Monday, August 24, 2020

कंडक्टर की कमाई

कंडक्टर की कमाई

बिहार के वैशाली जिले के बाजितपुर गांव में पश्चिमी छोर पर स्थित हमारे घर के पास मील का पत्थर लगा था। ऐसा ही अगला पत्थर मिडिल स्कूल के पास भी था। उस समय सड़कों की लंबाई किलोमीटर के बजाय मील में ही नापी जाती थी। सो प्राइमरी से मि‌डिल स्कूल में जाने पर मील के पत्थर से पहला वास्ता पड़ा और यह भी पक्का हो गया कि अब मुझे रोज दो मील पैदल चलना होगा। उसके बाद पातेपुर हाई स्कूल में पढ़ाई के दौरान करीब पांच साल तक रोजाना लगभग तीन कोस पैदल चलना मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया। मुजफ्फरपुर में भी कॉलेज की पढ़ाई के दौरान भी कदमताल जारी रही। 
... और फिर रोजी-रोटी के सिलसिले में जारी अनवरत सफर के दौरान ये मील के पत्थर जीवन के हमसफर बन गए। बात दीगर है कि इस बीच बसें और रेलगाड़ियां भी पैरों का साथ निभाती रहीं।

प्राइमरी स्कूल से मिडिल स्कूल में जाने पर दो महत्वपूर्ण खासियतें महसूस हुईं। पहली, प्राइमरी स्कूल में हम बच्चे ही प्रार्थना के पहले दोनों कमरों और बाहरी हिस्से की सफाई करते थे, जबकि मिडिल स्कूल में यह काम द्वारपाल शुक्कन ठाकुर के जिम्मे था। वे स्कूल परिसर में लगे फूलों के पौधों की देखरेख भी बड़े मनोयोग से किया करते थे। निर्मल हृदय व सरल स्वभाव के धनी शुक्कन ठाकुर को हम बच्चों के भविष्य की भी चिंता रहती थी। यही वजह थी कि परीक्षा के दिनों में वे प्रार्थना के दौरान कतार में खड़े हम विद्यार्थियों के माथे पर बतौर शगुन दही का टीका लगाते थे।

मिडिल स्कूल की दूसरी खासियत वहां की मिनी विज्ञान प्रयोगशाला थी। प्रधानाचार्य के कमरे के एक बक्से में बंद इस प्रयोगशाला का बच्चों में गजब का क्रेज था। हम बच्चे प्रयोग करके दिखाने के लिए विज्ञान शिक्षक श्री श्यामनंदन राय की खुशामद करते रहते। महीने-दो महीने में जब वे प्रसन्न होते तो कई प्रयोग करके दिखाते। इस दौरान बैटरी से बल्व जलाने का प्रयोग दिखाते समय वे बिजली के गुड कंडक्टर व बैड कंडक्टर कारकों के बारे में बताते। इससे पहले तो मैं यही जानता था कि बस में किराया वसूलने वाले को ही कंडक्टर कहते हैं। 

खैर, कंडक्टर शब्द की बात आने पर गणेश चाचा का चेहरा सामने आ जाता। बचपन के दिनों में सबसे पहले बतौर कंडक्टर उन्हें ही देखा था। जिंदादिल स्वभाव के धनी गणेश चाचा अपनी हाजिरजवाबी से हर किसी का दिल जीत लेते थे। लोगों की नकल उतारने में भी उनकी महारत थी। अपनी इस विशेष अदा से वे किसी भी महफिल में छा जाते। अफसोस, पिछले दिनों वे गंभीर रूप से बीमार हुए और परिवार वालों के अथक प्रयासों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। 

कोरोना काल में इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए लोग जहां तरह-तरह के जतन कर रहे हैं, वहीं इन उपायों के साथ ही मैं फोन के जरिए बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद और मित्रों की शुभकामनाओं के सहारे खुद को बूस्ट अप करता हूं।  ऐसे ही कल गांव के एक नौजवान से फोन पर बातचीत के दौरान गणेश चाचा की चर्चा छिड़ते ही उसकी आवाज रूंध सी गई। पूछने पर उसने बताया कि कॉलेज में पढ़ाई के दौरान और उसके बाद भी प्रतियोगिता परीक्षा आदि के लिए कहीं जाने के लिए यदि कभी वह उस बस में चढ़ता, जिसमें गणेश चाचा कंडक्टर होते, तो वे उससे किराया नहीं लेते थे। रास्ते में बस कहीं रुकती तो कभी समोसा, कभी भूंजा, कभी खीरा-नारियल आदि खिलाते। यही नहीं, उतरते समय जेब में पांच-दस रुपये भी रख देते। बता नहीं सकता, उन पैसों की कितनी अधिक अहमियत थी उन दिनों मेरे लिए।

