भगवान राम की मां का नाम क्या था ?
इतना भी नहीं जानती ? उनका नाम कौशल्या था।
अजी, इसी बात का तो अफसोस है। सारी दुनिया यही कहती है, लेकिन यह अधूरा सच है। कोसल नरेश की पुत्री होने के नाते उन्हें कौशल्या कहा जाता है। मैं तो उनका असली नाम जानना चाहती हूं।
तब तो फिर तुम कैकेयी और सुमित्रा के नाम को भी उनके असल नाम नहीं मानोगी ?
बिल्कुल। कैकेय देश के राजा की बेटी होने के कारण भरत की मां कैकेयी कहलाईं और सौमित्र देश की बेटी होने के चलते लक्ष्मण और शत्रुघ्न की मां को सुमित्रा कहा गया। मैं तो यह जानना चाहती हूं कि उनके असली नाम क्या थे, जो कहकर उनके माता-पिता उन्हें बुलाते रहे होंगे।
दो सहेलियों के बीच बहस का मुद्दा बने इस सवाल-जवाब ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया। रामचरितमानस बचपन से ही मेरा प्रिय ग्रंथ रहा है। न जाने कितनी बार व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से तुलसी बाबा के इस अमर ग्रंथ का पारायण किया होगा, लेकिन महिला पात्रों के नामों को लेकर इस नजरिये पर कभी मेरा ध्यान गया ही नहीं। शायद पुरुष होने के कारण यह सवाल मेरे जेहन में न आया हो, मगर उस दिन जब उनकी बातचीत सुनी तो इस पर सोचने से खुद को नहीं रोक सका।
त्रेता के बाद द्वापर युग की महान कृति 'महाभारत’ के महिला पात्रों पर मनन शुरू किया तो सामने आया कि हजारों साल बीतने के बाद भी महिलाओं को लेकर समाज का रवैया नहीं बदला। कुंती, गांधारी, द्रौपदी सरीखे नाम उनके पालक और पिता की महिमा के ही तो परिचायक और उनसे जुड़े हैं। इन नामों से क्या कभी उनके मां-बाप ने उन्हें पुकारा होगा? फिर कहां खो गये उनके असली नाम?
यदि रामचरितमानस और महाभारत की कथा को मिथक ही मान लिया जाए और इनके पात्रों को काल्पनिक तो हमारे जमाने में यह सूरत कहां बदली थी। जहां तक मैं याद कर पाता हूं, मेरी दादीजी, ताईजी और मां को भी उनकेमायके के गांव के नाम से ही पहचान मिली। ...पुर वाली...। हां, कुछ मामलों में संतान होने के बाद यह पहचान थोड़ी बदल जाती थी। महिला को उसकी बड़ी बेटी के नाम से पुकारा जाने लगता था - फलानी की मां। शायद महिलाएं इसी बात से खुश हो जाती रही हों कि मेरा न सही, मेरी बेटी का नाम तो मुझसे जुड़ा। किसी न किसी रूप में नारी शक्ति को महत्व तो मिला।
हमारी पीढ़ी के आने तक भी हालात नहीं बदले। मेरी दीदी ही नहीं, मुझसे छोटी बहन को आज भी उसकी ससुराल की महिलाएं बाजितपुर (मेरे गांव) वाली के नाम से ही पुकारती हैं। भाभियों की कौन कहे, मेरी पत्नी को भी पुकारते समय औरतें उसके मायके के नाम का पुछल्ला जोड़ ही देती हैं।
पुरुष प्रधान सत्ता से बदला...
हमारे समाज में महिलाएं अक्सर अपने पति का नाम नहीं लेतीं। इसके पीछे अलग-अलग तर्क दिए जाते हैं। लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, नारी के अवचेतन मन में कहीं न कहीं यह कील जरूर धंसी होगी कि जब पुरुष प्रधान समाज हमारे नाम को तवज्जो नहीं देता तो फिर हम भी उसके नाम को क्यों ढोते रहें। और प्रतिकार स्वरूप किसी महिला ने संकल्प लिया होगा कि सारी दुनिया भले ही उसके पति की बुद्धि और शौर्य का डंका पीटे, लेकिन वह अपनी जुबान से पति का नाम नहीं लेगी। और फिर कालांतर में पति का नाम न लेने की परंपरा बन गई होगी।
...और अब अपने नाम से मिल रही पहचान
अब गांव जाता हूं तो बड़ा सुखद आश्चर्य होता है, जब आस-पड़ोस की वृद्धाओं को आपसी बातचीत में अपनी बहू का नाम लेते सुनता हूं। सासू मां की कौन कहे, ससुर जी को भी बहू का नाम लेकर पुकारने में संकोच नहीं होता । धीमे-धीमे ही सही, बदलाव बदस्तूर आ रहा है, लेकिन महज इस तरह की नई परिपाटी शुरू करने भर से काम नहीं चलने वाला । मुझे उन पलों का इंतजार है जब गांव- समाज की महिलाएं अपनी मेहनत के बल पर सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित करेंगी और खुद अपने नाम से तो जानी ही जाएंगी, उनके पिता और पति भी अपनी बिटिया और पत्नी के नाम से अपनी पहचान बताने में फख्र महसूस करेंगे।
22 March 2018 Lucknow
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