Thursday, March 19, 2009

इंसान भूखे, देवताओं को आफरा

आज शीतलाष्टमी थी। शीतलाष्टमी से एक दिन पहले घरों में पुए-पुड़ियां और अन्य पकवान बनाए जाते हैं, जिन्हें अगले दिन शीतला माता को भोग लगाया जाता है। बाद में घरों में लोग वही कल वाला बासी भोजन ही शीतलाष्टमी को खाते हैं। ऐसी मान्यता है कि शीतला माता की ऐसी पूजा-अर्चना से छोटी माता, चेचक आदि के प्रकोप से बचाव होता है और माताजी की कृपा भक्तों पर बनी रहती है।
मुझे भी किसी मित्र से मिलने के लिए सुबह निकलना था, सो करीब साढ़े आठ बजे नहा-धोकर कॉलोनी के मंदिर पहुंचा। इस मंदिर में देवताओं में अच्छा सद्भाव है। पंचेश्वर महादेव मंदिर में शिव पंचायत के अलावा राधा-कृष्ण, मां दुरगा, हनुमानजी, नवग्रह, संतोषी माता, गणेशजी और शीतला माता की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर से पहले वाले चौराहे पर पुए-पकवानों का ढेर लगा था और पूजा के बाद उस पर पानी डाल देने से उसकी दुरगति हो रही थी। मंदिर पहुंचा तो वहां चौराहे से भी बड़ा ढेर था और भी स्वादिष्ट पकवानों की ऐसी ही दुरगति हो रही थी। जब तथाकथित मित्र के यहां गया तो रास्ते में भी अनेक चौराहों पर इस तरह स्वादिष्ट पकवानों को देखकर आत्मा रो उठी।
किसी की आस्था से मेरी कोई शिकायत नहीं है, लेकिन आज भी जब हमारे आस-पड़ोस में ही सैकड़ों लोग भूखे रहने को विवश हैं, अन्न की ऐसी बरबादी से क्या हासिल होगा। माना, बरसों से ऐसी परंपरा चली आ रही है, लेकिन कोई ऐसा भी रास्ता तो निकाला ही जा सकता है जिससे अन्न की बरबादी न होने पाए। प्रतीक रूप में एकाध ग्रास शीतला माता के नाम पर निकालने के बाद यह खाद्य सामग्री किसी अनाथालय, कुष्ठाश्रम, मंदिरों के बाहर बैठे भिखारियों को वितरित की जा सकती है। मुझे नहीं लगता ऐसा करने से किसी का अहित होगा। यह भी सत्य है कि इससे कोई शीतला माता का कोपभाजन भी नहीं बनेगा।
कभी पढ़ा था-`युगरूपेण ही ब्राह्मणः ` यानी ब्राह्मणों को युग धर्म के अनुसार आचरण करना चाहिए। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सतीप्रथा जैसी कुप्रथाओं का उन्मूलन नहीं हो पाता। ऐसा सुनते हैं कि बिहार-बंगाल-नेपाल के गांवों में पहले दुरगा पूजा के समय बकरे और भैंसे की बलि दी जाती थी, लेकिन आज प्रतीक रूप में फलों की बलि दी जाती है और भक्तों के सभी अरमान इसी से पूरे होते हैं, किसी पर माता का कोई प्रकोप नहीं होता।
आशा है आने वाले समय में लोग सीख लेंगे और अनाज का अनादर करने के बजाय इसे इसके योग्य पात्र तक पहुंचाकर अपना जीवन कृतार्थ करेंगे। इंसान भूखे, देवताओं को आफरा
आज शीतलाष्टमी थी। शीतलाष्टमी से एक दिन पहले घरों में पुए-पुड़ियां और अन्य पकवान बनाए जाते हैं, जिन्हें अगले दिन शीतला माता को भोग लगाया जाता है। बाद में घरों में लोग वही कल वाला बासी भोजन ही शीतलाष्टमी को खाते हैं। ऐसी मान्यता है कि शीतला माता की ऐसी पूजा-अर्चना से छोटी माता, चेचक आदि के प्रकोप से बचाव होता है और माताजी की कृपा भक्तों पर बनी रहती है।
मुझे भी किसी मित्र से मिलने के लिए सुबह निकलना था, सो करीब साढ़े आठ बजे नहा-धोकर कॉलोनी के मंदिर पहुंचा। इस मंदिर में देवताओं में अच्छा सद्भाव है। पंचेश्वर महादेव मंदिर में शिव पंचायत के अलावा राधा-कृष्ण, मां दुरगा, हनुमानजी, नवग्रह, संतोषी माता, गणेशजी और शीतला माता की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर से पहले वाले चौराहे पर पुए-पकवानों का ढेर लगा था और पूजा के बाद उस पर पानी डाल देने से उसकी दुरगति हो रही थी। मंदिर पहुंचा तो वहां चौराहे से भी बड़ा ढेर था और भी स्वादिष्ट पकवानों की ऐसी ही दुरगति हो रही थी। जब तथाकथित मित्र के यहां गया तो रास्ते में भी अनेक चौराहों पर इस तरह स्वादिष्ट पकवानों को देखकर आत्मा रो उठी।
