Friday, September 1, 2017

मैं मायके चली जाऊंगी...

लखनऊ में घर के पास ही हलवाई की दुकान है। ऐसे में रविवार सुबह अमूमन जलेबी-समोसे का नाश्ता होता है। अभी थोड़ी देर पहले गया तो जलेबी नजर नहीं आई। अलबत्ता तरह-तरह की मिठाइयां अपनी उपस्थिति से रक्षाबंधन के पर्व का अहसास करा रही थीं। समोसा अनमना सा एक तरफ उबासी ले रहा था। मैंने पूछा-क्या भाई, आज अकेले कैसे ? लुगाई ( जलेबी) कहां गई ? यह सुनते ही समोसा बिफर पड़ा। बोला- क्या बताऊं साहब, इंसानों वाली बीमारी हमारे घरों में भी पैर जमा रही है । मायके के लोग आएं तो खुशियों की पूछो ही मत और ससुराल वालों को देखते ही मुंह फूला लेना। सुबह से जैसे ही मेरे रिश्तेदारों- रसमलाई, बालूशाही, पेड़े, बंगाली मिठाइयों को आते देखा, आंखें लाल-पीली करती बोली- मैं जा रही हूं मायके भाई को राखी बांधने। मैंने काफी रोका। कहा-अपने घर में जब रिश्तेदार आए हों तो इस तरह जाना अच्छी बात नहीं है । वे क्या सोचेंगे। वैसे भी कल सुबह से भद्रा है। दोपहर बाद राखी बांधने का मुहूर्त है। तब तक अपने रिश्तेदार भी लौट जाएंगे। फिर अपन दोनों साथ चलेंगे। मुझे भी तुम्हारी छोटी बहन से मिले काफी दिन हो गये। इस बहाने उससे भी मिलना हो जाएगा । लेकिन साहब, वह तो मेरी बात क्या सुनती, मेरे पर्स से सारे पैसे निकाले और उड़न छू हो गई । मैंने समोसे को दिलासा दिलाया कि ऐसे दुखी होने से कुछ नहीं होगा । घर आए रिश्तेदारों की खातिर तवज्जो करो...पत्नी का क्या है... अगले रविवार तक लौट ही आएगी । तब तक मेरी तरह बैचलर लाइफ का आनंद लूटो। यह सुनकर उसका उदास चेहरा खिल उठा और मैं भी दुकान से दही लेकर लौट आया। दही-चिवड़ा उदरस्थ करने के बाद समोसे की दर्द भरी दास्तां आपलोगों से शेयर करने से खुद को नहीं रोक पाया।

कन्हैया को कदम्ब का न्योता


" लीजिए... न-न करते सावन भी बीत गया । शिव मंदिरों से रोजाना रुद्राभिषेक के दौरान सुनाई देने वाले मंत्रों की गूंज आज नहीं सुनाई दी। कल ही रक्षाबंधन ने संकेत कर दिया था कि सावन बीता जाए। समय के पहिये में कौन ब्रेक लगा सका है । ...लेकिन साहब, आशा पर ही आकाश टिका है । कोई बात नहीं... प्यार का महीना सावन बीत गया तो अधीर होने की कोई बात नहीं है । प्यार का संदेश देने वाले हम सबके प्यारे कृष्ण कन्हैया के जन्म का महीना भादो आ गया है । हम सब मिलकर इसका स्वागत करें । प्रभु श्रीकृष्ण ने मुझे कितना प्यार दिया, बता नहीं सकता। द्वापर युग बीते हजारों साल हो गये, लेकिन आज भी कहीं बांसुरी बजैया का किस्सा छिड़ता है तो मेरी चर्चा आ ही जाती है। कदम्ब के पेड़ पर लगे झूले पर कन्हैया का झूलना...उसकी स्मृति मुझे आज भी रोमांचित कर देती है । मैं अकिंचन क्या कर सकता हूं। मेरे वश में है भी क्या ? लेकिन दोस्ती निभाने का जो संदेश सुदामा के मित्र ने दिया था, उसे भूला नहीं हूं । मुरली वाले के स्वागत में मैंने राह पर फूल बिछा दिए हैं। उसके पैर बड़े कोमल हैं न ? " जी, आज सुबह घर से निकलते ही पार्क के बाहर काली सड़क पर पीले फूलों की पंखुड़ियों का बिछौना दिखा तो बरबस ही आंखें ऊपर उठ गईं। फिर कदम्ब ने मुझे जो कुछ कहा, सोचा आप मित्रों को भी बता दूं। काश! उन फूलों की खुशबू भी आपसे बांट पाता।

