Friday, December 12, 2008

`चिवड़ा-दही´ का जवाब नहीं

आइए, आज आपको बिहार के सुप्रसिद्ध डिश `चिवड़ा-दही´ की महत्ता सुनाता हूं। अभी कुछ दिनों पहले जनसत्ता में मृदुला सिन्हा का एक लेख पढ़ा था जिसमें उन्हें नारी के आंचल के दर्जनों गुण गिनाए थे। इसी बहाने उन्होंने बरगुन्ना (डेगची) के भी बारह गुणों से संपन्न होने की बात कही थी। संयोग से उसी रात जयपुर में मुझे एक शादी में जाने का अवसर मिला। जिन्होंने हमें निमंत्रण दिया था, वे हमारी प्रोफेशनल मजबूरी से वाकिफ थे कि हम देर रात ही शादी में शरीक हो सकेंगे। ऑफिस की ड्यूटी से फ्री होते-होते हम पांच-छह मित्र करीब 15 किलोमीटर की दूरी तय करके विवाह स्थल पर पहुंचे। पहुंचते-पहुंचते घड़ी की सूइयां साढ़े बारह से अधिक बजने का संकेत दे रही थीं। वहां बराती-घराती दोनों ही पक्ष के लोग भोजन कर चुके थे, दूल्हा-दुल्हन भी भोजन का स्वाद लेने के बाद विवाह-वेदी पर बैठने चले गए थे। पंडितजी व्यवस्थाएं जुटाने में लगे थे। कैटरिंग वाले और हलवाइयों ने भी भोजन शुरू कर दिया था। जो भोजन कर चुके थे, वे टेबल आदि समेट रहे थे। हमें पहुंचते ही कहा गया कि हम भी भोजन कर लें। मना करना शिष्टाचार के विपरीत होता, सो हमने भी `दाने-दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम´ पर अमल करते हुए भोजन के उस अंश को उदरस्थ करना शुरू कर दिया, जिन पर हमारा नाम लिखा था।
खाते-खाते मुझे बिहार में विवाह-शादी या अन्य अवसरों पर होने वाले भोज की याद आ गई। ऐसे अवसरों पर `चिवड़ा-दही´ ऐसा डिश होता है, जो मेजबान के पास मेहमान के लिए हर समय उपलब्ध होता है। चार बजे भोर में भी कोई छूटा हुआ बराती या अन्य अतिथि आ जाए तो बिना पेशानी पर बल लाए हुए उसके सामने `चिवड़ा-दही´ परोस दिया जाता है। सब्जी बची हो तो ठीक नहीं तो कोई बात नहीं। वैसे अमूमन ऐसे अवसरों पर आलू का अचार भी बनाया जाता है जो कई दिनों तक खराब नहीं होता और `चिवड़ा-दही´ के साथ इसका कंबिनेशन भी सही बैठता है। वैसे बतौर सहायक सब्जी या अचार न भी हो तो भी `चिवड़ा-दही-चीनी´ की त्रिवेणी ऐसा स्वाद जगाती है कि क्षुधा ही नहीं, मन भी तृप्त हो जाता है।
ऐसे में एक और वाकया याद आता है। भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी किशनगंज आए थे। मैं भी चला गया था भाषण सुनने। उन्होंने अपने भाषण में फास्ट फूड संस्कृति के बढ़ते प्रचलन का उल्लेख करते हुए कहा था कि `चिवड़ा-दही´ से अच्छा फास्ट फूड क्या होगा। बस चिवड़ा भिगोया, दही और चीनी से उसकी संगत कराई और हो गए तृप्त। बिहार के अधिकतर शहरों के भोजनालयों में भी नाश्ते के रूप में यह डिश आसानी से उपलब्ध हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि राजस्थान में ऐसा कोई टिकाऊ डिश नहीं होता है। जरूर होगा, लेकिन बदलते हुए दौर में हम अपनी संस्कृति से ही नहीं, पारंपरिक खान-पान से भी दूर होते जा रहे हैं और ऐसे में जब चूल्हा बुझ चुका होता है, तंदूर ठंडा हो चुका होता है, हलवाई जा चुके होते हैं और फिर कोई मेहमान (असमय) आ धमकता है तो मेहमान व मेजबान दोनों को ही इन परिस्थितियों से रू-ब-रू होना ही पड़ता है।

Saturday, December 6, 2008

प्रतीकों के पचड़े क्यों, गढ़ो नए प्रतिमान

उरदू जगत की स्वनामधन्य हस्ती शायर शीन काफ निजाम के जन्मदिन पर गत 26 नवंबर को आबशार संस्था की ओर से जयपुर के पिंकसिटी प्रेस क्लब में `नज्म और निजाम´ कार्यक्रम आयोजित किया गया। कार्यक्रम में अलीगढ़ के प्रो. शाफअ किदवई ने निजाम साहब की हाल ही प्रकाशित किताब `गुमशुदा दैर की गूंजती घंटियां´ की नज्म दर नज्म व्याख्या की। उनके बाद दिल्ली से आए प्रोफेसर डॉ. सादिक ने जब इस किताब और निजाम साहब और उक्त किताब पर बोलना शुरू किया तो कई बार उनमें मुझे कमलेश्वर का अक्स दिखा। जिन्होंने कमलेश्वर को सुना होगा, शायद मेरी बातों से इत्तफाक रखेंगे।
खैर, डॉ. सादिक ने बहुत सारी बातें कहीं, जो मुझ जैसे उरदू नहीं जानने वालों के लिए भी बोझिल नहीं थीं। इसी क्रम में उन्होंने सत्यजित राय की फिल्म `पाथेर पांचाली´ से जुड़ा एक रोचक वाकया सुनाया। यह फिल्म मैंने तो नहीं देखी, लेकिन जैसा कि उन्होंने कहा कि इस फिल्म के कई दृश्यों में बार-बार एक आवारा-सा कुत्ता दिखाई देता है। जैसा कि सादिक साहब ने बताया कि जब यह फिल्म रिलीज हुई तो उस समय के फिल्म समीक्षकों ने उन दृश्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की, जिनमें वह कुत्ता दिखता है। समीक्षकों का कहना था कि सत्यजित राय ने कुत्ते के प्रतीक के माध्यम से बहुत बड़ी बात सहज ही कह दी। यह तो हुई भेड़चाल वाली बात, लेकिन कुछ लोग इतर नजरिया भी रखते हैं। एक ऐसे ही अखबारनवीस ने हिम्मत करके खुद सत्यजित राय साहब से पूछ लिया कि कुत्ते को प्रतीक बनाने के पीछे उनकी क्या सोच थी। इस पर सत्यजित राय ने खुलासा किया कि दरअसल उनकी फिल्में आम जिंदगी के आसपास होती थीं। इसलिए वे बिना किसी भव्य सैटअप के सामान्य वातावरण में शूटिंग किया करते थे। ऐसी ही एक जगह पर पाथेर पांचाली की शूटिंग हो रही थी। शूटिंग के दौरान यूनिट के लोग बार-बार उस आवारा कुत्ते को भगा देते थे, लेकिन वह थोड़ी देर में वापस आ धमकता था। कई बार भगाने के बावजूद जब कुत्ता अपने कुत्तेपना से बाज नहीं आया तो हारकर फिल्म की शूटिंग शुरू कर दी गई और इस तरह उस फिल्म के दृश्यों में उक्त कुत्ता भी अमर हो गया।
सादिक साहब के कहने का मतलब यह था कि आजादी के पहले हमारे लेखक-कवि भी प्रतीकों में बात कहने को बाध्य थे, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद ऐसी स्थिति नहीं है। इसलिए लेखकों को प्रतीकों के पचड़े में पड़ने की बजाय नए प्रतिमान गढ़ने चाहिए तथा समाज को अपना सरवोत्तम देना चाहिए।
चलते-चलते : कुत्ते की बात चली तो बताता चलूं कि यह हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाला। महाभारत काल में कुत्ते ने जब स्वर्ग जाने के समय युधिष्ठिर का साथ नहीं छोड़ा, तो आज यह केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंदन का साथ कैसे छोड़ देता। मुंबई आतंकी हमले में शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने जब अच्युतानंदन को दुत्कारा तो वे अपनी औकात पर आ गए औऱ इतना घटिया बयान दिया कि पूरा देश उसके खिलाफ हो गया। हारकर उन्हें अपने उस बयान के लिए माफी मांगनी पड़ी। आज किसी ब्लॉगर भाई ने लिखा कि अच्युतानंदन यदि सीएम नहीं होते, तो कुत्ता भी उन्हें नहीं जानता।

Thursday, December 4, 2008

...और हो गया मतदान


चार दिसंबर यानी गुरुवार को राजस्थान विधानसभा की दो सौ सीटों के लिए मतदान संपन्न हो गया। इसी के साथ ही चार राज्यों दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हजारों प्रत्याशियों के भाग्य ईवीएम में बंद हो गए। आठ दिसंबर को दोपहर बारह बजते-बजते सैकड़ों प्रत्याशियों के चेहरों पर विजय की मुस्कान होगी तो हजारों प्रत्याशियों के सपने के साथ दिल भी टूटेंगे। उनके लाखों समर्थकों के दिल पर जो बीतेगी, इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है।
सत्तासीन राजनीतिक दल चाहे विकास के कामों की कितनी भी दुहाई देते रहे, विपक्षी दल सब कुछ जनता के मनोनुकूल कर डालने के सब्जबाग दिखाते रहे, लेकिन हुआ वही जो होना था। जितने लोगों से बात हुई, उसमें यही ज्ञात हुआ कि भारतीय जनमानस को पूरवाग्रह से मुक्त करना आसमान से तारे तोड़ने से भी कठिन है। चाहे बरसों से किसी दल विशेष से चिपके आम मतदाता हों या फिर भी जातिगत आधार पर पैमाने तय करने वाले कंजरवेटिव मतदाता, सभी अपनी धुरी पर कायम रहे। इन सबसे अलहदा अभिजात्य वर्ग के मतदाताओं ने सरकारी छुट्टी का इस्तेमाल मतदान की बजाय तफरी में किया या फिर टीवी पर बैठकर धारावाहिक व फिल्में देखने में।
हमारे स्वनामधन्य मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने भारतीय चुनाव प्रक्रिया में आमूलचूल सुधार के तहत फोटो पहचान पत्र की अनिवार्यता लागू करवाई, लेकिन व्यवस्थागत दोष को क्या कहें कि विसंगतियां खत्म होने का नाम ही नहीं लेतीं। आज दशकों बाद भी प्रत्येक मतदाता के पास फोटो पहचान पत्र नहीं हैं। जिनके पास पहचान पत्र हैं, उनके नाम मतदाता सूची में नहीं हैं। किराये पर रहने वालों के नाम मतदाता सूची से हट जाना तो उनकी नियति का दोष है ही, कई तो ऐसे भी मामले दिखे जहां किरायेदारों के पहचान पत्र भी थे और मतदाता सूची में नाम भी था, फलस्वरूप उन्होंने अपने मताधिकार का प्रयोग भी किया, लेकिन बेचारे मकान मालिक हाथ में पहचान पत्र लिए बूथ से सपत्नीक उदासमना लौट आए क्योंकि उनके नाम मतदाता सूची से गायब थे।
...तो फिर इन चुनावों में विजयश्री का वरण करने वाले प्रत्याशियों को अग्रिम बधाई और हारने वालों के प्रति हृदय से संवेदना क्योंकि केवल वे ही नहीं हारेंगे, हमारे देश में हजारों -लाखों लोगों की उम्मीदें छह दशकों से हार रही हैं, फिर भी उन्होंने उम्मीदों का दामन छोड़ा नहीं है।
(मिजोरम की बात मैंने इसलिए नहीं की क्योंकि उस छोटे से राज्य का राजनीतिक महत्व है ही कितना और जम्मू-कश्मीर में चुनाव आज के इंटरनेट के युग में भी आकाशवाणी पर आने वाले धीमी गति के समाचार की तरह हो रहे हैं, फिर भी संतोष की बात यही है कि जब हम चांद पर जाने में गर्व महसूस कर रहे हैं, आज भी धीमी गति के समाचार के श्रोता हैं और इसके प्रसारण की उपयोगिता बरकरार है। कुछ ऐसा ही हाल जम्मू-कश्मीर का है, जहां भले ही दर्जनों चरणों में चुनाव हों, लोकतांत्रिक प्रक्रिया को जिंदा रखने के लिए प्राणवायु की तरह जरूरी हैं। )

Monday, December 1, 2008

आई कार्ड मांगा क्या?


मुंबई में हुए आतंकी हमले में कई लोग मारे गए, जिनमें विदेशी मेहमान भी शामिल थे। एनएसजी व पुलिस के कई जवान शहीद हुए और अब राजनेताओं की विदाई शुरू हो गई है। गृहमंत्री शिवराज पाटिल के बाद महाराष्ट्र के बड़बोले गृहमंत्री व उपमुख्यमंत्री आर. आर. पाटिल ने भी इस्तीफा दे दिया। आसन्न खतरे को भांपकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने भी पद छोड़ने का संकेत दे दिया है और कांग्रेस आलाकमान भी इस पर सकारात्मक रुख अपनाते हुए उनका उत्तराधिकारी खोजने में जुटी है। पता नहीं वहां भी चिदंबरम जैसा कामचलाऊ विकल्प ही मिले। संभव है आने वाले दिनों में और भी राजनेता और वरिष्ठ अफसरों को भी पद छोड़ना पड़े। इसके बावजूद मुंबई में हुए आतंकी हमले ने हमारे देश के दामन को जिस तरह दागदार किया है, उन धब्बों को धोने में बरसों लग जाएंगे। जनता की अपनी पीड़ा है और पुलिस या सेना का अपना ददॅ। काफी दिनों पहले कहीं पढ़ा था-
पीछे बंधे हैं हाथ और तय है सफर।
किससे कहें कि पांव के कांटे निकाल दे।।
कुछ इसी तरह की निरीहता वाली स्थिति है। बड़े फैसले लेने वाले पदों पर ऐसे पिटे हुए प्यादों को बिठा दिया गया है, जो खुद अपने बारे में छोटे-छोटे निर्णय लेने के लिए अपने आकाओं का मुंह देखते रहते हैं, वे भला देशहित में फैसले कैसे ले पाएंगे।
मुंबई के होटलों में आतंकियों ने जिस तरह बसेरा किया और फिर आतंक का खूनी खेल खेला, इसके लिए होटल प्रबंधन भी काफी हद तक जिम्मेदार है। दसियों आतंकवादी होटल में कैसे दाखिल हुए, इस पर नजर क्यों नहीं रखी गई। इतनी अधिक मात्रा में विस्फोटक सामग्री होटल के अंदर कैसे गई, क्या इसकी पड़ताल करने वाला कोई नहीं था।
मेरे विचार से इन होटलों में एंट्री के समय मेहमानों से उनका परिचय पत्र अवश्य मांगा जाना चाहिए। अतिथियों को भी इसे अन्यथा नहीं लेते हुए सुरक्षा में सहयोग की तरह समझना चाहिए। संभव हो तो होटल की रजिस्टर में तथाकथित परिचय पत्र की फोटो कॉपी या अन्य डिटेल्स भी रखी जानी चाहिए। यह परिचय पत्र वोटर आई कार्ड या अन्य संस्थाओं से जारी पहचान पत्र भी हो सकते हैं। लंबे समय से बहु-उद्देश्यीय नागरिक पहचान पत्र की बात की जा रही है, लेकिन सरकारों की दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव में इस योजना पर अमल नहीं किया जा रहा है।
इसके अलावा इन करोड़ों-अरबों रुपए की लागत से बने इन होटलों के मुख्य प्रवेश द्वार पर ऐसी एक्स-रे मशीन होनी चाहिए जिससे अंदर ले जाई जाने वाली सामग्री की असलियत का पता चल सके और इस तरह विस्फोटक सामग्री ले जाने की छूट किसी भी सूरत में नहीं मिलने पाए। समय रहते यदि ऐसे एहतियाती कदम नहीं उठाए गए तो फिर हम अपने सैकड़ों भाइयों को असमय खोते रहेंगे और फिर हादसे के बाद अरण्यरोदन कर आंसुओं से समंदर के पानी को और खारा बनाते रहेंगे।

Saturday, November 22, 2008

परेशानी अनलिमिटेड-लालू का नाम, जनता हलकान


बिहार में 15 साल के शासन के दौरान राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव कोई ऐसी उपलब्धि हासिल नहीं कर सके, जिससे उनका नाम हो। हां, उनके मसखरेपन और मीडिया के लालूप्रेम ने उन्हें समाचारों में जरूर बनाए रखा। इसके अलावा उन दिनों लालू को लेकर कहीं बात होती थी तो बस बिहार के पिछड़ते जाने की। रेलमंत्री बनने के बाद लालू यादव को मैनेजमेंट गुरु और न जाने किन-किन विशेषणों से विभूषित किया जाने लगा। लगातार रेल भाड़ा न बढ़ाकर भी उन्होंने आम जनता की सहानुभूति बटोरने में सफलता हासिल की। हालांकि भारतीय रेलवे यदि यात्रियों को बिना किसी परेशानी के गंतव्य पर पहुंचाने का वादा करे तो उन्हें किराये में पांच-दस रुपए की बढ़ोतरी कभी नहीं खलेगी। लालू यादव ने सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए किराया तो नहीं बढ़ाया, लेकिन कभी सुपरफास्ट के नाम पर तो कभी टिकट कैंसिल करने का शुल्क बढ़ाकर यात्रियों की जेब काटने में कसर नहीं छोड़ी। रेलवे आरक्षण की तिथि 60 दिन से बढ़ाकर 90 दिन करने का फैसला भी वास्तविक यात्रियों की बजाय दलालों के लिए ही लाभप्रद है। खैर, इन परेशानियों से तो हम सभी किस्तों में रू-ब-रू होते ही रहते हैं, लालू के शातिर दिमाग ने रेलवे कोचों में बर्थ की संख्या 72 से 81 करके तो कमाल ही कर दिया। कोच की लंबाई नहीं बढ़ाई फिर भी बर्थ बढ़ गए। इसका खमियाजा तो यात्रियों को तब भुगतना पड़ता है, जब उन्हें सिमट-सिमट कर हजारों किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है या फिर एक यात्री के माथे पर दूसरे यात्री का बर्थ झूलता नजर आता है और वे अपनी कमर सीधी नहीं कर पाते।
उरदू का ज्ञान जरूरी
पटना से अजमेर से के लिए साप्ताहिक ट्रेन बुधवार को रवाना होती है। मैंने जब इस ट्रेन का टिकट खरीदा तो इस पर `इबादत´ एक्सप्रेस लिखा था। जब ट्रेन पकड़ने आया तो ट्रेन पर कहीं `इबादत´ एक्सप्रेस का नामो-निशान नहीं था। हर डिब्बे पर `जियारत´ एक्सप्रेस लिखा था। अब आप इस ट्रेन से अजमेर में मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर जियारत करने जाएं या इबादत के इरादे से सफर करें या फिर `कर्म ही पूजा है´ के सिद्धांत पर अमल करते हुए अपने काम के सिलसिले में यात्रा करें, आपको उरदू के समान अर्थ वाले शब्दों की जानकारी जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि आप इबादत एक्सपे्रस का इंतजार करते रहें और प्लेटफॉर्म से आपके देखते-देखते जियारत एक्सप्रेस एक-दो-तीन हो जाए।

