कंडक्टर की कमाई
बिहार के वैशाली जिले के बाजितपुर गांव में पश्चिमी छोर पर स्थित हमारे घर के पास मील का पत्थर लगा था। ऐसा ही अगला पत्थर मिडिल स्कूल के पास भी था। उस समय सड़कों की लंबाई किलोमीटर के बजाय मील में ही नापी जाती थी। सो प्राइमरी से मिडिल स्कूल में जाने पर मील के पत्थर से पहला वास्ता पड़ा और यह भी पक्का हो गया कि अब मुझे रोज दो मील पैदल चलना होगा। उसके बाद पातेपुर हाई स्कूल में पढ़ाई के दौरान करीब पांच साल तक रोजाना लगभग तीन कोस पैदल चलना मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया। मुजफ्फरपुर में भी कॉलेज की पढ़ाई के दौरान भी कदमताल जारी रही।
... और फिर रोजी-रोटी के सिलसिले में जारी अनवरत सफर के दौरान ये मील के पत्थर जीवन के हमसफर बन गए। बात दीगर है कि इस बीच बसें और रेलगाड़ियां भी पैरों का साथ निभाती रहीं।
प्राइमरी स्कूल से मिडिल स्कूल में जाने पर दो महत्वपूर्ण खासियतें महसूस हुईं। पहली, प्राइमरी स्कूल में हम बच्चे ही प्रार्थना के पहले दोनों कमरों और बाहरी हिस्से की सफाई करते थे, जबकि मिडिल स्कूल में यह काम द्वारपाल शुक्कन ठाकुर के जिम्मे था। वे स्कूल परिसर में लगे फूलों के पौधों की देखरेख भी बड़े मनोयोग से किया करते थे। निर्मल हृदय व सरल स्वभाव के धनी शुक्कन ठाकुर को हम बच्चों के भविष्य की भी चिंता रहती थी। यही वजह थी कि परीक्षा के दिनों में वे प्रार्थना के दौरान कतार में खड़े हम विद्यार्थियों के माथे पर बतौर शगुन दही का टीका लगाते थे।
मिडिल स्कूल की दूसरी खासियत वहां की मिनी विज्ञान प्रयोगशाला थी। प्रधानाचार्य के कमरे के एक बक्से में बंद इस प्रयोगशाला का बच्चों में गजब का क्रेज था। हम बच्चे प्रयोग करके दिखाने के लिए विज्ञान शिक्षक श्री श्यामनंदन राय की खुशामद करते रहते। महीने-दो महीने में जब वे प्रसन्न होते तो कई प्रयोग करके दिखाते। इस दौरान बैटरी से बल्व जलाने का प्रयोग दिखाते समय वे बिजली के गुड कंडक्टर व बैड कंडक्टर कारकों के बारे में बताते। इससे पहले तो मैं यही जानता था कि बस में किराया वसूलने वाले को ही कंडक्टर कहते हैं।
खैर, कंडक्टर शब्द की बात आने पर गणेश चाचा का चेहरा सामने आ जाता। बचपन के दिनों में सबसे पहले बतौर कंडक्टर उन्हें ही देखा था। जिंदादिल स्वभाव के धनी गणेश चाचा अपनी हाजिरजवाबी से हर किसी का दिल जीत लेते थे। लोगों की नकल उतारने में भी उनकी महारत थी। अपनी इस विशेष अदा से वे किसी भी महफिल में छा जाते। अफसोस, पिछले दिनों वे गंभीर रूप से बीमार हुए और परिवार वालों के अथक प्रयासों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका।
कोरोना काल में इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए लोग जहां तरह-तरह के जतन कर रहे हैं, वहीं इन उपायों के साथ ही मैं फोन के जरिए बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद और मित्रों की शुभकामनाओं के सहारे खुद को बूस्ट अप करता हूं। ऐसे ही कल गांव के एक नौजवान से फोन पर बातचीत के दौरान गणेश चाचा की चर्चा छिड़ते ही उसकी आवाज रूंध सी गई। पूछने पर उसने बताया कि कॉलेज में पढ़ाई के दौरान और उसके बाद भी प्रतियोगिता परीक्षा आदि के लिए कहीं जाने के लिए यदि कभी वह उस बस में चढ़ता, जिसमें गणेश चाचा कंडक्टर होते, तो वे उससे किराया नहीं लेते थे। रास्ते में बस कहीं रुकती तो कभी समोसा, कभी भूंजा, कभी खीरा-नारियल आदि खिलाते। यही नहीं, उतरते समय जेब में पांच-दस रुपये भी रख देते। बता नहीं सकता, उन पैसों की कितनी अधिक अहमियत थी उन दिनों मेरे लिए।
उसकी बातें सुनने के बाद गणेश चाचा की सदाशयता के बारे में जानकर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गई। उस नौजवान की तरह और न जाने कितने लोग होंगे, जिनकी ऐसी ही मदद गणेश चाचा ने अवश्य ही की होगी। अच्छे से अच्छे निवेशकर्ता भी अपनी कमाई के ऐसे सर्वोत्तम निवेश के बारे में सोच नहीं पाते होंगे, जिसका सुफल इस नश्वर शरीर को त्याग देने के बाद भी मिलता रहता है।
कंडक्टर की नौकरी ऐसी नहीं होती कि कोई इसे कॅरिअर बनाने के बारे में सोचे। ...और फिर प्राइवेट बसों के कंडक्टरों की दुश्वारियों का तो कहना ही क्या। रोजाना बस मालिक की धौंस भरी झिड़की सुनने के साथ ही उसे आए दिन सड़क छाप मवालियों की झड़प का भी शिकार होना पड़ता है। महीने में तीस दिन और साल के बारहों महीने नौकरी की भी कोई गारंटी नहीं होती, मगर यह भी बहुत बड़ी हकीकत है कि बस स्टैंड से लेकर रास्ते के पड़ावों तक न जाने कितने ही लोग कंडक्टर की उदारता की बदौलत अपना पेट भरने के साथ ही अपने परिवार का भी भरण-पोषण करते हैं। ...और इनसे मिली दुआओं के रूप में एक कंडक्टर की कमाई किसी भी धन्नासेठ और आला अधिकारी से कहीं अधिक मायने रखती है। अंत में परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि उदारमना, हंसमुख और जिंदादिल स्वर्गीय गणेश चाचा को अपने चरणों में शरणागति प्रदान करें।