने तो शायद एकाध बार उन्होंने पटना में गंगा किनारे छठ पर्व मनाया हो, लेकिन जैसे-जैसे उनका रुतबा बढ़ा, वे मास से क्लास होते हुए अपने आवास परिसर में ही पोखर खुदवाकर छठ मनाने लगे और आज तक यह परंपरा जारी है। इतना ही नहीं, उनके शासनकाल में पटना में गंगा की जितनी दुर्गति हुई, वह किसी से छिपी नहीं है। पटना में दिन-ब-दिन गंगा मैया श्रद्धालुओं से दूर होती गई और अब पिछले साल अखबारों में ही मैंने खबर पढ़ी थी कि गंगा की सफाई के लिए भगीरथ प्रयास किए गए।
वैसे भी छठ ऐसा पर्व नहीं है कि किसी पर्यटन स्थल पर जाकर मनाया जाए। सामान्यतया लोग अपने घरों के आसपास स्थित नदियों, नहरों, तालाबों के किनारे ही यह पर्व मनाते हैं। हां, कुछ लोग अवश्य ही बिहारशरीफ के पास स्थित सूर्य मंदिर परिसर में भी छठ पर्व मनाने के लिए जुटते हैं। पर्यटन के लिहाज से कोई किसी स्थान विशेष पर यह पर्व मनाने नहीं जाता। मुंबई में भी वही लोग छठ मनाते हैं जो आजीविका कमाने के सिलसिले में वहां रह रहे हैं। इसमें स्थानीय लोग भी उनकी मदद करते हैं और दशकों से इस पर्व के अवसर पर सौहादॅ बिगड़ने की कोई छोटी भी घटना भी नहीं हुई, क्योंकि व्रतियों और उनके परिजनों का एकमात्र उद्देश्य पूर्ण आस्था से सूर्य-आराधना करना ही होता है।
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे भले ही छठ पर्व को शक्ति प्रदर्शन का परिचायक मानते हों, लेकिन यदि लालू जैसे बड़बोले बात-बेबात उनके बयानों पर प्रतिक्रिया जताना छोड़ दें तो एकतरफा तो कोई बोलने से रहा। फिर राष्ट्र से बढ़कर महाराष्ट्र को मानने वाले राज ठाकरे पर नियंत्रण के लिए कानून भी तो है। लालू जिस तरह बार-बार उनके बयान पर छठ के समय जो होना होगा, हो जाएगा, अब जो पांच-छह महीने बचे हैं, उसमें बार-बार इस तरह के बयान देकर लालू इसे तूल न दें। वैसे भी पिछले दिनों महाराष्ट्र में मनसे की ओर से की गई हिंसक वारदातों के कारण बिहार के जो लोग अपनी रोजी-रोटी छोड़कर मुंबई, पूणे, नागपुर से वापस लौटने को विवश हुए, उनके पुनर्वास के लिए लालू ने कुछ भी नहीं किया होगा, तो फिर उनका क्या हक बनता है कि वे इस तरह के बयान देकर मुंबई और दूसरे शहरों में रह रहे लोगों के भी परेशान होने का रास्ता खोल दें। श्रद्धेय लालू यादव से सादर निवेदन है कि वे अपना मुंह बंद रखें और अनाप-शनाप बोलकर बिहारवासियों के माउथपीस न बनें।

Sunday, May 25, 2008

ये पब्लिक है, सब जानती है...


