Thursday, October 19, 2017

ममता का सिमटता साया


ज्ञानी और विद्वान भारतीय समाज को भले ही पुरुषप्रधान कहते रहें, लेकिन हमारे जीवन में हर जगह मातृपक्ष ही हावी दिखता है। नानी का प्यार दादी के दुलार पर, मां की ममता पिता के स्नेह पर और बहन का अनुराग भाई के अपनापन पर अक्सर भारी पड़ता है। मेरे मन में मातृपक्ष के प्रति अधिक आकर्षण की वजह शायद ननिहाल में मेरा जन्म होना है। नाना का निधन तो मेरे बचपन में ही हो गया था, इसलिए उनकी धुंधली-सी याद ही मेरे जेहन में बाकी है। हां, नानी से जुड़ी बहुत-सी बातें यदा-कदा बरबस ही याद आ जाती हैं। कन्हैया को माखन प्रिय था और नानी ने रोज-रोज भरपूर मलाई खिलाकर इस मोहन को मलाई का प्रेमी बना दिया। यही वजह है कि अपने घर में चूल्हे पर चढ़े दूध से मलाई निकाल कर खाने के चक्कर में कई बार हथेली जला चुका हूं। नानी के रहते हुए और उनके जाने के बाद भी मामियों ने दुलार भरे मनुहार से हमें नानी की कमी महसूस नहीं होने दी। कभी किसी चीज को लेकर ममेरे भाई-बहनों से झड़प होने पर हमेशा ही हमारा ही पक्ष लिया। पिछले बुधवार को बड़ी मामी के आकस्मिक निधन से ननिहाल से जुड़ी यादें बरबस ही ताजा हो आईं। सबके ननिहाल, हमारा ममहर आम तौर पर मां के मायके को ननिहाल के नाम से ही जाना जाता है। इसके पीछे शायद अवधारणा हो कि नाना-नानी के रहने तक ही ननिहाल से नाता रहता है। इसके बाद धीरे-धीरे कम होने लगता है। लेकिन दुनिया को गणतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले बिहार के वैशाली की बात ही अलग है। वैशाली की स्थानीय बोली वज्जिका में ननिहाल को ममहर कहते हैं। इसमें आशावाद का भाव छिपा है। जहां तक मैं समझता हूं, इसके पीछे मान्यता है कि नाना-नानी के बाद भी ननिहाल का अस्तित्व और वहां से बना नाता खत्म नहीं होता। मामा-मामी और ममेरे भाई-बहनों के रहने तक भी संबंधों की गर्माहट कायम रहे, इसीलिए ननिहाल को ममहर कहा जाता है। 13 मई 2017

पहले सीटियां, और फिर सिसकियां


हमारे गांव के मिडिल स्कूल में हर शनिवार को सांस्कृतिक कार्यक्रम होता था। सभी विद्यार्थी बड़े हॉल में जमा होते। सभी मॉनिटर पहले ही अपने-अपने क्लास से प्रस्तुति देने वाले विद्यार्थियों के नामों की लिस्ट तैयार कर लेते थे। अपनी बारी आने पर छात्र-छात्राएं कविता, चुटकुले, लोकगीत, भक्ति गीत सुनाते थे। सामने विराजे प्रधानाध्यापक समेत सभी शिक्षक उनकी हौसला आफजाई करते। उस दिन भी कार्यक्रम की शुरुआत इसी तरह हुई थी कि अचानक एक शिक्षक खड़े हुए और घोषणा की - आज सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं, सीटी बजाओ प्रतियोगिता होगी। जो जितनी तेज सीटी बजाएगा, उसे उसी क्रम से पुरस्कृत किया जाएगा। एक के बाद एक विद्यार्थी अपने फन का जौहर दिखाने लगे। कोई अँगूठे और तर्जनी को मिला जीभ के नीचे दबाकर तो कोई तर्जनी और मध्यमा को मुंह में डालकर जोरदार आवाज निकालता तो कोई महज होठों से ही ऐसी सीटी बजाता कि तालियां गूंज उठतीं। मुझे सीटी बजाने की कला न आने का बड़ा अफसोस हो रहा था। खैर...कार्यक्रम संपन्न हुआ, लेकिन यह क्या ? स्कूल का चपरासी सुकन ठाकुर अचानक ही कनैल की छड़ियों की गट्ठर के साथ प्रकट हुआ। फिर प्रतियोगिता का एलान करने वाले शिक्षक ने सीटी बजाने वालों की जो पिटाई की, उसे याद कर आज भी रोएं खड़े हो जाते हैं। दरअसल, हमारे स्कूल में सह शिक्षा की व्यवस्था थी। यानी लड़के-लड़की दोनों ही पढ़ते थे। एक दिन छुट्टी के समय किसी विद्यार्थी के सीटी बजाने पर उन शिक्षक महोदय से इसकी शिकायत कर दी थी। लड़कों की भीड़ में से सीटी बजाने वाले लड़के की तलाश आसान नहीं थी, इसलिए उन्होंने उसे खोज निकालने का यह अनोखा तरीका ईजाद कर लिया था और सीटी बजाने वाले सभी विद्यार्थियों की शामत आ गई थी। अभी हाल ही उत्तर प्रदेश विधान मंडल में राज्यपाल के अभिभाषण के दौरान सपा एमएलसी द्वारा सीटी बजाकर विरोध जताने की भद्दी कोशिश से यह घटना बरबस ही याद आ गई । 18 मई 2017

हमबिस्तर...हमराही...


