Tuesday, October 30, 2007

ब्लॉग---अभिव्यक्ति का २०-ट्वेंटी


आइए, आज कुछ अभिनव अंदाज में अतिनूतन मुद्दे पर अपनी भावनाओं को शेयर करें। याद करें क्रिकेट टेस्ट मैच का वह जमाना जब पांच दिनों के बीच में न केवल खिलाड़ियों की थकान मिटाने के लिए, बल्कि दशॅकों की बोरियत दूर करने के लिए भी एक दिन का ब्रेक हुआ करता था। उन दिनों टेलीविजन प्रसारण या रेडियो कमेंट्री के बीच-बीच में विज्ञापनों की बाधा या यूं कहें कि एंटरटेनमेंट की बाध्यता नहीं हुआ करती थी।
फिर वन डे का दौर शुरू हुआ और महज ५०-५० ओवर में दशॅकों को फुल एंटरटेनमेंट की सुविधा मुहैया उपलब्ध होने लगी। न केवल खिलाड़ियों की व्यस्तता और मारकेट वैल्यू बढ़ी, दशॅकों का भी खूब मनोरंजन होने लगा।
......और अभी पिछले दिनों ट्वेंटी-ट्वेंटी का सुरूर जिस तरह पूरी दुनिया पर छाया रहा, उसके तो हम सब न केवल मुरीद रहे, बल्कि साक्षी भी बने। रही-सही कसर हमारे हीरो माही ने पूरी कर दी, जब उसकी टीम ने पहला विश्व कप भारत की झोली में डाल दिया। अपने देश में लोग मन्नत पूरी होने तक दाढ़ी-बाल बढ़ाकर रखते हैं, लगता है अपने महेंद्र के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ कि किस्मत का सितारा जब पूरी तरह रोशन हुआ, तो विपक्षी टीम के हौसले धोते-धोते धोनी ने अपने बालों को भी धो डाला।
........अब मैं अपने उस मुद्दे पर आता हूं, जिसके लिए मैंने बात शुरू की थी। ब्लॉग की दुनिया भी अभिव्यक्ति के २०- ट्वेंटी मैच सरीखी ही है। आपके मन में कोई विचार कौंधा, और आपने उसे अपने ब्लॉग पर डालकर उसकी चमक से उन सभी को चकाचौंध कर दिया, जिन्होंने आपकी साइट पर आने की जहमत उठाई। न संपादक की स्वीकृति का इंतजार, न प्रकाशक की असहमति की चिंता। हां, एक बात अवश्य खलती है कि वतॅमान में इसका एक सीमित पाठक वगॅ है, लेकिन जिस तरह इसका विस्तार हो रहा है, संभावनाएं समंदर की तरह विस्तृत हैं, इसमें कोई शक नहीं है। नेट की सुविधा, फोंट की उपलब्धता होने के बावजूद यदि कोई आपके विचारों को नहीं पढ़ पाता है, तो भी मायूस होने की कोई जरूरत नहीं है। कई लोगों ने साक्षर होने के बावजूद तुलसी बाबा की रामचरितमानस, दिनकर की उवॅशी, प्रेमचंद का गोदान और ऐसे न जाने कितने नामचीन लेखकों की नामचीन कृतियों में छिपा अमृतरस नहीं चखा, तो क्या इससे इन रचनाओं अथ च रचनाकारों की उपादेयता पर कोई असर पड़ा, नहीं...बिल्कुल नहीं।
और हां, एक बात और...कई बार तकनीकी समस्याएं आती हैं, तो इससे भी मायूस होने की जरूरत नहीं है। मेरा यकीन है कि जिस समय आप अपनी बाधा से दो-चार हो रहे होते हैं, इंटरनेट के इस चमत्कारी युग में उसी क्षण आपका कोई भाई उन बाधाओं से दो-दो हाथ कर रहा होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो इंटरनेट के फलक पर आज हिंदी का वह स्थान नहीं होता, जो आज दिख रहा है।
और अंत में....इन शब्दों के साथ क्षमायाचना कि न तो कम्प्यूटर की तकनीकों में अपना दखल है और न ही क्रिकेट की कठिन शब्दावलियों को ही आज तक समझ पाया हूं, फिर भी इनका सहारा लेकर इतना कुछ कहने की जुरॅत कर डाली......कभी कभी हमने इस दिल को ऐसे भी बहलाया है,जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।
जय ब्लॉग, जय ब्लॉगर बंधुओं।