रविवार का दिन भारतीय जनता पार्टी के लिए खास रहा। करनाटक विधानसभा के चुनाव के परिणाम ने भाजपा को पहली बार दक्षिण के सरोवर में अपने बूते पर कमल खिलाने का सपना साकार कर दिया। इसमें भाजपा की स्ट्रेटजी और नीतियों का कितना योगदान है, यह बहस और शोध का विषय हो सकता है, लेकिन पिछले 10-12 महीनों में करनाटक में जो कुछ हुआ, जनता ने उसे याद रखा और मौका मिलते ही सारा हिसाब चुकता कर दिया। जेडीएस नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा ने धृतराष्ट्र बनकर पुत्रप्रेम का जो नजारा पेश किया था, मतदाताओं ने उन्हें 58 से 28 पर पहुंचाकर उनका कूड़ा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
पिछले कुछ महीनों में एक के बाद एक आए विभिन्न राज्यों के चुनाव परिणामों ने यह साबित कर दिया है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की कितनी दुर्गति हो चुकी है। किसानों की कर्ज माफी में डूबने वाले 71 हजार करोड़ रुपए भी कांग्रेस को डूबने से नहीं बचा सके। कांग्रेस राज में बढ़ी महंगाई ने आम आदमी के मुंह से निवाला छीन लिया है, तो फिर जनता इस पार्टी के नेताओं को माल उड़ाने का मौका कैसे देती। आज ही जयपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज में सुधाकर का कारटून छपा है जिसमें एक आदमी केंद्र में मनमोहन सरकार के चार साल पूरे होने के जश्न पर बेसाख्ता अपनी पीड़ा बयां कर उठता है-हे भगवान, एक साल और है। यह हर आम आदमी की पीड़ा है और इसे किसी भी सूरत में नकारा नहीं जा सकता। आम उपयोग में आने वाली वस्तुओं की कीमतों में जिस प्रकार इजाफा हुआ है, उसे देखते हुए अब कोई शक नहीं है कि यदि सब कुछ सामान्य रहा तो देश की जनता कांग्रेस और उसे बार-बार गीदड़भभकी देकर सत्तासुख भोगने वाली कम्युनिस्ट पार्टी को सबक सिखाकर ही छोड़ेगी। करनाटक की जनता इसलिए भी धन्यवाद की पात्र है कि उसने स्पष्ट बहुमत देकर भाजपा को ताज सौंपा है और गठबंधन सरकार का दु:ख झेलने से मना कर दिया है।
आशा है, भाजपा जनता की अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी और लालकृष्ण आडवाणी का संभावित पीएम से पीएम तक का सफर आसान हो सकेगा। करनाटक की जनता को नई सरकार की बधाई और शुभकामनाएं कि उसके सारे सपने साकार हों और प्रदेश प्रगति के पथ पर अग्रसर हो।