किसी की आस्था से मेरी कोई शिकायत नहीं है, लेकिन आज भी जब हमारे आस-पड़ोस में ही सैकड़ों लोग भूखे रहने को विवश हैं, अन्न की ऐसी बरबादी से क्या हासिल होगा। माना, बरसों से ऐसी परंपरा चली आ रही है, लेकिन कोई ऐसा भी रास्ता तो निकाला ही जा सकता है जिससे अन्न की बरबादी न होने पाए। प्रतीक रूप में एकाध ग्रास शीतला माता के नाम पर निकालने के बाद यह खाद्य सामग्री किसी अनाथालय, कुष्ठाश्रम, मंदिरों के बाहर बैठे भिखारियों को वितरित की जा सकती है। मुझे नहीं लगता ऐसा करने से किसी का अहित होगा। यह भी सत्य है कि इससे कोई शीतला माता का कोपभाजन भी नहीं बनेगा।
कभी पढ़ा था-`युगरूपेण ही ब्राह्मणः ` यानी ब्राह्मणों को युग धर्म के अनुसार आचरण करना चाहिए। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सतीप्रथा जैसी कुप्रथाओं का उन्मूलन नहीं हो पाता। ऐसा सुनते हैं कि बिहार-बंगाल-नेपाल के गांवों में पहले दुरगा पूजा के समय बकरे और भैंसे की बलि दी जाती थी, लेकिन आज प्रतीक रूप में फलों की बलि दी जाती है और भक्तों के सभी अरमान इसी से पूरे होते हैं, किसी पर माता का कोई प्रकोप नहीं होता।
आशा है आने वाले समय में लोग सीख लेंगे और अनाज का अनादर करने के बजाय इसे इसके योग्य पात्र तक पहुंचाकर अपना जीवन कृतार्थ करेंगे। इंसान भूखे, देवताओं को आफरा
आज शीतलाष्टमी थी। शीतलाष्टमी से एक दिन पहले घरों में पुए-पुड़ियां और अन्य पकवान बनाए जाते हैं, जिन्हें अगले दिन शीतला माता को भोग लगाया जाता है। बाद में घरों में लोग वही कल वाला बासी भोजन ही शीतलाष्टमी को खाते हैं। ऐसी मान्यता है कि शीतला माता की ऐसी पूजा-अर्चना से छोटी माता, चेचक आदि के प्रकोप से बचाव होता है और माताजी की कृपा भक्तों पर बनी रहती है।
मुझे भी किसी मित्र से मिलने के लिए सुबह निकलना था, सो करीब साढ़े आठ बजे नहा-धोकर कॉलोनी के मंदिर पहुंचा। इस मंदिर में देवताओं में अच्छा सद्भाव है। पंचेश्वर महादेव मंदिर में शिव पंचायत के अलावा राधा-कृष्ण, मां दुरगा, हनुमानजी, नवग्रह, संतोषी माता, गणेशजी और शीतला माता की प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर से पहले वाले चौराहे पर पुए-पकवानों का ढेर लगा था और पूजा के बाद उस पर पानी डाल देने से उसकी दुरगति हो रही थी। मंदिर पहुंचा तो वहां चौराहे से भी बड़ा ढेर था और भी स्वादिष्ट पकवानों की ऐसी ही दुरगति हो रही थी। जब तथाकथित मित्र के यहां गया तो रास्ते में भी अनेक चौराहों पर इस तरह स्वादिष्ट पकवानों को देखकर आत्मा रो उठी।
किसी की आस्था से मेरी कोई शिकायत नहीं है, लेकिन आज भी जब हमारे आस-पड़ोस में ही सैकड़ों लोग भूखे रहने को विवश हैं, अन्न की ऐसी बरबादी से क्या हासिल होगा। माना, बरसों से ऐसी परंपरा चली आ रही है, लेकिन कोई ऐसा भी रास्ता तो निकाला ही जा सकता है जिससे अन्न की बरबादी न होने पाए। प्रतीक रूप में एकाध ग्रास शीतला माता के नाम पर निकालने के बाद यह खाद्य सामग्री किसी अनाथालय, कुष्ठाश्रम, मंदिरों के बाहर बैठे भिखारियों को वितरित की जा सकती है। मुझे नहीं लगता ऐसा करने से किसी का अहित होगा। यह भी सत्य है कि इससे कोई शीतला माता का कोपभाजन भी नहीं बनेगा।
कभी पढ़ा था-`युगरूपेण ही ब्राह्मणः ` यानी ब्राह्मणों को युग धर्म के अनुसार आचरण करना चाहिए। इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो सतीप्रथा जैसी कुप्रथाओं का उन्मूलन नहीं हो पाता। ऐसा सुनते हैं कि बिहार-बंगाल-नेपाल के गांवों में पहले दुरगा पूजा के समय बकरे और भैंसे की बलि दी जाती थी, लेकिन आज प्रतीक रूप में फलों की बलि दी जाती है और भक्तों के सभी अरमान इसी से पूरे होते हैं, किसी पर माता का कोई प्रकोप नहीं होता।
आशा है आने वाले समय में लोग सीख लेंगे और अनाज का अनादर करने के बजाय इसे इसके योग्य पात्र तक पहुंचाकर अपना जीवन कृतार्थ करेंगे।