Monday, October 29, 2007

अब कौन चलाएगा आंखें


होठों को मुस्कान देने वाले के लिए आंखें सहसा ही नम हो गईं, जब उनके महाप्रयाण का इंटरनेट पर खबर देखी।
आज के जमाने में जब दिनानुदिन बढ़ती मुश्किलों ने मुस्कुराना भुला सा दिया है, हास्य कवि शैल चतुर्वेदी का निधन साहित्य प्रेमियों के लिए अपूरणीय क्षति है। कई कवि सम्मेलनों में उन्हें सुनने का अवसर मिला। मुंह में बीड़ा दबाकर उनके श्रीमुख से निकलने वाले शब्द और उनकी बॉडी लैंग्वेज श्रोताओं को सारी परेशानियों को भुलाकर खुलकर ठहाके लगाने का सामान जुटा देती थी।
जिस भी कवि सम्मेलन में वे मंचासीन होते थे, अपनी विशाल काया और शब्दों की माया से छा जाते थे। अपने जीवन में दुखों को दूर कर किस प्रकार से ऊर्जा का उपयोग सही दिशा में करना चाहिए, इसकी सीख शैल जी ने अपनी कविताओं में बखूबी दी है। साहित्य के क्षेत्र में ये हमेशा अमर रहेंगे। उम्र के इस पड़ाव पर उनका हरफनमौलापन खत्म नहीं हुआ था। जिनका साहित्य से उतना लगाव नहीं था, वे भी फिल्मों और टेलीविजन धारावाहिकों की बदौलत उनकी कला के मुरीद थे।
उनकी प्रसिद्ध कृति
--चल गई---से कुछ पंक्तियां पेश-ए-नजर कर रहा हूं
उक्त रचना में तो वे अपनी बाईं आंख के यदा-कदा फड़कने के कारण आसन्न मुसीबतों से बचते हुए कहते हैं कि ---जान बची तो लाखों पाए---लेकिन आज की तारीख में हकीकत यही है कि हम सबके प्रिय शैल जी भी काल के क्रूर हाथों से नहीं जीत पाई, मृत्यु के आगे मसखरी एक बार फिर हार गई----
.......चल गई
वैसे तो मैं शरीफ हूं, आप ही की तरह श्रीमान हूं
मगर बाईं आंख से बहुत परेशान हूं
अपने आप चलती है,
लोग समझते हैं चलाई गई है, जान-बूझकर मिलाई गई है
एक बार बचपन में, शायद सन पचपन में
क्लास में एक लड़की बैठी थी पास में
नाम था सुरेखा, उसने हमें देखा और बाईं आंख चल गई
लड़की हाय हाय कर क्लास छोड़ निकल गई
थोड़ी देर बाद, हमें है याद
प्रिंसिपल ने बुलाया, लंबा-चौड़ा लैक्चर पिलाया
हमने कहा कि जी भूल हो गई
वो बोले, ऐसा भी होता है भूल में,
शमॅ नहीं आती ऐसी गंदी हरकत करते हो स्कूल में
और इससे पहले कि हकीकत बयान करते
फिर चल गई, प्रिंसिपल को खल गई
हुआ यह परिणाम, कट गया स्कूल से नाम,
बामुश्किल तमाम, मिला एक काम
इंटरव्यू में खड़े थे,
क्यू में एक लड़की थी सामने खड़ी,
अचानक मुड़ी नजर उसकी हम पर पड़ी
और बाईं चल गई, लड़की उछल गई
दूसरे उम्मीदवार चौंके, लड़की का पक्ष लेकर भौंके
फिर क्या था, मारमार जूते-चप्पल फोड़ दी बक्कल
तब तक निकालते रहे रोष, और जब हमें आया होश
तो देखा अस्पताल में पड़े थे, डॉक्टर और नसॅ घेरे खड़े थे
हमने अपनी एक आंख खोली, तो एक नसॅ बोली-ददॅ कहां है?
हम कहां-कहां बताते, और इससे पहले कि कुछ कह पाते कि चल गई
वो बोली शमॅ नहीं आती, मोहब्बत करते हो अस्पताल में?
उनके सबके जाते ही आया वाडॅ ब्वाय,देने लगा अपनी राय
भाग जाएं चुपचाप नहीं जानते आप
बात बढ़ गई है, डॉक्टर को गढ़ गई है
केस आपका बिगड़वा देगा
न हुआ तो मरा हुआ बताकर जिंदा ही गड़वा देगा
तब रात के अंधेरे में आंखें मूंदकर
खिड़की से कूदकर भाग आए
जान बची तो लाखों पाए

Sunday, October 28, 2007

गीत चांदनी में डुबकी लगाएं


सही मायने में पूनम (पूरणिमा) का उत्सव तो हर महीने समंदर ही मनाता है, जब उसकी लहरें चंद्रमा की किरणों को अपने आगोश में लेने के लिए मचल उठती हैं, जिसे ज्वारभाटा के नाम से जाना जाता है। प्रकृति का सतत अनुचर मनुष्य की प्रकृति भी इससे कुछ भिन्न नहीं है। वह भी पूनम पर कई तरह के आयोजन करता ही है। लेकिन अन्य पूनमों की तुलना में शरद की पूनम का कुछ विशेष महत्व है।
इस उपलक्ष में गुलाबीनगर में पिछले करीब ३७ बरसों से तरुण समाज ---गीत चांदनी--- नाम से कवि सम्मेलन आयोजित करता है। इसमें कविगण गीतों से चांद, चांदनी और फिर कामिनी, प्रकृति सब पर अपनी कल्पनाओं के तीर चलाते हैं। कवि भी तो वही कहते हैं, जो आमजन के मन में उमड़ता-घुमड़ता रहता है, लेकिन भावनाओं को शब्दों का अम्बर पहनाना तो हर किसी के वश में नहीं हो न।
इस बार भी यह आयोजन हुआ, जिसमें देहरादून के बुद्धिनाथ मिश्र, आगरा के शिवसागर मिश्र, हरिद्वार के रमेश रमन, इलाहाबाद के यश मालवीय, दिल्ली की मुमताज नसीम, रायबरेली की श्यामासिंह सबा, अजमेर के गोपाल गगॅ और कोटा के मुरलीधर गौड ने अपनी रचनाओं की चांदनी बिखेरी। संचालन जयपुर के सुरेंद्र दुबे का रहा। यहां भी खलने वाली बात यह रही कि मंच पर बैठे कवियों और सामने बैठे श्रोताओं का काव्य की रसधार के बीच भी मोबाइल से मोहभंग नहीं हुआ, और रिंगटोन तथा बातचीत व्यवधान बनते रहे।
आइए, कुछ रचनाओं का मिल-जुलकर रसास्वादन करें----
हर दीप को पूजा मिले हर स्रोत को नदिया मिले
भगवान मेरे देश में हर फूल को प्रतिमा मिले
पानी, हवा और धूप से संपन्न हो वन संपदा
तरुवर से लिपटी हो लता आए न कोई विपदा
संपन्न हर घर बार हो कोई नहीं लाचार हो
सत्यम् शिवम् और सुंदरम् की कल्पना साकार हो
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प्यार का गीत जमाने को सुनाया जाए, दुश्मनों को भी गले से लगाया जाए
कब कहती हूं इन्हें ताज अता हो लेकिन हक गरीबों को भी जीने का दिलाया जाए
माथे पर मत बल लाया कर इन होठों को फैलाया कर
रोज सवेरे के सूरज से फूल लिया कर फूल दिया कर
आते-जाते देख लिया कर अपनों पर कुछ ध्यान दिया कर
कभी कभी तो दूरभाष पर हाल हमारा पूछ लिया कर
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कई साल बाद मिले हो तुम कहां खो गए थे जवाब दो
मेरे आंसुओं को न पोंछों तुम मेरे आंसुओं का जवाब दो
किसी रोज तुम मेरी खैरियत कभी फोन करके ही पूछ लो
ये तो मैंने तुम्हें कहा नहीं कि मेरे खतों का जवाब दो
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आप खुशकिस्मती से जो इंसान हैं, रस्मे इंसानियत भी निभा दीजिए
आप आगे हैं आगे ही रहिए मगर जो हैं पीछे उन्हें रास्ता दीजिए
हाठ उट्ठे तुम्हारे खुदा के लिए लोग समझें कि उट्ठे दुआ के लिए
आप रूठे हैं तो मुझसे रूठे रहें, कब मैं कहती हूं मुझको दुआ दीजिए
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गम को रुसवा न कीजे सरे अंजुमन, सिफॅ तनहाई में आंख नम कीजिए
मिट न जाएं कभी यार के नक्श-ए-पा, इनसे हटकर ही पेशानी खम कीजिए
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रात अपनी गरीब लगती है, चांदनी गरीब लगती है
आप जब दूर-दूर होते हैं, जिंदगी बदनसीब लगती है
झील में जैसे इक लहर आए देखता हूं कि आंख भर आए
हूबहू आप जैसी इक मूरत चांदनी रात में नजर आए
और अंत में मेरी ओर से क्षमायाचना किसी कवि की इन पंक्तियों से...
इस दुनिया में अपना क्या है, सब कुछ लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का, अपनी केवल धार

