Sunday, December 23, 2007

मुदित हुए मोदी कि विकास बोलता है


-....आखिरकार २३ दिसम्बर आ ही गया और बड़ा दिन (क्रिसमस) से दो दिन पहले ही भाजपा नेता नरेंद्र मोदी को उनके लाखों समथॅकों के साथ बहुत बड़ी खुशी मिल गई। मैंने सुबह ८ बजे बीबीसी हिंदी सुनना शुरू किया तो कुछ भी स्पष्ट नहीं था, सभा खत्म होते-होते कुछ रुझान आए। इसके बाद जब डीडी न्यूज खोला तो पांच विधानसभा क्षेत्रों में से चार पर बीजेपी आगे चल रही थी। अपन को तभी लग गया था कि कांग्रेस के पासे इस चुनाव में भी गलत ही पड़े। जयपुर में तो दिनभर सूरज नहीं निकला, लेकिन दिन चढ़ने के साथ ही कमल की पंखुड़ियां खिलने लगी थीं। चैनलों पर दिख रहे कांग्रेसियों के चेहरों से तेज गायब होता जा रहा था।
वतॅमान दौर में जैसी राजनीति की जा रही है, वैसे में अपन तो किसी भी राजनीतिक दल से इत्तिफाक नहीं रखते, लेकिन समाज में जो हो रहा है, उससे आंख चुराना भी तो संभव नहीं है। विश्लेषक नरेंद्र मोदी की इस जीत के मायने निकालने में जुट गए हैं। चुनाव अभियान की शुरुआत मोदी ने पांच साल में कराए गए विकास के बूते ही की थी, लेकिन सोनिया गांधी ने उन्हें मौत का सौदागर क्या कहा, भाजपा समथॅकों का ध्रुवीकरण शुरू हो गया था। फिर तो मोदी के सारे घर के विरोधी भी एक-एक कर धराशायी होने लगे। धुर विरोधी कांग्रेस का जो हश्र हुआ, वह तो सबके सामने है।
जहां तक मैं समझता हूं, कांग्रेस जैसे राजनीतिक दल की मुखिया जब तक लिखे हुए भाषण पढ़ती रहेंगी, दल की ऐसी ही दुगॅति बनती रहेगी। केन्द्र में जोड़-तोड़ और भाजपा विरोधी कुनबे में एका कर सत्ता हथिया लेना और बात है, लेकिन देश व दल को सफल नेतृत्व पाना दीगर बात। युवराज राहुल भी बयानबाजी में मां से पीछे नहीं हैं, इसका खमियाजा उत्तर प्रदेश में भुगतना भी पड़ा है। यह तो तय है कि विकास जरूर बोलता है और गुजरात में बाकी जो भी रहा हो, विकास की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी को बहुत बहुत बधाई और कांग्रेसियों से गुजारिश कि देश को दिशा देने की तमन्ना रखने वाले को खुद ही दिशाहीन नहीं होना चाहिए।

Tuesday, December 18, 2007

रजनीगंधा में कुछ गीत गुनगुनाइए

मौसम के तेवर दिनोंदिन तीखे होते जा रहे हैं और सूरज की तपिश को तो मानों बरफीली हवाओं ने ढंक सा लिया है। सरकारी संस्था नगर निगम ने काव्यप्रेमियों के लिए खुले आसमान के नीचे सामियाना लगाकर कवि सम्मेलन आयोजित करने का दायित्व निभाया तो गुलाबी नगर की एक साहित्यिक संस्था रसकलश के मानद सचिव ख्यात हास्य कवि सम्पत सरल ने जवाहर कला केंद्र के साथ मिलकर रंगायन सभागार में काव्यसंध्या----रजनीगंधा---सजाई। इस रजनीगंधा की सुगंध बिना किसी व्यापक प्रचार-प्रसार के इस कदर फैली कि सभागार की कुरसियां तो भर ही गईं, काव्यरसिक श्रोता फशॅ पर भी बैठकर इस सुहानी शाम का आनंद लने से नहीं चूके। इस काव्यसंध्या के सितारे थे उदयप्रताप सिंह और दिनेश रघुवंशी।
फरीदाबाद से आए दिनेश रघुवंशी ने इन पंक्तियों में दुनियादारी की सीख दी---
साथ चलने का इरादा जब जवां हो जाएगा
आदमी मिल आदमी से कारवां हो जाएगा
तू किसी के पांव के नीचे तो रख थोड़ी जमीं
तू भी नजरों में किसी के आसमां हो जाएगा
धूल जैसे कदम से मिलती है
जिंदगी रोज हमसे मिलती है
यह बताया गहन अंधेरों ने
रोशनी अपने दम से मिलती है

मैनपुरी से शिकोहाबाद औऱ फिर दिल्ली होते हुए आए वरिष्ठ कवि उदयप्रताप सिंह ने
अपनी ढलती उम्र के अनुभवों को इन शब्दों में बयां किया--
पुरानी किश्ती को पार लेकर फकत हमारा हुनर गया है
नए खिवैये कहीं न समझें नदी का पानी उतर गया है
आज के जमाने में राम के नाम पर हो रही राजनीति पर उन्होंने फरमाया---
जिसकी धरती चांद तारे आसमां सोचो जरा
उसका मंदिर तुम बनाओगे अमां सोचो जरा
न तेरा है न मेरा है घर हिंदुस्तान सबका है
नहीं समझी गई यह बात तो नुकसान सबका है
माहौल को हल्का करने के लिए या यूं कहें कि मॉडनॅ लाइफ स्टाइल और दुनियादारी को उन्होंने छंद में यूं उतारा---
मोबाइलों के दौर के आशिक को क्या पता
रखते थे कैसे खत में कलेजा निकाल के
सब फैसले होते नहीं सिक्के उछाल के
ये दिल के मामले हैं जरा देखभाल के
रोएगी नई रोशनी ये कहके एक दिन
अच्छे थे वही लोग पुराने ख्याल के
आंधी उड़ा के ले गई ये और बात है
कहने को हम भी पत्ते थे मजबूत डाल के
तुमसे मिला है प्यार सभी रत्न मिल गए
अब क्या करेंगे और समंदर खंगाल के
सचाई और ईमानदारी से जीने वालों का इस जमाने में क्या हश्र होता है, इसे कवि उदयप्रताप सिंह ने कुछ यूं बयां किया
इस दौर में कोई न जुबां खोल रहा है
तुझको ही क्या पड़ी है कि सच बोल रहा है
बेशक हजार बार लुटा पर बिका नहीं
कोहिनूर जहां भी रहा अनमोल रहा है
तिनके की चटाई को कोई खौफ न खतरा
हर पांव सिंहासन का मगर डोल रहा है
शोहरत के मदरसे का गणित हमसे पूछिए
जितनी है पोल उतना ही बस ढोल रहा है
कुछ पंक्तियां और भी किसी भी हाल में हौसला और उत्साह से लबरेज रखने के लिए..................
एक मेरा दोस्त मुझसे फासला रखने लगा
रुतबा पाकर पिछला रिश्ता क्यों भला रखने लगा
जब से पतवारों ने मेरी नाव को धोखा दिया
मैं भंवर में तैरने का हौसला रखने लगा
मौत का अंदेशा उसके दिल से क्या जाता रहा
वो परिंदा बिजलियों में घोंसला रखने लगा
मेरी इन नाकामियों की कामयाबी देखिए
मेरा बेटा दुनियादारी की कला रखने लगा
और फूलों और कलियों के बहाने कवि ने दुनिया और दुनियादारी का कच्चा चिट्ठा खोल दिया---
अगह बहारें पतझड़ जैसा रूप बना उपवन में आएं
माली तुम्हीं फैसला कर दो हम किसको दोषी ठहराएं
वातावरण आज उपवन का कड़वाहट से भरा हुआ
कलियां हैं भयभीत फूल से फूल शूल से डरा हुआ है
धूप रोशनी अगर चमन में ऊपर ही ऊपर बंट जाएं
माली तुम्हीं फैसला....
सुनते हैं पहले उपवन में हर ऋतु में बहार गाती थी
कलियों का तो कहना क्या है मिट्टी से खुशबू आती थी
कांटे उपवन के रखवाले अबसे नहीं जमाने से हैं
लेकिन उनके मुंह पर ताले अब से नहीं जमाने से हैं
ये मुंहबंद उपेक्षित कांटे अपनी कथा कहें तो किस से
इसी प्रश्न को लेकर कांटे गर फूलों को चुभ जाएं
माली तुम्हीं फैसला...
और इस तरह संपन्न हुई यह काव्यसंध्या और काव्यरसिक श्रोताओं की तृप्ति का तो कहना ही कहना, हर चेहरा प्रफुल्लित था, धन्य समझ रहा था कि वह इस रजनी में रजनीगंधा का साक्षी बन पाया । आज के कवि सम्मेलनों में जब कविगण कविताई कम करते हैं और तालियों के लिए रिरियाते रहते हैं कि पं. नरेंद्र मिश्र को ----गिड़गिड़ाते तालियों के वास्ते शब्द के साधक भिखारी हो गए----। यहां तो आलम यह था कि निडिल ड्रॉप साइलेंस के बीच कवि के कंठ से शब्दों के फूटते ही तालियों की तुमुल गड़गड़ाहट से सभागार गूंज उठता था।
आचायॅ रामचंद्र शुक्ल के निबंध में कहीं पढ़ा था-चमन में फूल खिलते हैं वन में हंसते हैं--इसे मैं कुछ इस तरह से जोड़कर आपके सामने रखना चाहता हूं। बाग में पेड़ परचढ़कर पके आम तोड़कर उन्हें खाने में जो सुख मिलता है, कवियों की जुबानी उनकी कविताएं सुनने में वही आनंद मिलता है। बीबीसी की मेहरबानी से दिनकर, बच्चन जैसे कवियों को भी सुनने का मौका मिला, इससे मैं अपने धन्य समझता हूं। तो मैंने सोचा कि हर कोई आम तोड़े यह तो इतना संभव नहीं है, लेकिन अपने तोड़े हुए आम तो मैं आप सबकी थालियों में परोस ही सकता हूं, सो आपका आभारी हूं कि आपने अपना अमूल्य समय मेरे काव्यप्रेम का साझेदार बनने में व्यतीत किया। कविताएं कुछ अधूरी रह गईं है, कुछ अशुद्धियां भी रह गई होंगी, तो इस सबके लिए क्षमा चाहता हूं। फिर मिलते रहेंगे, यह वादा रहा आज का।

अगहन की एक रात-बात कविताओं की (एक)

कवि सम्मेलन में नियमित रूप से हाजिरी देने वालों का यह ददॅ अक्सर ही उनके जुबान पर आ जाया करता है कि ये कवि नाम हो जाने के बाद तो नया तो कुछ सुनाते ही नहीं, बस अपनी प्रतिनिधि काव्य रचना का ही बार-बार पाठ करते रहते हैं, अब कविता भले ही बहुत ही सोणी हो, लेकिन बोरियत तो होती ही है। कई मित्रों ने ऐसी शिकायत की और कइयों ने तो इससे थक-हारकर कवि सम्मेलनों से ही किनारा कर लिया, लेकिन ऐसे में गाजियाबाद के कवि डॉ. कुमार विश्वास का मैं विशेष आभारी हूं (दूसरे श्रोता भी अवश्य ही होंगे) कि एक वषॅ में तीसरी बार और महज एक ही महीने में दूसरी बार उन्हें सुनने का सुअवसर मिला, लेकिन उन्होंने अपनी नई काव्य पंक्तियों से हमें रू-ब-रू करवाया महज दो-चार-छह गिनी-चुनी पंक्तियों को छोड़कर। संचालक का आसन छोड़कर उन्होंने माइक संभाला और कुछ यूं मुखातिब हुए----
किस्मत सपन संवार रही है सूरज पलकें चूम रहा है
यूं तो जिसकी आहट भर से धरती-अंबर झूम रहा है
नाच रहे हैं जंगल-पवॅत मोर चकोर सभी लेकिन
उस बादल की पीड़ा समझो जो बिन बरसे घूम रहा है
फिर आशावाद की एक किरण यूं फूटी---
भीड़ का शोर जब कानों के पास रुक जाए
सितम की मारी हुई वक्त की इन आंखों में
नमी हो लाख मगर फिर भी मुस्कुराएंगे
अंधेरे वक्त में भी गीत गाए जाएंगे
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तूने पूछा है जूस्तजू क्या है
दिल ही जाने कि आरजू क्या है
तेरे होने से मेरा होना है
मैं नहीं जानता कि तू क्या है
कवि हृदय का ददॅ कुछ यूं शब्दों में ढला
जी नहीं सकता तो जीने की तमन्ना छोड़ दे
बहते-बहते जो ठहर जाए वो दरिया छोड़ दे
फूल था मैं मुझे कांटा बना दिया
और अब कहते हैं कि चुभना छोड़ दे
और अब उनकी --लड़की--शीषॅक से प्रसिद्ध कविता की कुछ पंक्तियां---
पल भर में जीवन महकाएं, पल भर में संसार जलाएं
कभी धूप हैं कभी छांव हैं,
बफॅ कभी अंगार., लड़कियां जैसे पहला प्यार
बचपन के जाते ही इनकी गंध बसे तन मन में
एक कहानी लिख जाती हैं ये सबके जीवन में
बचपन की ये विदा निशानी
यौवन का उपहार, लड़कियां जैसे पहला प्यार
इसकी खातिर भूखी प्यासी रहें रात भर जागें
उसकी पूजा को ठुकराएं छाया तक से भागें
इसके सम्मुख छुई-मुई हैं,
उसके हैं तलवार, लड़कियां जैसे पहला प्यार
राजा के सपने मन में हैं और फकीरों संग हैं
किस्मत औरों के हाथों खिंची लकीरों संग हैं
सपनों सी जगमग जगमग हैं
जीवन सी लाचार, लड़कियां जैसे पहला प्यार
और अब आए जगदीश सोलंकी ने जीवन में आधुनिक सुख-सुविधाओं के बढ़ते जा रहे दखल पर अपनी दखलंदाजी को यूं स्वर दिया---
पढ़ते थे टाट पट्टियों पर जब बैठकर
तब तक धरती की गंध से लगाव था
नानी और दादी की कहानी जब सुनते थे
समझो कि हमें सत्संग से लगाव था
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कभी जो कबूतरों को दाना डाला करते थे
सुनते हैं अब वो सज्जाद होने जा रहे
उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता--तिरंगा--के माध्यम से हामारे राष्ट्रध्वज की पीड़ा को शब्दों में सहेजा है, यह कविता जब उपलब्ध होगी, तो आपके सामने रखूंगा, यदि आपमें से किसी के पास हो तो आप मुझे भेज दें, स्वागत है।
कवि सम्मेलन अब अपने पूरे शबाब पर था और इस संध्या के सबसे बड़े आकषॅण थे गीतकार-कवि-शायर डॉ. कुंअर बेचैन, जिन्हें सुनने के लिए श्रोता दिल थामे, शॉल-जैकेट में दुबके बैठे थे। तो अब सीधे आते हैं उनकी कविताओं पर-----
पूरी धरा भी साथ दे तो और बात है
पर तू जरा भी साथ दे तो और बात है
चलने को तो एक पांव से भी चल रहे हैं लोग
पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है
आज के जमाने में एक-दूसरे के प्रति मची काट-मार और सबका दुख-ददॅ बांटने वालों की स्थिति पर कुछ यूं कहा--
दो चार बार हम जो कभी हंस हंसा लिए
सारे जहां ने हाथ में पत्थर उठा लिए
उसने फेंके मुझ पे पत्थर और मैं पानी की तरह
और ऊंचा..और ऊंचा...और ऊंचा उठ गया
और आशावाद की सीख---
दुनिया ने मुझपे फेंके थे पत्थर जो बेहिसाब
मैंने उन्हीं को जोड़कर खुद घर बना लिए
संठी की तरह मुझको मिले जिंदगी के दिन
मैंने उन्हीं में बांसुरी के स्वर बना लिए
----
पहले तो ये चुपके-चुपके यूं ही हिलते डुलते हैं
दिल के दरवाजे हैं आखिर खुलते खुलते खुलते हैं
---
दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना
कुछ भी लिखने का हुनर तुझको अगर मिल जाए
इश्क को अश्कों के दरिया की रवानी लिखना
क्या ऐ सूरज तेरी औकात है इस दुनिया में
रात के बाद भी एक रात है इस दुनिया में
शाख से तोड़े गए फूल ने ये हंसकर कहा
अच्छा होना भी बुरी बात है इस दुनिया में
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होके मायूस न यूं शाम से ढलते रहिए
जिंदगी भोर है सूरज से निकलते रहिए
एक ही ठांव पे ठहरेंगे तो थक जाएंगे
धीरे-धीरे ही सही राह पर चलते रहिए
किसी भी हाल में हिम्मत न हारने की सीख डॉ. बेचैन ने इस प्रकार दी---
गमों की आंच पे आंसू उबालकर देखो
बनेंगे रंग किसी पर भी डालकर देखो
तुम्हारे दिल चुभन भी जरूर कम होगी
किसी के पांव से कांटा निकालकर देखो
वो जिसमें लौ है विरोधों में और चमकेगा
किसी दीये पे अंधेरा उछालकर देखो
कड़ी नजर से न देखो कि टूट जाऊंगा
मुझे ऐ देखने वालो संभालकर देखो
और इस तरह शाम से शुरू हुआ कविताओं का सफर आधी रात बात करीब ढाई बजे अपने मुकाम पर पहुंचा। मैं भी इस ब्लॉग को विराम दे रहा हूं, शीघ्र ही फिर उपस्थित होऊंगा, तब तक के लिए अलविदा.......गुड बॉय.....धन्यवाद।

Monday, December 17, 2007

अगहन की एक रात-बात कविताओं की

कलम के सिपाही उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने अपनी प्रसिद्ध कहानी--पूस की रात--में पौष महीने की हाड़ कंपाने वाली सरदी का वणॅन कर इसे प्राण प्रतिष्ठित सा कर दिया है, लेकिन इस बार अगहन में ही सरदी अपने चरम पर है। शनिवार १५ दिसंबर की शाम करीब तीन घंटे खुले आसमान के नीचे लोकनृत्य-संगीत का आनंद उठाने के बाद भी तृप्ति नहीं हुई और दिल था कि मचलता ही रहा सदॅ रात में बाइक पर करीब दस किलोमीटर की यात्रा कर कवि सम्मेलन में पहुंचने के लिए। काफी मिन्नतें कर बड़ी मुश्किल से एक मित्र को तैयार किया साथ चलने को और ४.७ डिग्री सेल्सियस में हम दोनों चल पड़े अपने सफर पर। करीब १० बजकर २० मिनट पर पहुंचे सांगानेर स्टेडियम में तो कवि सम्मेलन अपना करीब आधा सफर तय कर चुका था। फिर भी हमारे हिस्से जो कवि आए, वे हमारे मानस को तृप्त करने के लिए कम नहीं थे। जयपुर नगर निगम की ओर से गुलाबी नगर की स्थापना के वषॅगांठ के तहत आयोजित किए जा रहे इस तीसरे कवि सम्मेलन को यदि सबसे अधिक सफल आयोजन कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। पांडाल में जितनी कुरसियां लगाई गई थीं वे तो भर ही गई थीं, पीछे का वीरान मैदान भी आबाद था। काव्यरसिक लोग खड़े होकर भी कविताएं सुनने से नहीं हिचके। मैं तो आपलोगों को काव्य संध्या की कविताओं से रू-ब-रू कराना चाहता था, लेकिन बेकार ही बातें बनाने लगा, सो अब सुनिए कविताएं।
जब मैं पहुंचा तो ग्वालियर की राणा जेबा श्रोताओं को मोहब्बत और जिंदगी की हकीकत से मुखातिब करा रही थीं-

