Thursday, June 30, 2011

आम हुए खास, आटे का भी टोटा

' सहदेव बोला- वैसे इन दिनों आसपास के वनों में फलों की कमी नहीं है। वृक्ष फलों के बोझ से लदे पड़े हैं। हमारा प्रयत्न है कि अन्न को अभी सुरक्षित रखा जाए और जब तक फल उपलब्ध हैं, फलाहार ही किया जाए।Ó नरेंद्र कोहली के 'महासमरÓ के पंचम खंड 'अंतरालÓ के अंतिम पृष्ठों में पांडवों के बारह वर्ष के वनवास के प्रसंग को पढ़ते हुए अचानक अपना बचपन याद आ गया। मैं गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ता था, जहां आज के इंग्लिश मीडियम स्कूल की तरह गर्मी की छुट्टी में होमवर्क का बोझ बच्चों के सिर पर नहीं लादा जाता था। ऐसे में गर्मी की छुट्टी का मतलब होता था नॉन स्टॉप मस्ती। ज्येष्ठ-आषाढ़ के महीने में हम पूरी तरह आम के बगीचे के होकर रह जाते थे। बगीचे में अस्थायी मड़ैया बना दी जाती थी, जहां हम सभी भाई-बहन दिनभर आम की रखवारी के साथ ही कोयल के साथ 'कू-कूÓ कूकने की प्रतियोगिता करते। आम के साथ ही जामुन का स्वाद भी बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करता और कई बार जामुन के पेड़ से गिरने के बाद भी उसके प्रति हमारा प्रेम कम नहीं हो पाता। ऐसी कपोल कल्पित अफवाह थी कि रात में इन बगीचों में भूत-प्रेत आते हैं, इसलिए शाम होते ही घर आ जाते थे और रात में बगीचे की रखवारी की जिम्मेदारी हमारे ताऊजी ही संभाला करते थे।
हां, तो मुझे जिस संदर्भ में 'महासमरÓ की उपरोक्त पंक्तियां मेरे बचपन में ले गईं वो कुछ यूं थीं कि घर की माली हालत सामान्य ही थी। दो ताऊ किसान ही थे और बाबूजी की शिक्षक की नौकरी से मिलने वाली पगार परिवार की गाड़ी को जैसे-तैसे खींच पाती थी। ऐसे में जब हम खाना खाने बैठते तो दादी कहतीं कि रोटी कम से कम खाओ और आम से ही पेट भरो। हालांकि विभिन्न प्रजातियों के आम से स्वाद की एकरसता की समस्या भी नहीं हुआ करती थी, फिर भी बालसुलभ मन उन तर्कों को कहां माना करता था।
उन दिनों आम हर आमजन को सुलभ था। जिनके बगीचे नहीं होते और वे बगीचे में या घर पर आते तो कभी खाली हाथ नहीं लौटते। आम बेचने का चलन तो बिल्कुल ही नहीं था या यूं कहें कि इसे बुरा माना जाता था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुझे लगता है कि हर किसी की पहुंच में होने के कारण ही फलों के राजा का नामकरण 'आमÓ किया गया होगा।
आज जब गुलाबी नगर में रहते हुए 50 से 70 रुपए किलो तक आम खरीदना पड़ता है तो आटे-दाल का भाव सहज ही याद आ जाता है। बचपन से मुंह लगा आम का स्वाद अन्य खर्चों में कटौती की कीमत पर ही पूरा हो पाता है। इसके साथ ही सामान्य परचूनी की दुकान में भी 15 रुपए किलो आटा मिलता है और पैकेटबंद आटा भी 20-22 रुपए किलो तक मिल पाता है। ऐसे में आम भी खास लोगों की पहुंच तक सिमटकर रह गया है और आटे के लिए भी आम आदमी को इस कदर अंटी ढीली करनी पड़ती है कि जरूरत की बाकी चीजों के लिए समझौते के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता।

