Saturday, October 26, 2019

पिता की फ़िक्र, कैसे करें ज़िक्र


मेरा गांव भी इस मामले में सौभाग्यशाली है कि बड़ी संख्या में वहां के नौजवान सेना में कार्यरत हैं। और यह सिलसिला लंबे समय से चला आ रहा है। नई पीढ़ी के लड़के भी सेना भर्ती में चयन के लिए पसीना बहाते दिख जाते हैं। जब भी गांव जाता हूं तो दो-चार चार ऐसे लोगों से मुलाकात होती है, जिनके बेटे मिलिट्री फोर्स या फिर सीआरपीएफ में हैं। बातचीत के दौरान उनके चेहरे पर आत्मसंतोष और गौरव का भाव अनायास ही दिख जाता है। जैसे कहना चाहते हों कि आज के इस बेरोजगारी के जमाने में जब अच्छे अच्छे पढ़े लिखे, बड़ी डिग्रियों वालों को नौकरी नहीं मिलती, उनका बेटा नौकरी में है। बेटे के आर्मी में होने की वजह से मिलने वाली सुविधाओं की फेहरिस्त गिनाने में भी परहेज़ नहीं होता उन्हें। अभी दसेक दिन पहले भी भतीजे की शादी के सिलसिले में गांव जाना हुआ। लेकिन इस बार लगा जैसे माहौल में पहले जैसी रवानी नहीं हो। पुलवामा में चालीस जवानों की शहादत का असर जैसे वातावरण में घुल गया हो। ऐसी ही एक सुबह पड़ोस के चाचाजी से हुई। वे दुग्ध संग्रह केन्द्र में दूध देने जा रहे थे। उनका बेटा भी सेना में है। प्रणाम करने के बाद हाल चाल पूछा तो पुलवामा कांड की चर्चा करते हुए बेटे को लेकर उनकी चिंता जैसे उनकी आवाज पर पहरा लगाती महसूस हुई। मैंने उन्हें दिलासा दिया कि ऊपर वाले ने जितनी उम्र किस्मत में लिख रखी है, उससे पहले कोई किसी का बाल बांका नहीं कर सकता। और जहां तक अकाल मृत्यु की बात है तो आतंकी और नक्सली हमले में ही लोग नहीं मरते, आए दिन सड़क हादसे में भी जानें चली जाती हैं। फिर शहीदों की शहादत पर अपने ही नहीं रोते, अनजाने लोगों की आंखें भी नम हो जाती हैं। वहीं विभिन्न हादसों में मरने वालों के प्रति वैसी सहानुभूति नहीं होती। उनके चेहरे के बदलते भावों से लगा कि मेरी बातों से उन्हें कुछ सुकून मिला है। संभव है एयर स्ट्राइक की घटना ने भी उन्हें तसल्ली बख्शी हो, लेकिन युद्ध के माहौल में किसी जवान के माता पिता की चिंता की अनदेखी कदापि नहीं की जा सकती। 04 March 2019

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