तुम मेरे साथ हो भीगती रात में
लग न जाए कहीं आग बरसात में
इनको मिलती नहीं है मोहब्बत कहीं
मांगते हैं मोहब्बत जो खैरात में
बात करने की फुरसत नहीं है हमें
हम कहां आ गए बात ही बात में
आज फिर उनके आने की आई खबर
आज फिर दिन निकल आएगा रात में
पूछती रहती हूं मौत का मैं पता
जिंददी मुझको देना है सौगात में।

उदयपुर से आए राव अजातशत्रु ने अपने निराले अंदाज में श्रोताओं को इतना हंसाया कि लिखने की सुध ही नहीं रही, फिर भी
वो दोस्ती के दायरे बेमेल करता है
मैं चिट्ठिया लिखता हूं वो ई-मेल करता है
इसके बाद जयपुर के ही स्वनामधन्य कवि सम्पत सरल ने अपनी टिप्पणियों से श्रोताओं से खूब ठहाके लगवाए। उन्होंने गद्य विधा में--बातचीत--शीषॅक से व्यंग्य के माध्यम से भारत-पाकिस्तान के बीच सालों से होने वाली बातचीत की साथॅकता को रेखांकित किया।
इसके बाद कवि सम्मेलन के संचालक डॉ. कुमार विश्वास ने राजधानी दिल्ली से आईं अना देहलवी को इन पंक्तियों में काव्यपाठ के लिए बुलाया-
निगाह उठे तो सुबह हो झुके तो शाम हो जाए
अगर तू मुस्कुरा भर दे तो कत्लेआम हो जाए
जरूरत ही नहीं तुझको मेरे बांहों में आने की
तू ख्वाबों में ही आ जाए तो अपना काम हो जाए

और फिर अना देहलवी कुछ इस अंदाज में तशरीफ लेकर आईं-

दिल में जो है मेरे अरमान भी दे सकती हूं
सिफॅ अरमान ही नहीं ईमान भी दे सकती हूं
मुल्क से अपने मुझे इतनी मोहब्बत है अना
मैं तिरंगे के लिए जान भी दे सकती हूं
देशभक्ति से बात बढ़ती हुई हिंदी-उरदू प्रेम की ओर से बढ़ी---
फूल के रंग को तितली के हवाले कर दूं
गालिबो मीर को तुलसी के हवाले कर दूं
आज में मिला दूं मैं सगी बहनों को
यानी उरदू को मैं हिंदी के हवाले कर दूं
युवकों के मजनू बनने की अदा को उन्होंने कुछ यूं जुबान दी---
कोई ये बोला कि जलवे लुटाने आई थी
कहा किसी ने कि बिजली गिराने आई थी
जरा सी बात के अफसाने बन गए कितने
मैं अपनी छत पर दुपट्टा सुखाने आई थी।
और फिर मोहब्बत की दास्तां कुछ यूं परवान चढ़ी---
तुम्हारी यादों के चंद आंसू हमारी आंखों में पल रहे हैं
न जाने कैसे हैं ये मुसाफिर न रुक रहे हैं न चल रहे हैं
धुआं-धुआं ये शमां है आ जा, कहां है आ जा कहां है आ जा
सितारे अंगड़ाई ले रहे हैं चिराग करवट बदल रहे हैं
उजाले अपनी मोहब्बतों के चुरा न ले जाएं डर रही हूं
सुना है जिस दिन से चांद-तारे हमारी छत पर टहल रहे हैं
जमाने वालो न बुझ सकेगा तुम्हारी फूंकों से प्यार मेरा
मेरे चिरागों के हौसले अब हवा से आगे निकल रहे हैं
नई शराबों पे जोर आया, न जाने ये कैसा दौर आया
संभलने वाले बहक रहे हैं, बहकने वाले संभल रहे हैं
कहां की मंजिल कहां के रहबर, अना भरोसा नहीं किसी पर
जगाने निकले थे जो जहां को, वो ही नींदों में चल रहे हैं
तुम्हारी यादों के चंद आंसू.....
और कुछ रंग यूं भी भरे शायरी ने-----
आंखों से आंखों को सुनाई जाती है
दुनिया से जो बात छुपाई जाती है
चांद से पूछो या मेरे दिल से
तन्हा कैसे रात बिताई जाती है
घाट-घाट पे पीने वाले क्या जानें
शबनम से भी प्यास बुझाई जाती है
कागज की एक नाव बहाकर दरिया में
तूफानों से शतॅ लगाई जाती है
इश्क करूंगी और अना मैं देखूंगी
आग से कैसे आग बुझाई जाती है
इसके बाद आए जयपुर के ही अब्दुल गफ्फार ने वीर रस की कविताओं से काव्य संध्या का जो शृंगार किया, तो सभी श्रोताओं के साथ मेरी भी भुजाएं फड़कने लगीं, पाकिस्तान की नापाक हरकतों से लेकर रामसेतु प्रकरण पर एम. करुणानिधि की करुणानिधान भगवान राम के प्रति की गई टिप्पणी पर कवि के तीखे तेवर जब होठों पर आए तो उनकी कोट के बटन टूटकर बिखरने लगे, फिर डायरी और कलम मेरे हाथों में कैसे रुकी रहती,, सो महज दो पंक्तियां
बेशक पाकिस्तान मिटाना हम सबकी मजबूरी है
घर के सब गद्दार मिटाना पहले बहुत जरूरी है
रात गहराती जा रही थी और कवि सम्मेलन अपनी ऊंचाइयों को छू रहा था, अब भी जो शेष कवि थे उनकी रचनाएं कुछ कम विशेष नहीं हैं, लेकिन उनके लिए कीजिए बस थोड़ा सा इंतजार..............

Sunday, December 16, 2007

गुलाबी नगर थिरक उठी--थिरकन--में लोक कलाकारों के संग

पिंकसिटी में शनिवार को एक ही दिन में सूररज की बेरुखी से पारा चार डिग्री नीचे उतर आया और न्यूनतम तापमान ४.८ डिग्री सेल्सियस दजॅ किया गया, इसका अहसास सड़कों पर कम संख्या में चल रहे वाहन भी करा रहे थे। जब कमरे के अंदर रजाई में दुबकने के बाद रूम हीटर चलाने की आवश्यकता महसूस हो रही थी, ऐसे में सैकड़ों लोग खुले आसमान के नीचे बिना दांत किटकिटाते हुए एकटक नजरों से कलाकारों की प्रस्तुतियों को निहार रहे थे। किसी ने सच ही कहा है, कला महसूस करने की चीज होती है और कलाकार जब अपना फन दिखाने को तत्पर हों तो कला के कद्रदान अपने कतॅव्य के पालन से कैसे पीछे हटते, सो करीब दो घंटे तक लोगों ने जमकर लोकनृत्य-लोकसंगीत का आनंद लिया हाड़ कंपाती इस सदॅ रात में।
जी हां, गीत-संगीत की यह सुहानी शाम सजाई थी जयपुर दूरदशॅन ने गुलाबी नगर के जवाहर कला केंद्र के मुक्ताकाशी मंच पर। जयपुर दूरदशॅन की ओर से नववषॅ २००८ की पूवॅ संध्या पर प्रसारित होने वाले कायॅक्रम--थिरकन--की शूटिंग की जा रही थी, दूरदशॅन पर इन कलाकारों की प्रस्तुति का लुत्फ डीडी वन व टू के सहारे रहने वालों के अलावा केबल की सुविधा वाले लाखों दशॅक ३१ दिसंबर की रात उठा सकेंगे, लेकिन मुझे इस कायॅक्रम को साकार होते हुए देखने का अवसर मिला। प्रतिष्ठित कवि और कवि सम्मेलनों के समथॅ संचालक डॉ. कुमार विश्वास और शायरा-कवयित्री दीप्ति मिश्र की एंकरिंग ने लोक कलाकारों की प्रस्तुतियों से सजे इस कायॅक्रम की रौनक में चार चांद लगा दिए। लोक संगीत-लोक नृत्य के साथ यदि साहित्यिक प्रतिभाएं जुड़ जाएं तो इससे दोनों विधाओं का ही कायाकल्प हो सकता है और जयपुर दूरदशॅन ने इसकी साथॅक पहल की, इसके लिए जयपुर दूरदशॅन के निदेशक नंद भारद्वाज साधुवाद के हकदार हैं।
राजस्थानी लोकनृत्य में नायिका की मनुहार---ठोकर लाग जावेली....बिछिया की टांकी टूट जावेली...से इस संगीत संध्या का आगाज हुआ और फिर ---नैना सूं नैना मिलाय के नाच ल्यो, हिवड़ो सूं हिवड़ो मिलाय के नाच ल्यौ--के बाद कलाकारों ने तेरह ताली और अन्य लोकनृत्यों से राजस्थानी संस्कृति के दशॅन कराए। कायॅक्रम परवान चढ़ता गया और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कालबेलिया नृत्य को पहचान दिलाने वाली गुलाबो ने अपने बेटे-बेटियों के साथ जब प्रस्तुति देना शुरू किया तो ऐसे लगा जैसे सांप की लोच इन संपेरों की आत्मा में उतर आई है। अंग-प्रत्यंग का लोच देखते ही बनता था।
इसके बाद मयूर नृत्य में राधा-कृष्ण के साथ गोपियों ने ---बरसाने के मोर कुटीर में मोरा बन आयो रसिया---की प्रस्तुति में छोटी काशी के नाम से ख्यात जयपुर में वृंदावन को साकार कर दिया। गीत-संगीत के स्वर जब आसमान में गूंजने लगे, तो चंद्रमा भी शायद इस संगीत संध्या को देखने का लोभ संवरण नहीं कर सका और मुक्ताकाशी मंच के ऊपर आकर इसका आनंद लेने लगा। जब धरती-अम्बर के संग चंद्रमा भी झूम रहा हो तो फिर कलाकार अपना सवॅश्रेष्ठ प्रदशॅन करने से खुद को कैसे रोक पाते, सो जब बरसाने की लट्ठमार होरी के बीच गोप-गोपियां राधा-कृष्ण पर फूलों की बरसात करने लगे तो श्रोता-दशॅक भी होली के रंग में रंग से गए और अगहन की रात में ही फागुन का मौसम आ गया। द्वापर युग में कृष्ण ने सुदशॅन चक्र नचाया था और कनिष्ठिका अंगुली पर गोवधॅन पवॅत को उठा लिया था, सो कलियुग में कृष्ण बने कलाकार ने साधना और अभ्यास के बल पर फूलों से भरी परात को जब अपनी तजॅनी अंगुली पर नचाना शुरू किया तो लोग वाह-वाह कर उठे।
सदॅ मौसम की मार को भूले दशॅक तो कायॅक्रम के समापन के बाद भी यही मनुहार करते रहे-
काश इस रात की सहर कभी भी आए न
ख्वाब ही देखते रहें हमें कोई जगाए न।

Sunday, December 9, 2007

ना जाने कित ते प्रकटें....

पत्रकारिता का पेशा और रात की नौकरी से होने वाली परेशानियां तो अब आदत में शुमार हो गई हैं। किसी भी मित्र, प्रियजन के यहां आयोजित होने वाले कायॅक्रम में भाग नहीं लेने के बाद हाथ जोड़कर या फिर एसएमएस, ई-मेल और कभी-कभी पत्र के जरिये माफी मांग लेने की मजबूरी....तो वे सब भी समझ चुके हैं। अभी पांच-छह दिन पहले ही एक मित्र के बड़े भाई की शादी शहर से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर दूर उनके पैतृक निवास पर थी, सो देर से सोने के बावजूद सुबह निकले, वहां पहुंचे, अपना थका हुआ थोबड़ा दिखाया, घुड़चढ़ी का इंतजार कर रहे दूल्हे को बधाई दी, सजने से पहले मित्र की होने वाली भाभी को भावी जीवन की मंगलकामनाएं दीं, शाम के खाने की तैयारियों का जायजा लिया और खाना खाकर वापस रवाना हो लिया। सड़क अच्छी थी और टैक्सी के ड्राइवर को मुझे सकुशल दफ्तर पहुंचाने की जिम्मेदारी का अहसास था सो जैसे-तैसे करीब आधा घंटा लेट पहुंच गया ऑफिस और संभाल ली कमान।
...ये क्या, मैं तो अपनी पुरानी दास्तान सुनाने लगा था, कहना तो कुछ और ही चाहता था। खैर, अब बताता हूं। आज शाम भी ऑफिस आने में देर हो रही थी। साथ ही काम करने वाले मित्र बाइक चला रहे थे। ऑफिस पहुंचने की जल्दबाजी थी, लाल बत्ती होने के बावजूद चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस के सिपाही को नहीं देख मित्र ने रुकना मुनासिब नहीं समझा और चल दिए मंजिल की ओर....पर यह क्या...चौराहा पार करते ही एक ट्रैफिक सिपाही प्रकट हुआ और हमें रोक लिया। उसके उपदेश सुनने में हमें जितना समय लगा, उससे कम में शायद लाल बत्ती हरी हो चुकी होती और हमें पुलिसिया प्रवचन सुनना नहीं पड़ता। कुल मिलाकर बात यह है कि ट्रैफिक पुलिस की तैनातगी ट्रैफिक को व्यवस्थित करने के लिए की जाती है, लेकिन अपने देश में तो ट्रैफिक सिपाही शिकार फांसने की ही ताक में ही रहते हैं। यातायात व्यवस्थित हो न हो, उनकी जेब शाम होते-होते जरूर व्यवस्थित हो जाती है और कुछ चालान कट गए तो सरकारी कोष भी व्यवस्थित हो जाता है। सो मैंने तो सीख ले ही ली, आप सब भी सावधान रहें, चौराहे के बीच में लगे ट्रैफिक पोस्ट पर भले सिपाही न दिखे, लाल बत्ती को क्रॉस करने की हिम्मत न करें, ट्रैफिक सिपाही कहीं भी, कभी भी प्रकट हो सकता है। खुदा खैर करे......

जित देखो तित मुंड

जी हां, कल यानी ८ दिसंबर को राजस्थान की वसुंधरा सरकार की चौथी वषॅगांठ थी। इस अवसर पर पिंकसिटी में विधानसभा भवन के पास स्थित अमरूदों के बाग में सरकार व भाजपा की ओर से रैली का आयोजन किया गया था। अमूमन ऐसी रैलियों में आने वाली भीड़ की खबर अपन को टीवी चैनलों या अगले दिन के अखबारों में ही मिल पाती है, लेकिन कल किसी कारणवश मुझे शहर जाना जरूरी था। रैली ११ बजे होनी थी और मैं करीब १२ बजे घर से निकला। मैं जिस मागॅ से जा रहा था, वह रैली स्थल और रैली के मागॅ से करीब तीन-चार किलोमीटर दूर था। रास्ते में सड़क पर दोनों ओर बाहर से आई बसें कतार में खड़ी थीं, औऱ सड़क पर जो सारी मिनी बसें और बड़ी बसें चल रही थीं, उन पर लगे बैनर यह सूचना दे रहे थे उस पर बैठी सवारियां रैली में ही जा रही हैं। शाम करीब चार बजे लौटा तब तक सड़क पर खड़ी बसें यथावत थीं और लोगों के झुंड के झुंड चले जा रहे थे। रैली से लौटते वाहन सड़कों पर रेंग रहे थे और मेरे सरीखे लोग जिन्होंने घर से बाहर निकलने की जुरॅत की थी, वे गियर बदलते-बदलते परेशान यही सोचने को विवश थे कि घर से बाहर निकले ही क्यों। ऐसे लोग भी मिले जो किसी से टकराते-टकराते बचे थे, तो ऐसे भी मिले जिनके छिले हुए घुटने और कोहनियां उनका हाले दिल बयां कर रही थीं। राजधानी देखने की ललक अभी भी गांवों के लोगों में हैं, तभी तो वे स्थानीय कायॅकरताओं की बातों में आकर बड़े नेताओं के दशॅनों का मोह नहीं छोड़ पाते।
खैर, यह सब तो चलता ही रहेगा। रैली में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने जमकर घोषणाएं कीं। सरकारी कमॅचारियों, संविदा नरसेज, डॉक्टरों, आंगनबाड़ी कायॅकरताओं, पैराटीचसॅ, शिक्षाकरमियों, छात्र-छात्राओं, किसानों, आम लोगों, बेरोजगारों...यूं कहें कि हर किसी के लिए उम्मीदों का पिटारा सा खोल दिया गया। ऐसे में यह सोचने को विवश हो गया कि हमारे देश में लोगों को वोटर ही समझा जाता है, आदमी नहीं, वरना आजादी के बाद से लेकर अब तक शायद परिस्थितयां वैसी नहीं होतीं, जैसी आज हैं। राजनीतिक दल चुनाव से पहले घोषणा पत्र में सब्जबाग दिखाते हैं और यदि उनके सहारे चुनाव की वैतरणी पार कर जाते हैं तो फिर अगले चुनाव से ऐन पहले होने जश्न में अपनी उपलब्धियां गिनाने के नाम पर गरीब जनता का पैसा पानी की तरह बहा डालते हैं।
किस्मत भी कोई चीज है
८ दिसम्बर २००३ को राजस्थान के साथ मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में भी सरकारें बनी थीं। इनमें महारानी वसुंधरा तो चार वषॅ में आई अनेक विषम परिस्थितियों के बावजूद सत्ता पर आसीन रहीं, शीला दीक्षित औऱ रमण सिंह को तो कोई खतरा था ही नहीं किसी से, सो वे आज भी उसी ठाठ से राज कर रहे हैं, जिस ठाठ से चार साल पहले कुरसी पर बैठे थे। हां, साध्वी से राजनीति की पगडंडियों के रास्ते दिग्विजय सिंह से कुरसी छीनने वालीं उमा भारती के भाग्य में राजयोग ज्यादा दिन तक नहीं रहा। भाजपा छोड़ने के बाद उनकी आज जो स्थिति है, सबके सामने है।

Tuesday, December 4, 2007

अंतिम ही हो अंतिमा की मौत?

