Saturday, October 26, 2019

मगध के बाद मिथिला का बजा डंका


केबीसी के मौजूदा सीजन में जहानाबाद के सनोज राज को पहला करोड़पति बनने का गौरव प्राप्त हुआ था और अब बृहस्पतिवार के एपिसोड में मधुबनी के गौतम कुमार झा पंद्रह सवालों के जवाब देकर करोड़पति बने। रेलवे में इंजीनियर गौतम से जब बिग बी अमिताभ बच्चन ने पूछा कि बिहार के युवाओं में यूपीएससी के प्रति अधिक आकर्षण होता है तो गौतम जी ने कहा कि वहां बचपन से ही सबका लक्ष्य यूपीएससी की परीक्षा पास करना ही होता है। वे बोले- बिहार में बच्चे जब अल्फाबेट्स सीखते हैं तो उनके दिमाग में एबीसीडी के बाद सीधे यूपीएससी ही आता है। गौतम की तमन्ना भी यूपीएससी परीक्षा पास करके आईएएस अधिकारी बनने की है। गौरतलब है कि जहानाबाद के सनोज राज भी संप्रति सरकारी नौकरी करते हुए यूपीएससी एग्जाम की तैयारी में जुटे हैं। काश! बिहार सरकार वहां के सभी बच्चों को शिक्षा का उचित माहौल मुहैया करा पाती। 17October 2019 Lucknow

नीलकंठ देखें, नीलकंठ बनें


बचपन के दिनों में शारदीय ‘नवरात्र’ घर के बड़े-बुजुर्गों के लिए नौ दिनों तक चलने वाला आध्यात्मिक अनुष्ठान होता था, लेकिन हम बच्चों के लिए तो यह उत्सव प्रतिमाओं के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाता। प्रतिमा के आकार लेने की इस कला के हरेक पहलू को बारीकी से देखने की ललक बरबस ही हमें वहां खींच ले जाती थी। नवरात्र के दौरान रोज सुबह दुर्गा सप्तशती के पाठ के बाद प्रसाद में मिलने वाले खीरा का स्वाद आज तक नहीं भूला। दुर्गा पूजा का मेला सप्तमी से परवान चढ़ता। इस दौरान किसी साल नाटक, किसी साल नौटंकी तो किसी साल अन्य आयोजन होते। ... और फिर पूजा की पूर्णाहुति के साथ आती विजयदशमी। ऐसा माना जाता है कि विजयदशमी की सुबह नीलकंठ पक्षी के दर्शन करने से पूरे साल सभी कार्य सफलतापूर्वक संपन्न होते हैं। इसलिए हम सभी भाई-बहन तड़के ही स्नान कर आस-पड़ोस के पेड़ों पर निगाहें टिका देते थे। नीलकंठ-दर्शन के लिए हमारी व्यग्रता चरम पर होती थी। ... और शायद नीलकंठ पक्षी को भी हमारी व्यग्रता का अहसास हो जाता था। तभी तो देखते ही देखते हममें से किसी न किसी की नजर नीलकंठ पर पड़ जाती और वह दूसरों को भी यह दर्शन-लाभ देकर खुद को श्रेष्ठतर समझता। नीलकंठ पक्षी की किस विशेषता के कारण उसका दर्शन शुभ फलदायक माना जाता है, आज तक नहीं समझ पाया। हां, ऐसी मान्यता है कि समुद्र मंथन के बाद निकले हलाहल (जहर) के दुष्प्रभाव से संसार को बचाने के लिए भगवान शिव ने इसे अपने कंठ में धारण कर लिया था। इससे उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाने लगे। और उनका नाम मिल जाने मात्र से नीलकंठ पक्षी की महत्ता इतनी बढ़ गई। ...तो हम भी भगवान शिव का अनुसरण करते हुए अपने जीवन को अर्थपूर्ण बना सकते हैं। इसके लिए किसी और के हिस्से का जहर पीने की जरूरत नहीं है। विजयदशमी पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार किसी की परेशानी कम करने में सहायक बनकर हम नीलकंठ की भूमिका निभाकर अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। जरूरी नहीं कि यह कार्य किसी को आर्थिक सहायता देकर ही किया जाए। किसी के मुश्किलों से घिरे होने पर उससे सांत्वना और दिलासा के दो शब्द बोलकर भी हम उसकी पीड़ा कम कर सकते हैं। किसी मेधावी बच्चे को सफलता के लिए प्रोत्साहित करने का काम भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता। कई सारे लोग थोड़ी-थोड़ी मदद करके बहुत बड़ी मुसीबत में फंसे व्यक्ति को इस कठिन हालात से उबार सकते हैं। देश-काल-परिस्थिति के हिसाब से सहयोग के नए आयाम खोजे जा सकते हैं। ... तो आइए...इस विजयदशमी पर हम नीलकंठ के दर्शन के साथ खुद भी नीलकंठ बनें। 08 October 2019 Vijayadashmi

काकू ने करोड़पति बनकर रचा इतिहास


मिड डे मील बनाने वाली कुक बनीं करोड़पति, अमिताभ बच्चन ने भी की सराहना महाराष्ट्र की बबीता ताडे गुरुवार रात प्रसारित टीवी शो "कौन बनेगा करोड़पति" में एक करोड़ रुपए जीतकर इस सीजन की दूसरी करोड़पति विजेता बनीं। पहले करोड़पति विजेता बने थे बिहार के सनोज राज। सनोज बीटेक करने के बाद यूपीएससी की तैयारी कर रहे हैं। वहीं बबीता एक सरकारी स्कूल में मिड डे मील बनाने का काम करती हैं। उनकी बनाई खिचड़ी इतनी स्वादिष्ट होती है कि स्कूल के बच्चे उनकी जमकर तारीफ करते हैं। अपने प्रति स्नेह भाव से अभिभूत स्कूली बच्चे बबीता जी को काकू कहकर बुलाते हैं। 450 बच्चों के लिए रोजाना दो बार मिड डे मील बनाने के एवज में बबीता ताडे को महीने भर के पारिश्रमिक के रूप में महज 15 सौ रुपए मिलते हैं। ऐसे में बबीता ताडे की उपलब्धि ज्यादा बड़ी, महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक है। विपरीत हालात में जीवन की गाड़ी खींचने के बावजूद बबीता ने कभी निराशा की भावना को खुद पर हावी नहीं होने दिया। सीमित साधनों और असीमित परेशानियों के बावजूद वह लगातार ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहीं। शो के दौरान अमिताभ बच्चन के पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके परिवार में महज एक मोबाइल फोन है जो उनके पति रखते हैं। वह चाहती हैं कि इस शो में रकम जीतने के बाद खुद के लिए एक स्मार्ट फोन खरीद सकें जिसके माध्यम से इंटरनेट के जरिए वह अपना ज्ञान और बढ़ा सकती हैं। इस पर अमिताभ बच्चन ने शो के दौरान उन्हें केबीसी की ओर से एक स्मार्ट फोन गिफ्ट किया। हॉट शीट पर बैठी बबीता का आत्मविश्वास देखते ही बनता था। उन्होंने एक से बढ़कर एक कठिन सवालों के जवाब बहुत ही सहजता से दिए और काफी बुद्धिमत्ता के साथ लाइफलाइन का भी इस्तेमाल किया। एक करोड़ रुपए जीतने के बाद जैकपॉट सवाल का जवाब भी वह जानती थीं, लेकिन मध्यमवर्गीय स्वभावजनित भय के कारण वह इस आशंका से कि हाथ में आए एक करोड़ रुपए भी न चले जाएं, वह खेल से क्विट कर गईं, वरना उनके सात करोड़ रुपए जीतने की खबर आज मीडिया की सुर्खियों में होती। कुल मिलाकर बबीता जी ने साबित कर दिया कि काम के प्रति समर्पण और ईमानदारी का भाव हो तो कोई भी मंजिल पाना मुश्किल नहीं होता। 20September 2019

पैसे की बेकद्री


वैसे तो कोई भी खुद को कमअक्ल नहीं मानता, लेकिन मौजूदा समय में समाज उसे ही सही अर्थों में पढ़ा-लिखा समझता है जिसे सरकारी नौकरी मिल जाए। उसमें भी योग्यता का सबसे बड़ा पैमाना यूपीएससी का इम्तिहान फतह करके आईएएस-आईपीएस बन जाना है। पिछले कुछ वर्षों से ‘कौन बनेगा करोड़पति’ सीरियल में चयन को भी योग्यता का मानक माना जाने लगा है। ...और अगर किसी ने इस शो में 50 लाख या एक करोड़ रुपये की रकम जीत ली तो फिर कहना ही क्या। तिजोरी भरने के साथ ही उसके ज्ञान का डंका पूरे देश में बजने लगता है। ... मगर अफसोस, केबीसी के गुरुवार के एपिसोड में एक शिक्षिका 10000 पैसे को रुपये में बदलने से कितने रुपयए होंगे, इस सवाल का सही जवाब नहीं दे पाईं और उन्हें लाइफलाइन की मदद लेनी पड़ी। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि आज भारतीय रुपये की कीमत केवल अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में ही नहीं गिर रही, आमजन के नित्यप्रति के व्यवहार में भी पैसे की अहमियत खत्म हो गई है। याद आते हैं, बचपन के दिन जब गिनती और जोड़-घटाव-गुणा-भाग की शुरुआती शिक्षा के बाद सबसे पहले पैसे को रुपये में और रुपये को पैसे में बदलने के साथ ही सेकंड, मिनट और घंटा का हिसाब सिखाया जाता था। इसका मकसद शायद यही था कि आने वाले जीवन में अर्थ की उपयोगिता काफी अहम होगी, इसलिए इसकी बारीकी को समझना जरूरी है। वहीं, समय के मोल का मर्म समझाने के लिए इसकी इकाइयों की जानकारी दी जाती थी। जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण अर्थ और समय ही हैं। इसके बाद ही किसी चीज का स्थान आता है। इन दोनों को जिसने साध लिया, उसने सब कुछ साध लिया। हमारे बचपन के दिनों में दस पैसे, बीस पैसे, पच्चीस पैसे और पचास पैसे की कौन कहे, एक पैसा, दो पैसे, पांच पैसे का भी महत्व था और यह हमारी कई जरूरतें पूरी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था। बीतते हुए समय के साथ सब साथ छोड़ते चले गए। चवन्नी-अठन्नी की कौन कहे, अब तो एक रुपये का छोटा वाला सिक्का लेने में कई दुकानदार नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। ऐसे में यदि कोई प्रतिभावान होने के बावजूद पैसे को रुपये में बदलने का गणित भूल गया हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हां, पैसे की यह बेकद्री दिल को कचोटती जरूर है। 31 August 2019

शरबत के बहाने


जेठ की तपती दुपहरी। एक-डेढ बज रहे थे। एक मित्र के परिवार का कोई मुकदमा चल रहा था। कचहरी में सुबह से ही चक्कर लगा-लगाकर हम हलकान हो चुके थे। एक सीनियर वकील से कुछ सलाह लेनी थी। सो कचहरी का टाइम खत्म होने के बाद वकील साहब के पास पहुंचे। थोड़ी देर बाद उनका नौकर एक ट्रे में शीशे के चार गिलास में शरबत लाया। रूह आफजा के कारण पानी का रंग गंवई न रहकर शहरी हो गया था। हम तीन थे और चौथे वकील साहब। गर्मी के मारे प्यास से हमारा गला सूख रहा था, लेकिन एक गिलास से ज्यादा की न कोई गुंजाइश थी न ही उम्मीद। हम ठहरे गांव वाले। हमारे यहां यदि ऐसी गर्मी में कोई अतिथि आता तो लोटे भर पानी में चीनी घोलकर शरबत बनता और फिर उसमें नींबू निचोड़कर उसे गिलास में ढालकर तब तक पिलाया जाता, जब तक अतिथि तृप्त न हो जाए। मेहमानों की संख्या अधिक होने पर लोटे की जिम्मेदारी बाल्टी को संभालनी पड़ती, लेकिन शरबत की मात्रा में कटौती नहीं होती। पर यहां तो हम शहर में थे, सो एक गिलास लाल शरबत से ही शिष्टाचार निभाते हुए संतोष करना था। बाद में चलकर महसूस हुआ कि शहरों का यही रिवाज है। वहां मेहमानों की संतुष्टि नहीं, महज औपचारिकता का निर्वाह करना ही मुख्य मकसद होता है। समय बीतने के साथ मैं भी शहर में रहने लगा, लेकिन अपना प्रयास होता है कि मेहमानों की खातिरदारी में महज औपचारिकता नहीं निभाई जाए। बल्कि उनकी तृप्ति और संतुष्टि का भी ध्यान रखा जाए। आज जब सारी दुनिया मुरली मनोहर भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मना रही है, लखनऊ के अखबारों के दफ्तरों में भी अवकाश है। इसी का लाभ उठाते हुए किसी प्रियजन के घर पहुंचा तो वहां लोटा और गिलास में भरकर जब शरबत सामने आया तो वकील साहब के पच्चीस-तीस साल पुराने उस शरबत का प्रसंग बरबस ही याद आ गया। 24 August 2019

मंझले की मुसीबत


शुक्रवार सुबह डेंटिंग-पेंटिंग के लिए सैलून में गया तो वहां तीन कुर्सियां लगी थीं। पहले जिससे बाल कटवाता था उसने सऊदी अरब, सिंगापुर के साथ ही अपने देश के विभिन्न शहरों में काम करने के बाद आजकल मायानगरी मुंबई में अपना सैलून खोल लिया है। ऐसे में किसी मुफीद नाई की तलाश जारी है। सो पहली बार ही इस सैलून में गया था। सैलून शायद थोड़ी देर पहले ही खुला था, सो तीनों ही कुर्सी खाली थी। मैं बीच वाली कुर्सी पर बैठ गया। इसी बीचएक नौजवान पड़ोस में चाय की थड़ी से हाथ में चाय का कागज का कप लिए भागा-भागा आया और काम शुरू करने को तत्पर सा दिखा। मैंने उससे कहा कि पहले आराम से चाय पी लो, फिर कटिंग करना। बाल कटवाने के दौरान आदतन उससे बातचीत शुरू कर दी। विभिन्न मुद्दों पर बातचीत के बीच पता चला कि वह तीन भाई है और तीनों ही इसी सैलून में काम करते हैं। डेंटिंग के बाद जब पेंटिंग (बालों में मेहंदी लगाने) का काम शुरू हुआ कि उससे कुछ अधिक उम्र का दूसरा युवक आया और वहां रखी बेंच पर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद एक अन्य ग्राहक आया (जो उसका पूर्व परिचित था), तो उसने अपने औजार संभालने शुरू किए। तकनीक का दखल आजकल हर कहीं हो गया है, सो नाई भी अब हाथ और कैंची के बजाय मशीन से कटिंग करना ज्यादा मुफीद समझते हैं। बाद में आया युवक कटिंग मशीन उठाते ही बोला-कितनी बार कह चुका हूं, काम करने के बाद मशीन को संभालकर रखा करो। इसके पार्ट बाजार में मिलते ही नहीं। हाल ही इसका पार्ट टूट गया था, जिसे जुगाड़ करके जैसे-तैसे सही किया है। दोबारा टूट गया तो बड़ी मुसीबत होगी। मैं समझ गया कि बाद में आया युवक इस नौजवान का बड़ा भाई है। मेरे बाल रंगने में रमे नौजवान ने कहा कि उसने तो सुबह से इस मशीन को काम में ही नहीं लिया। इस पर नसीहत दे रहे युवक ने दुकान से गैरहाजिर सबसे छोटे भाई का हवाला देते हुए कहा कि वह तो लापरवाह है, कहने के बाद भी नहीं समझता, लेकिन तुम तो समझदार हो। यदि मशीन को बेतरतीब तरीके से रखा हुआ देखो तो खुद ही सही से रख दिया करो। उसके बाद वह युवक बड़ा होने के अधिकार का भरपूर इस्तेमाल करते हुए सऊदी अरब में अपने उस्ताद की दी हुई सीखों और उन पर अमल करने की बदौलत खुद के होशियार बनने का हवाला देने लगा। मेरे बालों में मेहंदी लगा रहा नौजवान बिना कोई प्रतिवाद किए चुपचाप अपने बड़े भाई की नसीहतें सुनता रहा। हालांकि उसके मन में उठ रहे भावों के झंझावात उसके चेहरे पर बखूबी आ-जा रहे थे । जहां तक मैंने उन भावों को महसूस किया, उसका लब्बो लुआब यही था कि छोटे की बड़ी गलती को भी बचकानी हरकत समझकर माफ कर दिया जाता है, लेकिन उससे उम्र में महज एक-दो साल बड़े मझले से पिता और बड़े भाई जैसी परिवक्वता की उम्मीद की जाती है, और इस पर खरा न उतरने पर ताने दिए जाते हैं। लेकिन किया भी क्या जाए, यह चलन तो हमेशा से ही चलता आया है। ...अफसोस, बदलते हुए समय के साथ ही छोटे परिवार की बढ़ती अवधारणा के कारण मंझले की यह प्रजाति भी विलुप्त होने के कगार पर है। क्योंकि जब एक या दो ही संतान होगी तो फिर मंझला कहां से आएगा। 11 August 2019