Saturday, November 15, 2008

जूठे दोने में छिपा बड़ा सच



करीब सत्रह साल बाद इस बार छठ पर्व पर घर जाने का अवसर मिला। इतने लंबे अरसे बाद मां-बाबूजी, छोटे भाई, अन्य परिवारजनों, बचपन के दोस्तों और ग्रामजनों के सान्निध्य में इस पर्व के दौरान घर होने का जो सुख मिला, उसकी बात फिर कभी। अभी तो कुछ और ही...जो कई दिनों में मन में उमड़-घुमड़ रहा है। छठ के परना के दिन ही जयपुर लौटने का कार्यक्रम था। शाम को ट्रेन थी। पटना में पढ़ रहा भतीजा भी सी-ऑफ करने आया था।
बिहार की पहचान जिन कुछ चीजों से होती है, उनमें छठ पर्व, लिट्टी-चोखा, भिखारी ठाकुर का बिदेशिया, विद्यापति के गीत आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं। दोपहर को ही घर से निकला था, सो भूख लगी थी। स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर एक पर लिट्टी-चोखा का स्टॉल देखा, तो खाने का लोभ संवरण नहीं कर सका। चाचा-भतीजे दोनों ने चार-चार लिट्टी खाई। भतीजे के लिए तो यह विशेष मायने नहीं रखता, क्योंकि उसे तो घर पर भी जब चाहे, इसका स्वाद चखने को मिल जाता है, लेकिन मुझे तो यह सुख पाने के लिए बिहार की यात्रा ही करनी पड़ती है।
खैर....., स्टॉल के बगल की खाली जगह में जूठे दोने रखने के लिए प्लास्टिक की बड़ी बाल्टी रखी थी। ट्रेन आने में देर थी, सो मैं उस स्टॉल से थोड़ी दूर एक नंबर प्लेटफॉर्म पर ही बैठ गया। इसी बीच सहसा मेरी नजर उस जूठे दोने वाली बाल्टी पर चली गई। मैले-कुचैले कपड़ों में एक नौजवान जूठे दोनों से बचा हुआ चोखा एक दोने में इकट्ठा कर रहा था। लिट्टी तो बमुश्किल ही कोई जूठन छोड़ता होगा, सो जूठे चोखा से ही वह अपनी पेट की आग को बुझाने के जतन में लगा था। यह दृश्य देख आत्मा रो उठी। मन हुआ कि स्टॉल मालिक को कहकर उसे तृप्त करा दूं। मगर यह क्या, जैसे ही उस नौजवान के पास पहुंचा, वह डर के मारे नौ दो ग्यारह हो गया। मैं आवाज लगाता रह गया लेकिन उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। न जाने इससे पहले रेलवे विभाग के कर्मचारियों ने उससे ’यादती की हो, जिससे उसके मन में डर समा गया हो।
हमारे राजनेता भले ही विकास के कितने ढिंढोरे पीट लें, लेकिन जब तक ऐसे दृश्य बरकरार रहेंगे, हम सिर उठाकर अपने संपन्न होने की घोषणा नहीं कर सकते। कहीं न कहीं उन तथाकथित नीति नियंताओं के कारनामे ही ऐसे हालात के लिए जिम्मेदार हैं।

Monday, October 27, 2008

थोड़ा कम पी मेरी रानी....दीपावली की असीम मंगलकामनाएं


इधर करीब दो-ढाई महीनों से ब्लॉग जगत से नाता टूट सा गया है। नियमित लेखन हो नहीं पाता है और पढ़ने की तो बात ही नहीं सोच सकता। कुछ व्यक्तिगत परेशानियां हैं, जिनका जिक्र फिर कभी। अभी तो यही कह सकता हूं कि विश्व के महानतम अर्थशास्त्रियों में गिने जाने वाले डॉ. मनमोहन सिंह ने जब से प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली है, महंगाई की मार से हर भारतीय की हालत खराब है। आए दिन हर परिवार में रोज-रोज बढ़ती महंगाई से पति-पत्नी तथा माता-पिता से संतानों के संबंध में खटास बढ़ती ही जा रही है। अब हर किसी की तो महंगाई भत्ता बढ़ती नहीं, न ही हर किसी को छठा वेतन आयोग जैसा कुछ मिल पाने का सुख मिल पाता है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपित और राज्यपालों की तरह तनख्वाह बढ़ने की किस्मत भी हर किसी की कहां हुआ करती है। बावजूद इसके आटा, चावल, नमक, चीनी, तेल, बिस्किट जैसी चीजें तो हर घर में चाहिए ही। ऐसे में पत्नियों को महीने भर के घर खर्च का पैसा देकर रोज की खिच-खिच से मुक्ति पाने के आकांक्षी लोग भी पत्नियों से खिंचे-खिंचे से रहते हैं। न जाने श्रीमतीजी कब और पैसे की डिमांड कर बैठें। कई बार तो 20-22 तारीख आते-आते पैसे खत्म हो जाने की स्थिति आ जाती है। यह पीड़ा शायद 50-60 प्रतिशत पतियों की हो। वैसे तो लोगों को `माया´ (धन-संपत्ति) से मुक्ति पाने के उपाय सुझाने का ठेका साधु-महात्माओं के पास ही हुआ करता है। हालांकि आजकल मैनेजमेंट गुरु भी हाउस मैनेजमेंट और वेल्थ मैनेजमेंट के नाम से ऐसी सलाह देने में गुरेज नहीं करते।
कई बार ऐसा भी होता है, जब आपको ऐसे आदमी से भी बहुत अच्छी सलाह मिल जाती है जिसकी आपको अपेक्षा नहीं होती, या फिर आपसे बिल्कुल विपरीत पृष्ठभूमि के व्यक्ति की कोई बात ऐसी होती है कि लगता है जैसे दोनों समानानुभूति की धरातल पर खड़े हों। अभी दो दिन पहले ही गुलाबी नगरी में अजमेर रोड पर खड़े एक ट्रक आरजे-14 जीबी-3985 पर लिखी सूक्ति वाक्य सी पंक्तियां देखीं तो लगा कि इसे आपलोगों से भी शेयर किया जाए। पंक्तियां कुछ इस तरह थीं---
`थोड़ा कम पी मेरी रानी, महंगा है इराक का पानी´ ।
ड्राइवर की इस गुजारिश का उसकी गाड़ी पर कितना असर हो पाता है, इसकी सचाई का पता तो उस ड्राइवर से पूछने पर ही चल पाएगा, लेकिन महंगाई और तंगहाली से परेशान पति अपनी पत्नी से सलीके से ऐसी गुजारिश तो कर ही सकता है। अभी तो ज्योतिपर्व दीपावली की इस पावन घड़ी में धन की देवी मां लक्ष्मी से यही प्रार्थना है कि उसकी कृपा हर किसी पर बनी रहे और हर कोई कुबेर बना रहे। दीपावली की इन्हीं शुभकामनाओं के साथ----मंगलम।

Saturday, September 27, 2008

बचपन के दिन भी क्या दिन थे...


यूं तो बचपन की हर याद संजोने लायक होती है, लेकिन आश्विन के महीने की बात ही कुछ और है। इसे महज संयोग ही कहेंगे कि जिस साल मेरा जन्म हुआ था, उसी साल हमारे गांव में, मेरे घर से महज 150-200 कदम की दूरी पर दुरगा पूजा महोत्सव की शुरुआत हुई। बहुत ही धुंधली सी याद बाकी है जब मेले में मां से मिट्टी का तोता खरीदवाया था। सात-आठ साल की उम्र से लेकर बीए करने के बाद गांव छोड़ने तक की अवधि में शायद ही कभी ऐसा हुआ हो, जब दुरगा पूजा के दौरान घर से बाहर रहा होऊं। गणेश चतुरथी के तीन-चार दिन बाद प्रतिमाएं बनाने के लिए मिट्टी लाने से ही उत्सवी माहौल की शुरुआत हो जाती थी, जो विजयादशमी पर प्रतिमाओं के विसर्जन तक कायम रहती थी। स्कूल से आने के बाद कुम्हारों के पास बैठकर पुआल से पुतले बनाना, फिर उस पर मिट्टी लपेटना, टुकड़ों में बनी प्रतिमाओं को अपने सामने पूर्ण होते देखना कितना सुखकर था, वर्णन करना मुश्किल है। प्रजापति (कुम्हारों को प्रजापति भी कहा जाता है) के हाथों प्रतिमा को नित नूतन आकार लेते देखना प्रजापिता ब्रह्मा की सृजन कला को देखने सरीखा ही हुआ करता था। कुछ समझ बढ़ी तो पहले तो महज खीरा-मिश्री के प्रसाद की चाहत से घंटों बैठे रहना, फिर दुरगा सप्तशती के मधुर श्लोकों को सुनना भी अच्छा लगने लगा। जब अक्षरबोध हुआ तो शाम को रामचरितमानस के नवाह्नपारायण पाठ में भी हिस्सा लेने लगा। गांवों में मेले ही मनोरंजन के साधन हुआ करते हैं और गांव वालों के पास संसाधन तो होते ही नहीं हैं, सो गांव के युवकों ने नवयुवक संघ बना रखा था, उसके बैनर तले सप्तमी से दशमी तक नाटक खेले जाते थे। पांचवीं-छठी कक्षा तक आते-आते हमें भी नाटक में छोटी-मोटी भूमिका दी जाने लगी। फिर दिन में प्रतिमाओं को गढ़ते हुए देखना और रात में नाटक के रिहर्सल के दौरान खुद को नाटक की भूमिकाओं में ढालने के प्रयास में जी-जान से जुटे रहना। मां सरस्वती की दया से लिखावट थोड़ी अच्छी थी, सो सभी पात्रों के डायलॉग लिखने की जिम्मेदारी भी मुझे ही दी जाने लगी। इसका लाभ हुआ कि खुद के डायलॉग तो याद करने में आसानी होती ही थी, दूसरे पात्रों के डायलॉग भी बिना किसी प्रयास के ही याद हो जाते थे। उम्र बढ़ी तो युवा पीढ़ी ने धीरे-धीरे संन्यास लिया और फिर हम किशोरों-नौजवानों के कंधों पर नाटकों के चयन, निरदेशन, रंगमंच सज्जा, व्यवस्थाएं जुटाने आदि की जिम्मेदारी आई, जिसे हम सभी साथियों ने बखूबी निभाया। वर्ष 1991 के बाद से गांव तो छूट गया, लेकिन वे पल आज तक नहीं भूले। नवरात्र के दस-पंद्रह दिन पहले से लेकर विजयादशमी तक गांव की उन्हीं पुरानी यादों में खोया सा रहता हूं। अवचेतन मन अक्सर रात में सपनों में गांव की सैर करा देता है। पहले पत्रों के माध्यम से गांव में रहने वाले दोस्तों से मेले के बारे में पूछता था, अब भी फोन करके पूछना नहीं भूलता हूं। वर्तमान पीढ़ी के किशोरों-युवाओं में क्रिकेट और फिल्मों के प्रति लगाव बढ़ गया है, लेकिन कला से वे विमुख हो गए हैं। पहले नाटक में असलियत का बोध कराने की कोशिश की जाती थी, अब असली जिंदगी में नाटकीयता हावी हो गई है। जब पता चलता है कि अब मेले में वह रौनक नहीं रही, तो अफसोस होता है। प्रोजेक्टर पर दिखाए जाने वाली फिल्मों में वह आकर्षण नहीं होता जो हम अनगढ़ कलाकारों की अभिनय प्रस्तुतियों में लोगों को मिला करता था। आधुनिकता का प्रवेश सर्वत्र हो चुका है, आज कोलकाता की एक फोटो देखी, जिसमें कलाकार मिट्टी की प्रतिमा को बिजली चालित ड्रायर से सुखा रहा था, तो सारी यादें ताजी हो आईं। मां भगवती की कृपा से सर्वत्र मंगल हो, यही प्रार्थना है।
ऊं जयंती मंगला काली भद्रकालि कपालिनी।
दुरगा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।

Tuesday, September 9, 2008

लक्षावली से सहस्त्रघट तक-बम बम भोले


तीन-चार दिन पहले एक मित्र का फोन आया। उन्होंने शिव मंदिर में सहस्त्रघट का आयोजन रखा था। इसके बाद पंगत प्रसादी की भी व्यवस्था थी। सावन-भादो में राजस्थान के मंदिरों में ऐसे आयोजन आम हैं।
सहस्त्रघट के दौरान जहां अन्य लोग भगवान आशुतोष शिव के जलाभिषेक में लीन थे, मैं कहीं यादों में खो गया था। गांव छोड़े दो दशक से भी अधिक हो चुके हैं, लेकिन गांव से जुड़ी यादें आज भी मानस पटल पर अंकित हैं। गांव वालों की आजीविका का मुख्य साधन खेती ही होती है और खेती के लिए बरसात जरूरी है। किसी साल समय से बरसात नहीं होती थी तो गांव के लोग आपस में विचार-विमर्श करने में जुट जाते थे कि कैसे यह संकट टले और खुशहाली आए। आपस में चंदा एकत्रित कर ब्रह्मस्थान परिसर में लक्षावली महादेव पूजन किया जाता था। चमत्कारों में मेरा विश्वास नहीं है, लेकिन मैं स्वयं इसका साक्षी हूं कि कई बार पूजा संपन्न होते-होते झमाझम बरसात शुरू होने लगती थी। शिव महिमा से अभिभूत लोगों के चेहरे खिल जाते थे और शुरू हो जाती थी धान रोपने की तैयारी। कुछ लोग व्यक्तिगत स्तर पर भी लक्षावली महादेव पूजन का आयोजन करते थे। ऐसा अब भी हो रहा होगा, इसमें कोई दो राय नहीं है।
परंपराएं भले ही भिन्न हों, लेकिन भगवान भोलेदानी सर्वत्र समान रूप से पूजे जाते हैं। पूरी सृष्टि आज भी विश्व हित में हलाहल पीने वाले शिव की ऋणी है। उनके प्रति आस्था का अतिरेक ही है कि जल के देवता वरुण या फिर बारिश के देवता इंद्र की आराधना करने की बजाय लोग भगवान शिव की आराधना करते हैं और फल प्राप्त होने पर झूम-झूम से जाते हैं।

