Wednesday, September 18, 2013

बाट निहारें रोज निगाहें...


आज से करीब पौने दो साल पहले जब आखिरी ब्लॉग पोस्ट किया था, तो बाबूजी के स्वास्थ्य की चिंता चरम पर थी। जब से होश संभाला, दमा के कारण अक्सर उन्हें बेदम होते देखा था। मरणासन्न होने की नौबत आ जाती थी, लेकिन दवाओं के प्रभाव और मां की दिन-रात की सेवा के बदौलत रिकवर कर लेते थे। ऐसे में आशा थी कि अभी कुछ वर्षों तक सिर पर उनका हाथ रहेगा, लेकिन अपने सोचने से सब कुछ कहां हो पाता है। ईश्वर को धन्यवाद देना चाहूंगा कि बाबूजी के स्वर्गारोहण के महज एक महीने पहले ही गांव जाने का सुअवसर मिल गया था जिससे बाबूजी के साथ कुछ पल बिता पाया था। उस दौरान भी कुछ ऐसा आभास नहीं हुआ कि यह मनहूस घड़ी इतनी पास आ जाएगी। स्वास्थ्य को लेकर उनके स्वर में निराशा अवश्य झलक रही थी, लेकिन जज्बा पूरी तरह चूका नहीं था। खैर, नियति को जो मंजूर होता है, उसे कौन रोक सकता है। पत्रकारिता की नौकरी के कारण मुझे छुट्टी मिलने में दिक्कत होगी, फिर बाहर अकेले रहते हुए मैं कहीं अधिक परेशान न हो जाऊं, इसलिए बाबूजी जब तक होश में रहे, उन्होंने हमेशा अपनी परेशानी मुझे बताने से परहेज किया। तीन-चार दिन से छोटे भाई का फोन आ रहा था कि बाबूजी की तबीयत ज्यादा ही बिगड़ती जा रही है। मैंने भी उन्हें हिम्मत बंधाई। हाजीपुर जाकर दिखाने को कहा, लेकिन उनकी आवाज में निराशा की अनुगूंज सुनाई देने लगी थी। 16 अगस्त को मन कुछ बेचैन सा होने लगा तो मां से पूछा। आज तक धरती सा धैर्य धारण करने वाली मां का जवाब था-आना चाहते हो तो आ जाओ, बाद में कहीं तुम्हें अफसोस न हो। बस, उसी समय निकल पड़ा। जयपुर से लखनऊ आ जाने के कारण दूरी आधी रह गई थी। तरह-तरह की आशंकाओं में डूबता-उतराता 12 घंटे की यात्रा करके घर पहुंचा। स्थिति जो थी, उसे शब्दोंं में बयां नहीं कर सकता। दो-तीन दिन में ही सारा खेल खत्म हो गया। --जातस्य मृत्यु: ध्रुवं --की अवधारणा को कौन झुठला सका है। संतोष इसी बात का रहा कि अंतिम क्षणों में उनके पास रह पाया। अब तो बस हर पल दिल से एक ही कसक निकलती है- बाट निहारें रोज निगाहें, लौट के उनके आने की जाने कौन दिशा में ऐसी कर गए हैं प्रस्थान पिता।