...सिर्फ अंगूठे हैं हम लोग


विपत्ति कभी कहकर नहीं आती। कब कहां किसके सामने आकर सुरसा की तरह मुंह फाड़कर खड़ी हो जाए, कहना मुश्किल है। खुद पर विपत्ति आने से परेशान होना तो लाजिमी है ही, संवेदनशील लोग अपनों के किसी बड़ी विपत्ति में फंस जाने पर भी परेशान हो उठते हैं। आप भी सोच रहे होंगे कि मैं कहां का उपदेश बांचने लगा, लेकिन ऐसी बात है नहीं। मेरा इस तरह का उपदेश देने का कोई नैतिक अधिकार है भी नहीं। लेकिन तुलसी बाबा कह गए हैं, कहेहु से कछु दुख घटि होई...सो अपनी पीड़ा आपलोगों के सामने रखने से खुद को रोक नहीं सका। काफी दिनों बाद कल मॉर्निंग वॉक के लिए पार्क में गया तो वहां मेरा प्रिय मित्र टपलू मिल गया। सावन के सुहाने महीने में उसके चेहरे पर मुर्दानगी देखकर मैंने वजह जाननी चाही तो पहले तो वह टालता रहा, लेकिन काफी जिद करने पर उसने जो कुछ बताया, उससे मेरा दिल भी बैठ गया। कुछ दिन पहले टपलू के फुफुरे भाई को अचानक कैंसर डायग्नोस हुआ, वह भी करीब-करीब अंतिम स्टेज का। किसान परिवार, जो रोजाना का जरूरी खर्च ही जैसे-तैसे निकाल पाता है, इस वज्र विपत्ति का सामना कैसे कर पाता। फिर बिना उपचार के यूं ही भगवान या भाग्य भरोसे भी तो किसी को छोड़ा नहीं जा सकता। यह बीमारी जान तो जब लेती है, तब लेती है, उससे पहले परिवार का सब कुछ खत्म कर देती है। फिर भी घर वालों ने ‘जब तक सांस तब तक आस’ सोचकर जैसे-तैसे पैसे का इंतजाम कर इलाज शुरू किया। टपलू ने बातचीत के दौरान अपने बेटे को फुफेरे भाई की परेशानी बताई तो उसने जो संभव हो सका, मदद करने की बात कही। टपलू का बेटा आईटी सेक्टर में काम करता है। उसके रिश्तेदारों ने व्हाट्सएप ग्रुप बना रखा है। आए दिन सोशल मीडिया पर क्राउड फंडिंग की खबरें पढ़ने वाले इस युवा ने रिश्तेदारों के व्हाट्सएप ग्रुप पर पिता के फुफेरे भाई की बीमारी का हवाला देते हुए आर्थिक मदद की अपील की। जो लोग ग्रुप से नहीं जुड़े थे, उनको फोन पर इसकी जानकारी देते हुए हाथ बढ़ाने का आग्रह किया। लोगों ने इस पहल की सराहना की और मदद का भरोसा भी दिलाया। इसके बाद जब उसने व्हाट्सएप ग्रुप पर मदद के लिए बैंक डिटेल की जानकारी शेयर की तो महज दो-तीन लोग ही आगे आए। बाकी लोगों ने किसी न किसी बहाने से किनारा कर लिया और एक बड़ी पहल शुरू होने से पहले ही दम तोड़ गई। टपलू की व्यथा सुनकर मैं भी किंकर्तव्यविमूढ़ था। हमलोग यूं तो आधुनिक होने का दंभ भरते हैं, लेकिन जब सही अर्थों में आधुनिकता दिखाने का अवसर आता है, तो कछुए की तरह रूढ़िवादिता के कवच में घुस जाते हैं। हमारी खुद की आवश्यकताएं सबसे बड़ी दिखने लगती हैं। समूह भावना से सहयोग करके हम किसी अपने को कैसी भी बड़ी परेशानी से निकाल सकते हैं और भगवान न करे, हमारे खुद के भी परेशानी में फंसने की नौबत आई तो हमारे भी उस परेशानी से मुक्ति पाने की एक आशा अवश्य रहती है, लेकिन जब हम किसी अपने का सहयोग करने से इनकार कर देते हैं तो ऐसी संभावनाओं पर ही विराम लग जाता है। ऐसे में कवि शेरजंग गर्ग की यह कविता सहसा ही मेरे जेहन में धमाचौकड़ी मचाने लगी : खुद से रूठे हैं हम लोग, टूटे-फूटे हैं हमलोग सत्य चुराता आंखें हमसे, इतने झूठे हैं हमलोग इसे साध ले, उसे बांध ले, सचमुच खूंटे हैं हमलोग क्या कर लेंगी वे तलवारें, जिनकी मूठे हैं हमलोग मय-ख्वारों की महफिल में, खाली घूंटें हैं हमलोग हमें अजायबघर में रख दो, बहुत अनूठे हैं हमलोग हस्ताक्षर तो बन न सकेंगे, सिर्फ अंगूठे हैं हमलोग। 03 August 2019

साइड लोअर का सुख


ट्रेन में एसी का सफर न तो मेरी जेब को मुफीद बैठता है, न मन को ही यह भाता है। वहीं दिमाग का अपना तर्क होता है कि जब ट्रेन के सारे डिब्बे एक साथ ही मंजिल पर पहुंचाएंगे तो फिर एसी फर्स्ट, सेकंड की तो छोड़िए, थर्ड एसी में भी शयनयान श्रेणी की तुलना में तीन गुना अधिक आर्थिक बोझ क्यों उठाया जाए। ऐसे में सफर जनित परेशानियां जब तक मेरी सहनशक्ति की सीमा में होती हैं, मैं स्लीपर क्लास में ही रिजर्वेशन कराता हूं। इस बार भी स्लीपर का ही रिजर्वेशन था, लेकिन कल शाम करीब सात बजे रेलवे का एसएमएस आया, जिसमें थर्ड एसी का कोच नंबर और बर्थ का जिक्र था। बुकिंग वाला एसएमएस खंगाला तो पीएनआर नंबर मेरा वाला ही था। इसके बाद भी भरोसा नहीं हुआ तो खुद को दिलासा देने के लिए भारतीय रेलवे की वेबसाइट पर जाकर चेक किया तो पता चला कि पहले वाला रिजर्वेशन अपग्रेड हो गया है। न जाने कितने दिनों से यह नियम है, लेकिन शायद अपना भी नंबर आ ही गया था। इसके बाद भी धुकधुकी लगी थी कि कहीं "आधा छोड़ पूरे को धाए, पूरा मिले न आधा पाए " वाली नौबत न आ जाए। खैर, रेलवे महकमा भी शायद मेरी मनोस्थिति को भांप गया था, तभी तो ट्रेन की रवानगी के थोड़ी ही देर बाद टीटीई आ गया और उसने टिकट अपग्रेड होने की तस्दीक कर दी। हां, तो मैंने साइड लोअर बर्थ से बात शुरू की थी, लेकिन आदत से लाचार होने के बाद एक बार फिर बहक गया। एसी कोच में सफर के दौरान मुझे सबसे बुरा लगता है ज्यादातर यात्रियों का लंबी तानकर पड़े रहना। लगता है जैसे सफेद चादर ओढ़े मरीज आईसीयू में बेड पर लेटे हों। संकोच के मारे सहयात्री भी उनसे उठने को नहीं कहते। ऐसे में मेरे जैसा मुसाफिर मन मारकर अपनी नियति को भोगते हुए मन ही मन दुआ करता रहता है कि कब सफर पूरा हो और इस यातना से मुक्ति मिले। ऐसे में अपने वश में हुआ तो मैं लोअर बर्थ का ही रिजर्वेशन लेता हूं। इसमें अपनी मर्जी से उठने-बैठने की सुविधा रहती है। अपनी ही मानसिकता का कोई सहयात्री जो मिडिल बर्थ न खोले जाने से परेशान हो चुका होता है, उसे अपनी सीट पर बैठने की मोहलत देने से परोपकारी होने का सुख भी महसूस होता है। रेलवे ने रिजर्वेशन अपग्रेड करने के दौरान मेरी इस भावना का ध्यान रखा और एस-7 में साइड लोअर बर्थ नंबर 71 की जगह बी -2 में साइड लोअर बर्थ नंबर 23 मुझे अलॉट कर दी। हालांकि ट्रेन अब तक करीब साढ़े तीन घंटे लेट हो चुकी है, देखना है आगे टाइम मेकअप करती है या फिर देरी का सिलसिला ही जारी रहता है। 23 July 2019 Lucknow

धतपत हेमामालिनी...


आजकल तो जयमाला का ट्रेंड है जिसकी वजह से सभी बाराती बिना मुंहदिखाई दिए दुल्हन ही नहीं, उसकी सहेलियों तक के दीदार कर लेते हैं। स्मार्टफोन आ जने से सुविधा हो गई है कि जयमाला के कुछ क्षणों के अंदर ही फेसबुक-व्हाट्सएप के जरिये सैकड़ों किलोमीटर दूर रहने वालों को भी पता चल जाता है कि दूल्हा-दुल्हन की जोड़ी कैसी रही। ...लेकिन आज से 30-35 साल पहले ऐसा नहीं था। तब हमारे यहां जयमाला का प्रचलन नहीं था। बारातियों की कौन कहे, दूल्हा खुद शादी की रस्मों के दौरान भी दुल्हन की झलक पाने से महरूम रहता था। तब किसी लड़के की शादी होने पर मित्रों, पड़ोसियों के मन में सहज उत्कंठा होती थी - रब ने कैसी जोड़ी बनाई? सो बारात के लौटने के बाद चौक-चौराहे से लेकर खेत-खलिहान तक में तथाकथित नवविवाहित दूल्हे के मिलने पर लोग उससे दुल्हन के बारे में सवाल दागने लगते। दूल्हा भी अपने हिसाब से परिणीता के सौंदर्य का बखान करता। ऐसे ही एक संकोची युवक की शादी हुई तो लोगों ने उसकी नई-नवेली पत्नी के बारे में पूछा। तब तक गांव के लोग भी हिंदी फिल्मों और उनके किरदारों से परिचित हो चुके थे। शोले फिल्म आ चुकी थी और नौजवानों में ड्रीमगर्ल हेमामालिनी का जलवा था। सो उस युवक ने पत्नी के बारे में बताते हुए कहा-धतपत हेमामालिनी। यानी बिल्कुल हेमामालिनी की तरह। आजकल शादी-विवाह का सीजन चल रहा है। हाल ही हुई एक शादी समारोह की फोटो फेसबुक पर देखकर अचानक ही इस प्रसंग की याद आ गई। 30 June 2019

पहली संतान के साथ दूसरी रेल यात्रा


मानव जीवन में जो कुछ भी है, उसका प्रतिबिंब रेल यात्रा में बरबस ही नजर आ जाता है। हर बार एक नई यात्रा, एक नया अनुभव। ...इस बार पिछले रविवार को बरौनी-ग्वालियर मेल में मुजफ्फरपुर से रिजर्वेशन था। रेलवे की मेहरबानी कि ट्रेन निर्धारित समय से करीब बीस मिनट पहले ही पहुंच गई। थोड़ी ही देर में एक दंपती तीन-चार महीने के बच्चे के साथ आए। अबकी बिहार में भी भीषण गर्मी लोगों को बेदर्दी से झुलसा रही है। ऐसे में बच्चा गर्मी के कपड़ों में ही था। आम तौर पर भारतीय पति, खासकर बिहार के, घर के काम में रुचि नहीं लेते। सारा जिम्मा पत्नियां ही उठाती हैं, लेकिन ट्रेन के सफर में यह सिलसिला बदल जाता है। सफर के दौरान पति खुद ही अधिकाधिक दायित्वों का सहर्ष वहन करता है। वजह चाहे पत्नी को कमतर समझना हो या फिर दैनंदिन जीवन में पत्नी की कर्तव्य परायणता की क्षतिपूर्ति,पति खुद आगे बढ़कर सारे काम करता हुआ नजर आता है। हां, तो एसी थ्री में तापमान कुछ ज्यादा ही कम था। लेकिन इस सबसे बेखबर बच्चा अपनी मां की गोद में निश्चिंत था और पति महाशय तीन-चार बैग में से एक-एक कर ट्राई करने के बाद फुल बाजू की शर्ट, मोजे, टोपी आदि निकाल कर उसे पहना रहे थे। साथ ही पत्नी को सुनाते जा रहे थे कि हमारे परिवार वालों ने बच्चे का कितना ख्याल रखा है, इतनी सारी चीजें रख दी हैं। पत्नी का मायका पक्ष अपेक्षाकृत कमजोर था या कि उसकी मानसिक स्थिति अत्यधिक मजबूत थी, कि वह निर्विवाद पति का प्रलाप सुन रही थी। या फिर यह भी हो सकता है कि उसका इरादा गंतव्य पर पहुंचने के बाद पति को सूद सहित सुनाने का रहा हो। खैर, इसके बाद पति ने ही बैग से खाना निकाला और दोनों ने भोजन करना शुरू कर दिया। बच्चे को बर्थ पर लिटा दिया गया और पति स्मार्टफोन से वीडियो कॉलिंग करते हुए बच्चे की पल-पल बदलती मुखाकृति और मुस्कान को अपने परिवार वालों से शेयर करने में जुटा था। दिन भर की व्यस्तता के कारण हुई थकान की वजह से कब मुझे नींद आ गई, पता ही नहीं चला। सुबह जब नींद खुली तो सहयात्री बदल चुके थे। 14 June 2019

लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया...


लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया... शादी-विवाह का सीजन शुरू हो गया है। इससे जुड़ी यादें बरबस ही दिल को गुदगुदा देती हैं। तो चलिए, इनसे जुड़ी यादों की दुनिया के सफर पर चलते हैं। बचपन में मुझे नवविवाहिता दुल्हन को देखने का बड़ा चाव था। हालांकि इसके पीछे नारी सौंदर्य की झलक देखने की कोई लालसा नहीं थी, बल्कि इसके मूल में एक अलग तरह की मिठास थी। मिठास...? जी हां। घुनामुना की मिठास। घुनामुना कनिष्ठिका (कनगुड़िया) अंगुली की साइज का एक तरह का पकवान है, जिसे गेहूं के आटा में गुड़ मिलाकर फिर उसे तेल में तलकर बनाया जाता है। बिहार के जिस इलाके से मैं आता हूं, वहां जब नई दुल्हन आती है, तो उसे देखने आने वाली महिलाओं को घुनामुना दिया जाता है। घुनामुना का स्वाद मुझे काफी भाता था। इसलिए आस पड़ोस के जिस परिवार में भी लड़के की शादी होती, बड़ी चाची के साथ मैं चला जाता। उनके साथ मुझे भी घुनामुना मिलता, जिसे खाकर असीम संतुष्टि का अहसास होता। उम्र बढ़ने के बाद यह छूट खत्म हो गई। फिर मित्र या रिश्तेदारों के यहां होने वाले इक्का-दुक्का विवाह में दुल्हन देखने का अवसर मिल पाता। तब मुंहदिखाई देने के बदले मुंह मीठा करने का दस्तूर जरूर निभाया जाता, लेकिन उसमें दुल्हन के साथ आने वाली मिठाइयां-खाजा, लड्डू, बालूशाही आदि ही होते, घुनामुना नहीं। समय का पहिया यूं ही चलता रहा और रोजी-रोटी के चक्कर में घर छूटने के कारण यह सब छूट गया। 15-20 साल बाद अब नई दुल्हनों के दीदार एक बार फिर से होने लगे हैं। गांव-समाज से लेकर रिश्तेदारी तक में जहां भी शादी होती है, जयमाला के साथ ही कोई न कोई दुल्हन की फोटो फेसबुक और व्हाट्सएप पर डाल देता है। ...और सैकड़ों किलोमीटर दूर रहते हुए आभासी तस्वीरों को देखकर ही हम मांगलिक कार्यक्रम में खुद की हिस्सेदारी मान लेते हैं। चलते-चलते 1990 के दशक की बात है। स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर का षष्ठीपूर्ति समारोह के तहत हर तरफ आयोजन हो रहे थे। इस अवसर पर बीबीसी हिन्दी सेवा के Pervaiz Alam परवेज आलम जी ने लता ताई से साक्षात्कार के दौरान पूछा कि आपको कौन सा गीत सर्वाधिक पसंद है? इस पर लता ताई ने सदाबहार फिल्म ‘तीसरी कसम’ का शैलेन्द्र का लिखा यह गीत अपने मधुर स्वर में गुनगुनाया था- लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया...पिया के पियारी भोली भाली रे दुल्हनिया.... 25 April 2019

प्यार बांटते चलो...


प्यार बांटते चलो... रिश्तों में बढ़ती दूरी को लेकर कल फेसबुक पर कुछ लिखा था। कई लोगों ने मेरी भावनाओं से सहमति जताई और बतौर कमेंट खुलकर विचार रखे। पेश है एक कमेंट में प्रस्तुत विचार : 'अपना मान लेने से कोई अपना नहीं होता...जब तक वो सुख-दुख में आपके साथ न हो...अब लोगों की शादी और एंगेजमेंट की न्यूज फेसबुक और व्हाट्सएप की प्रोफाइल पिक्चर से मिलती है। ’ इसे पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इस विमर्श को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। सो, एक बार फिर आपका कुछ कीमती समय जाया करने के लिए हाजिर हूं। गांव में बिताए बचपन के दिनों को याद करता हूं तो शादी के दौरान जब बारात लड़की के दरवाजे पर आती थी तो दूल्हे की एक झलक पाने के लिए रास्ते में दोनों ओर लोगों का तांता लगा रहता था। इनमें महिला-पुरुष सभी होते थे।...और बिहार में दूल्हा अन्य प्रदेशों की तरह घोड़ी पर नहीं आता, ऐसे में कार में बैठे दूल्हे के दीदार हर किसी को संभव भी नहीं हो पाते थे। फिर भी लोगों के उत्साह और उमंग में कहीं कोई कमी नहीं दिखाई देता था। हमारे यहां तब बारात शादी के अगले दिन भी रुकती थी। ऐसे में दूसरे दिन सुबह 11 बजे के बाद से ही दूल्हे को देखने के लिए गांव भर से झुंड की झुंड लड़कियों और महिलाओं का आना शुरू हो जाता, जो देर शाम तक जारी रहता। इनमें जाति, ऊंच-नीच और अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं होता। इसी तरह लड़के की शादी के बाद जब नई-नवेली दुल्हन ससुराल आती तो उसे देखने के लिए कई दिनों तक मजमा लगा रहता। बिना किसी खातिर तवज्जो की अपेक्षा के इन सभी का बस एक ही अरमान होता-खुशी की घड़ियों में सहभागी बनना। मशहूर शायर मुनव्वर राना कहते हैं : तुम्हारे शहर में मय्यत को सब कांधा नहीं देते हमारे गांव में छप्पर भी सब मिलकर उठाते हैं। आज हम लोग विभिन्न कारणों से गांव छोड़कर शहर में रहने को विवश हैं। इसके बावजूद हमें इस बात की चिंता किए बगैर कि कौन हमें अपना मानता है या नहीं, हमें खुद आगे बढ़कर एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागी बनने का अपना गंवारापन बचाए रखना है, तभी हम सही मायने में खुश रह पाएंगे। ...और फिर समाज और दुनिया में हर जगह खुशहाली ही खुशहाली होगी। 24 April 2019 Lucknow

रिश्तों में बढ़ती दूरी


उससे बात किए काफी दिन हो गए थे। रविवार शाम फोन किया तो उधर से आवाज साफ नहीं आ रही थी। शायद बैकग्राउंड में बहुत ही तेज म्यूजिक बज रहा था। पूछने पर उस नौजवान ने बताया कि कलकत्ता में हूं। चाचा की बेटी की शादी है। उसी में आया हूं। आवाज ठीक से सुनाई नहीं देने के कारण ‘बाद में बात करते हैं’ कहकर मैंने फोन काट दिया, लेकिन मेरे मन में एक हलचल सी मच गई। उसने बहन की शादी या फिर चचेरी बहन की शादी कहने के बजाय चाचा की बेटी की शादी क्यों कहा, जबकि उसके एक ही सगे चाचा हैं। विचारों का झंझावात कुछ इस तरह उमड़ने-घुमड़ने लगा मानों फोन के उस तरफ का कोलाहल मेरे मन में उतर आया हो। गत फरवरी में मेरे भतीजे की शादी थी। शादी की तारीख चूंकि काफी पहले तय हो गई थी और इसमें मुझे जाना ही था। आम तौर पर घर से दूर रहने वाले जब अपनों से बात करते हैं तो पहला सवाल यही होता है कि गांव कब जा रहे हो? ...तो जब भी ऐसे प्रियजनों से मेरी बात होती और मैं कहता कि भतीजे की शादी में जाना है तो वे पलटकर दूसरा सवाल दाग देते-तुम्हारा भतीजा तो अभी बहुत छोटा है। उनका कहना भी गलत नहीं था क्योंकि मेरे सहोदर छोटे भाई का बेटा बमुश्किल 12 साल का है। ...लेकिन चचेरे भाइयों के बेटों से लेकर आस-पड़ोस के भाइयों के बच्चे भी मेरे भतीजे ही तो हैं। यही नहीं, फुफेरे-ममेरे-मौसेरे भाइयों के बेटों तथा जीवन के अब तक केसफर में मिले मित्रों के बेटों को क्या भतीजे से इतर मान सकता हूं मैं। ऐसे में अपने प्रियजनों की शंका का समाधान करते हुए बताता कि बड़े भैया के बेटे की शादी है। तब जाकर उनकी जिज्ञासा का शमन हो पाता। ऐसे में उस नौजवान से बात करने के बाद मैं सोचने लगा कि आखिर रिश्तों के दायरे इस कदर क्यों सिमटते जा रहे हैं? वसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र देने वाली भारतभूमि के बाशिंदों ने अपनी सोच को इतना संकुचित क्यों कर दिया है? उम्मीद है इन सवालों का जवाब मिलेगा...लोगों के सोच का दायरा विस्तृत होगा। ...आखिर उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है। अगली कड़ी प्यार बांटते चलो .... 23 April 2019 Lucknow

ससुरारि पियारि भई जब ते...


काफी दिनों बाद आज सुबह टपलू का फोन आया। अस्वस्थता और व्यस्तता के कारण उससे बात नहीं कर पाया था, सो मैं भी उसका हाल जानने के लिए काफी उत्सुक था। अभी कुछ दिनों पहले उसने बड़ी धूमधाम से अपनी इकलौती बेटी की शादी की थी। मैंने उसका हाल पूछा तो हां-हूं में जवाब देने के बाद वह देश-दुनिया और सियासत-चुनाव का मुद्दा उठातेे हुए घुमा-फिराकर बातें करने लगा। हालांकि मुझे उसकी आवाज कुछ बुझी हुई सी लगी। टपलू ने बताया , शदी के बाद बिटिया के रंग-ढंग ही बदल गए हैं। खुद तो कभी फोन करती नहीं, मैं या तुम्हारी भाभी जब कभी फोन करती हैं, तो ऐसे बात करती है, जैसे उसे बहुत जल्दबाजी में हो। उसने अपनेवॉट्सएप की डीपी तक से हमारे साथ वाली तस्वीर हटा दी। फेसबुक पोस्ट में भूलकर भी कभी हमलोगों का जिक्र नहीं करती। दरअसल सेंटिेमेंटल-संवेदनशील लोगों के साथ यही दिक्कत होती है। छोटी-सी बात को भी दिल से लगा बैठते हैं। मैंने उसे दिलासा दिया-भाई,, नई-नई शादी है। तुम्हें खुश होना चाहिए कि वह अपने जीवन साथी और परिवार केसाथ खुशहाल जिंदगी जी रही है। ...और फिर शादी के बाद युवक-युवती के स्वभाव में बदलाव कोई आज तो हुआ नहीं है। यह तो सदियों से होता रहा है। तभी तो तुलसी बाबा लिख गए हैं- ससुरारि पियारि भई जब ते। रिपु रूप कुटुंब भए तब ते॥ हां, पहले यह सब मन ही मन होता था ढंके-छिपे। सभी अपने काम में इतने व्यस्त रहते थे कि फुरसत किसे थी कि इन बदलावों पर गौर करे, लेकिन आजकल की आभासी दुनिया में सोशल मीडिया पर हर पल होने वाली अभिव्यक्ति सहज ही इस बदलाव का अहसास करा देती है। ऐसे में इसे दिल से लगाकर दुखी होना सही नहीं है। आभासी दुनिया से मिले इस दर्द की दवा भी वहीं मौजूद है। एक से एक कहानियां भरी पड़ी हैं, उन्हें पढ़ो और मस्त रहो। 09 April 2019 Lucknow

एक पीढ़ी का अवसान


राधा बाबा के साथ एक पीढ़ी का अवसान कहा जाता है कि मूल से अधिक ब्याज प्रिय होता है। पोता-पोती के प्रति बाबा (दादा) के स्नेह में इसे सहज ही महसूस किया जा सकता है। मुझे अपने बाबा के दर्शन का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन बचपन के दिनों को याद करता हूं तो बालगोविंद बाबा की छवि स्मृति पटल पर ऐसे उभर आती है, जैसे कल की ही बात हो। हम खुशकिस्मत थे कि हमें पट्टीदारी के दो पड़बाबाओं के पैर छूने का अवसर भी मिला। हाईस्कूल के दौरान पढ़ा था-चमन में फूल खिलते हैं, वन में हंसते हैं। कुछ उसी तर्ज पर कहूं तो शहरों में रिश्ते निभाए जाते हैं और गांवों में लोग रिश्तों को जीते हैं। इसी का असर था कि पट्टीदारी से लेकर टोला-मोहल्ला तक बाबाओं की भरमार थी। उनके मिलनसार मधुर स्वभाव के कारण बच्चों की उनसे निकटता बन पाती थी या फिर किन्हीं के गुस्सैल स्वभाव के कारण बच्चे दूर से ही किनारा कर लिया करते थे, लेकिन एक अपनापा का भाव तो होता ही था। समय की निरंत बहती धारा में एक-एक कर बाबाओं के विलीन होने का सिलसिला जारी रहा। पिछले साल जुलाई में गांव गया था, तब मुसाफिर बाबा के निधन के बाद बरबस ही लोगों के बीच चर्चा छिड़ गई थी कि अब हमारे बाबा की पीढ़ी में राधा बाबा ही बच गए हैं। संयोग से उस दौरे में मुझे उनसे आशीर्वाद लेने का सुअवसर मिल पाया था। पिछले सोमवार को गांव में किसी मित्र को फोन किया तो उसने बताया कि राधा बाबा नहीं रहे। बढ़ती उम्र के बावजूद राधा बाबा की सेहत ठीक-ठाक थी... लेकिन पिछले दिनों छोटे बेटे की असमय मौत के बाद वे अंदर ही अंदर घुलने लगे थे और चिंता रूपी घुन ने आखिरकार उन्हें अपना निवाला बना ही लिया। ...और उनके साथ ही एक पूरी पीढ़ी का अवसान हो गया। परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि उन्हें अपने चरणों में शरणागति प्रदान करें। 01 April 2019

अविश्वास की विरासत


लखनऊ से जयपुर के रास्ते में हूं। जीवन हो या ट्रेन का डिब्बा, गुलजार तो बच्चों से ही होता है। जिस कोच में हूं, उसमें कई बच्चे हैं। चूंकि मेरी बर्थ साइड लोअर है, सो मेरी नजरों का दायरा अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत है। बच्चों की गतिविधियों का आनंद लें रहा हूं। मेरी बर्थ पर एक सज्जन बैठ गये हैं। बगल की बर्थ पर बैठा उनका बेटा भी उनके पास आकर खड़ा हो गया है और हरियाणा रहा है। दसेक साल का यह बच्चा भी खास है, उसका किस्सा फिर कभी। ...तो हां, बच्चे ने पपींस निकाल कर खुद खाई है, पापा को भी दिया। इसी बीच उसकी नजर पड़ोस के बर्थ पर धूम मचा रहे तीन-चार साल के बच्चे पर पड़ती है। वह सहज ही एक पपींस निकाल कर उसे देने जाता है। बच्चा अपनी मां की ओर देखता है, और फिर आंखों का इशारा समझ कर पपींस लेने से मना कर देता है। बड़ा वाला बच्चा मायूस आंखों से पापा की ओर देखता है। पापा कहते हैं, रहने दो। बच्चा पापा की इजाजत लेकर खुद ही दूसरा वाला पपींस खा जाता है। वाकई पढ़-लिख कर हम इतने सभ्य हो गये हैं कि राह चलते किसी सहयात्री पर भरोसा नहीं कर पाते। अविश्वास की विरासत सहेजे ये बच्चे जब बड़े होंगे तो न जाने यह दुनिया कैसी हो जाएगी और उसमें एक-दूसरे पर भरोसे का माद्दा बचा रहेगा भी या नहीं... 20 March 2019

पिता की फ़िक्र, कैसे करें ज़िक्र


मेरा गांव भी इस मामले में सौभाग्यशाली है कि बड़ी संख्या में वहां के नौजवान सेना में कार्यरत हैं। और यह सिलसिला लंबे समय से चला आ रहा है। नई पीढ़ी के लड़के भी सेना भर्ती में चयन के लिए पसीना बहाते दिख जाते हैं। जब भी गांव जाता हूं तो दो-चार चार ऐसे लोगों से मुलाकात होती है, जिनके बेटे मिलिट्री फोर्स या फिर सीआरपीएफ में हैं। बातचीत के दौरान उनके चेहरे पर आत्मसंतोष और गौरव का भाव अनायास ही दिख जाता है। जैसे कहना चाहते हों कि आज के इस बेरोजगारी के जमाने में जब अच्छे अच्छे पढ़े लिखे, बड़ी डिग्रियों वालों को नौकरी नहीं मिलती, उनका बेटा नौकरी में है। बेटे के आर्मी में होने की वजह से मिलने वाली सुविधाओं की फेहरिस्त गिनाने में भी परहेज़ नहीं होता उन्हें। अभी दसेक दिन पहले भी भतीजे की शादी के सिलसिले में गांव जाना हुआ। लेकिन इस बार लगा जैसे माहौल में पहले जैसी रवानी नहीं हो। पुलवामा में चालीस जवानों की शहादत का असर जैसे वातावरण में घुल गया हो। ऐसी ही एक सुबह पड़ोस के चाचाजी से हुई। वे दुग्ध संग्रह केन्द्र में दूध देने जा रहे थे। उनका बेटा भी सेना में है। प्रणाम करने के बाद हाल चाल पूछा तो पुलवामा कांड की चर्चा करते हुए बेटे को लेकर उनकी चिंता जैसे उनकी आवाज पर पहरा लगाती महसूस हुई। मैंने उन्हें दिलासा दिया कि ऊपर वाले ने जितनी उम्र किस्मत में लिख रखी है, उससे पहले कोई किसी का बाल बांका नहीं कर सकता। और जहां तक अकाल मृत्यु की बात है तो आतंकी और नक्सली हमले में ही लोग नहीं मरते, आए दिन सड़क हादसे में भी जानें चली जाती हैं। फिर शहीदों की शहादत पर अपने ही नहीं रोते, अनजाने लोगों की आंखें भी नम हो जाती हैं। वहीं विभिन्न हादसों में मरने वालों के प्रति वैसी सहानुभूति नहीं होती। उनके चेहरे के बदलते भावों से लगा कि मेरी बातों से उन्हें कुछ सुकून मिला है। संभव है एयर स्ट्राइक की घटना ने भी उन्हें तसल्ली बख्शी हो, लेकिन युद्ध के माहौल में किसी जवान के माता पिता की चिंता की अनदेखी कदापि नहीं की जा सकती। 04 March 2019