राजस्थान की वसुंधरा राजे सरकार चार दिन बाद अपने शासन के चार साल पूरे पर होने वाले जश्न की तैयारियों में जुटी है, अभी हाल ही हुए --रिसरजेंट राजस्थान--में उद्यमियों द्वारा डेढ़ लाख करोड़ रुपए से भी अधिक के निवेश की घोषणा से बेरोजगार युवकों की आंखों में सपने पलने लगे हैं, वहीं पिंकिसटी के एक इलाके विशेष लक्षमीनारायणपुरी में दूषित पानी से मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। दूषित पानी ने सोमवार को राजेश पटवा और मीना से उनकी एक वषॅ की मासूम बच्ची अंतिमा को छीन लिया।
--जल ही जीवन है--इस सूक्ति वाक्य का अथॅ लक्षमीनारायणपुरी और इसके आसपास के इलाके में जल के जहर बन जाने से अपना अथॅ खो चुका है। दूषित पानी के कारण १५ नवंबर से शुरू हुआ मौतों का यह सिलसिला अब तक तीन बच्चों और दो अधेड़ों की जान ले चुका है। मौत की खबरें अखबारों की सुरखियां बन रही हैं, लेकिन जलदाय मंत्री दावा कर रहे हैं कि शहर में कहीं भी दूषित पानी की सप्लाई नहीं हो रही और चिकित्सा मंत्री इन मौतों को राजनीतिक स्टंट बताते नहीं थकते। मौत के शिकार हुए परिवारों का रुदन इन्हें सुनाई नहीं देता और बीमार लोगों की परेशानियों से इनकी पेशानी पर बल नहीं आते। मिनरल वाटर पीने वाले इन नेताओं को नलों में आने वाले लाल-नीले-गंदले पानी का सच क्योंकर नजर नहीं आता, यह समझ से परे है। ऐसे में अपन ईश्वर से प्राथॅना करें कि सरकार को शीघ्र ही सदबुद्धि आएगी, दूषित पानी के बदले स्वच्छ जल की सप्लाई होगी, जल जहर नहीं बल्कि अमृत ही बना रहेगा। अंतिमा की मौत दूषित पानी से हुई अंतिम ही मौत होगी और थम जाएगा यह असमय मौत का सिलसिला।

Monday, December 3, 2007

पूणॅविराम की महिमा, लगाइए ठहाके

आज एक मित्र का मेल मिला, पढ़ता रहा, मुस्कुराता रहा, बार-बार पढ़ा, आनंद आ गया, सोचा इसे आपलोगों के सामने प्रस्तुत करूं। अपना तो कुछ है नहीं, लेकिन हिंदी की महिमा का पता तो इससे चलता ही है। आज जब punctuation और व्याकरण को हम ताक पर रखते जा रहे हैं, सवॅत्र हिंग्लिश का बोलबाला हो रहा है, महज पूणॅविराम गलत जगह पर लग जाने से कैसे अथॅ का अनथॅ हो जाया करता है, तो लीजिए आप भी लीजिए इस ई-मेल का आनंद, कीजिए प्रण कि भविष्य में हमसे ऐसी भूल न हो, और प्राथॅना कि दूसरे भी ऐसी भूल न करें जिससे उन्हें हंसी का पात्र बनना पड़े।

गांव में एक स्त्री थी । उसके पति आई टी आई में कार्यरत थे। वह आपने पति को पत्र लिखना चाहती थी पर अल्पशिक्षित होने के कारण उसे यह पता नहीं था कि पूर्णविराम(full stop) कहां लगेगा । इसीलिये उसका जहां मन करता था वहीं पूर्णविराम लगा देती थी ।
उसने चिट्ठी इस प्रकार लिखी--------

मेरे प्यारे जीवनसाथी मेरा प्रणाम आपके चरणो में । आप ने अभी तक चिट्ठी नहीं लिखी मेरी सहेली कॊ । नौकरी मिल गयी है हमारी गाय को । बछड़ा दिया है दादाजी ने । शराब की लत लगा ली है मैने । तुमको बहुत खत लिखे पर तुम नहीं आये कुत्ते के बच्चे । भेडि़या खा गया दो महीने का राशन । छुट्टी पर आते समय ले आना एक खूबसूरत औरत । मेरी सहेली बन गई है । और इस समय टीवी पर गाना गा रही है हमारी बकरी । बेच दी गयी है तुम्हारी मां । तुमको बहुत याद कर रही है एक पड़ोसन । हमें बहुत तंग करती है |

Saturday, December 1, 2007

जोंक को मत गरियाइए, बड़े काम की चीज


सूदखोर महाजन, रिश्वतखोर अफसर, भ्रष्टाचारी नेता का जिक्र आते ही हम बेसाख्ता कह उठते हैं कि ये जोंक की तरह भोली-भाली निरीह जनता और हमारे देश का खून चूस रहे हैं। अभिधा से व्यंजना तक की सफर तय करता हुआ यह मुहावरा रूढ़ अथॅ में प्रयुक्त होने लगा है। बात कुछ हद तक सही भी है, लेकिन हकीकत इसके इतर भी कुछ है। पिंकसिटी के निवासियों के स्वास्थ्य की सुध ली यहां के आयुरवेद विभाग ने औऱ लगाया आरोग्य मेला। स्वस्थ होने की चिंता से मैं भी मुक्त नहीं हूं, सो पहुंच गया इस मेले में। कई सारे स्वास्थ्यवधॅक उत्पादों के बारे में जानकारी ली, लेकिन जो सबसे अनूठी जानकारी मुझे मिली, उसे आपसे शेयर करना चाहता हूं।
एक स्टॉल पर जोंक की कई सारी फोटोज की प्रदशॅनी सी लगी हुई थी। एक जार में पानी, और उसमें रखे कई सारे जोंक। इस सबके बीच एक अधेड़ उम्र के सज्जन मेले में आने वालों को जोंक की उपयोगिता के बारे में बता रहे थे। लोगों में सहज जिज्ञासा थी और उत्सुकता भी। स्टॉल पर बैठे भिषगाचायॅ वैद्य पदमचंद जैन ने बताया कि सैकड़ों वषॅ पुरानी सुश्रुत संहिता नामक ग्रंथ के १३वें अध्याय में जोंक से चिकित्सा, जिसे जलौका चिकित्सा पद्धित कहा जाता है, का जिक्र किया गया है। इसमें एक श्लोक है--
सम्पृक्ताद् दुष्ट शुद्धा श्रात जलौका दुष्ट शोणितम्
आदत्ते प्रथमं हसः क्षीरं क्षीरोदकादिव।
वैद्यजी ने बताया कि जोंक की दो प्रजातियां होती हैं, विषैली और विषहीन। विषहीन जोंक में भी कपिला व पिंगला प्रजाति की जोंक इलाज में काम आती है। आयुरवेद व यूनानी चिकित्सा पद्धतियों में इसका व्यापक उल्लेख किया गया है। तो रोगी का उपचार कुछ यूं होता है कि शरीर के प्रभावित स्थान विशेष पर तीन-चार जोंक रख दिए जाते हैं, जो धीरे-धीरे दूषित रक्त को चूस लेते हैं। रक्तविकार दूर होने पर रोगी पूरी तरह स्वस्थ हो जाता है।
कुल मिलाकर बात यह है कि जोंक यदि अपनी इच्छा से आपका खून चूसती है तो यह आपके लिए नुकसानदेह हो सकता है, लेकिन यदि किसी विशेषज्ञ वैद्य की देखरेख में आप अपना दूषित रक्त जोंक से चुसवाएं, तो यह आपको आरोग्य कर सकता है (यदि आप रक्तविकार से पीडि़त हों)।
बचपन में तालाब में नहाने के दौरान या फिर धान के खेत में निकाई-गुड़ाई-कटाई के दौरान कई बार जोंकों ने मेरे पैर से लिपटकर मेरा भी खून चूसा है, लेकिन तब तो मैं उसके उपकार से अनजान था, सो --सठे साठ्य समाचरेत्--की तजॅ पर उसे पैर से छुड़ाता और जमीन पर रखकर उस पर नमक रख देता। थोड़ी देर में जोंक से खून निकलने लगता और पूरा खून निकलने के बाद उसका जीवनांत हो जाता। मेरा बाल-किशोर मन खुश हो जाता कि कर दिया हिसाब बराबर। तब मुझे कहां पता था कि यह जोंक मेरे चरणों से लिपटकर मेरा उपचार करने की अनुमति चाहता था।
खैर, बहुत हो चुका, आपमें से कइयों को आयुरवेद व यूनानी चिकित्सा पद्धित में निष्णात होने के कारण या फिर किसी परिचित-मित्र-परिजन द्वारा इस चिकित्सा पद्धति का लाभ लिए जाने के कारण पहले से इसकी जानकारी होगी, सो क्षमा चाहता हूं, लेकिन मैं यदि ऐसी जानकारी को सावॅजनिक नहीं करूंगा तो मेरी अल्पज्ञता की चरचा सरेआम कैसे होगी। हां, एक निवेदन और, अगली बार से जोंक से किसी की तुलना करने से पहले एक बार सोच लें कि उसमें कुछ अच्छाई भी है या नहीं, यदि उस व्यक्ति में केवल बुराइयां ही बुराइयां हों तो आप कृपया किसी और से उसकी तुलना करें, जोंक से नहीं.....और जोंक से तुलना करने के बिना काम न चले तो विषैले जोंक से करें तुलना।

Friday, November 30, 2007

जीवन का गणित, कैसे छूटे पीछा

कविताओं के प्रति शायद मेरा मोह कुछ बढ़ गया है, सो प्रस्तुत है मेरे पसंद की एक और कविता। गणित से हम सबका साबका पड़ता है और अधिसंख्य इससे पीछा भी छुड़ा लेते हैं किसी तरह, लेकिन गणित जीवन में कभी पीछा नहीं छोड़ता।
जयपुर के ही कवि गोविंद माथुर की इस कविता में जीवन से जुड़े गणित को सधे हुए शब्दों में बखूबी उतारा गया है। जयपुर से प्रकाशित हिंदी अखबार के २५ नवंबर को प्रकाशित रविवारीय परिशिष्ट में यह कविता छपी। आपको यदि अच्छी लगे तो रचनाकार को धन्यवाद ज्ञापित करें, अच्छी नहीं लगे तो इसका जिम्मेदार मैं हूं--

कला में गणित

मैं गणित में बहुत कमजोर था
यदि मेरी गणित अच्छी होती
शायद मैं इंजीनियर होता
विज्ञान वगॅ में अनुत्तीणॅ होते रहने पर
मैं कला वगॅ में आ गया
विश्वविद्यालय की परीक्षाओं में
उत्तीणॅ होता चला गया
मुझे मास्टर ऑफ आट्सॅ की
उपाधि भी मिल गई
पर गणित में कमजोर ही रहा
बीज गणित एवं रेखा गणित से
तो मैंने छुटकारा पा लिया पर
जीवन की गणित में फंस गया
संबंधों में गणित/ मित्रों में गणित
सम्मान में गणित/अपमान में गणित
पुरस्कार में गणित/तिरस्कार में गणित
साहित्य में गणित/कला में गणित
मेरा सोचना गलत था
गणित अच्छी होने पर
इंजीनियर ही बना जा सकता है
सच तो ये है कि
कुछ भी बनने के लिए
गणित अच्छी होना जरूरी है

Thursday, November 29, 2007

जयपुर समारोह में कविताओं की बरसात-चार

कवि सम्मेलन चूंकि मरुधरा राजस्थान की राजधानी में हो रहा था, सो वीरभूमि राजस्थान की शौयॅगाथा और राजस्धानी भाषा को महत्व मिलना स्वाभाविक था। राजस्थान की आंचलिक ढूंढाड़ी भाषा के कवि दुरगादान गौड़ ने बड़े ही अनूठे अंदाज में गीत सुनाए---
मीठा गीत जवानी मीठी, मीठा ढोला मारू
हाय म्हारी चांद कुंवर तने हिवड़ा बीच उतारूं
मीठा सपना मीठी यादां मीठी बात वचन अरु वादा
जग सूं थाणी हांसी पी ग्या म्हां भी हो गया मीठा ज्यादा
म्हारी भी तकदीर संवर जा आ जा थारी केश संवारूं।
लोकभाषा का सहज प्रवाह इतनी रवानी में था कि मैं खो सा गया उसमें.... और सुध-बुध खोने के कारण उन पंक्तियों को नोट नहीं कर पाया।
कोटा से ही आए डॉ. अतुल कनक ने लड़कियों के बारे में समाज में व्याप्त कुमानसिकता को दूर करने का बहुत ही अच्छा जतन किया--
सुबह से स्निग्धता, रात से गहनता, हवा से तरलता
और खुशबू से विरलता लेकर
नदी से एक बूंद उठाई होगी
इस तरह परमात्मा ने लड़की बनाई होगी।
श्रद्धा के क्रम की ये तेजस्वी शृंखला
गंगा की अस्मिता है यमुना की धारा है
लड़की कोई माल नहीं, परमात्मा का कमाल है
प्रेम की पराकाष्ठा है, प्यार का तपोवन है
लड़की तो दुरगा की दुदॅम्य शक्ति है
ये लड़कियां तो सृष्टि का सोलहवां शृंगार है.....
उन्होंने ---पिता---शीषॅक कविता के माध्यम से पिता की महिमा का गुणगान किया। डॉ. कनक के काव्यपाठ की गति कुछ तेज होने के कारण मैं श्रवण और लेखन में संतुलन नहीं बना पाया, इसलिए ये कविताएं अधूरी रह गई हैं, प्रयास करूंगा कि निकट भविष्य में उनकी पूरी कविता से आपके सम्मुख रखूं।
........कवि सम्मेलन अब अपने चरम पर था, श्रोताओं में सार ही सार शेष रह गया था, नींद का झोंका, रात की गहराई या फिर कहूं कि जाड़े के असर से सारा थोथा उड़ चुका था। चित्तौड़गढ़ से आए वयोवृद्ध कवि पं. नरेंद्र मिश्र सबसे अंत में आए और आते ही टिप्पणी की कि वरिष्ठता के दुरभाग्य तक आते-आते मेरे हिस्से में गिनती के ही श्रोता बचे हैं। उन्होंने आयोजकों के सामने अगले वषॅ से यह कवि सम्मेलन शहर के मध्य में कराने की बात कही, तो श्रोताओं ने भी खड़े होकर इसका समथॅन किया। इस पर कितना अमल हो पाएगा, यह तो समय ही बताएगा। मेवाड़ की धरती से आए पं. मिश्र ने
---राणा प्रताप इस भरत भूमि के मुक्ति मंत्र का गायक था.....
के माध्यम से महाराणा प्रताप की शौयॅगाथा का गुणगान किया। इसके अलावा उन्होंने अपने काव्य के माध्यम से ---गोरा-बादल---की वीरता का भी बखान किया। विस्तार में ये कविताएं फिर कभी...। आजकल टेलीविजन पर हास्य शो में हो रही कविताई पर उन्होंने कुछ इस तरह प्रहार किया---

फीचर फिल्म बाद में देखो पहले विज्ञापन
डेढ़ मिनट की कविता आधे घंटे का भाषण
लंगूरों ने लूट लिया कविता का नंदन वन।
कवि सम्मेलनों में कविता कम, श्रोताओं से तालियों की चिरौरी ज्यादा करने वाले तथाकथित कवियों पर पं. मिश्र ने कुछ यूं कटाक्ष किया----
चुटकुले गजलों पर भारी हो गए
जितने बंदर थे मदारी हो गए
गिड़गिड़ाते तालियों के वास्ते
शब्द के साधक भिखारी हो गए।

वतॅमान राजनीतिक व्यवस्था और आधुनिक नेताओं पर उन्होंने कुछ इस तरह चुटकी ली----
देश ये कैसा बनाया आपने
उम्रभर पैसा बनाया आपने
गांव के जलते दीये भी बुझ गए
अजब दीपक राग गाया आपने।....
मैंने भी बहुत लंबा राग आलापा। कवि सम्मेलनों में कवियों से कविताएं सुनना मेरा भी शौक रहा है, लेकिन कई बार ऐसा होता है कि किन्हीं अपरिहायॅ कारणों से समय नहीं निकाल पाता, सो मैंने सोचा कि ऐसे जो लोग किन्हीं कारणों से---दूरी या मजबूरी--या फिर कोई और जरूरी---से इस काव्य निशा का आनंद नहीं उठा पाए, उनके सम्मुख कविताओं की यह रात ले आऊं। इसमें कुछ अशुद्धियां भी रह गई होंगी, खामियां भी रह गई होंगी, इसके लिए जिगर मुरादाबादी की दो पंक्तियां उधार लेकर क्षमा चाहता हूं---
हाय ये मजबूरियां, महरूमियां, नाकामियां
इश्क आखिर इश्क है तुम क्या करो हम क्या करें।
धन्यवाद.... शुक्रिया....गुड बाय। मिलते रहेंगे......।

Wednesday, November 28, 2007

जयपुर समारोह में कविताओं की बरसात-तीन

और अब हाजिर हैं गाजियाबाद से आए युवा गीतकार डॉ. कुमार विश्वास की कुछ रचनाएं, जिनसे उन्होंने रसिक श्रोताओं की काव्य पिपासा को शांत किया, गहराती सदॅ रात में इश्क-ओ-हुस्न की गरमाहट परोसी, आप भी लीजिए इसका आनंद-----
महफिल महफिल मुस्काना तो पड़ता है, खुद ही खुद को समझाना तो पड़ता है
उनकी आंखों से होकर दिल तक जाना, रस्ते में ये मयखाना तो पड़ता है
तुमको पाने की कोशिश में खत्म हुए, इश्क में इतना जुरमाना तो पड़ता है

पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार क्या करना
जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार क्या करना
मोहब्बत का मजा तो डूबने की कशमकश में है
जो हो मालूम गहराई तो दरिया पार क्या करना

....... चूडि़यों से भरे हाथ लिपटे रहे, सुखॅ होठों से झरना सा झरता रहा
एक नशा सा अजब छा गया कि हम खुद को खोते रहे,
तुमको पाते रहे पनघटों से बहुत दूर पीपल तले,वेग के व्याकरण पायलों ने गढ़े
शाम गीतों के आरोह-अवरोह में मौन के चुम्बनी सूक्त हमने पढ़े
सौंपकर उन अंधेरों को सब प्रश्न हम एक अनोखी दीवाली मनाते रहे
देह की उरमियां बन गईं भागवत, हम समपॅण भरे अथॅ पाते रहे
मन में अपराध की एक शंका लिए, कुछ क्रियाएं हमें जब हवन सी लगीं
एक-दूजे की सांसों में घुलती हुई, बोलियां भी हमें जब भजन सी लगीं
कोई भी बात हमने न की रातभर, प्यार की धुन कोई गुनगुनाते रहे

बात इश्क से दुनियादारी तक कुछ यूं पहुंची--
रंग दुनिया ने दिखाया है निराला देखूं, है अंधेरे में उजाला तो उजाला देखूं
आईना रख दे हाथ में मेरे आखिर, मैं भी कैसा लगता है तेरा चाहने वाला देखूं
जिसके आंगन से खुले थे मेरे सारे रास्ते, उस हवेली पे भला कैसे मैं ताला देखूं

फिर कुमार के दिल की कुछ बातों से श्रोता भी हमराज हुए-------
उनकी खैरो खबर नहीं मिलती, हमको ही खासकर नहीं मिलती
शायरी को नजर नहीं मिलती, मुझको तू ही अगर नहीं मिलती
जिस्म में दिल में रूह में दुनिया, ढूंढता हूं मगर नहीं मिलती
लोग कहते हैं रूह बिकती है, मैं जिधर हूं उधर नहीं मिलती

और अब वे बातें, जिन्हें कवि हृदय दो-चार होता है, हमारा और आपका भी अक्सर इनसे सामना होता है--------
इतनी रंग-बिरंगी दुनिया दो आंखों में कैसे आए
हमसे पूछो इतने अनुभव एक कंठ से कैसे गाए
ऐसे उजले लोग मिले जो अंदर से बेहद काले थे
ऐसे चतुर मिले जो मन से सहज सरल भोले भाले थे
ऐसे धनी मिले जो कंगालों से भी ज्यादा रीते थे
ऐसे मिले फकीर जो सोने के घट में पानी पीते थे
मिले परायेपन से अपने अपनेपन से मिले पराये
हमसे पूछो इतने अनुभव एक कंठ से कैसे गाए
जिनको जगत विजेता समझा मन के द्वारे हारे निकले
जो हारे-हारे लगते थे अंदर से ध्रुवतारे निकले
जिनको पतवारें सौंपी थीं वे भंवरों के सूदखोर थे
जिनको भंवर समझ डरता था आखिर वही किनारे निकले
वे मंजिल तक कैसे पहुंचें जिनको खुद रस्ता भटकाए
हमसे पूछो इतने अनुभव एक कंठ से कैसे गाए।

