Saturday, February 27, 2010

होली तो भौजी और साली के संग


जहां तक मैं समझ पाया हूं, पर्व-त्यौहार अप्राप्य को पाने का अवसर प्रदान करते हैं। इन विशेष अवसरों पर अपने इष्ट से अभीष्ट तथा सुख-समृद्धि का वरदान मांगते हैं। जहां तक होली की बात है, तो यह ऐसा पर्व है, जिसमें प्रकृति भी अपने विशेष रंग में रंगी नजर आती है। ऐसा लगता है, मानो प्रकृति पर वसंत का रंग छा गया हो। पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं और नई कोंपलें नए जीवन का संदेश देती प्रतीत होती हैं। माघ शुक्ल पंचमी (वसंत पंचमी) के बाद दिन अनुदिन गर्म होने लगते हैं और फागुन पूर्णिमा के आते-आते सूर्य के ताप का साथ पाकर जब फगुनहट बयार चलती है तो पूरे वातावरण में ही मस्ती घोल देती है।
जब बाहर की प्रकृति बौरा जाए तो मनुष्य के अंदर की प्रकृति कहां स्थिर रह पाती है। आम तौर पर साल के तीन सौ चौंसठ दिन मितभाषी रहने वाला भी होली के दिन वाचाल हो जाता है। बड़े-बड़े मुद्दों पर जो अपनी राय देने में हमेशा कृपणता बरतते हैं, वे भी होली पर ऐसी टिप्पणी कर बैठते हैं कि लोग दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर हो जाते हैं। तभी तो कहते हैं--भर फागुन बुढ़वा देवर लागे....।
फिर हमारी संस्कृति तो और भी निराली है। हम जो भी अच्छा-बुरा करते हैं, उसके पीछे अपना हाथ तो कभी नहीं मानते, बस परंपरा का निर्वहन करते हैं। तभी तो होली के गीतों में राधा-कृष्ण, राम-सीता, शंकर-पार्वती ही हमारे आदर्श हैं। त्रेता में देवर लक्ष्मण ने भाभी सीता को रंग डाला, तो द्वापर में भगवान कृष्ण ने गोपियों पर इस तरह रंग उड़ेला कि घर के लोग पहचान ही न पाएं। हम तो बस उनके अनुयायी हैं और उनकी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। भोले बाबा की बूटी भंग की ठंडाई का असर ज्यों-ज्यों होता है, होली का रंग चोखा होता जाता है।
अप्राप्य को पाने की इच्छा का ही असर है कि होली गीतों में पति-पत्नी की होली कहीं ठहर नहीं पाती। हर पद में हर छंद में देवर-भाभी की ठिठोली ही होली का आदर्श हुआ करती है। इसके बाद साली का नंबर आता है। साली के संग होली खेलने का आनंद तो अवर्णनीय है। एक मित्र से बात हुई, उनकी दो-दो सालियां हैं और होली पर उनका रंगमर्दन करने के लिए वे आज ही ससुराल पहुंच गए थे। अपनी साली का आकर्षण तो यह हुआ, लेकिन भैया की साली के संग होली का आनंद तो सोने पर सुहागा के समान होता है। अब बेचारे भैया होली के इस रंगीले त्यौहार में पत्नी और साली दोनों से वंचित होकर अपने भाग्य को कोसें तो कोसते रहें।
तो आप सबको होली की रंगभरी मंगलकामनाएं। ईश्वर से प्रार्थना करें कि इस जन्म में जिनके साली और देवर नहीं हैं, उन्हें अगले जन्म में यह सुख अवश्य प्राप्त हो। कुछ अतिशयोक्ति हो तो इतना ही कहना चाहूंगा-बुरा न मानो होली है।

Thursday, February 25, 2010

'करप्ट' हो गई खेती ?

