Friday, June 20, 2008

फ्राइडे को भेजा फ्राई

बड़ी बहन शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत रखती थी, इस कारण घर में खटाई, नींबू आदि के उपयोग की पूरी तरह मनाही होती थी। बाल मन न चाहते हुए भी प्रतिबंध मानने को मजबूर हुआ करता था क्योंकि ऐसा न करने पर प्रसाद से वंचित होना पड़ता था। स्थिति कुछ वैसी ही हुआ करती थी जैसी आजकल मलाई मारने की मजबूरी में वामपंथियों की यूपीए सरकार को समर्थन देने की है। बहन की मनोकामना पूरी होने के बाद उसने व्रत का उद्यापन कर दिया और शादी के बाद अब यदि दुबारा करती भी होगी तो उपरोक्त प्रतिबंध उसके ससुराल में ही लागू होते हो रहे होंगे।
घर में संतोषी माता के व्रत का उद्यापन हो जाने के बाद हमारे लिए सप्ताह के सारे दिन एक समान हो गए थे, लेकिन पिछले कुछ हफ्तों से शुक्रवार ने एक बार फिर से दिल का सुकून और दिमाग का चैन छीन लिया है। ऐसा लगता है कि शनिवार से एक दिन पहले ही शनि की ढैया और साढ़े साती का प्रकोप एक साथ प्रभावी हो गया हो। महान अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने जब से प्रधानमंत्री की गद्दी संभाली है, आम आदमी के लिए दो वक्त की दाल-रोटी का जुगाड़ कर पाना मुश्किल हो गया है। दिन-ब-दिन बढ़ती महंगाई के कारण आदमी अपनी आवश्यकताओं को सिकोड़ने को बाध्य हो गया है। हाउसिंग लोन पर बढ़े ब्याज दरों ने लोगों को किराये के घरों में सिर छुपाने को बाध्य कर दिया है। रही -सही कसर पिछले दिनों पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोतरी ने पूरी कर दी है। हर सामान की कीमत बढ़ गई है। जनकल्याणकारी सरकार के मुखिया अरण्यरोदन कर रहे हैं। लोगों की जेब तो महीनों क्या, सालों से महंगाई की मार झेल ही रही थी, शुक्रवार यानी 20 जून को घोषित (7 जून को समाप्त हुए सप्ताह के लिए) मुद्रास्फीति की 11.05 प्रतिशत दर ने जैसे उसका पोस्टमार्टम रिपोर्ट सार्वजनिक कर दिया। इसके बावजूद हमारे वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के एफएम पर एक ही धुन बजता रहता है-`महंगाई रोकने के प्रयास किए जाएंगे´। आज भी वे यही पुराना राग अलाप रहे थे। वे क्या प्रयास करेंगे और उनके प्रयास क्या रंग लाएंगे, यह तो आने वाला समय बताएगा, लेकिन अब तक के कटु अनुभव से तो यही सच समझ में आता है कि जब से यूपीए सरकार सत्ता में आई है, उसने महंगाई बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महंगाई का ठीकरा राज्य सरकारों के सिर फोड़ दिया। सोनिया ने उज्जैन में प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना कर महाकाल से आगामी विधानसभा चुनाव (और आसन्न लोकसभा चुनाव में भी) में विजय का आशीर्वाद मांगा। 1.51 लाख रुपए की एक स्वर्ण शिखर दान देने की भी घोषणा की। उन्होंने अपने आज्ञाकारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बचाव करते हुए राज्य सरकारों पर मुनाफाखोरों तथा जमाखोरों के खिलाफ सख्ती से कारüवाई नहीं करने का आरोप लगाया। सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती हुई महंगाई के कारण जनता की दुर्गति का असली जिम्मेदार कौन है, इसका जवाब तो आने वाले चुनाव में जनता दे ही देगी, लेकिन तब तक यूपीए सरकार उसका कितना कचूमर निकालेगी, यह सोचकर भी डर लगता है।
ज्ञानी लोग कह गए हैं-चादर देखकर पांव पसारना चाहिए, लेकिन अब तो चादर की साइज घटती-घटती रूमाल सी हो गई है, उससे सिर ढंक जाए, वही काफी है, आपादमस्तक शरीर को ढंकने की तो उम्मीद करना ही बेकार है।
अब तो संतोषी माता से ही प्राथॅना है कि मनमोहनी सरकार को सद्बुद्धि दें कि वह महंगाई पर काबू पा सके या फिर आम आदमी के संतोष का सेंसेक्स इस स्तर पर ला दें कि उसे किसी चीज की चाहत ही नहीं रहे-रोटी-कपड़ा और मकान की भी नहीं। अन्यथा अब तक तो विदभॅ व अन्य स्थानों के किसान ही आत्महत्या करने को बाध्य थे, अब हर आदमी महंगाई की मार से मुक्ति पाने के लिए कहीं मौत को गले लगाने को मजबूर न हो जाए।