कवि सम्मेलन की कुछ और रचनाओं के लिए कीजिए इंतजार....पढ़ते रहिए दिल से दिल की बात...शुक्रिया

Tuesday, November 27, 2007

जयपुर समारोह में कविताओं की बरसात-दो (कसक)

हां, तो मैं चरचा कर रहा था गुलाबी नगर की स्थापना के वषॅगांठ के उपलक्ष में मनाए जा रहे जयपुर समारोह के तहत आयोजित महाकवि बिहारी स्मृति कवि सम्मेलन की। आयोजन चूंकि सरकारी था,इसलिए खामियां भी थोक में थीं। पहले तो महान गीतकार गोपालदास नीरज के कवि सम्मेलन में आने का विज्ञापन अखबारों में प्रकाशित किया गया। कारतिक पूरणिमा के अबूझ सावे पर शादियों की भरमार थी,सो लोग उनमें व्यस्त थे और उनमें काव्यप्रेमी भी रहे ही होंगे। कारतिक पूरणिमा को तो नहीं बदला जा सकता था,लेकिन कवि सम्मेलन की तिथि तो बदली ही जा सकती थी। नगर निगम ने बड़ा सा पांडाल लगवाया था,वीआईपी के अलावा प्लास्टिक की कुरसियां लगाई गई थीं, लेकिन उन पर बैठने वाले नदारद थे। सदॅ रात में खुले में बैठकर कविता सुनना भी कम जीवट का काम नहीं है, जब सैकड़ों चैनल्स पर हजारों प्रोग्राम आपकी ड्राइंग रूम में मौजूद हों। पिंकसिटी का इस कदर विस्तार हो चुका है कि कुछ लोग तो १८-२० किलोमीटर की दूरी तय करके भी आए थे। इस सबके बावजूद गोपाल दास नीरज को न सुन पाने का उनको कितना मलाल हुआ होगा, इसका सहज अंदाजा आप लगा सकते हैं। हद तो तब हुई जब मुझे आज सीनियर ब्लॉगर व वेब पत्रिका इंद्रधनुष के संपादक डॉ. डी. पी. अग्रवाल से पता चला कि नीरज उस दिन भी अपनी पौत्री की शादी के सिलसिले में जयपुर में ही थे। वे एक होटल में बैठे आयोजकों का इंतजार करते रहे कि कोई उन्हें लेने आए और उधर श्रोताओं के इंतजार की इंतहा हो रही थी। एक और वरिष्ठ गीतकार जयपुर के ही ताराप्रकाश जोशी भी न जाने किन कारणों से कायॅक्रम में नहीं आ पाए। खैर, इन दोनों कवियों की रचनाओं से आपको भविष्य में जरूर रू-ब-रू कराऊंगा, यह वादा है मेरा।
हमारे राजनेताओं के दिल में कवियों के प्रति कितना सम्मान रह गया है, इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि कायॅक्रम के मुख्य अतिथि सांसद गिरधारीलाल भागॅव मध्यरात्रि १२ बजे बाद प्रकट हुए। वह तो भला हो आयोजकों का कि उनकी प्रतीक्षा किए बगैर कायॅक्रम शुरू कर दिया, अन्यथा कौन किसका इंतजार करता, और इस बीच क्या-क्या होता, कहना मुश्किल होता। महापौर-उपमहापौर ने तो देर से ही सही, आने की जुरॅत ही नहीं समझी। आयोजन समिति के दो महानुभाव साहित्य साधना की नहीं, सत्ता के बल पर मंच पर आसीन थे। उनमें से एक सो रहे थे तो दूसरे मोबाइल की दुनिया में खो रहे थे। ऐसे में कवियों का हृदय भी उनके व्यवहार से हरषित नहीं हो रहा होगा, यह तो जगजाहिर है ही, श्रोता भी उनकी इन हरकतों को सहने को मजबूर थे।
ये कुछ हालात थे, मैं इनकी चरचा करना चाहता भी नहीं था, मेरा उद्देश्य आप काव्य रसिकों को महज कविताओं की दुनिया में ले जाने का था, लेकिन जब नीरज जी को न सुन पाने का वास्तविक कारण पता चला, तो कसक को दबा नहीं सका। जल्दी ही आपको कवि सम्मेलन के शेष कवियों की मधुर रचनाएं लेकर आपकी सेवा में उपस्थित होऊंगा। तब तक धन्यवाद,,, मेरी मनोव्यथा को आपने अनुभूत किया।

Monday, November 26, 2007

जयपुर समारोह में कविताओं की बरसात-एक


गुलाबी नगर इन दिनों अपनी स्थापना का वषॅगांठ मना रही है। इस उपलक्ष में नगर निगम की ओऱ से एक माह तक चलने वाला--जयपुर समारोह-- आयोजित किया जा रहा है। इसके तहत नित नए कायॅक्रम हो रहे हैं। इसी कड़ी में कारतिक पूरणिमा पर शनिवार की रात को आमेर महल के पास, जहां जयपुर राजघराने ने महाकवि बिहारी का दयार बनाया था, उसी के समीप --महाकवि बिहारी स्मृति कवि सम्मेलन-- का आयोजन किया गया। आइए, आप भी कीजिए कुछ कविताओं का रसास्वादन।

इलाहाबाद से आए युवा कवि इमरान ने कुछ इस तरह से की शुरुआत-
अपने शहर की ताजा हवा ले के चला हूं, हर ददॅ की यारों मैं दवा ले के चला हूं
मुझको यकीन है कि रहूंगा मैं कामयाब, क्योंकि मैं घर से मां की दुआ ले के चला हूं।

२४ नवंबर को ही दिन में उत्तर प्रदेश के कई शहरों की अदालतों में बम धमाके हुए थे, फिर भी सांप्रदायिक सद्भाव हमारे देश की आत्मा में है, इसे जेहन में रखते हुए इमरान ने अपना हाल-ए-दिन कुछ यूं बयां किया-

चाक है जिगर फिर भी आए हैं रफू करके, जाएंगे हकीकत से तुमको रूबरू करके
प्यार की बड़ी इससे और मिसाल क्या होगी, हम नमाज पढ़ते हैं गंगा में वजू करके।

और फिर जग उठा इस युवा कवि का प्रेमी हृदय----

मेरा मन ये कहता है कह दूं मैं जमाने से, इक चुभन सी होती है इश्क को छुपाने से
जब से प्यार की मैंने शमां जलाई है, तब से डर नहीं लगता आंधियों के आने से

और अब प्यार के प्रतिमान बदले, उपमेय और उपमान बदले इन लफ्जों में......

तेरा चेहरा लगे अप्सरा की तरह, मैं गगन की तरह तू धरा की तरह
ये अदाओं का पेट्रोल छिड़को नहीं, वरना जल जाऊंगा गोधरा की तरह
ना हंसो दिल मेरा चाक हो जाएगा, हर इरादा खतरनाक हो जाएगा
मुस्कुराने की बमबारी जारी रही, तो दिल मेरा जलके इराक हो जाएगा।

रात जैसे-जैसे गहरा रही थी, कवि सम्मेलन अपने परवान पर पहुंचता जा रहा था। काव्य रसिक श्रोता कविताओं के समंदर में डूबने-उतराने लगे थे।
कानपुर से आईं शबीना अदीब बड़े ही अदब ओ करीने से श्रोताओं से रू-ब-रू हुईं। इश्क तो हुस्न की गलियों में भटकता ही रहता है, हुस्न भी कभी-कभी इश्क के लिए तड़प उठता है। उन्होंने इश्क से हुस्न की मनुहार और गरीबी को दुनिया से विदा करने का इजहार इन अल्फाजों में किया----

हमें बना के तुम अपनी चाहत, खुशी को दिल के करीब कर लो
तुम्हें हम अपना नसीब कर लें, हमें तुम अपना नसीब कर लो
गरीब लोगों की उम्र भर की गरीबी मिट जाए गर अमीरों
बस एक दिन के लिए अगर तुम जरा सा खुद को गरीब कर लो।

और फिर संग जीने-मरने की कसमें, प्यार का फसाना इन शब्दों में मुखातिब हुई श्रोताओं से........

हमेशा एक दूसरे के हक में दुआ करेंगे ये तय हुआ था
मिले कि बिछुड़ें मगर तुम्हीं से वफा करेंगे ये तय हुआ था
कहीं रहो तुम कहीं रहें हम मगर मोहब्बत रहेगी कायम
जो ये खता है तो उम्रभर ये खता करेंगे ये तय हुआ था
उदासियां हर घड़ी हों लेकिन, हयात कांटों भरी हो लेकिन
खुतूत फूलों की पत्तियों पर लिखा करेंगे ये तय हुआ था
जहां मुकद्दर मिलाएगा अब वहां मिलेंगे ये शतॅ कैसी
जहां मिले थे वहीं हमेशा मिला करेंगे ये तय हुआ था
लिपट के रो लेंगे जब मिलेंगे, गम अपना-अपना बयां करेंगे
मगर जमाने से मुस्कुरा कर मिला करेंगे ये तय हुआ था
किसी के आंचल में खो गए तुम, बताओ क्यों दूर हो गए तुम
जान देकर हक वफा का अदा करेंगे ये तय हुआ था

कवि सम्मेलन की बाकी कविताएं फिर कभी.....

Saturday, November 24, 2007

राह दिखाती है भूल-भुलैया


-सांविरया-का जलवा कब का खत्म हो चुका है और भारत कुमार फेम मनोज कुमार पर अनावश्यक छींटाकशी के कारण-ओम शांति ओम-का भी देशभर में-ओम नमः शिवाय- हो रहा है। ऐसे में -भूल-भुलैया- की चरचा अब बेमानी सी लगती है। आपका ऐसा मानना जायज है, लेकिन मैं भी क्या करूं, मेरे मन में विचारों के जो गुबार उठ रहे हैं, उनसे तो अब दो-चार होना ही पड़ेगा।
हुआ यूं कि बेटेजी ने कॉमेडी की दुहाई देकर-भूल-भुलैया-दिखाने की जिद की। सिनेमाहॉल के परदे पर तो फिल्म देखना महानगरों में मध्यवरगीय परिवार के वश में रहा नहीं, भला हो उनका जिन्होंने बीच का रास्ता निकाल दिया है। दाम भी कम खरचो और मजे भी पूरे ले लो यदि आपकी किस्मत से सीडी की प्रिंट सही हो। तो साहब, मैं भी ले आया सीडी और अवकाश के दिन देख डाली पूरी फिल्म। प्रियदशॅन के निरदेशन में असरानी, परेश रावल, अक्षय कुमार, विद्या बालान व अन्य कलाकारों ने अपनी भूमिका को बखूबी अंजाम दिया और हंसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन मुझे तो इस फिल्म में कुछ और ही दिखा---कुछ और ही संदेश मिला। आइए, आप भी देखें यह नजारा मेरी नजरों से और महसूस करें इसकी शिद्दत को...।
विज्ञान ने विकास के कितने ही आयाम स्थापित कर दिए हों, भारतवंशी सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष की सैर कर सकुशल धरती पर लौट आई हों, लेकिन आज भी हमारे देश के गांवों में डायन के नाम पर भोली-भाली महिलाओं को सरेआम नंगा कर घुमाया जाता है, मारा-पीटा जाता है तथा दूसरी अमानवीय यातनाएं दी जाती हैं। भूत ने हमारे देश का न केवल भूत (अतीत) बिगाड़कर रख दिया, बल्कि वतॅमान को भी अपनी जद में लिए हुए है, अब भी हम नहीं चेते तो यह हमारा भविष्य भी बरबाद करके रख देगा।....और यह सब होता है उन पोंगापंथियों के इशारे पर जिनका न तो विज्ञान से कुछ लेना-देना है और न ही मनोविज्ञान से। असामान्य मनोविज्ञान को जिस बारीकी से इस फिल्म में समझाया गया है, वह काबिले तारीफ है। दरअसल मनोविकारों के कारण ही कल की आई नई-नवेली दुल्हन अपनी ससुराल के सात पुरखों के नाम गिनाने लगती है, और उस पर प्रेतबाधा का प्रकोप मानकर तथाकथित तांत्रिक अपना उल्लू सीधा कर लेते हैं। इसकी आड़ में मोहल्ले की किसी भोली-भाली लाचार महिला को प्रताड़ित करने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो जाता है। मैं तो चाहता हूं कि ऐसी फिल्में बननी चाहिए, जिनसे समाज सुधार की दिशा में साथॅक संदेश जाए। ...फिर जब --चक दे इंडिया--को टैक्सफ्री किया जा सकता है, तो--भूल-भुलैया को क्यों नहीं। जब--चक दे इंडिया--से प्रेरणा लेकर खिलाड़ियों का तथाकथित रूप से कायाकल्प हो सकता है तो --भूल-भुलैया--देखकर सदियों से भूत-प्रेतबाधा के संताप से मुक्ति पाकर हमारे समाज का कायाकल्प क्यों नहीं हो सकता। ....आमीन...

Friday, November 23, 2007

चलें कौनहारा....सोनपुर मेला घूम आएं


भारतीय समाज में कारतिक महीने को जो गौरव प्राप्त है, वह दूसरे महीनों को नहीं है। इस पूरे महीने में विभिन्न धारमिक आयोजन-प्रयोजन होते रहते हैं। कारतिक पूरणिमा पर गंगा और गंडक के संगम पर हाजीपुर में भारी मेला भरता है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहां इस पावन संगम में डुबकी लगाने आते हैं।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार, दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले वैशाली जिले की इस धरती ने शक्ति पर भक्ति की विजय का संदेश दिया था। जी हां, आप जब हाजीपुर जंक्शन पर उतरेंगे, तो इसके बाहर आपको भगवान विष्णु द्वारा ग्राह से गज को बचाने वाली प्रतिमाएं दिखेंगी। ऐसी मान्यता है कि विष्णुभक्त गज जब गंडक में अपनी प्यास बुझाने गया, तो ग्राह ने उसका पैर अपने जबड़ों में भींच लिया। गज की गुहार पर भगवान विष्णु आए और उन्होंने ग्राह को मारकर गज के प्राण बचाए। शक्ति पर भक्ति की इसी विजय के कारण इस स्थान विशेष का नाम--कौनहारा--पड़ा। आज भी कारतिक पूरणिमा पर हजारों-हजार श्रद्धालु कौनहारा घाट पर गंडक में स्नान करते हैं और ईश्वर की कृपा की कामना करते हैं।
गंडक के पार सोनपुर में एक मंदिर है, जिसमें एक साथ भगवान विष्णु और शिव की पूजा होती है। इसे हरिहरक्षेत्र कहा जाता है, और लोकभाषा में यही अपभ्रंश होकर --छत्तर मेला-- भी कहलाता है। यह मेला एशिया में ही नहीं, विश्व में अपना स्थान रखता है। उन्नत नस्लों की गाय-भैंस, हाथी-घोड़े, ऊंट और दूसरे पशु-पक्षी एक माह तक इस मेले की शोभा बढ़ाते हैं। केंद्र व राज्य सरकार की उपलब्धियों का बखान करने वाली प्रदशॅनियां मेले में आने वालों को सम्मोहित करने की कोशिश में जुटी रहती हैं। मेले में दिनभर घूमने से होने वाली थकान शाम को तब काफूर हो जाती है, जब यहां लगे थियेटर के तम्बुओं में लोकगीतों और फिल्मी गानाओं पर बालाओं के कदम थिरकते हैं। चूंकि यह मेला आज से शुरू होकर पूरे एक महीने तक चलेगा, तो आप भी आइए, कारतिक पूरणिमा पर संगम में डुबकी नहीं लगा पाए तो क्या हुआ, मेले का आनंद तो ले ही सकते हैं। स्वागतम्...सुस्वागतम्......

शुक्रिया...याद तो आई

कल शाम एक मित्र घर पर आए। मेरे आठ बरस के बच्चे ने दरवाजा खोला और अंदर के कमरे में चला गया। वहां डीवीडी पर उसकी मनपसंद फिल्म चल रही थी। हम दोनों मित्र विभिन्न मुद्दों पर गपियाने लगे। करीब १५-२० मिनट बाद बच्चा दुबारा आया और मित्र के पैर छुए। देर से पैर छूने पर मित्र सहसा बोल उठे-धन्यवाद बेटा, तुम्हें पैर छूने की याद आ तो गई।
इस पर मेरे दिमाग में जो हलचल हुई, उसे आप भी महसूस करें। आजकल हम जिस युग में जी रहे हैं, उसमें बहुत ही कम बेटों को मां-बाप के साथ रहने का अवसर मिल पाता है। जीवन में आजीविका के अवसर तलाशते-तलाशते आज का युवक अक्सर मां-बाप की सेवा का सुनहरा अवसर गंवा बैठता है। कुछ मां-बाप भी गांव छोड़ शहर में पराश्रित सा जीवन बिताने से मना कर देते हैं। ...और शहरों में जहां दोनों ही सुयोग प्राप्त होते हैं, वहां जेनरेशन गैप या फिर दूसरे कारणों से सुयोग्य सुस्थापित बेटे अपने बूढ़े मां-बाप को वृद्धाश्रम में छोडकर उनसे पीछा छुड़ा लेते हैं। फिर बेटे के हाथ से एक लोटा पानी के लिए भी वे भले ही तरस जाएं।
हां, भारतीय समाज में पौराणिक व्यवस्था ऐसी है कि जिस माता-पिता को बेटा जिंदगी में पानी नहीं पिला पाता, उनके मरने के बाद वह आश्विन महीने कृष्ण पक्ष (कनागत) में तपॅण कर उन्हें तृप्त तथा स्वयं को पितर ऋण से उऋण होने का उपक्रम जरूर कर लेता है। फिर मृत्युभोज के नाम पर समाज में अपना स्टैंडडॅ बनाए रखने के लिए ब्राह्मणभोज से लेकर पितृभोज तक आयोजित करने में भी गवॅ महसूस किया जाता है।
ऐसे में मैं तो यही कहूंगा कि परिस्थितियों पर तो अपना वश नहीं होता, परवश होने के कारण कई बार चाहकर भी मातृ-पितृभक्ति की चाह पूरी नहीं हो पाती, लेकिन फिर भी हमें यह प्रयास तो अवश्य करना चाहिए कि माता-पिता के मनोनुनूकूल व्यवहार कर हम उन्हें जीने का अच्छा वातावरण उपलब्ध कराएं, मृत्यु के बाद की तृप्ति को किसने देखा है। ....और पितृऋण से मुक्त होना तो मुमकिन ही नहीं है।

