Thursday, November 19, 2020

... वो तो मैंने झूठ बोला था

वो तो मैंने झूठ बोला था...

आम दिनों में हमारे देश में जितने लोग रोजाना ट्रेन में सफर करते हैं, कई देशों की कुल आबादी उससे कहीं कम है। ऐसे में ट्रेन के सफर के दौरान भांति-भांति के अनुभव होते रहते हैं। कुछ सहयात्रियों के व्यवहार से तो कुछ भारतीय रेलवे के सौजन्य से।  फरवरी में भांजी की शादी में बिहार गया था, फिर होली में जयपुर गया था। उसके बाद से तो कोरोनावायरस की वैश्विक महामारी ने सब कुछ उलट पुलट कर रख दिया। लंबे समय तक ट्रेनों के पहिए थमे रहे। अब कहीं जाकर इक्की-दुक्की ट्रेन शुरू हो पाई है। हर रूट पर अमूमन पुरानी ट्रेनों को ही नई बोतल में पुरानी शराब की तरह पेश किया जा रहा है। 
पिछले दिनों इसी तर्ज पर कई ट्रेनों को चलाने की घोषणा हुई तो मैंने भी दीपावली पर ‌लखनऊ से जयपुर जाने के लिए न्यू जलपाईगुड़ी-उदयपुर सिटी एक्सप्रेस साप्ताहिक स्पेशल ट्रेन में रिजर्वेशन करवा लिया था। कुल मिलाकर सफर अच्छा रहा, मगर यह रेलवे का कोई चमत्कार नहीं था, रूट पर ट्रेनें ही नहीं थीं, सो डिस्टर्बेंस की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। वापसी में लखनऊ से जयपुर के लिए मेरी अनचाही फेवरेट ट्रेन मरुधर एक्सप्रेस ही बतौर स्पेशल ट्रेन इकलौती ट्रेन थी, सो दीपावली के अगले दिन वापसी के लिए इसमें रिजर्वेशन कराने की मजबूरी थी।
खैर, सब कुछ ठीक चल रहा था कि दीपावली की सुबह साढ़े नौ बजे एसएमएस आया कि अपरिहार्य कारणों से 15 नवंबर को जोधपुर से वाराणसी जाने वाली मरुधर एक्सप्रेस स्पेशल ट्रेन कैंसिल कर दी गई है। असुविधा के लिए खेद है। मैसेज पढ़ते ही मुझे दिन में ही तेरहों तारेगण नजर आने लगे। समझ नहीं पा रहा था कि कैसे जाना हो पाएगा। अवकाश के बाद निश्चित समय पर न लौटने से अविश्वास की स्थिति पैदा हो जाती है और वजह चाहे जो कुछ भी हो, यह मुझे पसंद नहीं है। विकल्पों पर माथापच्ची में लगा रहा। इंटरनेट पर जयपुर ‌से लखनऊ के लिए न तो यूपी रोडवेज की कोई बस दिख रही थी और न ही राजस्थान रोडवेज की। ऐसे में जयपुर से आगरा और फिर वहां से लखनऊ की दौड़ लगाने की प्लानिंग के अलावा और कोई रास्ता नहीं था।  यही सब सोच-विचार में लगा था कि करीब ग्यारह बजे रेलवे का एसएमएस आया कि 15 नवंबर को जोधपुर-वाराणसी मरुधर एक्सप्रेस स्पेशल ट्रेन के कैंसिलेशन का मैसेज तकनीकी गड़बड़ी के कारण डिलीवर हो गया था। यह मैसेज पढ़ने के बाद जान में जान आई कि अब अनावश्यक भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ेगी। 
...मगर यह मैसेज मेरे जैसे हजारों यात्रियों के पास पहुंचा होगा और न जाने उन्हें कितनी मानसिक यंत्रणा झेलनी पड़ी होगी। तय सफर में अचानक कोई बदलाव ऐसे ही परेशान करने वाला होता है और कोरोना काल में इस तरह की बाध्यता किसी को किस कदर परेशान कर सकती है, इसकी कल्पना ही विचलित कर देती है। ऐसे में भारतीय रेलवे के जिम्मेदारों को कोई भी मैसेज भेजने से पहले अच्छी तरह से सोच लेना चाहिए। यह किसी फिल्मी सीन का गाना नहीं है कि आप सॉरी कहकर निकल जाएं...वो तो मैंने झूठ बोला था।

Monday, August 24, 2020

कंडक्टर की कमाई

कंडक्टर की कमाई

बिहार के वैशाली जिले के बाजितपुर गांव में पश्चिमी छोर पर स्थित हमारे घर के पास मील का पत्थर लगा था। ऐसा ही अगला पत्थर मिडिल स्कूल के पास भी था। उस समय सड़कों की लंबाई किलोमीटर के बजाय मील में ही नापी जाती थी। सो प्राइमरी से मि‌डिल स्कूल में जाने पर मील के पत्थर से पहला वास्ता पड़ा और यह भी पक्का हो गया कि अब मुझे रोज दो मील पैदल चलना होगा। उसके बाद पातेपुर हाई स्कूल में पढ़ाई के दौरान करीब पांच साल तक रोजाना लगभग तीन कोस पैदल चलना मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया। मुजफ्फरपुर में भी कॉलेज की पढ़ाई के दौरान भी कदमताल जारी रही। 
... और फिर रोजी-रोटी के सिलसिले में जारी अनवरत सफर के दौरान ये मील के पत्थर जीवन के हमसफर बन गए। बात दीगर है कि इस बीच बसें और रेलगाड़ियां भी पैरों का साथ निभाती रहीं।

प्राइमरी स्कूल से मिडिल स्कूल में जाने पर दो महत्वपूर्ण खासियतें महसूस हुईं। पहली, प्राइमरी स्कूल में हम बच्चे ही प्रार्थना के पहले दोनों कमरों और बाहरी हिस्से की सफाई करते थे, जबकि मिडिल स्कूल में यह काम द्वारपाल शुक्कन ठाकुर के जिम्मे था। वे स्कूल परिसर में लगे फूलों के पौधों की देखरेख भी बड़े मनोयोग से किया करते थे। निर्मल हृदय व सरल स्वभाव के धनी शुक्कन ठाकुर को हम बच्चों के भविष्य की भी चिंता रहती थी। यही वजह थी कि परीक्षा के दिनों में वे प्रार्थना के दौरान कतार में खड़े हम विद्यार्थियों के माथे पर बतौर शगुन दही का टीका लगाते थे।

मिडिल स्कूल की दूसरी खासियत वहां की मिनी विज्ञान प्रयोगशाला थी। प्रधानाचार्य के कमरे के एक बक्से में बंद इस प्रयोगशाला का बच्चों में गजब का क्रेज था। हम बच्चे प्रयोग करके दिखाने के लिए विज्ञान शिक्षक श्री श्यामनंदन राय की खुशामद करते रहते। महीने-दो महीने में जब वे प्रसन्न होते तो कई प्रयोग करके दिखाते। इस दौरान बैटरी से बल्व जलाने का प्रयोग दिखाते समय वे बिजली के गुड कंडक्टर व बैड कंडक्टर कारकों के बारे में बताते। इससे पहले तो मैं यही जानता था कि बस में किराया वसूलने वाले को ही कंडक्टर कहते हैं। 

खैर, कंडक्टर शब्द की बात आने पर गणेश चाचा का चेहरा सामने आ जाता। बचपन के दिनों में सबसे पहले बतौर कंडक्टर उन्हें ही देखा था। जिंदादिल स्वभाव के धनी गणेश चाचा अपनी हाजिरजवाबी से हर किसी का दिल जीत लेते थे। लोगों की नकल उतारने में भी उनकी महारत थी। अपनी इस विशेष अदा से वे किसी भी महफिल में छा जाते। अफसोस, पिछले दिनों वे गंभीर रूप से बीमार हुए और परिवार वालों के अथक प्रयासों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। 

कोरोना काल में इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए लोग जहां तरह-तरह के जतन कर रहे हैं, वहीं इन उपायों के साथ ही मैं फोन के जरिए बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद और मित्रों की शुभकामनाओं के सहारे खुद को बूस्ट अप करता हूं।  ऐसे ही कल गांव के एक नौजवान से फोन पर बातचीत के दौरान गणेश चाचा की चर्चा छिड़ते ही उसकी आवाज रूंध सी गई। पूछने पर उसने बताया कि कॉलेज में पढ़ाई के दौरान और उसके बाद भी प्रतियोगिता परीक्षा आदि के लिए कहीं जाने के लिए यदि कभी वह उस बस में चढ़ता, जिसमें गणेश चाचा कंडक्टर होते, तो वे उससे किराया नहीं लेते थे। रास्ते में बस कहीं रुकती तो कभी समोसा, कभी भूंजा, कभी खीरा-नारियल आदि खिलाते। यही नहीं, उतरते समय जेब में पांच-दस रुपये भी रख देते। बता नहीं सकता, उन पैसों की कितनी अधिक अहमियत थी उन दिनों मेरे लिए।

उसकी बातें सुनने के बाद गणेश चाचा की सदाशयता के बारे में जानकर मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गई। उस नौजवान की तरह और न जाने कितने लोग होंगे, जिनकी ऐसी ही मदद गणेश चाचा ने अवश्य ही की होगी। अच्छे से अच्छे निवेशकर्ता भी अपनी कमाई के ऐसे सर्वोत्तम निवेश के बारे में सोच नहीं पाते होंगे, जिसका सुफल इस नश्वर शरीर को त्याग देने के बाद भी मिलता रहता है।

कंडक्टर की नौकरी ऐसी नहीं होती कि कोई इसे कॅरिअर बनाने के बारे में सोचे। ...और फिर प्राइवेट बसों के कंडक्टरों की दुश्वारियों का तो कहना ही क्या। रोजाना बस मालिक की धौंस भरी झिड़की सुनने के साथ ही उसे आए दिन सड़क छाप मवालियों की झड़प का भी शिकार होना पड़ता है। महीने में तीस दिन और साल के बारहों महीने नौकरी की भी कोई गारंटी नहीं होती, मगर यह भी बहुत बड़ी हकीकत है कि बस स्टैंड से लेकर रास्ते के पड़ावों तक न जाने कितने ही लोग कंडक्टर की उदारता की बदौलत अपना पेट भरने के साथ ही अपने परिवार का भी भरण-पोषण करते हैं। ...और इनसे मिली दुआओं के रूप में एक कंडक्टर की कमाई किसी भी धन्नासेठ और आला अधिकारी से कहीं अधिक मायने रखती है। अंत में परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना है कि उदारमना, हंसमुख और जिंदादिल स्वर्गीय गणेश चाचा को अपने चरणों में शरणागति प्रदान करें।

Saturday, August 22, 2020

आजु मंगल के दिनमा शुभे हो शुभे...

आजु मंगल के दिनवां शुभे हो शुभे...

आजकल छोटे-बड़े, अमीर-गरीब हर किसी की तमन्ना होती है कि हमारा बच्चा भी अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करे। "प्रातकाल उठि के रघुनाथा। मात पिता गुरु नावहिं माथा।।" की तरह पैर भले मत छुए, लेकिन देर सवेर जगने के बाद गुड मॉर्निंग जरूर बोले। यही वजह है कि कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में अंग्रेजी मीडियम स्कूल खुल गए हैं। माता-पिता अपने बच्चों का भविष्य संवारने के लिए खुद का वर्तमान दांव पर लगा देते हैं। मगर अफसोस इन स्कूलों में बच्चों को अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान ही मिल पाता है और हिंदी का उनका ज्ञान...उसके बारे में तो क्या बताऊं। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी प्रधान राज्यों के लाखों बच्चे दसवीं व बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में मातृभाषा हिंदी में ही फेल हो जाते हैं।

...तो मैं कहना चाह रहा था कि आजकल बच्चों की पढ़ाई की शुरुआत ए फॉर एपल, बी फॉर बैट से होती है। खुशी की बात है कि अधिकतर बच्चों को खाने के लिए एपल और खेलने के लिए बैट मिल भी जाता है, इसलिए वे एपल और बैट के निहितार्थ भी समझ सकते हैं, लेकिन आज से करीब 40-45 साल पहले जब हमारी पढ़ाई शुरू हुई थी, तब बच्चों के लिए क्रिकेट के बारे में सोचना भी मुश्किल था, खेलने की तो बात ही छोड़ दें। हर अभ‌ि‍भावक के लिए बच्चे को सेब के दर्शन कराना भी संभव नहीं था। सेब को अंग्रेजी में एपल भी कहते हैं, इसका ज्ञान हमें छठी कक्षा में जाने पर हुआ था। क्योंकि उस जमाने में मिडिल स्कूल में जाने पर छठी कक्षा से ही अंग्रेजी की औपचारिक पढ़ाई शुरू होती थी। वह तो कमाल था गांव के म‌िडिल स्कूल के शिक्षक परमादरणीय महेश ठाकुर जी और पातेपुर हाई स्कूल में अंग्रेजी के स्वनामधन्य शिक्षक श्रद्धेय सोनेलाल बाबू का, जिन्होंने देर से शुरुआत के बावजूद कई पीढ़ियों को अंग्रेजी पढ़ने-समझने लायक बना दिया। 

अस्तु, हमारे जमाने में सामान्य परिवार के बच्चों के लिए आम, अमरूद, अनार आसानी से उपलब्ध थे और पढ़ाई की शुरुआत हिंदी के अक्षर ज्ञान से ही होती थी सो हमने सबसे पहले अ से अनार और आ से आम ही पढ़ा। उस जमाने में 25 पैसे की मनोहर पोथी आती थी। 25-30 पेज की वह छोटी सी पोथी कितनी मनोहर थी, इसका तो अहसास नहीं, मगर हिंदी की संपूर्ण वर्णमाला, ककहरा से लेकर बारह खड़ी, अक्षरों से शब्द बनाना, 1 से लेकर 100 तक गिनती और 20 तक का पहाड़ा हमने उसी से सीखा। 

हमारे साथ के बच्चों ने संडे-मंडे से पहले सोमवार, मंगलवार और जनवरी-फरवरी से पहले चैत-वैशाख ही सीखा था। किफायत में जीने वाले गांव वालों की ज‌िंदगी में किफायत हर कहीं पैबस्त हो जाती है। ऐसे में बोलचाल में भी किफायत की आदत सी हो जाती है और वे सोमवार को सोम, मंगलवार को मंगल कहने लगते हैं। बचपन के दिनों से ही शादी-विवाह के गीत मुझे आकर्षित करते रहे हैं। हमारे यहां ऐसे अवसरों पर एक गीत बड़ा ही कॉमन है- आजु मंगल के दिनमा शुभे हो शुभे... तो यदि मंगलवार को शादी-विवाह का आयोजन होता तब तो बात समझ में आती, लेकिन किसी दूसरे दिन ऐसे आयोजनों में "मंगल के दिनमा..." से ऊहापोह में पड़ जाता कि बुधवार, शुक्रवार या रविवार को "मंगल के दिनमा" कैसे हो गया। तब इस तथ्य से बिल्कुल अनजान था कि मंगल महज एक दिन का ही नाम नहीं, बल्कि मांगलिक आयोजन का भी द्योतक है।

परिवार में धार्मिक माहौल होने से एकादशी, पूर्णिमा आदि की अक्सर चर्चा होती थी। खासकर एकादशी के पारण के मुहूर्त के अनुसार समय की सटीक जानकारी के लिए पड़ोस में किसी घड़ी वाले के पास जाना पड़ता था। सो एकादशी के बारे में तो काफी कम उम्र में ही समझ गया था, मगर आस-पड़ोस में किसी की मृत्यु होने पर क्षौरकर्म के बाद ग्यारहवें-बारहवें दिन को एकादशा-द्वादशा कहे जाने से मैं असमंजस में पड़ जाता। और संयोग से यह एकादशा-द्वादशा यद‌ि एकादशी के दिन या उसके तत्काल बाद आता तो मेरा बाल मन महज "ई" की मात्रा के "आ" में बदल जाने से इसके मायने में आए बदलाव को लेकर उलझन में पड़ जाता। हमारे यहां वर्षा को बरखा कहने का भी चलन है। यहां तक तो ठीक था, लेकिन किसी की मृत्यु के एक वर्ष पूरे होने पर जब बरखी का आयोजन होता, उस समय भी "आ" और "ई" की मात्रा को लेकर मैं दुविधा में पड़ जाया करता था।

