Saturday, June 16, 2007

आवश्यकताओं पर अंकुश

आज के युग में विज्ञान के रहमोकरम से सुख-सुविधाओं के उपकरण दिनानुदिन अपडेट होते जा रहे हैं। बहुत पहले हाथ के पंखे झलने से ही गमीर् भाग जाती थी तो आज बिजली के पंखे को अंगूठा दिखाते हुए कूलर को भी मुंह चिढ़ाने लगी है। अब एसी हर किसी के वश की बात तो है नहीं, सो आदमी पड़ोस के संपन्न व्यक्ति को देख-देखकर कुढ़ता रहता है।

बाकी फिर कभी.......
कई दिन हो गए, मौका नहीं मिला इस बात को पूरी करने या आगे बढ़ाने का। दो दिन पहले शुकऱवार रात हुए एक हादसे ने फिर झकझोड़ दिया। कोई अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपना सब कुछ गंवाने को तैयार है तो कोई वासना की भूख मिटाने के लिए उमऱ, शोहरत और अगले जनम को बिगाड़ने से भी बाज नहीं आता।
हुआ यूं कि एक आदमी को अपनी पत्नी पर शक था कि मकान मालिक से उसके अवैध संबंध हैं। गुस्से में बात इतनी बढ़ी कि वह चौथी मंजिल से अपने दो मासूम बच्ऴचों को लेकर कूद गया। बेचारे बच्ऴचों के तो गिरते ही दम तोड़ दिया और बाप की अगले दिन अस्पताल में मौत हो गई।

Friday, June 15, 2007

आज के इस आपाधापी के युग में हर कोई अपने आप में इतना मस्त है कि उसे अपने आस-पड़ोस में झांकने की फुरसत नहीं है। सब कुछ ऐसे ही है कि अपनी शादी हुई और लगन खतम। हमें कभी इस विंदु पर भी सोचना चाहिए कि क्या ऐसा करके हम मनुष्य होने के अपने कतर्व्य का निवर्हन कर रहे हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो उस समय जब हम किसी कारणवश परेशानियों में फंसेंगे तो हमारे आंसू कौन पोंछेगा। पशु और मानव में अंतर की लक्ष्मण रेखा कौन खींच पाएगा। फिर तुलसीदास की उस चौपाई का क्या होगा- जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहिं विलोकत पातक भारी।।
रामचरितमानस में ही एक पऱसंग आता है जब भगवान राम शरणागत विभीषण से उनके हालचाल पूछते हैं तो वे अपनी पीड़ा को व्यक्त करने से स्वयं को नहीं रोक पाते। फट से पड़ते हैं- भलु बस वास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देहिं विधाता।।
आज जब हम अपने आसपास लोगों को स्वारथ में अभिभूत देखते हैं तो इच्छा होती है कि कोई हम सबको यह संदेश दे कि स्व से परे भी कुछ है और इस बाबत हमें अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। हमें बचपन में जो संस्कार दिए गए, हम उन पर अमल नहीं करते तो हमसे यह आशा कैसे की जानी चाहिए कि हम अपने बच्चों को पड़ोसी से मित्रवत व्यवहार करने की अच्छी सीख दे पाएंगे। फिर बच्चा तो वही सीखेगा जो उससे बड़े व्यवहार में लाते हैं।
खुद पर विपत्ति आने पर आंसुओं की बरसात तो स्वाभाविक होती है, बात तो तब बने जब दूसरों के गम से भी आंखें नम हो पाएं।
आज के इस दौर में दिनानुदिन सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं और उन्हें हस्तगत करने की तृष्णा है जो कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। हम वीकेंड पर अपनी फैमिली के साथ हजारों रुपए महज किसी मल्टीप्लेक्स में फिल्म औऱ पॉपकॉनर् सरीखी खाने-पीने की वस्तुओं पर खरच देते हैं और सुबह जब आयरन करने वाला डेढ़ रुपए के बदले दो रुपए फी कपड़े के हिसाब से मांगता है तो हमारी त्यौरियां चढ़ जाती हैं। क्या हम अपनी सुख-सुविधा का एक हिस्सा कम करके उसे उसकी पूरी मजदूरी देने लायक भी नहीं हैं। यह तो एक उदाहरण मात्र है।
हमारे और आपके जीवन में ऐसे कई पल आते होंगे जब आपको लगता होगा कि हम यदि किसी जरूरतमंद की समय रहते मदद कर देते तो वह आज उस हालात में नहीं होता जिसे भोगने को वह अभिशप्त है।
आईए, हम सब मिलकर संकल्प लें कि हम तभी सही मायने में खुश होंगे जब किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट लाने में हम कामयाब हो सकेंगे। शुरुआत भले छोटे स्तर हो लेकिन इससे मिलने वाला सुकून किसी नोबेल पुरस्कार से कम नहीं होगा।

Tuesday, June 12, 2007

all of us should do something except ourselves.