Tuesday, January 22, 2008

पौषबड़ों की निराली है महिमा


गुलाबीनगर जयपुर की कई सारी खासियतें हैं। यहां के लोगों की धमॅ-कमॅ, देवी-देवता के प्रति कितनी अगाध आस्था है, इसका प्रमाण आपको इस हाड़ कंपाती सरदी में भी मिल सकता है। तड़के 3-4 बजे नहा-धोकर शहर के आराध्य गोविंददेवजी के दशॅनों के लिए भजन गाती हुई श्रद्धालुओं की टोलियां घरों से प्रस्थान कर जाती हैं। दिन में भी विभिन्न झांकियों के दौरान मंदिरों में उमड़ने वाली भीड़ का तो कहना ही क्या।
परकोटे के अंदर बसे पुराने जयपुर शहर में कदम-कदम पर बने मंदिर इसे छोटी काशी का उपनाम प्रदान करते हैं। अब देवता हैं तो उन्हें भोग भी लगाया जाएगा और भोग लगेगा तो भगवान की पसंद के साथ भक्तों के स्वाद का भी ध्यान रखना ही पड़ेगा। सो पूस के महीने (जिसे पौष भी कहा जाता है) में मंदिरों में पौषबड़ा महोत्सव आयोजित किए जाते हैं, जिनमें भगवान को गरमा-गरम दाल के पकौड़ों (जिन्हें पौषबड़ा कहते हैं) के साथ गाजर व सूजी के हलवे का भोग लगाया जाता है। इसके बाद पंगत में बिठाकर भक्तों को भी प्रसाद वितरित की जाती है। पूछिए मत, मिचॅ से मस्त इन पकौड़ों को खाते ही सरदी के इस मौसम में कितना आनंद आता है। पूस माह के दौरान अंग्रेजी नया साल भी आ जाता है, सो कई संस्थाएं नववषॅ स्नेह मिलन के बहाने पौषबड़ा उत्सव का आयोजन भी करती हैं।
हमारे कई साथियों ने जो स्थानांतरित होकर दूसरे शहरों में चले गए हैं और यहां लिया गया पौषबड़ों का स्वाद उनकी जीभ से उतरा नहीं है। इस मौसम में जब भी उनसे बात होती है, वे पौषबड़े की चरचा करना नहीं भूलते। पौष माह तो मंगलवार को खत्म हो गया, लेकिन माघ में मंदिरों में यह सिलसिला जारी रहेगा। इस सीजन में मौका मिले तो सही, नहीं तो अगले सीजन में पूस-माघ के दौरान जयपुर तशरीफ लाएं तो पौषबड़ों का लुत्फ जरूर उठाएं। आप खुद ही कह उठेंगे, यह स्वाद वाकई बेजोड़ है जो और कहीं नहीं मिलेगा। (हां, राजधानी जयपुर की देखादेखी राजस्थान के अन्य शहरों में भी ऐसे आयोजन होते हैं)

Sunday, January 20, 2008

ब्लॉग से पैसा मिले तो बने बात


अभी तीन-चार दिन पहले एक वरिष्ठ सज्जन घर पर मिलने आए। कुछ महीनों पहले सरकारी सेवा में आला अफसर पद से रिटायर हुए हैं। पढ़ने-लिखने का शौक शुरू से रहा है। उनकी कई सारी उपाधियां इसका जीवंत प्रमाण हैं। सेवाकाल में भी विभिन्न मुद्दों पर नियमित रूप से अखबारों-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं। रिटायर होने के बाद यह अनुपात और भी बढ़ गया है। उनसे देश-दुनिया के कई ज्वलंत प्रकरणों पर बातचीत हुई। इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं, इस सबसे होती हुई बातचीत ब्लॉग पर आ गई। मैंने जब उनसे ब्लॉग पढ़ने की बाबत पूछा तो उनका कहना था कि इंटरनेट कनेक्शन नहीं होने के कारण इसे नियमित पढ़ना संभव नहीं हो पाता औऱ साइबर कैफे जाकर पढ़ना काफी खचॅप्रद है। अब उनकी उत्सुकता मेरे ब्लॉग लिखने के बारे में थी। जब मैंने उन्हें बताया कि यह विधा न केवल नौजवानों, बल्कि पढ़ने-लिखने वाले उम्रदराज लोगों में भी दिनोंदिन लोकप्रिय होती जा रही है औऱ विभिन्न समसामयिक विषयों पर लिखने वाले अपनी बेबाक राय ब्लॉग के माध्यम से व्यक्त करते हैं। इस पर उनका सहज सवाल था कि इससे कुछ पैसा भी मिलता है क्या। अब मेरा चेहरा देखने लायक था। उनसे मैं क्या कहता, बस मना कर दिया कि अभी तो मुझे ही क्या, मेरे जैसे सैकड़ों ब्लॉगसॅ को बस लिखने भर से आत्मतुष्टि मिलती है और कुछ विचारवान पाठकों की टिप्पणियां यदि मिल जाती हैं, तो लिखना साथॅक सा लगने लगता है।
अनादिकाल से ही मनोरंजन मानव की सहज आवश्यकता रही है। यह मनोरंजन किसी भी विधा से प्राप्त हो सकता है। वे लोग जो मनोरंजन करते हैं, वे इसके जरिये अपनी आजीविका भी चला लेते हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन जिनका मनोरंजन हो, उनकी भी कमाई हो, यह तो जरूरी नहीं है।
बहुत पहले संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था --
काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूखाॅणां निद्रया कलहेन वा।।
तब गुरुजी ने इसकी व्याख्या कुछ इस तरह की थी कि विद्वानों (जिसे पढ़े-लिखे सामान्यजन भी कह सकते हैं) का खाली समय काव्य शास्त्र पढ़ने में बीतता है जबकि मूखॅ लोग इसे सोकर या किसी से झगड़कर व्यथॅ बिता देते हैं। मेरे किशोर मन में यह बात इस कदर पैठ गई कि तब से आज तक जब भी अवकाश मिलता है, कुछ न कुछ अवश्य ही पढ़ना चाहता हूं। जेब इजाजत न दे तो मांगकर पढ़ने में भी शमॅ नहीं करता। ऐसे में मुझे इस बात से पीड़ा अवश्य हुई कि खुद को बौद्धिक मानने वाले को इस तरह हर जगह हर काम में अथॅप्राप्ति को ही अपना एकमात्र उद्देश्य नहीं बनाना चाहिए। मुझे तो लगता है कि ऐसे बहुत से लोग होंगे जिन्होंने महज इस कारण से ब्लॉग लिखना शुरू नहीं किया होगा, क्योंकि इससे तुरत किसी आमदनी की आशा नहीं होती। ऐसे लोगों से मेरा सादर अनुरोध है कि दैनिक डायरी लिखने में भी कोई आमदनी नहीं होती, लेकिन कई साल बाद जब हम इसका सिंहावलोकन करते हैं, तो लगता है कि दुबारा हम उन पलों को जी रहे हैं, ऐसे में इस ऑनलाइन डायरी ब्लॉग का आइडिया भी इतना बुरा नहीं है। आप यदि इस पर अपने दिल की बात कहते हैं और आपके दिल की कई गांठें खुलेंगी। हमराज मिलने से आपको सुकून भी मिलेगा, यह विश्वास है मेरा।