भारतीय जनजीवन में अंग्रेजी और भ्रष्टाचार गड्डमड्ड हो गए हैं। अंग्रेजी के बिना कई स्थानों पर काम नहीं चलता तो भ्रष्टाचार के बिना हम काम चलाना चाहते ही नहीं। कई मामलों में ऐसा भी देखने में आया है कि महज सामाजिक रुतबे के लिए लोग अंग्रेजी अखबार मंगवाते हैं और ड्राइंग रूम में टेबिल पर अंग्रेजी की विशिष्ट पत्रिकाएं सजाकर रखते हैं। भ्रष्टाचार का आलम तो यह है कि पिता खुद ही अपनी संतान को इसके लिए प्रेरित करता है।
महज थोड़ी सी सुविधा या समय बचाने के लिए लोग भ्रष्टाचार को जान-बूझकर बढ़ावा देते हैं। मेरा तो मानना है कि हर आदमी यदि अपनी जगह पर ईमान पर चलना चाहे और भ्रष्टाचार को बढ़ावा न देने की ठान ले, तो इस संक्रामक बीमारी को मिटाने में देर नहीं लगेगी अन्यथा यह घुन की तरह पूरी व्यवस्था को ही अंदर ही अंदर चट कर जाएगी।
खैर, अब मैं उस मुद्दे पर आता हूं, जिसने मुझे इन पंक्तियों को लिखने के लिए प्रेरित किया। पिछले दिनों बिहार प्रवास के दौरान एक मित्र से मिलने उनके गांव गया। मित्र घर पर नहीं थे, सो उनके पिताजी से वार्तालाप का दौर शुरू हो गया। बिहार की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक चर्चा के बाद खेती-किसानी का प्रसंग भी सामने आया। मैंने इस वर्ष धान की फसल के बारे में पूछा तो बड़ी ही सहजता से उन्होंने कहा कि मेरे बेटे तो करप्ट खेती करते हैं, धान-गेहूं को कम ही तवज्जो देते हैं। उसमें लाभ कम होता है। मैं समझ नहीं पा रहा था कि खेती कैसे करप्ट हो गई और फिर यह फायदे का सौदा कैसे हो गई। उनकी नजर में खुद को नासमझ साबित करना मुझे भी नागवार गुजरा, सो मैं बातचीत को यूं ही खींचने लगा। मसलन, इस समय उनकी खेतों में कौन सी फसलें उगी हुई हैं आदि-इत्यादि। उन्होंने टमाटर, गोभी, मिर्च जैसी सब्जियों के नाम गिनाए तब मेरी समझ में आया कि वे कैश क्रॉप की बात कर रहे थे। 9वीं-10 वीं में अर्थशास्त्र भी एक विषय हुआ करता था तो खाद्य फसल और व्यावसायिक फसलों के बारे में पढ़ा था। व्यावसायिक फसलों को ही वे कैश क्रॉप की बजाय करप्ट खेती कह रहे थे। वाकई खाद्य फसलों की तुलना में व्यावसायिक फसलें अधिक लाभप्रद होती हैं, यदि सब कुछ उसके अनुकूल हो।
जानकर संतोष हुआ कि कीटनाशकों और उर्वरकों के प्रयोग से फसलें भले ही हानिकारक हो गई हों, लेकिन यह किसी भी रूप में 'करप्ट' होने से बची हुई है। हां, सब्जियों का आकार समय से पहले बढ़ाने तथा दुधारू पशुओं में दूध बढ़ाने के लिए कुछ किसान अवश्य ही घातक ऑक्सिटोसिन का प्रयोग करते हैं, लेकिन यह अपवादस्वरूप ही हैं। सरकारों को यह व्यवस्था करनी चाहिए कि किसानों को उनकी लागत और मेहनत के अनुपात में उनकी उपज का उचित मूल्य मिले तो यह चलन भी रुक सकता है।