टपलू का टूर

वैसे तो वह मेरे दिल के करीब है, लेकिन संबंधों को बातचीत या फिर पत्र या फोन के माध्यम से सींचते रहने के मामले में अव्वल दर्जे का काइयां। कई बार ऐसा भी हुआ कि फोन करो तो 'सब ठीक है' के साथ ही बोल उठता है- फोन रखूं। ऐसे में मेरा भी मन खट्टा हो जाता है, लेकिन बचपन के दोस्त भुलाए भी तो नहीं जाते। सो अवसर विशेष पर शुभकामनाएँ देने के साथ ही हालचाल भी पूछ ही लेता हूं। भगवान झूठ न बुलाए, उसकी ओर से कभी ऐसी पहल नहीं होती । खैर, अभी हाल ही फ्रेंडशिप डे पर उसे फोन किया तो हालचाल बताने के साथ ही हत्थे से उखड़ गया। मैं अचंभे में पड़ गया। पूछा- क्या हुआ भाई ? वह झल्लाते हुए बोला - अरे, होना क्या है, तुम्हें वो टपलू तो याद होगा ? मैंने कहा- हां वो चंचल सा दुबला-पतला छोरा, जो हाई स्कूल में हमलोगों से तीन क्लास जूनियर था। वह बोला- हां भाई हां, वही। पिछले दिनों फेसबुक पर न जाने कैसे उसने मुझे ढूंढ लिया और उसके बाद से हफ्ते-दस दिन में याद करना नहीं भूलता। मैंने कहा- यह तो अच्छी बात है । वह बोला- अच्छी बात क्या ? तुम्हारी यही आदत बुरी है, बिना पूरी बात सुने फैसला सुना देते हो। जनाब एमटेक करने के बाद आजकल गुवाहाटी में अच्छे पद पर हैं। कमाई भी अच्छी है। मैं बीच में फिर बोल पड़ा- यह तो और भी अच्छा है। उसने कहा- अच्छा नहीं, खाक? पैसे होने से अक्ल थोड़े ही आ जाती है। टपलू ने दो दिन पहले फोन किया तो अपने गोवा टूर के बारे में बताने लगा। बेवकूफ गोवा भी गया तो पत्नी के साथ । अरे भाई, गोवा तो आदमी किसी धार्मिक अनुष्ठान के लिए जाने से रहा कि पत्नी के पल्लू से गांठ बांधकर जाना जरूरी है। गोवा में समुद्र के किनारे जब सौंदर्य का सागर हिलोरें मार रहा हो तो सिर पर सीसीटीवी कैमरा लटकाए रखने का क्या मतलब ? मैं तो पड़ोस के पार्क में भी जाना तभी मुनासिब समझता हूं जब अच्छी तरह आश्वस्त हो लूं कि श्रीमतीजी आधा-पौन घंटा से पहले अपने काम से फ्री न हो पाएंगी। मैं समझ गया, आग कहां लगी है और कॉलबेल बजने का हवाला देकर फोन काट दिया। 9 August 2017