वैशाली से वैशाली की यात्रा


ट्रेन जहां हमें एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाती है, वहीं इनका खुद का सफर भी चुपचाप चलता रहता है। हर ट्रेन का अपना इतिहास भी होता है, लेकिन कुछ घंटों के लिए इसे अपना हमराही बनाने वाले मुसाफिरों को कहां फुरसत होती है इसे खंगालने की। ट्रेन के सफर में होने वाली दुश्वारियां उसे इस कदर पसंद कर देती हैं कि हर यात्री चाहता है कि कब उसकी मंजिल आए और इससे निजात मिले। इसके लिए हमारी सरकार और रेलवे के अधिकारी- कर्मचारी जिम्मेदार हैं, वहीं यात्रियों में सिविक सेंस की कमी भी खुद अपने ही लिए परेशानियों का सबब बन जाती है खैर, छोड़िए इन बातों को। आज तो हम वैशाली एक्सप्रेस के बारे में बात करते हैं। पहले रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र ने बड़े अरमानों से वर्ष 1969 में अपने सपनों की रानी इस ट्रेन की शुरुआत की थी, ताकि बिहार के लोगों का दिल्ली तक का सफर खुशगवार हो सके। बिहार ही नहीं, पूरे देश में काफी लोकप्रिय रहे ललित बाबू ने इसका नाम भी बड़ा कमाल का रखा था- जयन्ती जनता एक्सप्रेस। जयन्ती उनकी अर्धांगिनी का नाम था और जनता जिसके लिए ट्रेन चलाई गई। किसी जमाने में इस ट्रेन में सफर करना स्टेटस सिंबल हुआ करता था। बदलते हुए समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। नया जमाना इस बात को कैसे बर्दाश्त कर पाता कि किसी ट्रेन का नाम किसी राजनेता की पत्नी के नाम पर हो। लोकतंत्र के पहरुओं को ट्रेन के नाम में जनता से पहले जयन्ती का होना राजशाही के डंक सरीखा लगता था। सो इस ट्रेन का नाम बदल कर लोकतंत्र की जन्मभूमि वैशाली के नाम पर रख दिया गया। तब से यह वैशाली एक्सप्रेस के नाम से ही जानी जाती है। पचास साल के अपने सफ़र में भोपाल एक्सप्रेस के बाद यह दूसरी ट्रेन है, जिसे इसकी खूबियों, सुविधाओं और पंक्चुअलिटी के लिए वर्ष 2012 में ISO 9000 सर्टिफिकेट मिला था। मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूं कि लोकतंत्र की जननी वैशाली जिले में मेरी भी जन्मभूमि है। और यह भी सुखद संयोग है कि पहले रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र का ननिहाल इसी गांव में है। अपने नवासे के रेल मंत्री होने पर हमारे गांव के लोगों ने सपना संजोया था कि रेलवे के नक्शे पर हमारे गांव का भी नाम होगा, लेकिन ललित बाबू के असामयिक अवसान ने इस सपने पर हमेशा हमेशा के लिए ग्रहण लगा दिया। बहुत बाद में जब राम विलास पासवान हाजीपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद चुने जाने के बाद रेल मंत्री बने तो रेल बजट में उन्होंने हमारे इलाके में नई रेल लाइन की घोषणा की थी, लेकिन वह कागजों से बाहर नहीं आ पाई। देखना है, सियासत के दांव-पेंच के भंवर से कब यह फाइल निकले और हमारा गांव भी रेलवे के मानचित्र पर नजर आए। 19 February 2019

ट्रेन का सफर ‌: गजब का कॉकटेल


करीब तीन महीने बाद एक बार फिर लखनऊ से जयपुर की यात्रा पर हूं। इस बार मरुधर नहीं, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाम वाली कविगुरु एक्सप्रेस है। कामाख्या से रवाना हुई ट्रेन करीब ढाई घंटे विलम्ब से पांच बजे लखनऊ पहुंची। रात दो बजे तक नौकरी करने के बाद आंखें नींद से बोझिल हैं, लेकिन सहयात्रियों को इससे क्या लेना देना । वे तो अपनी मस्ती में हैं। यही नहीं, आधुनिक तकनीक एक अलग मुसीबत बनकर उभर आती है ट्रेन के सफर में। बगल में बैठे सहयात्री की परेशानी से बेखबर लोगों ने अपने अपने मोबाइल पर अपनी अपनी भाषा और पसंद के गाने चला रखे हैं। कभी बांग्ला तो कभी भोजपुरी गीत की टेर छेड़ रखी है। गणतंत्र दिवस है, सो कुछ लोग हिंदी गाने बजाकर देशभक्त होने का फर्ज निभा रहे हैं। रही सही कसर परस्पर और फोन पर हो रही बातचीत पूरा कर दे रही है। हर आदमी अपनी अपनी भाषा में जोर जोर से अपने अपनों को सफर का आंखों देखा हाल बयां कर रहा है। सासु जी घर से निकलते समय बहू को डांटना भूल गई थी,‌सो ट्रेन से ही कोटा पूरा कर रही हैं। पति को घर में शायद पत्नी से खुलकर बात करने की आजादी या फिर कहें तो मोहलत नहीं मिल पाती ‌होगी, सो सरेआम प्यार लुटा रहा है। बच्चे अपनी ‌मस्ती‌ में हैं। स्लीपर क्लास में यात्रियों के जीवन का जिम्मा वेंडरों पर ही है। इसलिए हर दस मिनट में कोई पानी लेकर आ जाता है तो कोई आलूचप, कटलेट और समोसे की आवाज लगाने लगता है। चाय-काफी वाले तो एक के बाद एक हाजिर रहते ही हैं। 26 January 2018 Lucknow

जुग जुग जीओ


जुग जुग जीओ हमारे बचपन के दिनों में प्रणाम करने का मतलब हाथ जोड़ना नहीं, बल्कि पैर छूना ही हुआ करता था और बदले में आशीर्वाद देने में कोई कंजूसी नहीं होती थी। पड़ोस की एक दादीजी अक्सर मेरी दादीजी से मिलने आया करती थीं। हम बच्चे जब उनके पैर छूते तो वे अपने बालों पर हाथ फिरातीं और जो दो-चार बाल उनके हाथ में आते, उन्हें हमारे सिर पर रखते हुए ‘लखिया हो’ कहकर हमें असीसतीं। इस आशीर्वाद से उनका मतलब होता ‘लाख वर्ष जीओ’। ऐसे ही एक चाचाजी पैर छूने पर कहते-‘खुश रहो, आबाद रहो, यहां रहो चाहे इलाहाबाद रहो’। एक अन्य चाचाजी आशीर्वाद देते-मस्त रहो, माखन मिश्री खाओ। बीतते हुए समय के साथ एक-एक कर वे सभी संसार सागर से मुक्ति पाकर परमपिता परमेश्वर के धाम में पहुंच गए, लेकिन उनकी स्मृति के मधुर संगीत की घंटी आज भी दिल में जब-तब बज उठती है। बदलते हुए समय के साथ बहुत कुछ बदल गया। अब न तो किसी के अभिवादन में उस तरह की विनम्रता दिखती है और न ही आशीर्वाद देने वालों में वैसी उदारता। दोनों ही महज औपचारिकता निभाते से दिखते हैं। अभी 31 दिसंबर की अर्द्धरात्रि को अपने बड़े भाई, अभिभावक और संरक्षक को भेजे वॉट्सएप संदेश के बदले ‘जुग जुग जीओ’ का आशीर्वाद मिला तो बरबस ही ये पुरानी यादें ताजा हो आईं। 02 January 2019

जो कुछ भी नहीं जानता, वही शहंशाह


दीपावली के बाद जयपुर से लखनऊ लौटते समय रेलवे आरक्षण की प्रतीक्षा सूची लंबी होने के कारण धुकधुकी लगी थी। ईश्वर की कृपा से अंतिम समय में रिजर्वेशन तो मिल गया, लेकिन पूरी बर्थ नहीं मिल पाई। साइड लोअर बर्थ पर आधी सीट मिलने से मन में सहज चिंता व्याप रही थी कि कहीं वजनदार सहयात्री हुआ तो यात्रा में मुश्किल हो सकती है। अपने लिए निर्धारित बर्थ पर बैठा ही था कि 25-26 साल का एक युवक जिसके पास काफी माल-असबाब था, बर्थ के नीचे सामान जमाने के साथ ही खुद भी जमकर बैठ गया। चूंकि ट्रेन में अच्छी-खासी भीड़ थी, और निकटवर्ती दो-तीन स्टेशनों तक जाने वाले यात्री बिना रिजर्वेशन के भी साधिकार कब्जा जमा लेते हैं, सो मैंने उस युवक से रिजर्वेशन के बारे में पूछा। उसने बड़ी आसानी से कंप्यूटराइज्ड ई-टिकट का प्रिंट आउट दिखाया, जिसमें वेटिंग सौ के ऊपर थी। उसके मोबाइल में बैलेंस नहीं था, सो पास बैठे एक अन्य यात्री ने अपने मोबाइल से उसका पीएनआर नंबर डालकर चेक किया तो पता चला कि रिजर्वेशन अब भी कन्फर्म नहीं हुआ था। ऐसे में उस यात्री (जो खुद भी रिजर्वेशन काउंटर का प्रतीक्षा सूची का टिकट लिए था) ने युवक को रेलवे के नियमों का हवाला देते हुए जनरल का टिकट लेने की सलाह दी। दरअसल रिजर्वेशन कन्फर्म न होने पर पैसा टिकट बनाने वाले के खाते में खुद-ब-खुद चला जाता है और ई-टिकट धारक यात्री की गिनती बेटिकट में होती है। लेकिन उक्त युवक ने इस सलाह पर ध्यान दिए बगैर ठसक से कहा कि वह रिजर्वेशन कन्फर्म न होने के बावजूद पहले भी ऐसे ही टिकट पर लखनऊ से बनारस तक का सफर कर चुका है। ट्रेन अपने तय समय से रवाना हुई और लखनऊ तक के सफर में दो-तीन बार टीटीई भी हमारी बोगी में आया, लेकिन उसने उस युवक से टिकट मांगने की जरूरत नहीं समझी, फिर भला वह युवक टिकट दिखाकर ’आ बैल मुझे मार‘ जैसी जुर्रत क्यों करता। कुल मिलाकर टीटीई को रेलवे के नियमों से क्या लेना-देना। यात्रियों की सुविधा के अनुसार नियम-कायदे में सरकार की ओर से कितनी भी सख्ती और प्रावधान क्यों न किए जाएं, टीईटी का तो एक सूत्री कार्यक्रम खुद की जेब भरना ही होता है। वहीं, आईआरसीटीसी की साइट पर ई-टिकट बनाने का धंधा करने वाले नियमों से अनभिज्ञ यात्रियों को बेवकूफ बनाकर और सरकार को चूना लगाकर अपनी तिजोरी भरने में लगे रहते हैं। ऐसे में कबीरदास के इस दोहे चाह मिटी, चिंता मिटी, मनवा बेपरवाह। जिसको कुछ नहीं चाहिए, वही शहंशाह॥ में थोड़े बदलाव की छूट लेकर यही कहना चाहता हूं : नियमों को जो जानते, सदा ही भरते आह। जो कुछ भी नहीं जानता, वही शहंशाह।। Nov. 12 2018

संगीत का आठवां सुर


ज्योति से ज्योति जलाते चलो मन जब हर तरफ से परेशान हो जाता है तो संगीत के सात सुर उसे सुकून का अहसास कराते हैं। यही संगीत जब किसी जरूरतमंद और उसके परिवार के भरण-पोषण का जरिया बनता है तो आठवां सुर बनकर उसके जीवन में नया रस घोल सकता है। जुलाई के अंत में लखनऊ से जयपुर जाने के दौरान मरुधर के अंतहीन इंतजार के दौरान देर रात करीब दो बजे मैंने चारबाग स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर हरदोई के भेलावां निवासी दृष्टिहीन बिजनेस कुमार को मासूम बिटिया के साथ देखा था। पिता-पुत्री के बीच क्षणिक मर्मस्पर्शी संवाद को मैंने अपनी फेसबुक वॉल पर पोस्ट भी किया था। सहज ही मेरे मन में उनके लिए कुछ करने के भाव उत्पन्न हुए। चर्चा के दौरान पता चला कि संगीत में उनकी रुचि है। महत्वाकांक्षा और खुद्दारी के धनी इस शख्स से मैंने उनका मोबाइल नंबर ले लिया। हालांकि व्यक्तिगत व्यस्तताओं में कुछ इस कदर उलझ गया कि...। हाल ही जब मैंने हरदोई जिले के ही रहने वाले समाजसेवा में अग्रणी और दफ्तर में मेरे सहयोगी Vaibhav Shanker वैभव अवस्थी जी से इस बारे में बात की तो बिजनेस कुमार के जीवन में छाए अंधियारे को दीपावली पर स्वरोजगार के दीपक से रोशन करने की योजना बनी। एक से बढ़कर एक मददगार आगे आने लगे। लखनऊ में मेरे मकान मालिक श्री कृष्ण स्वरूप माथुर, मेरे लंगोटिया यार Amrendra Mishra अमरेंद्र कुमार मिश्र के साथ ही दफ्तर के सहयोगी सर्वश्री सुधीर कुमार Sudhir Kumar, वैभव शंकर अवस्थी, सुबीर कुमार शर्मा Subeer Sharma, पुनीत गुप्ता Puneet Gupta, दीपा जी, सौरभ दीक्षित Saurabh Dixit, अतुल मोहन सिंह , महावीर पाराशर Mahaveer Parashar , आदर्श प्रकाश सिंह Adarsh Prakash Singh, विवेक गुप्ता Vivek Gupta और मनोज श्रीवास्तव Manoj Srivastava ने जनकल्याण के इस यज्ञ में आर्थिक सहायता की आहुति दी। ...और इसका सुपरिणाम यह हुआ कि शनिवार को बिजनेस कुमार को लखनऊ बुलाकर उन्हें उनकी पसंद का वाद्य यंत्र सौंप दिया गया। बिजनेस कुमार की अर्द्धांगिनी भी दृष्टिहीन हैं, लेकिन ईश्वर की कृपा से उनकी दोनों बच्चियां और सबसे छोटा बेटा पूरी तरह से स्वस्थ हैं। ऐसे में उनकी जिंदगी को पटरी पर लाने के लिए मदद की यह मुहिम जारी रहेगी।

जड़ से जुड़ाव


बाबूजी के शिक्षक होने से बेहतर पारिवारिक पृष्ठभूमि और पढ़ाई में मेरी ठीक-ठाक छवि के कारण अपनी मार्केट वैल्यू अच्छी थी। नतीजतन इंटरमीडियट की परीक्षा पास भी नही की थी कि शादी के लिए लड़की वालों का आना शुरू हो गया था। शादी-ब्याह के मौसम में कॉलेज में छुट्टी होने पर जब भी घर आता, दो-चार लड़की वालों का सामना करना ही पड़ता। तब न तो आज की तरह फोटो खिंचाना इतना आसान हुआ करता था, न ही शादी वाले लड़कों के बायोडाटा बनवाने की सुविधा थी। शादी डॉट कॉम जैसी वेबसाइटों की तो बात ही नहीं सोची जा सकती थी। ऐसे में फोटो और बायोडाटा के आदान-प्रदान का चलन काम ही था। सो, आम तौर पर नाते-रिश्तेदारों और पड़ोसियों के बताने पर ही लोग अपनी शादी योग्य बिटिया के लिए लड़का देखने के लिए निकलते थे। अमूमन ऐसे शुभ कार्यों के लिए लड़की वाले अकेले नहीं निकलते, सो अपने साथ तथाकथित होशियार स्वजनों को भी ले लेते थे, जिनका दायित्व लड़के का साक्षात्कार लेना होता था। मुझे भी ऐसे दर्जनों साक्षात्कार का सामना करना पड़ा। बाद दीगर है कि शादी की तय उम्र पूरी करने के सात साल बाद ही मुझे सात फेरे लेने का अवसर मिल पाया। एक बार लड़की वाले मुझे देखने आए थे। घर में बड़ा होने के कारण उनकी खातिर-तवज्जो भी मुझे करनी थी। इन औपचारिकताओं के बाद मुझसे सवाल-जवाब का सिलसिला शुरू हुआ। बाबूजी भी वहीं बैठे थे। नाम, पढ़ाई की स्ट्रीम, कॉलेज आदि के बारे में पूछने के बाद सवाल आया-आपका मूल क्या है? सवाल मेरे सिर के ऊपर से निकल गया। बाबूजी आश्चर्यचकित थे कि मैं (उनके हिसाब से) इतने आसान सवाल का जवाब क्यों नहीं दे पाया। उन्होंने मेरी ओर देखा, लेकिन मेरे चेहरे पर उस सवाल का उत्तर न जानने का भाव साफ दिख रहा था। उन्होंने पूछा, क्या तुम अपना गोत्र नहीं जानते हो? मैंने तपाक से कहा, गोत्र तो जानता ही हूं। उन्होंने मेरी शंका दूर की कि हर व्यक्ति किसी ऋषि की संतान है और उसी ऋषि के नाम पर उसके गोत्र का निर्धारण हुआ है। इसे ही ‘मूल’ भी कहते हैं। इस तरह मुझे गोत्र और मूल के समानार्थी होने का पता चला। बाबूजी के देवलोकगमन के बाद पिछले छह साल से आश्विन महीने में पितृपक्ष में तर्पण करता हूं तो पिता और माता दोनों पक्ष की तीन पीढ़ियों को जलांजलि देने के साथ ही पिंडदान करना होता है। हर आदमी तो इतने महान कर्म नहीं कर पाता कि आने वाली पीढ़ियां दर पीढ़ियां उसे याद रख सकें, लेकिन पूर्वजों केप्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह कर्तव्य हमें आश्वस्त करता है कि जब हम भी नहीं रहेंगे, तो आने वाली तीन पीढ़ियों तक हमारा भी नामलेवा रहेगा। फेसबुक पर एक वरिष्ठ मित्र के गोत्र को लेकर गए पोस्ट को पढ़ने के बाद सहज ही दिमाग में ये विचार उत्पन्न हुए तो इसी मंच पर उन्हें रखने से खुद को नहीं रोक सका। 01 November 2018

सबसे ऊंची प्रेम सगाई..


‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ यानी संपूर्ण धरती को ही अपना परिवार मानने वाली सनातन संस्कृति में अपने-पराये, सगे और गैर की बात करना बेमानी सा लगता है। फिर ‘सगा’ शब्द का प्रचलन कैसे शुरू हुआ होगा। जब किसी के पिता ने तीन शादियां की हों और तीनों ही पत्नियां एक-दूसरे की संतान को अपने कोखजाये संतान से ज्यादा प्यार करती हों और बच्चा ही गच्चा खा जाए कि उसकी अपनी मां कौन है। फिर आस-पड़ोस के लोगों की कौन कहे, बच्चे की मां को लेकर उनमें भ्रम होना स्वाभाविक ही है। शायद इसीलिए ‘सगा’ शब्द इस्तेमाल में आने लगा होगा। पौराणिक आख्यानों पर नजर डालें तो त्रेता युग में राजा दशरथ की कहानी कुछ ऐसी ही तो है। तुलसी बाबा ने रामचरितमानस में लिखा भी है कि कैकेयी अपने बेटे भरत से भी ज्यादा राम को प्यार करती थीं या फिर कहें तो वे राम को कौशल्या से भी ज्यादा प्यार करती थीं। समय का चक्र कहें कि मंथरा की बातों में आकर उन्होंने अपने उसी प्रिय पुत्र को चौदह साल के वनवास पर भेज दिया। कौशल्या और सुमित्रा भी अपनी और अन्य महारानियों की संतान में कोई भेद नहीं करती थीं। द्वापर युग की बात करें तो वसुदेव की पत्नी देवकी ने कारागार में कृष्ण को जन्म दिया, लेकिन मां-बेटे के प्यार की मिसाल देने की बात कभी आती है तो लोगों की जुबां पर देवकी का नहीं, कृष्ण के साथ ममता की मूर्ति यशोदा का नाम ही आता है। हजारों साल बीतने के बाद भी जसुमति मैया और किशन कन्हैया के स्नेह की लीला तब जीवंत हो उठती है जब भागवत कथा के दौरान कृष्ण जन्म और नंदोत्सव का प्रसंग आता है। पुराने दिनों की कौन कहे, आज के इस आधुनिक युग में भी कई ऐसे मामले देखने में आते हैं, जहां कोई महिला अपने और सौतेले बच्चे में कोई भेद नहीं करती। अपनी संतान से भी अधिक स्नेह सौतेले बच्चे पर लुटाती है। कई बार तो बिना किसी रिश्ते के भी प्रेम का रिश्ता पनप जाता है और अपनों से भी कहीं अधिक प्रगाढ़ हो जाता है। शायद इसीलिए दो सर्वथा भिन्न परिवार, परिवेश, समाज में पले-बढ़े युगल जब एक-दूसरे से जुड़ते हैं, तो प्रेम की पींगें भरने की राह में पहली रस्म सगाई की ही होती है, ताकि दोनों एक-दूसरे के सगा मान सकें। ...और मानने भी लगते हैं। एक लड़की मां-बाबुल की गलियां छोड़कर सदा-सर्वदा के लिए पिया के आंगन में चली आती है और लड़का भी अब तक के सभी रिश्तों को दरकिनार कर अपने सपनों को साकार करने की जिम्मेदारी अपनी प्राणप्रिया को सौंप देता है। परस्पर प्रेम के बंधन में बंधकर एक-दूसरे के सगे हो जाने का यह सिलसिला युवा-युवती के बीच ही नहीं, बल्कि मित्र-मित्र, सखी-सहेली, सेवक-स्वामी और यहां तक कि भक्त और भगवान तक पहुंच जाता है। तभी तो सूरदास जी अपनापन के सभी रिश्तों पर प्रेम के रिश्ते को भारी मानते हुए कहते हैं : सबसे ऊंची प्रेम सगाई। चलते-चलते : ऑफिस के वॉट्सएप ग्रुप पर एक सहयोगी के सगाई की तस्वीर और उस पर मिल रही बधाइयों को देखकर सहसा ही ये विचार मन में उमड़ने-घुमड़ने लगे। ...और फिर आप मित्रों से इन्हें साझा करने से खुद को नहीं रोक पाया। October 14, 2018 · Lucknow

हां कि ना


Mohan Manglam September 29, 2018 · हां कि ना वैसे तो हर दिन शुभ होता है, फिर भी हम कोई काम शुरू करने से पहले तिथि, दिन, शुभ मुहूर्त का विचार करना नहीं भूल पाते। मेरे एक प्रियजन ने सावन में आम के पौधे लगाने की सोची। शुभ मुहूर्त की जानकारी के लिए वे विशेषज्ञ से मिले तो सलाह दी गई कि जिस हिन्दी महीने के अंत में न हो, उसमें पौधरोपण नहीं करना चाहिए। ...और इस तरह पौधरोपण का कार्यक्रम आगे बढ़ गया। सावन में पौधरोपण न करने के पीछे शास्त्रीय कारणों के बारे में तो मुझे नहीं पता, लेकिन व्यावहारिकता की धरातल पर सोचें तो सावन का महीना धान आदि खरीफ की फसल के लिए महत्वपूर्ण होता है। ऐसे में आम के पौधे लगाने पर उनकी देखभाल के कारण खरीफ फसल की निकाई-गुड़ाई आदि से ध्यान न बंट जाए, शायद इसीलिए सावन में फलदार वृक्षों के पौधरोपण का निषेध किया गया होगा। सावन के अलावा हिन्दी पंचांग में तीन और महीने ऐसे हैं, जिनके अंत में न आता है- आश्विन, अगहन और फागुन। ...और इन तीनों महीनों में भी अलग-अलग कारणों से कुछ कार्यों की मनाही है। आइए, डालते हैं एक नजर : आश्विन निषेध : भादो पूर्णिमा से पितरों केप्रति श्रद्धा निवेदित करने का महापर्व पितृपक्ष शुरू हो जाता है, जो आश्विन माह की अमावस्या तक चलता है। कई स्थानों पर ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। हकीकत : भारतीय सनातन परंपरा कृतज्ञता पर आधारित है। अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा-समर्पण, पिंडदान-तर्पण के प्रति एकाग्रता बनी रहे, मन दूसरे सांसारिक कार्यों में न भटके, शायद इसीलिए पितृपक्ष के दौरान शुभ कार्यों का निषेध किया गया होगा। और धीरे-धीरे यह परंपरा में शामिल हो गया। अगहन निषेध : शास्त्रीय मान्यताओं केअनुसार भगवान राम और जगज्जननी जानकी का विवाह अगहन शुक्ल पक्ष पंचमी को हुआ था। इस तिथि को विवाह पंचमी भी कहा जाता है। बिहार में अमूमन इस महीने में विवाह-शादी के आयोजन नहीं होते। हकीकत : सीताजी को शादी के कुछ दिनों बाद ही पति के साथ वनवास पर जाना पड़ा और फिर अपहरण की दुखद त्रासदी झेलनी पड़ी। यही नहीं, बाद में राम ने उन्हें तब वन में अकेली छुड़वा दिया, जब सीता के गर्भ में जुड़वां पुत्र लव-कुश पल रहे थे। सीताजी की शादी अगहन में हुई थी और उन्हें इतनी परेशानियां झेलनी पड़ीं, शायद इसीलिए अगहन में शादी का निषेध कर दिया गया। फागुन निषेध : रंगों के त्योहार होली के लिए प्रसिद्ध फागुन राग-फाग और मस्ती का महीना माना जाता है। मगर फागुन पूर्णिमा के आठ दिन पहले होलाष्टक के बहाने गृह प्रवेश, शादी-विबाह जैसे मांगलिक कार्य वर्जित होते हैं। हकीकत : माघ शुक्ल पंचमी से ही होली की मस्ती का सुरुर छाने लगता है। मनुष्य की कौन कहे, आम के वृक्ष में मंजर आने के साथ ही वातावरण में मस्ती छा जाती है। ...लेकिन मनुष्य की अपनी मजबूरियां हैं। यदि वह पूरी तरह मस्ती में डूब जाए तो रोजमर्रा की जरूरतें कैसे पूरी होंगी। सो दैनंदिन जीवन के कार्य करने भी जरूरी होते हैं। फिर भी होली की मस्ती से मुंह तो नहीं मोड़ा जा सकता। शायद इसलिए होलाष्टक का प्रावधान किया होगा जिससे बाकी चीजें भूलकर होली का आनंद लिया जा सके। चलते-चलते : एक मित्र को घर में रिनोवेशन का कुछ काम कराना था। सुबह उन्हें फोन किया तो उन्होंने कहा कि पितृपक्ष में काम कैसे शुरू होगा। ...और फिर चिंतन की चक्की चल पड़ी। उससे जो कुछ निकला, उसे आप मित्रों से साझा करने से खुद को नहीं रोक पाया। हां, बदलते हुए समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। ऐसे में निषेध संबंधी इन मान्यताओं को छोड़कर व्यावहारिक होने में कोई बुराई नहीं है। वरना आज की इस भागम भाग वाले जीवन में साल के चार महीने यूं ही व्यर्थ चले जाएंगे। September 29, 2018 ·

मां डांटती ही नहीं, भगा भी देती है


पिछले महीने उनके बेटे का उपनयन था। आयोजन बिहार स्थित पैतृक गांव में होना था। मैंने सहज ही पूछ लिया कि कितने दिन गांव में रुकेंगे तो बोले- मेरा तो ज्यादा दिन तक रुकना नहीं हो पाएगा, लेकिन पत्नी और बच्चे 10-15 दिन रुकेंगे। उनका बेटा 12वीं की परीक्षा दे चुका था, रिजल्ट आने में देरी थी और बिटिया की गर्मी की छुट्टी चल रही थी, सो कोई बाधा भी नहीं थी। खैर, उन्होंने जिस तारीख को लौटने की बात कही थी, मैंने फोन किया तो पता चला कि कार्यक्रम बदल गया है। वहां बहुत गर्मी है। बिजली भी लगातार नहीं रहती। सभी परेशान हो गए। ऐसे में खुद का टिकट कैंसिल कराकर तत्काल में दो दिन बाद का टिकट लिया है। सभी साथ आ रहे हैं। अभी तीन-चार दिन पहले एक बुजुर्ग सज्जन से बात हुई। वे करीब चार दशक पहले नौकरी के सिलसिले में रांची गए तो फिर वहीं के होकर रह गए। उन्हें भी जून में अपनी माताजी की बरसी के सिलसिले में मुजफ्फरपुर जाना था। उनके दूसरे भाई वहीं रहते हैं। उनसे पूछा कि गांव जाने का मौका मिला या नहीं, तो वे बोले-गया तो जरूर था, लेकिन महज तीन-चार घंटे ही रुक पाया। स्वास्थ्य ठीक नहीं रहने की वजह से यात्रा की अवधि में कटौती कर जल्दी ही रांची लौट गया। ये दो उदाहरण तो महज बानगी हैं। कई अन्य मित्रों-प्रियजनों से बातचीत में अक्सर ऐसा ही सुनने को मिलता है। लंबी अवधि के बाद अपने गांव ही नहीं, कस्बे या शहर में भी अधिक दिनों तक रुकने का उनका मन नहीं होता। आखिर ऐसी क्या वजह है, जिसके चलते लोग उस धरती पर, उस परिवेश में नहीं रह पाते, जहां उन्होंने बचपन और किशोरावस्था ही नहीं, बल्कि जवानी के भी कुछ साल बिताए हों। तब तो वहां सुविधाएं भी आज की बनिस्पत काफी कम थीं। जहां तक मैं सोच पाता हूं, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अपनी जन्मभूमि से लोगों का लगाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। भारतीय संस्कृति में जन्मभूमि को मां का दर्जा दिया गया है...और जब हम इस मां से दूर होते जाते हैं तो एक समय ऐसा आ जाता है, जब यह जन्मभूमि रूपी मां भी हमें अपनाने से इनकार कर देती है। वहां की प्रकृति हमारी प्रकृति से मेल नहीं खाती और फिर एकमात्र उपाय बच जाता है वहां से खिसक लेने का। काश! ऐसा नहीं हो पाता। 15 July 2018 Lucknow