Sunday, August 3, 2008

छोटी रेलयात्रा, बड़े अचरज


जब भी ट्रेन से सफर करता हूं, खट्टे-मीठे अनुभव होते ही हैं। यह मेरे अकेले की बात नहीं है, आप लोगों को भी ऐसे अनुभव अक्सर होते ही होंगे, लेकिन इस बार मुझे जो अनुभव हुए, उसे शेयर करने की इच्छा हो रही है। अभी हाल ही मुझे जयपुर से कोटा जाना पड़ा। मित्रों ने ट्रेन से जाने की सलाह दी। जाने वाली ट्रेन दिन में ही थी, सफर महज चार घंटे का था, फिर भी भीड़ से बचने के लिए आरक्षण करा लिया था। कोई परेशानी नहीं हुई। पैसेंजर गाड़ी से लौटना था, लेकिन भीड़ का डर तो था ही, रात का सफर था, सो वापसी का आरक्षित टिकट भी साथ ले गया था। 11:25 बजे ट्रेन की रवानगी थी। 11 बजे स्टेशन पर पहुंच गया। मुझे गाड़ी संख्या 193 कोटा-जयपुर पैसेंजर पकड़नी थी। वहां लगे इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड पर गाड़ी संख्या 1767 के कोटा से जयपुर जाने की सूचना प्रसारित हो रही थी। गाड़ी संख्या 193 की कहीं कोई सूचना नहीं थी। यह पहला अचरज था। पूछताछ काउंटर पर जानकारी की तो मैडम ने कहा-भागकर जाओ, गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर चार पर खड़ी है। दौड़ता-भागता पहुंचा तो ट्रेन तो जरूर खड़ी थी, लेकिन उसपर शामगढ़-कोटा-जयपुर-बयाना लिखा था। गाड़ी नंबर तो कहीं दिख नहीं रहा था। दूसरे यात्रियों से पूछताछ की तो पता चला कि यही ट्रेन जयपुर जाएगी। आरक्षण चार्ट का कहीं कोई नामो-निशान नहीं था कि उसमें अपना नाम और बर्थ नंबर देखकर तसल्ली की जाए। सहयात्रियों से एक बार और तस्दीक की और भगवान का नाम लेकर टिकट पर अंकित बोगी में साइड अपर वाले आरक्षित बर्थ पर बैठ गया। रास्ते में आए टीटी ने आरक्षण चार्ट देखकर तस्दीक कर दी कि ट्रेन भी सही थी और बर्थ भी। थोड़ी देर पहले ही ढाबे पर खाना खाया था और कोटा के पानी का स्वाद कुछ भाया नहीं, सो दो लीटर वाला मिनरल वाटर का बोतल खरीद लाया था कि रास्ते में तृçप्त होती रहेगी। पानी पीकर सो गया। सवाई माधोपुर आने पर नींद खुली। वहां 20 मिनट का स्टॉपेज था, सो नीचे उतर आया। पानी की बोतल के अलावा अपने पास कोई सामान नहीं था, सो उसकी सुरक्षा की चिंता किए बिना बर्थ पर ही छोड़कर नीचे उतर आया। वहां लगे भोंपू पर भी गाड़ी संख्या 1767 के ही आगमन और प्रस्थान की सूचना प्रसारित हो रही थी। गाड़ी संख्या 193 का कहीं कोई नामो-निशान नहीं था। खैर, प्लेटफॉर्म पर चहलकदमी करता रहा। गाड़ी खुलने से पहले वापस अपने बर्थ पर आया तो वहां एक महाशय आराम फरमा रहे थे। जब मैंने बर्थ रिजर्व होने के बारे में बताया तो वे उतरकर दूसरी सीट पर चले गए। मैंने बर्थ पर देखा तो पानी की बोतल नदारद थी। ट्रेन चल चुकी थी, आधे से ’यादा सफर बाकी था। आगे के स्टेशनों पर न तो इतनी देर का स्टॉपेज था कि प्यास लगने पर उतरकर पानी खरीदा जा सके और हर स्टेशन पर प्लेटफॉर्म पर पेयजल उपलब्ध हो, इसकी भी क्या गारंटी थी। सो करीब सवा दो घंटे का सफर इसी चिंतन में बीत गया कि क्या पानी के भी चोर हो सकते हैं या आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भोजन तो दूर, पानी तक लोगों को उपलब्ध नहीं हो सका है। बचपन में किराने की दुकान पर नमक को उपेक्षित सा बाहर ही रखा देखता था। अमूमन ऐसी धारणा होती थी कि नमक जैसी साधारण वस्तु (जो तब बमुश्किल 25 पैसे किलो होती थी) को कौन चुरा ले जाएगा। आज वही नमक दुकानों में शीशे के पीछे शोकेस में शोभायमान होता है। बदलते हुए समय और आयोडीन की मिलावट ने नमक की तकदीर संवार दी और कीमत भी। इतना ही नहीं, यह आम आदमी से दूर भी होता जा रहा है। महज सब्जी में कम नमक होने की बात पर पत्नी-बेटी की हत्या की खबर भी पढ़ने को मिलती है और बाद में हत्यारे को इस बात पर अफसोस होता है कि घर में नमक खरीदने के पैसे नहीं थे। पैकेटबंद नमक बिकने से अपनी इच्छा व सुविधानुसार अठन्नी-रूपैया का नमक खरीदना मुश्किल हो जाता है।
ऐसे में यह सोचने को विवश हूं कि ट्रेन में सामान की सुरक्षा की तो कोई गारंटी नहीं होती, सो यात्रा के दौरान चेन और ताला साथ रखना जरूरी होता है। तो क्या ऐसा समय भी आएगा जब ट्रेनों में पानी की डिस्पोजेबल बोतल की सुरक्षा का भी इंतजाम साथ लेकर चलना होगा।

Thursday, July 31, 2008

प्रेमचंद को भूल गए, रफी के तराने याद रहे


31 जुलाई को उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की जयंती थी और अमर गायक मोहम्मद रफी की पुण्यतिथि। शहर की सांस्कृतिक संस्थाएं और गायक कलाकार पिछले चार-पांच दिन से मोहम्मद रफी की पुण्यतिथि के उपलक्ष में कार्यक्रम आयोजित कर रहे थे। आज यानी 31 जुलाई को भी तीन-चार स्थानों पर कार्यक्रम हुए। साथी भाइयों से पता चला कि कार्यक्रम सफल हुए और इनमें गायक कलाकारों के साथ श्रोताओं की उपस्थिति अच्छी थी।
प्रगतिशील लेखक संघ की राज्य इकाई की ओर से पिंकसिटी प्रेस क्लब के श्रीप्रकाश मीडिया सेंटर में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की जयंती पर `प्रेमचंद और आज का मीडिया´ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया था। मुझे पहले से ही अच्छा नहीं लग रहा था कि प्रेस क्लब की मुख्य सभागार की बजाय छोटे से मीडिया सेंटर में यह कार्यक्रम क्यों आयोजित किया जा रहा था। कार्यक्रम भारतीय परंपरानुसार 45-50 मिनट विलंब से शुरू हुआ। प्रेमचंद के साहित्य के प्रति अनुराग के कारण मैं भी ससमय कार्यक्रम में पहुंच गया। मीडिया सेंटर में महज छह दर्जन (यदि मेरी गिनती गलत न हो तो) कुर्सियां थीं, लेकिन उनमें से भी एक दर्जन से अधिक खाली थीं। ...और गिनती के इन श्रोताओं में कई ऐसे भी थे, जो कार्यक्रम के कवरेज के लिए आए थे। आयोजकों का निर्णय मुझे अच्छा लगा, अन्यथा वक्ताओं को मुख्य सभागार की खाली कुर्सियां मुंह चिढ़ाती हुईं नजर आतीं। प्रतिष्ठित कवि और मीडियाकर्मी लीलाधर मंडलोई मुख्य वक्ता थे। उन्होंने मुंशी प्रेमचंद से जुड़े विभिन्न बिंदुओं पर बखूबी प्रकाश डाला। उन्होंने जागरण में छपी प्रेमचंद की टिप्पणी को उद्धृत किया-`किताबों के प्रति उदासीनता ही सामाजिक आंदोलन के अभाव का मूल कारण है।´ दशकों पहले लिखी गई इस एक पंक्ति की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है, जितनी प्रेमचंद ने महसूस की थी। यह कटु सत्य है कि यदि हम भारतीयों की साहित्य और साहित्यकारों के प्रति उदासीनता खत्म हो जाए, तो भ्रष्टाचार, आतंकवाद, सांसदों की खरीद-फरोख्त जैसी घटनाएं समाज में बिल्कुल नहीं होंगी। मैं कदापि यह नहीं कहूंगा कि मोहम्मद रफी के गीत गुनगुनाना, गाना और सुनना तथा उन्हें याद करना गलत है, लेकिन भारतीय मानस के सच्चे कलमकार प्रेमचंद को भुलाना अवश्य ही अक्षम्य अपराध है। ...और अंत में......ईश्वर प्रेमचंद की आत्मा को शांति दें और हम भारतीयों को सद्बुद्धि।

Tuesday, July 22, 2008

लाफ्टर शो में क्यों नहीं जाते लालू?


परमाणु करार पर मंगलवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को संसद में विश्वासमत साबित करना था। देश ही नहीं, दुनिया की निगाहें टिकी थीं भारतीय संसद भवन पर, न जाने क्या होगा। दोपहर को मेरा भी मन हुआ, देखें, हमारे नेता कैसे जलवा दिखा रहे हैं लोकतंत्र के पावन मंदिर में। बुद्धू बक्से के सामने बैठ गया। संसद में भाजपा के अनंत कुमार बहस जारी रखे हुए थे और कमरे में मेरा बेटा चैनल बदलने की जिद पर अड़ा हुआ था। इसी बीच लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटरजी ने बताया कि अनंत कुमार के बोलने का समय पूरा हो गया और अब रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव परमाणु करार पर अपना पक्ष रखेंगे। संसद में जैसे ही वक्ता के सुर बदले, बेटे का सुर भी बदल गया। उसने भी लालू प्रसाद को को सुनने की इच्छा जाहिर की। और जैसा कि होता है, लालू ने जैसे ही बोलना शुरू किया, संसद में ठहाके गूंजने लगे। इस बीच आठ साल के मेरे बेटे ने सहज टिप्पणी की-पापा, लालू यादव लाफ्टर शो में क्यों नहीं जाते? वहां इनके होने से दशॅकों पर अच्छा रंग जमेगा। इस बालसुलभ टिप्पणी पर लालूजी को कैसा लगेगा, यह तो पता लगना मुश्किल है, लेकिन मुझे तो अच्छा नहीं लगा। जिम्मेदार पद पर आसीन लोगों का चरित्र यदि इस तरह सावॅजनिक विदूषक का हो जाएगा, तो देश का क्या होगा। एक बात औऱ, यदि लालू प्रसाद का स्वभाव विशुद्ध मजाकिया का होता, तो शायद इसे सहन भी किया जा सकता है, लेकिन चारा घोटाले में हुए भ्रष्टाचार में उनकी लिप्तता, देखते-देखते उनकी संपत्ति में बेशुमार बढ़ोतरी तथा उनके चिरशासनकाल में बिहार की बरबादी-ये सब मिलाकर जो तस्वीर दिखाते हैं, उनमें लालूजी को किसी भी रूप में लल्लू या भोला नहीं माना जा सकता। हंसी-ठिठोली एक सीमा तक तो सही होता है, लेकिन जिम्मेदार पदों पर बैठे लोग यदि इस प्रकार के अपने भ्रष्ट आचरण पर मजाक का मुलम्मा चढ़ाते रहेंगे तो यह किसी भी सूरत में अच्छा नहीं होगा। वैसे, अवसान तो सभी का होना है, लालू के राजनीतिक जीवन का भी अवसान होगा ही और तब उनके लिए लाफ्टर शो जैसे आयोजन फायदेमंद साबित हो सकते हैं।

Thursday, July 17, 2008

...खोती जा रही है तहजीब


किराये के मकान में रहने के सुख भी हैं और दुख भी। दसवीं बोडॅ की परीक्षा पास करने के बाद से ही घर से दूर किराये के मकानों में रहता आया हूं। किराये में रहने का सुख यह है कि खुदा न खास्ते मकान में कोई गड़बड़ी हो तो मालिक मकान से शिकायत कर दो। उसकी मेहरबानी हुई तो दो-चार दिन में वह उसे सही करवा ही देगा। न प्लास्टर उखड़ने की चिंता न रंग-रोगन कराने की फिक्र। अपनी सुविधा के अनुसार किरायेदार मकान बदल भी लिया करते हैं, लेकिन इसका दूसरा दुखद पहलू यह है कि जब आपको कोई परेशानी नहीं हो, आप मजे में किराये के मकान में अपनी जिंदगी गुजार रहे हों, और मालिक मकान नाम का जीव बिना किसी कारण के आपको मकान खाली करने का अल्टीमेटम दे दे। फिर शुरू होती है एक और अदद मकान की तलाश। राम को तो सीता का पता लगाने के लिए हनुमान मिल गए थे, लेकिन हर किसी के भाग्य में ऐसा कहां होता है। ले-देकर अखबारों में छपने वाले क्लासीफाइड विज्ञापनों और मकानों के बाहर लग रहे टू-लेट के बोडॅ का ही आसरा होता है। आजकल मैं भी कुछ ऐसी ही परेशानियों से घिरा हुआ हूं। .....खैर..किसी और मुद्दे पर अपने दिल की बात शेयर करना चाहता था, लेकिन एक बार फिर लीक से हट गया। मकान बदलना है तो शायद मुहल्ला भी बदल जाए, मिड सेशन में बच्चे का स्कूल बदलना बच्चे के साथ मेरी जेब के लिए भी थोड़ा कष्टप्रद हो सकता है, सो मैं छुट्टी के समय स्कूल गया, जिससे नए मोहल्ले की ओर जाने वाले ऑटोरिक्शा वाले से बातचीत कर सकूं। बच्चे एक-एक कर ऑटो के पास आ रहे थे और ड्राइवर को अपने भारी स्कूल बैग थमा रहे थे। इस दौरान बच्चों के संबोधन ने मुझे कुछ सोचने पर विवश कर दिया। पांच से बारह साल तक के बच्चों में से कोई भी ऑटो ड्राइवर को अंकल नहीं बोल रहा था, सभी ड्राइवर को --ऑटो वाले जी--बोल रहे थे। मुझे तो बच्चों के संबोधन ने आहत किया ही, संभव है कि ऑटो ड्राइवर को भी अच्छा नहीं लग रहा हो, लेकिन वह कर भी क्या सकता था। बच्चों को तहजीब का पाठ पढ़ाने वाले ही रिक्शा वाले को ---रिक्शा---कहकर निरजीव होने का बोध कराते हों, तो बच्चों से क्या आशा की जा सकती है। जहां तक मेरा अनुभव है, स्कूली बच्चों को नियमित रूप से लाने-ले जाने वाले ऑटोरिक्शा ड्राइवर बच्चों से स्नेहिल संबंध जोड़ लेते हैं। मेरा बच्चा भी कई बार घर लौटता है तो चहकते हुए बताता है आज ऑटो वाले अंकल ने सभी बच्चों को टॉफी खिलाई या फिर आइसक्रीम खिलाई। ऑटो रिक्शा ड्राइवर यदि ऐसा नहीं करें तो भी उनके व्यवसाय पर कोई फकॅ नहीं पड़ेगा, लेकिन शायद मानव स्वभाव की अच्छाइयां ही उनसे ऐसा कराती हैं। ऐसे में तथाकथित बड़े घरों के अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे उन्हें अंकल कहें तो बच्चों का कुछ नहीं बिगड़ेगा। हां, कच्ची उम्र में उनका अहं भाव तिरोहित होगा तो बड़ी उम्र में ऊंचे पदों पर पहुंचने के बावजूद उनकी मानवता की भावना कायम रहेगी।

Friday, June 20, 2008

फ्राइडे को भेजा फ्राई

बड़ी बहन शुक्रवार को संतोषी माता का व्रत रखती थी, इस कारण घर में खटाई, नींबू आदि के उपयोग की पूरी तरह मनाही होती थी। बाल मन न चाहते हुए भी प्रतिबंध मानने को मजबूर हुआ करता था क्योंकि ऐसा न करने पर प्रसाद से वंचित होना पड़ता था। स्थिति कुछ वैसी ही हुआ करती थी जैसी आजकल मलाई मारने की मजबूरी में वामपंथियों की यूपीए सरकार को समर्थन देने की है। बहन की मनोकामना पूरी होने के बाद उसने व्रत का उद्यापन कर दिया और शादी के बाद अब यदि दुबारा करती भी होगी तो उपरोक्त प्रतिबंध उसके ससुराल में ही लागू होते हो रहे होंगे।
घर में संतोषी माता के व्रत का उद्यापन हो जाने के बाद हमारे लिए सप्ताह के सारे दिन एक समान हो गए थे, लेकिन पिछले कुछ हफ्तों से शुक्रवार ने एक बार फिर से दिल का सुकून और दिमाग का चैन छीन लिया है। ऐसा लगता है कि शनिवार से एक दिन पहले ही शनि की ढैया और साढ़े साती का प्रकोप एक साथ प्रभावी हो गया हो। महान अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह ने जब से प्रधानमंत्री की गद्दी संभाली है, आम आदमी के लिए दो वक्त की दाल-रोटी का जुगाड़ कर पाना मुश्किल हो गया है। दिन-ब-दिन बढ़ती महंगाई के कारण आदमी अपनी आवश्यकताओं को सिकोड़ने को बाध्य हो गया है। हाउसिंग लोन पर बढ़े ब्याज दरों ने लोगों को किराये के घरों में सिर छुपाने को बाध्य कर दिया है। रही -सही कसर पिछले दिनों पेट्रोल-डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोतरी ने पूरी कर दी है। हर सामान की कीमत बढ़ गई है। जनकल्याणकारी सरकार के मुखिया अरण्यरोदन कर रहे हैं। लोगों की जेब तो महीनों क्या, सालों से महंगाई की मार झेल ही रही थी, शुक्रवार यानी 20 जून को घोषित (7 जून को समाप्त हुए सप्ताह के लिए) मुद्रास्फीति की 11.05 प्रतिशत दर ने जैसे उसका पोस्टमार्टम रिपोर्ट सार्वजनिक कर दिया। इसके बावजूद हमारे वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के एफएम पर एक ही धुन बजता रहता है-`महंगाई रोकने के प्रयास किए जाएंगे´। आज भी वे यही पुराना राग अलाप रहे थे। वे क्या प्रयास करेंगे और उनके प्रयास क्या रंग लाएंगे, यह तो आने वाला समय बताएगा, लेकिन अब तक के कटु अनुभव से तो यही सच समझ में आता है कि जब से यूपीए सरकार सत्ता में आई है, उसने महंगाई बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महंगाई का ठीकरा राज्य सरकारों के सिर फोड़ दिया। सोनिया ने उज्जैन में प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना कर महाकाल से आगामी विधानसभा चुनाव (और आसन्न लोकसभा चुनाव में भी) में विजय का आशीर्वाद मांगा। 1.51 लाख रुपए की एक स्वर्ण शिखर दान देने की भी घोषणा की। उन्होंने अपने आज्ञाकारी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बचाव करते हुए राज्य सरकारों पर मुनाफाखोरों तथा जमाखोरों के खिलाफ सख्ती से कारüवाई नहीं करने का आरोप लगाया। सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती हुई महंगाई के कारण जनता की दुर्गति का असली जिम्मेदार कौन है, इसका जवाब तो आने वाले चुनाव में जनता दे ही देगी, लेकिन तब तक यूपीए सरकार उसका कितना कचूमर निकालेगी, यह सोचकर भी डर लगता है।
ज्ञानी लोग कह गए हैं-चादर देखकर पांव पसारना चाहिए, लेकिन अब तो चादर की साइज घटती-घटती रूमाल सी हो गई है, उससे सिर ढंक जाए, वही काफी है, आपादमस्तक शरीर को ढंकने की तो उम्मीद करना ही बेकार है।
अब तो संतोषी माता से ही प्राथॅना है कि मनमोहनी सरकार को सद्बुद्धि दें कि वह महंगाई पर काबू पा सके या फिर आम आदमी के संतोष का सेंसेक्स इस स्तर पर ला दें कि उसे किसी चीज की चाहत ही नहीं रहे-रोटी-कपड़ा और मकान की भी नहीं। अन्यथा अब तक तो विदभॅ व अन्य स्थानों के किसान ही आत्महत्या करने को बाध्य थे, अब हर आदमी महंगाई की मार से मुक्ति पाने के लिए कहीं मौत को गले लगाने को मजबूर न हो जाए।