Thursday, October 25, 2007

कलम आज--खुद--की जय बोल


राष्ट्रकवि रामधारी दिनकर की देश के बलिदानी स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में लिखी कविता---कलम आज उनकी जय बोल---में आंशिक परिवतॅन (सादर क्षमायाचना सहित) के साथ हाजिर हूं।
बदलाव प्रकृति का शाश्वत नियम है और समय के साथ चलने के लिए जरूरी भी, इसके बावजूद कुछ बातें ऐसी होती हैं, जिनका असर कम होना असरदार हो सकता है। जी हां, आप ठीक समझे, मेरा इशारा दिनानुदिन कम हो जाते जा रहे कलम के प्रयोग की ओर है। मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में जैसे लगता है कलम के खिलाफ कोई अघोषित जंग छिड़ी हुई है। गोरी अब सांवरिया को खत नहीं लिखती बल्कि एसएमएस करती है और खतों में फूल के स्थान पर पिक्चर मैसेज या एमएमएस भेजे जाते हैं। रही-सही कसर इंटरनेट पूरी कर देता है, जहां आप मनचाही-मनमानी भावनाओं, तस्वीरों के आदान-प्रदान करने के साथ ही चैटिंग का भी आनंद ले लेते हैं। किसी का फोन नंबर लेना होता है तो आदमी डायरी-कलम नहीं निकालता, मोबाइल में उसे फीड कर लेता है।
कामकाजी लोगों को देखिए, पहले बैंकों से पैसे निकालने के लिए कम से कम विड्राल फॉमॅ भर लेते थे, लेकिन एटीएम काडॅ और क्रेडिट काडॅ ने कलम निकालने की जरूरत ही खत्म कर दी। ऑफिसों में कमॅचारियों को मैग्नेटिक काडॅ दे दिए जाते हैं, जिससे उनकी उपस्थिति दजॅ हो जाती है, पंजिका में हस्ताक्षर कौन करे।
विज्ञान से मेरा कोई वैर नहीं है, मैं भी नित नई आने वाली टेक्नीक से रू-ब-रू होना व उसे प्रयोग में लाने के बारे में सीखना चाहता हूं, सीखता भी हूं, लेकिन मेरी बस इतनी गुजारिश है कि जब भी कभी अवसर मिले, कलम का प्रयोग अवश्य करें। दिनभर की गतिविधियों में कोई बात दिल को छू गई हो, डायरी पर अंकित कर लें, बच्चे को कोई जरूरी हिदायत देनी हो तो लिखकर दें, कोई ऐसा बचपन का बिछुड़ा मित्र हो, जिन तक आधुनिक संचार साधनों की पहुंच नहीं हो, आप अपनी मधुर यादों को ताजी कर सकते हैं। एक और कारण, मोबाइल से बात करते समय, साइबर कैफे में बैठे हुए हमारा ध्यान जब जेब पर जाता है तो हम भावनाओं पर अंकुश लगाने को बाध्य हो जाते हैं, लेकिन कागज-कलम की दुनिया में ऐसी बंदिशें नहीं होतीं, भले ही डाक खचॅ और स्टेशनरी की कीमतें बढ़ गई हों। लेखनी जिंदा रहेगी, लेखन जारी रहेगा तो लिखने वाला तो अमर होगा ही।
अंत में यही कहना चाहूंगा--
रेगिस्तानों से रिश्ता है बारिश से भी यारी है
हर मौसम में अपनी थोड़ी-थोड़ी हिस्सेदारी है।