Sunday, June 19, 2011

सदैव सामयिक है संस्कृत

राजस्थान संस्कृत अकादमी व रामानंद आध्यात्मिक सेवा समिति की ओर से झालाना सांस्थानिक क्षेत्र स्थित राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी सभागार में 'पत्रकारिता में संस्कृत : वर्तमान और भविष्यÓ पर चल रही दो दिवसीय संगोष्ठी के अंतिम दिन रविवार सुबह 'संस्कृत की सामयिकताÓ विषयक सत्र में मुझ नाचीज को भी कुछ कहने का अवसर मिला। करीब 15 साल बाद कोई सार्वजनिक मंच मिला था, इसलिए काफी संकोच भी हो रहा था, फिर पत्रकारिता को आजीविका के रूप में अपनाने तथा अन्यान्य कारणों से संस्कृत का साथ छूटे भी करीब डेढ़ दशक हो गए। एक सप्ताह पहले सूचना मिली कि मुझे भी 'संस्कृत की सामयिकताÓ पर कुछ कहना होगा और मैं पिछले एक माह से किसी और काम में लगा था, जो शनिवार शाम को ही पूरा हुआ था। ऐसे में शनिवार मध्यरात्रि ऑफिस के काम से फ्री होने के बाद जहां तक मैं सोच सका, वही मेरे वक्तव्य का हिस्सा बना। मेरी अल्पज्ञता अपनी जगह पर थी, लेकिन सौभाग्य उससे कहीं अधिक था कि श्रद्धेय बलदेवानंद सागर, प्रो. अर्कनाथ चौधरी, देवर्षि कलानाथ शास्त्री, प्रो. सुदेश शर्मा सहित संस्कृत के दशाधिक स्वनामधन्य विद्वानों के सान्निध्य में कुछ बोलने का अवसर मिला। मैंने इस आलेख को जस का तस तो नहीं पढ़ा, क्योंकि देखकर पढऩे से संप्रेषणीयता में कमी आती है और मेरा कॉन्शस भी इसकी अनुमति नहीं दे पाया, लेकिन मेरा वक्तव्य इसी के आसपास केन्द्रित था।

