Thursday, February 26, 2009

पेशे ने मुझे चुन लिया...


एक बौद्धिक अग्रज से पिछले दिनों लंबे अरसे बाद मिलना हुआ। कई सारे मसलों पर बातचीत हुई। इसी बीच उन्होंने फिल्म `वेलकम टू सज्जनपुर´ की तारीफ करते हुए इसे देखने की सलाह दी। कई सारी मजबूरियां होती हैं किसी फिल्म को सिनेमाहॉल में नहीं देख पाने की, सो रिलीज होने के समय नहीं देख पाया था। उनके आदेश पर इस फिल्म की सीडी किराये पर ले आया और देखने का समय भी निकाल लिया। श्याम बेनेगल ने हमारे गांवों की खांटी असलियत को परदे पर बखूबी उतारा है। इस बारे में समीक्षकों ने बड़ी-बड़ी तकरीरें की होंगी, बहुत कुछ लिखा गया होगा, मेरा उतना दखल भी नहीं है फिल्मों में। मैं तो महज उस एक डायलॉग से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं जिसमें कमला कुम्हारिन (अमृता राव) जब 16 साल के अंतराल के बाद पति के नाम चिट्ठी लिखवाने के लिए अपने बचपन के सहपाठी लेटर राइटर महादेव कुशवाहा (श्रेयस तलपड़े) से मिलती है तो दोनों बीते दिनों को याद करते हैं। इस बीच जब कमला पूछती है कि तुमने चिट्ठी लिखने का पेशा क्यों चुना, तो महादेव बेलाग कह उठता है-`मैंने कहां इस पेशे को चुना, ई ससुरा पेशा ही मेरे गले पड़ गया´।
यह इकलौते महादेव कुशवाहा की पीड़ा नहीं है। बच्चा चाहता क्या है और युवा होते-होते बन क्या जाता है। वाकई यह हमारे शिक्षा पद्धति का दोष है। हमारे देश के गांवों के लाखों बच्चे प्राइमरी से मिडिल, हाई, हायर सैकंडरी स्कूल पास करते हुए कॉलेज व यूनिवरसिटी तक की पढ़ाई पूरी कर लेते हैं, लेकिन उनके सामने अपने भविष्य को लेकर कोई निश्चित रूपरेखा नहीं होती। हालांकि शहर के बच्चों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनके भविष्य की चिंता करने की जिम्मेदारी उनके माता-पिता की हुआ करती है।
नौवीं-दसवीं की हिंदी की पाठ्यपुस्तक के एक निबंध `जीवन और शिक्षण´ में भी ऐसी ही चिंता से रू-ब-रू हुआ था। गांधीजी का नाम लेकर सियासतदानों ने दशकों तक सत्तासुख भोगा, लेकिन उनके शिक्षा दर्शन को भूल गए। शिक्षा पर न जाने कितने शोध हुए, लेकिन उनके नतीजों पर अमल करने की ईमानदार कोशिश नहीं करती हमारी सरकारें। भारतमाता ग्रामवासिनी के तथ्य को भुलाकर हम प्रगति के पायदानों पर कभी नहीं चढ़ सकते। जब तक बच्चे की अभिरुचि को तरजीह नहीं दी जाएगी, शिक्षा रोजगारोन्मुखी नहीं होगी, आजादी के बाद छह दशक बीतें या साठ दशक, यह तस्वीर जस की तस ही रहेगी। भगवान करे ऐसा न हो।