Wednesday, June 18, 2008

...कनॅल ने थाम लिया झुनझुना


छब्बीस दिनों के बाद आखिरकार बुधवार 18 जून को गुर्जर आरक्षण आंदोलन का पटाक्षेप हो गया। इससे पहले मंगलवार को मानसून गुलाबीनगर को तर-बतर कर गया। इधर इंद्रदेव मेहरबान हो रहे थे, उधर मोहतरामा वजीरे आला वसुंधरा राजे एक तीर से कई शिकार करने की अपनी साध पूरी करने में लगी थीं। उन्होंने गुर्जरों को अतिपिछड़ा वर्ग में चार से छह प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा के साथ ही सवर्ण समाज को भी आर्थिक आधार पर आरक्षण देने के संकेत दे दिए। ब्राह्मणों के साथ ही राजपूत, कायस्थ व सवर्ण समाज की अन्य जातियों ने पहले से ही अपने इरादे जता दिए थे कि आर्थिक आधार पर आरक्षण लिए बगैर वे नहीं मानेंगे। डॉ. किरोड़ीलाल मीणा ने भाजपा से इस्तीफा देकर मीणा समाज में अपना कद बढ़ाने के साथ ही सरकार को भी स्पष्ट कर दिया था कि यदि जनजाति आरक्षण से छेड़छाड़ की गई तो इसके दूरगामी घातक परिणाम हो सकते हैं। तय है कि वसुंधरा राजे राजनीति के साथ कूटनीतिक बिसात पर भी चाल चलने से पहले आराम से हर पहलू पर सोचती रहीं और जैसा कि होता है एक सीमा के बाद आदमी हारता भी है, थकता भी है। आरक्षण आंदोलन से गुर्जरों के सबसे बड़े नेता होकर उभरे कनüल किरोड़ी सिंह बैंसला ने ना-नुकर करते हुए हेलीकॉप्टर की सवारी और पिंकसिटी के होटल तीज में वीवीआईपी ट्रीटमेंट के बाद एसटी में चिट्ठी की सिफारिश के राग को भुलाकर सरकार की पेशकश को स्वीकार कर लिया।
अब सवाल यह उठता है कि कनॅल को यदि यही फैसला मंजूर करना था, यदि उनका साध्य इतना तुच्छ था तो गुर्जर समाज के दर्जनों नौजवानों की बलि उन्होंने क्यों ली। 27 दिनों तक दिल्ली-मुंबई रेलमार्ग पर हजारों लोगों के साथ तंबू लगाकर लाखों लोगों की यात्रा का कार्यक्रम रद्द कराने के पीछे उनका क्या मकसद था। महज यही तो नहीं कि यह समय खेतीबाड़ी का नहीं होता, सो अपने भाई-बंधुओं के साथ पटरी पर पिकनिक मनाएं। यदि वाकई उनमें सोद्देश्य आंदोलन करने और लंबे समय तक इसकी कमान थामे रखने का माद्दा था तो फिर उन्हें अपना यह जीवट भारतीय समाज में कोढ़ बनी आरक्षण की व्यवस्था को ही समूल नष्ट करने के लिए प्रयास करना चाहिए था। हां, गुर्जरों के साथ ही समाज के अन्य दलितों-वंचितों को शिक्षा तथा अन्य सुविधाएं मुहैया कराने का आंदोलन यदि वे चलाते और इसमें भले ही कितना भी बलिदान देना पड़ता, वे भारतीय इतिहास में अमर हो जाते। अभी तो गुर्जर आंदोलन का जिस तरह से पटाक्षेप हुआ है, जैसे-जैसे सरकार से मिले झुनझुने के बोल लोगों की समझ में आएंगे, वे अपने समाज में भी तिरस्कृत और बहिष्कृत हो जाएंगे। जिन अबोध बच्चों के पिता इस आंदोलन में अकाल काल कवलित हो गए, जिन बहनों की आंखें अभी दो माह बाद और फिर हर साल रक्षाबंधन पर भाई की अंतहीन इंतजार करने को मजबूर हो गईं, जिन ललनाओं का सुहाग उजड़ गया वे क्या कभी अपने ददॅ को भुला पाएंगी। संभव है कि कभी अकेले में कनॅल की आत्मा भी नौजवानों के बलिदानों के लिए उन्हें धिक्कारे। कुल मिलाकर तथ्य यही है कि छोटी उपलब्धियों के लिए बड़े स्तर पर इस तरह जनमानस को उद्वेलित और आतंकित करने का अधिकार किसी को नहीं होना चाहिए। वक्त सबको आईना दिखा देता है और समय का इंसाफ अंतत: स्वीकार करना ही पड़ता है। आशा करना चाहिए एक समय अवश्य आएगा जब आरक्षण की कोढ़ से हमारे समाज को हमेशा के लिए निजात मिल जाएगी।

Saturday, June 14, 2008

चिट्ठी आई थी...आती नहीं...फिर आएगी

इंदिरा गांधी एक बार कश्मीर के टूर पर गई थीं और वहां के रमणीक वातावरण से सम्मोहित और उल्लसित होकर अपने पिता जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखा। उसमें कुछ शब्द थे- `काश! ये शीतल मंद पवन के झोंके मैं आपको भेज पाती´। इसके जवाब में नेहरू ने लिखा- `...लेकिन वहां इलाहाबाद का लंगड़ा आम (जिसे मालदह भी कहा जाता है) नहीं होता।´
आप सोच रहे होंगे कि ऐसा क्या हुआ कि ब्लॉग पर मैं अपने मन की बात करने की बजाय इन विभूतियों के पत्रों का जिक्र करने लगा। तो सचाई बता दूं कि न तो इंदिरा-नेहरू के प्रति मेरा कोई पूर्वाग्रह युक्त सम्मान उमड़ पड़ा है न ही कश्मीर की वादियों और लंगड़ा आम की मिठास से मैं आपको रू-ब-रू कराना चाहता हूं।
हुआ यूं कि ऐतिहासिक नगर वैशाली में अवस्थित शिक्षक मित्र के पुत्र का आज जन्मदिन था। सुबह करीब साढ़े आठ बजे बच्चे को बधाई देने के लिए फोन किया। पूछने पर उसने बताया कि पापा अभी भी बिस्तरों में ही हैं। मैंने जब मित्र से कारण पूछा तो उन्होंने उपरोक्त संदर्भ को रेखांकित करते हुए कहा कि जेठ में ही सावन की झड़ी लगी हुई है, ऐसे में बाहर निकलकर भी क्या करूं, सो बिस्तर में लेटकर ही मौसम का लुत्फ उठा रहा हूं। रिमझिम मेघ मल्हार और शीतल मंद बयार के झोंके तो वे चाहकर भी मुझे नहीं भेज सके, लेकिन मुझे उनकी किस्मत से रस्क जरूर हुआ कि सुहाने मौसम के साथ लंगड़ा आम का दोहरा आनंद वे उठा रहे हैं।
अब आता हूं उस मुद्दे पर जिसने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया। जैसा कि मैंने पहले भी कहीं जिक्र किया था कि आजकल कई बार ऐसा लगता है जैसे लिखने के खिलाफ कोई साजिश या अभियान चल रहा हो। हर जगह ऐसी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं कि बिना लिखे, महज बोलने से या फिर इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से आपका काम चल जाए। ऐसे में आपस में राफ्ता कायम करने का सबसे महत्वपूर्ण साधन फोन (मोबाइल या लैंडलाइन) ही है। पत्रलेखन की तुलना में इसमें समय और धन दोनों ही अधिक खर्च होता है लेकिन वह तसल्ली या आत्मसंतुष्टि नहीं मिल पाती जो कभी पत्र लिखने के बाद या फिर मिलने से हुआ करती थी। बरसों बाद प्रियजनों के पत्र आज भी लोगों ने सहेजकर रखे हुए हैं और उन्हें बार-बार पढ़कर जो सुखद अहसास होता है, उसका तो कहना ही क्या? पत्र लिखते समय हमारे पास कई सारे विकल्प खुले होते हैं। मसलन कोई शब्द या अंश पसंद नहीं आया या माफिक नहीं लगा तो आप उसे हटा सकते हैं, उसके स्थान पर मनमाफिक शब्द का प्रयोग कर सकते हैं। फिर, पत्र लिखते समय ऐसी जल्दबाजी या प्रत्युपन्नमतित्व (ultra presence of mind) की जरूरत नहीं होती जो अमूमन फुनियाते समय हुआ करती है। पत्रोत्तर लिखते समय भी जो सहज प्रवाह हुआ करता है कि एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति को अपने प्रियजन के साथ जीते हुए आप उसके सामने अपनी उपस्थिति का आभास कराने के लिए स्वतंत्र होते हैं। फ्लैश बैक में जैसे सारी पुरानी घटनाएं चलती रहती हैं। फोन चाहकर भी ऐसी सुविधा उपलब्ध नहीं करा सकता, भले ही उसमें वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा क्यों न हो। इतना ही नहीं, आपके पास इसके बाद के जेनरेशन की ऑनलाइन चैटिंग की सुविधा उपलब्ध हो, तो भी आप पत्राचार का सुखद अहसास महसूस नहीं कर सकते।
जमाना आधुनिकता का है। गुजरे दौर की बात करना बेमानी होगी, फिर भी आशा तो कर ही सकता हूं कि जब भी समय मिले, हमें अपने प्रियजनों को विशेष अवसरों पर पत्रों का तोहफा अवश्य ही देना चाहिए। अवश्य ही वह दौर आएगा जब हम उम्मीद करेंगे कि चिट्ठी आएगी...आएगी....जरूर चिट्ठी आएगी।

Monday, June 2, 2008

आरक्षण व्यवस्था का भी हो पोस्टमार्टम

पूरी मरुधरा 23 मई से गुर्जर आरक्षण आंदोलन की आग में झुलस रही है। इस दौरान पुलिस फायरिंग में 23 और 24 मई को करीब 39 आंदोलनकारियों की मौत हो गई। इस आंदोलन के कर्णधार कनॅल किरोड़ी सिंह बैंसला के साथ गुर्जर समाज के हजारों लोग सिकंदरा और पीलू का पुरा में अपने परिजनों के शवों के साथ पड़ाव डाले बैठे रहे। उनकी मांग थी कि पड़ाव स्थल पर ही पोस्टमार्टम किए जाएं। अंतत: सरकार उनकी मांगों पर झुकी और सोमवार को शवों के पोस्टमार्टम किए गए। आंदोलनकारियों की संख्या चूंकि हजारों में है और भीड़ के भेजे को समझना आसान नहीं होता, इसलिए अभी भी यह कहना आसान नहीं है कि इन मृतकों का अंतिम संस्कार मंगलवार को या एक-दो दिन में हो ही जाएगा। मृतकों के परिजनों को सद्बुद्धि आए तो हो सकता है कि वे अपने प्रियजनों की माटी की ऐसी `माटी´ न होने दें तथा अंतिम संस्कार के लिए राजी हो जाएं। हालांकि इसकी उम्मीद करना बेमानी होगी कि मृतकों के पंचतत्व में विलीन होने के साथ यह आंदोलन भी खत्म हो जाए। अभी तक गुर्जर समाज के लोगों के जो तेवर दिख रहे हैं, उससे लगता है कि तीन दर्जन से अधिक युवाओं की मौत के बाद भी उनका जोश ठंडा नहीं पड़ा है और वे किसी भी हद तक कुरबानी के लिए तैयार हैं।
जो भी हो, यह संतोष का विषय है कि 10-11 दिन बाद ही सही, शवों का पोस्टमार्टम हो गया, अन्यथा उनकी तो दुर्गति ही हो रही थी। हर किसी का शव तो लेनिन की तरह नहीं होता, जिसे दशकों तक सुरक्षित रखा जा सके। आजादी के बाद जब हमारे नेताओं ने आरक्षण की व्यवस्था की थी तो उन्हें भी इसका भान नहीं रहा होगा कि आने वाले सालों में उनके उत्तराधिकारी इसकी मूल भावना को ही भूलकर बस वोटों की राजनीति के लिए इसका उपयोग करते रहेंगे। आजादी के छह दशकों बाद अब समय आ गया है जब पूरी आरक्षण प्रणाली पर विचार किया जाना चाहिए और हो सके तो राष्ट्रहित को सरवोपरि मानते हुए इस बीमारी को हमेशा के लिए खत्म ही कर दिया जाना चाहिए। समाज में जो वंचित-शोषित और दलित हैं, उन्हें सुविधाएं मुहैया कराने से किसी को एतराज नहीं होगा। बिना किसी जातिभेद के दलितों-शोषितों के बच्चों को पढ़ाई-लिखाई की अच्छी से अच्छी सुविधा उपलब्ध कराई जाए, जिससे वे समाज और शासन व्यवस्था में अपनी योग्यता के बल पर उच्च पदों पर आसीन हो सकें। इस पर हजारों करोड़ रुपए भी खर्च हों तो किसी को आपत्ति नहीं होगी। वैसे भी जब हमारी मनमोहनी सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम का चित्त प्रसन्न हुआ और उन्होंने पहले 60 और फिर बाद में 71 हजार करोड़ रुपए किसानों की कर्जमाफी के लिए हवन कर çदए तो कौन क्या कर सका। ऐसे स्थानों का चयन किया जाए जहां वंचित-शोषित और दलितों की संख्या अधिक है तथा उन्हीं स्थानों पर उनके रहन-सहन और शिक्षा के बेहतर से बेहतर संसाधन उपलब्ध कराए जाएं।
आज आरक्षण की आंच धीरे-धीरे संपूर्ण भारतवर्ष को अपनी चपेट में ले रही है, जिसे भी देश से थोड़ा भी लगाव है, वह इस समस्या के इस तरह के समाधान को स्वीकार करने से नहीं हिचकेगा। राजनेताओं को व्यक्तिगत और दलगत हितों से ऊपर उठकर एक बार देशहित में सोचना ही पड़ेगा, अन्यथा आने वाली पीढ़ियां उन्हें माफ नहीं करेंगी।
आरक्षण की आग ने हमारे समाज को जिस तरह से अपनी जद में ले लिया है, समूची आरक्षण व्यवस्था का पोस्टमार्टम करना होगा और बेहतर तो यही होगा कि बिना इंतजार किए इसका अंतिम संस्कार भी कर दिया जाए।

Thursday, May 29, 2008

...आखिर चुप होने का क्या लेंगे लालू


राजनेताओं में सबसे बड़े मसखरे लालू प्रसाद यादव गुरुवार को एक बार फिर मीडिया में छाए रहे। टीवी चैनल वालों को तो बस लालू यादव की बाइट चाहिए, भले उनके बयानों के दुष्परिणाम उनके सूबे के लाखों लोगों को भुगतना पड़े। हां तो लालू जी ने कहा कि वे मुंबई में छठ मनाकर मानेंगे। शाहरुख खान के `क्या आप पांचवी पास से तेज हैं?´ कार्यक्रम में भाग लेने गुरुवार को मुंबई पहुंचे लालूप्रसाद यादव ने राज ठाकरे की धमकियों को दरकिनार करते हुए कहा कि वे मुंबई में ही छठ मनाएंगे। उन्होंने कहा कि छठ पूजा से वे सांस्कृतिक रूप से जुड़े हैं और इस त्यौहार को देश के किसी भी कोने में मनाया जा सकता है।
अब कुछ कड़वी हकीकत पर नजर डालें तो पता चलेगा कि बिहार का बहुत बड़ा तबका लालू यादव (और फिर राबड़ी देवी) के सुशासन के कारण घर-बार छोड़कर दो जून की रोटी के लिए दो सौ से दो हजार किलोमीटर दूर रहने को मजबूर हैं। बिहार के वयोवृद्ध ख्यातनाम साहित्यकार ने कुछ दिनों पहले जनसत्ता में दिए साक्षात्कार में राजकपूर की फिल्म `तीसरी कसम´ का हवाला देते हुए कहा था कि बिहार के लोगों ने घर न लौटने की `चौथी कसम´ खाई हुई है। लालू के शासन में जिनका भला हुआ, उनकी संख्या अंगुलियों पर गिनने लायक भले ही हो सकती है, लेकिन उन्होंने किन तरीकों से अपना भला किया, यह भी किसी से छिपा हुआ नहीं है। अपहरण-डकैती-रंगदारी का पर्याय बन गया था बिहार। वहां की सड़कों का जो बंटाधार हुआ, उसका अहसास उन लोगों को अवश्य ही हुआ होगा, जिन्होंने वहां यात्रा की हो या फिर चैनलों पर उसके दीदार नहीं हुए हों।
अब आते हैं छठ की बात पर। मैंने पहले भी कभी अपने ब्लॉग में एक बार कहा था और अब भी कह रहा हूं कि छठ न तो बिहार की संस्कृति का परिचायक है और न ही शक्ति प्रदर्शन का अवसर। यह तो भगवान भास्कर के प्रति अटूट आस्था का पर्व है जिसमें केवल और केवल आस्था की ही प्रधानता होती है, दिखावा नहीं। लालू यादव जब मुख्यमंत्री बने तो शायद एकाध बार उन्होंने पटना में गंगा किनारे छठ पर्व मनाया हो, लेकिन जैसे-जैसे उनका रुतबा बढ़ा, वे मास से क्लास होते हुए अपने आवास परिसर में ही पोखर खुदवाकर छठ मनाने लगे और आज तक यह परंपरा जारी है। इतना ही नहीं, उनके शासनकाल में पटना में गंगा की जितनी दुर्गति हुई, वह किसी से छिपी नहीं है। पटना में दिन-ब-दिन गंगा मैया श्रद्धालुओं से दूर होती गई और अब पिछले साल अखबारों में ही मैंने खबर पढ़ी थी कि गंगा की सफाई के लिए भगीरथ प्रयास किए गए।
वैसे भी छठ ऐसा पर्व नहीं है कि किसी पर्यटन स्थल पर जाकर मनाया जाए। सामान्यतया लोग अपने घरों के आसपास स्थित नदियों, नहरों, तालाबों के किनारे ही यह पर्व मनाते हैं। हां, कुछ लोग अवश्य ही बिहारशरीफ के पास स्थित सूर्य मंदिर परिसर में भी छठ पर्व मनाने के लिए जुटते हैं। पर्यटन के लिहाज से कोई किसी स्थान विशेष पर यह पर्व मनाने नहीं जाता। मुंबई में भी वही लोग छठ मनाते हैं जो आजीविका कमाने के सिलसिले में वहां रह रहे हैं। इसमें स्थानीय लोग भी उनकी मदद करते हैं और दशकों से इस पर्व के अवसर पर सौहादॅ बिगड़ने की कोई छोटी भी घटना भी नहीं हुई, क्योंकि व्रतियों और उनके परिजनों का एकमात्र उद्देश्य पूर्ण आस्था से सूर्य-आराधना करना ही होता है।
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे भले ही छठ पर्व को शक्ति प्रदर्शन का परिचायक मानते हों, लेकिन यदि लालू जैसे बड़बोले बात-बेबात उनके बयानों पर प्रतिक्रिया जताना छोड़ दें तो एकतरफा तो कोई बोलने से रहा। फिर राष्ट्र से बढ़कर महाराष्ट्र को मानने वाले राज ठाकरे पर नियंत्रण के लिए कानून भी तो है। लालू जिस तरह बार-बार उनके बयान पर छठ के समय जो होना होगा, हो जाएगा, अब जो पांच-छह महीने बचे हैं, उसमें बार-बार इस तरह के बयान देकर लालू इसे तूल न दें। वैसे भी पिछले दिनों महाराष्ट्र में मनसे की ओर से की गई हिंसक वारदातों के कारण बिहार के जो लोग अपनी रोजी-रोटी छोड़कर मुंबई, पूणे, नागपुर से वापस लौटने को विवश हुए, उनके पुनर्वास के लिए लालू ने कुछ भी नहीं किया होगा, तो फिर उनका क्या हक बनता है कि वे इस तरह के बयान देकर मुंबई और दूसरे शहरों में रह रहे लोगों के भी परेशान होने का रास्ता खोल दें। श्रद्धेय लालू यादव से सादर निवेदन है कि वे अपना मुंह बंद रखें और अनाप-शनाप बोलकर बिहारवासियों के माउथपीस न बनें।

Sunday, May 25, 2008

ये पब्लिक है, सब जानती है...


