Saturday, October 26, 2019

...सिर्फ अंगूठे हैं हम लोग


विपत्ति कभी कहकर नहीं आती। कब कहां किसके सामने आकर सुरसा की तरह मुंह फाड़कर खड़ी हो जाए, कहना मुश्किल है। खुद पर विपत्ति आने से परेशान होना तो लाजिमी है ही, संवेदनशील लोग अपनों के किसी बड़ी विपत्ति में फंस जाने पर भी परेशान हो उठते हैं। आप भी सोच रहे होंगे कि मैं कहां का उपदेश बांचने लगा, लेकिन ऐसी बात है नहीं। मेरा इस तरह का उपदेश देने का कोई नैतिक अधिकार है भी नहीं। लेकिन तुलसी बाबा कह गए हैं, कहेहु से कछु दुख घटि होई...सो अपनी पीड़ा आपलोगों के सामने रखने से खुद को रोक नहीं सका। काफी दिनों बाद कल मॉर्निंग वॉक के लिए पार्क में गया तो वहां मेरा प्रिय मित्र टपलू मिल गया। सावन के सुहाने महीने में उसके चेहरे पर मुर्दानगी देखकर मैंने वजह जाननी चाही तो पहले तो वह टालता रहा, लेकिन काफी जिद करने पर उसने जो कुछ बताया, उससे मेरा दिल भी बैठ गया। कुछ दिन पहले टपलू के फुफुरे भाई को अचानक कैंसर डायग्नोस हुआ, वह भी करीब-करीब अंतिम स्टेज का। किसान परिवार, जो रोजाना का जरूरी खर्च ही जैसे-तैसे निकाल पाता है, इस वज्र विपत्ति का सामना कैसे कर पाता। फिर बिना उपचार के यूं ही भगवान या भाग्य भरोसे भी तो किसी को छोड़ा नहीं जा सकता। यह बीमारी जान तो जब लेती है, तब लेती है, उससे पहले परिवार का सब कुछ खत्म कर देती है। फिर भी घर वालों ने ‘जब तक सांस तब तक आस’ सोचकर जैसे-तैसे पैसे का इंतजाम कर इलाज शुरू किया। टपलू ने बातचीत के दौरान अपने बेटे को फुफेरे भाई की परेशानी बताई तो उसने जो संभव हो सका, मदद करने की बात कही। टपलू का बेटा आईटी सेक्टर में काम करता है। उसके रिश्तेदारों ने व्हाट्सएप ग्रुप बना रखा है। आए दिन सोशल मीडिया पर क्राउड फंडिंग की खबरें पढ़ने वाले इस युवा ने रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप पर पिता के फुफेरे भाई की बीमारी का हवाला देते हुए आर्थिक मदद की अपील की। जो लोग ग्रुप से नहीं जुड़े थे, उनको फोन पर इसकी जानकारी देते हुए हाथ बढ़ाने का आग्रह किया। लोगों ने इस पहल की सराहना की और मदद का भरोसा भी दिलाया। इसके बाद जब उसने व्हाट्सएप ग्रुप पर मदद के लिए बैंक डिटेल की जानकारी शेयर की तो महज दो-तीन लोग ही आगे आए। बाकी लोगों ने किसी न किसी बहाने से किनारा कर लिया और एक बड़ी पहल शुरू होने से पहले ही दम तोड़ गई। टपलू की व्यथा सुनकर मैं भी किंकर्तव्यविमूढ़ था। हमलोग यूं तो आधुनिक होने का दंभ भरते हैं, लेकिन जब सही अर्थों में आधुनिकता दिखाने का अवसर आता है, तो कछुए की तरह रूढ़िवादिता के कवच में घुस जाते हैं। हमारी खुद की आवश्यकताएं सबसे बड़ी दिखने लगती हैं। समूह भावना से सहयोग करके हम किसी अपने को कैसी भी बड़ी परेशानी से निकाल सकते हैं और भगवान न करे, हमारे खुद के भी परेशानी में फंसने की नौबत आई तो हमारे भी उस परेशानी से मुक्ति पाने की एक आशा अवश्य रहती है, लेकिन जब हम किसी अपने का सहयोग करने से इनकार कर देते हैं तो ऐसी संभावनाओं पर ही विराम लग जाता है। ऐसे में कवि शेरजंग गर्ग की यह कविता सहसा ही मेरे जेहन में धमाचौकड़ी मचाने लगी : खुद से रूठे हैं हम लोग, टूटे-फूटे हैं हमलोग सत्य चुराता आंखें हमसे, इतने झूठे हैं हमलोग इसे साध ले, उसे बांध ले, सचमुच खूंटे हैं हमलोग क्या कर लेंगी वे तलवारें, जिनकी मूठे हैं हमलोग मय-ख्वारों की महफिल में, खाली घूंटें हैं हमलोग हमें अजायबघर में रख दो, बहुत अनूठे हैं हमलोग हस्ताक्षर तो बन न सकेंगे, सिर्फ अंगूठे हैं हमलोग। 03 August 2019

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