Friday, November 16, 2007

छठ का विस्तार, जयपुर बना बिहार


उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में सूयॅ भगवान के प्रति श्रद्धालुओं की आस्था इन दिनों आसमान छू रही है। छठ मइया की महिमा की गूंज सवॅत्र सुनाई दे रही है। इन प्रदेशों के लोग विभिन्न परिस्थितियों के शिकार होकर जीवन यापन के लिए या फिर अपनी प्रतिभा का परचम लहराने के लिए देश के सभी राज्यों या यूं कहें कि महत्वपूणॅ नगरों-महानगरों में विराजते हैं। अब ये जहां होंगे, वहां अपनी संस्कृति के परिचायक छठ पवॅ को तो साथ लाएंगे ही, सो पूरे भारतवषॅ में छठ पवॅ की धूम मची हुई है। नेपाल की तराई, मॉरीशस, फिजी के अलावा अन्य देशों में भी वृहद् या लघु स्तर पर यह पवॅ मनाया जा रहा है। इसे विश्वव्यापी बनाने में अखबारों, इंटरनेट और टीवी चैनलों की भूमिका भी प्रभावी रही है।
पिछले दिनों दिल्ली सरकार ने छठ पवॅ पर ऐच्छिक अवकाश की घोषणा की थी, आज बिहार से किसी मित्र का फोन आया कि इस वषॅ से बैंकों में भी अवकाश की घोषणा कर दी गई है। (राज्य सरकार के विभागों में तो शुरू से ही अवकाश रहता आया है। ) संसद की कायॅवाही शुक्रवार को छठ के कारण स्थगित कर दी गई थी, यह तो सवॅविदित है ही। अब मेरी इस इच्छा को पंख लगने लगे हैं कि देर-सबेर ही सही, इस पवॅ पर राष्ट्रीय स्तर पर या फिर अन्य राज्यों में भी अवकाश (ऐच्छिक ही सही) की घोषणा हो सकेगी।
मैं भी किन ख्वाबों-खयालों में खो गया, हां, तो यह बताने जा रहा था कि अन्य शहरों की तरह गुलाबी नगरी में पूणॅ श्रद्धाभाव से छठ पवॅ मनाया गया। पवित्र गलता तीथॅ में जुटी श्रद्धालुओं की अपार भीड़, बज्जिका, भोजपुरी, मैथिली, मगही में छठ गीतों की गूंज, आतिशबाजी का शोर मिल-जुलकर यहां मिनी बिहार का दृश्य उपस्थित कर रहे थे। दोपहर बाद से ही यहां मेला सा नजारा उपस्थित हो गया था। हालांकि शहर की कॉलोनियों से दूरी, जगह की कमी, पहाड़ी की चढ़ाई, सरकार की ओर से कोई इंतजाम नहीं होने के कारण अव्यवस्था ये कुछ परेशानियां भी थीं, लेकिन धमॅप्राण लोगों की आस्था के सामने ये कैसे बाधक बन पाते। लोगों ने पूणॅ भक्तिभाव से की भगवान भास्कर की आराधना---छठ मइया की अचॅना। सदॅ खुली रात में हजारों श्रद्धालु यहां रुके हुए थे, जो शनिवार सुबह उगते हुए भगवान दीनानाथ को दूसरा अघ्यॅ देने के साथ ही घर लौट गए। ......और इस तरह संपन्न हो गया यह चार दिवसीय महापवॅ।

Monday, November 12, 2007

सब मिल के आज बोलो जय छठी माई की


भगवान भास्कर से सारी सृष्टि आलोकित है, इसके कृतज्ञतास्वरूप वैदिक काल से ही विश्वभर में अलग-अलग तरीके से सूर्य की आराधना की जाती है , लेकिन दीपावली से छठे-सातवें दिन मनाए जाने वाले--छठ पर्व- में आस्था का जो स्वरूप दिखता है, उसका कोई सानी नहीं है। कोई समय था जब यह पर्व विशेष रूप से बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में मनाया जाता था, लेकिन बीतते हुए समय के साथ इसका अपार विस्तार हुआ है। अब यह पर्व कोलकाता से कोटा, मेरठ से मदुरै , गुवाहाटी से गंगानगर , मुम्बई से मुजफ्फरपुर, पटना से पुणे, शिलांग से शोलापुर , दीमापुर से दिल्ली और कटिहार से काठमांडू तक समान रूप से अपार श्रद्धा से मनाया जाता है।
पोखर-तालाबों, नदियों-नहरों के किनारों की साफ-सफाई की जाती है और इन्हें रंग-बिरंगी रोशनी से सजाया जाता है। इस सजावट और आतिशबाजी के आगे दिवाली की चमक भी फीकी सी पड़ जाती है। जिनके घर में यह पर्व मनाया जाता है, वे तो उपासना में रत रहते ही हैं, जिनके यहां पूजा नहीं होती , वे भी अगाध श्रद्धाभाव से इसमें हाथ बंटाते हैं।
एक और तथ्य है कि जितने भी देवी-देवताओं की पूजा होती है, उनमें से अधिकांशतया अदृश्य ही हैं। उनकी प्रतिमाओं की पूजा-अर्चना की जाती है। इसका मतलब यह नहीं कि इससे उनका महत्व कम हो जाता है, लेकिन भगवान सूर्य एकमात्र ऐसे साक्षात देवता हैं, जिन्हें हम अपनी नंगी आंखों से देखते हुए उनकी उपासना में रत रहते हैं।
मैंने बात जिस मुद्दे पर शुरू की थी, उसे तो भुला ही बैठा। हुआ यूं कि बच्चे ने सेकंड टर्म की परीक्षा का टाइम टेबल दिखाया , जिसके अनुसार 15 नवंबर से उसकी परीक्षा शुरू हो रही है। इसमें शामिल नहीं हो पाने पर वह परीक्षा से वंचित रह जाएगा, बाद में परीक्षा लेने की कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है। ऐसा राजस्थान जैसे अन्य राज्यों में भी होता होगा, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इन राज्यों में भी लघु या वृहद् स्तर पर -छठ पर्व- अवश्य ही मनाया जाता है। स्कूलों तथा दफ्तरों में अवकाश नहीं होने के कारण लोगों को व्रत-पूजा करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता ही है। ऐसे में क्या केंद्र सरकार इस पवॅ पर राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा नहीं कर सकती। ऐसा होने से लोग अपने पैतृक गांव जाकर भी यह पवॅ मना सकेंगे और उन्हें अवकाश के लिए चिंतित भी नहीं होना पड़ेगा।
धन्‍यवाद दिल्‍ली सरकार दिल्ली सरकार ने छठ पूजा के मौके पर इस बार भी ऐच्छिक अवकाश का ऐलान किया है। इसके अलावा दिल्ली सरकार ने हरियाणा सरकार से यमुना में अतिरिक्त पानी छोड़ने को भी कहा है, ताकि छठ के मौके पर दिल्लीवालों को यमुना में स्वच्छ पानी मिल सके।
दिल्ली के विकास मंत्री राजकुमार चौहान ने दिल्ली छठ पूजा आयोजन कमिटी के प्रमुख महाबल मिश्रा की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से मुलाकात के बाद यह घोषणा की।

Sunday, November 11, 2007

पूछो न कैसे दिन-रैन बिताई (दो)

दीपावली का त्यौहार मनाने का हर राज्य, जिला और कहें तो गांव तक का अपना-अपना विशिष्ट तरीका होता है। फिर बच्चों का क्या, वे तो इन तरीकों के जन्मदाता होते हैं, वे जो न कर बैठें, वह कम ही होगा। जब काफी छोटा था, (जहां तक याद कर पाता हूं) तो मां के साथ दीये जलाने का अलग ही आनंद होता था। कुछ बड़ा हुआ तो दीपावली की अगली सुबह सभी भाई-बहनों में होड़ होती थी कि कौन जल्दी जगेगा। कई बार तो हम इस चक्कर में सो भी नहीं पाते थे। पौ फटने से पहले ही हम बिस्तर छोड़ देते थे और मिट्टी के जले हुए दीये (जिन्हें हम गांव की भाषा में दीवौरी कहते थे)चुन-चुनकर इकट्ठा करते थे। दिन होते ही हमारी दुकान सज जाती थी। छोटे-छोटे हाथ पटसन की पतली रस्सी बांटते, पटसन की ही डंठल(संठी) से तराजू की डंडी और बड़े दीयों से तराजू के पलड़े बनाते थे। छोटी दीवौरियां मापने के काम आती थी। तौलना भी तो मिट्टी ही होता था और बेचना-खरीदना भी वही।
समझ बढ़ी तो खेल बदला, नाटक के प्रति रुझान बढ़ा। हम साथियों सहित दसेक दिन तक हिंदी की किताब में आए नाटक की रिहसॅल करते और फिर दीपावली की रात को बैडशीट व चादरों का परदा तानकर नाटक खेलते। गांव के हम भोले बच्चों की प्रस्तुतियों का इंतजार ग्रामीणों को बेसब्री से रहता था। उनकी तालियां और महज एक-दो रुपए के इनाम हमारे लिए किसी ऑस्कर से कम नहीं होते थे। जब हमने अपने टोले में चंदा कर नाटक के लिए पहली बार माइक किया था तो हमें जो खुशी हुई थी, वह राकेश शर्मा को चांद पर जाने के बाद भी नहीं हुई होगी। नाटक का शौक आगे भी बना रहा, लेकिन अब बीतते हुए समय ने मुझे कलाकार से कलाकारों का कद्रदान बना दिया है। पिछले 12-14 साल से किसी न किसी कारणवश दीपावली पर घर न जा पाने के कारण मन में जो मलाल रहता है, उसे किससे शेयर किया जाए,कुछ समझ नहीं पाता था, कई बार डायरी पर उतारने की कोशिश की तो आंखों के पानी से कागज भीग गया, लिखा नहीं जा सका। बीबी-बच्चे जिनके बचपन का परिवेश मुझसे सवॅथा ही भिन्न रहा है, वे मेरी टीस को क्या महसूस कर सकेंगे, सो उन्हें भी हमराज नहीं बना सका। इस बार ब्लॉग ने यह मंच उपलब्ध कराया तो सोचा कि इसे आपलोगों से ही शेयर करूं।
सॉरी, त्यौहार के इस उल्लास भरे मौसम में आपबीती ले बैठा, ईश्वर से यही प्रार्थना है कि आप सभी ऐसे हषॅ के क्षणों में उनके साथ हों, जिनके साथ रहने को आपका दिल करता है। धन्यवाद मेरी व्यथा को आपने आत्मसात किया।

पूछो न कैसे दिन-रैन बिताई (एक)

दीपावली पर शुक्रवार को सुबह से ही घर में उत्सवी माहौल था। परिवार भले छोटा हो, किराये का घर उससे भी छोटा, लेकिन खुशियां बड़ी लग रही थीं। श्रीमतीजी किचन में भांति-भांति के व्यंजन बना रही थीं। बच्चे की फरमाइश पूरी करते हुए देर रात ही फुलझड़ियां, अनार, जमीन चक्कर और न जाने क्या-क्या ले आया था, सो वह भी शाम की प्लानिंग में मस्त था। मैं चूंकि सुबह तीन बजे लौटा था, सो कभी सोने का बहाना करके तो कभी रेडियो पर समाचार सुनने के बहाने आंखें मूंदे लेटा रहा। पत्नी ने झकझोरा तो दोपहर को बाजार गया और पूजा के लिए फल-फूल, मिठाई और दूसरे सामान लाकर दुबारा लेट गया। शाम हुई तो श्रीमतीजी ने सज-धजकर घर से लेकर मंदिर तक दीपक जलाए तथा आधुनिका नारी होने के नाते बच्चे को आतिशबाजी में भी साथ दिया। पूजा के समय मैं नहा-धोकर तैयार हुआ और दशॅक की भांति श्रद्धाभाव से बेटे के साथ बैठ गया। मेरा मानना है कि गृहलक्षमी ही महालक्षमी का मनुहार करे तो वे आ सकती हैं, और फिर त्रियाहठ के वशीभूत होकर टिक भी सकती हैं, चंचला जो ठहरीं। आधुनिक तकनीक ने हमें बहुत ही आजादी दे दी है। कभी लंदन-अमेरिका में पंडितों की कमी के कारण टेप चलाकर सत्यनारायण भगवान की कथा की बात किसी मैग्जीन में पढ़ी थी। मैंने भी डीवीडी प्लेयर पर महालक्षमी पूजन का एमपीथ्री चला दिया (पिछले साल पंडितजी की प्रतीक्षा में १२ ही नहीं, १-२ तक बज गए थे) और श्रीमतीजी उसी का अनुसरण करती हुई पूजा करती रहीं। आरती के दौरान स्पीकर से जब हम तीनों के समवेत स्वर मिले तो वातावरण वाकई भक्तिपूणॅ हो गया था। महालक्षमी की रखवाली का दायित्व घरवाली को सौंपकर गुरुजनों का आशीष लेने मैं निकल गया। माता-पिता से दूर रहने की एक कसक यह भी होती है ऐसे सुअवसरों पर उन सुपात्रों की तलाश करनी पड़ती है, जिनके चरण श्रद्धाभाव से छू सकूं, औपचारिकता पूरी करने भर के लिए नहीं। देर रात घर लौटा और फिर उन्हीं यादों में खो गया, जिन्होंने दिनभर मेरे अवचेतन मन को मथकर रख दिया था।
आगे की बातें फिर करेंगे....

Thursday, November 8, 2007

ज्योतिपवॅ दीपावली पर मंगलकामनाएं



दीवाली का पवॅ अलौकिक
नव ज्योति जगमगा रही,
जन-जन का पथ आलोकित हो
यह अभिलाषा जगा रही।।

दीवाली का पवॅ सुनहरा
आतिशबाजी न्यारी-न्यारी,
देख पटाखे और फुलझड़ियां
बच्चों की गूंजे किलकारी।

यहां-वहां हर गली-मोहल्ला
जिधर देखिए उधर तैयारी,
खुशियां बांटें, नाचें गाएं
बच्चे-बूढे़ सब नर नारी।

साभारः भाई किशन

धन की देवी मां लक्षमी और बुद्धि के दाता भगवान विनायक की कृपादृष्टि आप और आपके परिजनों, मित्रजनों पर बनी रहे इन्ही शुभकामनाओं के साथ
आप सबका सुहृद
मोहन मंगलम्

Wednesday, November 7, 2007

कैसे मना पाएंगे दिवाली


बड़ी अजीब बात है। अपने देश में हर कोई अपने-अपने तरीके से अपनी दुनिया को रोशन करने की जुगत में लगा हुआ है। अभी पिछले दिनों अखबारों में खबर पढ़ी कि लंदन में भी दिवाली फेस्टिवल मनाया जा रहा है और मैं हूं कि इसी चिंता में घुला जा रहा हूं कि कैसे हम मना पाएंगे दिवाली, किस मुंह से खाएंगे मिठाई। ....और घृष्टता की हद ये कि आपको भी खुशी के इस मौके पर हास्य-व्यंग्य की फुलझड़ियों की बजाय इन नीरस शब्दों को पढ़ने के लिए विवश कर रहा हूं।
एक तथ्य तो यह है कि सेंसेक्स आसमान छू रहा है, मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी, एल. एन. मित्तल, वो डीएलएफ वाले , विप्रो वाले अजीमजी और ऐसे कितने उद्योगपति सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं, भारत में अरब-खरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, लेकिन गरीब हैं कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहे। या तो सरकारी योजनाएं मन से लागू नहीं की जातीं, या फिर उन्हें चलाने वाले उनसे भी ज्यादा गरीब होते हैं, जिनके लिए ये योजनाएं बनाई जाती हैं। कुछ ऐसे लोग सब्जियों का ठेला लगाकर, साइकिल पर फेरी लगाकर रेडिमेड कपड़े-साड़ियां बेचकर, गली-मोहल्ले में छोटी सी दुकान खोलकर खाने-कमाने लायक कमा लेते थे, वे सभी रिलायंस फ्रेश, बिग बाजार, स्पेंसर जैसी रिटेल चेन व बड़े-बड़े मॉल खुलने से बेरोजगार हो गए। लाखों लोग आतिशबाजी कर अपने सुखों का ढिंढोरा पीटेंगे तो ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे ढोल बजाकर पैसे मांगते हैं और जैसे-तैसे दीवाली मनाने का जुगाड़ कर पाते हैं। जिनका स्वाभिमान इसकी भी इजाजत नहीं देता वे तो मन मसोसकर ही रह जाने को विवश होंगे। ऐसे में सही मायने में दीवाली मनाना तभी साथॅक हो सकेगा जब हम सभी अपने-अपने स्तर से ऐसे बेबस लोगों के चेहरे पर खुशियों की चमक लाने का अंजुरीभर प्रयास करें, ईश्वर ने कुछ दिया है तो उसको देने में संकोच कैसा। मां लक्षमी से भी प्राथॅना कि कभी तो उन अभागों के द्वार का भी रुख करो। कुबेरों के पास तो आप डेरा जमाए ही रहती हैं।
सबके जीवन में प्रसन्नता की ज्योति का निखार हो, इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ.........

Tuesday, November 6, 2007

अच्छा तो हम चलते हैं....


...अरे ये क्या....आप तो कुछ और ही सोचने लगे। मैं ब्लॉग की दुनिया में अभी-अभी तो आपसे जुड़ा हूं और अभी आपसे बहुत सारी बातें करनी हैं। आप ब्लॉगसॅ की भावनाओं के समंदर में उतरना है। ऐसे में मैं कहां जाऊंगा आपको छोड़कर। मैं तो जिक्र कर रहा हूं पिंकसिटी के जवाहर कला केंद्र में चल रहे सांस्कृतिक उत्सव---लोकरंग २००७---का। सुदूर पूरब-उत्तर के मणिपुर, मेघालय, सिक्किम से लेकर पश्चिम में गोवा, महाराष्ट्र, गुजरात, दक्षिण में आंध्र प्रदेश, करनाटक, उड़ीसा, मेजबान राजस्थान, पड़ोसी पंजाब-हरियाणा, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश के लगभग डेढ़ हजार कलाकारों ने लगातार ग्यारह दिनों तक अपने-अपने प्रदेशों की संस्कृति का रंग जब बिखेरा, तो दशॅक उसमें रंग से गए। जवाहर कला केंद्र के प्रशासनिक अधिकारी राजीव आचायॅ ने अपने नित नूतन परिधान औऱ शब्दों की जादूगरी से अमिट छाप छोड़ी।
इसके अलावा केंद्र के शिल्पग्राम में लगे शिल्प मेले में २२ प्रांतों के शिल्पियों ने अपनी बेजोड़ कलाकृतियां सजाईं। फूड स्टॉल्स पर भी विभिन्न राज्यों के चटपटे व्यंजनों का भी लोगों ने खूब लुत्फ उठाया।
सोमवार को ग्रांड फिनाले के साथ लोकरंग का समापन हुआ और अगले वषॅ फिर अक्टूबर-नवंबर में मिलने के वादे के साथ सभी कलाकार दीपावली मनाने अपने घरों को रवाना हो गए। तो इंतजार करें एक और ---लोकरंग---का।