रविवार का दिन भारतीय जनता पार्टी के लिए खास रहा। करनाटक विधानसभा के चुनाव के परिणाम ने भाजपा को पहली बार दक्षिण के सरोवर में अपने बूते पर कमल खिलाने का सपना साकार कर दिया। इसमें भाजपा की स्ट्रेटजी और नीतियों का कितना योगदान है, यह बहस और शोध का विषय हो सकता है, लेकिन पिछले 10-12 महीनों में करनाटक में जो कुछ हुआ, जनता ने उसे याद रखा और मौका मिलते ही सारा हिसाब चुकता कर दिया। जेडीएस नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा ने धृतराष्ट्र बनकर पुत्रप्रेम का जो नजारा पेश किया था, मतदाताओं ने उन्हें 58 से 28 पर पहुंचाकर उनका कूड़ा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
पिछले कुछ महीनों में एक के बाद एक आए विभिन्न राज्यों के चुनाव परिणामों ने यह साबित कर दिया है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की कितनी दुर्गति हो चुकी है। किसानों की कर्ज माफी में डूबने वाले 71 हजार करोड़ रुपए भी कांग्रेस को डूबने से नहीं बचा सके। कांग्रेस राज में बढ़ी महंगाई ने आम आदमी के मुंह से निवाला छीन लिया है, तो फिर जनता इस पार्टी के नेताओं को माल उड़ाने का मौका कैसे देती। आज ही जयपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज में सुधाकर का कारटून छपा है जिसमें एक आदमी केंद्र में मनमोहन सरकार के चार साल पूरे होने के जश्न पर बेसाख्ता अपनी पीड़ा बयां कर उठता है-हे भगवान, एक साल और है। यह हर आम आदमी की पीड़ा है और इसे किसी भी सूरत में नकारा नहीं जा सकता। आम उपयोग में आने वाली वस्तुओं की कीमतों में जिस प्रकार इजाफा हुआ है, उसे देखते हुए अब कोई शक नहीं है कि यदि सब कुछ सामान्य रहा तो देश की जनता कांग्रेस और उसे बार-बार गीदड़भभकी देकर सत्तासुख भोगने वाली कम्युनिस्ट पार्टी को सबक सिखाकर ही छोड़ेगी। करनाटक की जनता इसलिए भी धन्यवाद की पात्र है कि उसने स्पष्ट बहुमत देकर भाजपा को ताज सौंपा है और गठबंधन सरकार का दु:ख झेलने से मना कर दिया है।
आशा है, भाजपा जनता की अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी और लालकृष्ण आडवाणी का संभावित पीएम से पीएम तक का सफर आसान हो सकेगा। करनाटक की जनता को नई सरकार की बधाई और शुभकामनाएं कि उसके सारे सपने साकार हों और प्रदेश प्रगति के पथ पर अग्रसर हो।

Saturday, May 24, 2008

न आंदोलन का तरीका बदला न सरकारी रवैया


अक्षरज्ञान के साथ ही बच्चों को स्वाधीनता की लड़ाई के किस्से सुनाए जाते हैं, इन्हें प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाता है। साहित्यकारों ने स्वतंत्रता संग्राम पर सैकड़ों कविताएं, कहानियां, नाटक, उपन्यास आदि लिखे हैं। फिल्मकारों ने भी इस पर दर्जनों फिल्में बनाई हैं।
उस दौर में जब अंग्रेजों की हुकूमत थी, आंदोलनकारियों का एकमात्र लक्ष्य उनकी दासता से मुक्ति पाना था। इस दौरान स्वतंत्रता सेनानियों का उद्देश्य फिरंगी सरकार की संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर उसे कमजोर करना भी होता था। इसके जवाब में ब्रिटिश सरकार के अफसर स्वतंत्रता सेनानियों को दंडित करने के साथ आम आदमी पर भी कहर बरपाने से नहीं हिचकते थे। जालियांवाला बाग में जो कुछ हुआ, उसे भुलाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। कुल मिलाकर आमने-सामने की स्थिति होती थी। न आंदोलनकारियों को सरकारी संपत्ति को नुकसान करने से गुरेज होता था, न अंग्रेज सेना को दर्जनों भारतीयों को एक साथ गोलियों से भून देने या उन्हें घोड़ों से रौंद डालने में कोई झिझक।
आज हमारा देश स्वतंत्र है और आजाद देश के लोगों की अपनी-अपनी अपेक्षाएं हैं। हर किसी की अपेक्षाओं को पूरा करना सरकार के वश में भी नहीं है, सो आए दिन आंदोलन होते ही रहते हैं। शुक्रवार 23 मई से राजस्थान में गुर्जर समाज खुद को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने को लेकर आंदोलन शुरू किया है। आंदोलनकारियों ने सबसे पहले रेलमार्ग को अपना निशाना बनाया और डेढ़ किलोमीटर तक पटरियां उखाड़ दीं। इलेक्ट्रिक लाइन और सिग्नलों को तोड़ दिया। सरकारी बसों को भी नुकसान पहुंचाया। अब इन आंदोलनकारियों को कौन समझाए कि जिस राष्ट्रीय संपत्ति को वे नुकसान पहुंचा रहे हैं, उसे उनकी और उनके अन्य भाई-बंधुओं की जेब से ही सही किया जाएगा। इससे आम जनता को जो परेशानी हुई, वह तो अलग मुद्दा है।
अब इसके दूसरे पहलू पर आते हैं। 23 मई को पुलिस गोलीबारी में 17 गुर्जरों की मृत्यु हो गई और 24 मई को भी अब तक 21 गुर्जरों की मौत की खबर है। जिनकी मौत हुई है, वे भी भारतभूमि की ही संतान थे और इस तरह उनका मारा जाना किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता। सरकारी तंत्र यह क्यों नहीं समझ पाता कि समस्याओं के समाधान के लिए और भी तरीके हैं।
वैसे भी जो लोग सत्ता में आ जाते हैं, उनका उद्देश्य येन-केन प्रकारेण उसे बचाए रखना होता है। रा’य या राष्ट्र की मूलभूत समस्याओं का समाधान उनके एजेंडे में नहीं होता, यही कारण है कि आजादी के छह दशकों बाद भी हमारे देश में समस्याओं का अंबार लगा हुआ है।
कभी सुना था कि लोकतंत्र में `मुंह खुला और मुट्ठी बंदं ही आंदोलन का सबसे तरीका होता है। जनशक्ति यçद इस तरह खाली हाथ विरोध करे तो सरकार को झुकना ही पड़ता है, लेकिन यह भी बदकिस्मती है कि आंदोलनकारी भी हथियारों से लैस होते हैं और पुलिस पर हमला करने से नहीं हिचकते। खाकी का तो कोई खौफ ही नहीं रहा। आंखों के सामने अपने साथी का कत्लेआम देखकर पुलिस तंत्र भी विवेक खो देता है और उसके बाद जो होता है, वह सबके सामने है। इस पर अफसोस जताने के अलावा कुछ भी नहीं किया जा सकता।
आरक्षण की आग ने अब तक जितना नुकसान कर दिया है, वह तो जगजाहिर है। अब सभी राजनीतिक दलों को चाहिए कि अपने स्वार्थ को भूलकर राष्ट्रहित में इस व्यवस्था को समाप्त करें और ईमानदारीपूर्वक उन सभी बच्चों को बेहतर से बेहतर पढ़ाई की सुविधाएं सरकार की तरफ से उपलब्ध कराई जाएं ताकि वे अपनी किस्मत के साथ राष्ट्र के विकास में भी हाथ बंटा सकें। आखिर कब तक हम वणॅभेद-और वगॅभेद की सीमारेखा खींचते रहेंगे।

Tuesday, May 13, 2008

... मंदिर मत जइयो, जा सकती है जान

मंगलवार शाम करीब पौने आठ बजे, ऑफिस आने के बाद काम शुरू ही किया था कि शहर के परकोटे से ही किसी परिचित मित्र का फोन आया- आपको पता है, शहर में कहीं बम ब्लास्ट हुआ है। अखबार में काम करने का यह दुखद पहलू है कि अफसोसजनक खबरों की तहकीकात करने के लिए लोग सबसे अखबार के दफ्तर में ही फोन करते हैं। खैर, साथी क्राइम रिपोर्टर से पूछा तो उसने भी कहा, हां, ऐसा कुछ हुआ तो है। इसके बाद तो स्थानीय लीड न्यूजपेपर राजस्थान पत्रिका की वेबसाइट और टीवी चैनलों पर बस यही ब्रेकिंग न्यूज थी- जयपुर में सीरियल बम ब्लास्ट। सुदूर पूर्व और दक्षिण से दो-चार प्रियजनों ने मेरी भी कुशलक्षेम पूछी, इस बीच मोबाइल और टेलीफोन भी दम तोड़ने लगे थे।
शांति की प्रतीक मानी जाने वाली छोटी काशी के नाम से प्रसिद्ध धर्मपरायण लोगों की गुलाबीनगरी दर्जनों निरदोष लोगों के खून से लाल हो चुकी थी। एक के बाद एक हुए आठ धमाकों ने शहर को हिलाकर रख दिया। मंगलवार हनुमानजी का प्रिय दिन माना जाता है और अधिकतर विस्फोट हनुमान मंदिरों के पास ही हुए। शाम का समय था सो मंदिरों में संध्या आरती के समय बजरंगबली के दर्शनों के लिए भीड़ थी ही, और मरने वालों में अधिकतर वे ही थे जो `मंगलमूरति मारुति नंदन । सकल अमंगल मूल निकंदन ।।´ की कामना लेकर पवनपुत्र हनुमानजी के दर्शनों के लिए गए थे और कभी न लौटने वाली यात्रा के राही बन गए। मंगलवार को हुए इस अमंगल से हर किसी का दिल दहल गया। कई घायलों की स्थिति ऐसी है जो जिंदा होने के बावजूद जीवनभर आज के इस दुखद दिन को कोसते रहेंगे। जिनके अपने सदा के लिए बिछुड़ गए, उनका दंश भी क्या कभी खत्म हो सकेगा।
सरकारों को क्या कोसें, ये तो कछुए की खाल की तरह हैं जिनपर कोई असर ही नहीं होता। प्रशासन यदि चाक-चौबंद हो और पुलिस का दृढ़ व ईमानदार आत्मबल हो तो ये आतंकवादी तो गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाएंगे, लेकिन जब हमारी सरकार ही आतंकवाçदयों को काबू में रखने वाले कानून `पोटा´ को नख-दंतहीन बना दे, अफजल गुरु जैसे दरिंदों को फांसी पर महीनों रोक लगाई जाए, राजनीतिक आका उसके पक्ष में भी पैरवी करने को आतुर हों तो किससे रक्षा की उम्मीद करे। आतंकवादियों के निशाने पर आस्था के स्थल ही रहते हैं, विशेषकर वह तिथि या अवसर जब श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है। गुजरात के अक्षरधाम, अजमेर दरगाह सहित कई आराधना स्थलों पर हुए इस बात की गवाही देते हैं। ऐसे में तो रामचरितमानस में भगवान शंकर के मुंह से कही गई तुलसी बाबा की यह चौपाई याद आती है - `हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम से प्रगट होहिं मैं जाना´...। हम सभी ईश्वर का निवास अपने दिल में मानते हुए अंत:करण से उनका स्मरण करते रहें। इसे कुछ आसान शब्दों में कहूं तो फिल्मी गाने `तू मैके मत जइयो, मत जइयो मेरी जान´ में थोड़ा फेरबदल कर ऐसे कह सकता हूं -`तू मंदिर मत जइयो, जा सकती है जान´।

Sunday, May 11, 2008

हैंडल द चिल्ड्रन विद `टीपी´ एंड `बीके´


`बचपन के दिन भी क्या दिन थे...´, `बचपन हर गम से बेगाना होता है...´, `नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए...´ `लकड़ी की काठी, काठी का घोड़ा, घोडे़ की दुम पर जो मारा हथौड़ा...´ सरीखे गीत वयस्कों ही नहीं, बड़े-बड़ों की भी जुबान पर बरबस आ जाया करते हैं। हो भी क्यों न, बचपन से जुड़ी मधुर यादें इतनी सुखदायी होती हैं कि मन उसके पास आकर ठहर-ठहर जाता है। घर में जब किसी बच्चे की किलकारी गूंजती है तो पूरा परिवार चहक उठता है। इसके बाद तो माता-पिता बच्चे के दिन-प्रतिदिन के विकास को देख-देख कर फूले नहीं समाते। (आजकल चूंकि एकल परिवार का चलन बढ़ गया है, इसलिए सारे परिजनों का जिक्र नहीं कर रहा)। ऐसे परिवारों में पति-पत्नी के बीच बच्चे का विकास, पहला दांत निकलना, बोलना, पहली-पहली बार उसका बैठना, खड़ा होना, चलना ही चर्चा का विषय हुआ करता है। उनकी अपेक्षा के अनुसार यदि बच्चे के विकास में कोई कोर-कसर बाकी रह जाती है तो आज की युवा पीढ़ी डॉक्टर के पास जाने में भी जरा सा देर नहीं लगाती। (दादी-नानी के नुस्खे तो कहां से मिलें)।
बच्चा जब थोड़ा-बहुत बोलना, चलना सीख जाता है तो उसे मैनर्स सिखाने की होड़ भी शुरू हो जाती है। इन मैनर्स को सीखने में बच्चा थोड़ी भी कोताही बरतता है तो मां-बाप का क्रोध सातवें आसमान पर जा पहुंचता है। विशेषकर जब बच्चे के साथ वे किसी के घर जाते हैं या फिर कोई मेहमान उनके घर आता है तो बच्चे की तो मानो शामत ही आ जाती है।
कुछ दिन पहले मैं अपने बेटे के साथ सपत्नीक एक भाभीजी के यहां गया था। न तो मुझमें ऐसे संस्कार हैं कि मैं बच्चे को मैनर्स सिखाऊं लेकिन बार-बार होने वाली सरदी-जुकाम-खांसी के भय से आइसक्रीम और कोल्ड ड्रिंक्स से परहेज का पाठ अवश्य ही पढ़ाना पड़ता है। वहां भी कुछ ऐसा ही हुआ। भाभीजी बच्चे के लिए आइसक्रीम लाईं, तो वह मेरी ओर देखने लगा। भाभीजी के पूछने पर मैंने स्पष्टीकरण दिया कि मैंने बच्चे पर कोई पाबंदी नहीं लगा रखी है और गर्मी के मौसम में मौसमी परेशानियों से मुक्त बच्चा मजे से आइसक्रीम का आनंद ले सकता है। इस पर भाभीजी ने अपनी बहन का संस्मरण सुनाया। उनकी बहन-बहनोई खुद भी काफी अनुशासित हैं और अपने बच्चों को भी उन्होंने अनुशासन का अच्छा खासा पाठ पढ़ाया है। इसके लिए उन्होंने दो कोड वर्ड का ईजाद किया है। इसका लाभ दूसरे भाई भी उठा सकें, सो मैंने सोचा कि इसे ब्लॉग पर डाल दिया जाए।
जी हां, ये दो कोड वर्ड हैं `टीपी´ यानी टूट पड़ो और बच्चे यदि वाकई दायरा तोड़कर टूट पड़े तो `बीके´ यानी बस करो। इस तरह बच्चे की स्वच्छंदता भी बनी रहे और माता-पिता के अहं को भी तथाकथित रूप से ठेस नहीं लगे। बाकी आदर्श परिस्थितियों में तो सहमे हुए रहना तो बच्चों के स्वभाव में ही शामिल हो गया है, लेकिन थोड़ा सा खुला आसमान तो मिले। नुस्खा अच्छा लगे तो अपनाएं अन्यथा यथास्थिति बनाए रखने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है। धन्यवाद।

Saturday, May 3, 2008

जरा याद हमें भी कर लो...