Wednesday, January 16, 2008

हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा ही चोखा


मकर संक्रांति पर बेजुबान परिंदों की पीड़ा को शब्द देने का अभी एक दिन पहले ही मैंने असफल प्रयास किया था। जननी और जन्मभूमि से दूर होने की खुद की पीड़ा तो अपनी जगह है, जो कभी-कभार उभर ही आती है। कल रात जब http://mera-bakvaas.blogspot.com पर भाई पद्मनाभ मिश्र ने मिथिला की संक्रांति की याद ताजी कर दी तो मेरे ददॅ से भी पपरी हट सी गई और घाव एक बार फिर हरा हो गया।
पवॅ के अवसर पर पीड़ा का जिक्र करना तो उचित नहीं है, सो हमारे प्राणों में बसी उत्सवप्रियता की ही बात कर रहा हूं। आज जब टाटा की मेहरबानी से नैनो आ गई है और मध्यम क्या, अल्प आय वगॅ की नयनों में भी कार के सपने सजने लगे हैं, लेकिन जब खाने के भी लाले थे, तब भी लोगों ने उत्सवप्रियता का दामन नहीं छोड़ा था और आज जब विकास दर आसमान छू रही है, तब भी उत्सवप्रियता का उत्स अपने उसी स्वरूप में बरकरार है।
तो मैं आपको बता रहा था कि बिना रोकड़ा खचॅ किए भी उत्सव कैसे मनाया जा सकता है, इसका उपाय बिहार के किसानों ने सदियों पहले से निकाल रखा है। अगहन-पूस में धान की नई फसल तैयार होती है तो इसके चिवड़ा के मीठे-मुरमुरे स्वाद का तो कहना ही क्या? इन्हीं दिनों गन्ने की भी पिराई कोल्हू में खुद के ही बैलों से ही की जाती थी और घर का गुड़ तैयार हो जाता था। (राज्य सरकार की नीतियों के कारण अधिकतर चीनी मिलों में ताले लग गए, सो गन्ने की खेती पर भी इसका असर पड़ा है। गुड़ के भाव भी चीनी से उन्नीस नहीं हैं, इसलिए चीनी से ही काम चला लिया जाता है और चीनी खरीदना भी बूते से बाहर की बात नहीं रही।) बथान में गाय-भैंस थी तो दही तो होना ही था। ....और लीजिए इस सबसे मिलाकर मना ली जाती है बज्जिकांचल में मकर संक्रांति।चिवड़ा-दही-गुड़ या फिर चीनी की त्रिवेणी जब थाली में सजती है तो फिर पूछिए मत, ब्रह्मानंद की प्राप्ति हो जाती है। इसके साथ ही चिवड़ा को भूनकर और चावल से बने मूढ़ी (फरही) से गुड़ की चासनी में गोल-गोल लाई बनाई जाती है, जो बच्चे ही नहीं, बुजुगॅ भी अपने थके हुए दांतों से चाव लेकर खाते हैं। भगवान सूयॅ जब मकर राशि में प्रवेश करते हैं तो तिल का महत्व भी बढ़ जाता है तो इसे भी तरजीह दिया जाता है इस त्यौहार में। गुड़ की चासनी में सफेद और काले तिल के लड्डू भी बनाए जाते हैं। यह तो हुआ सुबह का भोजन अब आईए शाम के भोजन का जायका लेते हैं।
तो शाम को विशेष खिचड़ी बनाई जाती है, जिसमें चावल और दाल के साथ भांति-भांति की सब्जियां भी अपना योगदान देने में पीछे नहीं रहतीं। सब्जी तो खिचड़ी के साथ एकाकार हो गई, उसका अस्तित्व भी तो खत्म कैसे होने दिया जाए, तो बैंगन या आलू का भुरता भी बना लिया जाता है, जिससे सब्जी का अस्तित्व और खिचड़ी के साथ उसका सहअस्तित्व दोनों ही कायम रहें। हां, खिचड़ी से जुड़े व्यंजनों ने वहां मुहावरे का रूप ले लिया है। वहां काफी प्रचलित है-खिचड़ी के चार यार-घी, दही, पापड़ और अचार। (इनमें भी पापड़ के लिए ही कुछ पैसे खरचने पड़ते हैं, बाकी तो सब घर का ही होता है। ) तो ये चारों भी थाली में अपनी महत्वपूणॅ भूमिका निभाते हैं औऱ फिर जो मिला-जुला भाव खाने वाले के चेहरे पर आता है वह होता है तृप्ति का भाव।
देख लिया न आपने, संक्रांति पर अपनी संस्कृति को साथ रखने में बज्जिकांचल के लोगों को किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता। यदि कुछ जाता है तो वहां का अलाव और उसके घेरे में बचपन से बैठने वाले साथी। अब घर से दूर हैं तो इतना तो सहन करना ही पड़ेगा।

