Tuesday, August 18, 2009

...पेट भरे से काम


बचपन में हम चार भाई-बहनों में जो भी खाने के समय आनाकानी नहीं करता, नाक-भौं नहीं सिकोड़ता, उसकी बड़ाई में मां अक्सर एक जुमले का इस्तेमाल करती थी-भोनू भाव न जाने, पेट भरे से काम। तब तो यह सुनने में अच्छा लगता था और अब इस आदत का दूरगामी परिणाम यह देखने को मिलता है कि घरवाली भी जब कभी सब्जी में नमक डालना भूल जाती है या फिर दो दिन के कोटे का नमक एक ही दिन डाल देती है, तो भी बिना शिकायत के खाना खा लिया करता हूं। अपनी भूल का अहसास उन्हें तब होता है जब वे स्वयं उस भोजन को उदरस्थ करती हैं या फिर बेटा उन्हें टोक देता है। खैर, यहां इस चरचा का उद्देश्य अपने घर की रामकहानी को जगजाहिर करना कतई नहीं है। इसे तो बस एक पृष्ठभूमि के तौर पर इस्तेमाल करना चाहता हूं। पीड़ा तो कोई और ही है जिसे शेयर किए बिना नहीं रह सका।
अभी अपने देश में चारों तरफ स्वाइन फ्लू का खौफ फैला हुआ है। हालांकि इसकी आशंका तो तीन-चार महीने से जताई जा रही थी, लेकिन हमारी सरकार भी अपनी आदतें छोड़ नहीं सकती। जब पानी सिर से गुजरा तो सुध लेने की सोची। यह बात दीगर है कि सरकार की इस नाकामी और सुस्ती के कारण बीसियों लोगों की सांसें थम गईं और हजारों की सांसें अटकी हुई हैं।
जैसा कि दस्तूर है, व्यापारियों का अपना हित सबसे बढ़कर होता है। उन्हें जनहित से क्या लेना-देना? तभी तो पांच-सात रुपए में बिकने वाला मास्क पचास से अस्सी रुपए में बिक रहा है और आम तौर पर पचास रुपए में मिलने वाला विशेष मास्क पांच सौ रुपए में भी उपलब्ध नहीं है।
कुछ ऐसा ही हाल महंगाई के साये में जी रहे करोड़ों लोगों का है। विख्यात इकोनॉमिस्ट डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में मुद्रास्फीति हर सप्ताह रसातल में जा रही है और उसी तुलना में महंगाई सातवें आसमान पर चढ़कर नित नई ऊंचाइयों को छू रही है। इसी का रोना है कि -दाल रोटी खाओ प्रभु का गुण गाओ- का जुमला अपना मायने खो चुका है। आम आदमी की थाली में सब्जियां तो वैसे ही नहीं हुआ करती थीं, बढ़ती कीमतों के कारण दाल रसोई से गायब होती जा रही है या फिर बनती भी है तो उसमें पानी की मात्रा जरूरत से अधिक होती ही है।
चीनी की बढ़ती कीमत ने मेहमानों की मनुहार में कटौती कर दी है। पहले जहां मेहमानों को पानी के साथ कुछ मीठा देना मुनासिब समझा जाता था, वहीं आज डायबिटीज वाले मेहमान (अल्पकालिक) का आना अच्छा लगता है क्योंकि वे फीकी चाय जो पीते हैं। मंदी के दौर में जमाखोरी करने वालों की चांदी हो रही है और सरकारी नीतियों के नियंता महज सावधान कर रहे हैं कि महंगाई और बढ़ेगी। कुछ कर सको तो कर लो अन्यथा स्वाइन फ्लू से बच भी गए तो भुखमरी से तो मरना ही पड़ेगा। ऐसे में इन जमाखोरों और मुनाफाखोरों के लिए उपरोक्त जुमले में थोड़ा सा बदलाव करते हुए कहना चाहता हूं-कोई जिए कोई मरे, पेट भरे से काम।