संस्कृत की सामयिकता

सबसे पहले तो मैं कहना चाहूंगा कि जिस विषय को आज की चर्चा का केंद्रबिंदु बनाया गया है, वह सही नहीं है। कोई वस्तु या विद्या यदि अप्रासंगिक हो जाती है तो इसकी प्रासंगिकता सिद्ध करने के लिए इसके पक्ष में विभिन्न तर्क रखे जाते हैं, लेकिन संस्कृत तो सदैव सामयिक है और रहेगी। जीवन में हर कदम पर संस्कृत हमें मार्ग दिखाती है। कोई भी जिज्ञासा हमारे मन में उठे, उसका समाधान पहले से संस्कृत के ग्रंथों में सन्निहित है। जिस तरह प्रत्येक जीवधारी के लिए ऑक्सीजन की उपयोगिता सदैव सामयिक है, वैसे ही मानव जीवन के लिए संस्कृत भाषा की उपयोगिता सर्वकालिक है।
चिकित्सा का क्षेत्र हो तो आयुर्वेद में मनुष्य के आरोग्य का वरदान संजोया हुआ है। यदि उनका पालन किया जाए तो इस आपाधापी के युग में भी सम्यक जीवन जीया जा सकता है।
संस्कृत ग्रंथों में आदर्श परिवार की व्याख्या की गई है। धर्मशास्त्रों में वर्णित जीवन पद्धति को अपनाने से परिवार में सदैव स्नेह, सामंजस्य और समरसता बनी रहती है और इन पर अमल नहीं करने से अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता के भावों का समावेश जीवन में होता है और परिवार के बिखराव से लेकर जीवन के असमय अंत के रूप में इसके परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं।
वर्तमान समय में पर्यावरण की सुरक्षा की चिंता बड़े जोर-शोर से की जाती है। संस्कृत ग्रंथों में ऋषि-मुनियों के जंगल में रहने, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी को अपना परिवार समझने की परिपाटी का चित्रण किया गया है। कविकुलगुरु कालिदास ने अभिज्ञानशाकुंतलम् में कण्व ऋषि और शकुंतला के माध्यम से इसका कितना मनोहारी वर्णन किया है।
व्यक्तित्व निर्माण के जो मार्ग संस्कृत ग्रंथों में दिखाए गए हैं, अन्यत्र दुर्लभ हैं। वसुधैव कुटुंबकम् का पाठ पढ़ाने वाली संस्कृत भाषा कभी भौतिकवाद को प्रश्रय नहीं देती। पुरुषार्थ चतुष्टय में भी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में धर्म को सर्वोपरि स्थान दिया गया है और धर्म के मार्ग पर चलने वाला अपना हित साधने के लिए कभी दूसरे का अहित नहीं कर सकता।
हर हाल में संतुलित जीवन जीने का जो उपदेश संस्कृत ग्रंथों (श्रीमद्भगवद्गीता) में --सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभे जयाजयौ...।। दिया गया, वह हजारों वर्ष बाद आज भी सामयिक है और आने वाली सदियों में भी सामयिक बना रहेगा।
आजकल तनाव और अवसाद की बातें बहुधा की जाती हैं। इसके दुष्परिणामों से समाचार पत्र भरे रहते हैं। इसके बावजूद मैं कहना चाहूंगा कि आज के आदमी के तनाव या अवसाद का स्तर कुरुक्षेत्र के अर्जुन की तुलना में पासंग में भी नहीं है। ऐसे में योगेश्वर कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिए थे, वे देश-काल-व्यक्ति की सीमा से परे आज भी हर किसी के लिए हैं, बशर्ते हम उसका मनन-चिंतन करने के साथ ही उस पर अमल करें।
एक बात और, संस्कृत ग्रंथों-रामायण, श्रीमद्भगवद्गीता सरीखे ग्रंथों को हमने वंदनीय मानकर इसे पूजाघर में रख दिया और रोज इसे धूप-दीप दिखा रहे हैं। आज आवश्यकता है कि संस्कृत को पूजाघर से निकालकर प्रयोग में लाया जाए और इसके माध्यम से अपने जीवन को समुन्नत बनाया जाए।
आज कम्प्यूटर के इस युग में आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी संस्कृत को कम्प्यूटर के लिए सर्वाधिक योग्य भाषा माना है। ऐसे में युवाओं के लिए इसमें काफी अवसर हैं। संस्कृत को कम्प्यूटर के हिसाब से विकसित करने की बात की जा रही है और इसकी धीमी गति पर चिंता भी जताई जाती है, तो मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा कि देववाणी को मन से मानव की भाषा के रूप में जब हम अपना लेंगे तो यह मशीनों को भी रास आने लगेगी और संस्कृतनिष्ठ युवकों के लिए अवश्य ही रोजगार के द्वार खुलेंगे। संस्कृत पढऩे वालों के लिए अवसरों की कमी कदापि नहीं होगी, बशर्ते वे अपने आंख-कान खोले रखें, अन्यथा इंजीनियर भी ट्यूशन पढ़ाकर घरखर्च चला रहे हैं और डॉक्टरों को अपनी डल प्रैक्टिस में जान डालने के लिए खोजने से भी टॉनिक नहीं मिलता। इसलिए आज संस्कृत के विद्यार्थी संस्कृत पर अधिकार के साथ अन्य अन्य भाषाओं, विज्ञान, देश-दुनिया में हो रहे अनुसंधानों से खुद को अपडेट रखें और उसे संस्कृत के संदर्भ में देखने की भरसक कोशिश करें। अमरकोश के साथ फादर कामिल बुल्के की डिक्शनरी का ज्ञान भी जरूरी है।
संस्कृत किसी जाति--परिधान-यूनिफॉर्म विशेष वालों के लिए ही है, इस अवधारणा को भी हमें छोडऩा होगा। आज संस्कृत पढऩे-जानने वालों को चाहिए जहां कहीं उन्हें कोई संस्कृतानुरागी मिले तो आगे बढ़कर हृदय से उसे अपनाएं, यथोचित मार्गदर्शन करें। दूसरे शब्दों में कहूं तो हमारे लिए कोई भी त्याज्य नहीं हो और हम किसी के लिए अग्राह्य न हो पाएं।
एक बात और, स्कूल-कॉलेजों में संस्कृत की शिक्षा देने के साथ ही इसे आमजन के बीच ले जाना होगा। विभिन्न प्रोफेशनल्स को यदि उनके विषय से संबंधित संस्कृत ग्रंथों के बारे में भी बताया जाए तो यह मणिकांचन संयोग बनेगा। आज किसी फिजिशियन और सर्जन को आयुर्वेद का भी ज्ञान हो तो अपने रोगियों का और भी बेहतर इलाज कर सकता है। सिविल इंजीनियर यदि वास्तु विज्ञान के ज्ञान से भी लैस हों तो उनके बनाए भवनों की गुणवत्ता के क्या कहने। किसी न्यायाधीश को न्यायिक दर्शन की भी जानकारी हो तो उसके फैसले अन्य जजों को लिए भी अनुकरणीय हो जाएंगे।
आज हम जिस दौर में जी रहे हैं, ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार ने सदाचार को पग-पग पर पटखनी देने की ठान ली है और मनुष्य की भौतिक सुखों की लिप्सा ऐसे में आग में घी का काम करती है। जीवन मूल्यों के पतन का ऐसा सिलसिला चल निकला है कि इससे उबरने का कोई मार्ग दिखाई नहीं देता। एक शायर के शब्दों में कहूं तो -
पीछे बंधे हैं हाथ और तय है सफर।
किससे कहें कि पांव के कांटे निकाल दे।।
तो आचरण में अशुद्धि, जीवन मूल्यों की क्षति के इस दौर में एकमात्र संस्कृत में वह ताकत है जो इस कांटे को निकालकर मानव को संस्कारित करके उचित मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे सकेगी और इसकी सामयिकता सदैव असंदिग्ध बनी रहेगी।