रेल बजट में राजनीति हावी

रेलवे स्टेशनों पर रेलवे का ध्येय वाक्य-संरक्षा, सुरक्षा, समय पालन-लिखा रहता है, लेकिन रेल मंत्री ममता बनर्जी के बजट में इस ध्येय वाक्य पर अमल करने की कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखी या कहें कि इस पर ध्यान देना भी उचित नहीं समझा गया। हालांकि ममता ने अपने बजट भाषण में रेलवे के सामाजिक उत्तरदायित्व का जिक्र अवश्य किया, लेकिन उस पर भी राजनीतिक उत्तरदायित्व बाजी मार गया।
पूर्ववर्ती बड़बोले रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने बिहार का बेड़ा गर्क करने के बाद सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए यात्री किराये में वृद्धि नहीं करने की परिपाटी शुरू की थी और अब शायद पश्चिम बंगाल और बिहार में अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ममता बनर्जी भी किराया बढ़ाने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। इसी कड़ी में खाद्यान्नों और किरासन तेल की भाड़ा दरों में 100 रुपए प्रति माल डिब्बा कटौती किए जाने का प्रस्ताव भी आमजन के हित में कम, तृणमूल कांग्रेस व यूपीए के पक्ष में ही अधिक दिखता है।
जहां तक मैं समझता हूं, रेलवे के ध्येय वाक्य का पालन रेल मंत्री की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी। कोई भी आदमी जब ट्रेन से सफर करता है तो उसका पहला उद्देश्य तय समय में सुरक्षित अपने गंतव्य पर पहुंचना होता है, भले ही उसे 500 रुपए के स्थान पर 502 या 503 रुपए खर्च करने पड़ें, लेकिन लगता है कि रेलवे मंत्रालय को इससे कुछ भी लेना नहीं है। तथाकथित सुपरफास्ट ट्रेनों का भी 8-10 घंटे लेट होना आम बात हो गई है। रेलवे मंत्रालय को इन राजनेताओं ने अपनी लोकप्रियता कमाने का जरिया बना लिया है। तभी तो लोकसभा चुनाव के बाद रेल मंत्रालय को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाता है।
कुछ बातें इस बजट में अच्छी भी हैं, जिनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। मसलन, एक निश्चित समयावधि में बिना चौकीदार वाले रेलवे क्रॉसिंग पर चौकीदारों की नियुक्ति करना, कैंसर रोगियों को नि:शुल्क यात्रा की सुविधा मुहैया करवाना, बड़े रेलवे स्टेशनों पर अंडरपास व सीमित ऊंचाई वाले सब-वे का निर्माण, सरप्लस रेल भूमि पर अस्पताल और स्कूल-कॉलेज खोलना, लाइसेंसधारी कुलियों, वेंडरों व हॉकरों के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना का विकास जैसे कदम अवश्य ही सराहनीय हैं।

Saturday, February 20, 2010

बारह बजे लेट नहीं, चार बजे भेंट नहीं

इस बार पटना से वापसी में अकेला ही था। हावड़ा-जम्मूतवी हिमगिरि एक्सप्रेस से लखनऊ तक आना था। सफर दिन का था और मैं अकेले ही था, सो सहयात्रियों से बातचीत शुरू हो गई। सहयात्रियों में पटना सचिवालय में कार्यरत दो बड़े अधिकारी थे। इनमें से एक अपनी बिटिया को बैंक पीओ की लिखित परीक्षा दिलवाने के लिए लखनऊ जा रहे थे, तो दूसरे बिटिया को बैंक पीओ के लिए ही ज्वाइन कराने जा रहे थे। आपस में उनकी भी जान-पहचान नहीं थी, लेकिन जब उनकी बातचीत शुरू हुई, तो पता चला कि वे दोनों एक ही स्थान पर काम करते हैं। एक वित्त विभाग में थे तो दूसरे अभियन्त्रण सेवा में।
मेरी सहज जिज्ञासा वर्तमान दौर में सरकारी कामकाज के बारे में जानने की हुई, तो एक अधिकारी की बिटिया के मुंह से सहज ही निकल पड़ा-बारह बजे लेट नहीं, चार बजे भेंट नहीं। मैंने इसे थोड़ा और स्पष्ट करने को कहा तो उसका कहना था कि पहले तो यह आलम यह था कि सरकारी दफ्तरों में अधिकारियों-कर्मचारियों को केवल वेतन से ही वास्ता था, काम से उनका कोई लेना-देना नहीं होता था। राज्य प्रशासन के सबसे बड़े दफ्तर शासन सचिवालय में दोपहर 12 बजे तक तो कर्मचारी-अधिकारी पहुंचते ही नहीं थे और पहुंचते भी थे तो आपस में गप्पें हांकने और चाय-नाश्ता करने के बाद चार बजे तक विदा हो लेते थे।
मैंने अभियन्त्रण सेवा के अधिकारी से इन दिनों सचिवालय में उनकी उपस्थिति समय के बारे में पूछा तो मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार की सख्ती से चिढ़े हुए से लगे। उन्हें शिकायत थी कि वर्तमान में तो सवेरे साढ़े नौ बजे ऑफिस में आ ही जाना पड़ता है। 10 मिनट से अधिक देरी होने पर उपस्थिति पंजिका सीनियर अधिकारी के पास चली जाती है और अगले दिन स्पष्टीकरण देना पड़ता है।
जहां तक मैं समझता हूं, माता-पिता अपनी सन्तान के लिए पहले रोल मॉडल होते हैं। यदि सन्तान ही माता-पिता की कर्तव्यहीनता या कामचोरी का मजाक बनाए, तो इससे बुरी बात और कोई नहीं हो सकती। यदि माता-पिता के आचरण में ही कमी होगी, तो वे अपनी सन्तान के लिए रोल मॉडल कैसे बन पाएंगे और उनके लिए आदर्श कैसे स्थापित कर पाएंगे। राज्य और राष्ट्र के चरित्र और विकास की बात तो तब की जाए, जब इसकी सबसे छोटी इकाई परिवार में सब कुछ उचित और सन्तुलित हो।