Wednesday, February 25, 2009

नौटंकी तो हम करते हैं


पिंकसिटी में सांस्कृतिक आयोजनों के हृदय स्थल जवाहर कला केंद्र के शिल्पग्राम में मंगलवार शाम नौटंकी देखने का सुयोग मिला। गांव छोड़े हुए करीब 25 साल हो गए, इस दरम्यान कभी नौटंकी देखने का मुहूर्त नहीं बना। वैसे भी महानगरों में ऐसे आयोजन विरले ही होते हैं, फिर रात की नौकरी के कारण इनसे महरूम ही रहना पड़ता है। बचपन से किशोरावस्था तक गांव में दुरगा पूजा के समय मेले में नौटंकी और बिदेसिया देखा करता था।
पुरानी बातें तो फिर कभी होंगी, अभी तो कल की बात। करौली से आए कलाकारों के दल ने आशा वरमा के निरदेशन में `हरिश्चंद्र तारामती´ की प्रस्तुति दी। गीत व नृत्य के साथ संवादों की बेहतरीन अदायगी ने दर्शकों को काफी प्रभावित किया। शिल्पग्राम में गांव सा माहौल साकार हो उठा और नगाड़े व ढोलक की जुगलबंदी ने इसमें चार चांद लगा दिए। पैर से बजने वाला हारमोनियम भी कई दर्शकों के लिए अजूबा बना हुआ था। कलाकारों ने राजा हरिश्चंद्र, उनकी पत्नी तारामती, पुत्र रोहिताश और ऋषि विश्वामित्र के पात्र में अपने जीवंत अभिनय से जान डाल दी। रोहिताश के मरने के बाद तारामती के विलाप के समय कई दर्शक आंसू पोंछते नजर आए। बिना किसी ताम-झाम और रीटेक की सुविधा के खुले रंगमंच पर ऐसी प्रस्तुतियों के लिए कलाकारों की सराहना की ही जानी चाहिए। हां, इस दौरान नगाड़ा व ढोलक बजाने वाले कलाकारों की आपस में हंसी-मजाक पर मुस्कुराहट अवश्य ही मुझ जैसे अन्य कई दर्शकों को भी खली होगी।
खैर, जिस विशेष बात ने मुझे यह ब्लॉग लिखने को प्रेरित किया, उसकी चरचा किए बिना बात अधूरी रह जाएगी। नाटक की समाçप्त के बाद आशा वरमा ने पात्रों का परिचय कराया। इस दौरान उन्होंने नौटंकी कला के अस्तित्व पर आ रहे संकट की बात की, सरकार की ओर से कलाकारों को प्रोत्साहन नहीं मिलने पर अफसोस जताया। इन सबसे आगे बढ़कर उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और फिल्मों में राजनेताओं को नौटंकीबाज कहने पर रुंधे गले और कड़े शब्दों में आपत्ति जताई। इस दौरान उनकी चिंता वाकई आंसुओं में डूबी हुई थी और यह दर्द उस दर्द से कहीं बढ़कर था, जो उन्होंने तारामती के किरदार में बेटे रोहिताश के निधन पर विलाप करते हुए दिखाया था। आशा वरमा का कहना था कि नौटंकी करना इतना आसान नहीं है कि राजनेता कुछ भी गलत-सलत करें तो इसे नौटंकी करार दे दिया जाए। उन्होंने कहा कि नौटंकी तो वह है जिसे हम कलाकारों ने तीन घंटे तक किया और आप सबने देखा। नौटंकी करने में कलाकारों को इन पात्रों में अपनी आत्मा डालनी पड़ती है, ये राजनेता क्या नौटंकी करेंगे जिनकी आत्मा होती ही नहीं है।

Sunday, February 22, 2009

चिठिया हो तो हर कोई बांचे...


कई महीनों से ब्लॉग और ब्लॉगरों की दुनिया से दूर हूं। कुछ ऐसी व्यस्तताएं थीं कि चाहकर भी लिखने-पढ़ने का समय नहीं निकाल पाया। किन कारणों से ऐसा हुआ, इसकी चरचा फिर कभी। आज तो कुछ विशेष अनुभूतियों को लेकर हाजिर हूं, जिन्हें शेयर करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं।
आज सुबह करीब साढ़े सात बजे मोबाइल की रिंगटोन से नींद खुली। अखबार के दफ्तर से दो बजे फ्री होने के बाद सोते-सोते करीब तीन बज ही जाते हैं। ऐसे में सुबह नींद में खलल पड़ती है तो बहुत ही बुरा लगता है, लेकिन जब मोबाइल के दूसरी ओर कोई ऐसा शख्स हो जिसकी मधुर आवाज सुनना नींद से अधिक प्रिय हो तो फिर कोई शिकायत नहीं होती। आज भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। उधर से आवाज आई---`आप मंगलम जी बोल रहे हैं। मैं भागलपुर से संजीव...बीएड में हम साथ थे।´ इन अल्फाजों को सुनते ही क्षणमात्र में महीनों साथ गुजारे गए लम्हों का फ्लैश बैक मानस पटल पर घूम गया। पूछा-आपको मेरा नंबर कैसे मिला? जो जवाब मिला, उससे और भी तसल्ली हुई। उन्होंने कहा-आपने कभी पोस्टकार्ड भेजा था मेरे नाम। मम्मी कहीं रखकर भूल गईं। आज सुबह नजर पड़ी तो मैंने सोचा देखता हूं नंबर मिलाकर और बात हो गई। फिर तो हम दोनों ने बीते हुए करीब 13-14 साल का ब्यौरा एक-दूसरे को सुनाया। जहां तक मुझे याद आता है, मैंने मोबाइल कनेक्शन लेने के बाद अपने कई मित्रों को पोस्टकार्ड लिखे थे और उसमें अपनी वर्तमान स्थिति, निवास और मोबाइल नंबर का भी जिक्र किया था ताकि संबंधों को पुनरजीवित किया जा सके। पत्र लिखने की मेरी आदत रही है, जो कई मित्रों की पत्रोत्तर देने की उदासीनता की भेंट चढ़ती जा रही है, लेकिन संजीव भाई के फोन ने पत्रों की उपादेयता की नई सिरे से व्याख्या कर दी है। मैं एक बार फिर इस तथ्य को कहना चाहूंगा कि मोबाइल और इंटरनेट के इस युग में भी पत्रों की अहमियत कम नहीं हुई है।
कोशिश करूंगा कि अपने पुराने मित्रों से पत्राचार कर एक बार फिर संबंधों को रिन्यू करने की कोशिश करूं। उम्मीद है जीवन के इस मोड़ पर उन मित्रों से जुड़कर जीवन के पलों को और खुशनुमा बना सकूंगा।