बचपन के दिनों में एक किताब आती थी ‘मनोहर पोथी’। महज चार आने की इस किताब की मदद से हमारे जैसे अनगिनत बच्चों ने अक्षर और गिनती सीखी होगी। पाठ्यक्रम से इतर जो किताब मैंने सबसे पहले पढ़ी वह थी-मोहन से महात्मा। महात्मा गांधी की जीवनी पर आधारित रंगीन चित्रों से सजी इस किताब ने मन में पढ़ने की ऐसी चाव जगाई कि नंदन, कादंबिनी, माया, मनोरमा, मनोहर कहानियां के रास्ते पत्र-पत्रिकाओं से एक नाता-सा जुड़ गया और जीवन में ही नहीं, मेरे बिस्तर पर भी इन किताबों ने बदस्तूर कब्जा जमा लिया। मां की डांट, बहन की मनुहार और पत्नी की नाराजगी के बावजूद यह आदत नहीं छूटी। दसवीं के बाद जब पढ़ाई के लिए पहली बार गांव छोड़कर कमिश्नरी मुख्यालय का रुख किया, तो दो टुकड़ों में करीब दो-ढाई घंटे का सफर तय करना होता था। इस दौरान किताबें अच्छी हमराही साबित हुईं। अभी हाल के दिनों की बात करूं तो जयपुर से लखनऊ वाया दिल्ली यात्रा के दौरान साहित्यिक पत्रिका ‘कुरजां’ आधी से अधिक पढ़ ली थी और सिनीवाली जी Siniwali Sharma का कथा संग्रह ‘हंस अकेला रोया’ का तो लखनऊ पहुंचते-पहुंचते पारायण ही कर लिया था। लखनऊ में एकल प्रवास के दौरान कोई टोकने वाला भले नहीं है, लेकिन बिस्तर पर फैली किताबों को देखकर खुद ही कोफ्त होती है। कई बार कोशिश भी करता हूं, लेकिन हफ्ते दो हफ्ते बाद फिर वही हाल...ऐसे में जब मंगलवार को Vir Vinod Chhabra श्री वीर विनोद छाबड़ा जी से मिलने गया तो उनके बिस्तर पर किताबों को काबिज देख तसल्ली हुई कि मैं अकेला ही नहीं हूं इस मर्ज का मारा, कई दीवाने मुझसे पहले भी हो चुके हैं घायल... 25 मई 2017

टर्निंग पॉइंट


कॉलेज में दाखिला लेने के साथ ही वह छात्र राजनीति में रुचि लेने लगा था। पारिवारिक पृष्ठभूमि कांग्रेस से जुड़ी होने के कारण एनएसयूआई में शामिल हो गया। गबरू जवान, तेज-तर्रार और विद्यार्थियों में लोकप्रियता ने ऐसा कमाल दिखाया कि जल्द ही जिला महामंत्री बना दिया गया। इसी बीच कॉलेज में छात्रसंघ चुनाव की घोषणा हो गई। पिताजी ने चुनाव लड़ने से साफ मना कर दिया था। सो खुद तो चुनाव में खड़ा नहीं हुआ, लेकिन प्रचार में भागीदारी से खुद को नहीं रोक सका। एक दिन छात्र नेताओं का जुलूस शहर से निकला। वह सबसे आगे प्रत्याशी के साथ खुली जीप में मालाओं से लदा हाथ जोड़े खड़ा था। जुलूस के रास्ते में ही पिताजी का दफ्तर था। नारेबाजी सुनकर दूसरे अधिकारियों-कर्मचारियों केसाथ वे भी बाहर निकल आए। बेटे को देखकर गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। शाम को घर पहुंचने पर बेटे की जमकर खबर ली। बेटे ने सामने तो कान पकड़ लिए, लेकिन जवानी में खून का उबाल रुक ताकहां है। इलेक्शन के दिन एक मिनी बस को रोका और लड़कों को कॉलेज पहुंचाने का फरमान सुनाते हुए खुद भी उसमें सवार हो गया। बस किसी दबंग की थी, सो स्टाफ ने रंग जमाने की कोशिश की, लेकिन उसकी एक न चली। जैसे ही बस आगे बढ़ी, सात-आठ पुलिस वालों को खड़ा देख हमारा छात्रनेता चलती बस से कूद गया। दरअसल उस इलाके का थानेदार दबंगों की पट्टे से बुरी तरह पिटाई करता था। इससे उसका नाम ही पट्टा सिंह पड़ गया था। पुलिस वाले बस को थाने ले गए और सभी को बिठा लिया। इस बीच हमारे छात्रनेता की आत्मा अपने साथियों को बीच मझधार में छोड़ देने को लेकर उसे धिक्कारने लगी। वह खर्रामा-खर्रामा थाने पहुंचा तो उसे देखते ही बस का ड्राइवर चिल्लाने लगा, सबसे बड़ा नेता यही हैं। इन्होंने ही बस रुकवाई थी और धमकी भी दी थी। पुलिस वालों ने नजरें तरेरीं तो हमारे छात्रनेता ने कहा-हां, मैंने ही रोकी थी। मैं बैठता हूं थाने में। हमारे साथियों को छोड़ दो। इन्हें वोट देना है। उसने पुलिस वालों पर धौंस जमाते हुए कहा कि अभी फोन आएगा तो तुम सबकी हेकड़ी निकल जाएगी। इसके बाद पुलिस ने विद्यार्थियों को छोड़ दिया और हमारा छात्रनेता और उसका एक साथी थाने में बैठे रहे। डेढ़ घंटे बीत गए, लेकिन न तो फोन की घंटी बजी और न ही कोई आया। इस बीच वोट डालकर लौटे एक छात्र ने हमारे नेता को आकर बताया कि एनएसयूआई वाले तुम्हारे पिताजी को फोन कर रहे हैं कि आकर बेटे को छुड़ा ले जाएं। यह सुनकर हमारे नेता के तन-बदन में आग लग गई। उसने आंखों ही आंखों में अपने साथी को इशारा किया और खिड़की के रास्ते कूदकर दोनों रफू चक्कर हो गए। पुलिस वालों ने पीछा भी किया, लेकिन पकड़ नहीं पाए। वह कॉलेज पहुंचा और एनएसयूआई के प्रतिनिधियों को जमकर खरी-खोटी सुनाई। साथ ही इस्तीफे का एलान भी कर दिया। अगले दिन स्थानीय अखबारों की सुर्खियां बनीं- जिला महामंत्री ने समर्थकों समेत एनएसयूआई छोड़ी। इसके बाद तो एनएसयूआई समेत कांग्रेस के कई स्थानीय और प्रदेश स्तर के नेता पहुंचे। खूब मान-मनौवल की, लेकिन फौलादी लोग अपना फैसला कब बदलते हैं। साथियों और सीनियर्स की दगाबाजी के चलते उसका मन ऐसा खट्टा हुआ कि उसने राजनीति से पूरी तरह तौबा कर ली। 31 मई 2017