Thursday, February 18, 2010

बिहार - समय के साथ बदल रहा है स्वाद

बीतते हुए समय के साथ बिहार में बहुत कुछ बदलता जा रहा है। वंशवृद्धि के कारण हुए बंटवारे से खेत भले ही सिकुड़ती जा रही हो, उपज काफी बढ़ गई है। पिताजी ने बताया कि पहले जब लोगों के पास काफी खेत थे तो बहुत बड़ी आबादी मड़ुवा, जनेरा, सामा-कोदो खाने को विवश थी। जो यह सब भी नहीं खरीद पाते थे, उनके लिए गूलर और बरगद के फल भी प्रकृति के वरदान से कम नहीं हुआ करते थे। शकरकन्द, खेसारी और मड़ुवा की स्थिति ऐसी थी कि कई गांवों की पहचान ही इसी से होती थी। मसलन जिस गांव में मड़ुवा की खेती अधिक होती थी, वहां के अधिकतर लोग घेंघा रोग से पीçड़त होते थे। इसी तरह खेसारी की उपज अधिक मात्रा में होती थी, वहां के लोगों में जोड़ों में ददॅ की समस्या आम थी। ऐसे गांवों के लोगों के पैर अमूमन टेढ़े हो जाया करते थे, जिस कारण चलने में उन्हें असह्य पीड़ा होती थी। नई पीढ़ी को तो इन अभिशापों से मुक्ति मिल चुकी है, लेकिन पुरानी पीढ़ी के लोग आज भी इस पीड़ा का दंश झेलते देखे जा सकते हैं। आज की तारीख में कोई भी मोटा अनाज खाना पसन्द नहीं करता और करे भी तो ये मोटे अनाज बड़ी मुश्किल से मिलते हैं क्योंकि किसानों ने घाटे का सौदा समझकर इन्हें उपजाना ही बन्द कर दिया है। पहले मजबूरी में सत्तू खाते थे और-अभावे शालिचूर्णम्-कहावत आम थी, लेकिन आज सत्तू रंगीन पॉलिथिन में गैस्टि्रक की औषधि के रूप में 200-250 ग्राम पैकिंग में बिकता है। इसी तरह गरीबी का सहारा भुना हुआ मक्का पॉप कॉर्न बनकर इतरा रहा है।