Tuesday, January 15, 2008

पतंगबाजी की शोर में इनकी कौन सुने


हर शहर की अपनी संस्कृति होती है, सो गुलाबी नगर की भी है। इस शहर को छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है। यहां के लोग काफी धमॅप्राण हैं, इसमें भी कोई शक नहीं है। यहां के मंदिरों में विशिष्ट अवसरों के अलावा आम दिनों में भी श्रद्धालुओं की भीड़ देखकर इसका अहसास होता है। अल्बटॅ हॉल, जलेब चौक, हवामहल और दूसरे कई स्थानों पर तड़के सुबह से सूरज ढलने तक परिंदों के लिए चुग्गा डाला जाता है। इन विशेष स्थानों के पास मक्का-बाजरा आदि अनाज बेचने वाले दजॅनों लोग आपको मिल जाएंगे और कबूतरों के झुंड के झुंड के साथ हजारों-हजार दूसरे परिंदे भी जमीं पर उतरते हैं और अपनी भूख मिटाते हैं। इतना ही नहीं, परिंदों की जूठन में बचे अनाज से गायों की भी जठराग्नि बुझती है। इतना सब कहने का मेरा यह अभिप्राय है कि इस धमॅप्राण नगरी की संस्कृति का एक दूसरा और काफी हद तक नकारात्मक पहलू भी है।
यहां की संस्कृति में पतंगबाजी भी शुमार हो चुकी है। मकर संक्रांति पर पतंगबाजी का जो जुनून जयपुर में देखा जाता है, बमुश्किल किसी और शहर में दिखे। अब पतंग उड़ाने भर से तो मन नहीं मानेगा सो दूसरों की पतंग काटी भी जाएगी। और काटी जाएगी तो इसके लिए तलवार जैसी धार भी चाहिए होती है। ...तो मुरादाबाद और बरेली के नामी कारीगर नई-नई तकनीकें अपनाकर ऐसा मांझा बनाते हैं कि उसकी धार के क्या कहने।
पतंगबाजी के शौकीन मकर संक्रांति से चार-पांच दिन पहले से ही मोरचा संभाल लेते हैं। 13 जनवरी को रविवार होने के कारण लोगों ने जमकर अभ्यास किया पेंच लड़ाने का। इस बार पंडितों ने भी मेहरबानी की और कहा कि 14 जनवरी को पुण्यकाल नहीं है, सो मकर संक्रांति 15 जनवरी को मनाई जाएगी। सालों-साल से 14 जनवरी को ही मकर संक्रांति मनाई जाती रही है, सो सरकार ने 14 जनवरी का ही अवकाश घोषित किया था। कैलेंडर तो पहले ही छप चुके थे सो सरकारी के साथ निजी संस्थानों और स्कूलों में भी 14 जनवरी को ही छुट्टी रही। क्या किशोर क्या युवा, क्या युवती क्या महिला, यहां तक कि बच्चों और कुछ बूढ़ों ने भी 14 जनवरी को पतंगबाजी में जमकर हाथ आजमाया। राजस्थान पयॅटन विभाग ने चौगान स्टेडियम में 14 -15 जनवरी को पतंग उत्सव का आयोजन किया, जिसमें पतंगों की प्रदशॅनी लगाई गई और पतंगबाजी के उस्तादों ने अपने करतब दिखाए। देशी-विदेशी सैलानियों ने भी इसका भरपूर आनंद लिया। धरम सज्जन ट्रस्ट की ओर से जवाहर कला केंद्र में आयोजित कायॅक्रम में शबाना आजमी के साथ जावेद अख्तर ने अपने प्रतिनिधि शेर सुनाए और फिर अंत में इरफान के साथ सबने पतंगबाजी का भी मजा लिया।
अब आई 15 जनवरी, माता-पिता शुभ मुहूतॅ में दान-पुण्य करें तो आज्ञाकारी संतान स्कूल-कॉलेज का रुख कैसे करे। श्रीमतीजी की कृपादृष्टि चाहिए थी सो साहब ने भी दफ्तर से बंक मारना ही उचित समझा और सभी एक बार फिर छत पर जम गए पतंग उड़ाने और --वो काटा, वो काटा--का शोर मचाने के लिए।
लोगों के इस जोशो-जुनून का दुष्परिणाम बेचारे बेजुबान परिंदों को उठाना पड़ा। मांझे से कटकर सैकड़ों परिंदे कटे पत्ते की तरह जमीन पर गिर पड़े। कुछ तो गिरते ही कुत्ते-बिल्लियों का निवाला बन गए, जिनकी किस्मत अच्छी थी वे एनजीओ की ओर से बनाए गए बडॅ रेस्क्यू सेंटर पर पहुंचाए गए, जहां उनका उपचार हुआ और वे अब उस सुनहरे पल का इंतजार कर रहे हैं जब दुबारा आसमान में उड़ान भर पाएं। मांझे की डोरी जो पेड़ों व झाड़ियों में अटक गई है, वह आने वाले दिनों में बंदरों को भी जख्मी करती रहेगी। आदमी की भूल का खमियाजा आदमी को भी भुगतना ही पड़ता है, सो कई मासूम बच्चे और वयस्क स्त्री-पुरुष भी मांझे से घाव खाकर अस्पताल पहुंचे। इनमें से कइयों के चेहरों पर मांझे की -कट-से हुआ घाव उन्हें आजीवन इस ददॅ की याद दिलाता रहेगा।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपनी पतंग को आसमान में ऊंचा...और ऊंचा.....और भी ऊंचा...सबसे अधिक ऊंचा देखकर ही संतोष कर लें। ऐसा करने से महज धागे से ही पतंग उड़ाई जा सकेगी और मांझे से बंदरों, परिंदों और सबसे बढ़कर हमारे दूसरे भाई-बंधुओं को कोई पीड़ा नहीं भुगतनी पड़ेगी। अब हर किसी बात के लिए सरकार तो अध्यादेश लाने से रही, कानून बनाने से रही, क्या हम स्वस्फूतॅ होकर ऐसा कोई कानून नहीं बना सकते कि अगली बार से हम मांझे वाली डोर से पतंग नहीं उड़ाएंगे। यदि ऐसा कर सकें तभी गुलाबी नगरी को धमॅप्राण लोगों की नगरी और छोटी काशी कहना साथॅक हो सकेगा।