उसकी बातें सुनने के बाद गणेश चाचा की सदाशयता के बारे में जानकर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गई। उस नौजवान की तरह और न जाने कितने लोग होंगे, जिनकी ऐसी ही मदद गणेश चाचा ने अवश्य ही की होगी। अच्छे से अच्छे निवेशकर्ता भी अपनी कमाई के ऐसे सर्वोत्तम निवेश के बारे में सोच नहीं पाते होंगे, जिसका सुफल इस नश्वर शरीर को त्याग देने के बाद भी मिलता रहता है।

कंडक्टर की नौकरी ऐसी नहीं होती कि कोई इसे कॅरिअर बनाने के बारे में सोचे। ...और फिर प्राइवेट बसों के कंडक्टरों की दुश्वारियों का तो कहना ही क्या। रोजाना बस मालिक की धौंस भरी झिड़की सुनने के साथ ही उसे आए दिन सड़क छाप मवालियों की झड़प का भी शिकार होना पड़ता है। महीने में तीस दिन और साल के बारहों महीने नौकरी की भी कोई गारंटी नहीं होती, मगर यह भी बहुत बड़ी हकीकत है कि बस स्टैंड से लेकर रास्ते के पड़ावों तक न जाने कितने ही लोग कंडक्टर की उदारता की बदौलत अपना पेट भरने के साथ ही अपने परिवार का भी भरण-पोषण करते हैं। ...और इनसे मिली दुआओं के रूप में एक कंडक्टर की कमाई किसी भी धन्नासेठ और आला अधिकारी से कहीं अधिक मायने रखती है। अंत में परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि उदारमना, हंसमुख और जिंदादिल स्वर्गीय गणेश चाचा को अपने चरणों में शरणागति प्रदान करें।

Saturday, August 22, 2020

आजु मंगल के दिनमा शुभे हो शुभे...

आजु मंगल के दिनवां शुभे हो शुभे...

आजकल छोटे-बड़े, अमीर-गरीब हर किसी की तमन्ना होती है कि हमारा बच्चा भी अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करे। "प्रातकाल उठि के रघुनाथा। मात पिता गुरु नावहिं माथा।।" की तरह पैर भले मत छुए, लेकिन देर सवेर जगने के बाद गुड मॉर्निंग जरूर बोले। यही वजह है कि कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में अंग्रेजी मीडियम स्कूल खुल गए हैं। माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए खुद का वर्तमान दांव पर लगा देते हैं। मगर अफसोस इन स्कूलों में बच्चों को अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान ही मिल पाता है और हिंदी का उनका ज्ञान...उसके बारे में तो क्या बताऊं। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी प्रधान राज्यों के लाखों बच्चे दसवीं व बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में मातृभाषा हिंदी में ही फेल हो जाते हैं।

...तो मैं कहना चाह रहा था कि आजकल बच्चों की पढ़ाई की शुरुआत ए फॉर एपल, बी फॉर बैट से होती है। खुशी की बात है कि अधिकतर बच्चों को खाने के लिए एपल और खेलने के लिए बैट मिल भी जाता है, इसलिए वे एपल और बैट के निहितार्थ भी समझ सकते हैं, लेकिन आज से करीब 40-45 साल पहले जब हमारी पढ़ाई शुरू हुई थी, तब बच्चों के लिए क्रिकेट के बारे में सोचना भी मुश्किल था, खेलने की तो बात ही छोड़ दें। हर अभ‌ि‍भावक के लिए बच्चे को सेब के दर्शन कराना भी संभव नहीं था। सेब को अंग्रेजी में एपल भी कहते हैं, इसका ज्ञान हमें छठी कक्षा में जाने पर हुआ था। क्योंकि उस जमाने में मिडिल स्कूल में जाने पर छठी कक्षा से ही अंग्रेजी की औपचारिक पढ़ाई शुरू होती थी। वह तो कमाल था गांव के म‌िडिल स्कूल के शिक्षक परमादरणीय महेश ठाकुर जी और पातेपुर हाई स्कूल में अंग्रेजी के स्वनामधन्य शिक्षक श्रद्धेय सोनेलाल बाबू का, जिन्होंने देर से शुरुआत के बावजूद कई पीढ़ियों को अंग्रेजी पढ़ने-समझने लायक बना दिया। 