चना आउट, राजमा इन


दो-ढाई दशक पहले गांव छूटने के कारण वहां से जुड़ी कई चीजें भी छूट गईं। कई स्वाद अविस्मरणीय हैं, लेकिन जबान को उन्हें चखने का अवसर ही नहीं मिल पाता। इस बार जनवरी में गया तो चने का साग खाने की इच्छा बरबस ही बलवती हो उठी। छोटे भाई को पूछा तो पता चला कि अब अपने खेतों में तो क्या, पूरे गांव में ही कहीं चने की खेती नहीं होती। इस तरह मन की बात मन में ही रह गई। भला हो भतीजे का जो पटना में रहकर प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी कर रहा है। उसे फोन कर दिया था तो वह ट्रेन में बिठाने आया तो चने का साग खरीदकर ले आया, जो बिहार से जयपुर के लिए महत्वपूर्ण सौगात था हमारे लिए।
हां, इस बार गांव में कई स्थानों पर एक नई फसल देखी। पूछने पर पता चला कि यह राजमा है। कभी अरहर की दाल किसी घर में बनती थी तो उसकी सोंधी महक पूरे मोहल्ले में फैल जाती थी, अब राजमे की खुशबू का विस्तार इस तरह होता है या नहीं, यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह तो पक्का है कि अरहर की जगह लोगों की जीभ को राजमा का स्वाद भी भा गया है।

Wednesday, February 17, 2010

बिहार - समृद्धि आई तो भागे अपराध

सूरज की किरणें जब अपना उजास फैलाती हैं, तो घटाटोप अंधकार का साम्राज्य भी खत्म हो जाता है। सरकारी कायदा जब सुधरता है तो बहुत सारी व्यवस्थाएं खुद-ब-खुद पटरी पर आ जाती हैं। पिछले डेढ़-दो दशक में जिस तरह अपहरण काण्ड कुटीर उद्योग की श्रेणी में आ गए थे और इनसे सम्बंधित खबरें रोज अखबारों की लीड बना करती थीं, अब वह स्थिति नहीं है। बहुत हद तक अपराध पर काबू पा लिया गया है। वर्तमान महानिदेशक आनन्द शंकर (जो सम्भवतया सेवानिवृत्ति के करीब ही हैं) कृष्णभक्ति के साथ अपनी ईमानदारी के लिए भी जाने जाते हैं। इसी का परिणाम है कि पटना में स्थान-स्थान पर पुलिस के जवान मुस्तैद नज़र आते हैं। लालू प्रसाद यादव की रहनुमाई वाले राष्ट्रीय जनता दल की ओर से गत 28 जनवरी को आहूत बिहार बन्द के दौरान नीतीश सरकार और आनन्द शंकर का ही प्रताप था कि पटना में कोई अप्रिय वारदात नहीं हुई। बन्द के बावजूद मैंने एक मित्र के साथ मोटरसाइकिल पर 20-25 किलोमीटर की यात्रा की, लेकिन कहीं किसी ने बदतमीजी नहीं की। ऐसा लग रहा था कि दुकानदारों ने भी बेमन से ही अपने प्रतिष्ठान बन्द कर रखे थे। जिस किसी से बात की, वह महंगाई से तो त्रस्त तो था, लेकिन इसके लिए राज्य की नीतीश सरकार को जिम्मेदार नहीं मान रहा था। शाम 4 बजते-बजते तो सब कुछ सामान्य हो गया था।

डीजीपी आनन्द शंकर
अपराधों पर अंकुश लगा है तो इसका कारण लोगों को रोजगार मिलना भी माना जा सकता है। पूरे बिहार में जिस बड़े पैमाने पर सड़कें बन रही हैं और दूसरे भी काम हो रहे हैं, उसमें हजारों लोगों को रोजगार मिला है। इसके अलावा राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (जिसमें महात्मा गांधी के नाम की बैसाखी भी लग गई है) से भी लोगों को जीने का सहारा मिला है। आमदनी बढ़ी है तो खर्च के रास्ते भी खुलने लगे हैं। कम दूरी की पैसेंजर बसों और जीपों में भी मोबाइल की बार-बार बजती रिंगटोन से सहज ही इसका अहसास हो जाता है। पिंकसिटी जयपुर में रहते हुए जितनी मोबाइल कंपनियों के बारे में जानता था, उनके अलावा भी यूनिनॉर, एसटेल सहित कई सारी मोबाइल कंपनियों ने बखूबी अपनी उपस्थिति बनाए रखी है। इनकी आपसी जंग में उपभोक्ताओं को अच्छी और बेहतर संचार सेवाएं मिल रही हैं। जो गांव पचासों वर्ष से टेलीफोन के खंभे के लिए तरस गए थे, उन्हीं गांवों में आज तीन-चार कंपनियों के टावर कोसों दूर से नज़र आते हैं। नेटवर्क की कहीं कोई समस्या नहीं है। हां, बिजली की कमी के कारण कई बार सेलफोन को चार्ज करने की समस्या उत्पन्न हो जाती है। आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है, इस तर्ज पर मोहल्लों में जेनरेटर प्रदाताओं ने शाम के समय महज दो-तीन रुपए रोजाना की दर पर अंधेरा भगाने की व्यवस्था कर रखी है। मोबाइल हैण्डसेट बनाने वाली कंपनियां नित नए ऐसे हैण्डसेट लांच कर रही हैं, जिनके सहारे बिहार में बिजली सप्लाई की अव्यवस्था के बावजूद मोबाइल निष्प्राण नहीं हो।