Tuesday, October 23, 2007

....मिलजुल कर एक सपना देखें


--समय के दपॅण में सुख-दुख अपना देखें, आओ हम तुम मिलजुल कर एक सपना देखें...बहुत पुरानी फिल्म के गाने का यह मुखड़ा आज नए सिरे से बहुत कुछ सोचने को विवश कर गया। आजकल तो फिल्मों के जो गाने होते हैं, उन्हें गुनगुनाने का दिल नहीं करता, हां, सुनकर रोना जरूर आता है, सुनने या बार-बार सुनने का तो सवाल ही नहीं उठता।
इन दिनों दैनिक समाचार पत्रों और मासिक पत्रिकाओं में ब्लॉग पर काफी कुछ लिखा जा रहा है। हम हिंदी वालों के लिए अपने नितांत वैयक्तिक विचारों को सावॅजनिक मंच पर लाने का यह सशक्त माध्यम जो ठहरा। हाल ही प्रकाशित ऐसी ही एक पत्रिका में हिंदी में कम ब्लॉग लिखे जाने या यूं कहें कि इसे बरतने वालों की कम संख्या पर चिंता जताई गई थी। चिंता वाजिब थी, एक अरब से अधिक आबादी वाले देश में हिंदी ब्लॉगसॅ की संख्या अभी हजारों में ही है।
अब मैं अपनी पृष्ठभूमि से आपको परिचित कराऊं, फिर इस विचारगंगा को गंगोत्री से आगे बढ़ाएंगे। मेरा गांव बिहार के वैशाली जिले के अग्रणी गांवों में शुमार किया जाता है। बिजली तो यहां ३०-४० बरसों से है, खंभे भी गड़े हैं, उनपर तार भी हैं, कई स्थानों पर ट्रांसफॉमॅर भी हैं, लोगों ने मीटर भी लगवा रखे हैं तथा नियमित रूप से बिल भी भरते हैं, लेकिन इन तारों में प्राणतत्व का संचार कभी-कभार ही होता है और आज भी लोगों को केरोसिन के सहारे ही अंधेरे को मिटाने का जतन करना पड़ता है।
फोन की कमी गांव के तथाकथित अभिजात्य लोग दशकों से महसूस कर रहे थे, कई तो टेलीफोन महकमे में राज्य स्तर पर शीषॅ पर भी पहुंच गए, लेकिन व्यवस्थागत बीमारियों से छुटकारा मुश्किल से ही मिल पाता है, सो फोन नहीं लगे तो नहीं लगे। गिनीज वल्डॅ रिकॉडॅधारी सांसद रामविलास पासवान जब दूरसंचार मंत्री बने तो गांव में बीएसएनएल का एक्सचेंज खुल गया और काफी लोगों ने टेलीफोन कनेक्शन लिए। लेकिन फिर भी टेलीफोन की पहुंच एक सीमित तबके तक ही थी। अभी पिछले मई-जून में जब मैं गांव गया तो मुझे संचार क्रांति के दिव्य दशॅन हुए। क्या संपन्न क्या विपन्न, क्या मालिक क्या मजदूर, क्या जमींदार क्या किसान, रिक्शा खींचने वाले और उनपर बैठने वाले सभी के हाथों में मोबाइल हैंडसेट देखकर मन गदगद हो गया। तब मुझे अहसास हुआ कि भारत में कोई भी क्रांति बिना गांवों तक पहुंचे पूरी नहीं हो सकती। आजादी की लड़ाई में भी गांव शहरों से किसी मायने में पीछे नहीं थे।
अब मैं अपने आज के विषय पर आपको वापस लाता हूं। उक्त पत्रिका ने हिंदी ब्लॉगसॅ की कम संख्या की जो चिंता जताई है, उसका एक ही तोड़ है। खुली आंखों से मैं एक सपना देख रहा हूं और यह एक दिन अवश्य ही सच होकर रहेगा, जब हमारे देश के सभी गांवों के घर-घर में कम्प्यूटर होंगे, लोगों में कम्प्यूटर लिट्रेसी होगी, इंटरनेट का इस्तेमाल सुगम होगा, कम्प्यूटरों को बिजली की प्राणवायु के लिए किसी सुखेन वैद्य का इंतजार नहीं करना पड़ेगा, मनचाही बिजली मिलेगी, भले ही मनमोहन सिंह का परमाणविक बिजली के लिए अमेरिका से करार हो न हो। और फिर इंटरनेट की नित नवीन तकनीकों का उपयोग करने में भारतीयों या फिर हिंदीभाषियों की महारथ को कोई चुनौती नहीं दे सकेगा।
---भारतमाता ग्रामवासिनी----कविता महज शब्दों को छंदों में बांधने की युक्ति नहीं है, बल्कि यही हकीकत है कि गांधी के गांवों में ही भारत माता की आत्मा बसती है। जड़ों को सींचा जाएगा तो पत्ते तो लहलहाएंगे ही। आईए, हम सब मिलकर सामूहिक रूप से यह सपना देखें और ईश्वर करेगा तो यह सपना अवश्य ही साकार होगा। जय हिंदी---जय हिंद---जय गांव
(व्यक्तिपरक अनुभूतियों के सहारे व्यष्टिगत चिंता जताने की जुरॅत करने के लिए क्षमायाचना सहित)