अस्तु, हमारे जमाने में सामान्य परिवार के बच्चों के लिए आम, अमरूद, अनार आसानी से उपलब्ध थे और पढ़ाई की शुरुआत हिंदी के अक्षर ज्ञान से ही होती थी सो हमने सबसे पहले अ से अनार और आ से आम ही पढ़ा। उस जमाने में 25 पैसे की मनोहर पोथी आती थी। 25-30 पेज की वह छोटी सी पोथी कितनी मनोहर थी, इसका तो अहसास नहीं, मगर हिंदी की संपूर्ण वर्णमाला, ककहरा से लेकर बारह खड़ी, अक्षरों से शब्द बनाना, 1 से लेकर 100 तक गिनती और 20 तक का पहाड़ा हमने उसी से सीखा। 

हमारे साथ के बच्चों ने संडे-मंडे से पहले सोमवार, मंगलवार और जनवरी-फरवरी से पहले चैत-वैशाख ही सीखा था। किफायत में जीने वाले गांव वालों की ज‌िंदगी में किफायत हर कहीं पैबस्त हो जाती है। ऐसे में बोलचाल में भी किफायत की आदत सी हो जाती है और वे सोमवार को सोम, मंगलवार को मंगल कहने लगते हैं। बचपन के दिनों से ही शादी-विवाह के गीत मुझे आकर्षित करते रहे हैं। हमारे यहां ऐसे अवसरों पर एक गीत बड़ा ही कॉमन है- आजु मंगल के दिनमा शुभे हो शुभे... तो यदि मंगलवार को शादी-विवाह का आयोजन होता तब तो बात समझ में आती, लेकिन किसी दूसरे दिन ऐसे आयोजनों में "मंगल के दिनमा..." से ऊहापोह में पड़ जाता कि बुधवार, शुक्रवार या रविवार को "मंगल के दिनमा" कैसे हो गया। तब इस तथ्य से बिल्कुल अनजान था कि मंगल महज एक दिन का ही नाम नहीं, बल्कि मांगलिक आयोजन का भी द्योतक है।

परिवार में धार्मिक माहौल होने से एकादशी, पूर्णिमा आदि की अक्सर चर्चा होती थी। खासकर एकादशी के पारण के मुहूर्त के अनुसार समय की सटीक जानकारी के लिए पड़ोस में किसी घड़ी वाले के पास जाना पड़ता था। सो एकादशी के बारे में तो काफी कम उम्र में ही समझ गया था, मगर आस-पड़ोस में किसी की मृत्यु होने पर क्षौरकर्म के बाद ग्यारहवें-बारहवें दिन को एकादशा-द्वादशा कहे जाने से मैं असमंजस में पड़ जाता। और संयोग से यह एकादशा-द्वादशा यद‌ि एकादशी के दिन या उसके तत्काल बाद आता तो मेरा बाल मन महज "ई" की मात्रा के "आ" में बदल जाने से इसके मायने में आए बदलाव को लेकर उलझन में पड़ जाता। हमारे यहां वर्षा को बरखा कहने का भी चलन है। यहां तक तो ठीक था, लेकिन किसी की मृत्यु के एक वर्ष पूरे होने पर जब बरखी का आयोजन होता, उस समय भी "आ" और "ई" की मात्रा को लेकर मैं दुविधा में पड़ जाया करता था।

गांवों के लोगों में अपनापन की भावना अपेक्षाकृत अधिक प्रगाढ़ होती है। लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में आगे बढ़कर हिस्सा लेते हैं। खासकर किसी के निधन की सूचना मिलने पर अंतिम दर्शनों के लिए कदम सहज ही बढ़ जाया करते हैं। ऐसे में कई बार कई बार मैं भी परिवार के किसी बुजुर्ग के साथ हो लेता। आज से चार दशक पहले गांव में न तो डॉक्टर होते थे और न पास के कस्बे या शहर से उन्हें बुलाने की व्यवस्था थी, जो किसी की मृत्यु की पुष्टि करे। ऐसे में गांव में प्रैक्टिस करने वाले क्वेक ही मरणासन्न व्यक्ति को देखकर उसकी मृत्यु की घोषणा कर देते थे। कई बार टोले-मोहल्ले के कुछ विशेष पढ़े-लिखे तथाकथित "समझदार" यह दायित्व निभाते थे। वह मरणासन्न व्यक्ति की कलाई पकड़कर कुछ महसूस करने की कोशिश करते और फिर घोषणा कर देते- खतम हई खेल...नाड़ी कट गेलई। यह सुनकर मुझे बड़ा अचरज होता था कि कलाई से खून तो निकल नहीं रहा, फिर नाड़ी कैसे कट गई...
आज सुबह एक भाभी से बात की तो उन्होंने गांव में इस साल वर्षा के बजाय बरखा शब्द का इस्तेमाल किया तो बचपन की यादें बरबस ही स्मृति पटल पर हलचल मचाने लगीं तो मैंने इन्हें फेसबुक की दीवार पर टांग देना ही उचित समझा।  