प्यार की नगरी में पानी का रेला

कल सुबह किशनगंज के एक मित्र का फोन आया। वे आजकल झारखंड में हैं। आवाज कुछ परेशानी भरी थी। बता रहे थे कि किशनगंज में घर में छाती भर से ऊपर तक पानी घुस आया है । वहीं से बीटेक की पढ़ाई कर रहा बेटा अकेले वहां है। मैंने बच्चे को फोन लगाया तो कनेक्ट नहीं हो पाया । बाढ़ की वजह से बिजली न रहने से बैटरी खत्म हो गई थी शायद। फिर ऐसे मौसम में नेटवर्क की भी सांसें उखड़ने लगती हैं। करता भी तो क्या ? स्मृति पटल पर किशनगंज प्रवास के दौरान बिताया एक-एक पल घूमने लगा। वर्ष 1991 की बात है । संयोग कुछ ऐसा बना कि मुझे किशनगंज जाना पड़ा। तय हुआ था कि चार-पांच महीने वहां रहूंगा। जून का महीना... गांव में भीषण गर्मी। हाजीपुर से शाम को बस पकड़नी थी। शाम करीब सात बजे बस रवाना हुई। सोते-जगते सफर कट रहा था । अचानक संगीत की तेज स्वर लहरियों से नींद खुली। भोरपता चला, दालकोला में बस भोजपुरी गीत वातावरण में मस्ती घोल रहे थे। वहां से बस चली तो मौसम ही नहीं, नजारे भी बदल गये थे। सड़क के दोनों किनारे खेतों में भरा पानी। धान और पटसन की फसल की हरियाली । रिमझिम फुहारों के बाद मूसलाधार बारिश तक ने हमारा इस्तकबाल किया। वहां जाने के बाद लोगों ने इस अपनापन के भाव से मुझे अपनाया कि तीन साल से अधिक वहां रहा। इस दौरान कभी भी घर से दूर होने का अहसास नहीं हुआ । होली-दिवाली-ईद से लेकर दुर्गा पूजा तक की न जाने कितनी यादें जेहन में आज भी ताजा हैं। कुल मिलाकर कहूं तो किशनगंज के साथ जुडे किशन-कन्हैया के प्यार के संदेश को जीना, उसे निभाना वहां के लोग जानते हैं। अब जब सारा विश्व उस सर्वशक्तिमान कृष्ण का जन्मदिन कृष्णाष्टमी मनाने की तैयारियों में जुटा है, मैं वंशी बजैया से प्रार्थना करता हूं कि किशनगंज पर आई इस विपदा को दूर कर दे। 14 August 2017

बचपन से मन भाये कन्हैया

हमारे गांव में पैदा हुए शिशु का ईश्वर से सबसे पहला परिचय कुलदेवता से होता है। छठी पर बच्चे को कुलदेवता के सान्निध्य में उसे सुलाकर पूजा की जाती है। इसके बाद माता-पिता और परिवार के लोगों का झुकाव जिस देवता विशेष के प्रति होता है, बच्चे भी उसी हिसाब से अपने इष्ट का चयन कर लेते हैं । अपनी समझ विकसित होने पर कुछ बच्चे अलग राह पर भी बढ़ जाते हैं। जहां तक मैं याद कर पाता हूं, मां रविवार का व्रत रखती थी, जो सूर्यदेव को समर्पित था। इसके अलावा मंगलवार को हनुमान जी के नाम पर उनका उपवास रहता था। हम भाई-बहनों को इन दोनों ही दिन नैवेद्य के प्रसाद का इंतजार रहता था। होश संभालने के बाद मैंने सबसे पहला व्रत श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का ही रखा था। हमारे यहां बच्चों में जन्माष्टमी का बड़ा क्रेज था। इससे एक दिन पहले भोर में उठकर सभी भाई-बहन जमकर चिवड़ा-दही खाते। इसे स्थानीय बोली में सरगही कहा जाता है । इसके बाद हमें सोने की हिदायत दी जाती, लेकिन झूला झूलने की धुन ऐसी सवार होती, कि नींद आने का सवाल ही नहीं उठता था। सूरज की पहली किरण फूटने के साथ ही हम रस्सी और पीढ़ा लेकर निकल जाते । घर के बाहर ही आम का बगीचा था। उसकी डाल पर झूला डालकर उस पर सबसे पहले चींटी को झूलाते। यह एक टोटका था कि हम झूले पर से गिरें नहीं । दोपहर में स्नान के बाद पास के शिव मंदिर जाकर भगवान शिव का जलाभिषेक करते। तब तक भूख भी जोर मारने लगती, जिसे शरबत पीकर शांत किया जाता । शाम होने पर आंगन में पंगत लगती, और सभी बच्चे दूध-केला, अमरूद, साबूदाने की खीर आदि का भगवान श्रीकृष्ण को भोग लगाकर खुद भी जीमते। इस तरह संसार को प्यार का पाठ पढ़ाने वाले मनमोहन कृष्ण कन्हैया से हमारा रिश्ता जुड़ा और समय बीतने ते साथ-साथ दिनों दिन और भी प्रगाढ़ होता जा रहा है । आज बचपन के एक दोस्त से बातचीत के दौरान पुरानी यादें ताजा हो आईं । सोचा, यादों की इस दुनिया में आप सभी को भी सैर करा दूं। जय श्री राधे... जय श्री कृष्ण 18 August 2017