Sunday, October 21, 2007

...ऐ दुनिया, तुमने मुझे भुला दिया

यह किसी भूले-बिसरे फिल्म के गाने का मुखड़ा है, जिसे मैं खुद भी भूल चुका हूं, लेकिन आज जयपुर के पिंकसिटी प्रेस क्लब में आयोजित राजेंद्र बोहरा स्मृति काव्य पुरस्कार समारोह में बार-बार ये शब्द मुझे झकझोरते रहे।
साहित्य में न तो मेरी पैठ है और न ही मैं साहित्य साधना करने की क्षमता रखता हूं, हां, बचपन में मिले संस्कार कुछ न कुछ पढ़ने या यूं कहें कि स्वाध्याय के लिए प्रेरित करते रहते हैं। पढ़ने के साथ ही सुनने का भी शौक शुरू हुआ तो बीबीसी हिंदी सेवा से काफी गहरे तरीके से लगाव हुआ। उन दिनों बीबीसी की सांध्यकालीन सेवा में साहित्य के निमित्त सप्ताह में एक दिन तय होता था। उस सभा में कई बार राजेंद्र बोहरा प्रस्तोता हुआ करते थे। उनके स्वर और प्रस्तुति से ऐसा आभास अवश्य होता था कि इनके खुद भी साहित्य अथ च मानवता से भी सरोकार हैं। पैशन जब प्रोफेशन बना और नियति ने मेरे कदमों का रुख गुलाबीनगर की ओर किया तो पता चला कि वे वाकई अच्छे कवि थे राजेंद्र बोहरा के दिवंगत होने के बाद उनकी स्मृति को संजोए रखने के लिए उनके परिजनों ने यह पुरस्कार शुरू किया है जो किसी रचनाकार की प्रथम कृति के लिए दिया जाता है। इस बार यह सौभाग्य मिला जयपुर के ही प्रेमचंद गांधी को।
समारोह में वक्ता भी थे, और वे थे तो कुछ न कुछ कहते अवश्य। वे बोले भी, साहित्य की दुदॅशा पर चिंता भी जताई गई, काव्य के छंदों के आवरण से मुक्त होने पर भी बहुत कुछ कहा गया, लेकिन कथ्य यदि सशक्त है तो कविता बोलेगी अवश्य और पाठकों-साहित्यप्रेमियों और कुछ हद तक कहें तो समीक्षकों-आलोचकों के सिर चढ़कर भी। यूं तो इसके असंख्य उदाहरण हैं, मगर मेरी अल्पज्ञता की सीमा है, सो मैं मात्र दो उदाहरण से अपनी बात रखना चाहता हूं, छंदों में बंधी रामचरितमानस के दोहे चौपाइयां और कविवर सूयॅकांत त्रिपाठी निराला की ---वह तोड़ती पत्थर---क्या हर किसी की जुबान पर नहीं हैं। अतः हमें कविता की चिंता तो नहीं ही करनी चाहिए, हां उसके कथ्य पर अवश्य ही ध्यान होना चाहिए, जिससे मानवता की दशा का चित्रण हो, उसे दिशा मिले। पुरस्कृत कवि प्रेमचंद गांधी की काव्यकृति---इन दिस सिम्फनी--में ये तत्व बड़ी ही कुशलता से संजोए गए हैं।
अब मेरी वह पीड़ा, जिसके लिए मैं यह सब कहने को विवश हुआ हैं, बीबीसी हिंदी सेवा को भी अपने पूववॅती साथियों के यादों से भावी पीढ़ी को परिचित कराने के प्रयास अवश्य करने चाहिए। हां, समाचार प्रसारणों के बीच साहित्य को भी नियमित रूप से स्थान मिले तो श्रोता अवश्य ही उपकृत होंगे। इस कदर किसी को भुलाना ठीक नहीं होता।

दुआओं में असर बाकी है...

अभी कल ही शारदीय नवरात्र संपन्न हुए हैं। इस दौरान हममें से अधिकतर अपने-अपने क्षेत्र में और अधिक शक्ति प्राप्ति के लिए शक्ति स्वरूपा मां भगवती की आराधना में रत थे। इस बीच भारत-आस्ट्रेलिया एकदिवसीय सीरिज भी हुआ। यह सीरिज तो हम हार ही गए थे, अंतिम मैच में मिली जीत भी अपने खिलाड़ियों के लचर प्रदशॅन के कारण मुझे रोमांचित नहीं कर पाई थी। फलस्वरूप मैंने--बल्ले को गति दे भगवान---शीषॅक से अपने दिल के ददॅ को जुबान देने की कोशिश की थी। आस्ट्रेलियाई टीम के हौसले आसमान छू रहे थे और कदम धरती पर नहीं पड़ रहे थे।
ऐसे में शनिवार को फिर ट्वेंटी-२० मैच में सद्यः चैम्पियन भारत और ५०-५० चैम्पियन आस्ट्रेलिया जोर आजमाने को मैदान में थे। हमारे गेंदबाजों ने सधी हुई गेंदबाजी की और आस्ट्रेलिया को महज १६६ के स्कोर पर समेट दिया। इनमें एक्सट्रा के मात्र ९ रन ही थे। भारत जब बल्लेबाजी करने उतरा तो गौतम गंभीर के मात्र ५२ गेंदों पर ६३ रन, सिक्सर सम्राट युवराज के २५ गेंदों पर ३१ रन और रॉबिन उथप्पा के २६ गेंदों पर ३५ रनों ने हमें ११ गेंद शेष रहते ही हमारे सिर पर विजय का सेहरा बांध दिया। कन्फ्यूज्ड आस्ट्रेलियाई गेंदबाजों का योगदान भी कम नहीं था। उन्होंने २४ रन एक्सट्रा के रूप में दिए तो २० ओवर के मैच में काफी मायने रखते हैं। गौतम हुए गंभीर तो उन्हें मिला मैन ऑफ द मैच का पुरस्कार जिसके हकदार भी वे थे।
मैं ये सारी बातें आपसे शेयर कर रहा हूं, तो इसके पीछे मेरा उद्देश्य महज इतना ही है कि हम किसी के लचर प्रदशॅन के लिए उसे कोसें नहीं, लेकिन अपनी बेबाक राय तो अवश्य ही रखें। हमारे विचार संबंधित व्यक्ति तक भले नहीं पहुंचें, लेकिन कोई अदृश्य शक्ति अवश्य है, जो हम सबको एक दूसरे से जोड़ती है। वाइब्रेशन के माध्यम से पूरी कायनात एक-दूसरे से जुड़ी हुई है। इस जीत का श्रेय मैं नहीं लेना चाहता, लेकिन सवॅशक्तिमान भगवान को अवश्य धन्यवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने बल्ले को गति दी। एक बात और, हमारे खिलाड़ियों का उत्साह से लबरेज होना भी काफी फलदायक रहा। यदि ऐसे ही तेवर बने रहे तो आगामी मैचों में भी हमारा प्रदशॅन काबिले तारीफ होगा।