Sunday, January 13, 2008

तो गंगाराम को क्यों न मिले ‘भारत रत्‍न’


अभी तीन-चार दिन पहले भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के घोषित दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने पूवॅ प्रधानमंत्री कवि हृदय और वरिष्ठ राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरवोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्‍न’
से सम्मानित करने की मांग क्या की, ‘भारत रत्‍न’ के दावेदारों के कई सारे नाम सामने आने लगे। गिरते स्वास्थ्य, बढ़ती आयु और न जाने किन कारणों से वाजपेयी ने राजनीति से किनारा सा क्या किया, भाजपा ने आडवाणी को भावी पीएम के रूप में प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया। अब आडवाणी जी भी तो किस्मत लेकर ही आए हैं, वोट तो पहले डल ही चुके थे, गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव परिणामों में भाजपा की विजययात्रा ने उनके मंसूबे को पंख लगा दिए। वाजपेयी ने अपनी वरिष्ठता को किनारा कर आडवाणी के लिए अवसरों के द्वार खोल दिए तो आडवाणी उनसे उऋण होने का उपक्रम कैसे नहीं करते। उन्होंने शायद यह सोचकर यह पासा फेंका हो कि आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयीजी ‘भारत रत्‍न’ मिलने के बाद वरिष्ठता की बोझ के तले और भी दबे रहें और चाहकर भी देश की सक्रिय राजनीति में कदम रोपने की कोशिश न करें।
आडवाणी की मांग पर यूपीए सरकार में सूचना व प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दास मुंशी भी अपना वक्तव्य देने से नहीं चूके और कहने लगे कि भाजपा या फिर आडवाणी को ही पहले अटलजी का पूरा सम्मान देना चाहिए। भारत रत्न का फैसला तो तय प्रक्रियाओं के आधार पर ही होगा। इसके बावजूद दूसरे राजनीतिक दलों ने कोई सीख नहीं ली और अगले ही दिन वामपंथियों के नेता विमान बसु ने पश्चिम बंगाल के रिकॉडॅधारी पूवॅ मुख्यमंत्री और माकपा ब्यूरो सदस्य ज्योति बसु को ‘भारत रत्‍न’ देने की मांग कर डाली। वामपंथियों की मांगों को मानना या टालमटोल करते रहना केन्द्र की यूपीए सरकार की मजबूरी भी है, लेकिन ज्योति बसु ने खुद ही माकपा के मुखपत्र गणशक्ति में कहा कि वे ‘भारत रत्‍न’ की दौड़ में शामिल नहीं हैं। उन्होंने ईएमएस नम्बूदरीपाद द्वारा-पद्मिवभूषण-लौटाने का उदाहरण देते हुए कहा कि सरकार से पुरस्कार लेने की हमारी परंपरा नहीं है। जानने वाले जानते हैं कि उन दिनों माकपा की नीतियां क्या होती थीं और आज के हालात में क्या हैं।
अब सब कुछ इतना आगे बढ़ गया तो सोशल इंजीनियरिंग की आविष्कारक बसपा सुप्रीमो मायावती ने अपने राजनीतिक आका स्व. कांशीराम को मरणोपरांत ‘भारत रत्‍न’ देने की मांग कर डाली। राष्‍टरीय लोकदल के अध्‍यक्ष अजीत सिंह ने अपने पिता और पूर्व प्रधानमंत्री व किसान नेता चौधरी चरण सिंह के लिए ‘भारत रत्‍न’ की दावेदारी पेश कर दी।
न जाने यह फेहरिस्त और कितनी बढ़ती जाएगी। और कितने राजनेता अपने वरिष्ठों और आकाओं के लिए इस सरवोच्च नागरिक सम्मान की मांग करके उन्हें अपनी आदरांजलि और श्रद्धांजलि देकर खुद को कृताथॅ करने का उपक्रम करते रहेंगे। यदि इस तरह की मांग पर ही यह सम्मान दिया जाने लगा तो इसके लिए तय की प्रक्रियाओं का क्या औचित्य है।
मैं तो यह कहता हूं कि हमारे देश की जनता का सच्चा प्रतिनिधित्व करने वाला आम आदमी अपना ‘गंगाराम’ ही ‘भारत रत्‍न’ का सच्चा हकदार है। नेतृत्व करने वालों ने नेतृत्व किया तो उन्हें यह सम्मान चाहिए। गंगाराम तो आजादी के बाद से अब तक अपने सपनों को मरता देखता रहा है, इसके बावजूद उसकी जिजीविषा है कि वह जिंदा है, क्या उसके साहस और परिस्थितियों से लड़ते रहने के उसके पराक्रम का सम्मान उसे ‘भारत रत्‍न’ देकर नहीं किया जाना चाहिए।
बहस आडवाणीजी ने शुरू की है और इसकी कड़ियां से कड़ियां जुड़ती जा रही हैं, तो मैंने भी अपना उम्मीदवार मैदान में उतार दिया है और यह शायद आप सबका भी प्रतिनिधित्व करने का जज्बा रखता है। जब ‘भारत रत्‍न’ की घोषणा की जाएगी तब देखेंगे, संभावितों की सूची में अपने उम्मीदवार का नाम तो होना ही चाहिए।
जाते जाते एक सलाह
भाजपा नेता प्रकाश जावडेकर को कोई सिखाए कि भाई भारत रत्‍न एक सम्‍मान है, न कि पुरस्‍कार। वे आडवाणी के बयान के अगले दिन टीवी पर दिन भर बकते रहे कि वाजपेयीजी नेहरू और इंदिरा के बाद सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहे हैं। उनका राजनीतिक करियर गौरवपूर्ण रहा है और वे इस पुरस्‍कार के सच्‍चे हकदार हैं।