Saturday, May 24, 2008

न आंदोलन का तरीका बदला न सरकारी रवैया


अक्षरज्ञान के साथ ही बच्चों को स्वाधीनता की लड़ाई के किस्से सुनाए जाते हैं, इन्हें प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाता है। साहित्यकारों ने स्वतंत्रता संग्राम पर सैकड़ों कविताएं, कहानियां, नाटक, उपन्यास आदि लिखे हैं। फिल्मकारों ने भी इस पर दर्जनों फिल्में बनाई हैं।
उस दौर में जब अंग्रेजों की हुकूमत थी, आंदोलनकारियों का एकमात्र लक्ष्य उनकी दासता से मुक्ति पाना था। इस दौरान स्वतंत्रता सेनानियों का उद्देश्य फिरंगी सरकार की संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर उसे कमजोर करना भी होता था। इसके जवाब में ब्रिटिश सरकार के अफसर स्वतंत्रता सेनानियों को दंडित करने के साथ आम आदमी पर भी कहर बरपाने से नहीं हिचकते थे। जालियांवाला बाग में जो कुछ हुआ, उसे भुलाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। कुल मिलाकर आमने-सामने की स्थिति होती थी। न आंदोलनकारियों को सरकारी संपत्ति को नुकसान करने से गुरेज होता था, न अंग्रेज सेना को दर्जनों भारतीयों को एक साथ गोलियों से भून देने या उन्हें घोड़ों से रौंद डालने में कोई झिझक।
आज हमारा देश स्वतंत्र है और आजाद देश के लोगों की अपनी-अपनी अपेक्षाएं हैं। हर किसी की अपेक्षाओं को पूरा करना सरकार के वश में भी नहीं है, सो आए दिन आंदोलन होते ही रहते हैं। शुक्रवार 23 मई से राजस्थान में गुर्जर समाज खुद को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने को लेकर आंदोलन शुरू किया है। आंदोलनकारियों ने सबसे पहले रेलमार्ग को अपना निशाना बनाया और डेढ़ किलोमीटर तक पटरियां उखाड़ दीं। इलेक्ट्रिक लाइन और सिग्नलों को तोड़ दिया। सरकारी बसों को भी नुकसान पहुंचाया। अब इन आंदोलनकारियों को कौन समझाए कि जिस राष्ट्रीय संपत्ति को वे नुकसान पहुंचा रहे हैं, उसे उनकी और उनके अन्य भाई-बंधुओं की जेब से ही सही किया जाएगा। इससे आम जनता को जो परेशानी हुई, वह तो अलग मुद्दा है।
अब इसके दूसरे पहलू पर आते हैं। 23 मई को पुलिस गोलीबारी में 17 गुर्जरों की मृत्यु हो गई और 24 मई को भी अब तक 21 गुर्जरों की मौत की खबर है। जिनकी मौत हुई है, वे भी भारतभूमि की ही संतान थे और इस तरह उनका मारा जाना किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। सरकारी तंत्र यह क्यों नहीं समझ पाता कि समस्याओं के समाधान के लिए और भी तरीके हैं।
वैसे भी जो लोग सत्ता में आ जाते हैं, उनका उद्देश्य येन-केन प्रकारेण उसे बचाए रखना होता है। रा’य या राष्ट्र की मूलभूत समस्याओं का समाधान उनके एजेंडे में नहीं होता, यही कारण है कि आजादी के छह दशकों बाद भी हमारे देश में समस्याओं का अंबार लगा हुआ है।
कभी सुना था कि लोकतंत्र में `मुंह खुला और मुट्ठी बंदं ही आंदोलन का सबसे तरीका होता है। जनशक्ति यçद इस तरह खाली हाथ विरोध करे तो सरकार को झुकना ही पड़ता है, लेकिन यह भी बदकिस्मती है कि आंदोलनकारी भी हथियारों से लैस होते हैं और पुलिस पर हमला करने से नहीं हिचकते। खाकी का तो कोई खौफ ही नहीं रहा। आंखों के सामने अपने साथी का कत्लेआम देखकर पुलिस तंत्र भी विवेक खो देता है और उसके बाद जो होता है, वह सबके सामने है। इस पर अफसोस जताने के अलावा कुछ भी नहीं किया जा सकता।
आरक्षण की आग ने अब तक जितना नुकसान कर दिया है, वह तो जगजाहिर है। अब सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि अपने स्वार्थ को भूलकर राष्ट्रहित में इस व्यवस्था को समाप्त करें और ईमानदारीपूर्वक उन सभी बच्चों को बेहतर से बेहतर पढ़ाई की सुविधाएं सरकार की तरफ से उपलब्ध कराई जाएं ताकि वे अपनी किस्मत के साथ राष्ट्र के विकास में भी हाथ बंटा सकें। आखिर कब तक हम वणॅभेद-और वगॅभेद की सीमारेखा खींचते रहेंगे।