Monday, February 15, 2010

शिक्षा को मिल रही गति

मेरे जमाने में बच्चे सरकारी स्कूल में ही पढ़ा करते थे और यह माता-पिता के लिए भी किसी तरह से कमतरी का द्योतक नहीं होता था। मेरी स्कूली शिक्षा पूरी होने तक ही नहीं, बल्कि कॉलेज शिक्षा तक यह हाल बना रहा। वर्ष 1990 के बाद सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर कुछ इस तरह गिरता गया कि अभिभावक संसाधन नहीं होने के बावजूद बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना मजबूरी होने लगी थी। इसके फलस्वरूप सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या दिन-ब-दिन कम होने लगी। पिछले 10-15 साल में जब भी गांव जाता था तो मित्रों की बातचीत में शिक्षा का गिरता स्तर महत्वपूर्ण हुआ करता था, लेकिन जब नीतियां बनाने वाले ही इन बातों से अनभिज्ञ हों तो आम आदमी क्या कर सकता है। इस बार पड़ोस की कई लड़कियों को स्कूल यूनिफॉर्म में देखा तो बरबस ही पूछ बैठा कि आसपास कोई कॉन्वेंट या प्राइवेट स्कूल खुला है क्या? पता चला कि इन लड़कियों को सरकार की ओर से स्कूल यूनिफॉर्म के लिए राशि उपलब्ध कराई जा रही है। इतना ही नहीं, सरकारी स्कूलों में कक्षा 9-10 में पढ़ने वाली लड़कियों को सरकार की ओर से साइकिल भी उपलब्ध कराई जा रही है, ताकि घर से स्कूल की दूरी उनकी शिक्षा में बाधक नहीं बने। यह भी पता चला कि मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने इस योजना का विस्तार कर लड़कों के लिए भी साइकिल उपलब्ध कराने की घोषणा कर दी है, जिसे शीघ्र ही अमली जामा पहनाया जाएगा। जानकर खुशी हुई कि प्रदेश में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार कुछ कर तो रही है। इसके साथ ही अपना गुजरा जमाना भी याद आ गया, जब अपने गांव से हम दर्जनों साथी पैदल ही चार-पांच किलोमीटर की दूरी तय कर बिना नागा हाई स्कूल जाया करते थे।
शिक्षा के प्रति लोगों का रुझान इस कदर बढ़ गया है कि स्कूलों के भवन छोटे पड़ने लगे हैं। इसे देखते हुए बड़े विजन वाले मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने स्कूलों को क्रमोन्नत करने और उसी अनुपात में संसाधन उपलब्ध कराने के प्रयास भी जारी रखे हैं। यदि यह सब इसी तरह जारी रहा तो उम्मीद की जा सकती है कि शिक्षा को वांछित गति मिलेगी और बिहार एक बार फिर नालन्दा, तक्षशिला के गौरवशाली पथ पर अग्रसर हो सकेगा।