एक पत्र नई पीढ़ी के नाम

स्वतंत्रता दिवस और जन्माष्टमी पर वॉट्सएप संदेशों की ऐसी रेलमपेल रही कि मोबाइल की हालत खस्ता हो गई। बेचारा बार-बार दम खींचने लगता। संदेशों में वीडियो, जिफ से लेकर एक से बढ़कर एक तस्वीरें तक थीं। इक्का-दुक्का टेक्स्ट मैसेज भी थे। आजकल हमलोगों की आदत इतनी बुरी हो गई है कि अपने पास आए मैसेज को फॉरवर्ड करना ही सुविधाजनक समझते हैं, लिखने की बला कौन पाले। ऐसे में जब टेक्स्ट मैसेज मिलता है, तो दिल को बड़ी तसल्ली होती है, लेकिन मेरे साथ कुछ उल्टा हुआ। जन्माष्टमी पर एक शुभकामना संदेश में खुद के लिए ‘परम श्रद्धेय’ लिखा देखकर अटपटा-सा लगा। मैंने ऐसे महान काम नहीं किए हैं, जिनके चलते मुझे श्रद्धेय कहकर संबोधित किया जाए। महज कुछ साल पहले जन्म लेने की वजह से तो कोई श्रद्धा का पात्र नहीं बन जाता। नई पीढ़ी कई मायने में ज्ञान और समझ के स्तर पर मुझसे काफी आगे है और हर पल मैं उनसे कुछ सीखने को तत्पर रहता हूं। इसी तरह वे मेरे अनुभव का लाभ बेझिझक कभी भी ले सकते हैं। दरअसल जहां श्रद्धा का भाव होता है, वहां दिल से दिल की दूरी बढ़ जाती है। छोटे-बड़े का अहसास एक तरह का दुराव पैदा करता है । मैं चाहता हूं कि दिल की भाव भूमि पर हम परस्पर स्नेह भाव से रहें। जहां दोनों पक्ष समान हो, न कोई जरा सा अधिक, न कोई जरा सा भी कम। हां, जब बहुत ही जरूरी हो तो नई पीढ़ी इस स्नेह में सम्मान का भाव मिला दे और बदले में मैं उनके प्रति स्नेह भाव में दुलार का समावेश कर दूं। बाकी समय एक-दूसरे के प्रति हमारा मित्रवत व्यवहार बना रहे। ... और फिर समय से पहले किसी को जबर्दस्ती उम्रदराज घोषित कर देना भी कोई अच्छी बात थोड़े ही है! 18 August 2017

भउजी नाचे छमाछम...