Tuesday, May 13, 2008

... मंदिर मत जइयो, जा सकती है जान

मंगलवार शाम करीब पौने आठ बजे, ऑफिस आने के बाद काम शुरू ही किया था कि शहर के परकोटे से ही किसी परिचित मित्र का फोन आया- आपको पता है, शहर में कहीं बम ब्लास्ट हुआ है। अखबार में काम करने का यह दुखद पहलू है कि अफसोसजनक खबरों की तहकीकात करने के लिए लोग सबसे अखबार के दफ्तर में ही फोन करते हैं। खैर, साथी क्राइम रिपोर्टर से पूछा तो उसने भी कहा, हां, ऐसा कुछ हुआ तो है। इसके बाद तो स्थानीय लीड न्यूजपेपर राजस्थान पत्रिका की वेबसाइट और टीवी चैनलों पर बस यही ब्रेकिंग न्यूज थी- जयपुर में सीरियल बम ब्लास्ट। सुदूर पूर्व और दक्षिण से दो-चार प्रियजनों ने मेरी भी कुशलक्षेम पूछी, इस बीच मोबाइल और टेलीफोन भी दम तोड़ने लगे थे।
शांति की प्रतीक मानी जाने वाली छोटी काशी के नाम से प्रसिद्ध धर्मपरायण लोगों की गुलाबीनगरी दर्जनों निरदोष लोगों के खून से लाल हो चुकी थी। एक के बाद एक हुए आठ धमाकों ने शहर को हिलाकर रख दिया। मंगलवार हनुमानजी का प्रिय दिन माना जाता है और अधिकतर विस्फोट हनुमान मंदिरों के पास ही हुए। शाम का समय था सो मंदिरों में संध्या आरती के समय बजरंगबली के दर्शनों के लिए भीड़ थी ही, और मरने वालों में अधिकतर वे ही थे जो `मंगलमूरति मारुति नंदन । सकल अमंगल मूल निकंदन ।।´ की कामना लेकर पवनपुत्र हनुमानजी के दर्शनों के लिए गए थे और कभी न लौटने वाली यात्रा के राही बन गए। मंगलवार को हुए इस अमंगल से हर किसी का दिल दहल गया। कई घायलों की स्थिति ऐसी है जो जिंदा होने के बावजूद जीवनभर आज के इस दुखद दिन को कोसते रहेंगे। जिनके अपने सदा के लिए बिछुड़ गए, उनका दंश भी क्या कभी खत्म हो सकेगा।
सरकारों को क्या कोसें, ये तो कछुए की खाल की तरह हैं जिनपर कोई असर ही नहीं होता। प्रशासन यदि चाक-चौबंद हो और पुलिस का दृढ़ व ईमानदार आत्मबल हो तो ये आतंकवादी तो गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाएंगे, लेकिन जब हमारी सरकार ही आतंकवाçदयों को काबू में रखने वाले कानून `पोटा´ को नख-दंतहीन बना दे, अफजल गुरु जैसे दरिंदों को फांसी पर महीनों रोक लगाई जाए, राजनीतिक आका उसके पक्ष में भी पैरवी करने को आतुर हों तो किससे रक्षा की उम्मीद करे। आतंकवादियों के निशाने पर आस्था के स्थल ही रहते हैं, विशेषकर वह तिथि या अवसर जब श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है। गुजरात के अक्षरधाम, अजमेर दरगाह सहित कई आराधना स्थलों पर हुए इस बात की गवाही देते हैं। ऐसे में तो रामचरितमानस में भगवान शंकर के मुंह से कही गई तुलसी बाबा की यह चौपाई याद आती है - `हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम से प्रगट होहिं मैं जाना´...। हम सभी ईश्वर का निवास अपने दिल में मानते हुए अंत:करण से उनका स्मरण करते रहें। इसे कुछ आसान शब्दों में कहूं तो फिल्मी गाने `तू मैके मत जइयो, मत जइयो मेरी जान´ में थोड़ा फेरबदल कर ऐसे कह सकता हूं -`तू मंदिर मत जइयो, जा सकती है जान´।