Sunday, November 4, 2007

.....तो क्या प्रेमचंद पोखर खुदवाते

आइए, आज आपको अपने गांव ले चलता हूं। जिन गिनी-चुनी प्रतिभाओं की बदौलत हमारे गांव की ख्याति राष्ट्रीय क्षितिज पर हैं, उनमें मैथिली अथ च हिंदी के भी स्वनामधन्य साहित्यकार व दशॅनशास्त्री हरिमोहन झा अग्रगण्य हैं। दसवीं के बाद से ही पहले पढ़ाई, फिर आजीविका के सिलसिले में लगातार गांव से बाहर रहने के कारण मैं भी उनकी कृतियों का आनंद नहीं ले सका। बमुश्किल दो-चार मैथिली कहानियां ही पढ़ पाया था। आजकल मुझ पर पढ़ने की धुन सवार है, सो हाल ही साहित्य अकादमी से प्रकाशित उनकी प्रतिनिधि कहानियों का संकलन--बीछल कथा (मैथिली)--और हास्य-व्यंग्य विधा की पुस्तक---खट्टर काका (हिंदी में)---पढ़ने का अवसर मिला। पढ़ा तो पढ़ता ही गया और दोनों पुस्तकें पूरी करके ही दम लिया। उनकी शेष रचनाएं भी मंगाने के लिए प्रयासरत हूं ताकि उनके समग्र कृतित्व से परिचित हो पाऊं। मैथिली में प्रकाशित उनकी रचनाओं का आज भी मिथिला क्षेत्र में क्या जलवा है, इसे तो वहां जाकर ही महसूस किया जा सकता है, उनकी अधिसंख्य रचनाएं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में स्वीकृत हैं।----खट्टर काका--- तो प्रकाशन काल से ही अखिल भारतीय स्तर पर (किंवा भारत से बाहर भी) साहित्यप्रेमियों की पसंद और चरचा का विषय रही है।
अब वो बात, जिसने मुझे प्रेरित किया यह सब लिखने को। जयपुर में हाल ही प्राथमिक शिक्षकों का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। इसमें भाग लेने के लिए मेरे गांव से भी एक सेवानिवृत्त शिक्षक पधारे। मैंने सहज जिज्ञासावश उनसे स्वनामधन्य हरिमोहन झा के बारे में गांव और ग्रामीणों की राय के बारे में पूछा। अगला वषॅ उनका जन्म शताब्दी वषॅ होगा।
मास्टर साहब का कहना था कि हरिमोहन झा ने अपने लेखन से साहित्य जगत को भले ही उपकृत किया हो, लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकारों में अपनी जगह बनाई हो, साहित्यप्रेमियों के लिए पूज्य बने हों, लेकिन गांव या गांव वालों के लिए क्या किया।
इस जवाब ने मुझे झकझोरकर रख दिया। मैं कुछ समझ नहीं पाया कि एक नौकरीपेशा आदमी ऐसा क्या करे कि गांव वाले उपकृत हो सकें। प्लेस ऑफ वकॅ तथा नेचर ऑफ वकॅ और फिर सीमित मात्रा में उससे प्राप्त धन से अपना व अपने परिवार का गुजर-बसर करना क्या कम कठिन होता है। मुंशी प्रेमचंद ने जिस मुफलिसी में दिन काटे यह किसी से छिपा नहीं है, ऐसे में जनसेवा के लिए वे पोखर कैसे खुदवा पाते। तो क्या लमही (प्रेमचंद का जन्मस्थान) के लोग उन्हें भुला दें। गोस्वामी तुलसीदास का जीवन काल जिस तरह बीता, मुझे नहीं लगता कि उन्होंने अपने पैतृक गांव में तुलसी के दस-बीस बिरवे भी लगाए होंगे। निराला ने अपनी जन्मस्थली में कितने स्कूल खुलवाए? तो क्या इसी बिना पर उन्हें भुला दिया जाए।
मेरा तो मानना है कि आपके इदॅ-गिदॅ से निकले मुकेश-अनिल अम्बानी, एल. एन. मित्तल सरीखे धनकुबेर अकूत दौलत और ख्याति कमाने के बाद यदि अपनी जन्मस्थली को बिसरा दें, हां की जनता के कल्याण के लिए कुछ भी न सोचों तो आप भी बेशक उन्हें बिसरा दें, इससे आपका भी कुछ नहीं बिगड़ेगा। आप यदि कतॅव्यपथ पर अग्रसर रहे, तो आपको भी जीने का रास्ता मिल ही जाएगा, लेकिन समाज को राह दिखाने वाले साहित्यकारों की उपेक्षा से आने वाली पीढियां उनके मागॅदशॅन से वंचित रह जाएंगी।
अतः मेरा निवेदन है कि आपके आसपास यदि कोई ऐसी विभूति हुई है, जिसने अपनी विलक्षण प्रतिभा का लोहा मनवाया है, तो उसके जीते-जी अथवा दिवंगत होने पर भी उनसे परिचित हों, गौरवान्वित महसूस करें, आने वाली पीढियों को भी परिचित कराएं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण बंगाली समाज में मिलता है जहां गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की ---गीतांजलि---को गीता से कम महत्व प्राप्त नहीं है। अधिकांश घरों में आपको यह अमर कृति मिल जाएगी।

Saturday, November 3, 2007

कुछ मीठा हो जाए ...


त्यौहार का माहौल है, बाजार सज रहे हैं, सपने खिल रहे हैं, उनमें रंग भरने के प्रयास जारी हैं। ऐसे शुभ दिनों में उन लोगों को भी मिठाई का स्वाद लेने का मौका मिल सकेगा, जो पहले इनके बारे में सोचकर ही रह जाते थे। जी हां, यह सब कुछ संभव हो रहा है गोमाता की कृपा से।
........तो चलें हम उस स्थान विशेष पर। राजस्थान के अजमेर जिले का एक शहर है किशनगढ़। वहां रहती हैं किन्नर सुरेश उफॅ सुशीला। (भाषा में लिंग निरधारण नहीं कर पा रहा हूं, सो स्त्रीलिंग ही मान लें ) उन्होंने दो गायें पाल रखी हैं मोना और गीता। तो यूं हुआ कि पिछले साल दीपावली पर इन गायों ने किशनगढ़ बाजार में मिठाई की दुकान पर मुंह मार दी, तो हलवाई ने उन्हें पलटे की दे मारी। गोपाल-भक्त और गोप्रेमी सुशीला को इससे बड़ी ठेस पहुंची और उन्होंने उस हलवाई को सबक सिखाने के लिए मिठाई की अस्थायी दुकान खुलवा दी। इस दुकान पर २५ रुपए किलो में शुद्ध घी की मिठाइयां खरीदने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी।
इसी सुशीला ने इस बार भी किशनगढ़ के एसडीएम राजेंद्र सारस्वत से चार स्थानों पर दुकानें खोलने की अनुमति मांगी है। इन दुकानों पर देशी घी की मिठाइयां १० रुपए किलो और वनस्पति घी की मिठाइयां ५ रुपए किलो मिलेंगी। उन गायों को पलटे मारने वाला हलवाई अपनी किसम्त के पलटा खाने की कसक से उबर नहीं रहा होगा, उसकी गलती की सजा शहर के दूसरे हलवाइयों को भी भुगतनी पड़ रही है, लेकिन इसका दूसरा उज्ज्वल पहलू है कि अब ऐसे हजारों बच्चे ही नहीं, उनके मां-बाप भी मिठाइयों का लुत्फ उठा सकेंगे, जो लाचारी के कारण ललचाई आंखों से मिठाइयों को ताकने भर के लिए ही मजबूर हुआ करते थे।
बढ़ती महंगाई के दौर में कीमतें कम नहीं होंगी, इसका अहसास तो हमें भी है, लेकिन यह आशा तो हम कर ही सकते हैं कि तरक्की की रफ्तार बढ़ती रहेगी, हर हाथ को काम मिलेगा और जेब में दाम होंगे। फिर -----मन के लड्डू फीके क्यों.......वाली कहावत को मानवता झुठला सकेगी। तो हम कृतज्ञता ज्ञापित करें सुशीला किन्नर के प्रति और कामना करें कि जब उसका हृदय मूक पशु के लिए द्रवित हो सकता है तो हमारी आंखें भी दीन-हीन मनुपुत्रों के दुख से नम हो सकेंगी।

Thursday, November 1, 2007

बिना ताम-झाम के तो...

आज शाम को एक ब्लॉगची मित्र के साथ नाश्ता करने गया। दुकान तो छोटी सी थी, लेकिन जैसा नाश्ता मिला, मन प्रफुल्लित हो गया। बदले में पैसे तो देने ही थे, लेकिन मुफ्त में सलाह देने की भारतीय आदत (रिलायंस कम्युनिकेशन के एक विज्ञापन में जैसा बताया जाता है) भी कहां छूटती है। मैंने दुकानदार को फटाफट सलाह दे डाली कि भाई, बाहर रंगीन बैनर लगवाओ, जिसमें आपकी दुकान की विशेषता और चटखारे व्यंजनों का बखान हो। इस पर साथ बैठे मित्र बेसाख्ता बोल उठे--आजकल तो बिना ताम-झाम के मुरगी भी अंडे नहीं देती। यह सुनते ही मेरे मन में कुछ कौंधा और मैं फ्लैशबैक में चला गया।
मित्र की बात में कितना दम है, यह तो वे भी नहीं बता पाए, और इसका सत्यापन करने के लिए महानगर में मुरगियां कहां से आएं, लेकिन पिछले दिनों इस मामले में मेरी जो ज्ञानवृद्धि हुई थी, उसे आपसे शेयर करते हैं।
.......तो यूं हुआ कि मैं पिछले मई-जून में एक परिचित के यहां गया था। वे मुझे अपनी पॉल्ट्री फामॅ दिखाने ले गए। रात के करीब दस बजे थे। फामॅ में २००-२०० वाट के बल्व जेनरेटर के बल पर जल रहे थे। मैंने पूछा कि भाई क्या मुरगियों को अंधेरे में नींद नहीं आती कि आपने बिजली नहीं रहने पर जेनरेटर चला रखा है। इस पर उन्होंने जो राजफाश किया, उससे मैं तो दंग रह गया। उन्होंने कहा कि रात में यह लाइट इसलिए जलाई जाती है कि मुरगियों को रात का अहसास न हो औऱ वे दिन के भ्रम में अनवरत दाना खाती रहें और मुटियाती रहें। मैं उनके इस जवाब से हक्का-बक्का सा रह गया। आदमी ने अपने लाभ के लिए क्या-क्या तरकीब निकाल लिए हैं। निरीह प्राणियों को निवाला बनाना तो न जाने प्रागैतिहासिक काल से ही चला आ रहा है, उन पर अत्याचार के कैसे-कैसे तरीके ईजाद किए जा रहे हैं। भगवान बचाए ऐसे आदमी से इन प्राणियों को, इस दुनिया को न जाने कब क्या सोच ले, कर डाले।

सपने में हकीकत से रू-ब-रू


भारतीय मनीषियों ने शकुन विचार पर कई सारे ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें सपनों के फलाफल पर काफी कुछ कहा गया है। आधुनिक मनोविश्लेषक फ्रायड ने भी चेतन--अवचेतन--और अचेतन का आधार लेकर सपनों के कारणों का बड़ा ही गहन विश्लेषण किया है।
तो आइए, आज आपको भी ले चलता हूं सपनों की दुनिया में।
आज के जमाने में जब कभी पुलिस की बात चलती है तो हमारे जेहन में पुलिस की जो छवि उभरती है, वह कामचोर, तोंदू, भ्रष्टाचारी और रौब जमाने वाले की ही होती है। आम आदमी या तो उसकी घुड़की से खौफजदा रहता है या फिर निकम्मेपन से खफा। कवियों के व्यंग्य प्रहार हों या कारटूनिस्ट की कूची, वे कभी भी पुलिसमैन को नहीं बख्शते। इसमें उनकी कोई गलती नहीं होती, न ही वे किसी पूरवाग्रह से ग्रस्त होते हैं। हालात ही ऐसे हैं कि सुस्ती और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी पुलिसिया व्यवस्था ने इसे हीरो से विलेन की कतार में ला खड़ा किया है। ऐसा नहीं है कि कतॅव्यपरायण पुलिसवाले हैं ही नहीं, ऐसे गिने-चुने चरित्र हमारे समाज में आज भी हैं और वे रोल मॉडल भी हैं। उनके साथ कुछ गलत होता है तो इलाके की पूरी जनता उनके साथ आ खड़ी होती है।
यह क्या, मैं सपना सुनाते-सुनाते कहानी सुनाने लगा। वापस आता हूं सपने पर। हां तो मैंने देखा कि मैं एक व्यस्ततम बाजार में मित्रों के साथ चाय की थड़ी पर बैठा हूं। अचानक पुलिस की जिप्सी आकर रुकती है, उसमें एक सबइंस्पेक्टर टाइप का खाकी वरदीवाला उतरता है तथा काफी तेजी में लहराते हुए आ रहे साइकिल सवार किशोर को रोककर उसके सामने सवालों की बौछार लगा देता है। साथ में यह नसीहत भी कि वाहन कोई भी चलाओ, सावधानी तो रखो ही, अन्यथा हादसे तो राह में मुंह बाए खड़े रहते हैं।
एक पुरानी सी मोपेड खड़ी है। उस पर नए मोबाइल हैंडसेट्स से भरे दो धैले लटक रहे हैं। पुलिस वाला उसके वारिस को आवाज लगाता है, काफी देर बाद बदहवास सा एक अधेड़ गलियों में से निकलता है तो वह एसआई उसे कहता है कि इस तरह कीमती सामान को लावारिस छोड़ना क्या उचित है। यदि आपका सामान चोरी चला जाएगा तो आप पुलिस व्यवस्था को दोष दोगे, कुछ तो आपका भी फजॅ बनता है।
माहौल में सन्नाटा सा छा जाता है। लोग खुसर-फुसर करते हुए पुलिस वाले की भूमिका पर बातें करने लगते हैं। इसी बीच पुलिस वाला हमारे बीच चाय की थड़ी पर आकर बैठ जाता है और हमें बताने लगता है कि हम पुलिस वालों ने खुद ही अपनी छवि बिगाड़ ली है। आज समाज में हमारी जो छवि है, उसके जिम्मेदार भी हमीं हैं। यदि पुलिस चौकस और चुस्त होकर दिलेरी से अपना काम करे तो जनता भी उसे दुश्मन नहीं दोस्त मानकर अपनी परेशानियां बता सकती है, अपराधियों को पकड़वाने में मदद कर सकती है। कद्र का कारवां कतॅव्यपरायणता की राह से होकर गुजरता है। यदि पुलिसवाले अपनी ड्यूटी को तरीके से अंजाम दें तो कोई शक ही नहीं समाज में उनकी इज्जत होगी।
इसी बीच मेरी नींद खुल गई। सपने में दी गई पुलिसवाले की सीख पर यदि हकीकत में अमल किया जाए तो वाकई व्यवस्था सुधर सकती है। ऐसी कामना तो हम करें ही। अंत में उधार की पंक्तियां लेकर यही अजॅ करूंगा.......
जो अब भी नहीं गौर फरमाइएगा,
तो बस हाथ मलते ही रह जाइएगा।

Tuesday, October 30, 2007

ब्लॉग---अभिव्यक्ति का २०-ट्वेंटी


आइए, आज कुछ अभिनव अंदाज में अतिनूतन मुद्दे पर अपनी भावनाओं को शेयर करें। याद करें क्रिकेट टेस्ट मैच का वह जमाना जब पांच दिनों के बीच में न केवल खिलाड़ियों की थकान मिटाने के लिए, बल्कि दशॅकों की बोरियत दूर करने के लिए भी एक दिन का ब्रेक हुआ करता था। उन दिनों टेलीविजन प्रसारण या रेडियो कमेंट्री के बीच-बीच में विज्ञापनों की बाधा या यूं कहें कि एंटरटेनमेंट की बाध्यता नहीं हुआ करती थी।
फिर वन डे का दौर शुरू हुआ और महज ५०-५० ओवर में दशॅकों को फुल एंटरटेनमेंट की सुविधा मुहैया उपलब्ध होने लगी। न केवल खिलाड़ियों की व्यस्तता और मारकेट वैल्यू बढ़ी, दशॅकों का भी खूब मनोरंजन होने लगा।
......और अभी पिछले दिनों ट्वेंटी-ट्वेंटी का सुरूर जिस तरह पूरी दुनिया पर छाया रहा, उसके तो हम सब न केवल मुरीद रहे, बल्कि साक्षी भी बने। रही-सही कसर हमारे हीरो माही ने पूरी कर दी, जब उसकी टीम ने पहला विश्व कप भारत की झोली में डाल दिया। अपने देश में लोग मन्नत पूरी होने तक दाढ़ी-बाल बढ़ाकर रखते हैं, लगता है अपने महेंद्र के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ कि किस्मत का सितारा जब पूरी तरह रोशन हुआ, तो विपक्षी टीम के हौसले धोते-धोते धोनी ने अपने बालों को भी धो डाला।
........अब मैं अपने उस मुद्दे पर आता हूं, जिसके लिए मैंने बात शुरू की थी। ब्लॉग की दुनिया भी अभिव्यक्ति के २०- ट्वेंटी मैच सरीखी ही है। आपके मन में कोई विचार कौंधा, और आपने उसे अपने ब्लॉग पर डालकर उसकी चमक से उन सभी को चकाचौंध कर दिया, जिन्होंने आपकी साइट पर आने की जहमत उठाई। न संपादक की स्वीकृति का इंतजार, न प्रकाशक की असहमति की चिंता। हां, एक बात अवश्य खलती है कि वतॅमान में इसका एक सीमित पाठक वगॅ है, लेकिन जिस तरह इसका विस्तार हो रहा है, संभावनाएं समंदर की तरह विस्तृत हैं, इसमें कोई शक नहीं है। नेट की सुविधा, फोंट की उपलब्धता होने के बावजूद यदि कोई आपके विचारों को नहीं पढ़ पाता है, तो भी मायूस होने की कोई जरूरत नहीं है। कई लोगों ने साक्षर होने के बावजूद तुलसी बाबा की रामचरितमानस, दिनकर की उवॅशी, प्रेमचंद का गोदान और ऐसे न जाने कितने नामचीन लेखकों की नामचीन कृतियों में छिपा अमृतरस नहीं चखा, तो क्या इससे इन रचनाओं अथ च रचनाकारों की उपादेयता पर कोई असर पड़ा, नहीं...बिल्कुल नहीं।
और हां, एक बात और...कई बार तकनीकी समस्याएं आती हैं, तो इससे भी मायूस होने की जरूरत नहीं है। मेरा यकीन है कि जिस समय आप अपनी बाधा से दो-चार हो रहे होते हैं, इंटरनेट के इस चमत्कारी युग में उसी क्षण आपका कोई भाई उन बाधाओं से दो-दो हाथ कर रहा होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो इंटरनेट के फलक पर आज हिंदी का वह स्थान नहीं होता, जो आज दिख रहा है।
और अंत में....इन शब्दों के साथ क्षमायाचना कि न तो कम्प्यूटर की तकनीकों में अपना दखल है और न ही क्रिकेट की कठिन शब्दावलियों को ही आज तक समझ पाया हूं, फिर भी इनका सहारा लेकर इतना कुछ कहने की जुरॅत कर डाली......कभी कभी हमने इस दिल को ऐसे भी बहलाया है,जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।
जय ब्लॉग, जय ब्लॉगर बंधुओं।

