Sunday, July 24, 2011

...जन्मदिन के बहाने

नौकरी पूरी करने के बाद कल रात दो बजे घर पहुंचा तो हॉल में कुर्सी पर कुछ चमकता हुआ सा प्रतीत हुआ। उठाकर देखा तो पता चला कि बेटे ने बर्थडे विश करने के लिए ग्रीटिंग कार्ड रखा हुआ था। देखकर अच्छा लगा कि बाजार से रेडिमेड कार्ड खरीदने के बजाय उसने अपनी कल्पनाओं को खुद ही आकार देने की कोशिश की थी। इसके बाद तो दिनभर मोबाइल पर शुभकामनाओं के एसएमएस आते रहे। फेसबुक पर तीस-चालीस मित्रों की शुभकामनाएं पाकर भी काफी अच्छा लगा। विशेष रूप से आदरणीय कुमार विश्वास की काव्यमय मंगलकामनाएं-
देर रात जागा होगा उस दिन ऊपर वाला ,
जिस दिन उसने तुम को अपने हाथों से था ढाला ...
जन्म दिन की ढेर सारी शुभकामनाएं.. ...
स्वस्थ रहो ...मस्त रहो ...व्यस्त रहो ...

दिल को छू गईं।
उनकी शुभकामनाओं पर इतना ही कहना चाहूंगा कि मेरी काया को अपने हाथों से ढालने के लिए विधाता अवश्य ही देर रात तक जागा था क्योंकि मेरा जन्म वाकई तड़के करीब पौने चार बजे हुआ था। खैर, इसके बाद विधाता की नाइट शिफ्ट बंद हुई या जारी रही यह तो पता नहीं, लेकिन मैं तकरीबन 14-15 साल से जीविकोपार्जन के लिए अखबार की नौकरी में रात्रि जागरण करने को विवश हूं। फेसबुक पर अन्य मित्रों की शुभकामनाओं के लिए भी हृदय से आभारी हूं, जिसके कारण अपनी मनोभावनाएं उनसे बांटने की प्रेरणा मिली।
तो पेश है मेरी रामकहानी की पहली कड़ी....
मेरे से बड़े दो भाइयों के असमय काल कवलित हो जाने के कारण पूरा परिवार मेरे जीवित रहने के प्रति आशंकित था। यही कारण रहा कि जन्म के बाद पारंपरिक रूप से होने वाले रस्मो-रिवाज व अनुष्ठानों को भी स्थगित कर दिया गया। नए कपड़ों की बजाय पुराने कपड़ों में ही लपेटकर रखा जाता था। भय इतना कि कपड़े की पुरानी मच्छरदानी को काले रंग में रंगकर उसे ही मेरा पहनावा बनाया गया।
नामकरण करने की जहमत नहीं उठाई गई। सबका मानना था कि जब इसे जीना ही नहीं है, तो नामकरण कर नवजात से अपनापन क्यों बढ़ाया जाए। परंपरागंत मान्यताओं के अनुसार एकाध किलो मड़ुआ (मोटा अनाज) के बदले गांव में प्रसव कराने वाली दाई के हाथों मुझे बेच दिया गया। इस प्रकार बेचे जाने के कारण परिवार में मुझे 'बेचनाÓ नाम से पुकारा जाने लगा। कुछ दिनों पहले हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार पांडेय बेचन शर्मा ' उग्रÓ के बारे में पढ़ते हुए पता चला कि उनके नाम में शामिल बेचन के साथ भी कुछ ऐसा ही वाकया छिपा था।
नानाजी को किसी ने कहा कि लड़के की नाक छिदवा दो तो शायद इसकी आयु बढ़ जाए। नानाजी ने नाक छेदने वाले को बुलवाया और सुनार से कहकर नथनी भी बनवा दी। सौंदर्य में अभिवृद्धि के लिए बच्चियों की नाक पांच-छह साल की उम्र में छिदवाई जाती है और तब तक शायद भविष्य में इसकी उपयोगिता को वे समझ जाती हैं और इससे छेड़छाड़ नहीं करतीं, लेकिन कुछ माह का अबोध शिशु मैं किसी अवरोध को कैसे सहन कर पाता, इसका परिणाम यह हुआ कि एक दिन मैंने उस नथनी को खींच दिया जिससे कोमल नाक को चीरती हुई वह बाहर आ गई और उसका निशान आज भी मेरे चेहरे पर बाकायदा चस्पां है।
आगे की कहानी अगले जन्म दिन पर। तब तक गुड बॉय....

Wednesday, July 20, 2011

अक्षर के जादू से तरक्की का टोटका !

राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में पश्चिम बंगाल का नाम बदलने का प्रस्ताव

पश्चिम बंगाल का इतिहास बहुत ही समृद्ध और गौरवशाली रहा है। 'गीतांजलिÓ के लिए साहित्य का नोबेल पुरस्कार पाने का गौरव गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के नाम के साथ जुड़ा है तो स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की भूमिका नौजवानों के लिए अनुकरणीय रही है। समाज सुधार में राजा राम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम अग्रगण्य हैं तो फिल्म निर्माण-निर्देशन में सत्यजित राय अद्वितीय हैं। चिकित्सा क्षेत्र से राजनीति में आए डॉ. विधानचंद्र राय ने सेवा की ऐसी छाप छोड़ी कि आज उनका जन्मदिन डॉक्टर्स डे के रूप में मनाया जाता है। जादू के लिए भी प्रसिद्ध पश्चिम बंगाल में लंबे संघर्ष के बाद गत विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस का जादू ऐसा चला कि बाकी दलों का अस्तित्व ही कहीं खो सा गया। ऐसे में पिछले दिनों पश्चिम बंगाल मंत्रिमंडल की बैठक में राज्य का नाम बदलने का प्रस्ताव आया और बंग प्रदेश, बांग्ला प्रदेश, बंगराष्ट्र आदि नामों पर चर्चा की जा रही है। इसके पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि अंग्रेजी वर्णक्रम में नाम नीचे होने से राष्ट्रीय मंचों पर राज्य को अपनी बात रखने का मौका अंत में मिलता है। वर्तमान समय में प्रदेश की जनता मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में अपने दमित सपनों को साकार होते देखना चाहती है। ऐसे में तृणमूल कांग्रेस सरकार को चाहिए कि अक्षर के जादू से तरक्की का टोटका करने की बजाय ईमानदार और पारदर्शी शासन से विकास की नई इबारत लिखे, जिससे नाम नहीं, बल्कि काम के आधार पर पश्चिम बंगाल पहली पंक्ति में आ जाए।