Sunday, May 11, 2008

हैंडल द चिल्ड्रन विद `टीपी´ एंड `बीके´


`बचपन के दिन भी क्या दिन थे...´, `बचपन हर गम से बेगाना होता है...´, `नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए...´ `लकड़ी की काठी, काठी का घोड़ा, घोडे़ की दुम पर जो मारा हथौड़ा...´ सरीखे गीत वयस्कों ही नहीं, बड़े-बड़ों की भी जुबान पर बरबस आ जाया करते हैं। हो भी क्यों न, बचपन से जुड़ी मधुर यादें इतनी सुखदायी होती हैं कि मन उसके पास आकर ठहर-ठहर जाता है। घर में जब किसी बच्चे की किलकारी गूंजती है तो पूरा परिवार चहक उठता है। इसके बाद तो माता-पिता बच्चे के दिन-प्रतिदिन के विकास को देख-देख कर फूले नहीं समाते। (आजकल चूंकि एकल परिवार का चलन बढ़ गया है, इसलिए सारे परिजनों का जिक्र नहीं कर रहा)। ऐसे परिवारों में पति-पत्नी के बीच बच्चे का विकास, पहला दांत निकलना, बोलना, पहली-पहली बार उसका बैठना, खड़ा होना, चलना ही चर्चा का विषय हुआ करता है। उनकी अपेक्षा के अनुसार यदि बच्चे के विकास में कोई कोर-कसर बाकी रह जाती है तो आज की युवा पीढ़ी डॉक्टर के पास जाने में भी जरा सा देर नहीं लगाती। (दादी-नानी के नुस्खे तो कहां से मिलें)।
बच्चा जब थोड़ा-बहुत बोलना, चलना सीख जाता है तो उसे मैनर्स सिखाने की होड़ भी शुरू हो जाती है। इन मैनर्स को सीखने में बच्चा थोड़ी भी कोताही बरतता है तो मां-बाप का क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुंचता है। विशेषकर जब बच्चे के साथ वे किसी के घर जाते हैं या फिर कोई मेहमान उनके घर आता है तो बच्चे की तो मानो शामत ही आ जाती है।
कुछ दिन पहले मैं अपने बेटे के साथ सपत्नीक एक भाभीजी के यहां गया था। न तो मुझमें ऐसे संस्कार हैं कि मैं बच्चे को मैनर्स सिखाऊं लेकिन बार-बार होने वाली सरदी-जुकाम-खांसी के भय से आइसक्रीम और कोल्ड ड्रिंक्स से परहेज का पाठ अवश्य ही पढ़ाना पड़ता है। वहां भी कुछ ऐसा ही हुआ। भाभीजी बच्चे के लिए आइसक्रीम लाईं, तो वह मेरी ओर देखने लगा। भाभीजी के पूछने पर मैंने स्पष्टीकरण दिया कि मैंने बच्चे पर कोई पाबंदी नहीं लगा रखी है और गर्मी के मौसम में मौसमी परेशानियों से मुक्त बच्चा मजे से आइसक्रीम का आनंद ले सकता है। इस पर भाभीजी ने अपनी बहन का संस्मरण सुनाया। उनकी बहन-बहनोई खुद भी काफी अनुशासित हैं और अपने बच्चों को भी उन्होंने अनुशासन का अच्छा खासा पाठ पढ़ाया है। इसके लिए उन्होंने दो कोड वर्ड का ईजाद किया है। इसका लाभ दूसरे भाई भी उठा सकें, सो मैंने सोचा कि इसे ब्लॉग पर डाल दिया जाए।
जी हां, ये दो कोड वर्ड हैं `टीपी´ यानी टूट पड़ो और बच्चे यदि वाकई दायरा तोड़कर टूट पड़े तो `बीके´ यानी बस करो। इस तरह बच्चे की स्वच्छंदता भी बनी रहे और माता-पिता के अहं को भी तथाकथित रूप से ठेस नहीं लगे। बाकी आदर्श परिस्थितियों में तो सहमे हुए रहना तो बच्चों के स्वभाव में ही शामिल हो गया है, लेकिन थोड़ा सा खुला आसमान तो मिले। नुस्खा अच्छा लगे तो अपनाएं अन्यथा यथास्थिति बनाए रखने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। धन्यवाद।

Saturday, May 3, 2008

जरा याद हमें भी कर लो...