Wednesday, June 18, 2008

...कनॅल ने थाम लिया झुनझुना


छब्बीस दिनों के बाद आखिरकार बुधवार 18 जून को गुर्जर आरक्षण आंदोलन का पटाक्षेप हो गया। इससे पहले मंगलवार को मानसून गुलाबीनगर को तर-बतर कर गया। इधर इंद्रदेव मेहरबान हो रहे थे, उधर मोहतरामा वजीरे आला वसुंधरा राजे एक तीर से कई शिकार करने की अपनी साध पूरी करने में लगी थीं। उन्होंने गुर्जरों को अतिपिछड़ा वर्ग में चार से छह प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा के साथ ही सवर्ण समाज को भी आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के संकेत दे दिए। ब्राह्मणों के साथ ही राजपूत, कायस्थ व सवर्ण समाज की अन्य जातियों ने पहले से ही अपने इरादे जता दिए थे कि आर्थिक आधार पर आरक्षण लिए बगैर वे नहीं मानेंगे। डॉ. किरोड़ीलाल मीणा ने भाजपा से इस्तीफा देकर मीणा समाज में अपना कद बढ़ाने के साथ ही सरकार को भी स्पष्ट कर दिया था कि यदि जनजाति आरक्षण से छेड़छाड़ की गई तो इसके दूरगामी घातक परिणाम हो सकते हैं। तय है कि वसुंधरा राजे राजनीति के साथ कूटनीतिक बिसात पर भी चाल चलने से पहले आराम से हर पहलू पर सोचती रहीं और जैसा कि होता है एक सीमा के बाद आदमी हारता भी है, थकता भी है। आरक्षण आंदोलन से गुर्जरों के सबसे बड़े नेता होकर उभरे कनüल किरोड़ी सिंह बैंसला ने ना-नुकर करते हुए हेलीकॉप्टर की सवारी और पिंकसिटी के होटल तीज में वीवीआईपी ट्रीटमेंट के बाद एसटी में चिट्ठी की सिफारिश के राग को भुलाकर सरकार की पेशकश को स्वीकार कर लिया।
अब सवाल यह उठता है कि कनॅल को यदि यही फैसला मंजूर करना था, यदि उनका साध्य इतना तुच्छ था तो गुर्जर समाज के दर्जनों नौजवानों की बलि उन्होंने क्यों ली। 27 दिनों तक दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग पर हजारों लोगों के साथ तंबू लगाकर लाखों लोगों की यात्रा का कार्यक्रम रद्द कराने के पीछे उनका क्या मकसद था। महज यही तो नहीं कि यह समय खेतीबाड़ी का नहीं होता, सो अपने भाई-बंधुओं के साथ पटरी पर पिकनिक मनाएं। यदि वाकई उनमें सोद्देश्य आंदोलन करने और लंबे समय तक इसकी कमान थामे रखने का माद्दा था तो फिर उन्हें अपना यह जीवट भारतीय समाज में कोढ़ बनी आरक्षण की व्यवस्था को ही समूल नष्ट करने के लिए प्रयास करना चाहिए था। हां, गुर्जरों के साथ ही समाज के अन्य दलितों-वंचितों को शिक्षा तथा अन्य सुविधाएं मुहैया कराने का आंदोलन यदि वे चलाते और इसमें भले ही कितना भी बलिदान देना पड़ता, वे भारतीय इतिहास में अमर हो जाते। अभी तो गुर्जर आंदोलन का जिस तरह से पटाक्षेप हुआ है, जैसे-जैसे सरकार से मिले झुनझुने के बोल लोगों की समझ में आएंगे, वे अपने समाज में भी तिरस्कृत और बहिष्कृत हो जाएंगे। जिन अबोध बच्चों के पिता इस आंदोलन में अकाल काल कवलित हो गए, जिन बहनों की आंखें अभी दो माह बाद और फिर हर साल रक्षाबंधन पर भाई की अंतहीन इंतजार करने को मजबूर हो गईं, जिन ललनाओं का सुहाग उजड़ गया वे क्या कभी अपने ददॅ को भुला पाएंगी। संभव है कि कभी अकेले में कनॅल की आत्मा भी नौजवानों के बलिदानों के लिए उन्हें धिक्कारे। कुल मिलाकर तथ्य यही है कि छोटी उपलब्धियों के लिए बड़े स्तर पर इस तरह जनमानस को उद्वेलित और आतंकित करने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए। वक्त सबको आईना दिखा देता है और समय का इंसाफ अंतत: स्वीकार करना ही पड़ता है। आशा करना चाहिए एक समय अवश्य आएगा जब आरक्षण की कोढ़ से हमारे समाज को हमेशा के लिए निजात मिल जाएगी।