Friday, August 14, 2020

दोस्ती का क्यूआर कोड

एलएस कॉलेज में बीए फर्स्ट ईयर की पढ़ाई शुरू ही हुई थी। विद्यार्थियों का अभी आपस में ढंग से परिचय भी नहीं हो पाया था। तीसरा-चौथा ही दिन रहा होगा। इंग्लिश की क्लास के बाद एक पीरियड लीजर था। इसके बाद साइकोलॉजी की क्लास थी। सो कई विद्यार्थी जाकर साइकोलॉजी की क्लास में बैठ गए। वहीं, कई विद्यार्थी डेस्क पर नोटबुक रखकर बाहर चहलकदमी कर रहे थे। 15-20 मिनट हुए होंगे कि द्वारपाल ने आकर बताया कि साइकोलॉजी वाली मैडम आज नहीं आएंगी। अंतिम पीरियड होने के कारण सभी विद्यार्थियों ने अपने-अपने घर की राह पकड़ ली। मेरी सीट के बगल वाली डेस्क पर एक नोट बुक रखी थी। मैंने थोड़ी देर इंतजार किया और फिर अपनी नोटबुक के साथ ही दूसरी डेस्क वाली नोटबुक भी उठाकर बाहर निकल आया और बरामदे में इंतजार करने लगा। साइकोलॉजी की क्लास के लिए निर्धारित समय से पहले एक विद्यार्थी आए। क्लास में सन्नाटा पसरा था। डेस्क से उनकी नोटबुक भी नदारद थी। उनकी आंखों में कई सवाल तैर रहे थे। तब तक उनकी नोटबुक पर लिखा नाम मैं देख चुका था। मैंने नाम लेकर उन्हें पुकारा और पूरी बात बताते हुए नोटबुक दी। वे बहुत खुश हुए। हम दोनों में परिचय हुआ। पता चला कि उन्होंने मुझसे दो साल पहले मैट्रिक की परीक्षा पास की थी और उसके बाद  टीचर्स ट्रेनिंग करने चले गए। वहां की पढ़ाई पूरी करने के बाद अब कॉलेज का रुख किया है। हम दोनों साथ ही कॉलेज से निकले। वे मुझे साथ लेकर छाता चौक स्थित बंशी स्वीट्स गए और क्रीम रॉल खिलाया। एक अन्य कॉलेज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए दो साल मुजफ्फरपुर में रहने के बावजूद मैं पहली बार क्रीम रॉल का लुत्फ उठा रहा था। मैं जहां अपने परिवार से कॉलेज की पढ़ाई के सिलसिले में बाहर रहने वाला पहला लड़का था, वहीं उनके सबसे बड़े भैया पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी कर रहे थे, जबकि दूसरे बड़े भाई यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे और दोनों साथ ही रहते थे। इस वजह से भी हमारे सहपाठी मेरी तुलना में शहर के रहन-सहन से ज्यादा अच्छी तरह वाकिफ थे। वहीं उनके बात-व्यवहार में भी एक अलग सलीका दिखता था। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान एटिकेट्स से लेकर साहित्यिक अभिरुचि तक को विकसित करने में उनसे काफी कुछ सीखने को मिला। ईश्वर की कृपा है कि आज भी मैं उनके संपर्क में हूं और उनसे कुछ न कुछ सीखने का सुअवसर मिलता ही रहता है।  

कॉलेज की पढ़ाई के बाद नौकरी की जद्दोजहद शुरू हो गई थी। किसी भर्ती परीक्षा के लिए बैंक ड्राफ्ट बनवाने के लिए हाजीपुर में स्टेट बैंक में कतार में लगा था। इसी बीच एक हमउम्र नौजवान वहां आया। वह काफी परेशान दिख रहा था। मेरे पूछने पर उसने बताया कि वह बचपन से ही शिलांग में रहा है। पूर्वोत्तर से ही उसने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और अब शिलांग में प्राइवेट नौकरी कर रहा है। उसका पैतृक गांव वैशाली जिले में है, मगर उसे यहां के बारे में कुछ भी पता नहीं है। इसे संयोग ही कहेंगे कि हमारे गांव के समीपवर्ती बैंक के एक स्टाफ अब हाजीपुर की उसी शाखा में तबादला होकर आ गए थे और उनसे मेरा परिचय भी था। उनकी मदद से उस युवक का बैंक का काम अपेक्षाकृत जल्दी हो गया। तब तक मेरा भी बैंक ड्राफ्ट बन गया था। संयोग से अगले ही महीने मुझे एक भर्ती परीक्षा के सिलसिले में शिलांग जाना था और पूर्वोत्तर का वह इलाका मेरे लिए काफी अनजान और दुर्गम भी था। मैंने जब उससे यह बात बताई तब उसने बड़ी ही सहृदयता से अपना पता दिया। शिलांग जाने पर उनसे मिला। शहर से काफी दूर उनके घर जाने का सुअवसर भी मिला। वहां पूर्वोत्तर के ग्रामीण परिवेश से भी साक्षात्कार हुआ। उनके पिताजी पनबिजली घर में काम करते थे। पहली बार वहां टरबाइन को देखकर महसूस किया कि बिजली में परिवर्तित होने के दौरान पानी कितनी तेजी से चीखता है। अफसोस, उस समय मोबाइल का चलन नहीं था और लैंडलाइन फोन हर किसी के वश की बात नहीं थी, इसल‌िए संपर्क सूत्र छूट गया। हालांकि आज भी उनके साथ खिंचाई गई फोटो उनकी याद दिलाती रहती है। आशा है, जीवन में किसी न किसी मोड़ पर अवश्य ही दुबारा मुलाकात होगी। 