Sunday, February 14, 2010

बिहार - गांवों की चमाचम सड़कें करती हैं स्वागत


करीब 18 माह के लंबे अरसे के बाद पिछले दिनों बिहार जाने का सुअवसर मिला। वैसे गत वर्ष मई में भी गया था, लेकिन समयाभाव में पटना से ही लौट आने के कारण यह लकीर छूकर आने भर की यात्रा रह गई थी। इस बार दर्जनों गांवों की यात्रा के क्रम में डेढ़-दो सौ किलोमीटर का सफर मोटरसाइकिल और बसों से किया। मैंने पहले भी कई बार कहा है कि किसी राजनीतिक दल से मेरा वास्ता नहीं है, लेकिन आंखों देखी सच को झुठलाना भी पाप से कम नहीं है। सो इस बार गांवों में जो तस्वीर दिखी, उसके लिए बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार वाकई प्रशंसा के हकदार हैं। जी हां, जिन गांवों में पहले कच्ची सड़क से जाना पड़ता था, (जो कई स्थानों पर पगडण्डी सी हुआ करती थी), वहां इस बार पक्की चमचमाती सड़क से हमने सफर किया। इसमें न तो कहीं धचके थे और न ही धूल हमारे सिर पर सवार होने को आतुर थी। हां, कहीं-कहीं धूल थी भी, तो वहां सड़क के लिए हो रही मिट्टी भराई के कारण थी। स्थानीय बाशिन्दों में इस बात का सन्तोष और खुशी थी कि उनके गांव में भी अब पक्की सड़क होगी। बिहार के बड़बोले तत्कालीन मुयमन्त्री लालू प्रसाद यादव ने अपने शासनकाल में सूबे की सड़कों को हेमामालिनी के गाल जैसी करने के दावे किए थे, लेकिन तब वहां की सड़कों के गड्ढे चेचक के दाग से भी कहीं अधिक गहरे हुआ करते थे। बस, ट्रक, जीप, कार से तीस-चालीस किलोमीटर के सफर में टायरों का एक-दो बार पंचर होना लाजिमी था। ऐसे में मितभाषी मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने सड़कों का कायकल्प कर दिया है।
पटना में भी सड़कों का स्तर काफी सुधर गया है। यहां की सड़कों को देखकर लगता है कि आप किसी बड़े प्रदेश की राजधानी में हैं। ऐसा नहीं है कि कमियां नहीं हैं, अभी भी पटना में ही बहुत सुधार की दरकार है, लेकिन जिस गति से काम हो रहा है, यदि यह सब अबाध गति से चलता रहा तो आने वाले तीन-चार साल में हालात और भी बेहतर होंगे।
मुंह चिढ़ाता राजधानी का बस स्टैण्ड
पहले पटना रेलवे जंक्शन से बाहर निकलते ही महावीर मन्दिर से थोड़ी दूर पर ही वीर कुंवर सिंह बस स्टैण्ड हुआ करता था, जिसे शहर में होने वाले ट्रैफिक जाम से निजात दिलाने के लिए अब जंक्शन के दक्षिणी ओर करबिगहिया में शिफ्ट कर दिया गया है। वहां कम स्थान होने के कारण पहले बहुत सारी दिक्कतें थीं, लेकिन नए स्टैण्ड पर काफी जगह होने के बावजूद अव्यवस्थाएं भी उसी अनुपात में पसरी हुई हैं। गन्दगी का आलम ऐसा है कि वहां जाकर अगले गन्तव्य के लिए बस पकड़ना काफी मुसीबत भरा होता है। यह तो पक्की बात है कि आज के दौर के राजनेता बस से सफर नहीं करते, तो उन्हें बस स्टैण्ड के हालात से वास्ता नहीं पड़ता होगा, लेकिन आमजन को होने वाली परेशानियों से उनका बेखबर रहना तो किसी भी सूरत में अच्छी बात नहीं है। विशेष रूप से तब, जब इस तथाकथित अन्तरराज्यीय बस स्टैण्ड के पास ही चाणक्य राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय भी शुरू किया गया है, इस ओर से नीति नियन्ताओं का आंखें मून्दे रहना कदापि शोभनीय नहीं है। आशा की जानी चाहिए, अगली यात्रा तक बस का सफर तो सुहाना होगा ही, बस स्टैण्ड के हालात भी अवश्य ही सुधर जाएंगे।