आज बहुत ही निजी बातें, ...हालांकि पहले भी सार्वजनिक अनुभवों से ज्यादा स्थान व्यक्तिगत अनुभव ही घेरते रहे हैं, लेकिन चूंकि कई लोग ब्लॉग को ऑनलाइन डायरी के रूप में परिभाषित करते हैं, सो आज यहां विचार नहीं, नितांत व्यक्तिगत अनुभव या कहें पीड़ा प्रस्तुत हैं, जिन्होंने मुझे-मेरे अंतर्मन को आहत किया। दुनिया चूंकि बहुत बड़ी है....इसलिए इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ और लोगों का अनुभव भी मेरे अनुभव के इदॅ-गिदॅ रहा हो।
बचपन में दोस्तों की लंबी फेहरिस्त होती है, और उम्र बढ़ने के साथ-साथ इसकी छंटाई होती रहती है। मेरे बचपन में काफी दोस्त थे, जिनमें से दो को मैं अपने अधिक नजदीक महसूस किया करता था। दोनों के घर अपेक्षाकृत दूर थे, सो हमारा साथ स्कूल तक ही सीमित हुआ करता था, लेकिन यह साथ इतनी ऊर्जा भर देता था कि चौबीसों घंटे साथ न होने का मलाल नहीं होता था। बदलते हुए समय के साथ हमारे अध्ययन के क्षेत्र ही नहीं बदले, कार्यक्षेत्र भी बदल गए। एक मित्र अपने गृहजिला मुख्यालय पर हैं, सो सबसे अधिक हमारी जननी-जन्मभूमि-माटी से जुड़े हैं। मैं घर से तकरीबन 35-36 घंटे की दूरी पर हूं और तीसरा दोस्त लंदन में इंजीनियर की नौकरी बजा रहा है। अपनी संपन्नता और सुविधा के कारण वह संभवत: इन घंटों में मुझसे ज्यादा नजदीक है।
यह तो भौगोलिक दूरी की बात है, दोनों मित्रों से मानसिक और भावनात्मक दूरी मैंने कभी महसूस नहीं की। एसटीडी के बावजूद अपने जिला मुख्यालय वाले दोस्त से महीने में एकाध बार बात हो ही जाती है (पहल चाहे जिधर से हो) और विदेश रहने वाला दोस्त शनिवार-रविवार को फोन करना शायद ही कभी भूलता हो।
अभी पिछले दिनों अपने जिला मुख्यालय वाले दोस्त को फोन किया तो उसने बताया कि वह अपने भतीजे के शादी समारोह में है। मैंने जब पूछा कि भाई, शादी थी तो बताते तो सही? इस पर उसने जो जवाब दिया वह मुझे मर्माहत कर गया। उसका कहना था कि यदि मैं तुझे पहले बताता तो क्या तुम आ ही जाते?
अब मैं उसे क्या बताता? सन्न सा रह गया मन मसोसकर, लेकिन उस बातचीत के पांच-छह दिन बाद भी मेरा मन बार-बार मुझे कचोटता रहता है। उसके बाद दुबारा भी उससे बात हुई, शादी सकुशल संपन्न होने की खबर दी उसने, लेकिन मेरे मन का गुबार है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। सो मैंने सोचा, दिल की आग पर ब्लॉग के माध्यम से ही कुछ ठंडे छींटे खुद ही डाल लूं। शायद करार आ जाए।
ऐसे मित्रों से मैं यही पूछना चाहता हूं कि हमारे पूर्वजों ने जो परंपराएं बनाई हैं, क्या वे महज खानापूर्ति के लिए हैं, और यदि ऐसा ही है तो हम लकीर पीटने की तर्ज पर उनका पालन क्यों करते हैं। हालांकि मुझे घर छोड़े हुए लगभग ढाई दशक हो चुके हैं, लेकिन परंपराओं को मैं आज भी नहीं भूला हूं, उन्हें आत्मसात करने की भी भरसक कोशिश करता हूं।
जहां तक मुझे याद आता है, हमारे यहां ऐसी परंपरा है कि घर में कोई शुभ कार्य हो तो कुलदेवता, ग्रामदेवता, पूर्वजों के साथ-साथ असंख्य देवी-देवताओं को निमंत्रण çदया जाता है। कोशिश होती है कि जिनसे मनमुटाव या थोड़ी-बहुत दुश्मनी भी है, उन्हें भी मांगलिक कामों में शामिल होने के लिए निमंत्रित करें। शादी-उपनयन से महीनों पहले महिलाएं गीतों के माध्यम से पूर्वजों और देवी-देवताओं के नाम ले-लेकर उनसे यज्ञ (वहां शादी-विवाह को आम बोलचाल की भाषा में यज्ञ ही कहते हैं) में शामिल होने का आह्वान करते हैं। यह हमारे विश्वास का ही प्रतिफल हुआ करता है कि हम मान लेते हैं कि सबकी उपस्थिति से ही यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न हो गया। अब इसकी तो कोई गारंटी नहीं मांगता कि हमने जिन देवताओं और पूर्वजों को बुलाया, उनके आने का प्रमाण-पत्र दिखाओ। यदि उनके साथ ऐसा नहीं है तो फिर दूर बैठे मित्रजनों के लिए दूरी बरतने का क्या प्रयोजन? किन्हीं मजबूरियों के चलते कोई आपसे दूर चला गया तो इसका मतलब यह तो नहीं कि उसे आप अपनी जिंदगी, अपने सुख-दुख से निकाल बाहर कर दो। ...आप यदि ऐसा कर भी देते हो और जिसे देश-प्रदेश से बाहर होने के कारण आपने दिल-निकाला दे भी दिया, लेकिन वह अपने दिल से आपको न निकाल पाए....तो इसका कोई प्रतिकार है आपके पास। सो यही निवेदन है....जरा याद हमें भी कर लो.....।

Wednesday, April 30, 2008

चंदा मामा दूर के...


`चंदा मामा दूर के, पुए पकाए गुड़ के,
अपने खाए थाली में, बच्चे को दे प्याली में,
प्याली गई टूट, बच्चा गया रूठ....´
संभव है यह कविता आप सबने भी बचपन में दादी या नानी से सुनी होगी और आपके बालमन पर अंकित ये शब्द मेरी तरह आपके मनो-मस्तिष्क पर आज भी अपनी उपस्थिति बनाए होंगे।
जी हां, मैं जिस पीढ़ी से हूं, उसमें से अधिकतर को ग्रामीण परिवेश में कॉन्वेंट की शिक्षा कहां नसीब होनी थी, सो नहीं हुई। सरकारी स्कूल ही हमारी मंजिल थे और उसके अध्यापक हमारे रोल मॉडल। वे जैसा और जितना पढ़ाते थे, वह हमारे लिए कम नहीं होता था। अभिभावक स्कूल में बच्चों का दाखिला दिलाने के बाद अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते थे, बाकी का काम स्कूल और छात्र दोनों का ही होता था। सही मायने में सरकारी स्कूल जरूरतमंदों के लिए सबसे बड़ी मुफीद पहले भी थे, आज भी हैं। यहां `जरूरतमंद´ शब्द से मेरा अभिप्राय इसके प्रचलित अर्थ से कुछ इतर है। मेरा आशय है- जो जरूरत समझता हो, पढ़ाई करे, न समझता हो, मौज-मस्ती में मशगूल रहे। मास्टर साहब एकाध बार डांट-डपट देंगे, डंडा लेकर उनके पीछे थोड़े ही पड़े रहेंगे। ऐसे में दोनों ही तरह के छात्र बिना किसी बाधा के अपनी जरूरत के हिसाब से अपनी मंजिल पा लेते थे। सरकारी स्कूलों में भी योग्य शिक्षक होते हैं, इसमें कोई शक नहीं है तथा मेधावी व जिज्ञासु छात्र उनके मार्गदर्शन में उपलब्धियों की मंजिलें पाते रहे हैं, इसके प्रमाण आपलोगों ने इन स्कूलों के पाठ्यक्रम और पुस्तकों की भी अपनी विशेषताएं होती हैं। जहां तक मुझे याद आता है, गणित की पुस्तकों में दिए गए उदाहरणों के सहारे अमूमन सारे सवाल हल कर लिए जाते थे। स्कूल में कभी भी ऐसा सबक (टास्क) नहीं मिला होगा, जिसमें माता-पिता की मदद लेनी पड़ी हो। अध्ययन काल से ही स्वावलम्बन का ऐसा पाठ और कहां पढ़ाया जाता होगा। फिर, ग्रामीण परिवेश में अभिभावकों की भी अपनी चिंताएं होती हैं, न तो उनके पास समय होता है और न सामथ्यॅ कि वे बच्चों के साथ माथा लड़ाएं। हां, रिजल्ट आने पर बच्चे की उपलब्धि पूछकर अपना सालाना फर्ज जरूर अदा कर लेते थे। कुछ फिसड्डी छात्रों के रिजल्ट की जानकारी उनके साथियों के माध्यम से पिता तक पहुंच जाती थी और इसके छह महीने या सालभर के अंदर (कभी-कभी डेढ़-दो साल भी) ऐसे छात्रों को शिक्षा से हटाकर किसी और क्षेत्र में दीक्षित करने के प्रयास शुरू हो जाते थे।
मैं फिर बह गया भावनाओं के मझधार में। बेटे के कारण अपनी परेशानियां बताना चाहता था और अपने बचपन के çदनों में खो गया। जी हां, मेरा बेटा तकरीबन आठ साल का होने को है और महज तीसरी कक्षा में पढ़ता है। अभी दो çदन पहले उसे स्कूल से टास्क मिला कि ड्राइंग बुक में रात का एक दृश्य बनाए और उसके साथ (moon) पर चार से छह पंक्तियों की कविता लिखकर लाए जो उसकी पाठ्यपुस्तक में न हो। जाहिर है, उसके लिए यह असंभव था। उसने ड्राइंग तो जैसे-तैसे बना ली और कविता की जिम्मेदारी मुझपर सौंप दी। मेरी भी अंग्रेजी में अपनी सीमाएं हैं, सो मैंने कई दोस्तों से पूछा तो बहुप्रचलित (twinkle twinkle little star...) से आगे कोई नहीं बढ़ सका। अंतत: आज के युग के सर्वमनोरथ पूर्ण करने वाले इंटरनेट ने समाधान सुझाया और बेटे की नजर में मेरी अज्ञानता उजागर होने से रह गई।
ऐसे में स्कूल संचालकों और पाठ्यक्रम बनाने वालों से मेरा इतना सा निवेदन है कि वे बच्चों को पढ़ाते हैं या उनके मां-बाप के ज्ञान की परीक्षा लेना चाहते हैं। क्या इंग्लिश मीडियम में बच्चे को पढ़ाने की तमन्ना रखना इतना बड़ा गुनाह है?

Monday, April 28, 2008

ये कहां आ गए हम...?

किसी पुरानी फिल्म के गीत के मुखड़े से कुछ शब्द उधार लेकर आज अपने दिल की बात शेयर कर रहा हूं। ऐसा लगता है कि वर्तमान दौर में मनुष्य में संवेदनाएं खत्म हो गई हैं या फिर वह संवेदनाओं को शब्द देने की कला भूलता जा रहा है।
अभी हाल ही किसी आत्मीय प्रियजन के असामयिक निधन के बाद उनकी स्मृति में हुई प्रार्थना सभा में शामिल होने का मौका मिला। यह आयोजन आम शोकसभाओं से कुछ हटकर था। निरगुण ब्रह्म के उपासक संत कबीरदास के भजन सहज ही लोगों को `श्मशान वैराग्य´ का अहसास करा रहे थे। इसके बाद कुछ प्रियजनों ने दिवंगत महानुभाव से जुड़े संस्मरण सुनाए। ऐसे ही एक सज्जन का कहना था कि माता-पिता के पापकरमों के कारण ही उनके रहते हुए संतानें अकाल काल कवलित हो जाती हैं। अब उन्हें कैसे बताया जाए कि वे शोकसंतप्त परिवार का शोक कम करने आए थे या उनसे जन्म-जन्मांतर के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा लेने आए थे। ऐसी बातों से अपराधबोध से ग्रसित हो दिवंगत के वृद्ध माता-पिता यदि किसी न किसी रूप में स्वयं को मिटाने की कोशिश करें तो इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा।
ऐसे ही कई शोकसभाओं में गरुड़ पुराण का पाठ किया जाता है। मैं तो कहता हूं कि गरुड़ पुराण में वरणित नरकों का कोई अस्तित्व है और वाकई ऐसा कुछ होता है तो इस पवित्र पुस्तक का पाठ किसी के मरने के बाद नहीं बल्कि आदमी के जीते जी हनुमान चालीसा, सुंदरकांड और रामचरितमानस की तरह प्रतिदिन किया जाना चाहिए ताकि आदमी अपने नित्यप्रति अपने कर्तव्य-अकर्तव्य करमों का ध्यान रखते हुए स्वयं को गलत राह से बचा सके।
कुछ भी हो, किसी भी स्थिति में हमें ऐसा कोई प्रयास नहीं करना चाहिए, जिससे जाने-अनजाने किसी का दिल दुखे, .....ऐसी विशेष परिस्थितियों में तो कतई नहीं।

Thursday, April 17, 2008

शर्म हमें मगर नहीं आती


विरोध और समर्थन के बीच बीजिंग ओलंपिक मशाल दौड़ गुरुवार को दिल्ली में संपन्न हो गई। ओलंपिक में हमारे धुरंधर जो कमाल करेंगे, उस पर अभी से कुछ कहना उचित नहीं है, वैसे भी मैं खेलों का कोई विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन गुरुवार को राजपथ पर आयोजित समारोह के बारे में अपने अनुभव शेयर करना चाहता हूं।
भारतीय ओलंपिक एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी ने फरराटेदार अंग्रेजी में अपनी उपलब्धियां गिनाईं, जैसे कि दिल्ली में भारी सुरक्षा घेरे के बीच मशाल दौड़ आयोजित करवाकर उन्होंने ओलंपिक के सारे गोल्ड मैडल अपने कब्जे में कर लिए हों। दिल्ली के उपराज्यपाल भी हिंदी में बोलकर यह कैसे जताते कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती। नए नवेले खेल मंत्री एम. एस. गिल भी अंग्रेजी में ही शुरू हुए, लेकिन जल्दी ही उनकी समझ में आ गया कि जिन्हें इस साल या फिर आने वाले सालों में ओलंपिक पदक जीतकर लाना है वे तो हिंदी ही बेहतर समझते हैं, सो उन्होंने नौनिहालों से आह्वान किया कि कोई 50 साल बाद अब तो मिल्खा सिंह का रिकॉर्ड तोड़े। उन्होंने बखूबी जोश का संचार किया जो हिंदी और केवल हिंदी में ही संभव था।
सबसे अंत में सभा को संबोधित करने आए चीन के ओलंपिक संघ के उपाध्यक्ष लू जियांग ने चीनी भाषा में अपना वक्तव्य देकर हमारे रहनुमाओं को आईना दिखा दिया। ऐसे में तकलीफ इस बात पर होती है कि जब चीनी प्रतिनिधि अपने लिए दुभाषिये की व्यवस्था कर सकते हैं, तो हमारे राजनेता मिश्री सी हिंदी भाषा को क्यों त्याज्य समझते हैं। किसी जमाने में भारत में भी हिंदी का विरोध होता रहा हो, लेकिन आज तो अपने देश में सबके लिए हिंदी अपनी हो गई है। पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण सारे देश के युवक हिंदी समझते ही नहीं, धड़ल्ले से बोलते भी हैं। इतना ही नहीं, अब तो अंग्रेजी के कई नामचीन अखबारों में रोमन इंग्लिश में हिंदी के मुहावरे प्रयोग में लिए जाते हैं। इस सबके बावजूद हमारे राजनेताओं को कब यह बात समझ में आएगी कि जिनके वोटों की बदौलत उनका रुतबा बढ़ता है, अपनी भाषा बदलकर वे उन वोटरों से क्यों कट जाना चाहते हैं। आखिर हमारी राष्ट्रभाषा में क्या कमी है ? जिस दिन जनता समझ जाएगी, हो सकता है ऐसे राजनेता इस तरह के सार्वजनिक कार्यक्रमों में बोलने के लायक ही न रहें।

Saturday, April 12, 2008

मुश्किलों में है वतन...