पांच-छह साल पहले की बात है, मरुधर एक्सप्रेस में जयपुर से लखनऊ आ रहा था। ट्रेन रात में बांदीकुई पहुंचती है। वहां मेहंदीपुर बालाजी के दर्शन के बाद लौटने वाले काफी श्रद्धालु यह ट्रेन पकड़ते हैं। सो उन  यात्रियों के आने से नींद बाधित न हो, इसलिए मैं बांदीकुई स्टेशन के बाद ही सोना मुफीद समझता हूं। उस बार भी सोने की तैयारी कर रहा था कि श्रद्धालुओं का एक समूह मेरे कूपे में आया। सभी अपना सामान जमाने के बाद गपियाने में लग गए। उनकी बातों से बेखबर मैं  सोने का उपक्रम करने लगा और न जाने कब नींद आ गई। सुबह जगने के बाद नया ज्ञानोदय के पन्ने पलट रहा था। इसी बीच ऊपर की बर्थ से एक सज्जन उतरे और मुझसे पत्रिका मांगी। बातों ही बातों में परिचय हुआ। पता चला कि वे इंटर कॉलेज के प्राचार्य हैं। हिंदी साहित्य  उनका विषय रहा है। फिर तो विभिन्न मुद्दों पर चर्चा शुरू हो गई। हम दोनों ने एक-दूसरे के फोन नंबर लिए। उनके पूछने पर मैंने बताया कि मैं भी फेसबुक पर हूं। हाथोंहाथ फ्रेंड रिक्वेस्ट के आदान-प्रदान के साथ कन्फर्मेशन की प्रक्रिया पूरी की गई। उनकी फेसबुक वॉल पर सारे आलेख रोमन इंग्लिश में थे। उन्होंने देवनागरी में न लिख पाने की परेशानी बताई तो मैंने अपनी अल्पज्ञता की सीमा में ही निदान सुझा दिया। उन्होंने वादा किया कि अब वे हिंदी में ही लिखेंगे। उनके पास अध्यात्म से लेकर साहित्यिक और जीवन दर्शन के ज्ञान का अकूत भंडार है। ...और तबसे रोज वे तड़के तीन से चार बजे तीन-चार आलेख अपनी फेसबुक वॉल पर पोस्ट कर देते हैं। इससे मेरी ही नहीं, मेरे जैसे सैकड़ों लोगों के जीवन जीने की राह हमवार होती है।  
 