गांवों के लोगों में अपनापन की भावना अपेक्षाकृत अधिक प्रगाढ़ होती है। लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में आगे बढ़कर हिस्सा लेते हैं। खासकर किसी के निधन की सूचना मिलने पर अंतिम दर्शनों के लिए कदम सहज ही बढ़ जाया करते हैं। ऐसे में कई बार कई बार मैं भी परिवार के किसी बुजुर्ग के साथ हो लेता। आज से चार दशक पहले गांव में न तो डॉक्टर होते थे और न पास के कस्बे या शहर से उन्हें बुलाने की व्यवस्था थी, जो किसी की मृत्यु की पुष्टि करे। ऐसे में गांव में प्रैक्टिस करने वाले क्वेक ही मरणासन्न व्यक्ति को देखकर उसकी मृत्यु की घोषणा कर देते थे। कई बार टोले-मोहल्ले के कुछ विशेष पढ़े-लिखे तथाकथित "समझदार" यह दायित्व निभाते थे। वह मरणासन्न व्यक्ति की कलाई पकड़कर कुछ महसूस करने की कोशिश करते और फिर घोषणा कर देते- खतम हई खेल...नाड़ी कट गेलई। यह सुनकर मुझे बड़ा अचरज होता था कि कलाई से खून तो निकल नहीं रहा, फिर नाड़ी कैसे कट गई...
आज सुबह एक भाभी से बात की तो उन्होंने गांव में इस साल वर्षा के बजाय बरखा शब्द का इस्तेमाल किया तो बचपन की यादें बरबस ही स्मृति पटल पर हलचल मचाने लगीं तो मैंने इन्हें फेसबुक की दीवार पर टांग देना ही उचित समझा।  

Friday, August 14, 2020

दोस्ती का क्यूआर कोड

एलएस कॉलेज में बीए फर्स्ट ईयर की पढ़ाई शुरू ही हुई थी। विद्यार्थियों का अभी आपस में ढंग से परिचय भी नहीं हो पाया था। तीसरा-चौथा ही दिन रहा होगा। इंग्लिश की क्लास के बाद एक पीरियड लीजर था। इसके बाद साइकोलॉजी की क्लास थी। सो कई विद्यार्थी जाकर साइकोलॉजी की क्लास में बैठ गए। वहीं, कई विद्यार्थी डेस्क पर नोटबुक रखकर बाहर चहलकदमी कर रहे थे। 15-20 मिनट हुए होंगे कि द्वारपाल ने आकर बताया कि साइकोलॉजी वाली मैडम आज नहीं आएंगी। अंतिम पीरियड होने के कारण सभी विद्यार्थियों ने अपने-अपने घर की राह पकड़ ली। मेरी सीट के बगल वाली डेस्क पर एक नोट बुक रखी थी। मैंने थोड़ी देर इंतजार किया और फिर अपनी नोटबुक के साथ ही दूसरी डेस्क वाली नोटबुक भी उठाकर बाहर निकल आया और बरामदे में इंतजार करने लगा। साइकोलॉजी की क्लास के लिए निर्धारित समय से पहले एक विद्यार्थी आए। क्लास में सन्नाटा पसरा था। डेस्क से उनकी नोटबुक भी नदारद थी। उनकी आंखों में कई सवाल तैर रहे थे। तब तक उनकी नोटबुक पर लिखा नाम मैं देख चुका था। मैंने नाम लेकर उन्हें पुकारा और पूरी बात बताते हुए नोटबुक दी। वे बहुत खुश हुए। हम दोनों में परिचय हुआ। पता चला कि उन्होंने मुझसे दो साल पहले मैट्रिक की परीक्षा पास की थी और उसके बाद  टीचर्स ट्रेनिंग करने चले गए। वहां की पढ़ाई पूरी करने के बाद अब कॉलेज का रुख किया है। हम दोनों साथ ही कॉलेज से निकले। वे मुझे साथ लेकर छाता चौक स्थित बंशी स्वीट्स गए और क्रीम रॉल खिलाया। एक अन्य कॉलेज से इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए दो साल मुजफ्फरपुर में रहने के बावजूद मैं पहली बार क्रीम रॉल का लुत्फ उठा रहा था। मैं जहां अपने परिवार से कॉलेज की पढ़ाई के सिलसिले में बाहर रहने वाला पहला लड़का था, वहीं उनके सबसे बड़े भैया पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी कर रहे थे, जबकि दूसरे बड़े भाई यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे और दोनों साथ ही रहते थे। इस वजह से भी हमारे सहपाठी मेरी तुलना में शहर के रहन-सहन से ज्यादा अच्छी तरह वाकिफ थे। वहीं उनके बात-व्यवहार में भी एक अलग सलीका दिखता था। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान एटिकेट्स से लेकर साहित्यिक अभिरुचि तक को विकसित करने में उनसे काफी कुछ सीखने को मिला। ईश्वर की कृपा है कि आज भी मैं उनके संपर्क में हूं और उनसे कुछ न कुछ सीखने का सुअवसर मिलता ही रहता है।  

कॉलेज की पढ़ाई के बाद नौकरी की जद्दोजहद शुरू हो गई थी। किसी भर्ती परीक्षा के लिए बैंक ड्राफ्ट बनवाने के लिए हाजीपुर में स्टेट बैंक में कतार में लगा था। इसी बीच एक हमउम्र नौजवान वहां आया। वह काफी परेशान दिख रहा था। मेरे पूछने पर उसने बताया कि वह बचपन से ही शिलांग में रहा है। पूर्वोत्तर से ही उसने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और अब शिलांग में प्राइवेट नौकरी कर रहा है। उसका पैतृक गांव वैशाली जिले में है, मगर उसे यहां के बारे में कुछ भी पता नहीं है। इसे संयोग ही कहेंगे कि हमारे गांव के समीपवर्ती बैंक के एक स्टाफ अब हाजीपुर की उसी शाखा में तबादला होकर आ गए थे और उनसे मेरा परिचय भी था। उनकी मदद से उस युवक का बैंक का काम अपेक्षाकृत जल्दी हो गया। तब तक मेरा भी बैंक ड्राफ्ट बन गया था। संयोग से अगले ही महीने मुझे एक भर्ती परीक्षा के सिलसिले में शिलांग जाना था और पूर्वोत्तर का वह इलाका मेरे लिए काफी अनजान और दुर्गम भी था। मैंने जब उससे यह बात बताई तब उसने बड़ी ही सहृदयता से अपना पता दिया। शिलांग जाने पर उनसे मिला। शहर से काफी दूर उनके घर जाने का सुअवसर भी मिला। वहां पूर्वोत्तर के ग्रामीण परिवेश से भी साक्षात्कार हुआ। उनके पिताजी पनबिजली घर में काम करते थे। पहली बार वहां टरबाइन को देखकर महसूस किया कि बिजली में परिवर्तित होने के दौरान पानी कितनी तेजी से चीखता है। अफसोस, उस समय मोबाइल का चलन नहीं था और लैंडलाइन फोन हर किसी के वश की बात नहीं थी, इसल‌िए संपर्क सूत्र छूट गया। हालांकि आज भी उनके साथ खिंचाई गई फोटो उनकी याद दिलाती रहती है। आशा है, जीवन में किसी न किसी मोड़ पर अवश्य ही दुबारा मुलाकात होगी। 

पांच-छह साल पहले की बात है, मरुधर एक्सप्रेस में जयपुर से लखनऊ आ रहा था। ट्रेन रात में बांदीकुई पहुंचती है। वहां मेहंदीपुर बालाजी के दर्शन के बाद लौटने वाले काफी श्रद्धालु यह ट्रेन पकड़ते हैं। सो उन  यात्रियों के आने से नींद बाधित न हो, इसलिए मैं बांदीकुई स्टेशन के बाद ही सोना मुफीद समझता हूं। उस बार भी सोने की तैयारी कर रहा था कि श्रद्धालुओं का एक समूह मेरे कूपे में आया। सभी अपना सामान जमाने के बाद गपियाने में लग गए। उनकी बातों से बेखबर मैं  सोने का उपक्रम करने लगा और न जाने कब नींद आ गई। सुबह जगने के बाद नया ज्ञानोदय के पन्ने पलट रहा था। इसी बीच ऊपर की बर्थ से एक सज्जन उतरे और मुझसे पत्रिका मांगी। बातों ही बातों में परिचय हुआ। पता चला कि वे इंटर कॉलेज के प्राचार्य हैं। हिंदी साहित्य  उनका विषय रहा है। फिर तो विभिन्न मुद्दों पर चर्चा शुरू हो गई। हम दोनों ने एक-दूसरे के फोन नंबर लिए। उनके पूछने पर मैंने बताया कि मैं भी फेसबुक पर हूं। हाथोंहाथ फ्रेंड रिक्वेस्ट के आदान-प्रदान के साथ कन्फर्मेशन की प्रक्रिया पूरी की गई। उनकी फेसबुक वॉल पर सारे आलेख रोमन इंग्लिश में थे। उन्होंने देवनागरी में न लिख पाने की परेशानी बताई तो मैंने अपनी अल्पज्ञता की सीमा में ही निदान सुझा दिया। उन्होंने वादा किया कि अब वे हिंदी में ही लिखेंगे। उनके पास अध्यात्म से लेकर साहित्यिक और जीवन दर्शन के ज्ञान का अकूत भंडार है। ...और तबसे रोज वे तड़के तीन से चार बजे तीन-चार आलेख अपनी फेसबुक वॉल पर पोस्ट कर देते हैं। इससे मेरी ही नहीं, मेरे जैसे सैकड़ों लोगों के जीवन जीने की राह हमवार होती है।  
 
कई अन्य मित्रों के ऐसे भी अनुभव पढ़ने-सुनने में आए हैं जब कुछ ऐसा संयोग बना जब लोग दो जान एक दिल बनकर सदा-सदा के लिए एक-दूसरे के हो गए। एक मित्र की सुनाई आपबीती याद करता हूं। अखबार में काम करने वाली एक लड़की रास्ते में अचानक आई बारिश में बुरी तरह भीगने के बाद दफ्तर पहुंची तो वहां उसके साथ काम करने वाले युवक ने अपना कोट उसे दे दिया। कोट की गरमाहट जीवन में ऐसी घुली कि दोनों आज एक आदर्श पति-पत्नी के रूप में जीवन यापन कर रहे हैं। ऐसे ही एक लड़की ने कॉलेज कैंपस में एक युवक से किसी टीचर की क्लास के बारे में पूछा। युवक ने ना में सिर हिला दिया। लड़की ने खुद जाकर देखा तो उन टीचर की क्लास चल रही थी। लड़की लौटकर आई और गुस्से में झल्लाकर बोली, क्लास तो चल रही है। युवक भी रौ में था। बोल पड़ा-मैं क्या द्वारपाल हूं कि सबकी जानकारी रखूं। बात आई-गई हो गई। लेकिन दोनों को एक-दूसरे को यह अदा ऐसी भाई कि दोनों अग्नि के गिर्द सात फेरे लेकर जनम-जनम के लिए एक-दूजे के हो गए। 
हम सभी के जीवन में पढ़ाई से लकर नौकरी तक, बस और ट्रेन के सफर से लेकर स्थान विशेष पर प्रवास तक, ब्लॉग से लेकर फेसबुक तक...ऐसे कई लोग मिले हैं जो जीवन का अभिन्न अंग बन गए हैं। जिनकी मदद से हमारी जिंदगी की गाड़ी फर्राटे भर रही है, वरना न जाने कैसे कहां हिचकोले खाती रहती। ऐसा महसूस होता है कि ऊपर वाले ने हम सभी के अंदर दोस्ती का क्यूआर कोड इंस्टॉल किया हुआ है। जिन दो लोगों के बीच दोस्ती का यह क्यूआर कोड मैच हो जाता है, वे सदा-सर्वदा के लिए दोस्ती के बंधन में बंध जाते हैं। क्या खयाल है आपका...जरूर बताइएगा।

Tuesday, August 11, 2020

झूला लगे आम की डाली

झूला लगे आम की डाली

मानव मन सदा कल्पनाओं के झूले पर सवार रहता है, ऐसे में उसे अपने अंदर संजोकर रखने वाले शरीर को भी तो झूलने का कोई अवसर चाहिए ही। शायद इसीलिए झूले की ईजाद की गई। द्वापर युग से जुड़ी कथाओं में सावन में गोपियों संग श्रीकृष्ण के झूला झूलने का उल्लेख है। शायद इसीलिए आज भी वृंदावन के साथ ही देशभर में भगवान श्री कृष्ण के मंदिरों में सावन महीने में झूला महोत्सव मनाया जाता है। वहीं कई राज्यों में नवयुवतियां विवाह के बाद पहले सावन में ससुराल में नहीं रहती हैं। मगर प्रेम में पगे दिल को परंपराओं के बंधन कहां सुहाते हैं। मायके में आने के बाद सावन की फुहारों के बावजूद विरह की आग नहीं बुझती हैं तो वे सहेलियों के साथ बगीचे में कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं।

वहीं बिहार के वैशाली जिला स्थित हमारे गांव में भादो महीने में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर झूला झूलने का चलन है। गांव के पश्चिम में होने के कारण हमारे टोला को पछियारी टोला कहते हैं। कभी यहां आम के काफी बगीचे थे, इसलिए हमारे टोले को गाछी टोला भी कहा जाता था। हालांकि उतने अधिक बगीचे तो मैंने नहीं देखे, लेकिन हमारे दरवाजे के सामने ही आम का बहुत बड़ा बगीचा था। घर के आस-पड़ोस में भी आम के कई पेड़ थे। जन्माष्टमी पर इन्हीं पेड़ों पर झूला लगाए जाते।
हफ्ता भर पहले ही सावन पूर्णिमा पर राखी बंधवाते समय बहनों की खुशी के लिए कुछ भी कर गुजरने का वादा करने वाले भाइयों के लिए जन्माष्टमी का त्योहार बहनों पर इम्प्रेशन जमाने का भी अवसर होता था। ऐसे में नौजवान दो दिन पहले से ही झूला लगाने की तैयारी में जुट जाते थे। बांस और ताड़ का छज्जा काटकर लाते और उसे तराशा जाता। झूला के लिए दो तरफ से दो बांस लगाए जाते और ताड़ के छज्जे के डमखो (डंठल) को कूंचकर बांस के ऊपरी सिरे को उससे बांधकर आम के पेड़ पर काफी ऊंचाई पर लटकाया जाता। ...और नीचे बांस के दोनों सिरों में ताड़ के डमखो को कूंचकर उसमें हेंगा (पाटा) को बीच में फंसाया जाता। कई बार ताड़ के डमखो के स्थान पर साइकिल के पुराने टायर का भी इस्तेमाल किया जाता था। एल्यूमिनियम के तारों से इनको बड़ी मजबूती से बांधा जाता था।  

जन्माष्टमी के दिन तड़के ही झूला झूलने का दौर शुरू हो जाता था। बड़ी लड़कियां अपनी सहेलियों के साथ झूले पर जब दोनों छोर से मचक्का (पींगें ) मारतीं तो झूला आकाश से बात करने लगता। पर्दा प्रथा के कारण  परिवार की बहुओं का बाहर निकलना संभव नहीं था, सो कई नवविवाहित बहुएं अपनी ननदों की खुशामद कर पौ फटने से पहले झूले का आनंद लेतीं। वहीं, जिन बहुओं का नंबर नहीं आ पाता और यदि झूला दिन भर अनवरत सेवाएं देने के बाद भी सलामत बच जाता तो वे शाम के धुंधलके में अपने अरमान पूरे करतीं। इस तरह वे ससुराल में रहकर भी अपने मायके की स्वच्छंदता को जी लेती थीं।