Tuesday, January 8, 2008

हो गई है बल्ले-बल्ले

खैर-खून, खांसी-खुशी, वैर-प्रीति मदपान
रहिमन दाबे ना दबे, जाने सकल जहान

जी हां, कवि रहीम ने बहुत सही फरमाया है मन का उछाह छिपाए नहीं छिपता। अभी-अभी 2007 की विदाई के दौरान अपने देश से प्रकाशित होने वाले पत्र-पत्रिकाओं ने वषॅभर की महत्वपूणॅ गतिविधियों पर केंद्रित विशेषांकों का प्रकाशन किया। अब अपने देश की बदकिस्मती कहें कि मुंशी प्रेमचंद ने दशकों पहले अपनी कहानियों-उपन्यासों में भारतीय गांवों के बाशिंदों विशेषकर किसानों के जिस हाल का बयां किया, वह आज भी जस की तस है। तकनीक भले टेलीग्राम से मोबाइल फोन तक पहुंच गई हो, मगर अभी भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो भूखे पेट सोने को विवश हैं। अरे, मैं भी किन चिंताओं-दुश्चिंताओं में खो गया, ये तो शाश्वत समस्याएं-स्थितियां हैं, जो सनातन काल से चली आ रही हैं और अनवरत काल तक चलती रहेंगी। मैं जिस मुद्दे पर बात करना चाहता था, वह तो पीछे ही छूट गया। तो मैं इस बात पर खुश हो रहा हूं कि इन अखबारों-पत्रिकाओं के वषॅ 2007 की विदाई वाले विशेषांक में जिन प्रमुख मुद्दों पर फोकस किया गया, उनमें ब्लॉग भी महत्वपूणॅ था। ब्लॉग और ब्लॉगसॅ तथा ब्लॉगों में उठाए गए विषयों को भी पूरी शिद्दत से उठाया गया और उसपर माकूल चरचा की गई। मुझ सहित मेरे कई मित्र उन विशेषांकों के लेखों में अपने ब्लॉग के नाम के महज एक शब्द के आने से बल्लियों उछल से गए। मुझे इस सबसे बढ़कर यह लगा कि एक विधा जब दूसरे समानांतर विधा में स्थान पाती है तो इसका मतलब होता है कि उसे स्वीकार किया जा रहा है। ब्लॉग की बात रेडियो, टेलीविजन चैनलों, पत्र-पत्रिकाओं में होना इसके महत्व को स्थापित करता है। इसके बावजूद, मेरा मानना है कि बिना उपादेयता-उपयोगिता के स्वीकायॅता भर से ही काम नहीं चल सकता। कितना सुखकर लगता है जब ब्लॉग पर हम अपनी कोई समस्या या जिज्ञासा रखते हैं और अपने ब्लॉगर बंधु कुछेक पलों में उसका समाधान प्रस्तुत कर देते हैं। अभी-अभी तीन-चार दिन पहले दिल्ली से प्रकाशित हिंदी दैनिक हिंदुस्तान की एंकर स्टोरी थी कि भूगोल के अध्यापकों ने ब्लॉग के जरिये भूगोल को पढ़ाने का तरीका ईजाद किया है औऱ यह प्रयास छात्रों में लोकप्रिय भी हो रहा है। ऐसा ही चलता रहा, इंटरनेट की पहुंच हिंदीभाषी इलाकों में जन-जन तक हो गई तो वह दिन दूर नहीं जब ब्लॉग की अहमियत और भी बढ़ेगी तथा ऑनलाइन डायरी के रूप में शुरू हुआ ब्लॉग का सफर सभी समस्याओं के त्वरित समाधान उपलब्ध कराएगा और हर किसी के लिए अपरिहायॅ हो जाएगा।
अभी तो कह रहा हूं- हो गई है बल्ले-बल्ले ब्लॉग की...
तब स्वर बदल जाएगा---हो जाएगी बल्ले बल्ले ब्लॉग की।

Sunday, January 6, 2008

...बफॅ डालूं या सोडा


मध्यमवरगीय लोगों के लिए इस रंग बदलते जमाने में एक-एक पल जीना मुहाल सा हो गया है। आलू-गोभी-टमाटर की कीमत आसमान छूने लगती है तो वह दाल-रोटी खाने की सोचता है और तब ऐसा होता है कि दाल भी भाव बढ़ने के कारण हाइड्रोजन भरे गुब्बारे की तरह उसकी पहुंच से दूर हो जाती है। अब बेचारा क्या खाए, कैसे जिए, लेकिन जिजीविषा है कि मरने भी नहीं देती। अब किन-किन बातों पर बलि दे दें इस जीवन की। और भी कई चीजें हैं जिन पर मरा जा सकता है। मसलन मल्लिका शेरावत की अदाएं, राखी सावंत के ठुमके, हिमेश रेशमिया के गाने और न जाने क्या-क्या मौजूद है इस देश की फिजां में। फिर भी मनोरंजन मनुष्य के लिए जरूरी है। आम आदमी के लिए संतोष की स्थिति यही होती है कि एक अदद टेलीविजन खरीदकर ही बीवी-बच्चे की नजर में अपनी अहमियत बनाए रखी जा सकती है कि हमने उनके लिए कुछ तो किया। आसमान से तारे तोड़कर न लाए, उपग्रह के रास्ते आसमान को ड्राइंग रूम में तो लाया ही सकता है। हर कोई तो इंटरनेट औऱ केबल कनेक्शन ले नहीं सकता। टाटा स्काई, डिश टीवी भी हर किसी के वश की बात कहां हैं, सो ले-देकर बचता है एकमात्र दूरदशॅन, जो भारत के करोड़ों लोगों के मनोरंजन का एकमात्र आसरा है। इस पर भी ऐसे-ऐसे कायॅक्रम प्रसारित होते हैं कि उन पर हंसा जाए या खुद पर हंसा जाए कि हम इन्हें देखते ही क्यों हैं।
अभी पिछले शुक्रवार (४ जनवरी) की रात दूरदशॅन के नेशनल चैनल पर फिल्म-खोसला का घोंसला-आ रही थी। मैं पास ही आयोजित कायॅक्रम में भजनसम्राट अनूट जलोटा को लाइव सुनकर आया था। मन प्रभुभक्ति में रमा हुआ था। श्रीमती जी और बच्चा दोनों इस फिल्म को देख रहे थे, मैं भी बैठ गया। हास्य फिल्म के नाम पर इसमें क्या-क्या दिखाया गया, वह मेरी समझ और पहुंच से परे था। भजनों का सारा सुरूर जाता रहा। हद तो तब हो गई एक सीन में जब अनुपम खेर अपने जवान बेटों से दोस्ती का व्यवहार बनाकर बुढ़ापा संवारने के लिए शराब खरीदकर घर पर लाते हैं और साथ बैठकर पीने की योजना बनाते हैं। उनका एक युवा बेटा उनके साथ बैठा होता है और दूसरे की इंतजार कर रहे होते हैं दोनों। अनुपम खेर कहते हैं कि शराब में पहले बफॅ डाली जाए, उनका बेटा कहता है कि नहीं पहले सोडा डालने से टेस्ट अच्छा होगा, मेरा तजुरबा है। अब मेरे बेटेजी ने पूछा, पापा ये शराब पी रहे हैं। आपको पता है क्या कि शराब में पहले सोडा मिलाई जाए या बफॅ डाली जाए। मैं क्या करता। अपनी अनभिज्ञता जताकर और अगले संभावित सवाल से बचने की गरज से दूसरे कमरे में जाकर बीबीसी हिंदी सेवा का कायॅक्रम सुनने लगा। भगवान का शुक्र था कि बेटे को भी जल्दी ही नींद आ गई। बाद में मैंने टीवी बंद कर दिया। मेरी भी जान छूटी, न जाने इस फिल्म में आगे और कैसे-कैसे दृश्य आए होंगे। दूरदशॅन की पहुंच जितनी व्यापक है, इसके करता-धरताओं की सोच भी उतनी ही व्यापक होनी चाहिए, अन्यथा इसके करोड़ों दशॅकों की स्थिति शोचनीय हो जाएगी। भगवान दूरदशॅन के नीति नियंताओं को बुद्धि दे और इसके दशॅकों को मनोरंजन के ढेर सारे विकल्प, ईश्वर से यही प्राथॅना है।
(एक आम आदमी को अपने सपने का आशियाना बनाने में किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है और तथाकथित पूंजीपति अपने प्रभाव व पावर के बल पर उसे किस हद तक परेशान करते हैं, आधुनिक परिवेश में एक मध्यम आय वाले बाप को अपने अत्याधुनिक सोच वाले बेटों के साथ तादतम्य बिठाने में किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है, इसका चित्रण करने की कोशिश की गई होगी, इसमें कोई शक नहीं है फिर भी मुझे जो शिकवा है, उसे मैं पचा नहीं पा रहा हूं, इस फिल्म और इसके अदाकारों के फैन की भावनाओं को ठेस पहुंची हो, तो माफ करेंगे। )

Friday, January 4, 2008

हर फिल्म होती है कुछ खास, तारे ज़मीं पर भी


आमिर खान की फिल्म-तारे ज़मीं पर --के प्रचार-प्रसार के लिए लगाए गए बैनसॅ में लिखे एक जुमले ---एवरी चाइल्ड इज स्पेशल--में थोड़ा परिवतॅन कर अपनी भावनाएं आपसे शेयर कर रहा हूं। मुझे तो ऐसा लगता है कि हर फिल्म कुछ खास होती है। ऐसा नहीं होता तो जी. पी. सिप्पी की फिल्म-शोले-ने सफलता के परचम लहराए, ऐसे रिकॉडॅ बनाए जो आज तक नहीं तोड़े जा सके और उसकी रिमेक --रामगोपाल वरमा की आग--ढंग से सुलगने से पहले ही बुझ गई। अभी हाल ही में संग-संग रिलीज हुई-तारे ज़मीं पर-न केवल दशॅकों, बल्कि समीक्षकों के लिए भी आकषॅण का केंद्र बनकर प्रशंसा बटोर रही है, और -वेलकम-का किसी ने वेलकम ही नहीं किया।
कोई भी फिल्म मेकर और डायरेक्टर जब फिल्म पर काम शुरू करता है तो उसकी दिली तमन्ना यही होती है कि वह अपनी फिल्म से पुरानी सारी मान्यताएं बदलकर रख देगा, समाज में परिवतॅन की लहर छा जाएगी, फिल्म हिट होने पर सफलता की नई परिभाषा लिखी जाएगी, बच्चे-बूढे़ सबकी जुबान पर मेरी फिल्म की गीतों के ही बोल होंगे, और स्टोरी तो ऐसी होगी कि मुंशी प्रेमचंद जैसे कहानीकारों की कहानियां भी पानी भरें इसके सामने। अपनी तमन्ना को सच करने के लिए हरसंभव प्रयास भी करता है, लेकिन जब फिल्म जब स्क्रीन पर आती है और सोचा हुआ रिस्पॉन्स नहीं मिल पाता, तो राइटर-प्रोड्यूसर-डायरेक्टर की तिकड़ी माथा पीटकर रह जाती है। बेचारे अदाकारों के दुख का तो कहना ही क्या।
यहां सोचने का विषय यह है कि कोई फिल्म लोकप्रियता बटोरने में कैसे सफल हो पाती है। फिल्मों के कद्रदान और जानकार कई सारे कारण गिना सकते हैं, लेकिन अल्पबुद्धि मैं जहां तक समझता हूं, फिल्म में सटीक संदेश होना चाहिए न कि उपदेश। -तारे ज़मीं पर-पर में यह संदेश देने की सफल कोशिश की गई है कि बच्चे से किसी तरह की अपेक्षा रखने से पहले उसकी क्षमताओं का आकलन करना भी माता-पिता का पहला कतॅव्य है। फिर हमें इसका कोई हक नहीं है कि हम अपनी दमित इच्छाओं, सपनों और दुगॅम मंजिल को पाने की जिम्मेदारी बच्चों पर डाल दें। हर माता-पिता या यूं कहें कि पालक को बाल मनोविज्ञान की जानकारी हो न हो, समझ तो होनी ही चाहिए।
इस फिल्म में जब स्कूल का प्रिंसिपल ड्राइंग कॉम्पीटिशन के दौरान आटॅ टीचर आमिर खान से कहता है कि आपने मुझे मेरे बचपन में लौटा दिया, आटॅ टीचर को उसकी मेहनत का पूरा-पूरा सिला मानो मिल जाता है। आटॅ टीचर की ईशान अवस्थी की कमजोरियों के पीछे छिपे कारणों को ढूंढ निकालना, उन्हें दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहना और अंततः उस फिसड्डी माने जाने वाले बच्चे को स्टार बना देना--फिल्म को सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचाता है। माउथ टू माउथ पब्लिशिटी जैसी इस फिल्म को मिल रही है, शायद ही किसी फिल्म को मिल पाती है। मैं तो इतना ही कहूंगा कि हर पालक-अभिभावक को यह फिल्म जरूर देखनी चाहिए। और अब इसे देखना आसान भी हो गया है। दिल्ली और मुम्बई की सरकारों ने इसे टैक्स फ्री कर दिया है। बाकी महानगरों-राज्यों के रहनुमाओं को भी जब इस फिल्म को देखने की फुरसत मिलेगी, शायद वे भी इसे टैक्स फ्री करने की घोषणा कर दें। आमिर खान ने जो किया, उसके लिए वे प्रशंसा के हकदार हैं, विशेष रूप से उस बच्चे को हृदय से बधाई जिसने ईशान अवस्थी की भूमिका में जान डाल दी।