कई अन्य मित्रों के ऐसे भी अनुभव पढ़ने-सुनने में आए हैं जब कुछ ऐसा संयोग बना जब लोग दो जान एक दिल बनकर सदा-सदा के लिए एक-दूसरे के हो गए। एक मित्र की सुनाई आपबीती याद करता हूं। अखबार में काम करने वाली एक लड़की रास्ते में अचानक आई बारिश में बुरी तरह भीगने के बाद दफ्तर पहुंची तो वहां उसके साथ काम करने वाले युवक ने अपना कोट उसे दे दिया। कोट की गरमाहट जीवन में ऐसी घुली कि दोनों आज एक आदर्श पति-पत्नी के रूप में जीवन यापन कर रहे हैं। ऐसे ही एक लड़की ने कॉलेज कैंपस में एक युवक से किसी टीचर की क्लास के बारे में पूछा। युवक ने ना में सिर हिला दिया। लड़की ने खुद जाकर देखा तो उन टीचर की क्लास चल रही थी। लड़की लौटकर आई और गुस्से में झल्लाकर बोली, क्लास तो चल रही है। युवक भी रौ में था। बोल पड़ा-मैं क्या द्वारपाल हूं कि सबकी जानकारी रखूं। बात आई-गई हो गई। लेकिन दोनों को एक-दूसरे को यह अदा ऐसी भाई कि दोनों अग्नि के गिर्द सात फेरे लेकर जनम-जनम के लिए एक-दूजे के हो गए। 
हम सभी के जीवन में पढ़ाई से लकर नौकरी तक, बस और ट्रेन के सफर से लेकर स्थान विशेष पर प्रवास तक, ब्लॉग से लेकर फेसबुक तक...ऐसे कई लोग मिले हैं जो जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। जिनकी मदद से हमारी जिंदगी की गाड़ी फर्राटे भर रही है, वरना न जाने कैसे कहां हिचकोले खाती रहती। ऐसा महसूस होता है कि ऊपर वाले ने हम सभी के अंदर दोस्ती का क्यूआर कोड इंस्टॉल किया हुआ है। जिन दो लोगों के बीच दोस्ती का यह क्यूआर कोड मैच हो जाता है, वे सदा-सर्वदा के लिए दोस्ती के बंधन में बंध जाते हैं। क्या खयाल है आपका...जरूर बताइएगा।

Tuesday, August 11, 2020

झूला लगे आम की डाली

झूला लगे आम की डाली

मानव मन सदा कल्पनाओं के झूले पर सवार रहता है, ऐसे में उसे अपने अंदर संजोकर रखने वाले शरीर को भी तो झूलने का कोई अवसर चाहिए ही। शायद इसीलिए झूले की ईजाद की गई। द्वापर युग से जुड़ी कथाओं में सावन में गोपियों संग श्रीकृष्ण के झूला झूलने का उल्लेख है। शायद इसीलिए आज भी वृंदावन के साथ ही देशभर में भगवान श्री कृष्ण के मंदिरों में सावन महीने में झूला महोत्सव मनाया जाता है। वहीं कई राज्यों में नवयुवतियां विवाह के बाद पहले सावन में ससुराल में नहीं रहती हैं। मगर प्रेम में पगे दिल को परंपराओं के बंधन कहां सुहाते हैं। मायके में आने के बाद सावन की फुहारों के बावजूद विरह की आग नहीं बुझती हैं तो वे सहेलियों के साथ बगीचे में कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं।

वहीं बिहार के वैशाली जिला स्थित हमारे गांव में भादो महीने में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर झूला झूलने का चलन है। गांव के पश्चिम में होने के कारण हमारे टोला को पछियारी टोला कहते हैं। कभी यहां आम के काफी बगीचे थे, इसलिए हमारे टोले को गाछी टोला भी कहा जाता था। हालांकि उतने अधिक बगीचे तो मैंने नहीं देखे, लेकिन हमारे दरवाजे के सामने ही आम का बहुत बड़ा बगीचा था। घर के आस-पड़ोस में भी आम के कई पेड़ थे। जन्माष्टमी पर इन्हीं पेड़ों पर झूला लगाए जाते।
हफ्ता भर पहले ही सावन पूर्णिमा पर राखी बंधवाते समय बहनों की खुशी के लिए कुछ भी कर गुजरने का वादा करने वाले भाइयों के लिए जन्माष्टमी का त्योहार बहनों पर इम्प्रेशन जमाने का भी अवसर होता था। ऐसे में नौजवान दो दिन पहले से ही झूला लगाने की तैयारी में जुट जाते थे। बांस और ताड़ का छज्जा काटकर लाते और उसे तराशा जाता। झूला के लिए दो तरफ से दो बांस लगाए जाते और ताड़ के छज्जे के डमखो (डंठल) को कूंचकर बांस के ऊपरी सिरे को उससे बांधकर आम के पेड़ पर काफी ऊंचाई पर लटकाया जाता। ...और नीचे बांस के दोनों सिरों में ताड़ के डमखो को कूंचकर उसमें हेंगा (पाटा) को बीच में फंसाया जाता। कई बार ताड़ के डमखो के स्थान पर साइकिल के पुराने टायर का भी इस्तेमाल किया जाता था। एल्यूमिनियम के तारों से इनको बड़ी मजबूती से बांधा जाता था।  

जन्माष्टमी के दिन तड़के ही झूला झूलने का दौर शुरू हो जाता था। बड़ी लड़कियां अपनी सहेलियों के साथ झूले पर जब दोनों छोर से मचक्का (पींगें ) मारतीं तो झूला आकाश से बात करने लगता। पर्दा प्रथा के कारण  परिवार की बहुओं का बाहर निकलना संभव नहीं था, सो कई नवविवाहित बहुएं अपनी ननदों की खुशामद कर पौ फटने से पहले झूले का आनंद लेतीं। वहीं, जिन बहुओं का नंबर नहीं आ पाता और यदि झूला दिन भर अनवरत सेवाएं देने के बाद भी सलामत बच जाता तो वे शाम के धुंधलके में अपने अरमान पूरे करतीं। इस तरह वे ससुराल में रहकर भी अपने मायके की स्वच्छंदता को जी लेती थीं।