Saturday, June 14, 2008

चिट्ठी आई थी...आती नहीं...फिर आएगी

इंदिरा गांधी एक बार कश्मीर के टूर पर गई थीं और वहां के रमणीक वातावरण से सम्मोहित और उल्लसित होकर अपने पिता जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखा। उसमें कुछ शब्द थे- `काश! ये शीतल मंद पवन के झोंके मैं आपको भेज पाती´। इसके जवाब में नेहरू ने लिखा- `...लेकिन वहां इलाहाबाद का लंगड़ा आम (जिसे मालदह भी कहा जाता है) नहीं होता।´
आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हुआ कि ब्लॉग पर मैं अपने मन की बात करने की बजाय इन विभूतियों के पत्रों का जिक्र करने लगा। तो सचाई बता दूं कि न तो इंदिरा-नेहरू के प्रति मेरा कोई पूर्वाग्रह युक्त सम्मान उमड़ पड़ा है न ही कश्मीर की वादियों और लंगड़ा आम की मिठास से मैं आपको रू-ब-रू कराना चाहता हूं।
हुआ यूं कि ऐतिहासिक नगर वैशाली में अवस्थित शिक्षक मित्र के पुत्र का आज जन्मदिन था। सुबह करीब साढ़े आठ बजे बच्चे को बधाई देने के लिए फोन किया। पूछने पर उसने बताया कि पापा अभी भी बिस्तरों में ही हैं। मैंने जब मित्र से कारण पूछा तो उन्होंने उपरोक्त संदर्भ को रेखांकित करते हुए कहा कि जेठ में ही सावन की झड़ी लगी हुई है, ऐसे में बाहर निकलकर भी क्या करूं, सो बिस्तर में लेटकर ही मौसम का लुत्फ उठा रहा हूं। रिमझिम मेघ मल्हार और शीतल मंद बयार के झोंके तो वे चाहकर भी मुझे नहीं भेज सके, लेकिन मुझे उनकी किस्मत से रस्क जरूर हुआ कि सुहाने मौसम के साथ लंगड़ा आम का दोहरा आनंद वे उठा रहे हैं।
अब आता हूं उस मुद्दे पर जिसने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया। जैसा कि मैंने पहले भी कहीं जिक्र किया था कि आजकल कई बार ऐसा लगता है जैसे लिखने के खिलाफ कोई साजिश या अभियान चल रहा हो। हर जगह ऐसी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं कि बिना लिखे, महज बोलने से या फिर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से आपका काम चल जाए। ऐसे में आपस में राफ्ता कायम करने का सबसे महत्वपूर्ण साधन फोन (मोबाइल या लैंडलाइन) ही है। पत्रलेखन की तुलना में इसमें समय और धन दोनों ही अधिक खर्च होता है लेकिन वह तसल्ली या आत्मसंतुष्टि नहीं मिल पाती जो कभी पत्र लिखने के बाद या फिर मिलने से हुआ करती थी। बरसों बाद प्रियजनों के पत्र आज भी लोगों ने सहेजकर रखे हुए हैं और उन्हें बार-बार पढ़कर जो सुखद अहसास होता है, उसका तो कहना ही क्या? पत्र लिखते समय हमारे पास कई सारे विकल्प खुले होते हैं। मसलन कोई शब्द या अंश पसंद नहीं आया या माफिक नहीं लगा तो आप उसे हटा सकते हैं, उसके स्थान पर मनमाफिक शब्द का प्रयोग कर सकते हैं। फिर, पत्र लिखते समय ऐसी जल्दबाजी या प्रत्युपन्नमतित्व (ultra presence of mind) की जरूरत नहीं होती जो अमूमन फुनियाते समय हुआ करती है। पत्रोत्तर लिखते समय भी जो सहज प्रवाह हुआ करता है कि एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति को अपने प्रियजन के साथ जीते हुए आप उसके सामने अपनी उपस्थिति का आभास कराने के लिए स्वतंत्र होते हैं। फ्लैश बैक में जैसे सारी पुरानी घटनाएं चलती रहती हैं। फोन चाहकर भी ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं करा सकता, भले ही उसमें वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा क्यों न हो। इतना ही नहीं, आपके पास इसके बाद के जेनरेशन की ऑनलाइन चैटिंग की सुविधा उपलब्ध हो, तो भी आप पत्राचार का सुखद अहसास महसूस नहीं कर सकते।
जमाना आधुनिकता का है। गुजरे दौर की बात करना बेमानी होगी, फिर भी आशा तो कर ही सकता हूं कि जब भी समय मिले, हमें अपने प्रियजनों को विशेष अवसरों पर पत्रों का तोहफा अवश्य ही देना चाहिए। अवश्य ही वह दौर आएगा जब हम उम्मीद करेंगे कि चिट्ठी आएगी...आएगी....जरूर चिट्ठी आएगी।