हम बच्चों के लिए उस झूले का लुत्फ उठाना खतरे से खाली नहीं था, सो हमें उस पर झूलने की इजाजत नहीं थी। मगर भावनाएं तो हमारे भी हृदय में हिलोरें लेती रहती थीं, सो हमारी बाल मंडली खेत में हेंगा (पाटा) को बांधने के काम में आने वाली बरही और पीढ़ा लेकर गाछी में चले जाते और अपेक्षाकृत कम ऊंजाई वाली आम के पेड़ की डाली पर रस्सी डालते हुए उस पर पीढ़ा फंसाकर झूले का रूप देते। इसके बाद तलाश की जाती एक चींटी की, जिसे सबसे पहले झूला झुलाया जाता। साथ में हम बच्चे समवेत स्वर में गाते-
तोरा मायो न झुललकऊ, तोरा बापो न झुललकऊ, तोरा हमहि झुललिअऊ...
अर्थात तुम्हें मां ने भी नहीं झुलाया, तुम्हें पिता ने भी नहीं झुलाया, तुम्हें हम ही झुला रहे हैं। यह एक तरह का टोटका भी था कि जब हम झूलें तो उस दौरान रस्सी न टूटे।

सरगही का सुपर क्रेज

भगवान कृष्ण की महिमा के बारे में तो बड़े-बड़े विद्वान नहीं जान पाए तो हम बच्चे क्या समझ पाते, लेकिन परिवार के बड़े लोगों की देखा-देखी हम भी जन्माष्टमी पर उपवास रखते थे। हर घड़ी जिन बच्चों का मुंह चलता ही रहता है, वे दिन भर भूखे कैसे रहेंगे, इसे देखते हुए मां तीन-चार दिन पहले से ही पर्याप्त व्यवस्था कर लेती थी। जन्माष्टमी के दिन तड़के साढ़े तीन-चार बजे हम बच्चों को जगाकर चिवड़ा-दही-केला आदि खिला दिया जाता। भोर के इस भोजन को हमारे यहां सरगही कहा जाता है। सरगही के बाद उपवास शुरू हो जाता। बाल मंडली को दिन में एकाध बार शरबत पीने की छूट भी मिल जाती थी।
भगवान कृष्ण के नाम पर उपवास किया जाता था, सो कुछ भक्ति भाव का होना भी जरूरी था। कृष्ण भगवान का कोई मंदिर हमारे आसपास नहीं था, सो दोपहर में हम नहा-धोकर शिव मंदिर जाते और भगवान आशुतोष का जलाभिषेक करते।

पंगत में फलाहार

ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म आधी रात में हुआ था, सो परिवार के बड़े लोग तो रात के 12 बजे घरों में ही श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाने के बाद व्रत का पारायण करते, वहीं कुछ लोग सुबह में ही व्रत खोलते, लेकिन बच्चों के लिए इतना लंबा अंतराल...आधी रात तक कैसे जगे रहते और अगर बच्चे सो जाएं तो उन्हें जगाना और भी मुश्किल। सो बीच का रास्ता निकालते हुए बच्चों को फलाहार की छूट दे दी जाती थी। सूर्यास्त होने के बाद आंगन में बच्चों की पंगत लगती और हम सभी दूध-केला, साबूदाना की खीर, आम, अमरूद आदि का भोग लगाते।

चलते-चलते
बदलते हुए समय के साथ सब कुछ महज पुराने दिनों की यादें बनकर रह गई हैं। अब न तो वे आम के पेड़ रहे और न झूला लगाने का वह उत्साह ही बचा। मगर झूला झूलने का मोह तो नई पीढ़ी के बच्चों में भी बरकरार है, सो छत की कड़ी में रस्सी बांधकर वे दो-चार पींगें भर लेते हैं। ...एक बात और। बचपन से ही देखता आया हूं कि जन्माष्टमी दो दिन होती है। इस बार भी कुछ वैसा ही रहा। लखनऊ में आज जन्माष्टमी है, जबकि बिहार में कई स्थानों पर मंगलवार को ही जन्माष्टमी मना ली गई। मुजफ्फरपुर से एक दोस्त ने जन्माष्टमी पर छत की कड़ी से बंधी रस्सी पर झूलते बच्चे का वीडियो शेयर किया तो बरबस ही बचपन के दिनों की यादें ताजा हो आईं।

Sunday, August 2, 2020

राखी का त्योहार : भावनाओं को भुनाता बाजार

मई-जून की चिलचिलाती धूप की तपन को कभी रिमझिम कभी झमाझम से बुरी तरह धोकर संपूर्ण जीव जगत और वनस्पति को तृप्त-संतृप्त कर देने वाले सावन की पूर्णाहुति भाई-बहन के प्यार के पर्व रक्षाबंधन से होती है। चंद घंटों के बाद ही क्षितिज पर भगवान भास्कर की लालिमा के साथ यह पवित्र पर्व एक बार फिर दस्तक देने वाला है। दफ्तर से लौटा हूं और न जाने पिछले कितने वर्षों की यादें किसी फिल्म के फ्लैश बैक की तरह  दिमाग में धमाचौकड़ी मचाने लगी हैं।

बचपन के दिनों में राखी के त्योहार पर उत्साह-उमंग का एक अद्भुत माहौल हमारे मन में ही नहीं, वातावरण में भी व्याप जाता था। तब खाली जेब की मजबूरी और इस मौसम में खेती के कामों की अधिकता लोगों को बाजार जाने की इजाजत नहीं देती थी। बहनें गांव में साइकिल से फेरी लगाने वाले से ही राखी खरीदती थीं। राखी भी अति साधारण-रंग-बिरंगे स्पंज वाली। हां, कुछ राखियां दो-तीन मंजिली होती थीं और उनका आकार और ऊंचाई कुछ ज्यादा हो जाया करती थी। कुछेक राखियों में चमकीली पत्तियां भी लगी होती थीं, मगर सबके मूल में स्पंज ही होता था।

रक्षाबंधन के दिन हम सुबह-सुबह नहा-धोकर तैयार हो जाते और दीदी के साथ ही छोटी बहन हमारे ललाट पर रोली का चंदन लगाकर हमारी कलाई पर अपने स्नेह का धागा बांधतीं। इसके बाद पेड़ा खिलाकर हमारा मुंह मीठा करातीं। तब गांवों में अक्सर सभी लोग गाय-भैंस पालते थे। ऐसे में पेड़ा बड़ी आसानी से घर पर ही बना लिया जाता था। तब बहन का मतलब केवल सगी बहनों से ही नहीं हुआ करता था। दीदी की सहेलियों और दोस्तों की बहनों के लिए भी हमारा स्थान उनके सगे भाई से कम नहीं होता था। सो कलाई से कोहनी तक  हमारा हाथ रंग-बिरंगी राखियों से सज जाता था और आस-पड़ोस में घूम-घूम कर एक दूसरे को अपनी राखियां दिखाया करते थे। 

समय बीतने के साथ बहुत कुछ बदल गया। पहले पढ़ाई और फिर रोजी रोजगार के लिए घर छोड़ना पड़ा और फिर रक्षाबंधन से कई दिनों पहले से आंखें डाकिये की आहट सुनने को बेताब रहती हैं। कई ज्ञात-अज्ञात कारणों से डाक विभाग के हिस्से का बहुत सारा काम कूरियर कंपनियों ने हथिया लिया है, सो कई बार राखियां कूरियर से भी आती हैं। अब तो बाजार में अनगिनत डिजाइन की राखियां नजर आती हैं। मिकी माउस, डोरेमान सरीखे कार्टून कैरेक्टर से होता हुआ राखियों का सफर अब फाइटर जेट विमान राफेल तक पहुंच चुका है। 
आज जब कोरोनावायरस की वैश्विक महामारी की वजह से हम दहशत के साए में जीने को विवश हैं, ऐसे में रक्षाबंधन का त्योहार भी इससे अछूता नहीं रह पाया है। वहीं ऑनलाइन मार्केटिंग कंपनियों ने इस आपदा को अवसर में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। 
पीतल जैसी चमकीली तारों से बुनी करीब चार इंच परिधि वाली खिलौना नुमा टोकरी में एक सिंपल राखी, अक्षत के आठ-दस दाने, नाममात्र की रोली और एक रुपया में चार के हिसाब से मिलने वाली सुनहरे कागज में लिपटी कुल जमा पंद्रह टॉफियां...और  कीमत ढाई सौ में एक रुपया कम...मात्र दो सौ उनचास रुपये। इस व्यापार को क्या कहा जाए। भाई के लिए बहन का स्नेह अनमोल है, चंद रुपयों में उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, लेकिन भाई तक अपनी स्नेहिल भावनाओं को भेजने के लिए इतनी अधिक कीमत वसूलने को कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता।



Thursday, July 30, 2020

बाबू आउटडेटेड हुए, ईया हुईं इतिहास

बाबू आउटडेटेड हुए, ईया हुईं इतिहास

दीदी की जब शादी हुई, तब मैं आठ-नौ साल का था। दीदी का मेरे प्रति  अत्यधिक स्नेह भाव मुझे बार-बार उससे मिलने के लिए विवश करता था, मगर अकेले बच्चे  को भेजना मुश्किल, उसे साथ कौन लेकर जाए, सो मन मारकर रह जाता। हालांकि थोड़े समय बाद ही बालमन फिर मचलने लगता, तो मां के माध्यम से दुबारा बाबूजी की अदालत में अर्जी डाल दी जाती। आस-पड़ोस के कई अन्य परिवारों की रिश्तेदारी भी दीदी की ससुराल वाले गांव में थी। सो यदि उनमें से कोई वहां जाने वाला होता तो जरूरी हिदायतें देकर मुझे भी उनके साथ कर दिया जाता। मुझे तो मानों मुंहमांगी मुराद मिल जाती। मेरे पहुंचते ही दीदी का चेहरा भी खिल उठता। फिर वहां से मेरे लौटने के लिए भी ऐसे ही किसी जुगाड़ की तलाश की जाती और तब तक मुझे दीदी के पास रहने का मौका मिल जाता।

एक दिन दीदी के यहां बैठा था कि कई मजदूर महिलाएं खेत से मूंग की छीमी तोड़कर लाईं और अपनी-अपनी टोकरी कतार से लगाकर रख दी। तब मजदूरी में पैसे देने का चलन नहीं था। जिस फसल का काम होता, उसी में से कुछ हिस्सा बतौर मजदूरी दे दिया जाता था। उन्हीं महिला मजदूरों में से एक मॉनीटर की तरह एक-एक का नाम पुकारती। जिसका नाम पुकारा जाता वह अपनी टोकरी लेकर आगे आती। दीदी के ससुर तोड़ी हुई मूंग की छीमी का आकलन कर उसकी मजदूरी के बदले मूंग की छीमी उसकी टोकरी में छोड़कर बाकी अपनी ढेरी पर रख लेते। मेरे लिए यह सब नई बात नहीं थी। हमारे गांव में भी यह सब आम था। 

आज से 35-40 साल पहले बिहार के वैशाली और आसपास के जिलों में महिलाओं की पहचान उनके मायके या बड़ी संतान के नाम से होती थी। तब हमारे यहां मां को "माय" कहने का चलन था। सो उन्हें पुकारा जाता - रमबतिया माय, संतिया माय या फिर अमरितपुर वाली, सरसौना वाली। मगर दीदी की ससुराल में मॉनीटर बनी महिला अपनी साथी मजदूरों को उसकी बच्चे की  "माय" की जगह "मतारी" शब्द बोल रही थी। यह सुनकर मुझे कुछ अजीब सा लगता था। शायद इसीलिए कहते हैं कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी।

आज तो शहरी कल्चर ने इस कदर गांवों में सेंधमारी कर दी है कि शब्दों का सोंधापन ही खो  गया है। मेरे बाद की पीढ़ी ने मां को माय की जगह मम्मी कहना शुरू कर दिया था और अब तो मम्मी शब्द से स्त्रीबोधक "ई" ध्वनि की भी विदाई कर दी गई। बच्चे मां को मम्मा कहने लगे हैं। वहीं, हमारे जमाने में बच्चे पिता को बाबू कहते थे। लड़कियां शादी के बाद माता-पिता-घर-परिवार छोड़कर भले ही ससुराल आ जाती हैं, लेकिन मायके के संस्कार को सहेजकर लाना नहीं भूलतीं। मेरी मां और मौसी-मामू मेरे नानाजी को बाबूजी कहकर बुलाते थे, शायद इसीलिए हम भाई-बहन भी अपने पिता को बाबूजी कहना सीख गए, लेकिन चाचाओं को बड़का बाबू और छोटका बाबू ही कहते थे। अफसोस, आजकल तो गांवों में बच्चे पिता को बाबू क्या, बाबूजी कहने में भी शर्म और पापा व डैडी कहने में शान महसूस करते हैं। हां, नई पीढ़ी अपने बच्चों को "बउआ" के बदले "बाबू" जरूर कहने लगी है।

एक और बात याद आती है। हमारी एक चाची को उनके बच्चे "ईया" कहकर बुलाते थे, सो हमलोग भी उन्हें "ईया" ही कहते थे। संभव है वो चाची अपनी मां को ईया कहती  रही हों और मायके से उनके साथ चलकर यह शब्द हमारे घर तक भी पहुंच गया हो। बरसों पहले इस दुनिया से ईया की रुखसती के साथ ही यह शब्द भी इतिहास बनकर  रह गया। तब दादा को "आजा" और दादी को "आजी" भी कहते थे। हालांकि किसी को  इन संबोधनों से अपने दादा-दादी को पुकारते हुए तो मैंने नहीं सुना, लेकिन कई बुजुर्ग महिलाओं के मुंह से किसी दूसरे के दादा-दादी के लिए आजा-आजी शब्द का जिक्र करते जरूर सुनता था। 

उस जमाने में कोई विशेष वस्तु भी किसी व्यक्ति की पहचान बन जाया करती थी। दफादार रहे मेरे एक बाबा लाठी टेकते हमारे घर के पास चौक पर आते थे। सो हम उन्हें "लाठी बाबा" कहकर पुकारते थे। इसी तरह हमारी पट्टीदारी के एक चाचा शिक्षक थे। उनका स्कूल  अपेक्षाकृत अधिक दूर था। तो शायद अपने परिवार में उन्होंने ही सबसे पहले साइकिल खरीदी, इसलिए बच्चों ने उनका नाम "साइकिल बाबा" रख दिया। इसी तरह परिवार में सबसे छोटे चाचा को पहले "लाल चाचा" और सबसे छोटी चाची को "कनिया चाची" कहते थे। ये संबोधन भी अब यादों में ही जिंदा हैं। ऐसे ही बहुएं अपनी सास को "सरकारजी' कहती थीं। हमारे देखते ही देखते सासू मां के लिए बहुओं का संबोधन "अम्माजी" से होता हुआ अब "मम्मीजी" तक पहुंच चुका है।   

लंबे अंतराल के बाद किशनगंज से सुबह एक बिटिया ने फोन किया। उसका नंबर मेरे मोबाइल में सेव नहीं था। सो परिचय पूछने पर जब उसने मुझे मोहन काकू कहा तो 1991 से 1994 तक किशनगंज में बिताए सुनहरे दिनों की मीठी यादों के साथ ही बरसों पुराने ये संबोधन जेहन में सरगोशियां करने लगे। वरना आज तो भाई और दोस्तों के बच्चों की कौन कहे, बहनों और साले-सालियों के बच्चे भी मामा और फूफा-मौसा के बजाय अंकल ही बोलने लगे हैं। 

Thursday, July 23, 2020

आम की गुठली से निकलती मीठी तान

प्रकृति की लीला अपरंपार है। प्रकृति हमारी जरूरतों का न केवल ध्यान रखती है, बल्कि उन्हें पूरा भी करती है। तभी तो वैशाख-ज्येष्ठ में सूर्य का ताप जब हमारे लिए संताप का सबब बन जाता है, तो प्रकृति फलों के राजा आम का वरदान हमारी झोली में डाल देती है। जानलेवा लू से बचाव के लिए कच्चे आम को पकाकर उससे बने पना के ठेले जगह-जगह सड़कों के किनारे नजर आने लगते हैं। ..और फिर समय बीतने के साथ देखते ही देखते कुछ ही दिनों में आम हमारे जीवन में मिठास का अमृत घोलने के लिए हाजिर हो जाता है।