आज शाम ऑफिस आते समय एक ऑटो में शायद एफएम पर यह गाना बज रहा था---मुश्किलों में है वतन। कभी इस गीत को सुनकर देशभक्ति का जज्बा लोगों के दिल में जगता रहा हो, लेकिन आज इसे सुनकर मेरे मन में विचारों का झंझावात उठा, उसे शेयर करना चाहता हूं।
आज हमारे देश में आम आदमी जिन हालात के बीच गुजर बसर कर रहा है, यह पंक्ति उसका सटीक बयान करता है।
आज ही अखबारों में खबर छपी कि मुद्रास्फीति बढ़कर 7.41 प्रतिशत तक पहुंच गई है। फल-सब्जियों, आटा-दाल, चीनी-मसाले, खाद्य तेल के दाम नित नई ऊंचाइयों को छू रहे हैं और आम लोगों की पहुंच से दूर होते जा रहे हैं। सरिया-सीमेंट की कीमत बढ़ने से घर बनाने की योजना खटाई में पड़ गई है। मीडिया का आकलन है कि मुद्रा स्फीति साढ़े तीन साल में सबसे अधिक स्तर को छू गई।
आज केंद्र में जो लोग सत्ता में बैठे हैं, उनके ऊल-जलूल बयान जले पर नमक छिड़कने का काम करते हैं। कभी कोई मंत्री कहता है कि दक्षिण भारत के लोगों ने रोटी खाना शुरू कर दिया है, इसलिए गेहूं की कीमत बढ़ गई है। अब उन्हें कौन बताए कि उत्तर भारत के बड़े शहरों में साउथ इंडियन भोजन परोसने वाली होटलों पर कितनी भीड़ हुआ करती है, तो क्या चावल की कीमत इसलिए बढ़ गई कि भात के अलावा डोसा व अन्य चीजों में इसका उपयोग होने लगा है। इतना ही नहीं, कई कांग्रेसी रहनुमा तो निलॅज्जता की सारी हदें पार करते हुए कह देते हैं कि हमारे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है।
मैं न तो बीजेपी का समथॅक हूं न ही एनडीए का सिपहसालार, और न ही कांग्रेस या यूपीए का विरोधी, लेकिन वाजपेयी सरकार और मनमोहन सरकार के दौरान आम उपभोग की वस्तुओं की कीमतों में जो उछाल आया है, उससे कैसे आंखें मूंद लूं। आटे-दाल की महंगाई से आए दिन मियां-बीबी में होती खिच-खिच घर-घर की कहानी बन गई है। ऐसे में ईश्वर से यही प्राथॅना है कि इन राजनेताओं को तो अपना पेट भरने से ही फुरसत नहीं है, आप तो हमारी सुध लो।

Saturday, March 29, 2008

शॉर्ट फिल्में देखने के लिए हुए लंबलेट

इन दिनों राजस्थान सरकार विभिन्न संगठनों के सहयोग से राजस्थान दिवस समारोह का आयोजन कर रही है। इसके तहत पिछले 24 मार्च से सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। चूंकि जयपुर ही नहीं, राजस्थान के दूसरे शहर भी अपने धरोहरों की थाती के कारण देशी-विदेशी सैलानियों के आकर्षण के केंद्र रहे हैं, इसे देखते हुए राजस्थानी लोकसंस्कृति और परंपराओं की सीमारेखा नहीं खींचते हुए बॉलीवुड तक से सितारे बुलाए गए। इसी क्रम में 27 मार्च को जवाहर कला केंद्र में शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल शुरू हुआ। आज यानी शनिवार को एक मित्र ने वहीं से फोन किया कि आओ, लघु फिल्में देखते हैं। कई बार ऐसा होता है कि दोस्तों का मन रखने और खुद के बारे में उनका भ्रम कायम रखने के लिए मैं ऐसे कार्यक्रमों में जाने से मना नहीं कर पाता, जिसके विषय में मैं बिल्कुल ही कुछ नहीं जानता हूं। तो साहब, आज भी मैं उनका मन रखने के लिए चला गया। जवाहर कला केंद्र के दो ऑडिटोरियम में यह शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल चल रहा था। एक ऑडिटोरियम में खाली कुरसियां पंद्रह-बीस दर्शकों के साथ फिल्मों का आनंद ले रही थीं, सो हमने दूसरे ऑडिटोरियम का रुख करना ही मुनासिब समझा। वहां कुरसियां नहीं हैं, फर्श पर ही कालीन बिछी है, और उसी पर बैठकर कलाप्रेमी यहां होने वाली विचार गोष्ठियों, संगीत सभाओं और अन्य कार्यक्रमों का आनंद लेते हैं। आज इस तथाकथित शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल में जो नजारा दिखा, हमें हतप्रभ करने के लिए काफी था। युवक ही नहीं, उनके साथ आई युवतियां भी (जो संभवतया कॉलेज गलॅ थीं), बाजाप्ता लेटकर फिल्म का लुत्फ उठा रहे थे। अब उनकी निगाहें स्क्रीन पर थीं या बगलगीर पर, यह तय करना मुश्किल हो रहा था। इनमें शॉर्ट फिल्मों की समझ रखने वाले कितने थे और बाहर की तपिश से बचने के लिए एसी की ठंडी हवा का लुत्फ उठाने वाले कितने, इसका निर्णय कर पाना हमारे लिए संभव नहीं था।
वह तो गनीमत थी कि दिहाड़ी मजदूर टाइप के तीन-चार ऑपरेटर ही प्रोजेक्टर के सहारे फिल्म दिखा रहे थे और इन फिल्मों के प्रबुद्ध देशी-विदेशी निर्माता-निदेशक नदारद थे, अन्यथा वे हमारी इस अपसंस्कृति पर एक और शॉर्ट फिल्म शूट करने से बाज नहीं आते। हम तो चूंकि काफी देर से गए थे, सो तीर्थराज पुष्कर पर फिल्माई गई एक फिल्म देखी, चूंकि पुष्कर-दशॅन हम दोनों पहले ही साक्षात देख चुके थे, सो ज्यादा इंटरेस्टिंग नहीं रहा।
इन çदनों राजस्थान सरकार विभिन्न संगठनों के सहयोग से राजस्थान çदवस समारोह का आयोजन कर रही है। इसके तहत पिछले 24 मार्च से सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। चूंकि जयपुर ही नहीं, राजस्थान के दूसरे शहर भी अपने धरोहरों की थाती के कारण देशी-विदेशी सैलानियों के आकर्षण के केंद्र रहे हैं, इसे देखते हुए राजस्थानी लोकसंस्कृति और परंपराओं की सीमारेखा नहीं खींचते हुए बॉलीवुड तक से सितारे बुलाए गए। इसी क्रम में 27 मार्च को जवाहर कला केंद्र में शॉर्ट फिल्म फेçस्टवल शुरू हुआ। आज यानी शनिवार को एक मित्र ने वहीं से फोन किया कि आओ, लघु फिल्में देखते हैं। कई बार ऐसा होता है कि दोस्तों का मन रखने और खुद के बारे में उनका भ्रम कायम रखने के लिए मैं ऐसे कार्यक्रमों में जाने से मना नहीं कर पाता, जिसके विषय में मैं बिल्कुल ही कुछ नहीं जानता हूं। तो साहब, आज भी मैं चला गया। जवाहर कला केंद्र के दो ऑडिटोरियम में यह शॉर्ट फिल्म फेçस्टवल चल रहा था। एक ऑडिटोरियम में खाली कुçर्सयां पंद्रह-बीस दर्शकों के साथ फिल्मों का आनंद ले रही थीं, सो हम दूसरे ऑडिटोरियम में चले गए। यहां कुçर्सयां नहीं हैं, फर्श पर ही कालीन बिछी है, और उसी पर बैठकर कलाप्रेमी यहां होने वाली विचार गोçष्ठयों, संगीत सभाओं और अन्य कार्यक्रमों का आनंद लेते हैं। आज इस तथाकथित शॉर्ट फिल्म फेçस्टवल में जो नजारा çदखा, हमें हतप्रभ करने के लिए काफी था। युवक ही नहीं, उनके साथ युवतियां भी, बाजाप्ता लेटकर फिल्म देख रहे थे। अब उनकी निगाहें स्क्रीन पर थी, या बगलगीर पर, यह तय करना मुश्किल हो रहा था। इनमें शॉर्ट फिल्मों की समझ रखने वाले कितने थे और बाहर की तपिश से बचने के लिए एसी की ठंडी हवा का लुत्फ उठाने वाले कितने थे, इसका निर्णय कर पाना हमारे लिए संभव नहीं था।
वह तो गनीमत थी कि तीन-चार ऑपरेटर ही प्रोजेक्टर के सहारे फिल्म çदखा रहे थे और इन फिल्मों के प्रबुद्ध देशी-विदेशी निर्माता-निदेüशक नदारद थे, अन्यथा वे हमारी इस अपसंस्कृति पर एक और शॉर्ट फिल्म शूट करने से बाज नहीं आते। हम तो चूंकि काफी देर से गए थे, तीर्थराज पुष्कर पर फिल्माई गई एक फिल्म देखी, लेकिन चूंकि यह नजारा हम दोनों पहले ही साक्षात देख चुके थे, सो ज्यादा इंटरेस्टिंग नहीं रहा। हां, एक फिल्म जरूर अच्छी थी, जिसमें इस तथ्य को बताने का साथॅक प्रयास किया गया था कि सारे आतंकवादी मुस्लिम हो सकते हैं, लेकिन सभी मुस्लिम आतंकवादी नहीं होते।
वैसे इतना तो होना ही चाहिए कि हम ऐसे कायॅक्रमों में जाएं तो तमाशबीन ही बने रहें, खुद तमाशा न बनें। ऐसे में व्यक्ति विशेष की ही नहीं, समाज, राज्य और राष्ट्र की भी बदनामी होती है।

Wednesday, March 5, 2008

हैप्पी मैरिज एनिवर्सरी टू बम-बम भोले


गुरुवार को महाशिवरात्रि है। आज के दौर में विशेष अवसरों पर एसएमएस और ई-मेल से आने वाले संदेशों की भूमिका बढ़ गई है और लोग अपने प्रियजनों को इस तरह के संदेश भेजना और पाना हमारी दिनचर्या में शुमार हो गया है। तो साहब, मुझे भी आज यानी बुधवार को ही एक मित्र का एसएमएस संदेश मिला--`भगवान शिव के जन्मदिन का पर्व महाशिवरात्रि आपके लिए मंगलमय हो´। संदेश पाकर मैं यह सोचने को विवश हो गया कि एक स्थापित मान्यता किस प्रकार हर अवसर पर लागू होने लगती है। जब मैंने उक्त मित्र को फोन करके मैसेज के बारे में पूछा तो उनका सहज उत्तर था कि भगवान राम के जन्म की खुशी में रामनवमी मनाई जाती है, भगवान कृष्ण के जन्म की खुशी में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनाई जाती है तो शिवरात्रि भी भगवान शिव के जन्मदिन पर ही तो मनाई जाती होगी। मैंने उनकी अज्ञानता का निवारण किया तो सोचा कि अधिकांश लोग इस तथ्य से अवगत होंगे, फिर भी कुछ लोग यदि नावाकिफ हों तो उन तक भी यह जानकारी पहुंचाई जानी चाहिए।
भगवान शिव की महिमा अपरम्पार है और देश के हर हिस्से में गली-मोहल्लों में हर चौराहे पर भगवान शिव के मंदिर इसके प्रमाण हैं। इनकी पूजा-अर्चना के लिए कोई विशेष तामझाम की आवश्यकता नहीं होती। हमारे आसपास सहज उपलब्ध आक-धतूरे के फूल, भांग, बिल्वपत्र चढ़ाने और जलाभिषेक मात्र से वे प्रसन्न हो जाते हैं। बात दीगर है कि जिनके पास उपलब्ध है, वे दूध ही क्या पंचामृत तक से शिव का अभिषेक करते हैं, सोने-चांदी के नाग-नागिन और आभूषण भी चढ़ाते हैं। धर्मशास्त्रों में शिव को इतना सरल बताया गया है कि उनका नाम ही भोला बाबा रख दिया गया और उनका क्रोध इतना प्रचंड है कि तीसरी आंख खुले तो प्रलय हो जाए।
भगवान शिव संभवत: ऐसे पहले देवता होंगे जिनकी शादी की वर्षगांठ पर इस तरह का उत्सवी माहौल होता है। हालांकि धर्मप्राणों की नगरी जयपुर को छोटी काशी कहा जाता है, इससे स्पष्ट है कि यहां भगवान शिव की भक्ति की रेटिंग क्या है। गुरुवार को भक्त यहां के प्रसिद्ध झाड़खंड महादेव, ताड़केश्वर महादेव, राजराजेश्वर महादेव, एकलिंगेश्वर महादेव मंदिरों के अलावा गली-मोहल्लों के शिव मंदिरों में औढरदानी भगवान भगवान भोले की आराधना में लीन रहेंगे।
कई शहरों में महाशिवरात्रि की शाम को शिव बारात की झांकी सजाई जाती है और तीन-चार किलोमीटर लंबा जुलूस निकाला जाता है। इसमें आगे-आगे वृषभ नंदी पर भगवान शिव विराजमान होते हैं और उनके पीछे उनके गणों और भूत-प्रेतों की बारात होती है। फिर उसके पीछे अन्य झांकियां और बैंड-बाजे, हाथी-घोड़ों का लवाजमा होता है। आयोजकों में शिव बारात को साकार करने की प्रतिस्पर्धा होती है। ऐसे दृश्य देखने के बाद बच्चा-बच्चा महाशिवरात्रि मनाने का उद्देश्य समझ जाता है और फिर मेरे मित्र ने जिस तरह का एसएमएस मुझे भेजा, इसकी गुंजाईश कदापि नहीं रहती।
मुझे मिले मैसेज को सुधार करते हुए मैं तो भगवान नीलकंठ को यही कहूंगा- `हैप्पी मैरिज एनिवर्सरी टू बम बम भोले´।
आप सब पर भगवान शिव और जगज्जननी पावॅती की मंगलमयी कृपा रहे, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ अपनी अल्पज्ञता को सावॅजनिक करने के लिए क्षमा चाहता हूं।

Friday, February 29, 2008

मछली पकड़ना सिखाते तो और बात होती

अपने केन्द्रीय वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने आज शुक्रवार को चित्त (दिल) खोलकर बजट भाषण पढ़ा। जैसी कि अथॅशास्त्र के विद्वानों, राजनीति के जानकारों के साथ आम लोगों को उम्मीद थी, वित्त मंत्री ने सबकी सुविधाओं का ख्याल रखा, हां, देश की सुविधा का ख्याल रखना भूल गए।
मैंने किसी लेख में किसी महान विचारक के विचार कभी पढ़े थे कि आप यदि बच्चे को मछली पकड़ना सिखा देते हो तो वह जिंदगी में कभी भूखा नहीं रहेगा, लेकिन यदि उसे मछली पकड़कर-पकाकर खिलाते हो, तो वह सदैव ही इस आस में रहेगा कि बिना मेहनत के ही फल की प्राप्ति हो जाए, इस तरह उसकी उद्यमशीलता हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी।
आज सुबह बजट भाषण में जब किसानों की कजॅमाफी की घोषणा की गई तो सहसा यह दृष्टांत स्मरण हो आया। न जाने हमारी सरकारें जीवट के धनी किसानों की उद्यमशीलता का हरण कर उन्हें काहिल बनाने में क्यों जुटी है। पूवॅ प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के राज में भी किसानों का कजॅ माफ किया गया था, लेकिन उस कड़वे तथ्य को कैसे झुठला दूं जिसे बचपन में किताबों में पढ़ा था कि भारतीय कृषि मानसून का जुआ है। अब मानसून तो चुनावों के मौसम का ख्याल रखने से रहा, सो इसका कोई भरोसा नहीं कि कब इतना मेहरबान हो जाए कि फसलों के ऊपर से पानी बहने लगे और कभी इतना खफा हो जाए कि फसलों का कंठ ही सूख जाए। दोनों ही स्थिति में किसानों की कमर तो टूटनी ही है। ऐसे में किसानों की कजॅमाफी के मद में जो साठ हजार करोड़ रुपए की भारी राशि दी गई है, वह राशि यदि बाढ़ और सूखा से फसलों को बचाने की चिरस्थायी योजना पर खचॅ करने का प्रस्ताव रखा जाता तो हमेशा हमेशा के लिए किसानों का भला हो जाता। आज जब आधुनिक तकनीकी का बोलबाला है तो किसानों के हित में विज्ञान के अधिकाधिक उपयोग को प्रश्रय क्यों नहीं दिया जाता। सभी छोटे-बड़े किसानों को गांवों-कस्बों तक में उन्नत बीजों और उवॅरकों की सप्लाई सुनिश्चित क्यों नहीं की जाती। किसानों को आत्मनिभॅर बनाने के और जतन क्यों नहीं किए जाते। खेती के साथ उद्यानिकी को बढ़ावा देकर मानसून की अनिश्चितता से काफी हद तक बचा जा सकता है। बरसात के मौसम में जहां नदियों में आने वाला उफान अभिशाप बन जाता है, उसका रुख कम बारिश वाले राज्यों की तरफ मोड़कर उसे वरदान में तब्दील क्यों नहीं किया जाता। पूवॅ प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शायद इसी उद्देश्य के मद्देनजर नदियों को जोड़ने का सपना देखा था, तो यदि उनकी सरकार चली गई तो आने वाली यूपीए सरकार ने उस सपने को सिरे से क्यों नकार दिया। क्या सत्तापक्ष और विपक्ष में नेवले और सांप जैसी दुश्मनी ही जरूरी है, क्या देश के व्यापक हित में विरोधी राजनीतिक दलों की योजनाओं पर अमल करना सत्तासीन राजनीतिक दल का कतॅव्य नहीं बनता।
किसानों के कजॅ माफ करने की घोषणा के बावजूद इतनी बड़ी राशि से केवल किसानों का ही भला होगा, इसकी क्या गारंटी है? क्या बिचौलिए इस राशि में अपना हिस्सा नहीं मार लेंगे? देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला जिस रवानी पर है, उससे मुकाबला करना कैसे संभव हो सकेगा? खैर, किसानों और किसानी के जो हालात हैं, उस पर तो अलग से भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है, मगर इतना तो कहा ही जा सकता है कि वित्तमंत्री ने देश के हित की कीमत पर अपनी पारटी के राजनीतिक हितों को जिस तरह तरजीह दी है, उसे देश का मतदाता अच्छी तरह समझता है। सुविधाओं के बदले ताली बजाने वाले हाथ चुनाव में आपके निशान पर ही ठप्पा लगाए या इलेक्ट्रॉनिक मशीन पर आपके चुनाव चिह्न वाला बटन ही दबाए...यह पब्लिक है सब जानती है।

