Thursday, December 1, 2011

'बड़की मायÓ के साथ एक युग का अवसान

आजकल बाबूजी का स्वास्थ्य कुछ ठीक नहीं चल रहा। नौकरी की अपनी मजबूरियां हैं कि चाहकर भी भौतिक दूरियां कम नहीं हो पा रहीं। हां, मन तो वहीं लगा रहता है, बाबूजी का हालचाल जानने के लिए फोन किया तो छोटा भाई घर से दूर कहीं खेत में मजदूरों से काम करवा रहा था। उसने बाबूजी के स्वास्थ्य में सुधार की सूचना दी तो मन को तसल्ली मिली लेकिन अगले ही पल उसने कहा-'बड़की माय नहीं रहींÓ। यह समाचार सुनते ही फ्लैश बैक में कई सारे दृश्य घूमने लगे। भला हो बाबूजी का जिनकी प्रेरणा से गत अगस्त में गृह प्रवास के दौरान ' बड़की मायÓ के अंतिम दर्शन का सौभाग्य मिल पाया। संयोग ऐसा कि साथ में मां-बाबूजी के साथ मेरा लंगोटिया यार अरविंद भी था जिसके साथ मैंने न जाने कितनी बार 'बड़की मायÓ के हाथों से बने व्यंजनों का लुत्फ उठाया होगा।
आज जब पुरानी यादों को सहेजने बैठा हूं तो सब कुछ किसी काल्पनिक कहानी सा लगता है। मेरा गांव बिहार का नामी ब्राह्मण बहुल गांव है। हमारे पड़ोस में है धनकौल। दूरी महज इतनी कि हमारे खेतों के पार से थोड़ा आगे बढ़ो तो वहां पहुंच जाओ। उस गांव की सर्वाधिक महत्वपूर्ण हस्ती थे श्री योगेंद्र सिंह। मेरे गांव के लगभर हर परिवार के साथ उनका उठना-बैठना-अपनापा था। यूं कहें कि मेरे गांव में होने वाले आपसी विवादों के निबटारे में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका हुआ करती थी और इसमें उनका राजपूत होना कभी आड़े नहीं आता। सही मायने में वे मानव थे-महामानव। अक्सर शाम को वे नियम से पैदल ही हमारे गांव में आते और कभी हमारे दरवाजे पर तो पड़ोस में या फिर गांव में और कहीं उनकी महफिल सजती। लोग बैठकर दिनभर का हाल-ए-बयां करने के साथ ही अपनी परेशानियां भी आपस में बांटकर मन हल्का कर लेते थे। बहुत बचपन की बात करूं तो तब तक चाय का चलन शुरू नहीं हुआ था, सो खैनी और सुपारी से ही एक-दूसरे का स्वागत किया जाता था। चूंकि मेरे बाबूजी का नाम भी योगेंद्र मिश्र है और बिहार में ऐसी परंपरा है कि लोग अपने नाम वाले व्यक्ति को नाम लेकर नहीं पुकारते बल्कि आपस में एक-दूसरे को 'मीतÓ कहा करते हैं। सो बाबूजी भी उन्हें 'मीतÓ कहा करते थे और हम सभी भाई-बहन उन्हें 'बाबाÓ या 'धनकौल वाले बाबाÓ कहकर पुकारते थे। मेरे ताऊजी 'बाबाÓ के हमउम्र थे, लेकिन बाबूजी से भी उनकी अच्छी पटती थी। 'बाबाÓ के छोटे भाई श्री देवेंद्र सिंह हाई स्कूल में गणित के सिद्धहस्त शिक्षक थे और अंग्रेजी पर भी उनका अधिकार था। पढ़ाने का तरीका इतना सहज कि एक बार जो बता दिया वह कभी भूलता नहीं था। उन्हीं का आशीर्वाद था कि बीजगणित और त्रिकोणमिति के सवालों ने मुझे कभी परेशान नहीं किया।
खैर, बात 'बाबाÓ की दरियादिली की। उनका स्टेटस क्या था, इसका अंदाजा तो मुझे किशोरावस्था में भला क्या होना था, लेकिन एक बात थी कि अपनी कैसी भी परेशानी लेकर उनके शरण में जो भी आता, उसकी समस्या लौटते वक्त नहीं रहती थी। ऐसे में मैंने ' बड़की मायÓ के चेहरे पर भी कभी शिकन या शिकायत का भाव नहीं देखा। न जाने क्या हुआ कि जब मैं बीए में पढ़ रहा था, एक दिन खबर मिली कि डकैतों ने पीट-पीटकर 'बाबाÓ की हत्या कर दी। उसके बाद जब कभी उनके घर पर गया तो जैसे लगता था कि 'बाबाÓ के साथ ही उस घर के सारे संस्कार भी विदा हो गए। कुछ वर्षों बाद देवेंद्र बाबू भी नहीं रहे। इतना ही नहीं, हमारी पीढ़ी में भी सेंध लग गया और एक असाध्य बीमारी ने अवधेश भाई साहब को भी असमय हमसे छीन लिया। रही-सही यादें 'बड़की मायÓ के साथ जुड़ी थीं, लेकिन उनके परलोकगमन के साथ ही जैसे एक युग का अवसान हो गया। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि इन पुण्यात्माओं को शांति प्रदान करे और आने वाली पीढ़ी में ऐसे संस्कार जिनसे लोगों को याद करने का चलन बना रह सके।