फिर तो आषाढ़-सावन की कौन कहे, भादो तक लोग आम की विभिन्न प्रजातियों का जमकर लुत्फ उठाते हैं। यही नहीं, इस मिठास को आम के सीजन के बाद भी संजोए रखने के लिए अमौट (मैंगो केक) भी बनाया जाता है। आजकल तो अत्याधुनिक तकनीक से बने मैंगो ड्रिंक और मैंगो जूस सालभर उपलब्ध रहते हैं। मगर अफसोस, मानव-मन मिठास की एकरसता से भी ऊब जाता है। ऐसे में चटपटी चटखार से भरपूर आम का अचार साल दर साल हमारे भोजन की थाली की शोभा बढ़ाता है। कहते हैं कि जितना पुराना अचार हो, उतना ही अधिक स्वादिष्ट होता है।

अस्तु, शहरों में तो लोग बस आम की मिठास से ही मतलब रखते हैं। आम का छिलका और गुठली उनके कचरापात्र का पेट भरती है। मगर गांवों में आदमी की बेकारी के अलावा और कुछ भी बेकार नहीं होता। वहां हर वस्तु की अपनी उपयोगिता होती है। गांवों में आम का छिलका पशुओं को खिला दिया जाता है तथा आने वाली पीढ़ियां भी आम की मिठास का लुत्फ उठा सकें, इसके लिए गुठलियां धरती मां को सौंप दी जाती हैं। धरती माता की गोद में ये गुठलियां जीवन पाकर धन्य हो जाती हैं।

हमारे गृहराज्य बिहार के वैशाली समेत आस-पड़ोस के जिलों में आम की गुठली से निकले पौधे को "अमोला" कहा जाता है। एक स्थान पर सैकड़ों गुठलियां होने के कारण अमोला का समुचित विकास नहीं हो पाता। इसलिए एक-डेढ़ फीट का होने पर अमोले को अन्यत्र रोप दिया जाता है। इसके साथ ही ये अमोला विशेष किस्म के आमों में कलम बांधने के भी काम आते हैं। शहरों के समीपवर्ती गांवों में तो नर्सरी वाले थोक के भाव अमोला खरीदकर ले जाते हैं। इस तरह लोगों को गुठलियों के भी दाम मिल जाते हैं। शायद इसीलिए कहा गया है-आम के आम, गुठली के दाम।

शहरों में तो संपन्न माता-पिता बच्चों के लिए ढेर सारे कीमती खिलौने खरीद लाते हैं, लेकिन गांवों में जब विपन्न अभिभावकों के लिए परिवार का पेट पालना ही समस्या हो, तो बच्चों के लिए खिलौने खरीदने की बात सोचना भी संभव नहीं। मगर, बच्चे तो बच्चे होते हैं। संपन्नता और विपन्नता की सीमाओं को बालमन क्या समझे। उसे तो मन बहलाने के लिए कुछ चाहिए। तभी तो शहर के बच्चे बंद कमरे की फर्श पर बैटरी की गाड़ियों को रिमोट से दौड़ाने में जो आनंद उठाते हैं, उससे कहीं अधिक आनंद गांव के बच्चे साइकिल के पुराने टायर को डंडे से मारकर भगाते हुए उसके पीछे दौड़कर उठाते हैं। गांवों के साधन विहीन बच्चे न जाने मनोरंजन के लिए ऐसे ही और कितने साधन ईजाद कर लेते हैं। इन्हीं में एक है आम की गुठलियों से बनने वाली सीटी।

बीज में वृक्ष के छुपे होने का दर्शन और आम की किस्मों को अगली पीढ़ियों के लिए महफूज रखने जैसे महान उद्देश्यों की बात तो बड़े-बुजुर्ग जानें, बच्चों को इनसे क्या काम। सो हम बच्चे अंकुर फूटती गुठलियों को निकाल लाते और उसका छिलका उतारकर गुठली के एक सिरे को ईंट या पत्थर पर घिसकर उसे सीटी की तरह बजाते। क्या खूब मीठी आवाज निकलती। हर बच्चा अपनी तरकीब से गुठली को घिसता और इससे निकलने वाली अलग-अलग आवाज समवेत रूप में अलग ही तरह का संगीत रचती। गुठलियों से बनी सीटी की वह मिठास आज भी दिल में रची-बसी है। अब जबकि आम का सीजन विदा लेने ही वाला है, बरबस ही बचपन में बजाई गुठलियों की सीटी की मिठास याद आ गई।  

विवाह की भविष्यवाणी

आम के पेड़ में बौर लगने के साथ ही हमारा दिल मानों आम की गाछी में ही अटका रहता था। जैसे ही टिकोला (अमिया) आकार लेता, हम बच्चे घर से नमक लेकर गाछी में पहुंच जाते। सितुआ (घोंघा की प्रजाति का एक जीव) में छेद कर उससे टिकोला को छीलते और उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता। फिर बाल मंडली उसमें नमक छिड़ककर चटखारे लेकर खाती। टिकोला को काटने पर उससे निकलने वाले बीज को हम "कोइली" कहते थे। वह बहुत चिकना होता था। उसे अंगूठे और तर्जनी में फंसाने के बाद किसी साथी का नाम का लेकर पूछते- इसकी शादी किस दिशा में होगी?  और फिर धीरे से दोनों अंगुलियों को धीरे से दबा देते। "कोइली" अंगुलियों से छिटककर जिस दिशा में जाती, हम समझते कि उस बच्चे की शादी उसी दिशा में होगी। ... तो इस तरह "कोइली" विवाह की भविष्यवाणी भी करती थी।

Tuesday, July 14, 2020

गोरलगाई, मुंहदिखाई


गोरलगाई, मुंहदिखाई...

भारतीय सनातन परंपरा में सोलह संस्कारों की बात कही गई है। हर संस्कार के साथ कई रस्में जुड़ी होती हैं और इन संस्कारों का असली आनंद इन्हीं रस्मों में छिपा होता है। इन सोलह संस्कारों में जन्म और विवाह के अवसर पर मनाई जाने वाली खुशियों के क्या कहने। हालांकि शिशु के जन्म के समय परिवार वाले भले ही उत्सव मनाते हों, मगर अबोध शिशु इन खुशियों का मतलब क्या समझे। हां, शादी के अवसर पर परिवारी जनों के साथ ही वर-वधू भी मोद-आनंद का भरपूर लुत्फ उठाते हैं।

विवाह में वर-वधू अग्नि के गिर्द सात फेरे लेकर अपनी अलग-अलग पहचान को उसी पवित्र अग्नि में होम करके दंपती के रूप में एकाकार हो जाते हैं, वहीं दोनों के परिवार भी संबंधों के अदृश्य डोर में बंध जाते हैं। मगर अफसोस, दो दिलों और दो परिवारों के जुड़ने के इस अमूल्य आनंद के उत्सव में दिखावे का चलन कहां से आ गया। तभी तो शादी में वधू के दरवाजे पर होने वाले थोड़ी देर के आयोजन में वर पक्ष वाले अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। गाड़ी-घोड़े के काफिले, बैंड-बाजे के साथ हर्ष फायरिंग तक दिखावे की हर रस्म निभाई जाती है। कई स्थानों पर तो कमर में तलवार लटकाए दूल्हा घोड़े पर बैठकर शादी करने जाता है और तोड़न मारकर ऐसा साबित करता है कि न जाने कितना बड़ा तीर मार दिया हो। 

संतोष की बात है कि बिहार में यह चलन नहीं है, इसलिए यह अपराध करने से मैं बच गया। मगर एक अन्य अपराधबोध आज भी सालता रहता है कि छठी से दसवीं तक रोजाना छह-सात किलोमीटर पैदल चलकर पातेपुर हाई स्कूल और फिर मुजफ्फरपुर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान किराए के आवास से करीब इतनी ही दूरी कदमों से नापने वाला मैं भी कार में बैठकर ही विवाह करने गया था। हांलाकि, यह अपराधबोध इस बात से थोड़ा कम अवश्य हो जाता है कि वह कार मेरे लंगोटिया यार के भैया की थी और मेरे प्रति सहज स्नेह के कारण भैया खुद उसे चलाकर ले गए थे।

अस्तु, वरमाला के आयोजन तक दूल्हे के चेहरे पर गजब सी शोखी छायी रहती है। मंडप पर पहुंचने के बाद शादी के दौरान पंडित जी के बोले गए मंत्रों को उनके पीछे-पीछे दुहराते हुए और उनके निर्देशों का पालन करते हुए दूल्हे की अकड़ ढीली पड़ने लगती है। इस दौरान कदम-कदम पर महिला मंडली की टोकाटाकी रही-सही कसर पूरी कर देती है। फिर तो वह सर्कस के शेर की तरह बिना किसी ना-नुकर के रिंग मास्टर बनी महिला मंडली के निर्देशों को चुपचाप मानता जाता है।...और फिर आ जाती है विदाई की वेला। आनंद के क्षण अचानक बंद। जाते हैं विरह की वेदना में । रोती हुई नववधू अपनी मां-बहन-भाई समेत सभी परिवारी जनों के गले लगकर विदा लेती है।
...और दूल्हा...उस बेचारे की स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे नाटक के मंचन के समय निर्देशक किसी पात्र को मूकदर्शक बनकर खड़े रहने को विवश कर दे। होना तो यह चाहिए कि विदाई के इन क्षणों में दूल्हा विवाह समारोह में आए बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम कर नव गृहस्थ जीवन की सफलता के लिए उनका आशीर्वाद ले। मगर वधू पक्ष में सास-ससुर-साले-साली के अलावा उस परिवार के अधिक लोगों को वह जानता ही नहीं, सो किंकर्तव्यविमूढ़ सा टुकुर-टुकुर देखता रहता है। इस बीच वधू पक्ष के ज्येष्ठ-श्रेष्ठ लोग अपनी मुट्ठी में रखे हुए रुपये दूल्हे को थमाते हैं, तब दूल्हा तत्परता से झुककर उनके पैर छूता है। बिहार में हमारे यहां इसे गोरलगाई कहते हैं। ज्येष्ठ-श्रेष्ठ लोगों के पैर छूकर आशीर्वाद लेने की बात तो समझ में आती है, यह अच्छे संस्कार का परिचायक भी है, मगर रुपये देने के बाद औपचारिकतावश किसी के पैर छूना...कितना अव्यावहारिक लगता है...मगर आन-बान-शान और मान के साथ ससुराल की धरती पर पहला कदम रखने वाले दूल्हे को लौटते वक्त यह परंपरा निभानी पड़ती है। करीब 23 साल पहले मैंने भी निभाई थी...बेमन से ही सही।  
दुल्हन की बात करें तो माता-पिता के साथ ही अपना घर-परिवार छोड़कर एक नये जीवन के सफर पर चल देती है जहां सर्वथा अनजान परिवेश-परिवार से उसका सामना होता है। दुल्हन जब ससुराल आती है तो समारोहपूर्वक उसका स्वागत किया जाता है। बहू की सुन्दर सलोनी सूरत की एक झलक देखने के बाद सास उसे मनभावन उपहार देती है। फिर शादी समारोह में पहुंचीं महिलाओं के साथ ही टोले-मोहल्ले की महिलाएं एक-एक कर कोहबर घर में सिमटी सकुचाई नवविवाहिता दुल्हन को देखती हैं। गांवों में इसे मुंहदिखाई की रस्म कहा जाता है। रसिकहृदय सौंदर्य प्रेमियों ने रमणी की आंखों की व्याख्या अपनी-अपनी कल्पना और सौंदर्य बोध के हिसाब से की है। रूपसी की आंखों पर कवियों ने भी बहुत कुछ लिखा है, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, यह सब खुली आंखों के लिए ही कहा गया है। जबकि मुंहदिखाई की रस्म के दौरान दुल्हन अपनी आंखें बंद रखती हैं। इसके पीछे का तर्क मेरी समझ में आज तक नहीं आया।
कई मुंहफट महिलाएं दुल्हन के रूप-रंग को लेकर अव्यावहारिक टिप्पणी करने से बाज नहीं आतीं। सो मुंहदिखाई के समय दुल्हन की आंखें भले बंद रहती हों, लेकिन जहर बुझे ये बाण कानों से होकर उसके दिल में तो उतर ही जाते हैं। कई नवविवाहिताएं इस नकारात्मक टिप्पणी को चुनौती के रूप में लेते हुए आने वाले दिनों में अपने व्यवहार से सबका दिल जीत लेती हैं। तब पति या परिवार के अन्य सदस्यों के लिए उसके रूप-सौंदर्य की कमतरी कोई मायने नहीं रखती। ...और फिर आस-पड़ोस की महिलाओं के लिए वह आदर्श बन जाती हैं।

चलते-चलते

हमारे समाज में कोई भी परंपरा यूं ही बेमतलब नहीं हुआ करती। सबके पीछे कुछ न कुछ तर्क अवश्य ही होता है। पहले के जमाने में कहते थे-उत्तम खेती, मध्यम बान, निरघिन चाकरी, भीख निदान। तब खेती का समाज में सर्वोत्तम स्थान था। बान यानी व्यापार को मध्यम दर्जे का तथा नौकरी करने को निकृष्ट कर्म माना जाता था। तो खेती करने वाले परिवार के सद्य: विवाहित युवक के पास पैसे होना दूर की कौड़ी थी। ऐसे में नवविवाहिता पत्नी के लिए कोई उपहार लाने का मन हो या फिर दोस्तों को पार्टी-शार्टी देने की बात, तो उसके लिए गोरलगाई में मिला पैसा ही काम आता था। ऐसे ही मुंहदिखाई में मिले रुपये नवविवाहिता दुल्हन के लिए भी काफी महत्व रखते थे। बीतते हुए समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है, लेकिन संतोष की बात है कि गांवों ने अब भी ये परंपराएं संजोए रखी हैं।     

Sunday, July 12, 2020

ठेले पर मलिहाबाद

आम बस नाम का ही आम है, वरना इसकी खासियतें तो अनगिनत हैं, अनमोल हैं। तभी तो इसे फलों के राजा का ताज मिला है। अपनी अल्पज्ञता के कारण मैं जहां तक समझ पाया हूं, यह इकलौता फल है जो पेड़ पर लगने के बाद से पककर स्वत: डाल से गिरने तक हर रूप में अपने लुत्फ से हमें आह्लादित करता है। बौर झड़ने के बाद पल्लवों के बीच जैसे ही टिकोला या अमिया स्वरूप लेता है, इसकी खटास सबसे पहले अपने उदर में नवजीवन का कोंपल संजोए ममतामयी मां की पसंद बनती है। फिर इसकी चटनी हर थाली की शोभा बढ़ाती है। टिकोले में जब गुठली पूरा आकार लेता है तो अचार के रूप में इसके स्वाद को आने वाले वर्षों के लिए सहेज कर रख लिया जाता है। आम का पना जहां जानलेवा लू से बचाता है, वहीं मैंगो शेक की तरावट के क्या कहने।...और जब आम अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो इसकी अमृत सरीखी मिठास को अभिव्यक्त करने में शब्द कम पड़ जाएं। सीजन के बाद भी इसकी मिठास का रसास्वादन करने के लिए अमौट (मैंगो केक) बनाकर रख लिया जाता है। यदि कहूं कि आम की मिठास को निकाल दिया जाए तो जीवन में काफी बड़ा खालीपन आ जाएगा, अतिशयोक्ति नहीं होगी।

गांवों में तो बगीचों में आम के जितने पेड़, उतनी ही प्रजातियां होती हैं। रंग-रूप से लेकर आकार-प्रकार और स्वाद में एक से बढ़कर एक। ... और इन्हीं खासियतों के आधार पर इनका नामकरण भी कर दिया जाता है। जैसे-केले के आकार का है तो केरवा, सिंदूर सा रंग है तो सेंदुरिया, अधिक सन (रेशे) हों तो सनहा, बेल (बिल्व) के आकार का हो तो बेलवा, गुच्छों में फलता हो तो बरबरिया, सीप के आकार का हो तो सीपिया, अत्यधिक मीठा हो तो पूरनी मिठूबा, पकने के बाद भी खट्टापन बना रहे तो खटूबा....। गाछी में आम के जितने गाछ, उतने नाम और अलग-अलग लोगों की गाछी में अलग-अलग गाछ के अलग-अलग नाम। इस तरह एक ही गांव में सैकड़ों प्रजातियां।