हम बच्चों के लिए उस झूले का लुत्फ उठाना खतरे से खाली नहीं था, सो हमें उस पर झूलने की इजाजत नहीं थी। मगर भावनाएं तो हमारे भी हृदय में हिलोरें लेती रहती थीं, सो हमारी बाल मंडली खेत में हेंगा (पाटा) को बांधने के काम में आने वाली बरही और पीढ़ा लेकर गाछी में चले जाते और अपेक्षाकृत कम ऊंजाई वाली आम के पेड़ की डाली पर रस्सी डालते हुए उस पर पीढ़ा फंसाकर झूले का रूप देते। इसके बाद तलाश की जाती एक चींटी की, जिसे सबसे पहले झूला झुलाया जाता। साथ में हम बच्चे समवेत स्वर में गाते-
तोरा मायो न झुललकऊ, तोरा बापो न झुललकऊ, तोरा हमहि झुललिअऊ...
अर्थात तुम्हें मां ने भी नहीं झुलाया, तुम्हें पिता ने भी नहीं झुलाया, तुम्हें हम ही झुला रहे हैं। यह एक तरह का टोटका भी था कि जब हम झूलें तो उस दौरान रस्सी न टूटे।

सरगही का सुपर क्रेज

भगवान कृष्ण की महिमा के बारे में तो बड़े-बड़े विद्वान नहीं जान पाए तो हम बच्चे क्या समझ पाते, लेकिन परिवार के बड़े लोगों की देखा-देखी हम भी जन्माष्टमी पर उपवास रखते थे। हर घड़ी जिन बच्चों का मुंह चलता ही रहता है, वे दिन भर भूखे कैसे रहेंगे, इसे देखते हुए मां तीन-चार दिन पहले से ही पर्याप्त व्यवस्था कर लेती थी। जन्माष्टमी के दिन तड़के साढ़े तीन-चार बजे हम बच्चों को जगाकर चिवड़ा-दही-केला आदि खिला दिया जाता। भोर के इस भोजन को हमारे यहां सरगही कहा जाता है। सरगही के बाद उपवास शुरू हो जाता। बाल मंडली को दिन में एकाध बार शरबत पीने की छूट भी मिल जाती थी।
भगवान कृष्ण के नाम पर उपवास किया जाता था, सो कुछ भक्ति भाव का होना भी जरूरी था। कृष्ण भगवान का कोई मंदिर हमारे आसपास नहीं था, सो दोपहर में हम नहा-धोकर शिव मंदिर जाते और भगवान आशुतोष का जलाभिषेक करते।

पंगत में फलाहार

ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म आधी रात में हुआ था, सो परिवार के बड़े लोग तो रात के 12 बजे घरों में ही श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाने के बाद व्रत का पारायण करते, वहीं कुछ लोग सुबह में ही व्रत खोलते, लेकिन बच्चों के लिए इतना लंबा अंतराल...आधी रात तक कैसे जगे रहते और अगर बच्चे सो जाएं तो उन्हें जगाना और भी मुश्किल। सो बीच का रास्ता निकालते हुए बच्चों को फलाहार की छूट दे दी जाती थी। सूर्यास्त होने के बाद आंगन में बच्चों की पंगत लगती और हम सभी दूध-केला, साबूदाना की खीर, आम, अमरूद आदि का भोग लगाते।

चलते-चलते
बदलते हुए समय के साथ सब कुछ महज पुराने दिनों की यादें बनकर रह गई हैं। अब न तो वे आम के पेड़ रहे और न झूला लगाने का वह उत्साह ही बचा। मगर झूला झूलने का मोह तो नई पीढ़ी के बच्चों में भी बरकरार है, सो छत की कड़ी में रस्सी बांधकर वे दो-चार पींगें भर लेते हैं। ...एक बात और। बचपन से ही देखता आया हूं कि जन्माष्टमी दो दिन होती है। इस बार भी कुछ वैसा ही रहा। लखनऊ में आज जन्माष्टमी है, जबकि बिहार में कई स्थानों पर मंगलवार को ही जन्माष्टमी मना ली गई। मुजफ्फरपुर से एक दोस्त ने जन्माष्टमी पर छत की कड़ी से बंधी रस्सी पर झूलते बच्चे का वीडियो शेयर किया तो बरबस ही बचपन के दिनों की यादें ताजा हो आईं।