Monday, October 29, 2007

अब कौन चलाएगा आंखें


होठों को मुस्कान देने वाले के लिए आंखें सहसा ही नम हो गईं, जब उनके महाप्रयाण का इंटरनेट पर खबर देखी।
आज के जमाने में जब दिनानुदिन बढ़ती मुश्किलों ने मुस्कुराना भुला सा दिया है, हास्य कवि शैल चतुर्वेदी का निधन साहित्य प्रेमियों के लिए अपूरणीय क्षति है। कई कवि सम्मेलनों में उन्हें सुनने का अवसर मिला। मुंह में बीड़ा दबाकर उनके श्रीमुख से निकलने वाले शब्द और उनकी बॉडी लैंग्वेज श्रोताओं को सारी परेशानियों को भुलाकर खुलकर ठहाके लगाने का सामान जुटा देती थी।
जिस भी कवि सम्मेलन में वे मंचासीन होते थे, अपनी विशाल काया और शब्दों की माया से छा जाते थे। अपने जीवन में दुखों को दूर कर किस प्रकार से ऊर्जा का उपयोग सही दिशा में करना चाहिए, इसकी सीख शैल जी ने अपनी कविताओं में बखूबी दी है। साहित्य के क्षेत्र में ये हमेशा अमर रहेंगे। उम्र के इस पड़ाव पर उनका हरफनमौलापन खत्म नहीं हुआ था। जिनका साहित्य से उतना लगाव नहीं था, वे भी फिल्मों और टेलीविजन धारावाहिकों की बदौलत उनकी कला के मुरीद थे।
उनकी प्रसिद्ध कृति
--चल गई---से कुछ पंक्तियां पेश-ए-नजर कर रहा हूं
उक्त रचना में तो वे अपनी बाईं आंख के यदा-कदा फड़कने के कारण आसन्न मुसीबतों से बचते हुए कहते हैं कि ---जान बची तो लाखों पाए---लेकिन आज की तारीख में हकीकत यही है कि हम सबके प्रिय शैल जी भी काल के क्रूर हाथों से नहीं जीत पाई, मृत्यु के आगे मसखरी एक बार फिर हार गई----
.......चल गई
वैसे तो मैं शरीफ हूं, आप ही की तरह श्रीमान हूं
मगर बाईं आंख से बहुत परेशान हूं
अपने आप चलती है,
लोग समझते हैं चलाई गई है, जान-बूझकर मिलाई गई है
एक बार बचपन में, शायद सन पचपन में
क्लास में एक लड़की बैठी थी पास में
नाम था सुरेखा, उसने हमें देखा और बाईं आंख चल गई
लड़की हाय हाय कर क्लास छोड़ निकल गई
थोड़ी देर बाद, हमें है याद
प्रिंसिपल ने बुलाया, लंबा-चौड़ा लैक्चर पिलाया
हमने कहा कि जी भूल हो गई
वो बोले, ऐसा भी होता है भूल में,
शमॅ नहीं आती ऐसी गंदी हरकत करते हो स्कूल में
और इससे पहले कि हकीकत बयान करते
फिर चल गई, प्रिंसिपल को खल गई
हुआ यह परिणाम, कट गया स्कूल से नाम,
बामुश्किल तमाम, मिला एक काम
इंटरव्यू में खड़े थे,
क्यू में एक लड़की थी सामने खड़ी,
अचानक मुड़ी नजर उसकी हम पर पड़ी
और बाईं चल गई, लड़की उछल गई
दूसरे उम्मीदवार चौंके, लड़की का पक्ष लेकर भौंके
फिर क्या था, मारमार जूते-चप्पल फोड़ दी बक्कल
तब तक निकालते रहे रोष, और जब हमें आया होश
तो देखा अस्पताल में पड़े थे, डॉक्टर और नसॅ घेरे खड़े थे
हमने अपनी एक आंख खोली, तो एक नसॅ बोली-ददॅ कहां है?
हम कहां-कहां बताते, और इससे पहले कि कुछ कह पाते कि चल गई
वो बोली शमॅ नहीं आती, मोहब्बत करते हो अस्पताल में?
उनके सबके जाते ही आया वाडॅ ब्वाय,देने लगा अपनी राय
भाग जाएं चुपचाप नहीं जानते आप
बात बढ़ गई है, डॉक्टर को गढ़ गई है
केस आपका बिगड़वा देगा
न हुआ तो मरा हुआ बताकर जिंदा ही गड़वा देगा
तब रात के अंधेरे में आंखें मूंदकर
खिड़की से कूदकर भाग आए
जान बची तो लाखों पाए

Sunday, October 28, 2007

गीत चांदनी में डुबकी लगाएं


सही मायने में पूनम (पूरणिमा) का उत्सव तो हर महीने समंदर ही मनाता है, जब उसकी लहरें चंद्रमा की किरणों को अपने आगोश में लेने के लिए मचल उठती हैं, जिसे ज्वारभाटा के नाम से जाना जाता है। प्रकृति का सतत अनुचर मनुष्य की प्रकृति भी इससे कुछ भिन्न नहीं है। वह भी पूनम पर कई तरह के आयोजन करता ही है। लेकिन अन्य पूनमों की तुलना में शरद की पूनम का कुछ विशेष महत्व है।
इस उपलक्ष में गुलाबीनगर में पिछले करीब ३७ बरसों से तरुण समाज ---गीत चांदनी--- नाम से कवि सम्मेलन आयोजित करता है। इसमें कविगण गीतों से चांद, चांदनी और फिर कामिनी, प्रकृति सब पर अपनी कल्पनाओं के तीर चलाते हैं। कवि भी तो वही कहते हैं, जो आमजन के मन में उमड़ता-घुमड़ता रहता है, लेकिन भावनाओं को शब्दों का अम्बर पहनाना तो हर किसी के वश में नहीं हो न।
इस बार भी यह आयोजन हुआ, जिसमें देहरादून के बुद्धिनाथ मिश्र, आगरा के शिवसागर मिश्र, हरिद्वार के रमेश रमन, इलाहाबाद के यश मालवीय, दिल्ली की मुमताज नसीम, रायबरेली की श्यामासिंह सबा, अजमेर के गोपाल गगॅ और कोटा के मुरलीधर गौड ने अपनी रचनाओं की चांदनी बिखेरी। संचालन जयपुर के सुरेंद्र दुबे का रहा। यहां भी खलने वाली बात यह रही कि मंच पर बैठे कवियों और सामने बैठे श्रोताओं का काव्य की रसधार के बीच भी मोबाइल से मोहभंग नहीं हुआ, और रिंगटोन तथा बातचीत व्यवधान बनते रहे।
आइए, कुछ रचनाओं का मिल-जुलकर रसास्वादन करें----
हर दीप को पूजा मिले हर स्रोत को नदिया मिले
भगवान मेरे देश में हर फूल को प्रतिमा मिले
पानी, हवा और धूप से संपन्न हो वन संपदा
तरुवर से लिपटी हो लता आए न कोई विपदा
संपन्न हर घर बार हो कोई नहीं लाचार हो
सत्यम् शिवम् और सुंदरम् की कल्पना साकार हो
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प्यार का गीत जमाने को सुनाया जाए, दुश्मनों को भी गले से लगाया जाए
कब कहती हूं इन्हें ताज अता हो लेकिन हक गरीबों को भी जीने का दिलाया जाए
माथे पर मत बल लाया कर इन होठों को फैलाया कर
रोज सवेरे के सूरज से फूल लिया कर फूल दिया कर
आते-जाते देख लिया कर अपनों पर कुछ ध्यान दिया कर
कभी कभी तो दूरभाष पर हाल हमारा पूछ लिया कर
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कई साल बाद मिले हो तुम कहां खो गए थे जवाब दो
मेरे आंसुओं को न पोंछों तुम मेरे आंसुओं का जवाब दो
किसी रोज तुम मेरी खैरियत कभी फोन करके ही पूछ लो
ये तो मैंने तुम्हें कहा नहीं कि मेरे खतों का जवाब दो
---
आप खुशकिस्मती से जो इंसान हैं, रस्मे इंसानियत भी निभा दीजिए
आप आगे हैं आगे ही रहिए मगर जो हैं पीछे उन्हें रास्ता दीजिए
हाठ उट्ठे तुम्हारे खुदा के लिए लोग समझें कि उट्ठे दुआ के लिए
आप रूठे हैं तो मुझसे रूठे रहें, कब मैं कहती हूं मुझको दुआ दीजिए
--------
गम को रुसवा न कीजे सरे अंजुमन, सिफॅ तनहाई में आंख नम कीजिए
मिट न जाएं कभी यार के नक्श-ए-पा, इनसे हटकर ही पेशानी खम कीजिए
----
रात अपनी गरीब लगती है, चांदनी गरीब लगती है
आप जब दूर-दूर होते हैं, जिंदगी बदनसीब लगती है
झील में जैसे इक लहर आए देखता हूं कि आंख भर आए
हूबहू आप जैसी इक मूरत चांदनी रात में नजर आए
और अंत में मेरी ओर से क्षमायाचना किसी कवि की इन पंक्तियों से...
इस दुनिया में अपना क्या है, सब कुछ लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार

Thursday, October 25, 2007

कलम आज--खुद--की जय बोल


राष्ट्रकवि रामधारी दिनकर की देश के बलिदानी स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में लिखी कविता---कलम आज उनकी जय बोल---में आंशिक परिवतॅन (सादर क्षमायाचना सहित) के साथ हाजिर हूं।
बदलाव प्रकृति का शाश्वत नियम है और समय के साथ चलने के लिए जरूरी भी, इसके बावजूद कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिनका असर कम होना असरदार हो सकता है। जी हां, आप ठीक समझे, मेरा इशारा दिनानुदिन कम हो जाते जा रहे कलम के प्रयोग की ओर है। मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में जैसे लगता है कलम के खिलाफ कोई अघोषित जंग छिड़ी हुई है। गोरी अब सांवरिया को खत नहीं लिखती बल्कि एसएमएस करती है और खतों में फूल के स्थान पर पिक्चर मैसेज या एमएमएस भेजे जाते हैं। रही-सही कसर इंटरनेट पूरी कर देता है, जहां आप मनचाही-मनमानी भावनाओं, तस्वीरों के आदान-प्रदान करने के साथ ही चैटिंग का भी आनंद ले लेते हैं। किसी का फोन नंबर लेना होता है तो आदमी डायरी-कलम नहीं निकालता, मोबाइल में उसे फीड कर लेता है।
कामकाजी लोगों को देखिए, पहले बैंकों से पैसे निकालने के लिए कम से कम विड्राल फॉमॅ भर लेते थे, लेकिन एटीएम काडॅ और क्रेडिट काडॅ ने कलम निकालने की जरूरत ही खत्म कर दी। ऑफिसों में कमॅचारियों को मैग्नेटिक काडॅ दे दिए जाते हैं, जिससे उनकी उपस्थिति दजॅ हो जाती है, पंजिका में हस्ताक्षर कौन करे।
विज्ञान से मेरा कोई वैर नहीं है, मैं भी नित नई आने वाली टेक्नीक से रू-ब-रू होना व उसे प्रयोग में लाने के बारे में सीखना चाहता हूं, सीखता भी हूं, लेकिन मेरी बस इतनी गुजारिश है कि जब भी कभी अवसर मिले, कलम का प्रयोग अवश्य करें। दिनभर की गतिविधियों में कोई बात दिल को छू गई हो, डायरी पर अंकित कर लें, बच्चे को कोई जरूरी हिदायत देनी हो तो लिखकर दें, कोई ऐसा बचपन का बिछुड़ा मित्र हो, जिन तक आधुनिक संचार साधनों की पहुंच नहीं हो, आप अपनी मधुर यादों को ताजी कर सकते हैं। एक और कारण, मोबाइल से बात करते समय, साइबर कैफे में बैठे हुए हमारा ध्यान जब जेब पर जाता है तो हम भावनाओं पर अंकुश लगाने को बाध्य हो जाते हैं, लेकिन कागज-कलम की दुनिया में ऐसी बंदिशें नहीं होतीं, भले ही डाक खचॅ और स्टेशनरी की कीमतें बढ़ गई हों। लेखनी जिंदा रहेगी, लेखन जारी रहेगा तो लिखने वाला तो अमर होगा ही।
अंत में यही कहना चाहूंगा--
रेगिस्तानों से रिश्ता है बारिश से भी यारी है
हर मौसम में अपनी थोड़ी-थोड़ी हिस्सेदारी है।

Tuesday, October 23, 2007

....मिलजुल कर एक सपना देखें


--समय के दपॅण में सुख-दुख अपना देखें, आओ हम तुम मिलजुल कर एक सपना देखें...बहुत पुरानी फिल्म के गाने का यह मुखड़ा आज नए सिरे से बहुत कुछ सोचने को विवश कर गया। आजकल तो फिल्मों के जो गाने होते हैं, उन्हें गुनगुनाने का दिल नहीं करता, हां, सुनकर रोना जरूर आता है, सुनने या बार-बार सुनने का तो सवाल ही नहीं उठता।
इन दिनों दैनिक समाचार पत्रों और मासिक पत्रिकाओं में ब्लॉग पर काफी कुछ लिखा जा रहा है। हम हिंदी वालों के लिए अपने नितांत वैयक्तिक विचारों को सावॅजनिक मंच पर लाने का यह सशक्त माध्यम जो ठहरा। हाल ही प्रकाशित ऐसी ही एक पत्रिका में हिंदी में कम ब्लॉग लिखे जाने या यूं कहें कि इसे बरतने वालों की कम संख्या पर चिंता जताई गई थी। चिंता वाजिब थी, एक अरब से अधिक आबादी वाले देश में हिंदी ब्लॉगसॅ की संख्या अभी हजारों में ही है।
अब मैं अपनी पृष्ठभूमि से आपको परिचित कराऊं, फिर इस विचारगंगा को गंगोत्री से आगे बढ़ाएंगे। मेरा गांव बिहार के वैशाली जिले के अग्रणी गांवों में शुमार किया जाता है। बिजली तो यहां ३०-४० बरसों से है, खंभे भी गड़े हैं, उनपर तार भी हैं, कई स्थानों पर ट्रांसफॉमॅर भी हैं, लोगों ने मीटर भी लगवा रखे हैं तथा नियमित रूप से बिल भी भरते हैं, लेकिन इन तारों में प्राणतत्व का संचार कभी-कभार ही होता है और आज भी लोगों को केरोसिन के सहारे ही अंधेरे को मिटाने का जतन करना पड़ता है।
फोन की कमी गांव के तथाकथित अभिजात्य लोग दशकों से महसूस कर रहे थे, कई तो टेलीफोन महकमे में राज्य स्तर पर शीषॅ पर भी पहुंच गए, लेकिन व्यवस्थागत बीमारियों से छुटकारा मुश्किल से ही मिल पाता है, सो फोन नहीं लगे तो नहीं लगे। गिनीज वल्डॅ रिकॉडॅधारी सांसद रामविलास पासवान जब दूरसंचार मंत्री बने तो गांव में बीएसएनएल का एक्सचेंज खुल गया और काफी लोगों ने टेलीफोन कनेक्शन लिए। लेकिन फिर भी टेलीफोन की पहुंच एक सीमित तबके तक ही थी। अभी पिछले मई-जून में जब मैं गांव गया तो मुझे संचार क्रांति के दिव्य दशॅन हुए। क्या संपन्न क्या विपन्न, क्या मालिक क्या मजदूर, क्या जमींदार क्या किसान, रिक्शा खींचने वाले और उनपर बैठने वाले सभी के हाथों में मोबाइल हैंडसेट देखकर मन गदगद हो गया। तब मुझे अहसास हुआ कि भारत में कोई भी क्रांति बिना गांवों तक पहुंचे पूरी नहीं हो सकती। आजादी की लड़ाई में भी गांव शहरों से किसी मायने में पीछे नहीं थे।
अब मैं अपने आज के विषय पर आपको वापस लाता हूं। उक्त पत्रिका ने हिंदी ब्लॉगसॅ की कम संख्या की जो चिंता जताई है, उसका एक ही तोड़ है। खुली आंखों से मैं एक सपना देख रहा हूं और यह एक दिन अवश्य ही सच होकर रहेगा, जब हमारे देश के सभी गांवों के घर-घर में कम्प्यूटर होंगे, लोगों में कम्प्यूटर लिट्रेसी होगी, इंटरनेट का इस्तेमाल सुगम होगा, कम्प्यूटरों को बिजली की प्राणवायु के लिए किसी सुखेन वैद्य का इंतजार नहीं करना पड़ेगा, मनचाही बिजली मिलेगी, भले ही मनमोहन सिंह का परमाणविक बिजली के लिए अमेरिका से करार हो न हो। और फिर इंटरनेट की नित नवीन तकनीकों का उपयोग करने में भारतीयों या फिर हिंदीभाषियों की महारथ को कोई चुनौती नहीं दे सकेगा।
---भारतमाता ग्रामवासिनी----कविता महज शब्दों को छंदों में बांधने की युक्ति नहीं है, बल्कि यही हकीकत है कि गांधी के गांवों में ही भारत माता की आत्मा बसती है। जड़ों को सींचा जाएगा तो पत्ते तो लहलहाएंगे ही। आईए, हम सब मिलकर सामूहिक रूप से यह सपना देखें और ईश्वर करेगा तो यह सपना अवश्य ही साकार होगा। जय हिंदी---जय हिंद---जय गांव
(व्यक्तिपरक अनुभूतियों के सहारे व्यष्टिगत चिंता जताने की जुरॅत करने के लिए क्षमायाचना सहित)

Sunday, October 21, 2007

...ऐ दुनिया, तुमने मुझे भुला दिया

यह किसी भूले-बिसरे फिल्म के गाने का मुखड़ा है, जिसे मैं खुद भी भूल चुका हूं, लेकिन आज जयपुर के पिंकसिटी प्रेस क्लब में आयोजित राजेंद्र बोहरा स्मृति काव्य पुरस्कार समारोह में बार-बार ये शब्द मुझे झकझोरते रहे।
साहित्य में न तो मेरी पैठ है और न ही मैं साहित्य साधना करने की क्षमता रखता हूं, हां, बचपन में मिले संस्कार कुछ न कुछ पढ़ने या यूं कहें कि स्वाध्याय के लिए प्रेरित करते रहते हैं। पढ़ने के साथ ही सुनने का भी शौक शुरू हुआ तो बीबीसी हिंदी सेवा से काफी गहरे तरीके से लगाव हुआ। उन दिनों बीबीसी की सांध्यकालीन सेवा में साहित्य के निमित्त सप्ताह में एक दिन तय होता था। उस सभा में कई बार राजेंद्र बोहरा प्रस्तोता हुआ करते थे। उनके स्वर और प्रस्तुति से ऐसा आभास अवश्य होता था कि इनके खुद भी साहित्य अथ च मानवता से भी सरोकार हैं। पैशन जब प्रोफेशन बना और नियति ने मेरे कदमों का रुख गुलाबीनगर की ओर किया तो पता चला कि वे वाकई अच्छे कवि थे राजेंद्र बोहरा के दिवंगत होने के बाद उनकी स्मृति को संजोए रखने के लिए उनके परिजनों ने यह पुरस्कार शुरू किया है जो किसी रचनाकार की प्रथम कृति के लिए दिया जाता है। इस बार यह सौभाग्य मिला जयपुर के ही प्रेमचंद गांधी को।
समारोह में वक्ता भी थे, और वे थे तो कुछ न कुछ कहते अवश्य। वे बोले भी, साहित्य की दुदॅशा पर चिंता भी जताई गई, काव्य के छंदों के आवरण से मुक्त होने पर भी बहुत कुछ कहा गया, लेकिन कथ्य यदि सशक्त है तो कविता बोलेगी अवश्य और पाठकों-साहित्यप्रेमियों और कुछ हद तक कहें तो समीक्षकों-आलोचकों के सिर चढ़कर भी। यूं तो इसके असंख्य उदाहरण हैं, मगर मेरी अल्पज्ञता की सीमा है, सो मैं मात्र दो उदाहरण से अपनी बात रखना चाहता हूं, छंदों में बंधी रामचरितमानस के दोहे चौपाइयां और कविवर सूयॅकांत त्रिपाठी निराला की ---वह तोड़ती पत्थर---क्या हर किसी की जुबान पर नहीं हैं। अतः हमें कविता की चिंता तो नहीं ही करनी चाहिए, हां उसके कथ्य पर अवश्य ही ध्यान होना चाहिए, जिससे मानवता की दशा का चित्रण हो, उसे दिशा मिले। पुरस्कृत कवि प्रेमचंद गांधी की काव्यकृति---इन दिस सिम्फनी--में ये तत्व बड़ी ही कुशलता से संजोए गए हैं।
अब मेरी वह पीड़ा, जिसके लिए मैं यह सब कहने को विवश हुआ हैं, बीबीसी हिंदी सेवा को भी अपने पूववॅती साथियों के यादों से भावी पीढ़ी को परिचित कराने के प्रयास अवश्य करने चाहिए। हां, समाचार प्रसारणों के बीच साहित्य को भी नियमित रूप से स्थान मिले तो श्रोता अवश्य ही उपकृत होंगे। इस कदर किसी को भुलाना ठीक नहीं होता।

दुआओं में असर बाकी है...

