एक बौद्धिक अग्रज से पिछले दिनों लंबे अरसे बाद मिलना हुआ। कई सारे मसलों पर बातचीत हुई। इसी बीच उन्होंने फिल्म `वेलकम टू सज्जनपुर´ की तारीफ करते हुए इसे देखने की सलाह दी। कई सारी मजबूरियां होती हैं किसी फिल्म को सिनेमाहॉल में नहीं देख पाने की, सो रिलीज होने के समय नहीं देख पाया था। उनके आदेश पर इस फिल्म की सीडी किराये पर ले आया और देखने का समय भी निकाल लिया। श्याम बेनेगल ने हमारे गांवों की खांटी असलियत को परदे पर बखूबी उतारा है। इस बारे में समीक्षकों ने बड़ी-बड़ी तकरीरें की होंगी, बहुत कुछ लिखा गया होगा, मेरा उतना दखल भी नहीं है फिल्मों में। मैं तो महज उस एक डायलॉग से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं जिसमें कमला कुम्हारिन (अमृता राव) जब 16 साल के अंतराल के बाद पति के नाम चिट्ठी लिखवाने के लिए अपने बचपन के सहपाठी लेटर राइटर महादेव कुशवाहा (श्रेयस तलपड़े) से मिलती है तो दोनों बीते दिनों को याद करते हैं। इस बीच जब कमला पूछती है कि तुमने चिट्ठी लिखने का पेशा क्यों चुना, तो महादेव बेलाग कह उठता है-`मैंने कहां इस पेशे को चुना, ई ससुरा पेशा ही मेरे गले पड़ गया´।
यह इकलौते महादेव कुशवाहा की पीड़ा नहीं है। बच्चा चाहता क्या है और युवा होते-होते बन क्या जाता है। वाकई यह हमारे शिक्षा पद्धति का दोष है। हमारे देश के गांवों के लाखों बच्चे प्राइमरी से मिडिल, हाई, हायर सैकंडरी स्कूल पास करते हुए कॉलेज व यूनिवरसिटी तक की पढ़ाई पूरी कर लेते हैं, लेकिन उनके सामने अपने भविष्य को लेकर कोई निश्चित रूपरेखा नहीं होती। हालांकि शहर के बच्चों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनके भविष्य की चिंता करने की जिम्मेदारी उनके माता-पिता की हुआ करती है।
नौवीं-दसवीं की हिंदी की पाठ्यपुस्तक के एक निबंध `जीवन और शिक्षण´ में भी ऐसी ही चिंता से रू-ब-रू हुआ था। गांधीजी का नाम लेकर सियासतदानों ने दशकों तक सत्तासुख भोगा, लेकिन उनके शिक्षा दर्शन को भूल गए। शिक्षा पर न जाने कितने शोध हुए, लेकिन उनके नतीजों पर अमल करने की ईमानदार कोशिश नहीं करती हमारी सरकारें। भारतमाता ग्रामवासिनी के तथ्य को भुलाकर हम प्रगति के पायदानों पर कभी नहीं चढ़ सकते। जब तक बच्चे की अभिरुचि को तरजीह नहीं दी जाएगी, शिक्षा रोजगारोन्मुखी नहीं होगी, आजादी के बाद छह दशक बीतें या साठ दशक, यह तस्वीर जस की तस ही रहेगी। भगवान करे ऐसा न हो।