Sunday, August 2, 2020

राखी का त्योहार : भावनाओं को भुनाता बाजार

मई-जून की चिलचिलाती धूप की तपन को कभी रिमझिम कभी झमाझम से बुरी तरह धोकर संपूर्ण जीव जगत और वनस्पति को तृप्त-संतृप्त कर देने वाले सावन की पूर्णाहुति भाई-बहन के प्यार के पर्व रक्षाबंधन से होती है। चंद घंटों के बाद ही क्षितिज पर भगवान भास्कर की लालिमा के साथ यह पवित्र पर्व एक बार फिर दस्तक देने वाला है। दफ्तर से लौटा हूं और न जाने पिछले कितने वर्षों की यादें किसी फिल्म के फ्लैश बैक की तरह  दिमाग में धमाचौकड़ी मचाने लगी हैं।

बचपन के दिनों में राखी के त्योहार पर उत्साह-उमंग का एक अद्भुत माहौल हमारे मन में ही नहीं, वातावरण में भी व्याप जाता था। तब खाली जेब की मजबूरी और इस मौसम में खेती के कामों की अधिकता लोगों को बाजार जाने की इजाजत नहीं देती थी। बहनें गांव में साइकिल से फेरी लगाने वाले से ही राखी खरीदती थीं। राखी भी अति साधारण-रंग-बिरंगे स्पंज वाली। हां, कुछ राखियां दो-तीन मंजिली होती थीं और उनका आकार और ऊंचाई कुछ ज्यादा हो जाया करती थी। कुछेक राखियों में चमकीली पत्तियां भी लगी होती थीं, मगर सबके मूल में स्पंज ही होता था।

रक्षाबंधन के दिन हम सुबह-सुबह नहा-धोकर तैयार हो जाते और दीदी के साथ ही छोटी बहन हमारे ललाट पर रोली का चंदन लगाकर हमारी कलाई पर अपने स्नेह का धागा बांधतीं। इसके बाद पेड़ा खिलाकर हमारा मुंह मीठा करातीं। तब गांवों में अक्सर सभी लोग गाय-भैंस पालते थे। ऐसे में पेड़ा बड़ी आसानी से घर पर ही बना लिया जाता था। तब बहन का मतलब केवल सगी बहनों से ही नहीं हुआ करता था। दीदी की सहेलियों और दोस्तों की बहनों के लिए भी हमारा स्थान उनके सगे भाई से कम नहीं होता था। सो कलाई से कोहनी तक  हमारा हाथ रंग-बिरंगी राखियों से सज जाता था और आस-पड़ोस में घूम-घूम कर एक दूसरे को अपनी राखियां दिखाया करते थे। 

समय बीतने के साथ बहुत कुछ बदल गया। पहले पढ़ाई और फिर रोजी रोजगार के लिए घर छोड़ना पड़ा और फिर रक्षाबंधन से कई दिनों पहले से आंखें डाकिये की आहट सुनने को बेताब रहती हैं। कई ज्ञात-अज्ञात कारणों से डाक विभाग के हिस्से का बहुत सारा काम कूरियर कंपनियों ने हथिया लिया है, सो कई बार राखियां कूरियर से भी आती हैं। अब तो बाजार में अनगिनत डिजाइन की राखियां नजर आती हैं। मिकी माउस, डोरेमान सरीखे कार्टून कैरेक्टर से होता हुआ राखियों का सफर अब फाइटर जेट विमान राफेल तक पहुंच चुका है। 
आज जब कोरोनावायरस की वैश्विक महामारी की वजह से हम दहशत के साए में जीने को विवश हैं, ऐसे में रक्षाबंधन का त्योहार भी इससे अछूता नहीं रह पाया है। वहीं ऑनलाइन मार्केटिंग कंपनियों ने इस आपदा को अवसर में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। 
पीतल जैसी चमकीली तारों से बुनी करीब चार इंच परिधि वाली खिलौना नुमा टोकरी में एक सिंपल राखी, अक्षत के आठ-दस दाने, नाममात्र की रोली और एक रुपया में चार के हिसाब से मिलने वाली सुनहरे कागज में लिपटी कुल जमा पंद्रह टॉफियां...और  कीमत ढाई सौ में एक रुपया कम...मात्र दो सौ उनचास रुपये। इस व्यापार को क्या कहा जाए। भाई के लिए बहन का स्नेह अनमोल है, चंद रुपयों में उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, लेकिन भाई तक अपनी स्नेहिल भावनाओं को भेजने के लिए इतनी अधिक कीमत वसूलने को कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता।