Sunday, December 23, 2007

मुदित हुए मोदी कि विकास बोलता है


-....आखिरकार २३ दिसम्बर आ ही गया और बड़ा दिन (क्रिसमस) से दो दिन पहले ही भाजपा नेता नरेंद्र मोदी को उनके लाखों समथॅकों के साथ बहुत बड़ी खुशी मिल गई। मैंने सुबह ८ बजे बीबीसी हिंदी सुनना शुरू किया तो कुछ भी स्पष्ट नहीं था, सभा खत्म होते-होते कुछ रुझान आए। इसके बाद जब डीडी न्यूज खोला तो पांच विधानसभा क्षेत्रों में से चार पर बीजेपी आगे चल रही थी। अपन को तभी लग गया था कि कांग्रेस के पासे इस चुनाव में भी गलत ही पड़े। जयपुर में तो दिनभर सूरज नहीं निकला, लेकिन दिन चढ़ने के साथ ही कमल की पंखुड़ियां खिलने लगी थीं। चैनलों पर दिख रहे कांग्रेसियों के चेहरों से तेज गायब होता जा रहा था।
वतॅमान दौर में जैसी राजनीति की जा रही है, वैसे में अपन तो किसी भी राजनीतिक दल से इत्तिफाक नहीं रखते, लेकिन समाज में जो हो रहा है, उससे आंख चुराना भी तो संभव नहीं है। विश्लेषक नरेंद्र मोदी की इस जीत के मायने निकालने में जुट गए हैं। चुनाव अभियान की शुरुआत मोदी ने पांच साल में कराए गए विकास के बूते ही की थी, लेकिन सोनिया गांधी ने उन्हें मौत का सौदागर क्या कहा, भाजपा समथॅकों का ध्रुवीकरण शुरू हो गया था। फिर तो मोदी के सारे घर के विरोधी भी एक-एक कर धराशायी होने लगे। धुर विरोधी कांग्रेस का जो हश्र हुआ, वह तो सबके सामने है।
जहां तक मैं समझता हूं, कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल की मुखिया जब तक लिखे हुए भाषण पढ़ती रहेंगी, दल की ऐसी ही दुगॅति बनती रहेगी। केन्द्र में जोड़-तोड़ और भाजपा विरोधी कुनबे में एका कर सत्ता हथिया लेना और बात है, लेकिन देश व दल को सफल नेतृत्व पाना दीगर बात। युवराज राहुल भी बयानबाजी में मां से पीछे नहीं हैं, इसका खमियाजा उत्तर प्रदेश में भुगतना भी पड़ा है। यह तो तय है कि विकास जरूर बोलता है और गुजरात में बाकी जो भी रहा हो, विकास की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी को बहुत बहुत बधाई और कांग्रेसियों से गुजारिश कि देश को दिशा देने की तमन्ना रखने वाले को खुद ही दिशाहीन नहीं होना चाहिए।

Tuesday, December 18, 2007

रजनीगंधा में कुछ गीत गुनगुनाइए

मौसम के तेवर दिनोंदिन तीखे होते जा रहे हैं और सूरज की तपिश को तो मानों बरफीली हवाओं ने ढंक सा लिया है। सरकारी संस्था नगर निगम ने काव्यप्रेमियों के लिए खुले आसमान के नीचे सामियाना लगाकर कवि सम्मेलन आयोजित करने का दायित्व निभाया तो गुलाबी नगर की एक साहित्यिक संस्था रसकलश के मानद सचिव ख्यात हास्य कवि सम्पत सरल ने जवाहर कला केंद्र के साथ मिलकर रंगायन सभागार में काव्यसंध्या----रजनीगंधा---सजाई। इस रजनीगंधा की सुगंध बिना किसी व्यापक प्रचार-प्रसार के इस कदर फैली कि सभागार की कुरसियां तो भर ही गईं, काव्यरसिक श्रोता फशॅ पर भी बैठकर इस सुहानी शाम का आनंद लने से नहीं चूके। इस काव्यसंध्या के सितारे थे उदयप्रताप सिंह और दिनेश रघुवंशी।
फरीदाबाद से आए दिनेश रघुवंशी ने इन पंक्तियों में दुनियादारी की सीख दी---
साथ चलने का इरादा जब जवां हो जाएगा
आदमी मिल आदमी से कारवां हो जाएगा
तू किसी के पांव के नीचे तो रख थोड़ी जमीं
तू भी नजरों में किसी के आसमां हो जाएगा
धूल जैसे कदम से मिलती है
जिंदगी रोज हमसे मिलती है
यह बताया गहन अंधेरों ने
रोशनी अपने दम से मिलती है

मैनपुरी से शिकोहाबाद औऱ फिर दिल्ली होते हुए आए वरिष्ठ कवि उदयप्रताप सिंह ने
अपनी ढलती उम्र के अनुभवों को इन शब्दों में बयां किया--
पुरानी किश्ती को पार लेकर फकत हमारा हुनर गया है
नए खिवैये कहीं न समझें नदी का पानी उतर गया है
आज के जमाने में राम के नाम पर हो रही राजनीति पर उन्होंने फरमाया---
जिसकी धरती चांद तारे आसमां सोचो जरा
उसका मंदिर तुम बनाओगे अमां सोचो जरा
न तेरा है न मेरा है घर हिंदुस्तान सबका है
नहीं समझी गई यह बात तो नुकसान सबका है
माहौल को हल्का करने के लिए या यूं कहें कि मॉडनॅ लाइफ स्टाइल और दुनियादारी को उन्होंने छंद में यूं उतारा---
मोबाइलों के दौर के आशिक को क्या पता
रखते थे कैसे खत में कलेजा निकाल के
सब फैसले होते नहीं सिक्के उछाल के
ये दिल के मामले हैं जरा देखभाल के
रोएगी नई रोशनी ये कहके एक दिन
अच्छे थे वही लोग पुराने ख्याल के
आंधी उड़ा के ले गई ये और बात है
कहने को हम भी पत्ते थे मजबूत डाल के
तुमसे मिला है प्यार सभी रत्न मिल गए
अब क्या करेंगे और समंदर खंगाल के
सचाई और ईमानदारी से जीने वालों का इस जमाने में क्या हश्र होता है, इसे कवि उदयप्रताप सिंह ने कुछ यूं बयां किया
इस दौर में कोई न जुबां खोल रहा है
तुझको ही क्या पड़ी है कि सच बोल रहा है
बेशक हजार बार लुटा पर बिका नहीं
कोहिनूर जहां भी रहा अनमोल रहा है
तिनके की चटाई को कोई खौफ न खतरा
हर पांव सिंहासन का मगर डोल रहा है
शोहरत के मदरसे का गणित हमसे पूछिए
जितनी है पोल उतना ही बस ढोल रहा है
कुछ पंक्तियां और भी किसी भी हाल में हौसला और उत्साह से लबरेज रखने के लिए..................
एक मेरा दोस्त मुझसे फासला रखने लगा
रुतबा पाकर पिछला रिश्ता क्यों भला रखने लगा
जब से पतवारों ने मेरी नाव को धोखा दिया
मैं भंवर में तैरने का हौसला रखने लगा
मौत का अंदेशा उसके दिल से क्या जाता रहा
वो परिंदा बिजलियों में घोंसला रखने लगा
मेरी इन नाकामियों की कामयाबी देखिए
मेरा बेटा दुनियादारी की कला रखने लगा
और फूलों और कलियों के बहाने कवि ने दुनिया और दुनियादारी का कच्चा चिट्ठा खोल दिया---
अगह बहारें पतझड़ जैसा रूप बना उपवन में आएं
माली तुम्हीं फैसला कर दो हम किसको दोषी ठहराएं
वातावरण आज उपवन का कड़वाहट से भरा हुआ
कलियां हैं भयभीत फूल से फूल शूल से डरा हुआ है
धूप रोशनी अगर चमन में ऊपर ही ऊपर बंट जाएं
माली तुम्हीं फैसला....
सुनते हैं पहले उपवन में हर ऋतु में बहार गाती थी
कलियों का तो कहना क्या है मिट्टी से खुशबू आती थी
कांटे उपवन के रखवाले अबसे नहीं जमाने से हैं
लेकिन उनके मुंह पर ताले अब से नहीं जमाने से हैं
ये मुंहबंद उपेक्षित कांटे अपनी कथा कहें तो किस से
इसी प्रश्न को लेकर कांटे गर फूलों को चुभ जाएं
माली तुम्हीं फैसला...
और इस तरह संपन्न हुई यह काव्यसंध्या और काव्यरसिक श्रोताओं की तृप्ति का तो कहना ही कहना, हर चेहरा प्रफुल्लित था, धन्य समझ रहा था कि वह इस रजनी में रजनीगंधा का साक्षी बन पाया । आज के कवि सम्मेलनों में जब कविगण कविताई कम करते हैं और तालियों के लिए रिरियाते रहते हैं कि पं. नरेंद्र मिश्र को ----गिड़गिड़ाते तालियों के वास्ते शब्द के साधक भिखारी हो गए----। यहां तो आलम यह था कि निडिल ड्रॉप साइलेंस के बीच कवि के कंठ से शब्दों के फूटते ही तालियों की तुमुल गड़गड़ाहट से सभागार गूंज उठता था।
आचायॅ रामचंद्र शुक्ल के निबंध में कहीं पढ़ा था-चमन में फूल खिलते हैं वन में हंसते हैं--इसे मैं कुछ इस तरह से जोड़कर आपके सामने रखना चाहता हूं। बाग में पेड़ परचढ़कर पके आम तोड़कर उन्हें खाने में जो सुख मिलता है, कवियों की जुबानी उनकी कविताएं सुनने में वही आनंद मिलता है। बीबीसी की मेहरबानी से दिनकर, बच्चन जैसे कवियों को भी सुनने का मौका मिला, इससे मैं अपने धन्य समझता हूं। तो मैंने सोचा कि हर कोई आम तोड़े यह तो इतना संभव नहीं है, लेकिन अपने तोड़े हुए आम तो मैं आप सबकी थालियों में परोस ही सकता हूं, सो आपका आभारी हूं कि आपने अपना अमूल्य समय मेरे काव्यप्रेम का साझेदार बनने में व्यतीत किया। कविताएं कुछ अधूरी रह गईं है, कुछ अशुद्धियां भी रह गई होंगी, तो इस सबके लिए क्षमा चाहता हूं। फिर मिलते रहेंगे, यह वादा रहा आज का।

अगहन की एक रात-बात कविताओं की (एक)

कवि सम्मेलन में नियमित रूप से हाजिरी देने वालों का यह ददॅ अक्सर ही उनके जुबान पर आ जाया करता है कि ये कवि नाम हो जाने के बाद तो नया तो कुछ सुनाते ही नहीं, बस अपनी प्रतिनिधि काव्य रचना का ही बार-बार पाठ करते रहते हैं, अब कविता भले ही बहुत ही सोणी हो, लेकिन बोरियत तो होती ही है। कई मित्रों ने ऐसी शिकायत की और कइयों ने तो इससे थक-हारकर कवि सम्मेलनों से ही किनारा कर लिया, लेकिन ऐसे में गाजियाबाद के कवि डॉ. कुमार विश्वास का मैं विशेष आभारी हूं (दूसरे श्रोता भी अवश्य ही होंगे) कि एक वषॅ में तीसरी बार और महज एक ही महीने में दूसरी बार उन्हें सुनने का सुअवसर मिला, लेकिन उन्होंने अपनी नई काव्य पंक्तियों से हमें रू-ब-रू करवाया महज दो-चार-छह गिनी-चुनी पंक्तियों को छोड़कर। संचालक का आसन छोड़कर उन्होंने माइक संभाला और कुछ यूं मुखातिब हुए----
किस्मत सपन संवार रही है सूरज पलकें चूम रहा है
यूं तो जिसकी आहट भर से धरती-अंबर झूम रहा है
नाच रहे हैं जंगल-पवॅत मोर चकोर सभी लेकिन
उस बादल की पीड़ा समझो जो बिन बरसे घूम रहा है
फिर आशावाद की एक किरण यूं फूटी---
भीड़ का शोर जब कानों के पास रुक जाए
सितम की मारी हुई वक्त की इन आंखों में
नमी हो लाख मगर फिर भी मुस्कुराएंगे
अंधेरे वक्त में भी गीत गाए जाएंगे
-----------------------
तूने पूछा है जूस्तजू क्या है
दिल ही जाने कि आरजू क्या है
तेरे होने से मेरा होना है
मैं नहीं जानता कि तू क्या है
कवि हृदय का ददॅ कुछ यूं शब्दों में ढला
जी नहीं सकता तो जीने की तमन्ना छोड़ दे
बहते-बहते जो ठहर जाए वो दरिया छोड़ दे
फूल था मैं मुझे कांटा बना दिया
और अब कहते हैं कि चुभना छोड़ दे
और अब उनकी --लड़की--शीषॅक से प्रसिद्ध कविता की कुछ पंक्तियां---
पल भर में जीवन महकाएं, पल भर में संसार जलाएं
कभी धूप हैं कभी छांव हैं,
बफॅ कभी अंगार., लड़कियां जैसे पहला प्यार
बचपन के जाते ही इनकी गंध बसे तन मन में
एक कहानी लिख जाती हैं ये सबके जीवन में
बचपन की ये विदा निशानी
यौवन का उपहार, लड़कियां जैसे पहला प्यार
इसकी खातिर भूखी प्यासी रहें रात भर जागें
उसकी पूजा को ठुकराएं छाया तक से भागें
इसके सम्मुख छुई-मुई हैं,
उसके हैं तलवार, लड़कियां जैसे पहला प्यार
राजा के सपने मन में हैं और फकीरों संग हैं
किस्मत औरों के हाथों खिंची लकीरों संग हैं
सपनों सी जगमग जगमग हैं
जीवन सी लाचार, लड़कियां जैसे पहला प्यार
और अब आए जगदीश सोलंकी ने जीवन में आधुनिक सुख-सुविधाओं के बढ़ते जा रहे दखल पर अपनी दखलंदाजी को यूं स्वर दिया---
पढ़ते थे टाट पट्टियों पर जब बैठकर
तब तक धरती की गंध से लगाव था
नानी और दादी की कहानी जब सुनते थे
समझो कि हमें सत्संग से लगाव था
--------------------------
कभी जो कबूतरों को दाना डाला करते थे
सुनते हैं अब वो सज्जाद होने जा रहे
उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता--तिरंगा--के माध्यम से हामारे राष्ट्रध्वज की पीड़ा को शब्दों में सहेजा है, यह कविता जब उपलब्ध होगी, तो आपके सामने रखूंगा, यदि आपमें से किसी के पास हो तो आप मुझे भेज दें, स्वागत है।
कवि सम्मेलन अब अपने पूरे शबाब पर था और इस संध्या के सबसे बड़े आकषॅण थे गीतकार-कवि-शायर डॉ. कुंअर बेचैन, जिन्हें सुनने के लिए श्रोता दिल थामे, शॉल-जैकेट में दुबके बैठे थे। तो अब सीधे आते हैं उनकी कविताओं पर-----
पूरी धरा भी साथ दे तो और बात है
पर तू जरा भी साथ दे तो और बात है
चलने को तो एक पांव से भी चल रहे हैं लोग
पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है
आज के जमाने में एक-दूसरे के प्रति मची काट-मार और सबका दुख-ददॅ बांटने वालों की स्थिति पर कुछ यूं कहा--
दो चार बार हम जो कभी हंस हंसा लिए
सारे जहां ने हाथ में पत्थर उठा लिए
उसने फेंके मुझ पे पत्थर और मैं पानी की तरह
और ऊंचा..और ऊंचा...और ऊंचा उठ गया
और आशावाद की सीख---
दुनिया ने मुझपे फेंके थे पत्थर जो बेहिसाब
मैंने उन्हीं को जोड़कर खुद घर बना लिए
संठी की तरह मुझको मिले जिंदगी के दिन
मैंने उन्हीं में बांसुरी के स्वर बना लिए
----
पहले तो ये चुपके-चुपके यूं ही हिलते डुलते हैं
दिल के दरवाजे हैं आखिर खुलते खुलते खुलते हैं
---
दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना
कुछ भी लिखने का हुनर तुझको अगर मिल जाए
इश्क को अश्कों के दरिया की रवानी लिखना
क्या ऐ सूरज तेरी औकात है इस दुनिया में
रात के बाद भी एक रात है इस दुनिया में
शाख से तोड़े गए फूल ने ये हंसकर कहा
अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में
------
होके मायूस न यूं शाम से ढलते रहिए
जिंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिए
एक ही ठांव पे ठहरेंगे तो थक जाएंगे
धीरे-धीरे ही सही राह पर चलते रहिए
किसी भी हाल में हिम्मत न हारने की सीख डॉ. बेचैन ने इस प्रकार दी---
गमों की आंच पे आंसू उबालकर देखो
बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो
तुम्हारे दिल चुभन भी जरूर कम होगी
किसी के पांव से कांटा निकालकर देखो
वो जिसमें लौ है विरोधों में और चमकेगा
किसी दीये पे अंधेरा उछालकर देखो
कड़ी नजर से न देखो कि टूट जाऊंगा
मुझे ऐ देखने वालो संभालकर देखो
और इस तरह शाम से शुरू हुआ कविताओं का सफर आधी रात बात करीब ढाई बजे अपने मुकाम पर पहुंचा। मैं भी इस ब्लॉग को विराम दे रहा हूं, शीघ्र ही फिर उपस्थित होऊंगा, तब तक के लिए अलविदा.......गुड बॉय.....धन्यवाद।

Monday, December 17, 2007

अगहन की एक रात-बात कविताओं की

कलम के सिपाही उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध कहानी--पूस की रात--में पौष महीने की हाड़ कंपाने वाली सरदी का वणॅन कर इसे प्राण प्रतिष्ठित सा कर दिया है, लेकिन इस बार अगहन में ही सरदी अपने चरम पर है। शनिवार १५ दिसंबर की शाम करीब तीन घंटे खुले आसमान के नीचे लोकनृत्य-संगीत का आनंद उठाने के बाद भी तृप्ति नहीं हुई और दिल था कि मचलता ही रहा सदॅ रात में बाइक पर करीब दस किलोमीटर की यात्रा कर कवि सम्मेलन में पहुंचने के लिए। काफी मिन्नतें कर बड़ी मुश्किल से एक मित्र को तैयार किया साथ चलने को और ४.७ डिग्री सेल्सियस में हम दोनों चल पड़े अपने सफर पर। करीब १० बजकर २० मिनट पर पहुंचे सांगानेर स्टेडियम में तो कवि सम्मेलन अपना करीब आधा सफर तय कर चुका था। फिर भी हमारे हिस्से जो कवि आए, वे हमारे मानस को तृप्त करने के लिए कम नहीं थे। जयपुर नगर निगम की ओर से गुलाबी नगर की स्थापना के वषॅगांठ के तहत आयोजित किए जा रहे इस तीसरे कवि सम्मेलन को यदि सबसे अधिक सफल आयोजन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पांडाल में जितनी कुरसियां लगाई गई थीं वे तो भर ही गई थीं, पीछे का वीरान मैदान भी आबाद था। काव्यरसिक लोग खड़े होकर भी कविताएं सुनने से नहीं हिचके। मैं तो आपलोगों को काव्य संध्या की कविताओं से रू-ब-रू कराना चाहता था, लेकिन बेकार ही बातें बनाने लगा, सो अब सुनिए कविताएं।
जब मैं पहुंचा तो ग्वालियर की राणा जेबा श्रोताओं को मोहब्बत और जिंदगी की हकीकत से मुखातिब करा रही थीं-

तुम मेरे साथ हो भीगती रात में
लग न जाए कहीं आग बरसात में
इनको मिलती नहीं है मोहब्बत कहीं
मांगते हैं मोहब्बत जो खैरात में
बात करने की फुरसत नहीं है हमें
हम कहां आ गए बात ही बात में
आज फिर उनके आने की आई खबर
आज फिर दिन निकल आएगा रात में
पूछती रहती हूं मौत का मैं पता
जिंददी मुझको देना है सौगात में।

उदयपुर से आए राव अजातशत्रु ने अपने निराले अंदाज में श्रोताओं को इतना हंसाया कि लिखने की सुध ही नहीं रही, फिर भी
वो दोस्ती के दायरे बेमेल करता है
मैं चिट्ठिया लिखता हूं वो ई-मेल करता है
इसके बाद जयपुर के ही स्वनामधन्य कवि सम्पत सरल ने अपनी टिप्पणियों से श्रोताओं से खूब ठहाके लगवाए। उन्होंने गद्य विधा में--बातचीत--शीषॅक से व्यंग्य के माध्यम से भारत-पाकिस्तान के बीच सालों से होने वाली बातचीत की साथॅकता को रेखांकित किया।
इसके बाद कवि सम्मेलन के संचालक डॉ. कुमार विश्वास ने राजधानी दिल्ली से आईं अना देहलवी को इन पंक्तियों में काव्यपाठ के लिए बुलाया-
निगाह उठे तो सुबह हो झुके तो शाम हो जाए
अगर तू मुस्कुरा भर दे तो कत्लेआम हो जाए
जरूरत ही नहीं तुझको मेरे बांहों में आने की
तू ख्वाबों में ही आ जाए तो अपना काम हो जाए

और फिर अना देहलवी कुछ इस अंदाज में तशरीफ लेकर आईं-

दिल में जो है मेरे अरमान भी दे सकती हूं
सिफॅ अरमान ही नहीं ईमान भी दे सकती हूं
मुल्क से अपने मुझे इतनी मोहब्बत है अना
मैं तिरंगे के लिए जान भी दे सकती हूं
देशभक्ति से बात बढ़ती हुई हिंदी-उरदू प्रेम की ओर से बढ़ी---
फूल के रंग को तितली के हवाले कर दूं
गालिबो मीर को तुलसी के हवाले कर दूं
आज में मिला दूं मैं सगी बहनों को
यानी उरदू को मैं हिंदी के हवाले कर दूं
युवकों के मजनू बनने की अदा को उन्होंने कुछ यूं जुबान दी---
कोई ये बोला कि जलवे लुटाने आई थी
कहा किसी ने कि बिजली गिराने आई थी
जरा सी बात के अफसाने बन गए कितने
मैं अपनी छत पर दुपट्टा सुखाने आई थी।
और फिर मोहब्बत की दास्तां कुछ यूं परवान चढ़ी---
तुम्हारी यादों के चंद आंसू हमारी आंखों में पल रहे हैं
न जाने कैसे हैं ये मुसाफिर न रुक रहे हैं न चल रहे हैं
धुआं-धुआं ये शमां है आ जा, कहां है आ जा कहां है आ जा
सितारे अंगड़ाई ले रहे हैं चिराग करवट बदल रहे हैं
उजाले अपनी मोहब्बतों के चुरा न ले जाएं डर रही हूं
सुना है जिस दिन से चांद-तारे हमारी छत पर टहल रहे हैं
जमाने वालो न बुझ सकेगा तुम्हारी फूंकों से प्यार मेरा
मेरे चिरागों के हौसले अब हवा से आगे निकल रहे हैं
नई शराबों पे जोर आया, न जाने ये कैसा दौर आया
संभलने वाले बहक रहे हैं, बहकने वाले संभल रहे हैं
कहां की मंजिल कहां के रहबर, अना भरोसा नहीं किसी पर
जगाने निकले थे जो जहां को, वो ही नींदों में चल रहे हैं
तुम्हारी यादों के चंद आंसू.....
और कुछ रंग यूं भी भरे शायरी ने-----
आंखों से आंखों को सुनाई जाती है
दुनिया से जो बात छुपाई जाती है
चांद से पूछो या मेरे दिल से
तन्हा कैसे रात बिताई जाती है
घाट-घाट पे पीने वाले क्या जानें
शबनम से भी प्यास बुझाई जाती है
कागज की एक नाव बहाकर दरिया में
तूफानों से शतॅ लगाई जाती है
इश्क करूंगी और अना मैं देखूंगी
आग से कैसे आग बुझाई जाती है
इसके बाद आए जयपुर के ही अब्दुल गफ्फार ने वीर रस की कविताओं से काव्य संध्या का जो शृंगार किया, तो सभी श्रोताओं के साथ मेरी भी भुजाएं फड़कने लगीं, पाकिस्तान की नापाक हरकतों से लेकर रामसेतु प्रकरण पर एम. करुणानिधि की करुणानिधान भगवान राम के प्रति की गई टिप्पणी पर कवि के तीखे तेवर जब होठों पर आए तो उनकी कोट के बटन टूटकर बिखरने लगे, फिर डायरी और कलम मेरे हाथों में कैसे रुकी रहती,, सो महज दो पंक्तियां
बेशक पाकिस्तान मिटाना हम सबकी मजबूरी है
घर के सब गद्दार मिटाना पहले बहुत जरूरी है
रात गहराती जा रही थी और कवि सम्मेलन अपनी ऊंचाइयों को छू रहा था, अब भी जो शेष कवि थे उनकी रचनाएं कुछ कम विशेष नहीं हैं, लेकिन उनके लिए कीजिए बस थोड़ा सा इंतजार..............

Sunday, December 16, 2007

गुलाबी नगर थिरक उठी--थिरकन--में लोक कलाकारों के संग

पिंकसिटी में शनिवार को एक ही दिन में सूररज की बेरुखी से पारा चार डिग्री नीचे उतर आया और न्यूनतम तापमान ४.८ डिग्री सेल्सियस दजॅ किया गया, इसका अहसास सड़कों पर कम संख्या में चल रहे वाहन भी करा रहे थे। जब कमरे के अंदर रजाई में दुबकने के बाद रूम हीटर चलाने की आवश्यकता महसूस हो रही थी, ऐसे में सैकड़ों लोग खुले आसमान के नीचे बिना दांत किटकिटाते हुए एकटक नजरों से कलाकारों की प्रस्तुतियों को निहार रहे थे। किसी ने सच ही कहा है, कला महसूस करने की चीज होती है और कलाकार जब अपना फन दिखाने को तत्पर हों तो कला के कद्रदान अपने कतॅव्य के पालन से कैसे पीछे हटते, सो करीब दो घंटे तक लोगों ने जमकर लोकनृत्य-लोकसंगीत का आनंद लिया हाड़ कंपाती इस सदॅ रात में।
जी हां, गीत-संगीत की यह सुहानी शाम सजाई थी जयपुर दूरदशॅन ने गुलाबी नगर के जवाहर कला केंद्र के मुक्ताकाशी मंच पर। जयपुर दूरदशॅन की ओर से नववषॅ २००८ की पूवॅ संध्या पर प्रसारित होने वाले कायॅक्रम--थिरकन--की शूटिंग की जा रही थी, दूरदशॅन पर इन कलाकारों की प्रस्तुति का लुत्फ डीडी वन व टू के सहारे रहने वालों के अलावा केबल की सुविधा वाले लाखों दशॅक ३१ दिसंबर की रात उठा सकेंगे, लेकिन मुझे इस कायॅक्रम को साकार होते हुए देखने का अवसर मिला। प्रतिष्ठित कवि और कवि सम्मेलनों के समथॅ संचालक डॉ. कुमार विश्वास और शायरा-कवयित्री दीप्ति मिश्र की एंकरिंग ने लोक कलाकारों की प्रस्तुतियों से सजे इस कायॅक्रम की रौनक में चार चांद लगा दिए। लोक संगीत-लोक नृत्य के साथ यदि साहित्यिक प्रतिभाएं जुड़ जाएं तो इससे दोनों विधाओं का ही कायाकल्प हो सकता है और जयपुर दूरदशॅन ने इसकी साथॅक पहल की, इसके लिए जयपुर दूरदशॅन के निदेशक नंद भारद्वाज साधुवाद के हकदार हैं।
राजस्थानी लोकनृत्य में नायिका की मनुहार---ठोकर लाग जावेली....बिछिया की टांकी टूट जावेली...से इस संगीत संध्या का आगाज हुआ और फिर ---नैना सूं नैना मिलाय के नाच ल्यो, हिवड़ो सूं हिवड़ो मिलाय के नाच ल्यौ--के बाद कलाकारों ने तेरह ताली और अन्य लोकनृत्यों से राजस्थानी संस्कृति के दशॅन कराए। कायॅक्रम परवान चढ़ता गया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कालबेलिया नृत्य को पहचान दिलाने वाली गुलाबो ने अपने बेटे-बेटियों के साथ जब प्रस्तुति देना शुरू किया तो ऐसे लगा जैसे सांप की लोच इन संपेरों की आत्मा में उतर आई है। अंग-प्रत्यंग का लोच देखते ही बनता था।
इसके बाद मयूर नृत्य में राधा-कृष्ण के साथ गोपियों ने ---बरसाने के मोर कुटीर में मोरा बन आयो रसिया---की प्रस्तुति में छोटी काशी के नाम से ख्यात जयपुर में वृंदावन को साकार कर दिया। गीत-संगीत के स्वर जब आसमान में गूंजने लगे, तो चंद्रमा भी शायद इस संगीत संध्या को देखने का लोभ संवरण नहीं कर सका और मुक्ताकाशी मंच के ऊपर आकर इसका आनंद लेने लगा। जब धरती-अम्बर के संग चंद्रमा भी झूम रहा हो तो फिर कलाकार अपना सवॅश्रेष्ठ प्रदशॅन करने से खुद को कैसे रोक पाते, सो जब बरसाने की लट्ठमार होरी के बीच गोप-गोपियां राधा-कृष्ण पर फूलों की बरसात करने लगे तो श्रोता-दशॅक भी होली के रंग में रंग से गए और अगहन की रात में ही फागुन का मौसम आ गया। द्वापर युग में कृष्ण ने सुदशॅन चक्र नचाया था और कनिष्ठिका अंगुली पर गोवधॅन पवॅत को उठा लिया था, सो कलियुग में कृष्ण बने कलाकार ने साधना और अभ्यास के बल पर फूलों से भरी परात को जब अपनी तजॅनी अंगुली पर नचाना शुरू किया तो लोग वाह-वाह कर उठे।
सदॅ मौसम की मार को भूले दशॅक तो कायॅक्रम के समापन के बाद भी यही मनुहार करते रहे-
काश इस रात की सहर कभी भी आए न
ख्वाब ही देखते रहें हमें कोई जगाए न।

Sunday, December 9, 2007

ना जाने कित ते प्रकटें....

पत्रकारिता का पेशा और रात की नौकरी से होने वाली परेशानियां तो अब आदत में शुमार हो गई हैं। किसी भी मित्र, प्रियजन के यहां आयोजित होने वाले कायॅक्रम में भाग नहीं लेने के बाद हाथ जोड़कर या फिर एसएमएस, ई-मेल और कभी-कभी पत्र के जरिये माफी मांग लेने की मजबूरी....तो वे सब भी समझ चुके हैं। अभी पांच-छह दिन पहले ही एक मित्र के बड़े भाई की शादी शहर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर उनके पैतृक निवास पर थी, सो देर से सोने के बावजूद सुबह निकले, वहां पहुंचे, अपना थका हुआ थोबड़ा दिखाया, घुड़चढ़ी का इंतजार कर रहे दूल्हे को बधाई दी, सजने से पहले मित्र की होने वाली भाभी को भावी जीवन की मंगलकामनाएं दीं, शाम के खाने की तैयारियों का जायजा लिया और खाना खाकर वापस रवाना हो लिया। सड़क अच्छी थी और टैक्सी के ड्राइवर को मुझे सकुशल दफ्तर पहुंचाने की जिम्मेदारी का अहसास था सो जैसे-तैसे करीब आधा घंटा लेट पहुंच गया ऑफिस और संभाल ली कमान।
...ये क्या, मैं तो अपनी पुरानी दास्तान सुनाने लगा था, कहना तो कुछ और ही चाहता था। खैर, अब बताता हूं। आज शाम भी ऑफिस आने में देर हो रही थी। साथ ही काम करने वाले मित्र बाइक चला रहे थे। ऑफिस पहुंचने की जल्दबाजी थी, लाल बत्ती होने के बावजूद चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस के सिपाही को नहीं देख मित्र ने रुकना मुनासिब नहीं समझा और चल दिए मंजिल की ओर....पर यह क्या...चौराहा पार करते ही एक ट्रैफिक सिपाही प्रकट हुआ और हमें रोक लिया। उसके उपदेश सुनने में हमें जितना समय लगा, उससे कम में शायद लाल बत्ती हरी हो चुकी होती और हमें पुलिसिया प्रवचन सुनना नहीं पड़ता। कुल मिलाकर बात यह है कि ट्रैफिक पुलिस की तैनातगी ट्रैफिक को व्यवस्थित करने के लिए की जाती है, लेकिन अपने देश में तो ट्रैफिक सिपाही शिकार फांसने की ही ताक में ही रहते हैं। यातायात व्यवस्थित हो न हो, उनकी जेब शाम होते-होते जरूर व्यवस्थित हो जाती है और कुछ चालान कट गए तो सरकारी कोष भी व्यवस्थित हो जाता है। सो मैंने तो सीख ले ही ली, आप सब भी सावधान रहें, चौराहे के बीच में लगे ट्रैफिक पोस्ट पर भले सिपाही न दिखे, लाल बत्ती को क्रॉस करने की हिम्मत न करें, ट्रैफिक सिपाही कहीं भी, कभी भी प्रकट हो सकता है। खुदा खैर करे......

जित देखो तित मुंड

जी हां, कल यानी ८ दिसंबर को राजस्थान की वसुंधरा सरकार की चौथी वषॅगांठ थी। इस अवसर पर पिंकसिटी में विधानसभा भवन के पास स्थित अमरूदों के बाग में सरकार व भाजपा की ओर से रैली का आयोजन किया गया था। अमूमन ऐसी रैलियों में आने वाली भीड़ की खबर अपन को टीवी चैनलों या अगले दिन के अखबारों में ही मिल पाती है, लेकिन कल किसी कारणवश मुझे शहर जाना जरूरी था। रैली ११ बजे होनी थी और मैं करीब १२ बजे घर से निकला। मैं जिस मागॅ से जा रहा था, वह रैली स्थल और रैली के मागॅ से करीब तीन-चार किलोमीटर दूर था। रास्ते में सड़क पर दोनों ओर बाहर से आई बसें कतार में खड़ी थीं, औऱ सड़क पर जो सारी मिनी बसें और बड़ी बसें चल रही थीं, उन पर लगे बैनर यह सूचना दे रहे थे उस पर बैठी सवारियां रैली में ही जा रही हैं। शाम करीब चार बजे लौटा तब तक सड़क पर खड़ी बसें यथावत थीं और लोगों के झुंड के झुंड चले जा रहे थे। रैली से लौटते वाहन सड़कों पर रेंग रहे थे और मेरे सरीखे लोग जिन्होंने घर से बाहर निकलने की जुरॅत की थी, वे गियर बदलते-बदलते परेशान यही सोचने को विवश थे कि घर से बाहर निकले ही क्यों। ऐसे लोग भी मिले जो किसी से टकराते-टकराते बचे थे, तो ऐसे भी मिले जिनके छिले हुए घुटने और कोहनियां उनका हाले दिल बयां कर रही थीं। राजधानी देखने की ललक अभी भी गांवों के लोगों में हैं, तभी तो वे स्थानीय कायॅकरताओं की बातों में आकर बड़े नेताओं के दशॅनों का मोह नहीं छोड़ पाते।
खैर, यह सब तो चलता ही रहेगा। रैली में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने जमकर घोषणाएं कीं। सरकारी कमॅचारियों, संविदा नरसेज, डॉक्टरों, आंगनबाड़ी कायॅकरताओं, पैराटीचसॅ, शिक्षाकरमियों, छात्र-छात्राओं, किसानों, आम लोगों, बेरोजगारों...यूं कहें कि हर किसी के लिए उम्मीदों का पिटारा सा खोल दिया गया। ऐसे में यह सोचने को विवश हो गया कि हमारे देश में लोगों को वोटर ही समझा जाता है, आदमी नहीं, वरना आजादी के बाद से लेकर अब तक शायद परिस्थितयां वैसी नहीं होतीं, जैसी आज हैं। राजनीतिक दल चुनाव से पहले घोषणा पत्र में सब्जबाग दिखाते हैं और यदि उनके सहारे चुनाव की वैतरणी पार कर जाते हैं तो फिर अगले चुनाव से ऐन पहले होने जश्न में अपनी उपलब्धियां गिनाने के नाम पर गरीब जनता का पैसा पानी की तरह बहा डालते हैं।
किस्मत भी कोई चीज है
८ दिसम्बर २००३ को राजस्थान के साथ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में भी सरकारें बनी थीं। इनमें महारानी वसुंधरा तो चार वषॅ में आई अनेक विषम परिस्थितियों के बावजूद सत्ता पर आसीन रहीं, शीला दीक्षित औऱ रमण सिंह को तो कोई खतरा था ही नहीं किसी से, सो वे आज भी उसी ठाठ से राज कर रहे हैं, जिस ठाठ से चार साल पहले कुरसी पर बैठे थे। हां, साध्वी से राजनीति की पगडंडियों के रास्ते दिग्विजय सिंह से कुरसी छीनने वालीं उमा भारती के भाग्य में राजयोग ज्यादा दिन तक नहीं रहा। भाजपा छोड़ने के बाद उनकी आज जो स्थिति है, सबके सामने है।

Tuesday, December 4, 2007

अंतिम ही हो अंतिमा की मौत?

राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार चार दिन बाद अपने शासन के चार साल पूरे पर होने वाले जश्न की तैयारियों में जुटी है, अभी हाल ही हुए --रिसरजेंट राजस्थान--में उद्यमियों द्वारा डेढ़ लाख करोड़ रुपए से भी अधिक के निवेश की घोषणा से बेरोजगार युवकों की आंखों में सपने पलने लगे हैं, वहीं पिंकिसटी के एक इलाके विशेष लक्षमीनारायणपुरी में दूषित पानी से मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। दूषित पानी ने सोमवार को राजेश पटवा और मीना से उनकी एक वषॅ की मासूम बच्ची अंतिमा को छीन लिया।
--जल ही जीवन है--इस सूक्ति वाक्य का अथॅ लक्षमीनारायणपुरी और इसके आसपास के इलाके में जल के जहर बन जाने से अपना अथॅ खो चुका है। दूषित पानी के कारण १५ नवंबर से शुरू हुआ मौतों का यह सिलसिला अब तक तीन बच्चों और दो अधेड़ों की जान ले चुका है। मौत की खबरें अखबारों की सुरखियां बन रही हैं, लेकिन जलदाय मंत्री दावा कर रहे हैं कि शहर में कहीं भी दूषित पानी की सप्लाई नहीं हो रही और चिकित्सा मंत्री इन मौतों को राजनीतिक स्टंट बताते नहीं थकते। मौत के शिकार हुए परिवारों का रुदन इन्हें सुनाई नहीं देता और बीमार लोगों की परेशानियों से इनकी पेशानी पर बल नहीं आते। मिनरल वाटर पीने वाले इन नेताओं को नलों में आने वाले लाल-नीले-गंदले पानी का सच क्योंकर नजर नहीं आता, यह समझ से परे है। ऐसे में अपन ईश्वर से प्राथॅना करें कि सरकार को शीघ्र ही सदबुद्धि आएगी, दूषित पानी के बदले स्वच्छ जल की सप्लाई होगी, जल जहर नहीं बल्कि अमृत ही बना रहेगा। अंतिमा की मौत दूषित पानी से हुई अंतिम ही मौत होगी और थम जाएगा यह असमय मौत का सिलसिला।

Monday, December 3, 2007

पूणॅविराम की महिमा, लगाइए ठहाके

आज एक मित्र का मेल मिला, पढ़ता रहा, मुस्कुराता रहा, बार-बार पढ़ा, आनंद आ गया, सोचा इसे आपलोगों के सामने प्रस्तुत करूं। अपना तो कुछ है नहीं, लेकिन हिंदी की महिमा का पता तो इससे चलता ही है। आज जब punctuation और व्याकरण को हम ताक पर रखते जा रहे हैं, सवॅत्र हिंग्लिश का बोलबाला हो रहा है, महज पूणॅविराम गलत जगह पर लग जाने से कैसे अथॅ का अनथॅ हो जाया करता है, तो लीजिए आप भी लीजिए इस ई-मेल का आनंद, कीजिए प्रण कि भविष्य में हमसे ऐसी भूल न हो, और प्राथॅना कि दूसरे भी ऐसी भूल न करें जिससे उन्हें हंसी का पात्र बनना पड़े।

गांव में एक स्त्री थी । उसके पति आई टी आई में कार्यरत थे। वह आपने पति को पत्र लिखना चाहती थी पर अल्पशिक्षित होने के कारण उसे यह पता नहीं था कि पूर्णविराम(full stop) कहां लगेगा । इसीलिये उसका जहां मन करता था वहीं पूर्णविराम लगा देती थी ।
उसने चिट्ठी इस प्रकार लिखी--------

मेरे प्यारे जीवनसाथी मेरा प्रणाम आपके चरणो में । आप ने अभी तक चिट्ठी नहीं लिखी मेरी सहेली कॊ । नौकरी मिल गयी है हमारी गाय को । बछड़ा दिया है दादाजी ने । शराब की लत लगा ली है मैने । तुमको बहुत खत लिखे पर तुम नहीं आये कुत्ते के बच्चे । भेडि़या खा गया दो महीने का राशन । छुट्टी पर आते समय ले आना एक खूबसूरत औरत । मेरी सहेली बन गई है । और इस समय टीवी पर गाना गा रही है हमारी बकरी । बेच दी गयी है तुम्हारी मां । तुमको बहुत याद कर रही है एक पड़ोसन । हमें बहुत तंग करती है |

Saturday, December 1, 2007

जोंक को मत गरियाइए, बड़े काम की चीज


सूदखोर महाजन, रिश्वतखोर अफसर, भ्रष्टाचारी नेता का जिक्र आते ही हम बेसाख्ता कह उठते हैं कि ये जोंक की तरह भोली-भाली निरीह जनता और हमारे देश का खून चूस रहे हैं। अभिधा से व्यंजना तक की सफर तय करता हुआ यह मुहावरा रूढ़ अथॅ में प्रयुक्त होने लगा है। बात कुछ हद तक सही भी है, लेकिन हकीकत इसके इतर भी कुछ है। पिंकसिटी के निवासियों के स्वास्थ्य की सुध ली यहां के आयुरवेद विभाग ने औऱ लगाया आरोग्य मेला। स्वस्थ होने की चिंता से मैं भी मुक्त नहीं हूं, सो पहुंच गया इस मेले में। कई सारे स्वास्थ्यवधॅक उत्पादों के बारे में जानकारी ली, लेकिन जो सबसे अनूठी जानकारी मुझे मिली, उसे आपसे शेयर करना चाहता हूं।
एक स्टॉल पर जोंक की कई सारी फोटोज की प्रदशॅनी सी लगी हुई थी। एक जार में पानी, और उसमें रखे कई सारे जोंक। इस सबके बीच एक अधेड़ उम्र के सज्जन मेले में आने वालों को जोंक की उपयोगिता के बारे में बता रहे थे। लोगों में सहज जिज्ञासा थी और उत्सुकता भी। स्टॉल पर बैठे भिषगाचायॅ वैद्य पदमचंद जैन ने बताया कि सैकड़ों वषॅ पुरानी सुश्रुत संहिता नामक ग्रंथ के १३वें अध्याय में जोंक से चिकित्सा, जिसे जलौका चिकित्सा पद्धित कहा जाता है, का जिक्र किया गया है। इसमें एक श्लोक है--
सम्पृक्ताद् दुष्ट शुद्धा श्रात जलौका दुष्ट शोणितम्
आदत्ते प्रथमं हसः क्षीरं क्षीरोदकादिव।
वैद्यजी ने बताया कि जोंक की दो प्रजातियां होती हैं, विषैली और विषहीन। विषहीन जोंक में भी कपिला व पिंगला प्रजाति की जोंक इलाज में काम आती है। आयुरवेद व यूनानी चिकित्सा पद्धतियों में इसका व्यापक उल्लेख किया गया है। तो रोगी का उपचार कुछ यूं होता है कि शरीर के प्रभावित स्थान विशेष पर तीन-चार जोंक रख दिए जाते हैं, जो धीरे-धीरे दूषित रक्त को चूस लेते हैं। रक्तविकार दूर होने पर रोगी पूरी तरह स्वस्थ हो जाता है।
कुल मिलाकर बात यह है कि जोंक यदि अपनी इच्छा से आपका खून चूसती है तो यह आपके लिए नुकसानदेह हो सकता है, लेकिन यदि किसी विशेषज्ञ वैद्य की देखरेख में आप अपना दूषित रक्त जोंक से चुसवाएं, तो यह आपको आरोग्य कर सकता है (यदि आप रक्तविकार से पीडि़त हों)।
बचपन में तालाब में नहाने के दौरान या फिर धान के खेत में निकाई-गुड़ाई-कटाई के दौरान कई बार जोंकों ने मेरे पैर से लिपटकर मेरा भी खून चूसा है, लेकिन तब तो मैं उसके उपकार से अनजान था, सो --सठे साठ्य समाचरेत्--की तजॅ पर उसे पैर से छुड़ाता और जमीन पर रखकर उस पर नमक रख देता। थोड़ी देर में जोंक से खून निकलने लगता और पूरा खून निकलने के बाद उसका जीवनांत हो जाता। मेरा बाल-किशोर मन खुश हो जाता कि कर दिया हिसाब बराबर। तब मुझे कहां पता था कि यह जोंक मेरे चरणों से लिपटकर मेरा उपचार करने की अनुमति चाहता था।
खैर, बहुत हो चुका, आपमें से कइयों को आयुरवेद व यूनानी चिकित्सा पद्धित में निष्णात होने के कारण या फिर किसी परिचित-मित्र-परिजन द्वारा इस चिकित्सा पद्धति का लाभ लिए जाने के कारण पहले से इसकी जानकारी होगी, सो क्षमा चाहता हूं, लेकिन मैं यदि ऐसी जानकारी को सावॅजनिक नहीं करूंगा तो मेरी अल्पज्ञता की चरचा सरेआम कैसे होगी। हां, एक निवेदन और, अगली बार से जोंक से किसी की तुलना करने से पहले एक बार सोच लें कि उसमें कुछ अच्छाई भी है या नहीं, यदि उस व्यक्ति में केवल बुराइयां ही बुराइयां हों तो आप कृपया किसी और से उसकी तुलना करें, जोंक से नहीं.....और जोंक से तुलना करने के बिना काम न चले तो विषैले जोंक से करें तुलना।