Monday, June 2, 2008

आरक्षण व्यवस्था का भी हो पोस्टमार्टम

पूरी मरुधरा 23 मई से गुर्जर आरक्षण आंदोलन की आग में झुलस रही है। इस दौरान पुलिस फायरिंग में 23 और 24 मई को करीब 39 आंदोलनकारियों की मौत हो गई। इस आंदोलन के कर्णधार कनॅल किरोड़ी सिंह बैंसला के साथ गुर्जर समाज के हजारों लोग सिकंदरा और पीलू का पुरा में अपने परिजनों के शवों के साथ पड़ाव डाले बैठे रहे। उनकी मांग थी कि पड़ाव स्थल पर ही पोस्टमार्टम किए जाएं। अंतत: सरकार उनकी मांगों पर झुकी और सोमवार को शवों के पोस्टमार्टम किए गए। आंदोलनकारियों की संख्या चूंकि हजारों में है और भीड़ के भेजे को समझना आसान नहीं होता, इसलिए अभी भी यह कहना आसान नहीं है कि इन मृतकों का अंतिम संस्कार मंगलवार को या एक-दो दिन में हो ही जाएगा। मृतकों के परिजनों को सद्बुद्धि आए तो हो सकता है कि वे अपने प्रियजनों की माटी की ऐसी `माटी´ न होने दें तथा अंतिम संस्कार के लिए राजी हो जाएं। हालांकि इसकी उम्मीद करना बेमानी होगी कि मृतकों के पंचतत्व में विलीन होने के साथ यह आंदोलन भी खत्म हो जाए। अभी तक गुर्जर समाज के लोगों के जो तेवर दिख रहे हैं, उससे लगता है कि तीन दर्जन से अधिक युवाओं की मौत के बाद भी उनका जोश ठंडा नहीं पड़ा है और वे किसी भी हद तक कुरबानी के लिए तैयार हैं।
जो भी हो, यह संतोष का विषय है कि 10-11 दिन बाद ही सही, शवों का पोस्टमार्टम हो गया, अन्यथा उनकी तो दुर्गति ही हो रही थी। हर किसी का शव तो लेनिन की तरह नहीं होता, जिसे दशकों तक सुरक्षित रखा जा सके। आजादी के बाद जब हमारे नेताओं ने आरक्षण की व्यवस्था की थी तो उन्हें भी इसका भान नहीं रहा होगा कि आने वाले सालों में उनके उत्तराधिकारी इसकी मूल भावना को ही भूलकर बस वोटों की राजनीति के लिए इसका उपयोग करते रहेंगे। आजादी के छह दशकों बाद अब समय आ गया है जब पूरी आरक्षण प्रणाली पर विचार किया जाना चाहिए और हो सके तो राष्ट्रहित को सरवोपरि मानते हुए इस बीमारी को हमेशा के लिए खत्म ही कर दिया जाना चाहिए। समाज में जो वंचित-शोषित और दलित हैं, उन्हें सुविधाएं मुहैया कराने से किसी को एतराज नहीं होगा। बिना किसी जातिभेद के दलितों-शोषितों के बच्चों को पढ़ाई-लिखाई की अच्छी से अच्छी सुविधा उपलब्ध कराई जाए, जिससे वे समाज और शासन व्यवस्था में अपनी योग्यता के बल पर उच्च पदों पर आसीन हो सकें। इस पर हजारों करोड़ रुपए भी खर्च हों तो किसी को आपत्ति नहीं होगी। वैसे भी जब हमारी मनमोहनी सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का चित्त प्रसन्न हुआ और उन्होंने पहले 60 और फिर बाद में 71 हजार करोड़ रुपए किसानों की कर्जमाफी के लिए हवन कर çदए तो कौन क्या कर सका। ऐसे स्थानों का चयन किया जाए जहां वंचित-शोषित और दलितों की संख्या अधिक है तथा उन्हीं स्थानों पर उनके रहन-सहन और शिक्षा के बेहतर से बेहतर संसाधन उपलब्ध कराए जाएं।
आज आरक्षण की आंच धीरे-धीरे संपूर्ण भारतवर्ष को अपनी चपेट में ले रही है, जिसे भी देश से थोड़ा भी लगाव है, वह इस समस्या के इस तरह के समाधान को स्वीकार करने से नहीं हिचकेगा। राजनेताओं को व्यक्तिगत और दलगत हितों से ऊपर उठकर एक बार देशहित में सोचना ही पड़ेगा, अन्यथा आने वाली पीढ़ियां उन्हें माफ नहीं करेंगी।
आरक्षण की आग ने हमारे समाज को जिस तरह से अपनी जद में ले लिया है, समूची आरक्षण व्यवस्था का पोस्टमार्टम करना होगा और बेहतर तो यही होगा कि बिना इंतजार किए इसका अंतिम संस्कार भी कर दिया जाए।