कुछ आम के नाम स्थान विशेष के नाम पर भी होते हैं। जैसे-बंबइया। इस आम का मायानगरी बंबई (तब मुंबई नहीं हुआ था) से क्या कनेक्शन है, इसका तो पता नहीं, लेकिन नाम की तरह ही इसके स्वाद में भी जादू होता है। यह कच्चे में भी मीठा लगता है। इसलिए बच्चों की पहुंच से इसे बचाने के लिए विशेष जतन करने पड़ते हैं। मीडियम साइज का यह बंबइया आम अन्य आमों की तुलना में सबसे पहले पकता है और इसका स्वाद भी निराला होता है।  

इसी तरह एक आम है मालदह। रंग-रूप-आकार-सुगंध और स्वाद में इसे आमों का सरदार कह सकते हैं। मुझे यह आम सर्वाधिक पसंद है, इसलिए संभव है मैं इसकी तरफदारी कर रहा होऊं, लेकिन इसके दीवाने मेरी तरह और भी बहुत सारे होंगे, इसमें कोई शक नहीं। इसके झक्क सफेद रंग की वजह से इसे सफेद मालदह भी कहते हैं। बिना रेशे के भरपूर गूदेदार इस आम की गुठली पहुत ही पतली होती है। ...और मिठास के तो कहने ही क्या। यह हमारे पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल के मालदा जिले से जुड़ा है और बिहार तक पहुंचते-पहुंचते इसका नाम मालदह हो गया। बंगाल और बिहार के अलावा भी इस आम का जादू बरकरार है, मगर अफसोस इन दोनों राज्यों की सीमा पार करने के बाद इसका नाम लंगड़ा हो जाता है। अब आम के पैर तो होने से रहे कि वह लंगड़ा हो, मगर लोगों का क्या, अंधे का नाम नयनसुख रखने वाले यदि भले-चंगे सर्वगुण संपन्न मालदह आम का नामकरण लंगड़ा कर दें तो कौन क्या करे।

मालदह आम की खासियत के चलते एक छोटे से जिले का नाम हो जाए, यह बात बंगाल की राजधानी को कैसे रास आती, सो आम की एक और प्रजाति है कलकतिया मालदह। हालांकि रंग-रूप-आकार-स्वाद और मिठास सभी में सफेद मालदह के सामने इसकी स्थिति कहां राजा भोज, कहां गंगुआ तेली जैसी ही है।

पटना-किशनगंज रेल रूट पर दालकोला के आगे सूर्यकमल स्टेशन के पास सुरजापुर गांव है। 1991 में जब किशनगंज गया तो इस सुरजापुर गांव के सुरजापुरी आम का जादू लोगों के सिर पर चढ़कर बोल रहा था। आस-पड़ोस के जिलों पूर्णिया, कटिहार, सिलीगुड़ी और इससे आगे तक के लोग इस आम के मुरीद हैं। मैं भी जब तक किशनगंज रहा, सुरजापुरी आम का जमकर लुत्फ उठाया।

स्थान के नाम से प्रसिद्धि पाने वाले आम की बात करूं तो मलिहाबादी दशहरी का नाम बरबस ही सामने आ जाता है। लखनऊ के मलिहाबाद कस्बे की पहचान ही दशहरी आम से है। देश की कौन कहे, विदेशों तक में लोगों को भी शिद्दत से इसका इंतजार रहता है। जून मध्य से लेकर जुलाई मध्य तक लखनऊ की सड़कों के किनारे ठेलों पर जिधर नजर जाती है, दशहरी आम ही नजर आते हैं। ऐसा लगता है जैसे मलिहाबाद के आम के बागों ने ठेले पर ठिकाना जमा लिया हो। हालांकि अफसोस की बात यह है कि कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी से उपजे संकट के इस दौर में हर शख्स बेजार है। बाजार की रौनक ही खो गई है। ऐसे में आम के ठेले पिछले वर्षों की तुलना में इस बाार कम नजर आते हैं और इसके साथ ही मलिहाबाद के आम बागवानों के चेहरों पर भी मायूसी है। आशा है, अगले साल से फिर सब सामान्य रहेगा।

Saturday, July 11, 2020

रॉन्ग नंबर

दादीजी से मिलने कभी-कभार एक बूढ़ी अम्मा आया करती थीं। आज से करीब चार दशक पहले हमारे गांव में न तो चाय का चलन था और न ही आज जैसी औपचारिक आवभगत की जरूरत। दादीजी हुक्का पीती थीं, सो बूढ़ी अम्मा के आने पर हुक्के के लिए आग की चिंगारियां लाने के लिए कहतीं। जब मैं चिंगारियां लेकर आता और बूढ़ी अम्मा के पैर छूता तो वे अपने सफेद बालों में से दो-चार बाल नोचकर मेरे सिर पर रख देतीं और कहतीं-लखिया हो। अक्षर ज्ञान से अनजान, मगर व्यावहारिक ज्ञान से परिपूर्ण इन वृद्धाओं की गिनती बीस से आगे नहीं बढ़ पाती थी। दैनंदिन जीवन में कोई वस्तु जब बीस से अधिक हो जाती तो वे एक बीस, दो बीस के हिसाब से गिनती आगे बढातीं। लेकिन ममता और आशीर्वाद का खजाना लुटाने में वे किसी सीमा का ध्यान नहीं रखती थीं। उनके आशीर्वाद का आशय लाख वर्ष की उम्र से होता था।

ऐसी ही एक दूसरी दादीजी मेरे किशोरावस्था के दौरान आशीर्वाद देतीं-भगवान जल्दी तुम्हें एक रोटपकाई (भोजन पकाने वाली पत्नी) दें। मगर, अफसोस, केवल आशीर्वाद से कुछ नहीं होता। खुद का प्रारब्ध भी तो कोई चीज होती है। तभी तो मेरे किसी साथी की मैट्रिक की परीक्षा देने के बाद रिजल्ट आने से पहले ही शादी हो गई तो कोई इंटरमीडिएट और ग्रेजुएशन करते-करते एक से दो हो गया। वहीं मुझे यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी करने के बाद भी कई वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। आखिरकार जब अपना भी नंबर आ ही गया तो राज  खुला कि पत्नी केवल रोटी ही नहीं पकाती, अपने पर आ जाए तो दिमाग भी पकाती है। यही नहीं, मूड बना ले तो पति को पानी पिलाने में भी पीछे नहीं रहतीं।

कई साल जयपुर में साथ-साथ रहने के बाद पिंकसिटी में पत्नी को छोड़कर लखनऊ में लोनली रहने लगा तो पता चला कि शहरों में पानी एक निश्चित समय में आता है। और शायद इसीलिए शहर के लोगों की आंखों में गांव वालों की तुलना में पानी थोड़ा कम हुआ करता है। सो साहब, अखबार की नौकरी में रात ढाई-तीन बजे दफ्तर से लौटने के बाद चार बजे तक सोना हो पाता है और न चाहते हुए भी पानी भरने के लिए बेमन से ही नहीं छह से सात बजे तक उठना ही पड़ता है।

ऐसे ही कल सुबह पानी भरने के बाद सो गया था। जैसे ही आंख लगी थी कि मोबाइल की घंटी बजी।  दूसरी तरफ से पूछा गया-सुरेंद्र? मैंने रॉन्ग नंबर की बात कहकर उसे मना कर दिया और सो गया। कच्ची नींद खुलने के बाद बेचैनी की पीड़ा के कभी न कभी आप सभी भुक्तभोगी रहे हैं, उसका जिक्र करना क्या? 15-20 मिनट तक करवटें बदलने के बाद दुबारा नींद आई ही थी कि फिर मोबाइल की घंटी बजी। उठाया तो आवाज आई- विकास से बात करा दो। मैंने कहा-विकास तो पुलिस के एनकाउंटर में मर गया। जाने अब तक कहां से कहां पहुंच गया होगा। कैसे बात कराऊं? फोन करने वाले ने कहा, मैं कानपुर वाले विकास दुबे की बात नहीं कर रहा। मैंने कहा, मैं तो पिछले कई दिनों से चहुंओर बस एक ही विकास का नाम देख-सुन रहा हूं। उसने कहा, समझने की कोशिश करो, मैं विकास दुबे की नहीं, विकास यादव से बात कराने के लिए कह रहा हूं।  अब तक मेरी नींद काफूर हो चुकी थी। मैंने कहा-भलेमानस, कहां से बोल रहे हो? उसने कहा- अलीगढ़ के सिकंदरपुर से। विकास यादव से जरूरी बात करनी है। मैंने कहा, जाओ, आंख-मुंह धोकर ठंडा पानी पीओ और फिर अच्छे से नंबर देखकर दुबारा फोन मिलाओ। ...और इस तरह उससे विदा लेने के बाद मैंने सोचा कि नींद तो इसने उड़ा ही दी। अब मैं भी कुछ नाश्ता-पानी का जुगाड़ करूं।

इससे याद आया। 14-15 साल की बात है। दोपहर में खाना खाकर सोया था कि किसी महिला का फोन आया। श्रीमती ने फोन उठाया तो उधर से कोई महिला जीजाजी से बात कराने के लिए कह रही थी। अब किसी पुरुष के जीजाजी होने की तस्दीक पत्नी से बेहतर कौन कर सकता है। सो श्रीमती जी ने रॉन्ग नंबर कहकर मना कर दिया। लेकिन दुबारा-तिबारा वह रिंग करती रही और श्रीमती जी बार-बार मना करती रहीं। इस दौरान झल्लाहट की वजह से श्रीमती जी की आवाज का वॉल्यूम बढ़ जाने के कारण मेरी भी नींद खुल गई। पूछने के बाद माजरा समझ में आता तब तक फिर मोबाइल की घंटी बजने लगी। मैंने खुद कॉल रिसीव कर समझाने की कोशिश करनी चाही तो वह दक्षिण भारतीय महिला टूटी-फूटी हिंदी में मुझे ही कहने लगी, जीजाजी, आप झूठ बोल रहे हो। फोन ही नहीं उठाते हो।  बात नहीं करना चाहते। क्या बताऊं साहब, कैसे पिंड छुड़ा पाया। स्मार्ट फोन आने के बाद ट्रू कॉलर की सुविधा होने के बाद कॉल करने के बारे में पता चल जाता है, लेकिन क्या बताऊं, फीचर फोन से अपना पुराना नाता है और बात करने के लिए अमूमन मैं उसे ही उपयोग में लेता हूं।  संयोग ही कहें कि आज ही अमर उजाला में खबर देखी-स्मार्टफोन में जल्द बदल जाएंगे सभी फीचर फोन...तो उम्मीद जगी कि शायद आने वाले दिनों में रॉन्ग नंबर की परेशानी खत्म हो जाए...मगर अफसोस इसके साथ वर्षों से हमारा साथ निभा रहा फीचर फोन भी पेजर और टेलीग्राम की तरह अतीत की बात बन जाएगा।

Thursday, July 9, 2020

...कुशल चाहता हूं

बचपन के दिनों की बात है। कई महिलाएं अपने पति या बेटे के नाम चिट्ठी लिखवाने के लिए बड़का बाबू (ताऊजी) के पास आती थीं। मैं जब पांचवीं-छठी में आया होऊंगा तो बाबू ने उनकी चिट्ठियां लिखने का जिम्मा मुझे सौंप दिया।

"सोसती सिरी लिखा, यहां सब कुशल है, आपकी कुशलता के लिए भगवान से मनाते हैं"  से इन पत्रों की शुरुआत होती। हालांकि इन आठ-दस शब्दों में ही कुशलता की भावना दम तोड़ने लगती और पीड़ा का प्रवाह शुरू हो जाता। पिछले महीने ननकिरबा (नन्हा बेटा) बीमार हो गया था। महाजन से पैसा लेकर इलाज कराया। उसके लिए दूध भी उठौना लेना पड़ रहा है। भगवान की कृपा से अब वह ठीक है, लेकिन महाजन सुबह-शाम पैसे के लिए तगादा करने लगा है। खाद-बीज के लिए पैसे की दरकार, बूढ़ी मां की दवाई, जवान होती बेटी की शादी... परिवार का पेट भरने के लिए अनाज, गाय-बैल के चारे की चिंता... आदि इत्यादि...हर महिला की अपनी अनंत पीड़ा होती...कहां तक गिनाऊं। सारी जरूरतों का हिसाब लगाते हुए एक निश्चित रकम की उम्मीद भरी मांग के साथ पत्र का अंत होता। 

पोस्टकार्ड की कीमत तो कम होती थी, लेकिन उसमें सारी बातें समेटना संभव नहीं होता, फिर उसमें अपने दिल की बात बेगानों की नजर में आने का भी खतरा रहता था। वहीं लिफाफे की कीमत अधिक होती और उसमें डालने के लिए अलग से कागज की भी दरकार होती। ऐसे में बीच का रास्ता अपनाते हुए  अंतर्देशीय पत्र ही चिट्ठी लिखवाने के लिए सर्वोत्तम विकल्प हुआ करता था। कई बार इन पत्रों में पैसे के साथ बेटे या पति को बुलाने की मनुहार भी होती। 

कुल मिलाकर ये चिट्ठियां शुगर कोटेड कुनैन की कड़वी गोलियों की तरह होती जिनकी शुरुआत और अंत ममता और प्रेम की मिठास भरे दो-चार शब्दों से होती, मगर मध्य में ये चिट्ठियां अथाह पीड़ा समेटे होती थीं।

एक बात और... उन महिलाओं को शुद्ध हिंदी या खड़ी बोली नहीं आती थी, सो वे बिहार के वैशाली जिला स्थित हमारे गांव की स्थानीय बोली वज्जिका में अपनी बात कहतीं और मैं उसे हिंदी में लिखता जाता। लिखने के बाद उनकी तसल्ली के लिए हिंदी में लिखी चिट्ठी को वज्जिका में पढ़कर उन्हें सुनाता। इस तरह कच्ची उम्र में ही ग्रामीण जीवन की त्रासदी को महसूस करते हुए पत्र लिखने के साथ अनुवाद की कला भी अनायास ही सीख गया। उस जमाने में अकुशल मजदूरों के लिए नौकरी का मतलब कलकत्ता जाना ही हुआ करता था। इसलिए इन पत्रों की मंजिल अमूमन कलकत्ता ही होता। जब इन पत्रों के जवाब में मनीऑर्डर आ जाता और वे महिलाएं दुबारा पत्र लिखवाने आतीं तो उनके चेहरे की खुशी और आंखों में उतर आया कृतज्ञता का भाव देखते ही बनता था।

मैट्रिक पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर चला गया। शुरुआत के महीनों में तो कुछ दिनों के अंतराल पर घर आ जाता और पैसे लेकर लौट जाता, लेकिन धीरे-धीरे यह अंतराल बढ़ता गया। ऐसे में क़िताबें खरीदने समेत अन्य आवश्यकताओं का जिक्र करते हुए पैसे के लिए बाबूजी को पत्र लिखता। हालांकि ये पत्र डाक के बजाय गांव जा रहे किसी व्यक्ति के हाथों ही भेजे जाते। 

हां, कॉलेज के इन्हीं दिनों में कई मित्र अपनी गर्ल फ्रेंड या पत्नी को लिखे पत्र की झलक दिखाकर उपकृत करते, जिसमें एक शेर कॉमन होता :
कुशल ही कुशल है, कुशल चाहता हूं
दिल में लगन है, मिलन चाहता हूं।
कॉलेज की पढ़ाई के बाद आजीविका के सिलसिले में तीन-चार साल के लिए किशनगंज के प्रवास पर रहा तो उस दौरान मां-बाबूजी और दोस्तों को खूब पत्र लिखे। इस बीच छोटी बहन की शादी हो गई तो उसे भी पत्र लिखता रहा। पत्र लिखने के बाद शिद्दत से जवाब मिलने का इंतजार और पत्रोत्तर पाने के बाद मिले आनंद को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकता। इसी आनंद को पाने की तड़प थी कि 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंस के बाद किशनगंज में रहते हुए पहली बार कर्फ्यू से सामना हुआ और कई दिनों के बाद कर्फ्यू में ढील की मुनादी होने पर लोग जहां अपनी-अपनी जरूरतों का सामान खरीदने के लिए निकले, वहीं मैं सबसे पहले भागकर मेन पोस्ट ऑफिस ही गया था कि कोई चिट्ठी तो नहीं आई है। इसके बाद हरियाणा और राजस्थान के मित्रों से संपर्क हुआ तो उनसे मिलने वाले पत्रों की शुरुआत "अत्र कुशलं तत्रास्तु" से हुआ करती थी। कुल मिलाकर पत्रों में सैकड़ों-हजारों शब्द लिखे हों, मगर उनकी मूल भावना महज अपनों की कुशलता की कामना ही होती है।

कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के चलते आज पूरी मानवता पर ही संकट के बादल छाए हुए हैं। "आपदा को अवसर में बदलने" के महामंत्र का अर्थ कुछ विशेष सामर्थ्यवान "विभूतियों" ने अपने-अपने हिसाब से लगाते हुए स्वार्थपरता की सारी सीमाएं लांघ दी हैं। ऐसे में बाकी लोगों के सामने अंतहीन परेशानियां उत्पन्न हो गई हैं, जिनका जिक्र संभव नहीं है। अधिकांश लोग अवसाद में जीने को विवश हैं। आए दिन प्रतिभावान युवा-युवतियों के आत्महत्या करने की खबर मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं। अब चिट्ठियों का जमाना तो रहा नहीं, सो कठिनाइयों के इस दौर में हमारी जिम्मेदारी बनती है कि मोबाइल फोन, व्हाट्सएप के जरिए अपनों से हरसंभव संपर्क बनाए रखें। खुद की स्थिति बेहतर हो तो आगे बढ़कर मदद के लिए हाथ बढ़ाएं, अन्यथा परेशानी के क्षणों में केवल हालचाल  पूछ लेने से भी बड़ी तसल्ली मिलती है। अन्यथा परेशानियों से अशांत होकर हमारा कोई अपना यदि "सुशांत" हो गया, तो बाद में चाहे हम कितने भी आंसू बहा लें, खुद को माफ नहीं कर पाएंगे।

Sunday, July 5, 2020

उत्सव के बहाने, बहाने से उत्सव

उत्सव के बहाने, बहाने से उत्सव

गांव का जीवन यदि कठिनाइयों के खारेपन के समंदर जैसा होता है, तो वहां रहने वाले लोगों के मन में उन कठिनाइयों से पार पाने का जीवट भी पहाड़ सा विशाल होता है। परेशानियों से अशांत मन कहीं "सुशांत" न हो जाए, इसलिए उत्सवप्रियता को वह अपने स्वभाव में सहेज लेता है। बात-बेबात में उत्सव की खुशियां अपने चारों ओर संजो लेता है। 
शादी-विवाह में दर्जनों रस्मों से उसका मन नहीं भरता। बहू पहली बार खाना बनाती है तो परिवार में एक बार फिर से उत्सव का माहौल उत्पन्न हो जाता है। इसके कुछ महीनों बाद बच्चे के जन्म का उत्सव, बच्चे के पहली बार अन्न ग्रहण करने पर अन्नप्राशन उत्सव, अक्षर आरंभ करने पर विद्यारंभ संस्कार का उत्सव, उपनयन-यज्ञोपवीत संस्कार का उत्सव...एक लंबी शृंखला का सिलसिला यूं ही अनवरत चलता रहता है।

खेतीबाड़ी-बागवानी-पशुपालन की वजह से गांवों के लोग प्रकृति से सीधे जुड़े होते हैं। मौसम के विभिन्न रंग अपनी अनुकूलता से उसके जीवन में खुशियों के रंग भर देते हैं। ...और इसमें भी बरसात के मौसम पर तो उसका सब कुछ निर्भर रहता है। साल के 365 दिन में 27 नक्षत्र अपनी-अपनी भौगोलिक दशा के हिसाब से मानव मात्र को प्रभावित करते हैं, मगर इन नक्षत्रों में आर्द्रा (जिसका अपभ्रंश गांव में अदरा अधिक प्रचलित है।) बारिश की पहली बूंदों का उपहार लेकर आता है। वैशाख-जेठ की भीषण गर्मी से राहत मिलती है तो इसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए गांवों में आर्द्रा के आगमन के सुअवसर को उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा बना ली गई।  ...और गांव में उत्सव का मतलब खीर...सो खीर बना-खाकर मोद मनाते हैं। मेरे बाबूजी का तो नियम था कि शाम को मृगशिरा नक्षत्र का दूध संजोकर रख लिया जाए और अगले दिन आर्द्रा नक्षत्र के प्रवेश पर उसी दूध में खीर बनाई जाए।

जहां तक घड़ी पर्व और अदरा का उत्सव मनाने की बात है तो दोनों में कई मूलभूत अंतर हैं। मसलन घड़ी पर्व आषाढ़ या सावन के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है, वहीं अदरा मनाने के लिए शुक्ल पक्ष की कोई बाध्यता नहीं होती। घड़ी पर्व आषाढ़ और सावन में मनाया जाता है, वहीं दोमास होने के कारण आर्द्रा नक्षत्र कई बार जेठ महीने में भी आ जाता है। घड़ी पर्व अक्सर दिन के तीसरे पहर में मनाया जाता है, जब कुलदेवता को खीर-पूड़ी चढ़ाने के बाद परिवार के लोग प्रसादस्वरूप उसे ग्रहण करते हैं, वहीं अदरा में न तो सुबह, शाम और रात के रूप में समय का बंधन होता है, न ही कुलदेवता को चढ़ाने की बाध्यता।

"खेतों में रोपते खुशियां, घरों में मनता घड़ी पर्व" शीर्षक पोस्ट पर कुछ गुरुजनों ने इसे अदरा मनाने के रूप में व्याख्यायित किया था। ऐसे में इस बारीक अंतर को रेखांकित करने की धृष्टता के लिए सादर क्षमाप्रार्थी हूं। किसी शायर के शब्दों को उधार लूं 
तो यही कह सकता हूं : 

नजर उठा के बड़ों को कभी नहीं देखा
हम आसमान को पानी में देख लेते हैं।

Thursday, July 2, 2020

खेतों में रोपते खुशियां, घरों में मनता घड़ी पर्व

किसानों की आशाओं को नई ऊंचाइयां देने वाला आषाढ़ महीना विदा होने को है। उमड़ते-घुमड़ते बादलों के फूल लिए आकाश मनभावन सावन का स्वागत करने को आतुर है। ये दोनों महीने किसानों के जीवन में सर्वाधिक महत्व रखते हैं। इन्हीं महीनों में वे धान के बिचड़े के रूप में खेतों में अपनी खुशियां रोपते हैं। ... और खुशियों का यह उत्सव बिहार स्थित मेरे गृहजिला वैशाली के साथ ही पड़ो के समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर आदि जिलों के घरों में "घड़ी पर्व" के रूप में मनाने की परंपरा है। स्थानीय बोली में घड़ी पर्व को "घड़ी पवनी" कहा जाता है। कई स्थानों पर आषाढ़ तो कई स्थानों पर सावन के महीने के शुक्ल पक्ष में अलग-अलग दिन यह पर्व मनाया जाता है। इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह उक्ति प्रचलित हो गई- घर छोड़ी तऽ छोड़ी, घड़ी पवनी न छोड़ी....

पहले गांवों में लोगों के पास नकदी का अभाव था। ऐसे में खुशियां मनाने के लिए अपने खेत में खुद की मेहनत से उपजाई फसलों का ही सहारा था। सो घड़ी पवनी में कुलदेवता को गुड़ की खीर और चने की दाल की पूड़ी चढ़ाई जाती और प्रसाद स्वरूप परिवार के लोग इसका लुत्फ उठाते। हालांकि बदलते हुए समय के साथ खीर में गुड़ का स्थान अब चीनी ने ले लिया है। इसके बावजूद घड़ी पवनी आज भी उसी मान्यता और श्रद्धाभाव से मनाया जाता है।

लड़कियों की हथेली, पुरुषों के तलवों में मेहंदी

रूपसियों के सौंदर्य में रंग भरने के साथ ही मेहंदी पुरुषों की पीड़ा कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मनचाहे वर की प्राप्ति के लिए लड़कियां सावन के महीने में सोमवार का व्रत रखती हैं। इस दौरान झूला झूलने तथा मेहंदी लगाने का भी काफी क्रेज है। आज से तीस-चालीस साल पहले गांवों में आजकल बाजार में बिक रही कोन वाली रेडिमेड मेहंदी नहीं पहुंची थी। तब हम बच्चे दीदी के लिए आस-पड़ोस में लगी झाड़ियों में से मेहंदी के पत्ते तोड़कर लाते। चटख रंग उभरकर आए, इसके लिए उसमें पुराने छप्पर की फूस, खपड़ा मिलाकर उसे सिलबट्टे पर पीसा जाता और फिर उसमें नींबू का रस मिलाकर दीदी अपनी हथेलियों पर मेहंदी रचाती। वहीं, धनरोपनी के दौरान लगातार पानी में खड़े रहने से पुरुषों के पैरों में पानी लग जाता, जिससे भयंकर खुजली होती। कई बार तो तलवे की खाल में छोटे-छोटे गड्ढे से पड़ जाते। अंगुलियों के बीच की चमड़ी बिल्कुल सफेद पड़ जाती। इस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए वे रात को तलवों में मेहंदी लगाते, जिससे पानी का असर कुछ कम होता।

खुद की ही नहीं, बैलों की भी फिक्र

पहले खेत को जोतने से लेकर गेहूं और धान की फसल पकने के बाद उसकी दवनी (थ्रेशिंग) तक की जिम्मेदारी बैलों के कंधे पर थी। किसान अपने परिवार के सदस्यों की तरह ही बैलों का भी खयाल रखते थे। धनरोपनी के दौरान लगातार हो रही बरसात के बीच खेत की जुताई के कारण बैलों को सर्दी लगने का डर बना रहता था। ऐसे में शाम को बैलों की सींग में सरसों तेल लगाने के साथ ही गर्मी पहुंचाने के लिए उसे भूसे में महुआ मिलाकर दिया जाता था। अब तो ट्रैक्टर ने सारी जिम्मेदारी संभाल ली है। बैल पुराने जमाने की बात हो गए। हर घर की कौन कहे, पूरे गांव में बमुश्किल एकाध जोड़ी बैल बचे हों।

जुबां पर नक्षत्र, आसमां पर निगाहें  

सनातन परंपरा में 27 नक्षत्रों का जिक्र आता है। बच्चे के जन्म पर नामकरण तथा उसके भविष्य के बारे में जानने की उत्कंठा लिए परिवार वाले पंडितजी के पास जाते। दिन और समय के हिसाब से पंडितजी बताते कि बच्चे का जन्म फलां नक्षत्र में हुआ है। लेकिन बारिश के मौसम में कब कौन-सा नक्षत्र आएगा, इसके बारे में जानने के लिए कभी किसी किसान को पंडितजी से पूछने या पंचांग-पतरा देखने की जरूरत नहीं होती थी। रोहिणी से लेकर मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा, उत्तरा, हथिया, चित्रा और स्वाति नक्षत्र में से कब कौन नक्षत्र चल रहा है, यह उनकी जुबान पर रहा करता था। नक्षत्र के हिसाब से आसमां का रंग और बादलों की अठखेलियां देखकर वे बता देते थे कि कितनी देर में और कितनी बरसात होगी।

Sunday, June 28, 2020

दू गो जामुन गिरा दे...

...दू गो जामुन गिरा दे

कैसे विपरीत हालात हैं। जून और आषाढ़ का जो महीना आम की मिठास से मह-मह करता रहता था, वह आज कोरोना महामारी की दहशत में बीत रहा है। सारी दुनिया खौफजदा है। बड़े-बड़े चिकित्सा विशेषज्ञ किंकर्तव्यविमूढ़ हैं। लोग समझ नहीं पा रहे कि कब इस भय भरे माहौल से मुक्ति मिलेगी। 

बचपन के दिनों को याद करता हूं तो यह मौसम हमारे लिए फुल मौज-मस्ती से भरा हुआ करता था। दिन भर दोस्तों-भाई-बहनों के साथ इस बगीचे से उस बगीचे तक डोलते रहना, खूब छककर तरह-तरह के अद्भुत-अनुपम स्वाद वाले आम खाना... गाछी में दीदी और उनकी सहेलियों के बनाए गए सुस्वादु व्यंजनों के साथ वनभोज का आनंद... क्या-क्या गिनाऊं।

तब स्कूलों का सत्र जनवरी से दिसंबर तक चला करता था। पांच महीने की पढ़ाई और स्कूल के अनुशासन की कैद के बाद जून का पूरा महीना गर्मी की छुट्टी के नाम हुआ करता था। शहर के बच्चों को जहां साल भर जून महीने का इंतजार रहता था कि कब गर्मी की छुट्टी हो और ननिहाल जाएं। वहीं, हम गांव के बच्चों के लिए यह प्रकृति मां की गोद में समय बिताने का सुअवसर होता था। 

मई मध्य तक अमूमन आम के बगीचों में घर से एक मड़ैया लाकर प्रतिस्थापित कर दिया जाता। फिर बाग की रखवाली के लिए दिन में परिवार की बुजुर्ग महिला का बसेरा वहीं हुआ करता था। शाम होने पर बुजुर्ग महिला घर लौट आतीं और परिवार के कोई वरिष्ठ और जिम्मेदार पुरुष रात का खाना खाकर आम के बगीचे में ही सोते थे। यह क्रम आखिरी पेड़ से आम तोड़े जाने तक चला करता था। 

हम बच्चे तेज धूप के बावजूद दोपहर में बगीचे में पहुंच जाते। वहां हमारी आंखें पेड़ पर सबसे पहले पकने वाले आमों को खोजने लगतीं। मनपसंद आम तोड़कर खाने के बाद बच्चों की टोली जामुन की तलाश में निकल जाती। उस जमाने में जामुन का कोई व्यावसायिक महत्व नहीं  होता था। ऐसे में किसी दूसरे के बगीचे में लगे पेड़ से भी जामुन तोड़ने की मनाही नहीं थी। मगर जामुन के पेड़ काफी लंबे होते थे। हम बच्चों के लिए उस पर चढ़ना बड़ा मुश्किल होता था। हर साल जामुन के पेड़ से गिरने के कारण आस-पड़ोस के दो-चार लोगों के हाथ-पैर टूट जाया करते थे। लोगों में इस बात का भय रहता था कि जामुन के पेड़ पर भूत रहते हैं जो उस पर चढ़कर जामुन तोड़ने वालों को गिरा देते हैं।

 ऐसे में आम के पेड़ पर चढ़कर फुनगी पर लगे पके आम को तोड़ लाने वाले हम बहादुर बच्चों की हिम्मत जामुन के पेड़ पर चढ़ने में जवाब दे जाती। ...और ऐसे में हम बच्चे पेड़ पर जामुन की मिठास का लुत्फ उठा रहे पक्षियों से एक स्वर में मनुहार करने लगते : 
मैना के बच्चा सुमैनी गे
 दू गो जामुन गिरा दे
कच्चा गिरैबे तऽ मारबऊ गे
दू गो पाकल गिरा दे। 
...और फिर पक्षियों की मेहरबानी कहें या हवा के वेग का असर, थोड़ी देर में दो-चार जामुन गिर ही जाते और हम खुश हो जाते कि सुमैनी ने हमारी मनुहार सुन ली।  

खिलाने का सुख
हमारे गांव में आम के बाग तब बहुत कम ही लोगों के लिए कमाई का जरिया थे, लेकिन आम की अच्छी फसल उन्हें आम से खास जरूर बना देती थी। बाग में जब किसी पेड़ से आम टूटता तो वहां से गुजरते हुए  ऐसे बच्चों को जिनके खुद के बाग नहीं होते, बुलाकर दस-पांच आम दे देने से उनके अंदर दानवीर होने  की भावना का संचार होता था। वहीं मेहमानों की आवभगत में भी ये आम अपनी खास भूमिका निभाते थे। पानी से भरी बाल्टी में रखे आम मनुहार के साथ एक-एक कर अतिथि को खिलाने में उन्हें जो अद्भुत आनंद आता था, उसे शब्दों में पिरोना संभव नहीं।

( फोटो प्रिय मित्र प्रो. सुशील तिवारी जी  Sushil Tiwari और इंटरनेट के सौजन्य से)

Thursday, June 25, 2020

गंगा तेरा पानी अमृत...