Thursday, February 28, 2008

चिदम्बरम के घड़ियाली आंसू, बह मत जाना धार में


केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम ने आम बजट से पहले गुरुवार को संसद में वषॅ 2007-08 का आरथिक लेखा-जोखा पेश करते हुए आरथिक सरवेक्षण की रिपोटॅ में देश में लगातार बढ़ रही महंगाई पर गहरी चिंता जताई। इतना ही नहीं, उन्होंने खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों में हो रही बढ़ोतरी के मद्देनजर महंगाई के और भी बढ़ने की आशंका से इनकार नहीं किया। सत्तानशीं ही यदि आशंका जताकर ही अपने फजॅ की इतिश्री कर लें, तो जनता का तो भगवान ही रखवाला है। आज जैसे हालात हैं, इसमें आम आदमी को दाल-रोटी मिलना भी मुश्किल हो गया है, बात दीगर है कि मालदार लोगों को मटर-पनीर थोक में मिल रहा है।
अब चिदम्बरम साहब को कौन समझाए कि इस महंगाई के लिए उत्तरदायी कौन है। यूपीए सरकार आने से पहले महंगाई कितनी कम थी, देश में आरथिक इसके गवाह देश के करोड़ों नागरिक हैं और ये सभी नागरिक मेरी तरह भाजपा के वोटर नहीं हैं, लेकिन सच्चाई के आईने को तो वे तोड़ने से रहे। आपको याद होगा कि उस समय ब्याज दरों में भारी कमी के कारण कितनी अधिक संख्या में हाउसिंग लोन लेकर लोगों ने अपने घरों के सपने साकार किए थे। उस समय ब्याज दरें कम होने के बावजूद जिन्होंने फिक्स्ड रेट पर
हाउसिंग लोन नहीं कि फ्लोटिंग रेट रहेगी तो फायदे में रहेंगे, ऐसे लोगों के सपनों पर यूपीए सरकार की नीतियों ने जो हमला किया, उसके बाद वे चीखने लायक भी नहीं रहे।
गिनाने के लिए तो बहुत सी बातें हैं जिनका असर यूपीए की सरकार के दौरान आम आदमी को भुगतना पड़ रहा है। अब अंतिम साल में ऐसा लग रहा है कि चिदम्बरम का चित्त भी शुक्रवार को डोलेगा और वे आगामी चुनाव में यूपीए की चेयरपसॅन सोनिया गांधी की सोणी सी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मनमोहनी छवि बनाने के लिए कुछ ऐसा बजट लाएंगे कि आम आदमी को कुछ राहत मिल पाए। वैसे तो यह बजट आम आदमी के लिए आंकड़ों का मकड़जाल ही होता है, उसे तो बस इतने से ही मतलब होता है कि उसके जरूरत की चीजें कितनी सस्ती हो पाती हैं औऱ उसका जीवन कितने सहज-सरल तरीके से बीत सकता है। अगर कुछ ऐसा हुआ भी (जिसकी अत्यधिक आशा नहीं की जानी चाहिए) तो भी कांग्रेस नीत यूपीए सरकार का बेड़ा गकॅ होने से कहां तक बच पाता है, यह तो इस देश का वोटर और आने वाला समय ही बताएगा।

Tuesday, February 26, 2008

थोड़ा है थोड़े की जरूरत है

महज घोषणाएं ही नहीं, उन्हें पूरा करने की इच्छाशक्ति भी हो
अभी चार-पांच दिन पहले एक मित्र ने बहुत आग्रह किया घर आने के लिए। महीनों से उन्हें गोली दे रहा था, मगर इस बार उन्होंने जिस कारण से बुलाया था, कि नकारना मुश्किल था। मित्र के वृद्ध माता-पिता सुदूर बिहार के किसी गांव से गुलाबीनगर आए हुए थे और उनसे आशीष लेने का सुअवसर मैं भी नहीं छोड़ना चाहता था। तो साहब अपने साप्ताहिक अवकाश की शाम को श्रीमतीजी और बच्चे को लेकर उनकी सेवा में पहुंच गया। मेरा बच्चा मित्र के बच्चों के साथ खेलने के लिए ऐसे भागा जैसे जेल से छूट गया हो, श्रीमतीजी मित्र की माताजी और पत्नी के साथ शायद अपने ददॅ बांटने लगी और बचा मैं तो मित्र से कम, उनके पिताजी से मुखातिब होकर उनसे बातें करने में मशगूल हो गया।

दरअसल पीढ़ियों में अंतराल को महसूस करने की मेरी सहज पिपासा कभी शांत नहीं हो पाती। पिताश्री का कहना था कि अब गांव में भी पहले से हालात नहीं रहे। भौतिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर तीव्रतर बदलाव हो गए हैं। बांस और (खर) फूस की कोई कद्र नहीं है, इनसे छप्पर बनाने वाले कारीगर बेरोजगार हो रहे हैं। हां, ईंट-गाड़े के कंक्रीटों के जंगल गांवों में भी उग आए हैं। भित्ति के घर तो अब दिखते ही नहीं। नए बनते नहीं और पुराने जो थे, उन्हें बाढ़ का पानी बहा ले गए। उन्होंने बड़े ही व्यंग्यपूणॅ लहजे में कहा कि भैंस चराता किशोर भी साथ में मोबाइल लेकर चलता है। मोबाइल की उसके लिए क्या उपयोगिता या उपादेयता है,यह सवाल उनके लिए भी अनसुलझा था, मैं भला क्या जवाब दे पाता। गुलाबीनगर में व्याप्त महंगाई पर बात छिड़ी तो उनका कहना था कि गांव में भी आटा 15-16 रुपए किलो के हिसाब से मिलता है। सामान्य चावल के दाम की शुरुआत ही 18-20 रुपए किलो से होती है। सब्जियों के भाव भी यहां से कुछ कम नहीं हैं। इसके बाद जब मैंने उनसे गांव के और भी हालात के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि गांवों में रोजगार नहीं होने के कारण बच्चे किशोर होने से पहले ही परिवार का बोझ उठाने के लिए अपने बड़े भाई या पिता या फिर किसी रिश्तेदार की अंगुली पकड़कर शहरों की राह पकड़ लेते हैं। (फिर बड़े शहरों में राज ठाकरे और बाल ठाकरे जैसों के बयानों के बाद उनकी क्या दुःस्थिति होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। )
गांव की इस प्रगति के बावत पूछे जाने पर उन्होंने संतोष जताया कि हालात अवश्य ही सुधरे हैं। पुराने दिनों की याद ताजी करते हुए उन्होंने कहा कि अब गांव में भूले से भी कोई गूलर के फलों से अपनी भूख नहीं मिटाता। महुआ के रस से बनने वाले देसी दारू के बारे में आप सबने सुना होगा, लेकिन सूखे हुए महुए की खीर और लट्टा से गांवों में गरीब तबके के लोग कभी अपनी भूख भी मिटाया करते थे, लेकिन अब तो बीपीएल या उससे भी आगे अन्त्य स्तर पर रहने वाला भी मड़ुवा-सामा-कादो ही क्या, मकई की रोटी भी खाना पसंद नहीं करता। (यह बात दीगर है कि फाइव स्टार होटलों और बड़ी-बड़ी पारटियों में आजकल मक्के की रोटी अमीरों की पहली पसंद हुआ करती है )। कपड़े-लत्ते का स्तर भी उसी तुलना में सुधरा है, इसमें कोई शक नहीं है।
इतना सब सुनने के बाद मैं यह सोचने को विवश हो गया कि आदमी भले जिस भी स्थिति में गुजर-बसर कर रहा हो, अपनी बेहतरी के लिए प्रयासरत रहता ही है। यदि हमारे राजनेताओं में भी दृढ़ इच्छाशक्ति होती तो गांवों का ही क्या, पूरे देश का नजारा आज कुछ और होता। आजादी के 60 साल बाद भी हमें आज जो एपीएल-बीपीएल की रेखा खींचनी पड़ रही है और अन्त्योदय के बारे में इतनी मशक्कत करनी पड़ती है, वैसा कुछ नहीं होता। जनता तो अपने स्तर पर पसीने बहाते रही, लेकिन जनारदन ( सत्तासीन राजनेताओं) ने उनकी बेहतरी के लिए उस शिद्दत से प्रयास नहीं किए। आम बजट में आज तक जो सब्जबाग दिखाए गए, यदि उन्हें हकीकत में तब्दील करने का जीवट होता, तो कुछ भी मुश्किल नहीं था। समय तो अब भी नहीं बीता है, 29 फरवरी को केन्द्रीय वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम बजट रखने वाले हैं, चूंकि यह उनकी सरकार का अंतिम साल है, इसलिए सभी को काफी उम्मीदें हैं, आशा है, वे लॉलीपॉप नहीं देंगे, बल्कि देश को विकास के राह पर अग्रसर करने की सच्ची कोशिश अवश्य ही करेंगे।
राजनेता से प्रबंधन गुरु बने करिश्माई नेतृत्व के धनी बड़बोले रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने लगातार पांचवीं बार किराया नहीं बढ़ाकर अपने नाम रिकॉडॅ बनवा लिया, लेकिन चिदम्बरम के लिए शायद राह इतना आसान नहीं होगा। फिर भी सोचने में क्या जाता है और हम सोचे ही क्यों, ईश्वर से प्राथॅना करें कि वह चिदम्बरम के हृदय में सच्चिदानंद का वास करे जो जनारदन बनकर जनता के ददॅ को दूर करने को तत्पर दिखें।

Monday, February 25, 2008

जुगाड़ टैक्नोलॉजीः अपना हाथ जगन्नाथ

अभी कुछ दिन पहले ट्रेन में करीब डेढ़ हजार किलोमीटर यात्रा करने का सुयोग मिला। सहयात्री सरल औऱ मधुर स्वभाव के थे, इसलिए यात्रा मंगलमयी रही। हालांकि भारतीय ट्रेन में यात्रा के दौरान हमेशा सुखद अनुभव नहीं होते। हमारे स्वनामधन्य रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव अपनी प्रबंधन कला के लिए नाम कमाने के अभियान में जुटे हैं और एक रिकाडॅ बनाने की ओर अग्रसर हैं। मीडिया में ऐसी खबरें आ रही हैं कि लगातार चार साल तक उन्होंने अपने रेल बजट में किराया नहीं बढ़ाया और शायद पांचवीं बार भी वे ऐसा ही करेंगे।
अब पिछली गली से उन्होंने रेलयात्रियों से कितनी वसूली की है,इसका तो प्रमाण उपलब्ध है ही। रेलवे की लाखों एकड़ जमीन के व्यावसायिक उपयोग से होने वाली आमदनी हो या फिर उनसे पहले वाले रेल मंत्री नीतीश कुमार के दूरदरशितापूणॅ फैसलों की क्रियान्विति का सुफल लालू जी को मिल रहा हो, (हालांकि मैं न तो नीतीश कुमार का मुरीद हूं और न ही समथॅक, लेकिन यह मानने को विवश जरूर हूं कि लालूजी यदि प्रबंधन में इतने ही कुशल होते तो पंद्रह वषॅ के प्रत्यक्ष परोक्ष शासनकाल में बिहार की वह दुरदशा नहीं होती, जैसी हुई। )
खैर, यह तो रेल मंत्री का विशेषाधिकार है कि वे किस तरह रेलवे की आमदनी बढ़ाते हैं और किस तरह सब कुछ करने के बावजूद अपनी लोकप्रियता का डंका पीटते रहते हैं।
मैं जिस बात को लेकर मुखातिब होना चाहता था उससे शायद डिरेल हो गया हूं, क्षमा करेंगे। पिछले बजट में लालूजी ने ट्रेनों के शयनयान वाली बोगियों में बथॅ की संख्या 72 से 81 करने की घोषणा की थी। अब बोगियों की लंबाई तो बढ़नी नहीं थी सो नहीं बढ़ी, हां, उसी में बथॅ की संख्या बढ़ा दी गई। मेरा ऐसी ट्रेन में यात्रा करने का यह पहला अनुभव था, सो डिब्बे में जगह संकुचित होने के कारण परेशानी तो झेलनी ही पड़ी। इसके अलावा खिड़की के शीशे भी गायब थे। हाड़ कंपाती सरदी में यात्रा का सारा मजा काफूर हो जाता, लेकिन भला हो मुझसे पहले यात्रा करने वालों का, जिन्होंने शटर टाइप खिड़कियों के छिद्रों को अखबार के टुकड़ों से बखूबी भरकर हवा के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। शताब्दी और राजधानी में यात्रा करने वालों के मनोरंजन का ध्यान ही लालूजी रख पाते हैं, अब जनता क्लास क्या करे। वह तो अपने स्तर पर ही मनोरंजन के साधन जुटाएगी। सो एक बैंक कमॅचारी सहयात्री ने फिलिप्स की रेडियो पर फरमाइशी गीतों के कायॅक्रम सुनवाए तो बाकी सहयात्रियों के एफएम वाले मोबाइल सेट भी अपना दायित्व बखूबी निभा रहे थे। ये है अपनी आम जनता की जुगाड़ टैक्नोलॉजी, जो कभी किसी का इंतजार नहीं करती, जिसके लिए अपना हाथ ही जगन्नाथ हुआ करता है।
जहां तक मैं मानता हूं,आरक्षित श्रेणी में यात्रा करने वाले रेल किराये में प्रति सौ-दो सौ किलोमीटर के हिसाब से दो-पांच रुपए की बढ़ोतरी को कदापि बुरा नहीं मानेंगे, यदि उन्हें टिकट आरक्षित करवा लेने के बाद यात्रा के दौरान किसी दुखद अनुभव का सामना नहीं करना पड़े। पैंट्री कार में अच्छा खाना मिले, डिब्बे के अंदर स्वच्छता के साथ ही शौचालयों की नियमित साफ-सफाई हो, बीच रास्ते चलते हुए शौचालयों के नलों की टोंटी न सूख जाएं। बिना किसी लूट-मार के, सुरक्षा के लिए तैनात तथाकथित पुलिस के जवानों की ज्यादतियों के बिना यात्री सुरक्षित अपने गंतव्य पर पहुंच जाएं, टीटी बिना बात भोले-भाले ग्रामीण अंचल के यात्रियों को टिकट होने के बावजूद परेशान न करें। शयनयान श्रेणी की प्रतीक्षा सूची में यात्रियों की संख्या सुनिश्चित की जाए और यदि फिर भी यह सूची लंबी होती है तो प्रतीक्षा सूची के यात्रियों के लिए अलग से बोगी लगाने की व्यवस्था की जाए।
ये तो मेरे अरमान हैं, जिसे आपलोगों की समानानुभूति (empathy) भले ही मिल जाए, लालू जी को तो जो करना था, वे कर चुके, जिससे मंगलवार सुबह हमारा सामना होगा। देखना है, लालूजी क्या-क्या लाते हैं हमारे लिए अपनी छुक-छुक गाड़ी में।

Saturday, February 23, 2008

कीचड़ कैसे धुलेगा कीचड़ से

सपा नेता अबू आजमी और मनसे प्रमुख राज ठाकरे के बीच शुरू हुए विवाद की चिनगारी अब लपटों की शक्ल अख्तियार कर चुकी है। शुक्रवार को बिहार विधानसभा में बड़बोले लालू यादव की पारटी राजद के विधायकों के साथ विपक्ष ने राज्यपाल आर. एस. गवई का जमकर विरोध किया और राज्यपाल वापस जाओ के नारे लगाने लगे। गवई का यह दोष है कि वे मराठी हैं। नारे लगा रहे विधायकों की शिकायत थी कि राज्यपाल ने अभिभाषण में मुंबई और महाराष्ट्र में हुए बिहारियों और उत्तर भारतीयों पर हमले की चरचा क्यों नहीं की। अब इन बददिमाग बुद्धिशून्य विधायकों को कौन बताए कि अभिभाषण राज्यपाल खुद तैयार नहीं करता, बल्कि सत्तारूढ़ दल ही तैयार करता है। अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनकी पारटी व सहयोगी दलों ने यदि अभिभाषण में इस पचड़े को नहीं डालना चाहा तो इसमें बुरा क्या है। क्या अभिभाषण में मुंबई में बिहारियों पर हुई ज्यादतियों की चरचा करने से उनका जख्म दूर हो जाता। क्या अभिभाषण में इसके जिक्र से बिहारियों या उत्तर भारतीयों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हो जाएंगे। हां, नीतीश कुमार की मंशा यदि सही है तो वे बिहार में ही बिहारपुत्रों को रोजगार उपलब्ध कराने के मिशन पर अवश्य ही काम कर रहे होंगे। और यही उसका सही प्रतिवाद भी होगा जो कुछ मुंबई, पुणे, नासिक या और भी कहीं हुआ।
पटना में आर. एस. गवई का विरोध हुआ तो भला मुंबई में राज ठाकरे कैसे चुप रहते। उन्होंने तो मराठियों के आत्मसम्मान की रक्षा का ठेका लिया हुआ है। उन्होंने सोनिया गांधी से बिहारियों को बिहार भेजने की मांग कर डाली, जैसे कौन कहां रहेगा और क्या करेगा, यह सोनिया गांधी और राज ठाकरे ही मिलकर तय करेंगे। हां, केंद्र में शासन चला रहे सबसे बड़े दल कांग्रेस की मुखिया होने के कारण उन्होंने और उनकी मनमोहनी सरकार ने उस समय जो चुप्पी बनाए रखी थी, उसी ने राज ठाकरे को उनसे यह मांग करने की हिम्मत दे डाली है।
इतना कुछ होने के बाद पुराना अनुभव कहता है कि इन वाद-विवादों के बावजूद बड़ी हस्ती वाले राजनेताओं का तो इससे कुछ नहीं बिगड़ेगा, संभव है कि कुछ दिनों बाद सब कुछ शांत हो जाएगा और ये तथाकथित हस्तियां इन बातों को भुलाकर फिर किसी व्यक्तिगत आयोजन या सावॅजनिक समारोह में गलबहियां डाले दिख जाएं। मुसीबत तो उन गरीब उत्तर भारतीयों की हुई जो अपनी रोजी-रोटी (चाहे जैसी ही रही हो) को छोड़कर वापस अपने देस जाने को विवश हुए और वहां रोजगार ही क्या, दो जून की रोटी को भी मोहताज होंगे। उनके पेट भरने की जिम्मेदारी न तो लालू यादव लेंगे और न ही अमर सिंह या अबू आजमी। इसका दूसरा पहलू भी आज ही किसी अखबार में दिखा कि मुंबई और महाराष्ट्र के अन्य शहरों के उद्योगों को मजदूरों की कमी का सामना करना पड़ रहा है। हो गया न सब गुड़ गोबर। जिसे काम चाहिए उसका काम छिन गया औऱ उद्योगों को मजदूर नहीं मिल पा रहे। अब बढ़ाते रहो विकास दर। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम कितना भी कुछ कर लें, इन दुष्परिणामों से देश को कैसे बचा पाएंगे।
एक पुराना वाकया याद आता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के नेतृत्व में चल रही सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भारी मन से युवा तुकॅ के इस नेता ने कहा था-
गैर मुमकिन है कि हालात की गुत्थी सुलझे
अहले दानिश ने बड़ा सोचकर उलझाया है।
लगता है एक बार फिर वैसी ही परिस्थितियां बन आई हैं हमारे प्यारे देश के सामने। ऊपरवाले से प्राथॅना है कि वही सद्बुद्धि दे इन बददिमागों को और भारत देश महान जैसा है वैसा ही बना रहे-अनेकता में एकता का परचम लहराने वाला।