Thursday, October 18, 2007

हम इंसान बनें न बनें


तेरा वैभव अमर रहे माँ

इन दिनों नवरात्र का उत्साह चरम पर है। स्थान-स्थान पर वृहत पांडाल बनाए गए हैं। देश ही नहीं, विदेशों में भी जहां कहीं भारतवंशी हैं, पूजा का उत्साह देखते ही बनता है। आकषॅक स्वरूपों में मां भगवती की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। नित नए सांस्कृतिक कायॅक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से ही घर-घर में लोग शक्ति की आराधना में लीन हैं। इस दौरान देवी भगवती की महिमा के गान के साथ सप्तशती के पाठ किए जा रहे हैं। इस पवित्र पुस्तक के कवच-कीलक-अगॅला में एक श्लोक का अंश है- रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि...यानी हे मां जगदम्बे, मुझे मनोहारी रूप दो, जीवनसंग्राम में विजय का वरण कराओ, जिस भी काम में हाथ डालूं, उसमें यश ही यश मिले और सबसे बढ़कर मन से ईष्या, द्वेष, बेईमानी आदि कुत्सित भावों का नाश हो। ईमानदारी से हम सोचें कि हममें से कितने इस पर पूरी तरह अमल कर पाते हैं। रूप-विजय-यश की कामना तो सबको होती है, लेकिन कितने लोग अपने मन से उपरोक्त कुत्सित भावों को मिटा पाने में समथॅ हो पाते हैं। ईश्वर की सत्ता और स्वगॅ के अस्तित्व में कहां तक सच्चाई है, यह तो पता नहीं, मगर यह सवॅदा सत्य है कि इसकी कल्पना के पीछे यह तकॅ अवश्य रहा होगा कि मनुष्य दानवत्व को छोड़कर देवत्व की प्राप्ति के लिए जीवनभर सत्कमॅ करे तथा मरणोपरांत स्वगॅ की आकांक्षा तथा नरक के भय से कभी भी गलत कायॅ न करे। नवरात्र के इन दिनों में जितने लोग विधिपूवॅक पूजन-अनुष्ठान करते हैं या पूजा-पांडालों और मंदिरों में भगवती के दशॅन करते हैं, वे ही यदि अपने आचरण में देवी के गुणों को ढाल लें तो यह धरती स्वगॅ बन जाए। अपराध अथ च आतंकवाद, भ्रष्टाचार, बेईमानी और ऐसी न जाने कितनी बुराइयां इस संसार से तौबा कर लें। या देवि सवॅभूतेषु.......रूपेण संस्थिता वाले श्लोकों में तो देवी भगवती की सत्ता को सवॅजगतमयी बताया गया है, फिर कौन ऐसा बचेगा जिसके प्रति हमारा व्यवहार कलुष लिए होगा। यदि हम अपने व्यवहार में निमॅलता नहीं लाते हैं, व्यवहार से कलुष को नहीं हटा पाते हैं, तो सदियों से हो रही यह देवी-शक्ति आराधना आने वाले युगों-युगों तक चलती रहे, मानवता का इससे कोई भला नहीं होगा। खुद को तसल्ली देने के लिए हम इन नौ दिनों में साधक बने रहें, लेकिन मन को साधे बिना सब कुछ बेकार है। हां, मां भगवती की सत्ता तो जैसी थी , वैसी बनी ही रहेगी। फिर मेरा मन यह कहने को विवश होगा......तेरा वैभव अमर रहे मां, हम इंसान बनें न बनें।और अंत में, मेरा इरादा किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाना नहीं है, यह तो बस मेरे विचार हैं। इन शब्दों में आप सभी से क्षमा चाहता हूं--------------यह नहीं आरोप की भाषा शिकायत भी नहींददॅ का उच्छास है यह और कुछ मत मानिएगा।जय भवानी, जय जगदंबे

Wednesday, October 17, 2007

बल्ले को गति दे भगवान

ऑस्ट्रेलिया के साथ एक दिवसीय मैचों की सिरीज में हमारी नाट तो पहले ही कट चुकी थी, लेकिन जव युवा गेंदबाज मुरली कारतिक ने १० ओवर में तीन मेडन रखते हुए केवल २७ रन देकर ऑस्ट्रेलिया के छह नामी-गिरामी बल्लेबाजों को पैवेलियन लौटा दिया तो ऐसा लगा कि उत्साह से लबरेज हमारे बल्लेबाज २०-२५ ओवर में यह आसान सा स्कोर बनाकर वल्डॅ चैम्पियन को चुनौती दे सकेंगे। लेकिन यह क्या, जब धोनी के धुरंधर बल्लेबाजी करने उतरे तो ऐसा लगा कि उन्हें रन बनाने की नहीं, पैवेलियन लौटने की जल्दबाजी थी। १९४ के स्कोर तक पहुंचने में हमारे आठ बल्लेबाज शहीद हुए और बाकी बचे जवानों ने खेल को ४६ ओवर तक खींचा। इस बीच कई बार ऐसा लग रहा था कि एक बार फिर पराजय का वरण कर हम मेहमान टीम को जीत का तोहफा देंगे। उथप्पा को बधाई कि उन्होंने सबसे अधिक ४७ रन बनाए। दूसरे नंबर पर रहे ऑस्ट्रेलिया के गेंदबाज, जिनकी मेहरबानी से हमें ३६ रन बतौर एक्सट्रा मिल गए थे। हालांकि हमारे गेंदबाजों ने भी उदारता बरतते हुए ३३ रन एक्सट्रा में दे दिए थे।
और अंत में........मैं न तो क्रिकेट का जानकार हूं और न खिलाड़ी। एक आम भारतीय होने के नाते जो पीड़ा हुई उसे शेयर कर रहा हूं।