गंगा तेरा पानी अमृत...

किसी भी संकट की वजह से परेशान होना स्वाभाविक है, मगर इसकी सबसे बड़ी खूबी है कि संकट के क्षणों में हम एक-दूसरे के नजदीक आ जाते हैं। सुख तो अनचाहे ही एक अदृश्य दीवार सी खड़ी कर देता है। सो, कोरोना वायरस की महामारी के इस वैश्विक संकट की घड़ी में लोग खुद के साथ ही अपनों के लिए भी फिक्रमंद रहने लगे हैं। एक-दूसरे को फोन करके, व्हाट्सएप के माध्यम से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बेहतर बनाए रखने के लिए अपने-अपने हिसाब से सलाह देते रहते हैं।

मैं भी इन दिनों अपनों की इन्हीं स्नेह भावनाओं से आप्लावित होता रहता हूं। कोई नियमित रूप से योगाभ्यास करने की सलाह देता है तो कोई आर्ट ऑफ लिविंग की सुदर्शन क्रिया करने के लिए प्रोत्साहित करता है। कोई सद्गुरु जग्गी वासुदेव के बताए अभ्यास को दुहराने के लिए कहता है। अन्य वीडियो संदेश में भी अलग-अलग तरीके से कुछ ऐसे ही भाव सन्निहित रहते हैं। इन संदेशों का अनुशीलन करने के बाद जहां तक मैं समझ पाया हूं, सबका लक्ष्य एक ही है, हां, उस तक पहुंचने के लिए अलग-अलग रास्ते बना लिए गए हैं।

बचपन से हम गंगाजल की पवित्रता के बारे में सुनते रहे हैं। अपनी-अपनी भौगोलिक स्थिति के अनुसार हर जगह के गंगाजल को समान रूप से वंदनीय और सर्वोच्च महत्व देते हुए अनिवार्य रूप से पूजाघर में रखा जाता रहा है। हां, बढती उम्र, शिक्षा और संपन्नता तथा सामर्थ्य के कारण जब किसी को हरिद्वार जाने का अवसर मिला तो गंगा की धारा का सौंदर्य देखा तो स्वाभाविक रूप से ही मोहित हो गया। स्मृति स्वरूप अपने साथ गंगाजल लाना नहीं भूला। वहां उसे किसी ने ऋषिकेश के बारे में बताया तो तत्काल ही चल पड़ा। वहां गंगा का अविरल निर्मल प्रवाह देखकर वह आध्यात्मिक आनंदातिरेक से भर उठा। मां गंगा के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुए एक अन्य बर्तन में पवित्र गंगाजल सहेजना नहीं भूला। इस तरह गंगा तो एक ही रही, लेकिन गंगाजल की अलग-अलग श्रेणियां निर्धारित कर दी गईं। पटना का गंगाजल, वाराणसी का गंगाजल, हरिद्वार का गंगाजल, ऋषिकेश का गंगाजल, गंगोत्री का गंगाजल आदि-इत्यादि।

इसी तरह सनातन परंपरा में सदियों पहले से हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने मानव मात्र के शारीरिक-मानसिक विकास, उत्थान व कल्याण के लिए योग और अन्य विधाओं का विपुल भंडार संजो रखा है। विभिन्न मार्गों के प्रतिपादक आज इसी विपुल भंडार में से सामग्री लेकर उसे अपने हिसाब से अलग-अलग तरीके से पैकिंग करके हमारे सामने उपस्थित हैं।

 दूसरे शब्दों में कहें तो अमूमन दूध और चीनी के सम्मिश्रण से ही मिठाइयां बनाई जाती हैं। हां, इसे बनाने की प्रक्रिया अलग-अलग हो सकती है। कोई दूध को खौला-खौलाकर उसे खोया में परिणत कर उससे मिठाई बनाता है तो कोई दूध को फाड़कर छेना बनाकर उससे मिठाई बनाता है। कई बार अन्न और फल-सब्जी से भी मिठाई बनाई जाती है। मसलन बेसन के लड्डू, पेठे का मुरब्बा, आंवला का मुरब्बा, परवल की मिठाई आदि-इत्यादि।

कुल मिलाकर गंगाजल के माध्यम से हमारा उद्देश्य जहां जीवन में आध्यात्मिक पवित्रता लाना है, वहीं मिठाई के जरिए जुबान को तीखे, नमकीन, कड़वे स्वाद से मुक्ति दिलाकर मिठास का अहसास कराना है। इसी तरह हम किसी भी पंथ प्रतिपादक के सिद्धांतों से सहमत हों या न हों, मगर अपने शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिए हमें योग-साधना को अवश्य ही अपने दैनंदिन जीवन का हिस्सा बनाना चाहिए। अफसोस, मैं खुद ही अभी पर उपदेश कुशल बहुतेरे का ही पथिक हूं, मगर आशा करता हूं कि आप मित्रों की प्रेरणा से इस पर अमल करने की कोशिश अवश्य कर पाऊंगा।    


Tuesday, June 16, 2020

माटी का धन, सोने सा मन

माटी का धन, सोने-सा मन

पहले के जमाने में अधिकतर लोगों के घर फूस के बने होते थे। इसे बनाने में लगी सभी चीजें बांस, खड़, इंकड़ी-कांड़ा ( सरकंडा), मूंज अपने या अपनों के खेत की होती थीं। दरअसल तब लोगों के पास अपनी कहलाने वाली और सबसे अधिक उपलब्ध वस्तु अपना खेत और उसकी माटी ही हुआ करती थी। वहीं, समाज में लेन-देन का अधिकतर व्यवहार परस्पर सहयोग और वस्तु-विनिमय प्रणाली पर ही आधारित था। यानी एक व्यक्ति के पास जो वस्तु होती, वह किसी और को देकर उससे अपनी जरूरत की दूसरी वस्तु ले ली जाती। यहां तक कि मजदूरी के बदले भी अनाज देने का ही चलन था। नकदी के नाम पर रुपये की कौन कहे, पैसे भी बहुत दूर की कौड़ी थी।

कुछ लोगों के घरों की दीवारें मिट्टी की भी होती थीं, जो औरों के मुकाबले उनकी अधिक संपन्नता का भी परिचायक होती थीं। जिनके पास अपने खेत नहीं होते, वे पड़ोसियों की खेत से माटी ले लिया करते थे। तब समाज में आपसी सहकार की भावना भी प्रबल हुआ करती थी। मसलन टोले-मोहल्ले के सभी लोग एक साथ किसी एक के घर की मिट्टी की दीवारें खड़ी करते। उसका काम पूरा होने के बाद यही प्रक्रिया दूसरे घर के निर्माण में अपनाई जाती। …और इस तरह पूरा घर बन जाता।

इक्के-दुक्के विशिष्ट लोगों के मकान ईंट से भी बने होते थे। हालांकि तब ईंट भी नकद रुपये देकर खरीदने की स्थिति कहां हुआ करती थी। लोग खुद का ही भट्ठा लगाते, जिसमें अपने ही खेत की मिट्टी से ईंटें पथवाई जातीं। हालांकि पक्की ईंटें होने के बाद भी लोगों का मिट्टी से मोह खत्म नहीं हो पाता था। तभी तो दीवारों के लिए ईंटों की चिनाई मिट्टी को गीला कर उससे ही की जाती थी। दीवारें चाहे मिट्टी की हों या ईंट की, अधिकतर मकानों के ऊपर छप्पर ही हुआ करता था। ...और जिन इक्के-दुक्के मकानों की छत होती तो वह भी लकड़ी के बीम और शहतीर के सहारे अपेक्षाकृत कम पतली ईंटों से बनाई जाती थी। तब आज की तरह गिट्टी-बालू-सीमेंट-सरिया का इस्तेमाल कर आरसीसी तकनीक से छत ढालने का चलन शुरू नहीं हो पाया था।   

...और  इन घरों की दीवारें बीस-तीस इंच तक मोटी हुआ करती थीं। मगर इतनी मोटी दीवारें होने के बावजूद इनमें रहने वालों के कान बहुत पतले होते थे। वे पड़ोस में रहने वाले की छोटी से छोटी परेशानी को भी जान लेते थे और उसके समाधान के लिए बिना कुछ कहे ही आगे आ जाते थे। एक-दूसरे की खुशियां भी सभी के लिए साझा हुआ करती थीं। बच्चों के लिए आस-पड़ोस से लेकर  दोस्त विशेष तक के घर अपने घर से बढ़कर हुआ करते थे। जहां जब मन हुआ, जी भरकर खा लिया। यहां तक कि तेज धूप होने पर मित्र की मां के आंचल की छांव में सो भी जाया करते थे। यही कारण था कि कभी कोई महिला अपने बच्चे को लेकर चिंतित नहीं होती थी।  अफसोस...आज तो अपने घर में हारी-बीमारी या गमी-मुसीबत में कोई अगर उसके बच्चों को दो-चार दिन खिला भी दे तो उम्र भर अहसान जताने के अलावा ताने मारने से भी बाज नहीं आती। 

... प्रकृति में घुली अनुपम सुगंध
कुम्हार जब आवा में मिट्टी के बर्तन या फिर खपड़े पकाते तो उससे निकलने वाले धुएं की सुगंध से मन आह्लादित हो उठता। ऐसे ही ईंट पकाने के लिए भट्ठा में आग लगाए जाने के बाद उससे निकलने वाले धुएं की विशिष्ट सुगंध से पूरा माहौल कई दिनों तक मह-मह करता रहता। मानों किसी यज्ञ की अग्नि में डाली गई समिधा की सुगंध उसके पावन उद्देश्य का अहसास करा रही हो। 

मिट्टी और आग के मिलन का उत्सव
गांव के लोग आनंद मनाने के लिए किसी उत्सव विशेष का इंतजार नहीं करते, बल्कि खुद ही उत्सव के अवसर बना लिया करते हैं। ईंट पकाने के लिए भट्ठा फूंकने का मौका भी ऐसे ही मानों अग्निदेव की आराधना का उत्सव हुआ करता था। ...और उत्सव के पल में अपनों के साथ भोजन तो लाजिमी है ही। बाबूजी के साथ उनके एक सहयोगी मित्र के यहां ऐसे ही अवसर पर भात-दाल के सामान्य भोजन का विशेष स्वाद 35-40 साल बाद भी भूल नहीं पाया हूं।

Tuesday, June 9, 2020

गांव-गांव गंगा, द्वार-द्वार प्याऊ

गांव-गांव गंगा, द्वार-द्वार प्याऊ

कहते हैं मन चंगा तो कठौती में गंगा। ...और जब मन में परोपकार तथा जीव मात्र के कल्याण की भावना से संकल्पबद्ध होकर तालाब खुदवाया जाए तो फिर ऐसे तालाब को तो गंगा का दर्जा दिया ही जा सकता है। पहले अमूमन हर गांव में सार्वजनिक रूप से या कोई संपन्न व्यक्ति खुद के खर्च से ही तालाब खुदवा देता था। हालांकि व्यक्तिगत प्रयास से खुदवाए गए इस तालाब का उपयोग गांव के सभी लोग स्नान करने, कपड़े और बर्तन धोने के अलावा धार्मिक क्रियाकलाप के लिए भी किया करते थे। यहां तक कि पशुपालक अपने पशुओं को नहाने और पानी पिलाने के लिए इन तालाबों का उपयोग निर्बाध रूप से किया करते थे।
वैशाली के ऐतिहासिक पुष्करणी सरोवर की ख्याति तो भगवान बुद्ध, भगवान महावीर और अनिंद्य सुंदरी आम्रपाली के साथ भारत की सीमा को पार कर संपूर्ण विश्व में व्याप्त हुई। मिथिला क्षेत्र में तालाब की बहुतायत के कारण " पग-पग पोखर माछ मखान"  जैसी लोकोक्ति प्रचलित हो गई।  ...और बिहार में कार्तिक शुक्ल षष्ठी-सप्तमी के दिन भगवान सूर्य की उपासना के महापर्व छठ के अवसर पर तालाबों के सजे-धजे घाट और श्रद्धालुओं की भीड़ सहज ही गंगा तट का अहसास कराती है। वहीं, दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा के दौरान प्रतिमा विसर्जन से मानव शरीर की नश्वरता का संदेश भी अनायास ही मिल जाता।
 वहीं, पहले गांवों में हर पांच-दस घर के बीच एक कुआं ( इनार-इंडा)  अवश्य ही हुआ करता था। इन कुओं पर डोरी से बंधी बाल्टी रखी रहती, ताकि वहां से गुजर रहा कोई भी व्यक्ति अपनी प्यास बुझा सके। कई बार असावधानीवश हाथ से रस्सी छूट जाने से बाल्टी कुएं में गिर जाती, जिससे बड़ी समस्या हो जाती। तब कुआं में कांटा डाल उसमें फंसाकर बाल्टी निकाली जाती। हर टोले-मोहल्ले में कुआं में गिरी बाल्टी को हिकमत से निकालने वाले विशेषज्ञ भी हुआ करते थे। बार-बार कुएं में बाल्टी गिरने की समस्या का सामना न करना पड़े, इसलिए कई कुओं पर दो खंभों के बीच एक बांस को फंसा दिया जाता। बांस के एक छोर पर कोई वजनी लकड़ी बांध दी जाती तथा बांस के दूसरे छोर से रस्सी से बंधी बाल्टी होती, जिससे बच्चों तक के लिए कुएं से पानी निकालना आसान हो जाता। हमारे यहां स्थानीय भाषा में इसे "ढेकुल" कहा जाता था।
परिवर्तन संसार का नियम है। किसी की सत्ता हमेशा कायम कहां रह पाती है। सो बीतते हुए समय के साथ इन कुओं का कमाल भी धीरे-धीरे कम होने लगा और लोहे के पतले पाइप के जरिए पाताल से पानी खींचने वाले चांपाकल (हैंडपंप) का जलवा छाने लगा। ये चांपाकल अमूमन दरवाजे पर गड़वाए जाते, ताकि वहां से गुजरते हुए राहगीर भी अपनी प्यास बुझा सकें। वहीं, परिवार के लोग किसी काम से बाहर जाने पर लौटने के बाद हाथ-पैर धोकर ही घर में प्रवेश करते। इससे बाहर की गंदगी घर की चौखट के अंदर प्रवेश नहीं कर पाती।

शहरों में अपेक्षाकृत अधिक संपन्नता होने के कारण सुरक्षा का भाव भी अधिक प्रबल होता है। सो शहरों में मकान चारदीवारी के कवच में सिमटे होते हैं। इन मकानों में गांवों की तुलना में काफी अधिक सुविधाएं उपलब्ध होती हैं, मगर इनके सामने से गुजरते हुए किसी राहगीर को प्यास लग जाए, तो उसकी समस्या का समाधान कदापि संभव नहीं हो पाता। महज प्यास बुझाने के लिए बड़ी अट्टालिकाओं की कॉल बेल बजाने की हिम्मत करना इतना आसान भी कहां होता है। हां, कुछ उदारमना लोग अपनी चारदावारी के बाहर वाटर कूलर जरूर लगा देते हैं। हालांकि हाइजिन के प्रति अधिक जागरूक शहरी लोग जूते-चप्पल के साथ आई बाहर की गंदगी लिए बेझिझक अंदर चले जाते हैं, क्योंकि उनके मकान में मेन गेट के बाहर हाथ-पैर धोने की व्यवस्था होती ही नहीं।
कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी ने लोगों की जान सांसत में डालने के साथ ही आचार-व्यवहार सब कुछ बदलकर रख दिया है। कल एक अखबार में इसी बदलाव को रेखांकित करती खबर पढ़ी। इसका लब्बोलुआब यह था कि डवलपर्स अब घरों की डिजाइन में कोरोना नॉर्म्स को शामिल कर रहे हैं। इसके तहत , घर के बाहर हाथ-पैर धोने का स्पेस रखा जा रहा है। इस खबर को पढ़ने के बाद सहसा ही याद आ गए गांव के दिन जब बाहर से आने के बाद हाथ-पैर धोकर ही घर के अंदर प्रवेश करना हर आम-ओ-खास की आदत में शुमार था।