अभी कल ही शारदीय नवरात्र संपन्न हुए हैं। इस दौरान हममें से अधिकतर अपने-अपने क्षेत्र में और अधिक शक्ति प्राप्ति के लिए शक्ति स्वरूपा मां भगवती की आराधना में रत थे। इस बीच भारत-आस्ट्रेलिया एकदिवसीय सीरिज भी हुआ। यह सीरिज तो हम हार ही गए थे, अंतिम मैच में मिली जीत भी अपने खिलाड़ियों के लचर प्रदशॅन के कारण मुझे रोमांचित नहीं कर पाई थी। फलस्वरूप मैंने--बल्ले को गति दे भगवान---शीषॅक से अपने दिल के ददॅ को जुबान देने की कोशिश की थी। आस्ट्रेलियाई टीम के हौसले आसमान छू रहे थे और कदम धरती पर नहीं पड़ रहे थे।
ऐसे में शनिवार को फिर ट्वेंटी-२० मैच में सद्यः चैम्पियन भारत और ५०-५० चैम्पियन आस्ट्रेलिया जोर आजमाने को मैदान में थे। हमारे गेंदबाजों ने सधी हुई गेंदबाजी की और आस्ट्रेलिया को महज १६६ के स्कोर पर समेट दिया। इनमें एक्सट्रा के मात्र ९ रन ही थे। भारत जब बल्लेबाजी करने उतरा तो गौतम गंभीर के मात्र ५२ गेंदों पर ६३ रन, सिक्सर सम्राट युवराज के २५ गेंदों पर ३१ रन और रॉबिन उथप्पा के २६ गेंदों पर ३५ रनों ने हमें ११ गेंद शेष रहते ही हमारे सिर पर विजय का सेहरा बांध दिया। कन्फ्यूज्ड आस्ट्रेलियाई गेंदबाजों का योगदान भी कम नहीं था। उन्होंने २४ रन एक्सट्रा के रूप में दिए तो २० ओवर के मैच में काफी मायने रखते हैं। गौतम हुए गंभीर तो उन्हें मिला मैन ऑफ द मैच का पुरस्कार जिसके हकदार भी वे थे।
मैं ये सारी बातें आपसे शेयर कर रहा हूं, तो इसके पीछे मेरा उद्देश्य महज इतना ही है कि हम किसी के लचर प्रदशॅन के लिए उसे कोसें नहीं, लेकिन अपनी बेबाक राय तो अवश्य ही रखें। हमारे विचार संबंधित व्यक्ति तक भले नहीं पहुंचें, लेकिन कोई अदृश्य शक्ति अवश्य है, जो हम सबको एक दूसरे से जोड़ती है। वाइब्रेशन के माध्यम से पूरी कायनात एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। इस जीत का श्रेय मैं नहीं लेना चाहता, लेकिन सवॅशक्तिमान भगवान को अवश्य धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने बल्ले को गति दी। एक बात और, हमारे खिलाड़ियों का उत्साह से लबरेज होना भी काफी फलदायक रहा। यदि ऐसे ही तेवर बने रहे तो आगामी मैचों में भी हमारा प्रदशॅन काबिले तारीफ होगा।

Thursday, October 18, 2007

हम इंसान बनें न बनें


तेरा वैभव अमर रहे माँ

इन दिनों नवरात्र का उत्साह चरम पर है। स्थान-स्थान पर वृहत पांडाल बनाए गए हैं। देश ही नहीं, विदेशों में भी जहां कहीं भारतवंशी हैं, पूजा का उत्साह देखते ही बनता है। आकषॅक स्वरूपों में मां भगवती की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। नित नए सांस्कृतिक कायॅक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से ही घर-घर में लोग शक्ति की आराधना में लीन हैं। इस दौरान देवी भगवती की महिमा के गान के साथ सप्तशती के पाठ किए जा रहे हैं। इस पवित्र पुस्तक के कवच-कीलक-अगॅला में एक श्लोक का अंश है- रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि...यानी हे मां जगदम्बे, मुझे मनोहारी रूप दो, जीवनसंग्राम में विजय का वरण कराओ, जिस भी काम में हाथ डालूं, उसमें यश ही यश मिले और सबसे बढ़कर मन से ईष्या, द्वेष, बेईमानी आदि कुत्सित भावों का नाश हो। ईमानदारी से हम सोचें कि हममें से कितने इस पर पूरी तरह अमल कर पाते हैं। रूप-विजय-यश की कामना तो सबको होती है, लेकिन कितने लोग अपने मन से उपरोक्त कुत्सित भावों को मिटा पाने में समथॅ हो पाते हैं। ईश्वर की सत्ता और स्वगॅ के अस्तित्व में कहां तक सच्चाई है, यह तो पता नहीं, मगर यह सवॅदा सत्य है कि इसकी कल्पना के पीछे यह तकॅ अवश्य रहा होगा कि मनुष्य दानवत्व को छोड़कर देवत्व की प्राप्ति के लिए जीवनभर सत्कमॅ करे तथा मरणोपरांत स्वगॅ की आकांक्षा तथा नरक के भय से कभी भी गलत कायॅ न करे। नवरात्र के इन दिनों में जितने लोग विधिपूवॅक पूजन-अनुष्ठान करते हैं या पूजा-पांडालों और मंदिरों में भगवती के दशॅन करते हैं, वे ही यदि अपने आचरण में देवी के गुणों को ढाल लें तो यह धरती स्वगॅ बन जाए। अपराध अथ च आतंकवाद, भ्रष्टाचार, बेईमानी और ऐसी न जाने कितनी बुराइयां इस संसार से तौबा कर लें। या देवि सवॅभूतेषु.......रूपेण संस्थिता वाले श्लोकों में तो देवी भगवती की सत्ता को सवॅजगतमयी बताया गया है, फिर कौन ऐसा बचेगा जिसके प्रति हमारा व्यवहार कलुष लिए होगा। यदि हम अपने व्यवहार में निमॅलता नहीं लाते हैं, व्यवहार से कलुष को नहीं हटा पाते हैं, तो सदियों से हो रही यह देवी-शक्ति आराधना आने वाले युगों-युगों तक चलती रहे, मानवता का इससे कोई भला नहीं होगा। खुद को तसल्ली देने के लिए हम इन नौ दिनों में साधक बने रहें, लेकिन मन को साधे बिना सब कुछ बेकार है। हां, मां भगवती की सत्ता तो जैसी थी , वैसी बनी ही रहेगी। फिर मेरा मन यह कहने को विवश होगा......तेरा वैभव अमर रहे मां, हम इंसान बनें न बनें।और अंत में, मेरा इरादा किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है, यह तो बस मेरे विचार हैं। इन शब्दों में आप सभी से क्षमा चाहता हूं--------------यह नहीं आरोप की भाषा शिकायत भी नहींददॅ का उच्छास है यह और कुछ मत मानिएगा।जय भवानी, जय जगदंबे

Wednesday, October 17, 2007

बल्ले को गति दे भगवान

ऑस्ट्रेलिया के साथ एक दिवसीय मैचों की सिरीज में हमारी नाट तो पहले ही कट चुकी थी, लेकिन जव युवा गेंदबाज मुरली कारतिक ने १० ओवर में तीन मेडन रखते हुए केवल २७ रन देकर ऑस्ट्रेलिया के छह नामी-गिरामी बल्लेबाजों को पैवेलियन लौटा दिया तो ऐसा लगा कि उत्साह से लबरेज हमारे बल्लेबाज २०-२५ ओवर में यह आसान सा स्कोर बनाकर वल्डॅ चैम्पियन को चुनौती दे सकेंगे। लेकिन यह क्या, जब धोनी के धुरंधर बल्लेबाजी करने उतरे तो ऐसा लगा कि उन्हें रन बनाने की नहीं, पैवेलियन लौटने की जल्दबाजी थी। १९४ के स्कोर तक पहुंचने में हमारे आठ बल्लेबाज शहीद हुए और बाकी बचे जवानों ने खेल को ४६ ओवर तक खींचा। इस बीच कई बार ऐसा लग रहा था कि एक बार फिर पराजय का वरण कर हम मेहमान टीम को जीत का तोहफा देंगे। उथप्पा को बधाई कि उन्होंने सबसे अधिक ४७ रन बनाए। दूसरे नंबर पर रहे ऑस्ट्रेलिया के गेंदबाज, जिनकी मेहरबानी से हमें ३६ रन बतौर एक्सट्रा मिल गए थे। हालांकि हमारे गेंदबाजों ने भी उदारता बरतते हुए ३३ रन एक्सट्रा में दे दिए थे।
और अंत में........मैं न तो क्रिकेट का जानकार हूं और न खिलाड़ी। एक आम भारतीय होने के नाते जो पीड़ा हुई उसे शेयर कर रहा हूं।

Tuesday, October 16, 2007

चिट्ठी नहीं चिट्ठा, डाक नहीं मेल

बदलते हुए जमाने के साथ युगधमॅ भी बदलता रहता है। किसी जमाने में आदमी भोजपत्र पर लिखता था, इसके दशॅन मेरी पीढ़ी के युवकों को संग्रहालयों में ही हो पाते हैं। मैंने लिखने का अभ्यास स्लेट पर शुरू किया था। उन दिनों ५० पैसे से लेकर एक रुपए तक में स्लेट में आती थी, जो जरा सी ऊंचाई से गिरते ही फूट जाया करती थी। अक्सर ऐसा होने पर पिताजी के क्रोध का शिकार भी होना पड़ता था। जब अच्छी तरह लिखना-पढ़ना आ गया तो मुझे अभ्यास पुस्तिका व पेंसिल उपलब्ध कराई गई थी। इसके बाद सरकंडे की कलम को स्याही भरी दवात में डुबोकर लिखने का अभ्यास काफी दिन तक कराया गया। फिर गुरुजनों से जब नींब वाली कलम से लिखने की अनुमति मिली तो ऐसी खुशी हुई कि लेखनी पकड़ते ही हम बहुत बड़े लेखक बन जाएंगे। यह यात्रा हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी होते-होते रिफिल वाली कलम तक पहुंची और कॉलेज के दिनों में पायलट पेन हमारे स्टैंडडॅ का प्रतीक हुआ करता था। माता-पिता द्वारा तय की शादी के बाद पत्नी को प्रेमिका बनाने के क्रम में उससे दूर रहकर जो प्रेम पत्र लिखे, उनमें रंग-बिरंगे जेल पेनों ने भी काफी सहायता की। अस्तु, मिलेनियम वषॅ २००० में उत्पन्न मेरे पुत्र ने अभ्यास पुस्तिका पर ही अक्षरों का अभ्यास शुरू किया। उसे कभी जब स्लेट की लिखाई के अनुभव बताता हूं तो यह उसके लिए किसी आश्चयॅ से कम नहीं होता। स्लेट से अभ्यास पुस्तिका तक होती हुई यह अक्षर यात्रा अब कम्प्यूटर लिटरेसी तक पहुंच गई है। अब तो केंद्र सरकार ने झुग्गी-झोपड़ी वाली बस्तियों में भी कम्प्यूटर लिटरेसी शुरू करने का अभियान छेड़ दिया है। वह दिन दूर नहीं जब बच्चे सीधे कम्प्यूटर पर ही अक्षरों का ज्ञान लेंगे और की-बोडॅ पर इसका अभ्यास कर इसी में ही निष्णात कहलाएंगे। अब आते हैं आधुनिक जीवन व्यवहार पर। आज के जमाने में औसत बौद्धिकजन कम्प्यूटर लिटरेसी के बिना खुद को असहाय सा महसूस करते हैं। मैंने स्वयं कई ऐसे लोगों के लिए देखा है जिन्होंने ६० वषॅ की उम्र बीतने के बाद कम्प्यूटर पर टाइपिंग सीखी और आज अभ्यास के बल पर अच्छी टाइपिंग स्पीड के धनी हैं। वह दूर नहीं जब कम्प्यूटर लिटरेट और कम्प्यूटर इलिटरेट के भी अलग-अलग वगॅ होंगे। अब मैं आज के अपने विषय पर आता हूं। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर विश्व की अन्य महत्वपूणॅ घटनाओं पर महापुरुषों के बीच जो पत्राचार हुआ करता है, उसके निहिताथॅ व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक व वैश्विक भी हुआ करते थे। आज पत्र लिखने की हमारी वह आदत पक्षाघात का शिकार हो गई है। लेकिन मानव मन कभी मानता क्या है। किसी ने क्या खूब कहा है------आदत जो लगी बहुत दिन से वह दूर भला कब होती हैहै धरी चुनौटी पाकिट में पतलून के नीचे धोती हैमेरी नजर में अपनी इसी आदत को बनाए रखने के लिए ही ब्लॉग की शुरुआत की गई है। चिट्ठी का स्थान चिट्ठा (ब्लॉग) ने ले लिया है। व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक मुद्दों पर सैकड़ों लोग अपने विचारों के आदान-प्रदान में दिन-रात लगे हैं।अब एक और पहलू, आदमी पहले डाकिये का इंतजार करता था, कुछ ऐसे लोग जिनके ज्यादा पत्र आते थे, दरवाजे पर पत्र पेटिका लगवाते थे और दोपहर बाद नियमित रूप से इसे खोलकर देखते थे कि किसी का संदेश आया है या नहीं। आज के बदले हुए जमाने में डाक (मेल) का स्थान अब ई-मेल ने ले लिया है और आदमी कम्प्यूटर ऑन करते ही सबसे पहले ई-मेल चेक करता है। प्रियजनों के ई-मेल पाकर मन मयूर उसी तरह झूम उठता है जो कभी प्यार में पगे पत्र पाकर खिल उठता था।

Monday, October 15, 2007

और अश्वथामा अमर हो गया

नाटक करना कभी मेरा शौक हुआ करता था, लेकिन पत्रकारिता के पेशे में आने के बाद गृहस्थी के बोझ तले कुछ इस कदर दब गया कि जिंदगी ही खुद नाटक बनकर रह गई है। हां, नाटक देखने का शौक अब भी कम नहीं हुआ है। शाम की नौकरी होने के कारण नाटक देखने का भी अवसर कम ही मिल पाता है, फिर भी यदा-कदा समय मिल जाता है, तो छोड़ता नहीं हूं। पिछले शनिवार यानी १३ अक्टूबर को जवाहर कला केंद्र में अश्वथामा जे. डी. ने विलियम शेक्सपियर की प्रख्यात कृति हैमलेट पर आधारित नाटक एक अकेला हैमलेट की सोलो प्रस्तुति दी। इसकी खासियत यह थी कि इसका लेखन, निरदेशन और अभिनय सब कुछ अकेले अश्वथामा का ही था। यह सब कुछ इतना प्रभावी था कि दरशक बिल्कुल निस्तब्ध होकर नाटक में खो से गए थे। नाटक के पात्र के अनुरूप पल-पल बदलती भाव-भंगिमा, स्वर का उतार-चढ़ाव देखते ही बनता था। संवाद और उनकी अदायगी इतनी उम्दा थी कि उन्हें शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। आज के दौर में जब बिना किसी उददेश्य के फूहड़ फिल्में दरशकों को परोसी जा रही हैं, यह संवाद तो सुभाषित की तरह ही था कि नाटक समाज को आईना दिखाने का काम करता है ताकि वह अपनी कमियों को देखकर उन्हें दूर करने का प्रयास कर सके। यह तो एक बानगी भर है। सभी संवाद एक से बढ़कर एक थे। हैमलेट से एक अकेला हैमलेट तक की कथायात्रा जिस संजीदगी से प्रस्तुत की गई, वह उन फिल्म निरमाताओं के लिए भी एक सबक है जो करोड़ों रुपए खरचने के बाद भी न तो दरशकों को कोई संदेश दे पाते हैं और न ही उन्हें अपने कथानक से बांधकर रखने में ही सफल हो पाते हैं। नाटक के दौरान कभी सवा घंटे तक सभागार में नीरव निस्तब्धता और नाटक की समाप्ति पर तालियों की अनवरत गड़गड़ाहट से दरशकों ने कृतग्यता का जो परिचय दिया, वह भी काबिले तारीफ था। नाटक के समापन के बाद जब पात्र परिचय के क्रम में अश्वथामा दुबारा जब मंच पर आए तो दरशकों ने खड़े होकर तालियों की तुमुल गड़गड़ाहट से उनका अभिवादन किया। एक कलाकार को अभिभूत करने के लिए इससे बढ़कर कोई तोहफा नहीं हो सकता। भारतीय पौराणिक आख्यानों के अनुसार कुछ विशेष चरित्रों में अश्वथामा को अमर बताया गया है। एक अकेला हैमलेट में अपने संवाद लेखन, निरदेशन और जीवंत अभिनय से अश्वथामा जेडी भी उन दरशकों की नजर में अमर हो गए, जो उस सभागार में उनके अभिनय के गवाह बने। .....और उनसे भी बढ़कर उनकी नजरों में जो किसी कारणवश नाटक तो नहीं देख पाए, लेकिन मुझ जैसे नाचीजों ने उन्हें उन सुखद पलों से रू-ब-रू कराया। नाटक के बीच-बीच में मोबाइल की घंटी खलल पैदा कर रही थी, अंतिम दृश्यों में तो अश्वथामाजी की खिन्नता उजागर भी हो गई। होती भी क्यों नहीं, कलाकार जब नाटक के सारे पात्रों को जी रहा होता है, तो उस पर क्या गुजरती है, इसे कलाकार हृदय ही समझ सकता है। ऐसे में मैं अश्वथामा जी से मैं यही निवेदन करना चाहूंगा कि आज के दौर में जब बेटे के कंधे पर बाप की अरथी होती है, तब भी उसकी जेब में रखे मोबाइल की रिंगटोन सहसा ही बज उठती है.....तू चीज बड़ी है मस्त मस्त....चोली के पीछे क्या है...तुझे देखा तो ऐसा लगा....। जब मंदिर से श्मशान तक मोबाइल की पैठ हो चुकी है तो किसी नाटक का सभागार कैसे वंचित रह सकता है। हां इस समस्या का निदान उनके इसी नाटक का यह संवाद सुझाता है....आदत अभ्यास से बढ़ती है और अभ्यास से ही छूटती है। यदि हम प्रण लें तो मोबाइल को स्विच आफ या साइलेंट मोड पर रखने का विकल्प भी अपना सकते हैं। फिर न तो सुधि दरशकों को कोफ्त होगी और न ही कलाकार को रुष्ट होकर कहना पड़ेगा---इट मे बी माई लास्ट परफोरमेंस आन स्टेज। मेरी तो यही गुजारिश है कि अश्वथामा जेडी यूं ही एक से बढ़कर एक प्रस्तुतियों से अपने प्रिय दरशकों के बीच बने रहें।