गणित का ज्ञान : अभिशाप या वरदान


फेसबुक पर हम कुछ लिखते हैं और उसे लोग लाइक करते हैं तो मन खुश हो जाता है। दस-बीस कमेंट्स आ जाते हैं तो सीना बरबस ही छत्तीस इंच से छप्पन इंच का होने लगता है, लेकिन यदि कोई आपकी फेसबुक वॉल पर पोस्ट किए गए विचारों को लेकर घर आकर लानत-मलामत करने लगे तो फिर उसे लेकर जो कुछ होता है, उसे केवल महसूस ही किया जा सकता है। आज मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ। मैंने जो महसूस किया उसे शब्दश: तो नहीं बता सकता, फिर भी कोशिश करता हूं कि आभासी दुनिया के मित्र भी इससे दो-चार हो सकें। दरअसल एक बच्चे के मेडिकल प्रवेश परीक्षा-नीट में चयन को लेकर हाल ही मैंने अपने विचार फेसबुक पर पोस्ट किए थे। उस पोस्ट में हमारे जीवन में गणित की उपादेयता को रेखांकित करने की कोशिश की थी। बस वे सज्जन इसी बात को लेकर चिढ़े हुए थे। पोते-पोती की कई दिनों की ट्रेनिंग के बावजूद स्मार्टफोन के इस्तेमाल में उनका हाथ कुछ तंग है, सो वे मेरे फेसबुक पोस्ट से अपनी नाइत्तेफाकी जताने के लिए खुद ही हाजिर हो गए थे। उनका कहना था कि गणित ने सबका बेड़ा गर्क कर दिया है। हमारे जीवन में आज जो भी परेशानियां हैं, उसका एकमात्र कारण गणित ही है। जिसे देखो, दिन-रात गणित भिड़ाने में ही लगा रहता है। मैंने उसे छह बार फोन किया, उसने मुझे कितनी बार याद किया? मैं उसके यहां पिछले छह महीने में सात बार गया और वह मेरे यहां कितनी बार आया? मैंने उसके बेटे के बर्थडे पर ढाई सौ रुपये का गिफ्ट दिया था, और वह मेरे बच्चे के जन्मदिन पर तीस रुपल्ली की किताब टिका गया। मैंने उसकी बिटिया की शादी में हजार रुपये की शादी गिफ्ट की थी। और वह... न जाने कब से घर के कबाड़ में पड़ा क्रॉकरी सेट निर्लज्जता से टिका गया था। इतना ही नहीं, अपने दैनंदिन जीवन में आदमी हर पल हर काम होने वाले काम में लाभ-हानि का हिसाब लगाता रहता है। बच्चे भी आजकल करिअर का चयन करने से पहले पढ़ाई के बाद मिलने वाले पैकेज का हिसाब लगाते हैं। अध्ययन के फलस्वरूप होने वाले ज्ञान-अर्जन, विचारों के विकास और मानव-सेवा की भावना के बारे में किसी को सोचने तक की फुरसत नहीं है। प्रोफेशनलिज्म इस कदर हावी हो गया है कि खून के रिश्ते और दिल के संबंध भी इससे अछूते नहीं रहे। संतान अपने बूढ़े माता-पिता की जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाने के फिराक में रहते हैं। गणित की वजह से होने वाली न जाने कितनी परेेशानियां उन्होंने गिना डालीं। उनके तर्कों ने मुझे भी सोचने पर विवश कर दिया। वाकई...हमने अपनी सोच को इतना संकुचित कर लिया है कि उदारता का भाव कहीं तिरोहित हो गया है, लेकिन इसमें गलती गणित की नहीं है। स्वार्थ के हावी होने से यह स्थिति उत्पन्न हुई है और जितनी जल्दी इससे उबर सकें, उतना ही अच्छा। 13 June 2018 Lucknow

सितारों के आगे जहां और भी है...


मां के गर्भ में भ्रूण के आकार लेने के साथ ही गणित का दखल शुरू हो जाता है। माता-पिता से लेकर घर-परिवार के लोग नई किलकारी गूंजने का दिन गिनने लगते हैं। फिर जन्म के बाद-बच्चा कितनी बार रोया, कितनी बार दूध पीया, कितनी बार सोया...और गिनती का यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है जीवन भर। हर कदम पर गणित से चाहे-अनचाहे वास्ता पड़ता ही रहता है। शायद इसीलिए मानव जीवन में गणित को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। हर मां-बाप की तमन्ना होती है कि उसकी संतान गणित में मास्टरी हासिल करे। उनकी भी यही तमन्ना थी, लेकिन नौवीं के फाइनल एग्जाम के रिपोर्ट कार्ड में बेटे को गणित में ही सबसे कम अंक थे। माता-पिता के चेहरे मुरझा गए। क्या करेगा बेटा? कैसा होगा उसका भविष्य? चिंतातुर पिता ने बड़े भाई से परेशानी शेयर की। बड़े भाई ने ज्यादा दुनिया देखी थी, सो अनुभव का हवाला दिया...सितारों के आगे जहां और भी है। ...लेकिन खुद उनका ही मन कहां मान रहा था। दो-चार दिन इसी उधेड़बुन में बीते। फिर एक परिचित ज्योतिषी मित्र के पास पहुंचे। ज्योतिषी महोदय ने बड़े ही बेतकल्लुफी के अंदाज में कहा-बच्चा गणित में कमजोर है तो क्या हुआ? उसे डॉक्टर बनाइए। बच्चे को साइंस में हर बार की तरह इस बार भी काफी अच्छे अंक आए थे। पूछा-बायोलॉजी पसंद है। उसके हामी भरने पर सलाह दी-छोड़ो गणित का चक्कर, बायोलॉजी में मन लगाओ। ...और इस तरह नींव पड़ गई उसके डॉक्टर बनने की। बच्चे ने दसवीं के बोर्ड एग्जाम में कमाल का जौहर दिखाया। इससे उत्साहित परिवार वालों ने मेडिकल की कोचिंग में दाखिला दिला दिया। स्कूल के साथ कोचिंग भी चलती रही। बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में इतने अच्छे अंक आए कि बच्चा ही नहीं, घर वालों का सिर भी गर्व से ऊंचा हो गया। इसके साथ ही पहले ही प्रयास में मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में भी प्रदर्शन अच्छा रहा। बीडीएस में तो आसानी से एडमिशन हो सकता था, लेकिन एमबीबीएस का लक्ष्य भेदना बाकी था। सामान्य श्रेणी के बच्चों को जो दुश्वारियां झेलनी पड़ती हैं, उसे देखते हुए घर वालों ने बीडीएस में नाम लिखवा लेने की सलाह दी कि कहीं अगली बार यह मौका भी न चूक जाए, लेकिन बच्चे को अपनी मेधा पर भरोसा था। कहा-एक चांस लेने दीजिए। परिवार वालों का साथ मिला तो खुद भी जान लगा दी। अब तो स्कूल जाने का भी लफड़ा नहीं था। बस घर से कोचिंग और कोचिंग से घर। इसके बाद बचे समय में केवल पढ़ाई। न स्मार्टफोन से नाता न व्हाट्सएप और फेसबुक का शौक। मेहनत रंग लाई और इस बार जब नीट का रिजल्ट आया तो 99.1 परसेंट अंक के साथ ऑल इंडिया 1082 रैंक आने से बच्चे के सुनहरे भविष्य की राह खुल गई। परिवार वालों की कौन कहे, अड़ोसी-पड़ोसी और नाते-रिश्तेदार भी एक-दूसरे को बधाइयां दे रहे हैं, खुशियां मना रहे हैं। शायद इसीलिए कहा गया है, प्रगति के रास्ते कभी बंद नहीं होते। हम ही अपनी आंखें बंद कर लेते हैं। संभावनाओं को टटोल नहीं पाते। जो संभावनाएं देखकर विकल्प तय कर लेते हैं और दृढ़ संकल्प के साथ उसे पाने के लिए खुद को समर्पित कर देते हैं, उन्हें मंजिल जरूर मिलती है। 07 June 2018

पिता


पिता पिता कब सो पाते हैं चैन की नींद बुनते रहते हैं संतान के लिए सपने और उन सपनों को सच करने के लिए खुद को तपाते-खपाते रहते हैं रात-दिन इस बीच कब खो जाता है खुद का अस्तित्व अहसास ही कहां हो पाता है आखिर बीज अपना अस्तित्व मिटाकर ही तो वृक्ष बन पाता है । 05 June 2018 Lucknow

खुशियों का सोता छिपा है जहां...


सुबह-सुबह उसका फोन आया, लेकिन आवाज काफी बुझी हुई थी। पिछले दो-ढाई महीने से जब भी उससे बात होती, उसकी खुशी मोबाइल के स्पीकर से होकर मेरे कानों में अमृत घोलती सी महसूस होती थी। जबसे बेटे की शादी तय हुई थी, उसका उत्साह सातवें आसमान पर था। जब भी बात होती तो कभी बैंड-बाजे तो कभी हलवाई, कभी टेंट वाले तो कभी गाड़ियों वाले से साटा-बयाने की चर्चा करता। कभी बहू के लिए गहनों की खरीदारी तो कभी बहन-बेटियों, रिश्तेदारों को देने के लिए कपड़ों की शॉपिंग ही बातचीत के विषय होते थे। ऐसे में आज उसकी बुझी हुई आवाज सुनने के बाद मेरे मन में अज्ञात आशंकाएं सिर उठाने लगी थीं। हिम्मत करके पूछा कि सब कुछ ठीक तो है? उसने कहा-सब ठीक है, लेकिन बेटा और बहू के जाने से घर की रौनक ही गायब हो गई है। मेरी जान में जान आई। बोला-भाई, नए जमाने के बच्चे हैं। दोनों ही नौकरी करते हैं। ढाई-तीन हफ्ते रुके। यह क्या कम है। आजकल एमएनसी में इससे अधिक छुट्टी मिलती कहां है। फिर वे कोई बहुत दूर नहीं गए हैं। महज एक कॉल की दूरी पर हैं। जब मन हो, बात कर लिया करो। अब तो जियो की मेहरबानी से बहुत ही सस्ते में वीडियो कॉलिंग की सुविधा भी है। फिर क्या दिक्कत है? लगे हाथ मैंने पूछ लिया, बहू से पिछले एक हफ्ते में कितनी बार बात की है? वह जैसे चौंक उठा। बोला, बहू से क्या बात करूं? हां, बेटे से रोज ही उसके ऑफिस से लौटने के बाद रोज ही बात होती है। उससे ही दोनों का हाल पता चल जाता है। मैंने कहा, बेटे के जन्म के समय तुम्हारे घर में जैसा उत्सव मना था, उसकी यादें आज भी मेरे मन में ताजा हैं। उसके तीसेक साल बाद बेटे की शादी में ही तेरे घर में खुशियों की ऐसी बरसात हुई। बहू के आगमन की आहट से तुम्हारे आंगन में रंगीनियां बिखरने लगी थीं...और उसी बहू से बात करने में इतना संकोच। तुम्हें सोचना चाहिए कि जो लड़की अपने मां-बाप, घर-परिवार को छोड़कर तुम्हारे परिवार का हिस्सा बनी है, उसके मन का अकेलापन दूर करने की जिम्मेदारी तुम्हारी भी है। बाकी चीजों में मॉडर्न बनते हो और बहू से बात करने में इतनी झिझक। अरे, जिस तरह अपनी बेटी से बात करते हो, वैसे ही बहू से भी बात करो। तभी तो उसके मन में तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के प्रति अपनापन के भाव जगेंगे। और तुम्हारे दिल से भी बेटे-बहू के दूर रहने का अहसास खत्म हो जाएगा। 20 May 2018 Lucknow

गुस्सा कैसे थूक दें


गैलरी में खड़े एक बुजुर्गवार मोबाइल फोन पर किसी को समझा रहे थे-अब गुस्सा थूक भी दो। आप बेवजह ही उसकी बात को इतना महत्व देते हो। वह तो इस लायक है ही नहीं। मैं तो उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं देता....। बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं कि किसी की बातचीत नहीं सुननी चाहिए, लेकिन जब ये बात कही गई थी, तब मोबाइल फोन नहीं हुआ करते थे। आज जब मोबाइल हमारी दिनचर्या में शामिल हो गया है, तो लोग इसे यूज करने के एटिकेट्स नहीं जानते। और जो जानते भी हैं, वे भी इनका पालन करने में अपनी तौहीन समझते हैं। कई बार तो इतनी ऊंची आवाज में बात करते हैं कि सुनने वाला बिना मोबाइल फोन के भी उनकी बातें सुन ले। खैर, 15-20 मिनट बाद दुबारा किसी काम से उधर जाना हुआ तो देखा कि बुजुर्गवार अब भी मोबाइल पर पिले हैं। पहले से भी अधिक ऊंची आवाज में बार-बार एक ही नसीहत पेले जा रहे हैं-अरे भाई, गुस्सा थूक दो। उनके इस अड़ियल रवैये ने मुझे भी सोचने पर विवश कर दिया कि इतना समझाने के बाद भी आखिर वह शख्स गुस्से को क्यों नहीं थूक पा रहा है। उस शख्स की क्यों, कोई भी इस तरह गुस्से को नहीं थूक सकता और इसकी पुख्ता वजह भी है। दरअसल गुस्सा मन में जन्म लेता है और बड़ी ही तेजी से दिल और दिमाग में पहुंच जाता है। इसके बाद गुस्सा से पीछा छुड़ाना इतना आसान नहीं हो पाता। और फिर अंजाम...बुखार जब शरीर में हो तो उतारना आसान होता है, लेकिन दिमाग में चला जाए तो...फिर तो यह जान लेकर ही मानता है। यही हाल दिल का है। शरीर का कोई अंग काम करना बंद कर दे तो आदमी लाचार होकर ही सही, जीवन जी सकता है, लेकिन दिल काम करना बंद कर देता है तो जीवन की कहानी ही खत्म हो जाती है। इसी तरह गुस्सा जब मन में आए, तभी उसे खत्म करना आसान होता है, लेकिन जब गुस्सा दिल और दिमाग तक पहुंच जाता है, फिर तो आदमी अंजाम की फिक्र किए बगैर कुछ कर ही गुजरता है। भले ही बाद में इसके लिए पछताना क्यों न पड़े। ...तो कोशिश ऐसी होनी चाहिए कि गुस्सा आने ही न दें। हालांकि यह काम इतना आसान नहीं है, क्योंकि इसमें खुद से अधिक भूमिका उन लोगों की होती है, जिनकी वजह से हमें गुस्सा आता है। फिर भी अपने स्वभाव में गुस्सा को जगह न देने की कोशिश तो की ही जा सकती है। 05 May 2018