Tuesday, October 16, 2007

चिट्ठी नहीं चिट्ठा, डाक नहीं मेल

बदलते हुए जमाने के साथ युगधमॅ भी बदलता रहता है। किसी जमाने में आदमी भोजपत्र पर लिखता था, इसके दशॅन मेरी पीढ़ी के युवकों को संग्रहालयों में ही हो पाते हैं। मैंने लिखने का अभ्यास स्लेट पर शुरू किया था। उन दिनों ५० पैसे से लेकर एक रुपए तक में स्लेट में आती थी, जो जरा सी ऊंचाई से गिरते ही फूट जाया करती थी। अक्सर ऐसा होने पर पिताजी के क्रोध का शिकार भी होना पड़ता था। जब अच्छी तरह लिखना-पढ़ना आ गया तो मुझे अभ्यास पुस्तिका व पेंसिल उपलब्ध कराई गई थी। इसके बाद सरकंडे की कलम को स्याही भरी दवात में डुबोकर लिखने का अभ्यास काफी दिन तक कराया गया। फिर गुरुजनों से जब नींब वाली कलम से लिखने की अनुमति मिली तो ऐसी खुशी हुई कि लेखनी पकड़ते ही हम बहुत बड़े लेखक बन जाएंगे। यह यात्रा हाई स्कूल की पढ़ाई पूरी होते-होते रिफिल वाली कलम तक पहुंची और कॉलेज के दिनों में पायलट पेन हमारे स्टैंडडॅ का प्रतीक हुआ करता था। माता-पिता द्वारा तय की शादी के बाद पत्नी को प्रेमिका बनाने के क्रम में उससे दूर रहकर जो प्रेम पत्र लिखे, उनमें रंग-बिरंगे जेल पेनों ने भी काफी सहायता की। अस्तु, मिलेनियम वषॅ २००० में उत्पन्न मेरे पुत्र ने अभ्यास पुस्तिका पर ही अक्षरों का अभ्यास शुरू किया। उसे कभी जब स्लेट की लिखाई के अनुभव बताता हूं तो यह उसके लिए किसी आश्चयॅ से कम नहीं होता। स्लेट से अभ्यास पुस्तिका तक होती हुई यह अक्षर यात्रा अब कम्प्यूटर लिटरेसी तक पहुंच गई है। अब तो केंद्र सरकार ने झुग्गी-झोपड़ी वाली बस्तियों में भी कम्प्यूटर लिटरेसी शुरू करने का अभियान छेड़ दिया है। वह दिन दूर नहीं जब बच्चे सीधे कम्प्यूटर पर ही अक्षरों का ज्ञान लेंगे और की-बोडॅ पर इसका अभ्यास कर इसी में ही निष्णात कहलाएंगे। अब आते हैं आधुनिक जीवन व्यवहार पर। आज के जमाने में औसत बौद्धिकजन कम्प्यूटर लिटरेसी के बिना खुद को असहाय सा महसूस करते हैं। मैंने स्वयं कई ऐसे लोगों के लिए देखा है जिन्होंने ६० वषॅ की उम्र बीतने के बाद कम्प्यूटर पर टाइपिंग सीखी और आज अभ्यास के बल पर अच्छी टाइपिंग स्पीड के धनी हैं। वह दूर नहीं जब कम्प्यूटर लिटरेट और कम्प्यूटर इलिटरेट के भी अलग-अलग वगॅ होंगे। अब मैं आज के अपने विषय पर आता हूं। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर विश्व की अन्य महत्वपूणॅ घटनाओं पर महापुरुषों के बीच जो पत्राचार हुआ करता है, उसके निहिताथॅ व्यक्तिगत ही नहीं, सामूहिक व वैश्विक भी हुआ करते थे। आज पत्र लिखने की हमारी वह आदत पक्षाघात का शिकार हो गई है। लेकिन मानव मन कभी मानता क्या है। किसी ने क्या खूब कहा है------आदत जो लगी बहुत दिन से वह दूर भला कब होती हैहै धरी चुनौटी पाकिट में पतलून के नीचे धोती हैमेरी नजर में अपनी इसी आदत को बनाए रखने के लिए ही ब्लॉग की शुरुआत की गई है। चिट्ठी का स्थान चिट्ठा (ब्लॉग) ने ले लिया है। व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक मुद्दों पर सैकड़ों लोग अपने विचारों के आदान-प्रदान में दिन-रात लगे हैं।अब एक और पहलू, आदमी पहले डाकिये का इंतजार करता था, कुछ ऐसे लोग जिनके ज्यादा पत्र आते थे, दरवाजे पर पत्र पेटिका लगवाते थे और दोपहर बाद नियमित रूप से इसे खोलकर देखते थे कि किसी का संदेश आया है या नहीं। आज के बदले हुए जमाने में डाक (मेल) का स्थान अब ई-मेल ने ले लिया है और आदमी कम्प्यूटर ऑन करते ही सबसे पहले ई-मेल चेक करता है। प्रियजनों के ई-मेल पाकर मन मयूर उसी तरह झूम उठता है जो कभी प्यार में पगे पत्र पाकर खिल उठता था।