आज बहुत ही निजी बातें, ...हालांकि पहले भी सार्वजनिक अनुभवों से ज्यादा स्थान व्यक्तिगत अनुभव ही घेरते रहे हैं, लेकिन चूंकि कई लोग ब्लॉग को ऑनलाइन डायरी के रूप में परिभाषित करते हैं, सो आज यहां विचार नहीं, नितांत व्यक्तिगत अनुभव या कहें पीड़ा प्रस्तुत हैं, जिन्होंने मुझे-मेरे अंतर्मन को आहत किया। दुनिया चूंकि बहुत बड़ी है....इसलिए इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ और लोगों का अनुभव भी मेरे अनुभव के इदॅ-गिदॅ रहा हो।
बचपन में दोस्तों की लंबी फेहरिस्त होती है, और उम्र बढ़ने के साथ-साथ इसकी छंटाई होती रहती है। मेरे बचपन में काफी दोस्त थे, जिनमें से दो को मैं अपने अधिक नजदीक महसूस किया करता था। दोनों के घर अपेक्षाकृत दूर थे, सो हमारा साथ स्कूल तक ही सीमित हुआ करता था, लेकिन यह साथ इतनी ऊर्जा भर देता था कि चौबीसों घंटे साथ न होने का मलाल नहीं होता था। बदलते हुए समय के साथ हमारे अध्ययन के क्षेत्र ही नहीं बदले, कार्यक्षेत्र भी बदल गए। एक मित्र अपने गृहजिला मुख्यालय पर हैं, सो सबसे अधिक हमारी जननी-जन्मभूमि-माटी से जुड़े हैं। मैं घर से तकरीबन 35-36 घंटे की दूरी पर हूं और तीसरा दोस्त लंदन में इंजीनियर की नौकरी बजा रहा है। अपनी संपन्नता और सुविधा के कारण वह संभवत: इन घंटों में मुझसे ज्यादा नजदीक है।
यह तो भौगोलिक दूरी की बात है, दोनों मित्रों से मानसिक और भावनात्मक दूरी मैंने कभी महसूस नहीं की। एसटीडी के बावजूद अपने जिला मुख्यालय वाले दोस्त से महीने में एकाध बार बात हो ही जाती है (पहल चाहे जिधर से हो) और विदेश रहने वाला दोस्त शनिवार-रविवार को फोन करना शायद ही कभी भूलता हो।
अभी पिछले दिनों अपने जिला मुख्यालय वाले दोस्त को फोन किया तो उसने बताया कि वह अपने भतीजे के शादी समारोह में है। मैंने जब पूछा कि भाई, शादी थी तो बताते तो सही? इस पर उसने जो जवाब दिया वह मुझे मर्माहत कर गया। उसका कहना था कि यदि मैं तुझे पहले बताता तो क्या तुम आ ही जाते?
अब मैं उसे क्या बताता? सन्न सा रह गया मन मसोसकर, लेकिन उस बातचीत के पांच-छह दिन बाद भी मेरा मन बार-बार मुझे कचोटता रहता है। उसके बाद दुबारा भी उससे बात हुई, शादी सकुशल संपन्न होने की खबर दी उसने, लेकिन मेरे मन का गुबार है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। सो मैंने सोचा, दिल की आग पर ब्लॉग के माध्यम से ही कुछ ठंडे छींटे खुद ही डाल लूं। शायद करार आ जाए।
ऐसे मित्रों से मैं यही पूछना चाहता हूं कि हमारे पूर्वजों ने जो परंपराएं बनाई हैं, क्या वे महज खानापूर्ति के लिए हैं, और यदि ऐसा ही है तो हम लकीर पीटने की तर्ज पर उनका पालन क्यों करते हैं। हालांकि मुझे घर छोड़े हुए लगभग ढाई दशक हो चुके हैं, लेकिन परंपराओं को मैं आज भी नहीं भूला हूं, उन्हें आत्मसात करने की भी भरसक कोशिश करता हूं।
जहां तक मुझे याद आता है, हमारे यहां ऐसी परंपरा है कि घर में कोई शुभ कार्य हो तो कुलदेवता, ग्रामदेवता, पूर्वजों के साथ-साथ असंख्य देवी-देवताओं को निमंत्रण çदया जाता है। कोशिश होती है कि जिनसे मनमुटाव या थोड़ी-बहुत दुश्मनी भी है, उन्हें भी मांगलिक कामों में शामिल होने के लिए निमंत्रित करें। शादी-उपनयन से महीनों पहले महिलाएं गीतों के माध्यम से पूर्वजों और देवी-देवताओं के नाम ले-लेकर उनसे यज्ञ (वहां शादी-विवाह को आम बोलचाल की भाषा में यज्ञ ही कहते हैं) में शामिल होने का आह्वान करते हैं। यह हमारे विश्वास का ही प्रतिफल हुआ करता है कि हम मान लेते हैं कि सबकी उपस्थिति से ही यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न हो गया। अब इसकी तो कोई गारंटी नहीं मांगता कि हमने जिन देवताओं और पूर्वजों को बुलाया, उनके आने का प्रमाण-पत्र दिखाओ। यदि उनके साथ ऐसा नहीं है तो फिर दूर बैठे मित्रजनों के लिए दूरी बरतने का क्या प्रयोजन? किन्हीं मजबूरियों के चलते कोई आपसे दूर चला गया तो इसका मतलब यह तो नहीं कि उसे आप अपनी जिंदगी, अपने सुख-दुख से निकाल बाहर कर दो। ...आप यदि ऐसा कर भी देते हो और जिसे देश-प्रदेश से बाहर होने के कारण आपने दिल-निकाला दे भी दिया, लेकिन वह अपने दिल से आपको न निकाल पाए....तो इसका कोई प्रतिकार है आपके पास। सो यही निवेदन है....जरा याद हमें भी कर लो.....।