आम तौर पर जहां भाभी और ननद की बात सामने आने पर इन दोनों में छत्तीस का आंकड़ा रहने की बातें ही जेहन में आती हैं, वहीं भाभी और देवर का जिक्र होने पर हंसी-मजाक, चुहलबाजी से दीगर कोई बात सोची भी नहीं जा सकती। अन्य राज्यों में जहां शादी-विवाह के दौरान महिलाएं नृत्य के माध्यम से खुशी का इजहार करती हैं, वहीं बिहार के गांवों में ऐसा कोई रिवाज नहीं है। वहां शादी-विवाह में महिलाएं ढोल-मजीरे जैसे किसी साज के बगैर मंगल गीतों के जरिये नई पीढ़ी को संस्कार की सीख देने के साथ ही अपनी खुशी को भी अभिव्यक्त करती हैं। इसके बावजूद न जाने कैसे हम बचपन में खेल के दौरान अक्सर ही ये पंक्तियां गुनगुनाते- आलूदम, मसाला कम। भउजी नाचे छमाछम... शायद इसके पीछे अवचेतन में कहीं यह भावना बलवती रही हो कि हमारी भउजी हमेशा खुश रहें। उनका चेहरा कभी उदास न हो, क्योंकि जब मन खुश होता है तभी नाचने की कल्पना की जा सकती है। और इस तरह अनजाने में ही हम नारी सशक्तीकरण के पैरोकार बने रहे। एक वरिष्ठ सहयोगी की फेसबुक वॉल पर वर्षों बाद भाभी से मिलने का जिक्र देखने के बाद बरबस ही यह प्रसंग मेरे स्मृति पटल पर कौंध-सा गया। 21 August 2017

धीरे-धीरे बोल कोई सुन न ले...


ऐतिहासिक महत्व के शहर में रहने का यह साइड इफेक्ट है कि चाहकर भी आप वहां के महत्वपूर्ण स्थानों को इग्नॉर नहीं कर सकते। लखनऊ में रहते हुए अच्छा-खासा समय हो गया, लेकिन कभी तफरी का मौका नहीं मिला। पिछले दिनों कुछ ऐसा सुयोग बना कि छुट्टी न होने के बावजूद दिन के आराम को मुब्तिला कर मेहमान नवाजी का फर्ज निभाने के लिए बड़ा इमामबाड़ा (भूलभुलैया) देखने जाना पडा। गाइड ने स्वाभाविक रूप से अपना रटा-रटाया टेप ऑन कर दिया था । वह अपनी रौ में इस ऐतिहासिक इमारत की खूबियां बताता जा रहा था। इसी क्रम में उसने हम सभी को इस इमारत के एक छोर पर खड़े होने को कहा और खुद करीब 30 फीट दूर दूसरे छोर पर चला गया। वहां जाकर उसने कागज का एक टुकड़ा फाड़ा, जिसकी आवाज वहां पर्यटकों की भीड़ के कारण हो रहे कोलाहल के बावजूद साफ-साफ हमें सुनाई दे रही थी। इसके बाद गाइड ने हमलोगों से कहा कि हम दीवार से कान लगाएं, वह दीवार की दूसरी ओर कुछ दूर जाकर वहां से कुछ शब्द बोलेगा, जो हमें यहां से स्पष्ट सुनाई देगा। वाकई ऐसा ही हुआ। हमारे ग्रुप के सभी आठ सदस्यों ने बारी-बारी से इसे अनुभव किया। दिल्ली से मां और छोटी बहन के साथ आये बंगाली युवक की जिज्ञासा को भांपते हुए गाइड ने रहस्योद्घाटन करते हुए बताया कि करीब आठ फीट चौड़ी यह दीवार अंदर से खोखली बनाई गई है। इसीलिए आवाज दूसरी ओर से सुनाई पड़ती है। इस तरह बचपन से ही बड़े-बुजुर्गों की दी गई हिदायत - दीवारों के भी कान होते हैं- हमारे सामने जीवंत हो गया। बरबस ही मेरे दिमाग में यह खयाल आया कि हम मनुष्यों की फितरत भी तो इस दीवार की तरह ही है। जो अंदर से खोखला होता है, वह अपनों की बताई राज की बात भी गैरों को बताकर उपहास का पात्र ही नहीं बनता, सदा- सर्वदा के लिए विश्वास भी खो बैठता है। ... और जो अंदर से गंभीर होते हैं, वे जान भले चली जाए, किसी और के सामने राज नहीं खोलते। यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपनी कैसी पहचान चाहते हैं