इतिहास हो गये इनार
बदलते हुए समय के साथ गांवों में भी बहुत कुछ बदल गया। कुआं खुदवाने की तुलना में हैंडपंप लगवाना ज्यादा आसान और कम श्रमसाध्य था। फिर हैंडपंप कुआं के मुकाबले जगह भी कम घेरता था और इससे पानी निकालना भी कहीं अधिक आसान होता है। इसके साथ ही कुएं की तरह हैंडपंप में न बाल्टी गिरने की चिंता रही न किसी बच्चे के गिरने की आशंका, सो धीरे-धीरे हैंडपंप का चलन बढ़ता चला गया और इनार इतिहास बनकर रह गए। अब तो गांव में बमुश्किल एकाध कुआं ही बचा है, जहां लड़की की शादी के अवसर पर पनकट्टी की रस्म के लिए मंगलगान करती हुई महिलाओं का हुजूम उमड़ता है।

झूठी हो गई कहावत
पहले के समय में मनुष्य मशीनों कां दास नहीं हुआ था। उसे अपने बाहुबल पर भरपूर भरोसा था। सो, इन तालाबों की खुदाई कुदाल-फावड़े से इस कदर की जाती थी कि गहराई धीरे-धीरे बढ़ती थी। तभी तो कहते थे कि अपने गांव के तालाब और दूसरे के गांव के श्मशान में डर नहीं लगता। दरअसल लोगों को अपने गांव के तालाब की गहराई का अंदाजा होता था, जबकि दूसरे गांव में तालाब की गहराई से अनभिज्ञ होने के कारण डर लगता था। मगर अब तो गांवों में तालाब महज मछली पालन की जगह बनकर रह गए हैं। जेसीबी से इस कदर खुदाई करा दी जाती है कि पता ही नहीं चलता कहां कितनी गहराई है। रही-सही कसर पूरी कर देती है तालाब में मछलियों की उदरपूर्ति अथ च पोषण के लिए डाली गई सामग्री। इससे पानी में ऐसी बदबू भर जाती है कि बताना मुश्किल है। यही वजह है कि गांवों में भी अब तालाब में नहाने का चलन खत्म हो गया है। छठ पूजा भी दरवाजे पर गड्ढा खोकर कर ली जाती है।

Wednesday, June 3, 2020

जन-जन के मन में मानस...



देश और राज्य की तरह हर समाज-गांव की भी अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है। हमारे यहां सदियों से सामाजिक जीवन में धर्म पूरी तरह रमा-बसा हुआ है। इसकी झलक उस गांव विशेष की उपासना पद्धति, भजन-कीर्तन में सहज ही देखी जा सकती है।

बिहार के वैशाली जिला स्थित हमारा गांव आस-पड़ोस के गांवों के मुकाबले क्षेत्रफल और जनसंख्या की दृष्टि से अपेक्षाकृत काफी बड़ा है। ऐसे में भजन-कीर्तन की कमान गांव के हर टोले में अलग-अलग कीर्तन मंडली के पास थी। इन कीर्तन मंडलियों के पास साज के नाम पर महज एक ढोलक, चार-छह जोड़ी झाल (मंजीरा) और किसी-किसी के पास दो-चार जोड़ी करताल हुआ करती थी। मगर भक्ति भाव में तल्लीन होकर जब वे सामूहिक टेर छेड़ते तो मंत्रमुग्ध श्रोता भक्ति रस-गंगा में गोते लगाने लगते। 

आज से चार-पांच दशक पहले हमारे टोले में अमूमन हर मंगलवार और शनिवार की शाम किसी न किसी के यहां सुंदरकांड का पाठ हुआ करता था। इसका सुफल यह भी देखने में आता कि अक्षरज्ञान से अनभिज्ञ कई लोगों को भी पूरा सुंदरकांड कंठस्थ हो गया था। वहीं आश्विन महीने के शारदीय नवरात्र में दुर्गा पूजा के दौरान विभिन्न सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के साथ ही रामचरितमानस के नवाह्न पारायण पाठ नियमित रूप से होते थे। साल में दो-चार बार कहीं न कहीं रामचरितमानस का 24 घंटे का अखंड पाठ भी हो ही जाता था। इस दौरान सामूहिक समवेत स्वर में मानस के पाठ से बड़ा ही मनोरम और हृदयग्राही वातावरण उपस्थित हो जाता। इसके साथ ही ब्रह्म स्थान, शिव मंदिर पर सामूहिक रूप से या फिर व्यक्तिगत रूप से किसी के यहां अष्टयाम हरिनाम संकीर्तन के भी आयोजन होते थे। अष्टयाम हरिनाम संकीर्तन के बाद पूरे गांव में शोभायात्रा निकाली जाती, जिसमें कीर्तन मंडली भजन गाती चलती।

इन सभी आयोजनों की पूर्णाहुति के बाद आरती गायन का आनंद भी अद्भुत-अद्वितीय हुआ करता। बचपन के दिनों को याद करता हूं तो श्री टेकनाथ झा अपने भावपूर्ण स्वरों में जब "आरती कुंज बिहारी की...गिरिधर कृष्ण मुरारी की" गाते तो कीर्तन मंडली की कौन कहे, वहां उपस्थित पूरा जन समुदाय ही उनके पीछे-पीछे इस आरती को दुहराने लगता। उनकी मधुर आवाज में " आरती करो, हरिहर की करो, नटवर की भोले शंकर की..." सुनकर भी लोग भाव विभोर हो जाया करते। इस कीर्तन मंडली के व्यास हुआ करते थे श्री सत्यनारायण कुमर उर्फ नीरू कुमर। वे जब " करिअउन आरती मंगलिया बजरंग बली की"  और " बैसू बाबा कांवड़ में आरती उतारू हे..."  गाते तो ऐतिहासिक नगरी वैशाली की अपनी बोली वज्जिका और मिथिलेश नंदिनी की बोली मैथिली की मिठास वातावरण में घुल जाती।  

हमारे टोले की कीर्तन मंडली में ढोलक बजाने की जिम्मेदारी श्री बालेंद्र मिश्र बखूबी निभाते थे। बच्चे जब उन्हें प्रणाम करते तो वे आशीर्वाद देते - माखन-मिश्री खाओ, खूब मोटाओ। उनके स्वभाव की यह विशेषता शायद माखन-मिश्री के प्रेमी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति-भावना के फलस्वरूप थी। ...और यही कारण था कि भजन-कीर्तन के दौरान कई बार उनके अंदर का भी गायक जाग उठता और ढोलक बजाने के साथ-साथ वे गा उठते- "छोटी छोटी गैया मेरो, छोटे-छोटे ग्वाल बाल, छोटे-छोटे हमरो मदन गोपाल...घास खएतई गैया मेरो, दूध पीतई ग्वाल बाल, माखन खएतई हमरो मदन गोपाल। ...और इस भजन की प्रस्तुति से मानों गोकुल और नंदगांव का दृश्य साकार हो उठता।

अपने टोले ही नहीं, गांव में भी कहीं सुंदरकांड और रामचरितमानस पाठ का आयोजन होता तो श्री विश्वनाथ मिश्र यदि गांव में रहते तो उनकी उपस्थिति अनिवार्य हुआ करती थी। रामचरितमानस की सैकड़ों चौपाइयां, दर्जनों छंद-दोहे उन्हें याद थे, जिन्हें परस्पर बातचीत के दौरान वे प्रसंग सहित सुनाया भी करते थे।

मेरे पिता तुल्य अग्रज श्री रामकुमार मिश्र भी इस कीर्तन मंडली की अत्यंत महत्वपूर्ण कड़ी थे। रामचरितमानस को  तो उन्होंने अपनी दिनचर्या का अभिन्न अंग बना लिया था। प्रतिदिन सुबह पूजा के दौरान वे रामचरितमानस के कुछ पृष्ठ नियमित रूप से अवश्य पढ़ते। मानस के प्रति समर्पण का ही परिणाम था कि व्यस्तताओं के बावजूद वे सुंदरकांड और रामचरितमानस के अखंड पाठ में अवश्य ही शामिल होते। श्री भरतनारायण मिश्र भी इन आयोजनों में अवश्य ही सहभागिता निभाते। मुझे आज भी याद आता है जब पड़ोसी गांव मंडईडीह के एक मंदिर  में चंद्रग्रहण पर आयोजित रामचरितमानस के अखंड पाठ में अपने गांव के कई लोगों समेत मैं भी उनके साथ गया था। इनके अलावा श्री राम किशोर मिश्र भी नियमित रूप से सुंदरकांड पाठ के आयोजनों में अवश्य ही शामिल होते। अफसोस, यहां जिन भगवद्प्रेमियों का मैंने जिक्र किया है, वे सभी अब हमारे बीच नहीं रहे, परमपिता परमेश्वर के धाम के निवासी हो गए। हालांकि उनकी ओर से प्रवाहित भक्ति-सरिता आज भी समाज में अविरल रूप से प्रवाहित हो रही है।

नौ दिनों तक रहा भक्तिमय वातावरण
हमारे गांव के लोगों के पुण्य का फल कहें या फिर पूर्वजों का आशीर्वाद कि महान संत मौनी बाबा ने 1970 के दशक में नौ दिवसीय गायत्री महायज्ञ के लिए हमारे गांव का चयन किया था। उस दौरान जहां हवन-यज्ञ के दौरान गायत्री महामंत्र से वातावरण गुंजायमान रहा, वहीं अपने गांव समेत आस-पड़ोस के दर्जनों गांवों की कीर्तन मंडलियों ने लगातार नौ दिनों तक अहर्निश हरिनाम संकीर्तन " हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। " के मधुर गायन से वातावरण को भक्तिमय बनाए रखा। इसके अलावा प्रभु श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाओं के मंचन श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र होते। अपने जिले की कौन कहे, आस-पड़ोस के जिलों के हजारों लोग इस महायज्ञ में शामिल होकर पुण्य के भागीदार बने। हम बच्चे इस आयोजन के धार्मिक महत्व को तो क्या और कैसे समझ पाते, हमारे लिए तो यह नौ दिनों तक लगातार चलने वाला मेला ही था। ...और मेरा विशेष सौभाग्य कि गायत्री महायज्ञ का आयोजन स्थल मेरे घर से महज 100-150 मीटर की दूरी पर था, सो मां से  10-20 पैसे मांग लेता और दौड़ते हुए मेले में पहुंच जाता। हां, मौनी बाबा से मिले पेड़े का अद्भुत स्वाद करीब चार दशक बाद भी नहीं भूल पाया हूं। पुण्य अर्जित करने के नाम पर तो जहां तक याद कर पाता हूं, अपार जनसमूह के बीच दादी और चाची के साथ यज्ञशाला की परिक्रमा जरूर की थी।

Monday, June 1, 2020

भऊजी नाचे छमाछम...

भउजी नाचे छमाछम...
आजकल न जाने क्यों लोग अपने बच्चों के लिए कुछ अधिक ही चिंतित रहने लगे हैं। ढाई-तीन साल का होते-होते बच्चे को प्ले स्कूल के नाम पर मानों किसीकैदखाने में भेज दिया जाता है। यही नहीं, इससे पहले सात-आठ महीने का होते-होते घर में ही नन्हे-मुन्ने बच्चे को तहजीब और सलीका सिखाने की क्लास शुरू हो जाती है। मासूम बच्चा मीठी तोतली जुबान में नाना-दादा बोलना शुरू करता ही है कि मां टोक देती है- नाना नहीं...नानाजी। दादा नहीं...दादाजी। नन्हा-सा बच्चा हक्का-बक्का रह जाता है। कुछ समझ ही नहीं पाता। और इसके साथ ही उसके नेचुरल विकास पर तमीज का ग्रहण जान-बूझकर लगा दिया जाता है।

पहले ऐसा नहीं था। चार-पांच दशक पहले के दिनों में लौटें तो उस समय गांव के लोग अपनी ही रौ में मस्त रहा करते थे। दुनियादारी से दूर अपने भदेसपन में रमे रहना उन्हें खूब भाता था। तब किसी संबोधन में जी नहीं लगाने से सभ्यता का संकट उत्पन्न नहीं होता था। तभी तो बचपन की बात तो दूर, उम्र बढ़ने के बाद भी सलीके  के नाम पर दादा-दादी, चाचा, चाची, मामू-मामी, मौसी-मौसा, फूआ-फूफा आदि शब्दों के साथ जी लगाना नहीं सिखाया जाता था। ...और फिर बच्चों की कौन कहे, बड़े भी इस तथाकथित तहजीब को निभाने की जरूरत नहीं समझते थे। 
इंसानी संबंधों की कौन कहे, सर्वशक्तिमान भगवान के साथ भी जी लगाने का चलन नहीं था।  यहां तक कि  लोग ईश्वर को तुम कहने तक में परहेज नहीं करते थे। प्रार्थना करते थे- "तुम्हीं हो माता,पिता तुम्हीं हो...", "तुम्हीं हो मेरे जीवन की नैया के खेवनहार..." आदि-इत्यादि। हां, समाज में एक बात जरूर देखने को मिलती थी। उस जमाने में भी तथाकथित भदेस कहे जाने वाले गांवों तक की महिलाओं में अपनी सास को सरकारजी या माताजी कहने का चलन अवश्य था। इसके पीछे वजह परिवार में सास की हनक थी या फिर बहू की ललक कि यह रिवाज चलता रहा तो भविष्य में उसकी बहू भी उसके संबोधन में जी लगाकर पुकारेगी, यह बता पाना मुश्किल है।

...मगर इन सारी आदतों-रिवाजों-रिवायतों से बेखबर एक रिश्ता ऐसा था, जिसमें बिना किसी के सिखाए अनायास ही "जी" जुड़ा था। जी हां, तब बड़े भाई की पत्नी को भउजी कहा जाता था। बच्चे अपनी रौ में आते तो अनायास ही टेर छेड़ देते- "भउजी नाचे छमाछम"।  हालांकि कभी किसी भउजी को मैंने छम-छम नाचते नहीं देखा। उनके पायल की रुनझुन अवश्य सुनी है। हां, भैया की शादी की चर्चा से बच्चों के दिल जरूर छमाछम करके नाचने लगते - झूम उठते कि भउजी के कदमों के साथ हमारे अंगना में भी बहार आएगी।

मैं जब मिडिल स्कूल में था तब भैया की शादी हुई थी। भउजी के आने के हफ्ते-दस दिन तक हम तीन-चार भाई-बहनों में होड़ रहा करती थी कि आज किसे भउजी के साथ खाने का सौभाग्य मिलता है। ...और सच कहूं तो आगे चलकर की विशेष अवसरों पर विशिष्ट व्यक्तियों के साथ डाइनिंग टेबल साझा करने का मौका मिला, लेकिन कभी उस आनंद की अनुभूति नहीं हुई जो तब भउजी के साथ एक थाली में खाने में मिलती थी। ...भाभी के साथ खेली गई होली आज भी दिल को गुदगुदा जाती है। कभी उन्हें बीते दिनों की याद दिलाता हूं तो अपनी जवानी और हमारे बचपन को याद कर षोडशी से साठोत्तरी हो चुकी भउजियों के चिपके हुए गालों पर आज भी बिना गुलाल के ही लाली छा जाती है।

...दरअसल श्रीमती जी का मोबाइल चार-पांच दिन से कोमा में है। उनके लिए मोबाइल खरीदने की राय लेने को एक मित्र को फोन किया तो वह कई सारे मॉडल्स के बारे में बताने लगा। इसी क्रम में उसने कहा कि फलाने-फलाने मॉडल में बैटरी अलग से नहीं आती, बल्कि इनबिल्ट होती है। यह सुनकर मुझे भउजी शब्द में इनबिल्ट "जी" की सहसा ही याद हो आई...और फिर दिमाग के मेमोरी कार्ड से यादों की फाइलें के बाद एक दिल के सॉफ्टवेयर में डाउनलोड होती चली गईं।