Tuesday, January 1, 2008

...और शुरू हो गया 2008 का सफर


जी हां, करीब एक सप्ताह पहले से ही हमारे भारत देश में भी लोगों ने नववषॅ के स्वागत के लिए आयोजनों की तैयारियां शुरू कर दी थीं, फिर भी यह शुभ घड़ी आते-आते मुझे कुछ ऐसा लगा जैसे कि हम सब जबदॅस्ती ही इस अवसर को त्यौहार के रूप में मना रहे हैं। किसी विद्वान ने सभ्यता और संस्कृति में अंतर बताते हुए कहा है कि सभ्यता में हम जीते हैं और संस्कृति हमारे अंदर जीती है-हमारे मन में- हमारी आत्मा में... और बहुत हद तक यह सच भी है।
सो, मुझे इस साल के आते-आते ऐसा महसूस हुआ कि भारतीय संस्कृति में अन्य सभ्यताओं को अपनाने की जो अदम्य शक्ति है, उसी का परिणाम है कि देखादेखी हम सब पहली जनवरी को त्यौहार के रूप में सेलिब्रेट करने लगे हैं।
भारतीय महीनों में माघ शुक्ल पक्ष पंचमी यानी वसंत पंचमी से ही फाग की तैयारियां शुरू होने लगती हैं। लोग ही क्या, प्रकृति भी मानों सरसों और टेसू के फूल खिलने से फागुन के रंग में रंग जाती है। और फिर इसमें अमीर-गरीब, शहरी-देहाती, नौकरीशुदा-बेरोजगार, नर-नारी, कुंवारे-अविवाहित, मालिक-नौकर---या कहें कि विभाजन की जितनी भी रेखाएं समाज में खिंची हुई हैं या खींच दी गई हैं, होली का त्यौहार आते-आते खुद-बखुद मिट जाती हैं। फागुनी गीतों की बयार और रंग-अबीर की बौछार से जो खुमार दिलो-दिमाग पर छाता है, क्या मजाल कैसी भी बेहतरीन कही जाने वाली शराब में ऐसा नशा मिले। लगता है मैं अतिशयोक्ति नहीं कर रहा, आप सब भी इसके साक्षी होंगे ही।
अंग्रेजी नववषॅ मनाने के दौरान भी जब तक पत्रों और ग्रीटिंग काड्सॅ के माध्यम से मंगलकामनाओं का आदान-प्रदान होता था, कुछ रचनात्मकता बची हुई थी। दिल में अपने अजीज के लिए जो भावनाएं उठती थीं, पत्र या ग्रीटिंग काडॅ में अभिव्यक्ति पा जाती थीं और इन भावनाओं को लोग सालोंसाल सहेजकर रखते थे, लेकिन मोबाइल और इंटरनेट ने तो मानो भावनाओं के प्रस्फुटित होने के रास्ते ही अवरुद्ध कर दिए हैं। मोबाइल पर आपने मुंबई में रहने वाले किसी दोस्त को एसएमएस भेजा हो और वही एसएमएस आपको कोलकाता के किसी दोस्त ने भेज दिया, जो मुंबई वाले आपके दोस्त को जानता भी न हो। मैसेज फॉरवडॅ करने का यह चलन इतना बोर करता है कि मैसेज भेजने का मन ही नहीं करता और न मैसेज पाने पर ही हृदय रूपी कमल खिल पाता है। मैसेज फॉरवडॅ होते-होते ऐसे गड्डमड्ड हो जाते है कि कौन सा मैसेज किसने भेजा था और उसमें कोई साथॅक संदेश भी था या नहीं। महज अल्फाजों में रद्दोबदल करके होली का मैसेज दीवाली और दशहरा होता हुआ नववषॅ सहित सभी अवसरों पर काम आता रहता है। आज बहुतेरे मित्रों के मैसेज की बजाय जब उनके फोन नंबर मोबाइल स्क्रीन पर दिखे तो मैंने उनकी बधाई लेने से पहले जिज्ञासावश पूछ ही लिया कि भाई साहब, संदेश देने के लिए मैसेज करना ही सस्ता पड़ता है, तो उनका कहना था कि मैं वॉयस मैसेज देना चाह रहा था। कई और मित्रों का कहना था कि इस बार मैंने अपेक्षाकृत कम मैसेज भेजे औऱ मैसेज आए भी कम। तो ऐसे में मेरा निवेदन तो यही है कि यदि मोबाइल पर मैसेज भेजकर ही हम शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करना चाहें, तो हम दिल से निकलने वाली भावनाओं को ही भेजें, न कि प्रचलित मैसेज को फॉरवडॅ करते रहें। प्रख्यात कवि उदयप्रताप सिंह की दो पंक्तियां उधार लेकर इसका समापन करता हूं---
मोबाइलों के दौर के आशिक को क्या पता
रखते थे कैसे खत में कलेजा निकाल के।
आप सब को नए वषॅ में नए वषॅ का प्रथम प्रणाम और दिली शुभकामनाएं।