सूख गया स्नेह का एक और सोता


नदी की धारा को रोक पाना आसान होता है। देश-विदेश में विशालकाय बांध बनाकर बड़ी-बड़ी नदियों की धाराएं रोकी गई हैं, लेकिन समंदर को...उसका विस्तार इतना अधिक होता है कि उसे बांध पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन होता है। वहीं, नदियां अपने आंचल में मीठे जल का भंडार समाये होती हैं और मिठास को सीमा में बांधना कहीं आसान होता है। वहीं, नदियों का मीठा जल भी समुद्र में मिलने के बाद अपनी तासीर खो देता है। ...और फिर उस खारेपन के पारावार को किसी सीमा में बांध पाना दुश्वार हो जाता है। समंदर का यह खारापन हमारी आंखों की गहराइयों में भी समाया होता है, जिससे इसका स्वाद भी नमकीन हो जाता है। गमों की मार जब पड़ती है तो आंखों से यह नमक आंसुओं में घुलकर गालों से होता हुआ होठों तक का सफर करता हुआ बरबस ही अपने स्वाद का अहसास कराने लगता है। ऐसे क्षणों में आंसुओं की लड़ी थमने का नाम ही नहीं लेती। जीवन में कुछ क्षण ऐसे भी आते हैं, जब न चाहते हुए भी हम दुख के समंदर में उठ रही लहरों में डूबने-उतराने को विवश हो जाते हैं। पिछले कुछ दिनों से ऐसे ही दौर से गुजर रहा हूं मैं। इसी का नतीजा है कि न चाहते हुए भी जीवन में एक मौन सा पसर गया है। ...और वे अंतिम सफर पर चले गए 23 मार्च को लखनऊ से जयपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन लेट होने से मूड उखड़ा हुआ था। सो बैटरी खत्म होने के डर से मैंने फोन को स्विच ऑफ कर दिया था। दोपहर करीब 12 बजे आगरा पहुंचने के बाद फोन को ऑन किया तो वॉट्सएप पर मैसेज दिखा-मंझली मामी नहीं रहीं। मन खिन्न हो गया। अभी छह-सात दिन पहले ही तो उनसे बात की थी। सब कुछ ठीक था, फिर अचानक ऐसा कैसे हो गया...? उनकी ममता को याद कर बरबस ही दिल रो उठा। इसके तीसरे ही दिन एक और दुखद संदेश मिला कि बड़े मामा नहीं रहे। ऐसे में दुख दोहरा हो गया, लेकिन नियति के आगे किसकी चली है। परिस्थितियों ने पांवों में इस कदर बेड़ियां पहना दीं कि इन महान विभूतियों के अंतिम दर्शन की कौन कहे, इनके श्राद्धकर्म में भी शामिल नहीं हो सका। परमपिता परमेश्वर इन्हें अपने चरणों में स्थान प्रदान करें । 05 April 2018

नई पीढ़ी : घटती दृष्टि, बढ़ता विजन


नई पीढ़ी : घटती दृष्टि, बढ़ता विजन हालिया जयपुर यात्रा के दौरान दो युवा बुजुर्गों के सान्निध्य में कुछ पल बिताने का मौका मिला। इनमें से एक अनौपचारिक शिक्षा की बड़ी हस्ती हैं तो दूसरी बाल साहित्य की नामी शख्सियत। अंकलजीने दुनिया भर के शिक्षण संस्थानों में जाकर शिक्षा का अलख जगाया और उम्र के सातवें दशक में भी उसी चुस्ती-फूर्ति के साथ अपने मिशन में जुटे हैं। वहीं, दीदी वर्षों बाल पत्रिका का संपादन करने के बाद स्वाध्याय और साहित्य-साधना में लीन हैं। जब मैं अंकलजी के पास पहुंचा, तो वहां तीन अलग-अलग परिवारों के चार बच्चे भी थे। 7-8 साल से लेकर 17-18 वर्ष आयुवर्ग के इन बच्चों में दो समानताएं थीं। पहली, चारों बच्चे इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ने वाले। और दूसरी, चारों को नजर का चश्मा लगा हुआ। बच्चों के हाव-भाव और आपसी बातचीत से उनकी मेधा का सहज ही अंदाजा हो रहा था। आपस में और बड़ों से बात-व्यवहार के सलीके से लेकर प्रेजेंस ऑफ माइंड तक में कोई कमी नहीं। कंप्यूटर, लैपटॉप और स्मार्टफोन चलाने में सिद्धहस्त ये बच्चे आगे चलकर विभिन्न क्षेत्रों में नाम कमाएंगें। देश-दुनिया के बारे में इनका जितना ज्ञान होगा, मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूं कि इनकी उम्र में उसके पांच प्रतिशत की भी जानकारी मुझे नहीं थी। वजह, तब टेलीविजन तो बहुत दूर की बात है, रेडियो भी हर घर में नहीं हुआ करता था। अखबार और पत्रिकाओं की तो सोच भी नहीं सकते थे। ऐसे में सामान्य ज्ञान के विस्तार की गुंजाइश बहुत ही कम थी। हां, गुरुजनों के अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण के भाव ने पाठ्यक्रम आधारित पढ़ाई में हमें कभी पिछड़ने नहीं दिया। यह तो हुई विजन की बात। अब दृष्टि पर आते हैं। हमारे जमाने में प्राइमरी और मिडिल की कौन कहे, हाईस्कूल तक में याद नहीं आता कि हमारे किसी सहपाठी की आंखों पर चश्मा चढ़ा हो। हमारा हाईस्कूल आस-पड़ोस के दर्जनों गांवों में इकलौता था, इसलिए एक हजार से ज्यादा ही विद्यार्थी रहे होंगे, लेकिन उनमें इक्का-दुक्का ही चश्मा लगाते रहे होंगे। यहां तक कि कॉलेज और विश्वविद्यालय के दिनों में भी यह तादाद ज्यादा नहीं बढ़ पाई थी। जहां तक मैं समझ पाता हूं, नई पीढ़ी की आंखें कमजोर होने के पीछे खान-पान की उनकी आदतें भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं। आजकल बच्चे खाने के मामले में काफी चूजी हो गए हैं, जबकि हमारे समय में संयुक्त परिवार होने की वजह से भोजन में विकल्प की गुंजाइश बहुत कम होती थी। नतीजतन जो भी बनता, बच्चों को खाना ही पड़ता, लेकिन इसका सुफल उनके अच्छे स्वास्थ्य के रूप में मिलता। 07April 2018 lucknow

पर उपदेश कुशल बहुतेरे


तुलसी बाबा ने वर्षों पहले यह अर्द्धाली लिखी थी, लेकिन आज भी इसकी प्रासंगिकता ज्यों की त्यों है। रोजमर्रा के जीवन में तो इससे सामना होता ही है, ट्रेन में सफर के दौरान अमूमन हर बार इसका खास अनुभव होता है। खासकर जब कोई यात्री बिना रिजर्वेशन के स्लीपर कोच में घुस आए या फिर जिसका टिकट कन्फर्म नहीं हो, तब वह दया, करुणा, मानवता के इतने उदाहरण गिनाने लगता है कि सहज ही उसके महान संत होने का अहसास होता है। इस बार भी जयपुर से लखनऊ आते वक्त कुछ ऐसा ही हुआ। जयपुर-लखनऊ त्रिसाप्ताहिक ट्रेन राइट टाइम चल रही थी। रात में मिडिल बर्थ पर सोने की वजह से पीठ अकड़ सी गई थी। सुबह करीब आठ बजे ट्रेन जब कानपुर पहुंची तो सोचा कि अब लोअर बर्थ पर बैठकर पीठ सीधी करने के साथ ही कुछ नाश्ता-पानी भी करूंगा। मगर, इसी बीच दो सफेदपोश बुजुर्गों ने आकर डेरा जमाया और फिर आवाज देकर एक महिला समेत तीन और हमउम्रों को भी बुलाकर बिठा लिया। उनकी उम्र का लिहाज करते हुए मैं खिड़की साइड में सिकुड़ा हुआ था। पहनावे और व्यवहार से सभी संभ्रांत लग रहे थे। अब तक उनकी बतकही शुरू हो चुकी थी। वैसे तो सभी बातूनी थे, लेकिन सबसे अधिक मुखर बुजुर्ग ने विदेशों का उदाहरण देना शुरू कर दिया कि जापान में लोग सड़क पर गंदगी नहीं फैलाते। लंदन में ट्रेन की सफर के दौरान किस हद तक अनुशासन का पालन करते हैं। यहां तक कि घरमें टेलीविजन देखने के दौरान लोग ध्यान रखते हैं कि उसकी आवाज से पड़ोसियों की शांति में खलल न पड़े। लेकिन आत्म अनुशासन की इन पाबंदियों से दूर-दूर तक का इनका कोई लेना-देना नहीं था। तीस साल पहले छह रुपये की एमएसटी से लेकर आज के जमाने में सबसे अच्छे एसी तक पर उनकी बहस जारी थी। मेरे साथ आ रहे सहयात्रियों में से दो ने ऊपर वाली बर्थ पर फैल जाने में भलाई समझी और दो सहयात्रियों ने उन तथाकथित एमएसटी धारियों से अखबार लेकर शायद उनके सामने आत्मसमर्पण कर दिया था। ऐसे लोगों के व्यवहार से कुढ़ने के बजाय मैंने पूरी तरह से अनदेखी करना ही उचित समझा। बर्थ पर बैठना तक मुश्किल हो रहा था, सो नाश्ता का कार्यक्रम मैंने मुल्तवी कर दिया और नया ज्ञानोदय के हालिया अंक का पारायण करने में ही भलाई समझी। ट्रेन भी शायद उनका मंतव्य समझ चुकी थी और जल्दी से जल्दी उनसे निजात पाकर नए यात्रियों को लेकर अगले सफर पर निकलने को उतावली थी। समय से गंतव्य आने पर मैंने भारतीय रेलवे का धन्यवाद किया और अगली मंजिल के लिए चल पड़ा। 30 March 2018 Lucknow

आधी आबादी : बढ़ता वजूद


भगवान राम की मां का नाम क्या था ? इतना भी नहीं जानती ? उनका नाम कौशल्या था। अजी, इसी बात का तो अफसोस है। सारी दुनिया यही कहती है, लेकिन यह अधूरा सच है। कोसल नरेश की पुत्री होने के नाते उन्हें कौशल्या कहा जाता है। मैं तो उनका असली नाम जानना चाहती हूं। तब तो फिर तुम कैकेयी और सुमित्रा के नाम को भी उनके असल नाम नहीं मानोगी ? बिल्कुल। कैकेय देश के राजा की बेटी होने के कारण भरत की मां कैकेयी कहलाईं और सौमित्र देश की बेटी होने के चलते लक्ष्मण और शत्रुघ्न की मां को सुमित्रा कहा गया। मैं तो यह जानना चाहती हूं कि उनके असली नाम क्या थे, जो कहकर उनके माता-पिता उन्हें बुलाते रहे होंगे। दो सहेलियों के बीच बहस का मुद्दा बने इस सवाल-जवाब ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर विवश कर दिया। रामचरितमानस बचपन से ही मेरा प्रिय ग्रंथ रहा है। न जाने कितनी बार व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से तुलसी बाबा के इस अमर ग्रंथ का पारायण किया होगा, लेकिन महिला पात्रों के नामों को लेकर इस नजरिये पर कभी मेरा ध्यान गया ही नहीं। शायद पुरुष होने के कारण यह सवाल मेरे जेहन में न आया हो, मगर उस दिन जब उनकी बातचीत सुनी तो इस पर सोचने से खुद को नहीं रोक सका। त्रेता के बाद द्वापर युग की महान कृति 'महाभारत’ के महिला पात्रों पर मनन शुरू किया तो सामने आया कि हजारों साल बीतने के बाद भी महिलाओं को लेकर समाज का रवैया नहीं बदला। कुंती, गांधारी, द्रौपदी सरीखे नाम उनके पालक और पिता की महिमा के ही तो परिचायक और उनसे जुड़े हैं। इन नामों से क्या कभी उनके मां-बाप ने उन्हें पुकारा होगा? फिर कहां खो गये उनके असली नाम? यदि रामचरितमानस और महाभारत की कथा को मिथक ही मान लिया जाए और इनके पात्रों को काल्पनिक तो हमारे जमाने में यह सूरत कहां बदली थी। जहां तक मैं याद कर पाता हूं, मेरी दादीजी, ताईजी और मां को भी उनकेमायके के गांव के नाम से ही पहचान मिली। ...पुर वाली...। हां, कुछ मामलों में संतान होने के बाद यह पहचान थोड़ी बदल जाती थी। महिला को उसकी बड़ी बेटी के नाम से पुकारा जाने लगता था - फलानी की मां। शायद महिलाएं इसी बात से खुश हो जाती रही हों कि मेरा न सही, मेरी बेटी का नाम तो मुझसे जुड़ा। किसी न किसी रूप में नारी शक्ति को महत्व तो मिला। हमारी पीढ़ी के आने तक भी हालात नहीं बदले। मेरी दीदी ही नहीं, मुझसे छोटी बहन को आज भी उसकी ससुराल की महिलाएं बाजितपुर (मेरे गांव) वाली के नाम से ही पुकारती हैं। भाभियों की कौन कहे, मेरी पत्नी को भी पुकारते समय औरतें उसके मायके के नाम का पुछल्ला जोड़ ही देती हैं। पुरुष प्रधान सत्ता से बदला... हमारे समाज में महिलाएं अक्सर अपने पति का नाम नहीं लेतीं। इसके पीछे अलग-अलग तर्क दिए जाते हैं। लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, नारी के अवचेतन मन में कहीं न कहीं यह कील जरूर धंसी होगी कि जब पुरुष प्रधान समाज हमारे नाम को तवज्जो नहीं देता तो फिर हम भी उसके नाम को क्यों ढोते रहें। और प्रतिकार स्वरूप किसी महिला ने संकल्प लिया होगा कि सारी दुनिया भले ही उसके पति की बुद्धि और शौर्य का डंका पीटे, लेकिन वह अपनी जुबान से पति का नाम नहीं लेगी। और फिर कालांतर में पति का नाम न लेने की परंपरा बन गई होगी। ...और अब अपने नाम से मिल रही पहचान अब गांव जाता हूं तो बड़ा सुखद आश्चर्य होता है, जब आस-पड़ोस की वृद्धाओं को आपसी बातचीत में अपनी बहू का नाम लेते सुनता हूं। सासू मां की कौन कहे, ससुर जी को भी बहू का नाम लेकर पुकारने में संकोच नहीं होता । धीमे-धीमे ही सही, बदलाव बदस्तूर आ रहा है, लेकिन महज इस तरह की नई परिपाटी शुरू करने भर से काम नहीं चलने वाला । मुझे उन पलों का इंतजार है जब गांव- समाज की महिलाएं अपनी मेहनत के बल पर सफलता के नए कीर्तिमान स्थापित करेंगी और खुद अपने नाम से तो जानी ही जाएंगी, उनके पिता और पति भी अपनी बिटिया और पत्नी के नाम से अपनी पहचान बताने में फख्र महसूस करेंगे। 22 March 2018 Lucknow 90

जी तो करता है, सल्फॉस खा लूं


अजी, आप गलत समझ रहे हैं। ऐसा मैं नहीं कह रहा। जब से ये सात शब्द सुने हैं, मैं खुद विचलित हूं। मन को बहलाने की हर कोशिश नाकाम हो जा रही है। ये शब्द रह-रह कर दिमाग को दही किए हैं। समझ नहीं आ रहा, इससे कैसे छुटकारा पाऊं। तुलसी बाबा कह गए हैं, कहेहु से कछु दुख घटि होई...सो सोचा कि अपने दर्द का यह गुबार फेसबुक पर ही मित्रों से साझा करूं। बुधवार को दोपहर बाद करीब साढ़े तीन बजे कपड़े प्रेस कराने गया था। प्रेस कराने के बाद जब पैसे दिए तो धोबी ने उसे सिर से लगा लिया। आम तौर पर वह धोबी सुबह नौ बजे आ जाता है और अब शाम ढलने वाली थी। सो सहज ही मैंने पूछ लिया कि क्या अब तक ‘बोहनी’ नहीं हुई। यह सुनते ही उसका दर्द फट पड़ा। बोला-क्या बताऊं साहब। जी तो करता है सल्फॉस खा लूं। मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा कि काम में तेजी-मंदी चलती रहती है, इसे दिल से नहीं लगाना चाहिए। मैंने उसे तो समझा दिया लेकिन उसके शब्द शूल बनकर मुझे बींधने लगे। 26-27 के इस हंसमुख नौजवान के मन में आखिरकार इतनी निराशा क्यों घर कर गई। दुकान की छप्पर में खुंसे उसके मोबाइल पर कभी एफएम तो कभी मेमोरी कार्ड की बदौलत दिनभर गाने बजते रहते हैं। क ई बार देखता हूं, उसकी पत्नी शाम के समय दोनों बच्चों को लेकर दुकान पर आ जाती है। चार-पांच साल का बेटा जो इंग्लिश स्कूल में पढ़ता है, को वह अंग्रेजी के शब्द बखूबी समझाती है। पैरों में पैजनिया छमकाती दो-ढाई साल की प्यारी सी बिटिया पूरे वातावरण में संगीत घोल देती है। कमाई भी इतनी हो ही जाती होगी कि चार प्राणियों की दाल-रोटी चल जाए। फिर इस अवसाद और तनाव की वजह क्या है ? यह उस अकेले नौजवान की पीड़ा नहीं है। लगता है, जैसे हमारे समाज को ही अबूझे से अवसाद ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है। तभी तो होलिका दहन के दिन राजस्थान के सीकर में एक होनहार फोटोग्राफर ने मौत को गले लगा लिया। एक प्रतिष्ठित मीडिया ग्रुप में कार्यरत 34 साल के इस युवक को बेहतरीन फोटोग्राफी के लिए कई बार पुरस्कृत किया गया था। अब उसके वृद्ध माता-पिता, जवान पत्नी और पांच व तीन साल के बेटे-बेटी की देखभाल कौन करेगा। यदि अवसाद रूपी इस असुर का समय से संहार नहीं किया गया तो यह न जाने कितने युवाओं की जिंदगी लील जाएगा। 10 March 2018

