राधा बाबा के साथ एक पीढ़ी का अवसान
कहा जाता है कि मूल से अधिक ब्याज प्रिय होता है। पोता-पोती के प्रति बाबा (दादा) के स्नेह में इसे सहज ही महसूस किया जा सकता है। मुझे अपने बाबा के दर्शन का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन बचपन के दिनों को याद करता हूं तो बालगोविंद बाबा की छवि स्मृति पटल पर ऐसे उभर आती है, जैसे कल की ही बात हो। हम खुशकिस्मत थे कि हमें पट्टीदारी के दो पड़बाबाओं के पैर छूने का अवसर भी मिला।
हाईस्कूल के दौरान पढ़ा था-चमन में फूल खिलते हैं, वन में हंसते हैं। कुछ उसी तर्ज पर कहूं तो शहरों में रिश्ते निभाए जाते हैं और गांवों में लोग रिश्तों को जीते हैं। इसी का असर था कि पट्टीदारी से लेकर टोला-मोहल्ला तक बाबाओं की भरमार थी। उनके मिलनसार मधुर स्वभाव के कारण बच्चों की उनसे निकटता बन पाती थी या फिर किन्हीं के गुस्सैल स्वभाव के कारण बच्चे दूर से ही किनारा कर लिया करते थे, लेकिन एक अपनापा का भाव तो होता ही था।
समय की निरंत बहती धारा में एक-एक कर बाबाओं के विलीन होने का सिलसिला जारी रहा। पिछले साल जुलाई में गांव गया था, तब मुसाफिर बाबा के निधन के बाद बरबस ही लोगों के बीच चर्चा छिड़ गई थी कि अब हमारे बाबा की पीढ़ी में राधा बाबा ही बच गए हैं। संयोग से उस दौरे में मुझे उनसे आशीर्वाद लेने का सुअवसर मिल पाया था।
पिछले सोमवार को गांव में किसी मित्र को फोन किया तो उसने बताया कि राधा बाबा नहीं रहे। बढ़ती उम्र के बावजूद राधा बाबा की सेहत ठीक-ठाक थी... लेकिन पिछले दिनों छोटे बेटे की असमय मौत के बाद वे अंदर ही अंदर घुलने लगे थे और चिंता रूपी घुन ने आखिरकार उन्हें अपना निवाला बना ही लिया। ...और उनके साथ ही एक पूरी पीढ़ी का अवसान हो गया। परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि उन्हें अपने चरणों में शरणागति प्रदान करें।
01 April 2019
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