‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ यानी संपूर्ण धरती को ही अपना परिवार मानने वाली सनातन संस्कृति में अपने-पराये, सगे और गैर की बात करना बेमानी सा लगता है। फिर ‘सगा’ शब्द का प्रचलन कैसे शुरू हुआ होगा। जब किसी के पिता ने तीन शादियां की हों और तीनों ही पत्नियां एक-दूसरे की संतान को अपने कोखजाये संतान से ज्यादा प्यार करती हों और बच्चा ही गच्चा खा जाए कि उसकी अपनी मां कौन है। फिर आस-पड़ोस के लोगों की कौन कहे, बच्चे की मां को लेकर उनमें भ्रम होना स्वाभाविक ही है। शायद इसीलिए ‘सगा’ शब्द इस्तेमाल में आने लगा होगा।
पौराणिक आख्यानों पर नजर डालें तो त्रेता युग में राजा दशरथ की कहानी कुछ ऐसी ही तो है। तुलसी बाबा ने रामचरितमानस में लिखा भी है कि कैकेयी अपने बेटे भरत से भी ज्यादा राम को प्यार करती थीं या फिर कहें तो वे राम को कौशल्या से भी ज्यादा प्यार करती थीं। समय का चक्र कहें कि मंथरा की बातों में आकर उन्होंने अपने उसी प्रिय पुत्र को चौदह साल के वनवास पर भेज दिया। कौशल्या और सुमित्रा भी अपनी और अन्य महारानियों की संतान में कोई भेद नहीं करती थीं।
द्वापर युग की बात करें तो वसुदेव की पत्नी देवकी ने कारागार में कृष्ण को जन्म दिया, लेकिन मां-बेटे के प्यार की मिसाल देने की बात कभी आती है तो लोगों की जुबां पर देवकी का नहीं, कृष्ण के साथ ममता की मूर्ति यशोदा का नाम ही आता है। हजारों साल बीतने के बाद भी जसुमति मैया और किशन कन्हैया के स्नेह की लीला तब जीवंत हो उठती है जब भागवत कथा के दौरान कृष्ण जन्म और नंदोत्सव का प्रसंग आता है।
पुराने दिनों की कौन कहे, आज के इस आधुनिक युग में भी कई ऐसे मामले देखने में आते हैं, जहां कोई महिला अपने और सौतेले बच्चे में कोई भेद नहीं करती। अपनी संतान से भी अधिक स्नेह सौतेले बच्चे पर लुटाती है। कई बार तो बिना किसी रिश्ते के भी प्रेम का रिश्ता पनप जाता है और अपनों से भी कहीं अधिक प्रगाढ़ हो जाता है।
शायद इसीलिए दो सर्वथा भिन्न परिवार, परिवेश, समाज में पले-बढ़े युगल जब एक-दूसरे से जुड़ते हैं, तो प्रेम की पींगें भरने की राह में पहली रस्म सगाई की ही होती है, ताकि दोनों एक-दूसरे के सगा मान सकें। ...और मानने भी लगते हैं। एक लड़की मां-बाबुल की गलियां छोड़कर सदा-सर्वदा के लिए पिया के आंगन में चली आती है और लड़का भी अब तक के सभी रिश्तों को दरकिनार कर अपने सपनों को साकार करने की जिम्मेदारी अपनी प्राणप्रिया को सौंप देता है। परस्पर प्रेम के बंधन में बंधकर एक-दूसरे के सगे हो जाने का यह सिलसिला युवा-युवती के बीच ही नहीं, बल्कि मित्र-मित्र, सखी-सहेली, सेवक-स्वामी और यहां तक कि भक्त और भगवान तक पहुंच जाता है। तभी तो सूरदास जी अपनापन के सभी रिश्तों पर प्रेम के रिश्ते को भारी मानते हुए कहते हैं :
सबसे ऊंची प्रेम सगाई।
चलते-चलते : ऑफिस के वॉट्सएप ग्रुप पर एक सहयोगी के सगाई की तस्वीर और उस पर मिल रही बधाइयों को देखकर सहसा ही ये विचार मन में उमड़ने-घुमड़ने लगे। ...और फिर आप मित्रों से इन्हें साझा करने से खुद को नहीं रोक पाया।
October 14, 2018 · Lucknow
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