धोती-कुर्ता वाले इंग्लिश मैन


सोमवार सुबह नींद खुलने के बाद से ही मां से बात करने के लिए कई बार गॉंव फोन किया, लेकिन नेटवर्क डिस्टर्ब होने के कारण कॉल जा ही नहीं रही थी। करीब 10 बजे फोन लगा तो बहूने बताया कि मां घर पर नहीं हैं। सोनेलाल चाचा के अंतिम दर्शन के लिए गई हैं। यह सुनते ही सन्न रह गया। हाई स्कूल के जमाने से लेकर पिछली फरवरी में उनसे हुई मुलाकात तक का हरेक पल दिमाग में धमाचौकड़ी करने लगा। गांव के मिडिल स्कूल से छठी पास करने के बाद ब्लॉक मुख्यालय पातेपुर स्थित श्री रामचंद्र उच्च विद्यालय में एडमिशन लिया था, जहां सोनेलाल बाबू अंग्रेजी पढ़ाते थे। अंग्रेजी के विद्वान होने के बावजूद वे धोती-कुर्ता ही पहनते थे। उनके अनुशासन का ऐसा असर था कि स्कूल टाइम में कोई भी विद्यार्थी धोखे से भी बरामदे में घूमता या गप्पें लड़ाता नहीं दिखता था। उस जमाने में अंग्रेजी की औपचारिक पढ़ाई छठी कक्षा से ही शुरू होती थी। इक्के-दुक्के छात्र ही व्यक्तिगत रूप से अपने घर पर अंग्रेजी की अनौपचारिक शिक्षा ले पाते थे। ऐसी पृष्ठभूमि वाले बच्चों को वे ऐसी घुट्टी पिलाते कि साल-दो साल में ही उसके मन से अंग्रेजी का डर पूरी तरह से गायब हो जाता था। आठवीं के बाद तो उन्होंने अंग्रेजी की क्लास में कभी हिंदी शब्दों का प्रयोग नहीं किया। पाठ को पढ़ाने के बाद अंग्रेजी में ही उसे एक्सप्लेन करते, लेकिन लहजा इतना सहज होता कि विद्यार्थियों को कतई परेशानी नहीं होती। बच्चों में अंग्रेजी ग्रामर के ज्ञान का बीजारोपण करने वाले सोनेलाल बाबू नाउन, प्रोनाउन, वर्ब, एडवर्ब आदि इस तरह आत्मसात करा देते कि सोते से भी जगाकर कोई पूछ ले तो बच्चा नहीं अटके। आज भी जब कभी अंग्रेजी में कुछ लिखते हुए वर्ब के तीनों रूप प्रजेंट, पास्ट और पास्ट पार्टिसिपल में किसी का इस्तेमाल करना होता है तो बरबस ही वो दिन स्मृति पटल पर घूमने लगते हैं जब उन्हें ये तीनों रूप सुनाया करता था। हमारे गांव में ही नहीं, बल्कि पूरे ब्लॉक के दर्जनों गांवों में हमारी, हमसे पहले वाली और हमारे बाद वाली पीढ़ी के लोग जितनी भी अंग्रेजी जानते हैं, वह उन्हीं की देन है। इनमें सैकड़ों लोग ऐसे भी रहे, जिन्हें सोनेलाल बाबू ने अंग्रेजी पढ़ाई और बाद में उनके बच्चे भी उनके शिष्य रहे। उनके शिष्यों में कई प्रशासनिक अधिकारी, डॉक्टर, प्रोफेसर हुए। विभिन्न नौकरियों में छोटे से लेकर शीर्ष पदों तक पर कार्यरत लोगों की तो गिनती ही नहीं है । पातेपुर से प्रेम उनकी नौकरी का अधिकांश समय पातेपुर हाई स्कूल में ही बीता। इस दौरान पातेपुर उनके दिल के इतने करीब आ गया था कि वे छुट्टी के दिन भी एक बार पातेपुर जरूर जाते। यह लगाव ऐसा लगा रहा कि रिटायरमेंट के बाद भी शरीर जब तक साथ देता रहा, वे रोज पातेपुर जाते रहे। सत्य नाम करु हरु मम सोका सोनेलाल बाबू बतौर शिक्षक जितने कड़क थे, सामाजिक जीवन में उतने ही सरल-सहज, कोमल और मिलनसार। हमारे गांव में पहले होलिका दहन के बाद हर साल लोग टोली में निकलते और एक-दूसरे के दरवाजे के साथ ही दुर्गा स्थान, ब्रह्म स्थान और शिव मंदिर पर भी होरी गाई जाती। गवैयों की टोली जब ब्रह्म स्थान पर पहुंचती तो सोनेलाल बाबू ही होरी उठाते-सुनहु बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका। उनके पुण्य का प्रताप ही कहेंगे कि परमपिता ने उन्हें अपने परमधाम में बुलाने के लिए जो दिन चुना, वह थी ज्येष्ठ शुक्ल निर्जला एकादशी। सोना नहीं, पारस उनका नाम भले ही सोनेलाल था, लेकिन वे सोना नहीं, पारस थे। जिसके सिर पर उन्होंने हाथ रख दिया, वही स्वर्ण सा निखर गया। उनके स्वर्गारोहण के साथ ही एक युग का अवसान हो गया है । 06 June 2016

पापा जल्दी आ जाना...


फिल्म " तकदीर " का यह गीत मुझे बेहद पसंद है । हां, मेरी तकदीर अच्छी रही कि इस गीत में अंतर्निहित भावनाओं को शब्दों में पिरोकर बाबूजी से ऐसी मनुहार करने की कभी जरूरत नहीं पड़ी। बाबूजी पड़ोस के गांव में शिक्षक थे, सो शुरुआती दिनों में उनके साथ ही उनके स्कूल जाता। ऐसे में उनके साथ बिताये जाने वाले पलों में कुछ और भी इजाफा हो जाता । कक्षाएं बढ़ने की वजह से स्कूल बदल गये, फिर भी स्कूल से थोड़ी देर के अंतराल में हम घर पहुंच जाते। छुट्टी के दिनों में यह साथ खेत-पथार से लेकर गाछी-बिरिछी तक विस्तृत हो जाता । इस तरह बचपन में अच्छा-खासा समय बाबूजी के साथ बीता। हाई स्कूल के बाद आगे की पढ़ाई के लिए कमिश्नरी मुख्यालय मुजफ्फरपुर जाना हुआ तो भी हर हफ्ते- पखवाड़े गांव आ ही जाता। ऊंची कक्षाओं में परीक्षा का दबाव इसे खींचकर महीना भर भी कर देता, लेकिन परीक्षा खत्म हो जाने के बाद अगली कक्षा में एडमिशन के बीच का समय गांव में बिताकर इसकी भरपाई कर लेता। पढ़ाई पूरी होने के बाद रोजी-रोटी के सिलसिले में जब जयपुर पहुंचा तो स्वाभाविक रूप से गांव-घर से दूरी जरूर बढ़ गई, लेकिन पहले पत्राचार, फिर फोन और मोबाइल की मदद से इस दूरी को पाटने की कोशिश बदस्तूर बरकरार रही। इस बीच साल में दो-तीन बार बाबूजी के चरण रज लेने सशरीर गांव जाने का सिलसिला भी कभी टूटा नहीं । तकरीबन पांच साल पहले बाबूजी जब इस भौतिक शरीर को त्याग कर परमपिता परमेश्वर से एकाकार हो गये, तब से एक भी पल ऐसा नहीं बीता, जब वे दिमाग से दूर हुए हों। कल रात यहां जयपुर में एक मित्र के पिताजी को फोन किया तो मित्र के करीब चार साल के बेटे ने मोबाइल झटक लिया। उसे शायद अपने वीक एंड वाले पापा से मिलने की बेताबी थी। तभी तो वह बार- बार दुहरा रहा था - पापा अभी नहीं आए । खुद कहने से मन नहीं माना तो उसने अपनी दो साल बड़ी बहन को मोबाइल पकड़ा दिया। उसका भी यही राग था- पापा अभी नहीं आए । मैंने बच्चों से कहा, बस आने ही वाले हैं और इस तरह इन बाल गोपालों की बतकही के साथ मैं भी अपने पुराने दिनों की यादों में खो गया। 02 September 2017

तृप्यन्ताम्...तृप्यन्ताम्...


मातृभाषा हिंदी के शब्दों को भी अच्छी तरह बोलना सीखने से कहीं पहले देववाणी संस्कृत के कई शब्द हमारे बाल मनो-मस्तिष्क पर अंकित हो गए थे। इनमें पहला था-तृप्यन्ताम्, तृप्यन्ताम्...दरअसल पितृपक्ष के दौरान बड़का बाबू जब कई दिनों तक लगातार पूर्वजों का पिंडदान-तर्पण करते तो पुरोहित के साथ-साथ उनके द्वारा बार-बार दुहराया जाने वाला ‘तृप्यन्ताम्.तृप्यन्ताम्...’ बरबस ही हम बच्चों की जुबान पर चढ़ जाता। कुछ बड़े होने पर शारदीय नवरात्र में घर के पास होने वाली सामाूहिक दुर्गा पूजा हम बच्चों को लुभाने लगी। पूजा में रोजाना मिलने वाला प्रसाद खास आकर्षण होता हमारे लिए। वहां नौ दिन तक लगातार सप्तशती का पाठ होता। सप्तशती के सात सौ श्लोक के विषय में तो हम क्या जान-समझ पाते, पर ‘नमस्तस्यै। नमस्तस्यै। नमस्तस्यै नमो नम:’ बिना किसी विशेष प्रयास के हमें कंठस्थ हो गया था। समय बीतने के साथ बहुत कुछ बदल गया। वर्ष 2012 में बाबूजी के परम सत्ता में विलीन हो होने के बाद से परंपरा का निर्वाह करते हुए पूर्वजों की आत्मोन्नति के लिए पिंडदान-तर्पण मैं भी करता हूं। इस दौरान देवताओं, ऋषियों के साथ ही वनस्पति, पर्वत, जीव-जंतुओं तक के लिए तर्पण का विधान है। कई लोग इस पूरी प्रक्रिया को ढकोसला बताने में संकोच नहीं करते। उनके अनुसार पूर्वजों को तृप्त करने का यह अनुष्ठान कदापि तर्कसम्मत नहीं है। हमारे द्वारा किया गया पिंडदान-तर्पण पितरों तक पहुंचता है या नहीं, इससे उन्हें तृप्ति मिलती है या नहीं, इसका प्रमाण तो मैं नहीं दे सकता, लेकिन जिन्होंने अपने जीवन का हरेक पल हमारी उन्नति के लिए समर्पित कर दिया, उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का यह प्रयास हमें अवश्य तृप्त कर जाता है। ...और तृप्ति का यह भाव जीवन के सभी भावों से बढ़कर है। 08 September 2017

रामलला की जय हो जय हो


आस्था को कोई आकार नहीं दिया जा सकता । भक्ति किसी निश्चित सांचे में फिट नहीं की जा सकती । भक्त जिस रूप में चाहे, अपने इष्ट की आराधना कर सकता है । पौराणिक आख्यानों में ऐसे दृष्टांत भरे पड़े हैं। उन्हें दुहरा कर इपने अल्पज्ञान के प्रदर्शन और आपका बहुमूल्य समय नष्ट करने का मेरा कोई इरादा नहीं है । शारदीय नवरात्र अभी खत्म हुआ है, लेकिन उसका असर हमारे मन-मस्तिष्क से लेकर वातावरण तक में अब भी बरकरार है। मां का आवाहन, बेटी की विदाई इसे आस्था की पराकाष्ठा ही कहेंगे कि हमारे यहां शक्ति की अधिष्ठात्री भगवती दुर्गा का आवाहन तो मां (जगज्जननी) के रूप में किया जाता है, लेकिन नौ दिनों तक भक्ति भाव से अनवरत पूजा-अर्चना के बाद उनकी विदाई पुत्री के रूप में की जाती है। जिस तरह शुभ लग्न- मुहूर्त देखकर बेटी की विदाई का समय तय किया जाता है, उसी तरह देवी प्रतिमाओं का विसर्जन मंगल वेला देखकर किया जाता है। गजब का उत्साह प्रतिमा विसर्जन की शोभायात्रा में शामिल होने के प्रति हम बच्चों में गजब का उत्साह रहता। जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि प्रतिमा विसर्जन शुभ मुहूर्त देखकर किया जाता है, सो यह शुभ मुहूर्त किसी साल शाम को, तो किसी साल सूर्योदय के समय होता। कई बार तडके तीन बजे विसर्जन होता, तो अव्वल तो हम सोते ही नहीं, कि कहीं हम सोते ही रह जाएं और इधर प्रतिमा विसर्जन की शोभायात्रा रवाना हो जाए। रोम-रोम में राम नवरात्र पूरी तरह मां भगवती को ही समर्पित होता। सुबह-शाम दुर्गा सप्तशती के श्लोक गूंजते। कीर्तन मंडलियां भी मां दुर्गा की महिमा के भजन ही गातीं। जहां तक प्रभु श्रीराम की बात है, तो वे श्री रामचरितमानस के नवाह्न पारायण तक ही सीमित रहते, लेकिन प्रतिमा विसर्जन में मां दुर्गा के जयकारों से अधिक " रामलला की जय हो जय हो " का उद्घोष ही अधिक गूंजता। जैसा मैं समझ पाता हूं, भगवान राम हम भारत वासियों के मन-प्राण, रोम- रोम में बसे हुए हैं। यही कारण है कि धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्णाहुति पर निकलने वाली हर शोभायात्रा में " रामलला की जय हो जय हो " का उद्घोष बरबस ही गूंज उठता है। 01 October 2017

नीलकंठ को नमन


बचपन के दिनों में शारदीय नवरात्र के दौरान बुरी नजरों का एक अघोषित खौफ सा छाया रहता था। नतीजतन घर से बाहर जाने पर रोक लग जाती थी। प्रतिपदा को कलशस्थापन के दिन से ही रोज सुबह उठते ही मां सभी भाई-बहनों को काजल लगा देती। दुर्गा पूजा का मेला देखने की ललक जोर मारने लगती तो साथ चलने के लिए दादीजी या बड़की चाची की खुशामद करते। घर से बाहर निकलने पर लगी अघोषित रोक विजयादशमी पर खत्म होती। हमारे यहां विजयादशमी पर नीलकंठ का दर्शन मंगलकारी माना जाता है। ऐसे में सुबह स्नान-पूजा के बाद हमारी आंखें नीलकंठ पक्षी को तलाशने में जुट जातीं और थोड़ी ही देर में इसके दर्शन हो भी जाते। समुद्र मंथन के बाद निकले हलाहल को भगवान शिव ने पी लिया था ताकि इससे संसार के किसी प्राणी को कोई नुकसान नहीं हो। उन्होंने अपनी अलौकिक शक्ति से हलाहल को कंठ के नीचे नहीं उतरने दिया, जिससे उनका नाम नीलकंठ पड़ गया। इस तरह पौराणिक मान्यताओं में संहारकर्ता कहे जाने वाले महाकाल ने रक्षक की अद्वितीय भूमिका निभाई। यही कारण है कि हमारे देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक सभी जगह आशुतोष भगवान शिव की पूजा समान भाव से होती है। सबसे अधिक मंदिर भी भगवान शिव के ही हैं। सामाजिक बसावटों से लेकर श्मशान तक में। समुद्र मंथन से लक्ष्मी भी प्रकट हुई थीं, जो भगवान विष्णु के हिस्से में आईं और तबसे लेकर आज तक हर किसी की पहली मनोकामना लक्ष्मी को प्राप्त करने की ही होती है। संसार के कल्याण की भावना के साथ भगवान नीलकंठ की तरह किसी तरह का हलाहल पीने की पहल कोई नहीं करता। शहीद भगत सिंह का लोग सम्मान तो करते हैं, लेकिन चाहते हैं कि खुद को कुर्बान कर देने वाला ऐसा शख्स हमारे परिवार में नहीं, पड़ोसी के परिवार में ही जन्म ले। यही वजह है कि हम सब स्वार्थ के पुतले बनते जा रहे हैं और सामाजिक मूल्यों का दिनोंदिन पतन होता जा रहा है। जब तक हमारा यह रवैया नहीं बदलेगा, कुछ भी नहीं बदलने वाला। आप सभी को विजयादशमी की हार्दिक मंगलकामनाएँ 30 September 2017

नारी तू नारायणी


इस नवरात्र पर मैंने मां भगवती की महिमा का गुणगान करने के बजाय शक्तिस्वरूपा महिलाओं की कहानी सामने लाने की छोटी-सी कोशिश की। दुर्गा सप्तशती में ऐसा वर्णन आता है कि महाबलशाली महिषासुर और अन्य राक्षसों से मुकाबला करने के लिए सभी देवताओं ने मां दुर्गा को अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए। मातेश्वरी खुद तो शक्ति का साक्षात अवतार थीं ही, सो उन्होंने राक्षसों का संहार कर भक्तों को खुशहाली का वरदान दिया। मैंने जिन महिलाओं की चर्चा की, उनके जीवन में आई परेशानियां भी किसी राक्षस से कम नहीं थीं। फिर इनके पास न तो खुद की दैवी शक्ति थी और न ही शक्तिशाली देवताओं का संबल ही। इसके बावजूद उन्होंने विपरीत परिस्थितियों का बखूबी सामना किया। जीवन की कंटकाकीर्ण राह को आसान बनाकर परिवार को एक मुकाम पर पहुंचाया। मुझे संतोष है कि इनके जीवन गाथा की प्रस्तुति को बड़ी संख्या में मेरे अपनों ने सराहा। आईना यदि छोटा हो तो अपना ही चेहरा मुश्किल से नजर आ पाता है, लेकिन जब आईने का आकार बड़ा हो तो दर्जनों लोगों का अक्स उसमें समा जाता है। यह दुनिया भी कुछ ऐसी ही है। हमारे जीवन में जो कुछ घटता है, जरूरी नहीं उसे इकलौते हम ही भोग रहे हों। एक ही समय पर संसार में अलग-अलग स्थानों पर दर्जनों लोग ठीक उसी हालात का सामना कर रहे होते हैं। बात दीगर है कि अपनी पहचान और पहुंच का दायरा सीमित होने के कारण हम उसकी अनुभूति नहीं कर पाते। शक्ति स्वरूपा सीरीज का हाल भी कुछ ऐसा ही है। आप इसे जिस व्यक्ति विशेष की कहानी समझ रहे हों, यह किसी और का जीवन वृत्तांत भी हो सकता है। भगजोगनी की पल भर के लिए चमकने वाली क्षीण रोशनी की तरह मेरी यह कोशिश यदि किसी के अंधेरे जीवन में आशा के प्रकाश का संचार कर सकेगी, तो मैं मानूंगा कि मेरा प्रयास सार्थक रहा। 29 September 2017

आभा का अनुशासन


शक्ति स्वरूपा - 7 इंसान जब किसी बड़े मकसद के लिए खुद को समर्पित कर देता है, तो पारिवारिक दायित्व उसे बहुत छोटे लगने लगते हैं। उसकी अनदेखी करते हुए कई बार वह उससे विमुख भी हो जाता है। आभा के पिताजी के साथ भी कुछ ऐसा ही था। मजदूरों की समस्याओं का समाधान उनका इकलौता सरोकार था। इसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे। उनकी आवाज की धमक राज्य और देश की शीर्ष सत्ता तक पहुंचने लगी थी। हालांकि मजदूरों का वर्तमान संवारने के महान अनुष्ठान में तल्लीन होने की वजह से वे आभा और उसके भाई के भविष्य पर अपेक्षित ध्यान नहीं दे सके। आभा की पढ़ाई आधी-अधूरी ही हो पाई। उन्होंने उसकी शादी अच्छे-खासे जमींदार परिवार में कर दी। संबंधों के सूत्र जोड़े जाने के समय वर पक्ष और वहां का समाज लड़के को महिमामंडित करना ही अपना कर्तव्य समझते हैं, बुराइयों के बारे में बताकर कोई अपयश का भागी नहीं बनना चाहता। शादी के बाद आभा ने देखा कि पति का अनुशासन से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। घर के कामकाज से बेफिक्र हमेशा अपनी मस्ती की धुन में खोया रहता। परेशान आभा ने पिता से अपने पति को कहीं रोजगार दिलाने की गुहार लगाई, ताकि उसके दाम्पत्य जीवन की नैया को किनारा मिल सके। पिता के प्रयास और परमपिता की कृपा से आभा का अरमान पूरा हो गया। वह पति के साथ शहर आ गई। नई जगह पर पति ने भी नए सिरे से जिंदगी संवारने की शुरुआत की। सब कुछ भुलाकर खुद को नौकरी में झोंक दिया। अब तक एक बेटे और एक बेटी से आंगन गुलजार हो चुका था। अनुशासनहीनता का दंश भुगत चुकी आभा ने शुरू से ही बच्चों को हर पल अनुशासन के दायरे में रहने की ऐसी सीख दी जिसकी छाप उनके रिपोर्ट कार्ड में दिखती। दोनों ही पढ़ाई में काफी होशियार निकले और प्रोफेशनल डिग्री लेने के बाद अच्छी-खासी नौकरी कर रहे हैं। 28 September 2017

हारिए न हिम्मत


शक्ति स्वरूपा - 6 अफसर पिता ने जॉली को एमए तक पढ़ाने के बाद बड़े अरमानों से उसकी शादी जमींदार परिवार में इंजीनियर लड़के से कर दी। तब इंजीनियर से बेटी की शादी करना समाज में बहुत बड़ी बात समझी जाती थी। हां, सवर्णों के लिए सरकारी नौकरी की राह तब भी इतनी आसान नहीं थी, सो जॉली के पति को भी आजीविका के लिए दूसरे राज्य में ही शरण लेनी पड़ी। चूंकि उन्होंने उसी राज्य में इंजीनियरिंग की पढ़ाई भी की थी और पढ़ाई में भी अच्छे थे, सो प्राइवेट ही सही, नौकरी मिलने में अधिक परेशानी नहीं हुई। कुछ दिनों बाद जॉली भी शहर आ गई। दोनों बेटों का कॉन्वेंट स्कूल में दाखिला करा दिया गया। पति काम पर चले जाते और बच्चे स्कूल। ऐसे में जॉली को अनजाने शहर में अकले घर पर रहने से बोरियत सी होती। उसने पति से कहकर नजदीक के ही स्कूल में टीचर की नौकरी कर ली, लेकिन छह-सात घंटे की कड़ीमेहनत और उसके बदले नाममात्र की तनख्वाह को देखते हुए पति ने थोड़े ही दिनों बाद जॉली की नौकरी छुड़वा दी। दोनों बेटे शहर के नामी प्राइवेट स्कूल में हाई स्कूल की अंतिम सीढ़ी पार करने को ही थे। सब कुछ सही चल रहा था कि अचानक पति को गंभीर बीमारी ने घेर लिया। जॉली ने घर से अस्पताल तक पति की सेवा में दिन-रात एक कर दिया। इसके बाद भी लाखों रुपये खर्च करने के बावजूद उन्हें नहीं बचाया जा सका। जॉली की तो मानो दुनिया ही उजड़ गई। सामने अंधेरा ही अंधेरा था, लेकिन आंसुओं के सैलाब में बच्चों का भविष्य न बह जाए, इसलिए उसने हिम्मत का दामन थामना ही बेहतर समझा। दुबारा से स्कूल ज्वाइन कर लिया । परमपिता नाराज हुए तो पिता ने अपनी जिम्मेदारी समझी और संबल बनकर खड़े हो गये । एजुकेशन लोन ने भी राह आसान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। दोनों बेटों ने पढ़ाई में जमकर मेहनत की और डिस्टिंक्शन के साथ इंजीनियरिंग करने के बाद नौकरी में लग गये हैं। इस तरह जॉली की हिम्मत को जगज्जननी दुर्गा की कृपा का आशीर्वाद मिलता रहा तो उसके जीवन को नया मुकाम जरूर मिलेगा। 27 September 2017

हिम्मत से बदली किस्मत


शक्ति स्वरूपा - 5 माता-पिता संतान के बेहतर भविष्य के लिए अपना वर्तमान दांव पर लगा देते हैं, अपनी सुख-सुविधाएं भूल जाते हैं, लेकिन किसी की किस्मत लिखना तो विधाता के हाथ में ही है। चार बहनों में तीसरे नंबर की शालिनी पढ़ने में काफी तेज थी। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद पिताजी ने अच्छे-खासे परिवार में शादी कर दी। आज से 20-25 साल पहले बिहार की जो शासन व्यवस्था थी, उसमें मेधावी होने के बावजूद नौकरी पाना नामुमकिन ही था। ऐसे में शालिनी के पति दूसरे राज्य के बड़े शहर में जाकर प्राइवेट नौकरी करने लगे। कड़ी मेहनत के बावजूद कमाई इतनी नहीं होती कि जरूरतें पूरी हो सकें। इस बीच दो बच्चों की किलकारियों से आंगन गुलजार हुआ, लेकिन उनकी उम्र बढ़ने के साथ चुनौतियां भी बढ़ती जा रही थीं। शालिनी गांव में रहते हुए चाहकर भी अपनी प्रतिभा के सहारे परिवार की बेहतरी के लिए कुछ कर पाने में खुद को असहाय पा रही थी। अब तक बच्चे भी प्राइमरी की सीमा पार कर चुके थे। इस बीच शालिनी के दिमाग में आया कि वह यदि पति के साथ महानगर में जाकर रहे तो वहां उसे आसानी से टीचर की नौकरी मिल जाएगी। उसने बच्चों के बेहतर भविष्य का हवाला देते हुए श्वसुर के सामने यह प्रस्ताव रखा, तो वे तैयार हो गये। अगली छुट्टी में पति घर आये तो शालिनी ने दोनों बच्चों को लेकर उनके साथ महानगर का रुख कर लिया। वहां थोड़े दिनों की भागदौड़ के बाद उसे पड़ोस के ही स्कूल में नौकरी मिल गई। उसके पढ़ाने का तरीका बच्चों को इतना पसंद आया कि अच्छी-खासी ट्यूशन भी मिलने लगी। आमदनी बढ़ी तो अपने बच्चों की बेहतर पढ़ाई की राह आसान हो गई। शालिनी की कर्मठता का ही कमाल है कि बेटी प्रोफेशनल डिग्री लेने के बाद अच्छी-खासी जॉब में है और बेटा भी पढ़ाई में सफलता के नित नए झंडे गाड़ रहा है। इस तरह शालिनी ने साबित कर दिया है कि हिम्मत की जाए तो किस्मत को बदला जा सकता है । 26 September 2017

शिल्पा का शौर्य


शक्ति स्वरूपा - 4 बाढ़ केवल फसलें ही नहीं बहा ले जाती, किसानों के अरमानों का भी खून कर देती है। ...और जब यह त्रासदी हर साल की बात बन जाए, तो अच्छी-खासी जमीन वाले किसान की भी क्या हालत हो जाती है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। शिल्पा के पिता की हालत भी कुछ ऐसी ही थी। इन विपरीत हालात में भी चार बेटियों की शादी का दायित्व जैसे-तैसे निभा चुके थे। बड़ा बेटा दिल्ली में प्राइवेट नौकरी करके जैसे-तैसे अपना ही खर्च निकाल पा रहा था, इसलिए उससे मदद की कोई उम्मीद रखना ही बेकार था। छोटा बेटा हाई स्कूल में पढ़ रहा था। परेशानियों की वजह से बुढ़ापा समय से पहले ही दस्तक देने लगा था। ऐसे में संबंधी की रिश्तेदारी में अच्छी-तरह देख-भालकर सबसे छोटी बेटी शिल्पा की शादी कर दी। लड़का ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं था, परिवार की माली हालत भी ज्यादा अच्छी नहीं थी, सो गांव के अन्य नौजवानों के साथ कमाने के लिए घर से निकल गया। कच्ची उम्र में काम की थकान और बड़ों का अनुशासन नहीं रहने के कारण संगति ने असर दिखाना शुरू कर दिया। गांजा-शराब का सेवन पहले शौकिया तौर पर शुरू किया, जो धीरे-धीरे रोज की जरूरत बन गई। ऐसे में कमाई से ज्यादा खर्च होने लगा। घर से दूर इस शौक को पूरा करने के लिए कर्ज भी कौन देता, सो घर वापसी में ही भलाई समझी। समय ने पलटा खाया, पिताजी ने काफी दिनों तक एक बड़े अफसर की सेवा की थी, जिसकी बदौलत उसे चतुर्थ श्रेणी की सरकारी नौकरी मिल गई। शिल्पा को लगा कि अब अच्छे दिन आएंगे, लेकिन यह उसकी भूल थी। पति अपनी पूरी तनख्वाह शराब-गांजा-ताड़ी में उड़ा देता। ऊपर से दफ्तर वालों से कर्ज भी ले लेता। घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था। मुसीबत की इस घड़ी में शिल्पा ने पति को सही राह पर लाने का बीड़ा उठाया। नशा छोड़ने के लिए पति की मान-मनुहार के साथ ही घर, समाज, रिश्तेदारों से लेकर दफ्तर वालों तक से पति पर तरह-तरह से दबाव डलवाती रही। उसकी मेहनत रंग लाई । पति की नशाखोरी की लत छूटी तो कमाई में भी बरकत दिखने लगी । बेटा बड़े शहर में रहकर पढ़ने लगा। पक्का मकान बन गया । बेटी की शादी मनपसंद परिवार में अच्छी खासी प्रोफेशनल डिग्री वाले लड़के से करके मानो गंगा नहा लिया। ईश्वर की कृपा से बेटा सेंट्रल गवर्नमेंट की नौकरी में लग गया। कुल मिलाकर शिल्पा ने साबित कर दिया कि औरत को अबला यूं ही नहीं कहा जाता। वह चाह ले तो अपने जीवन में आने वाली हर बला को बखूबी बाहर का रास्ता दिखा सकती है। 25 September 2017

जाह्नवी का जुनून


शक्ति स्वरूपा - 3 जाह्नवी के पति की गांव में ही चाय की दुकान थी, जिससे परिवार का गुजर बसर होता था। दुकान पर हर तरह के लोग आते थे, लिहाजा पति को शराब की लत लग गई। कमाई का बड़ा हिस्सा शराब पर खर्च होने लगा, वहीं जाह्नवी और बच्चों के साथ बात-बेबात रोज की झिकझिक पति की आदत हो गई। शराब के कारण स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों की वजह से पति असमय ही मौत के मुंह में समा गया। इसके साथ ही जाह्नवी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। रिश्तेदार और पड़ोसी कब तक मदद करते। खुद और तीनों बच्चों के लिए दो वक्त की रोटी के भी लाले पड़ने लगे। फॉल-पीको-सिलाई करके किसी तरह गृहस्थी की गाड़ी खींच रही थी। इस बीच गांव में कॉन्वेंट स्कूल खुला तो जाह्नवी ने वहां आया की नौकरी कर ली। बच्चों को संभालने में अपना दुख-दर्द भूल जाती। मिडिल पास जाह्नवी के कान छोटे बच्चों के क्लासरूम पर लगे रहते। उसे लगा, इन बच्चों को वह पढ़ा सकती है। बीतते हुए समय के साथ उसने छोटी कक्षाओं के पाठ्यक्रम पर कमांड हासिल कर ली। जाह्नवी की लगन देखकर स्कूल के संचालक ने उसे छोटे बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी दे दी। बच्चों के प्रति मधुर व्यवहार को देखते हुए कई अभिभावकों से ट्यूशन पढ़ाने का ऑफर भी मिल गया। स्कूल और ट्यूशन से बचे हुए समय में फॉल-पीको-सिलाई का काम अब भी नहीं छूटा है। बड़े बेटे को न पढ़ा पाने का मलाल तो उसे है, जो कच्ची उम्र में कमाने को मजबूर हो गया, लेकिन दोनों बेटों को पढ़ाने का कर्तव्य वह बखूबी निभा रही है। अपनी लगन और मेहनत से उसने साबित कर दिया है कि हालात चाहे कितने भी प्रतिकूल क्यों न हों, दृढ़ इच्च्छाशक्ति हो तो इनसे पार पाना कतई मुश्किल नहीं है। 24 September 2017

कविता की कहानी


शक्ति स्वरूपा - 2 बचपन में जब अंगुली पकड़कर चलना सीखने का समय था, कविता के माता-पिता दोनों ही संसार छोड़ गए। परिवार में और कोई नहीं था, सो ननिहाल ही ठिकाना बना। अफसोस, नाना-नानी का स्नेह भी अधिक दिनों तक नहीं मिल सका। उनके बाद जिम्मेदारी मामा-मामी पर आ गई, जो कविता से जल्दी से जल्दी पीछा छुड़ाना चाहते थे। नतीजतन 13-14 साल तक होते-होते अधेड़ के साथ कविता की शादी तय कर दी। वह हर ऐब से भरा था। आए दिन शराब पीकर आता और कविता की पिटाई करता। इस बीच दो बेटियां भी हो गईं। पति का अत्याचार कम होने का नाम नहीं ले रहा था। एक दिन पड़ोस की महिला ने अपनापन से टोका, तो दर्द का सोता फूट पड़ा। हिचकियां थमीं तो पड़ोसन ने पास के रेलवे स्टेशन से ट्रेन पकड़कर शहर जाने की सलाह दी। अपने परिचित का पता भी दिया। मौका मिलते ही दोनों बेटियों के साथ कविता शहर आ गई। एकाध हफ्ते के अंदर दो-चार घरों में झाड़ू-पोंछा-बर्तन का काम मिल गया। जीवन की गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी, पर दुर्भाग्य साथ कहां छोड़ता है। पता लगाते-लगाते पति शहर में भी पहुंच गया, लेकिन कविता ने उसे साथ रखने से साफ मना कर दिया। इसके बावजूद वह हफ्ते-दो हफ्ते में आ जाता और नशे में पत्नी को गालियां देने के साथ ही पैसे भी मांगता। लेकिन कॉलोनी के लोगों ने हड़काया, मारने के लिए दौड़े तो पति का आना बंद हो गया। इस बीच कविता के व्यवहार और विपदा से प्रभावित होकर एक परिवार ने अपने ही मकान में रहने की जगह दे दी। कविता ने बेटियों का एडमिशन कॉन्वेंट स्कूल में करवा दिया। दोनों ही बेटियां पढ़ने में बहुत ही अच्छी हैं, जिसकी तस्दीक हर परीक्षा में होती है। बेटियों ने मां को भी अपना नाम लिखना सिखा दिया है। नतीजतन कविता अब किसी कागज पर अंगूठा नहीं लगाती, दस्तखत करती है। सब कुछ सही चलता रहा तो वह समय के ललाट पर भी अपनी अमिट छाप जरूर छोड़ेगी। 23 September 2017

शोभा की शक्ति


शक्ति स्वरूपा - 1 सबसे पहले शोभा की कहानी। जमींदार परिवार, चौपार मकान, जीप, लाइसेंसी बंदूक, नौकर-चाकर ...क्या कुछ नहीं था। अफसोस, मां बचपन में ही साथ छोड़ गई थीं। आज से करीब चार दशक पहले गांव में लड़कियों की पढ़ाई की माकूल व्यवस्था नहीं थी, सो तीन भाई-बहन में सबसे छोटी शोभा चाहकर भी प्राइमरी से आगे की पढ़ाई नहीं कर पाई। पिताजी ने अच्छा घर-वर देखकर बड़ी बेटी की शादी की। आस-पड़ोस के किसी व्यक्ति ने चुटकी ली, परिवार के मुखिया हैं, क्या जमकर पैसा लुटाया! पिताजी को बात चुभ गई। शोभा जब बड़ी हुई तो उन्होंने निहायत ही गरीब घर के बीए पास लड़के से उसकी शादी कर दी। लड़का मेहनती था और 12-1500 रुपये महीने पर प्राइवेट नौकरी कर रहा था। कुछ दिनों बाद पत्नी को भी शहर ले आया। अपना खर्च चलाने के साथ ही माता-पिता को मनीऑर्डर करना कभी नहीं भूलता। शोभा ने अपनी गृहस्थी बखूबी संभाली। केरोसिन स्टोव पर खाना बनाना महंगा पड़ता तो लकड़ी या उपले पर खाना बनाती। खुद के बनाव-शृंगार की बात तो उसने कभी सोची ही नहीं। समय बीतता गया। दो बच्चे हुए। पति सुबह साढ़े सात-आठ बजे काम पर जाते तो रात नौ बजे तक ही लौट पाते। ऐसे में शोभा ने बच्चों की पढ़ाई का खास ध्यान रखा। होमवर्क पूरा कराने के साथ ही नियमित रूप से पैरेंट्स टीचर मीटिंग में जाकर टीचर्स से बच्चों की प्रगति के बारे में पूछती। बाकी हिसाब तो साल में दो बार आने वाली मार्क्सशीट से पता चल ही जाता। इसी का नतीजा है कि आज बड़ा बेटा बीटेक फाइनल ईयर में है। छोटा बेटा भी इसी साल 10 सीजीपीए के साथ सीबीएसई से दसवीं की परीक्षा पास करके मेडिकल की तैयारी कर रहा है। शोभा ने साबित कर दिया है कि खुद अज्ञान के अंधियारे में रहकर भी संतान के भविष्य को ज्ञान के प्रकाश से जगमग किया जा सकता है। (मेरा मकसद किसी महिला विशेष का प्रचार- प्रसार नहीं, बल्कि एक साधारण महिला में छिपी अपार क्षमताओं को सामने लाकर नारी मात्र की शक्ति को समाज में प्रतिष्ठापित करना है, लिहाजा नाम बदल दिया गया है ।) 22 September 2017

या देवी सर्वभूतेषु ...

पुरुष कितना ही बलशाली हो जाए, सनातन परंपरा स्त्री को ही शक्ति का भंडार मानती है। यही वजह है वर्ष में चार बार चैत, आषाढ़, आश्विन और माघ के शुक्ल पक्ष में नवरात्र के दौरान शक्ति स्वरूपा मां भगवती की पूजा-आराधना की जाती है। इन चारों में शारदीय नवरात्र में चहुंओर मां दुर्गा की पूजा-अर्चना के मंत्रों की गूंज सुनाई देती है। व्यक्ति से समाज बनता है और कालांतर में किसी व्यक्ति विशेष की ओर से शुरू की गई पहल ही सामाजिक परिपाटी का रूप धारण कर लेती है। ऐसे में कई बार मेरे मन में यह खयाल आता है कि पहले पहल किसी एक व्यक्ति ने अपनी मां, बहन, पत्नी या बेटी के गुणों से प्रभावित होकर उसे देवी का दर्जा दिया होगा और फिर दूसरे लोगों ने भी उसका अनुसरण किया होगा। बीतते हुए समय के साथ यह परंपरा बढ़ती चली गई और फिर प्रतीक रूप में देवी-आराधना से जुड़ गई। दुर्गा दुर्गति नाशिनी... दुर्गम स्थिति से जो पार लगा दे, वही दुर्गा है। अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं है, हमारे आस-पड़ोस, जान-पहचान में ही ऐसी कई महिलाएं हैं, जिन्होंने विपरीत हालात के बावजूद हिम्मत नहीं हारी। अपने दमखम के बल पर परिवार को दुखों के सागर से उबार लाईं। इस नवरात्र ऐसी ही नौ महिलाओं की कहानी। इनके नाम नहीं, इन्होंने जो मिसाल कायम की, वह हमारे लिए, हमारे समाज के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है। लिहाजा इनके नाम बदल दिए गए हैं । 21 September 2017