Monday, October 15, 2007

और अश्वथामा अमर हो गया

नाटक करना कभी मेरा शौक हुआ करता था, लेकिन पत्रकारिता के पेशे में आने के बाद गृहस्थी के बोझ तले कुछ इस कदर दब गया कि जिंदगी ही खुद नाटक बनकर रह गई है। हां, नाटक देखने का शौक अब भी कम नहीं हुआ है। शाम की नौकरी होने के कारण नाटक देखने का भी अवसर कम ही मिल पाता है, फिर भी यदा-कदा समय मिल जाता है, तो छोड़ता नहीं हूं। पिछले शनिवार यानी १३ अक्टूबर को जवाहर कला केंद्र में अश्वथामा जे. डी. ने विलियम शेक्सपियर की प्रख्यात कृति हैमलेट पर आधारित नाटक एक अकेला हैमलेट की सोलो प्रस्तुति दी। इसकी खासियत यह थी कि इसका लेखन, निरदेशन और अभिनय सब कुछ अकेले अश्वथामा का ही था। यह सब कुछ इतना प्रभावी था कि दरशक बिल्कुल निस्तब्ध होकर नाटक में खो से गए थे। नाटक के पात्र के अनुरूप पल-पल बदलती भाव-भंगिमा, स्वर का उतार-चढ़ाव देखते ही बनता था। संवाद और उनकी अदायगी इतनी उम्दा थी कि उन्हें शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। आज के दौर में जब बिना किसी उददेश्य के फूहड़ फिल्में दरशकों को परोसी जा रही हैं, यह संवाद तो सुभाषित की तरह ही था कि नाटक समाज को आईना दिखाने का काम करता है ताकि वह अपनी कमियों को देखकर उन्हें दूर करने का प्रयास कर सके। यह तो एक बानगी भर है। सभी संवाद एक से बढ़कर एक थे। हैमलेट से एक अकेला हैमलेट तक की कथायात्रा जिस संजीदगी से प्रस्तुत की गई, वह उन फिल्म निरमाताओं के लिए भी एक सबक है जो करोड़ों रुपए खरचने के बाद भी न तो दरशकों को कोई संदेश दे पाते हैं और न ही उन्हें अपने कथानक से बांधकर रखने में ही सफल हो पाते हैं। नाटक के दौरान कभी सवा घंटे तक सभागार में नीरव निस्तब्धता और नाटक की समाप्ति पर तालियों की अनवरत गड़गड़ाहट से दरशकों ने कृतग्यता का जो परिचय दिया, वह भी काबिले तारीफ था। नाटक के समापन के बाद जब पात्र परिचय के क्रम में अश्वथामा दुबारा जब मंच पर आए तो दरशकों ने खड़े होकर तालियों की तुमुल गड़गड़ाहट से उनका अभिवादन किया। एक कलाकार को अभिभूत करने के लिए इससे बढ़कर कोई तोहफा नहीं हो सकता। भारतीय पौराणिक आख्यानों के अनुसार कुछ विशेष चरित्रों में अश्वथामा को अमर बताया गया है। एक अकेला हैमलेट में अपने संवाद लेखन, निरदेशन और जीवंत अभिनय से अश्वथामा जेडी भी उन दरशकों की नजर में अमर हो गए, जो उस सभागार में उनके अभिनय के गवाह बने। .....और उनसे भी बढ़कर उनकी नजरों में जो किसी कारणवश नाटक तो नहीं देख पाए, लेकिन मुझ जैसे नाचीजों ने उन्हें उन सुखद पलों से रू-ब-रू कराया। नाटक के बीच-बीच में मोबाइल की घंटी खलल पैदा कर रही थी, अंतिम दृश्यों में तो अश्वथामाजी की खिन्नता उजागर भी हो गई। होती भी क्यों नहीं, कलाकार जब नाटक के सारे पात्रों को जी रहा होता है, तो उस पर क्या गुजरती है, इसे कलाकार हृदय ही समझ सकता है। ऐसे में मैं अश्वथामा जी से मैं यही निवेदन करना चाहूंगा कि आज के दौर में जब बेटे के कंधे पर बाप की अरथी होती है, तब भी उसकी जेब में रखे मोबाइल की रिंगटोन सहसा ही बज उठती है.....तू चीज बड़ी है मस्त मस्त....चोली के पीछे क्या है...तुझे देखा तो ऐसा लगा....। जब मंदिर से श्मशान तक मोबाइल की पैठ हो चुकी है तो किसी नाटक का सभागार कैसे वंचित रह सकता है। हां इस समस्या का निदान उनके इसी नाटक का यह संवाद सुझाता है....आदत अभ्यास से बढ़ती है और अभ्यास से ही छूटती है। यदि हम प्रण लें तो मोबाइल को स्विच आफ या साइलेंट मोड पर रखने का विकल्प भी अपना सकते हैं। फिर न तो सुधि दरशकों को कोफ्त होगी और न ही कलाकार को रुष्ट होकर कहना पड़ेगा---इट मे बी माई लास्ट परफोरमेंस आन स्टेज। मेरी तो यही गुजारिश है कि अश्वथामा जेडी यूं ही एक से बढ़कर एक प्रस्तुतियों से अपने प्रिय दरशकों के बीच बने रहें।

Sunday, October 14, 2007

तो क्या हम इतने गए बीतेहैं

दो दिन पहले किसी मित्र से एक राज की बात पता चली कि सांप कभी भी गभवती महिला को नहीं डंसता। इस तथ्य में कितनी सच्चाई है, इससे मैं वाकिफ नहीं हूं, लेकिन इसमें छिपे संदेश ने मुझे झकझोरकर रख दिया। (यदि किसी के पास इस संबंध में वैग्यानिक प्रमाण हों तो वे मुझे बताने की कृपा करें) मैं घंटों इस पर मनन-चिंतन करता रहा। किसी नतीजे पर पहुंचना मुश्किल लगा तो सोचा कि अपने ब्लॉगिया मित्रों से इसे शेयर करूं। शायद कोई निदान निकल पाए। आज के युग में कन्या भ्रूणहत्या की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं, विग्यान के इस वरदान का बेजा इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है, क्या शहरी, क्या ग्रामीण, क्या अनपढ़, क्या बुद्धिजीवी, सभी इसी घोषित षडयंत्र में लगे रहते हैं कि अजन्मे कन्या शिशु को धरती पर नहीं आने देना है। सरकार ने इस पर प्रतिबंध के लिए कानून भी बनाए हैं, लेकिन उससे बचने और उसका तोड़ निकालने की कला में तो मनुष्य पहले से ही पाण्डित्य के साथ महारथ हासिल कर चुका है। है कोई ऐसा कानून जिसकी गलियां अपराधियों ने नहीं निकाली हों। फिर ममता की प्रतिमूरति मां ही यदि इस षडयंत्र के पीछे हो तब तो भगवान भी कन्या शिशु को मरने से नहीं बचा सकता। अब एक ऐसी बात जिसके तथ्य जीव वैग्यानिक तो अवश्य ही जानते होंगे। संसार में सबसे निरदयी प्राणी नागिन या सांपिन ही होती है। यह किंवदन्ती नहीं बल्कि वास्तविकता है कि नागिन या सांपिन अपने अंडों में से अधिकांश को खुद ही खा जाती है। यदि ऐसा न हो तो पृथ्वी पर सभी जगह सांप ही सांप हों। अब आप सोचें कि ऐसी प्रजाति का जीव भी ईश्वर की सृष्टि में कोई बाधा पहुंचाने की जुररत नहीं करता। गरभवती औरत ईश्वर के सृष्टि चक्र को ही तो आगे बढ़ाती है। तो फिर हम मनुष्य जिसे ईश्वर ने सोचने की भी शक्ति दी है, उस विधाता की सृष्टि में खलल डालने की हिमाकत क्यों करते हैं। कब हमें आएगी अक्ल जब सृष्टि का चक्र रुकने के करीब होगा। जब बेटों को बहुएं नहीं मिलेंगी और भाइयों की कलाइयां राखी के सूनी रह जाएंगी।