Sunday, March 8, 2009

सबके थे गिरधारीलाल


जीवन अनिश्चित है और मौत ध्रुवसत्य है, लेकिन इस तथ्य को हम सभी झुठलाते रहते हैं। इस कटु सत्य का अहसास तभी होता है जब कोई गुजर जाता है। राजनीति से मेरा कोई विशेष लगाव नहीं रहा है लेकिन गुलाबी नगर में अपने 14-15 वर्ष के प्रवास के दौरान यहां के सर्वप्रिय सांसद गिरधारी लाल भार्गव की लोकप्रियता से अवश्य ही प्रभावित था। संसद में उनकी भूमिका कितनी प्रभावी रही, इसका आकलन तो राजनीति के पंडित करेंगे, लेकिन हर छोटे-बड़े, व्यक्तिगत-सामूहिक कार्यक्रमों में भार्गव की उपस्थिति उन्हें सहज ही आमजन में लोकप्रिय बनाती थी। कई कार्यक्रमों में उन्हें देखने-सुनने का मौका मिला, लेकिन कभी नहीं लगा कि यह व्यक्ति कभी `आम´ की बजाय खास बनने की इच्छा जता पाता हो। शायद यही वजह थी कि भाजपा ने उनकी लोकप्रियता का लाभ उठाते हुए छह बार सांसद बनने के बाद उन्हें लगातार सातवीं बार भी टिकट दिया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद उनकी वरिष्ठता का लाभ नहीं दे पाई। आज के जमाने में जब एक पार्षद और पंच भी जीतने के बाद आम जनता से दूरी बना लेता है, अपने मतदाताओं से `दूर´ हो जाता है, भार्गव देश की सबसे बड़ी पंचायत के सदस्य होने के बावजूद अपने क्षेत्र की जनता के लिए सर्वसुलभ थे।