बदलाव से ही मिटेगी बदहाली


पिछले साल नवंबर में पहली बार किसी एयरपोर्ट पर जाने का अवसर मिला था। एयरपोर्ट के दीदार से लेकर पहले हवाई सफर तक के अनुभव को मैंने कई किस्तों में फेसबुक मित्रों से साझा किया था। आज जब दुबारा लखनऊ एयरपोर्ट पहुंचा तो ध्यान आया कि यहां पिछली बार मिले युवक से हुई बहुत ही महत्वपूर्ण बातचीत को ही शेयर करना मैं भूल गया था। खैर...नवंबर में आधी रात करीब दो बजे ही एयरपोर्ट पहुंच गया था। अच्छी-खासी सर्दी थी। चहल-पहल भी न के बराबर। करीब साढ़े तीन बजे एक दुबला-पतला दरमियानी कद का युवक भारी-भरकम अटैची के साथ लाउंज में आया और मेरे बगल वाली कुर्सी पर बैठ गया। थोड़ी देर बात बातचीत शुरू हो गई। राजेश यादव नामक वह युवक देवरिया के किसी ग्रामीण इलाके का रहने वाला था। उसे लखनऊ से दिल्ली जाना था और वहां से जेद्दाह की फ्लाइट पकड़नी थी। वहां से फिर दूसरे विमान से सऊदी अरब के किसी शहर जाना था। मैंने उससे पूछा कि वह वहां कौन-सा काम करता है ? उसने बताया कि वह करीब साढ़े तीन साल से वहां बढ़ई (खाती) का काम कर रहा है। यह सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि देवरिया बिहार का सीमावर्ती जिला है और मैंने बचपन से ही यादवों को आम तौर पर खेती या पशुपालन का काम करते ही देखा है। कुछ लोग व्यापार भी करते हैं, लेकिन उनकी संख्या अंगुली पर गिनने लायक भी नहीं होती। राजेश की पहल ने मुझे बहुत प्रभावित किया। साथ ही आज बढ़ती हुई बेरोजगारी के दौर में काफी उपयोगी भी । बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदल रहा है। ऐसे में परंपरागत दायरे से हमें बाहर निकलना ही होगा। नए हुनर सीखने, नए क्षेत्र में हाथ आजमाने से ही रोजगार के अवसर बढ़ेंगे और फिर वर्षों से समाज में पांव जमाए बदहाली दूर हो सकेगी। सरकार और सरकारी योजनाओं के भरोसे रहने से कुछ नहीं होगा। तभी तो बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं-अपना हाथ जगन्नाथ। 05 February 2018 Lucknow

मातृदेवो भव से सेक्रेट सुपर स्टार तक


उपनिषद में श्रेष्ठजनों की अभ्यर्थना में सबसे पहले कहा गया है-मातृदेवो भव। जिस धरती पर हम जीवन बिताते हैं, उसे भी माता कहा गया है। मां की दूध के अलावा गाय की दूध बच्चों को पोषण प्रदान करती है और सनातन संस्कृति में गाय को भी माता कहा जाता है। पापों से मुक्ति दिलाने से लेकर मोक्ष तक प्रदान करने वाली गंगा को भी ऋषि-मुनियों ने मां का दर्जा दिया है। इन सभी को मां का पर्यायवाची मानकर माता की महिमा को ही स्वीकार किया गया है। गर्भ में भ्रूण के अस्तित्व में आने के साथ ही एक डोर के जरिये मां से नाता जुड़ जाता है, जिसे नाल कहा जाता है। इसी के सहारे गर्भ में शिशु का पोषण होता है। हालांकि जन्म के तत्काल बाद वह नाल काट दिया जाता है, लेकिन मां के साथ संतान का नाभि-नाल संबंध कभी खत्म नहीं होता। तभी तो 80 साल की उम्र में भी चोट लगने पर मुंह से‘उई मां’ ही निकलता है। हमारे पुरुष प्रधान समाज में बेटे को तरजीह दी जाती है। उसे अपेक्षाकृत अधिक सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, ताकि वह भविष्य में परिवार की जरूरतें पूरी करने लायक बन सके। परिवार की जिम्मेदारी पिता के कंधों पर होती है। मां के पास कोई दौलत नहीं होती, लेकिन वह ममता की अथाह दौलत अपने आंचल में सहेजकर रखती है और अपनी संतान पर इसे लुटाने में कभी गुरेज नहीं करती। यहां तक कि अपने हिस्से का भोजन भी बच्चों को दे देती है। बच्चों की बेहतरी के लिए पति या परिवार के मुखिया के सामने दबी आवाज में ही सही सही, तर्क रखने से पीछे नहीं पड़ती। ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं, जब मां ने बच्चों की पढ़ाई के लिए अपने गहने तक बेच डाले। फिल्म ‘सेक्रेट सुपरस्टार’ में जब नायिका को सम्मान लेने के लिए मंच पर बुलाया जाता है तो वह साफ-साफ कहती है कि इस खिताब की असली हकदार यानी सेक्रेट सुपरस्टार उसकी मां हैं, जिनकी बदौलत उसे यह मंजिल मिल सकी। यह दृश्य देखते हुए सहसा ही आंखें नम हो जाती हैं। महसूस होता है कि सदियां बीत जाने के बाद भी मां के प्रति सम्मान की भावना बरकरार है और जब तक यह सृष्टि है, तब तक कायम रहेगी । 20 January 2018

उर्मिला की अमर परंपरा


कल यानी 15 जनवरी को सेना दिवस था, लेकिन हमें क्यों याद रहता । हम कृतघ्न जो ठहरे। हमें तो सेना के जवानों की याद तभी आती है, जब हम पर कहर टूट पड़ता है कुदरत का या फिर आततायियों का। बाकी समय में तो हम अपनी धुन में मस्त रहते हैं । हां, सेना के जवान यदि कहीं आततायियों पर अधिक कठोर कार्रवाई कर बैठते हैं, तो हमारे पेट में मरोड़ जरूर उठने लगता है । ...लेकिन जिन्होंने अपने जिगर के टुकड़े, अपनी मांग के सिंदूर को देश की रक्षा के लिए सीमा पर भेज रखा है, वे कैसे भूल सकती हैं सेना दिवस । वे तो अपनी हर आती-जाती सांस के साथ उस जवान की सलामती की दुआ करती रहती हैं। चिट्ठी या फोन के जरिये उनकी हिम्मत बढ़ाती रहती हैं कि तुम तो बस जन्मभूमि की हिफाजत में तन-मन से जुटे रहो, हम अपना खयाल खुद रख लेंगी। कल ऐसी ही एक पत्नी का अपने सैनिक पति के नाम संदेश देखकर आंखें बरबस ही भर आईं। करीब अठारह महीने के वैवाहिक जीवन में बमुश्किल छत्तीस दिन के लिए भी उसे पति का सान्निध्य मिल पाया होगा, लेकिन उसके मन में इसको लेकर कोई मलाल नहीं है । वह लिखती हैं- तुम मेरे प्यार हो, मेरे रक्षक हो, मेरे नायक हो। दूरी मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती। मैं हमेशा तुम्हारा इंतजार करूंगी। वह यह बताना-जताना भी नहीं भूलती कि हर सैनिक के साथ एक महिला होती है, उससे भी कहीं अधिक मजबूत और बहादुर, जो हर पल पूरी दृढ़ता के साथ उसके साथ खड़ी रहती है पूर्ण समर्पण और भरपूर प्यार की अपार दौलत के साथ। फेसबुक पर यह संदेश पढ़ने के बाद बरबस ही त्रेता युग का वह दृश्य आंखों के सामने घूमने लगा, जब लक्ष्मण जी भगवान श्रीराम के साथ वनवास के लिए चले जाते हैं और उनकी पत्नी उर्मिला चौदह साल तक बिना किसी शिकायत के उनके लौटने का इंतजार करती हैं । लक्ष्मण जी ही तो प्रभु श्रीराम के सबसे बड़े सेनापति थे, जिनकी शक्ति पर भरोसा करते हुए उन्होंने कहा था - जग महुं सखा निसाचर जेते। लछमन हनई निमिस महुं तेते।। लक्ष्मण जी की वीरता का भान तो भगवान राम के साथ सारे जहान को भी रहा, लेकिन उर्मिला के समर्पण को सबने भुला दिया। भला हो राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त का, जिन्होंने 'साकेत' जैसा अमर महाकाव्य रचकर उर्मिला के त्याग-समर्पण को संसार के सामने रखा। ...और उर्मिला की यह परंपरा को आज भी असंख्य रमणियों ने कायम रखा है, जिनकी सुहाग की बहादुरी की बदौलत धरती और उस पर पल रहा जनजीवन सुरक्षिक-संरक्षित है। इन सबलाओं को सलाम । 16 January 2018 Lucknow

तिलकुट भरबे


मकर संक्रांति पर कर्तव्य निभाने का वादा आज यानी 14 जनवरी को परंपरागत रूप से देशभर में मकर संक्रांति का त्योहार मनाया गया। वर्षों से यह पर्व नियत तारीख यानी 14 जनवरी को मनाया जाता है। हां, कभी-कभी हिंदी तिथियों में घट-बढ़ या अन्य कारणों से 15 जनवरी को भी लोग मकर संक्रांति का पर्व मनाते हैं। विशाल भारत देश की विस्तृत भौगोलिक बसावट के साथ ही धार्मिक-सांस्कृतिक मान्यताएं और परंपराएं भी प्रत्येक 200-400 किलोमीटर के बाद बदल जाया करती हैं, सो लोगों ने अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार यह पर्व मनाया। पैतृक गांव से दूर रहते हुए आज बरबस ही मकर संक्रांति की बिहार से जुड़ी यादें मानस पटल पर छा गईं। पूस-माघ की तेज सर्दी के बावजूद सभी भाई-बहनों में सुबह सबसे पहले नहाने की होड़ सी मच जाती थी, जैसे कोई मैडल मिलने वाला हो। इसके बाद दादीजी एक कटोरी में भीगा हुआ चावल-तिल और गुड़ लेकर आतीं और एक-एक कर सबकी हथेली पर देकर पूछतीं-तिलकुट भरबे ? उनके सिखाए अनुसार ही जवाब में हम 'हां' कहते। यह क्रम वे तीन बार दुहरातीं। जब थोड़ी चेतना जगी तो मां से इसके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि इसका मतलब है कि जब वे बूढ़ी होंगी, बीमार होंगी तो उनकी सेवा और अंतत: उनकी मृत्यु के बाद उनकी मुक्ति के लिए श्राद्ध-तर्पण आदि करने का वादा करना। दादीजी तो नहीं रहीं और पहले अध्ययन और आजीविका के सिलसिले में गांव छूट गया, लेकिन अब मोबाइल फोन ने मां के प्रति अपना वादा निभाने का एक अवसर उपलब्ध कराया है, ताकि उन्हें अपनी ओर से आश्वस्त कर सकूं। पिछले कई वर्षों से यह सिलसिला चल रहा है। मकर संक्रांति के दिन स्नान-पूजा के बाद सबसे पहले घर फोन करता हूं। सबसे पहले वे यही पूछती हैं-तिलकुट भरबे ? और यह सिलसिला पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहेगा और संतानें अपनी जन्मदात्री के प्रति अपना कर्तव्य निर्वहन की सीख लेती रहेंगी। नमन उन महापुरुषों को जिन्होंने इस परंपरा की शुरुआत की। 14 January 2018 Lucknow

तेरा दर्द न जाने कोय


अभी-अभी दफ्तर से लौटा हूं । घने कोहरे और भीषण ठंड में बाइक से आठ-नौ किलोमीटर की दूरी तय करना भी काफी कष्टप्रद हो जाता है । हाथ-पैर सुन्न हो गये हैं। मोहल्ले में सन्नाटा पसरा है। ऐसे नीरव माहौल में घर के सामने पार्क से आ रही पक्षियों की आवाज इस सन्नाटे को भंग कर रही है । बचपन में गांव से लेकर अब शहरों तक का अनुभव बता रहा है कि यह चिड़ियों की चहचहाहट नहीं है, जो मन को अनुपम आनंद से परिपूर्ण कर देती है । लगता है, जैसे चिड़ियां किसी बड़ी तकलीफ में हैं और चिचिया रही हैं। न जाने उन पर कौन सी विपत्ति आ पड़ी है । अभी तो सर्दी का कहर ही सबसे बड़ी परेशानी का सबब महसूस हो रहा है । पालतू की चिंता तो आम से लेकर खास तक सभी करते हैं, जो फालतू हैं, उनकी खोज-खबर कौन ले ? परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना करता हूं कि सर्दी का सितम कुछ कम करो ताकि बेजुबानों- बेसहारों को कल मिले और परिंदों के कलरव से हर सुबह गुंजायमान रहे। 11 January2018 lucknow

चिट्ठी वाले अंकल


1990 के दशक की बात है। बीए की पढ़ाई अंतिम चरण में थी। हमारे सीनियर साथी और गहरे मित्र बीएससी पास करने के बाद करिअर को नई दिशा देने के लिए दिल्ली जाने वाले थे। वैसे तो वे अकेले ही जा रहे थे, लेकिन हमारे सपने भी उनके हमराही थे। ट्रेन के सफर में राहजनी का खतरा भांपते हुए उनके लिए ट्रैवलर्स चेक बनवाने हम दोनों साथ-साथ मुजफ्फरपुर में कल्याणी मार्केट स्थित एसबीआई की ब्रांच में गए। वहां बैंककर्मियों की मेहरबानी से काफी देर लगी और शायद हम दोनों की यह अंतिम सबसे बड़ी मुलाकात थी। दिल्ली में कुछ दिनों रहने के बाद नियति उन्हें पूर्वोत्तर ले गई, जहां किसी प्राइवेट स्कूल में वे केमिस्ट्री पढ़ाने लगे। मैं भी पढ़ाई पूरी होने के बाद तीन-चार साल किशनगंज रहा और फिर जयपुर आ गया। गुलाबी नगर में पत्रकारिता मेरी आजीविका का साधन बन गई । इस बीच बिहार के सरकारी स्कूलों में वैकेंसी निकली, जिसमें चयन के बाद मेरे प्रिय मित्र बिहार लौट आए। पत्रों के माध्यम से हमारा संपर्क बना रहा, लेकिन प्रमाद कहें या आलस्य, कुछ दिनों बाद संवाद खत्म हो गया। लंबे अरसे के बाद फेसबुक पर हम दोनों के एक कॉमन मित्र के जरिये उनका मोबाइल नंबर मिला तो संवाद पुन: शुरू हुआ । बात करने से मन ही नहीं भरता। मिलने की चाहत अंगड़ाई लेने लगी। साल में एकाध बार गांव जाना होता ही था, सो समय निकालकर उनके शहर पहुंचने का कार्यक्रम बनाया। बिहार में सफर में लगने वाला समय दूरी से नहीं, बल्कि सड़कों की दयनीय हालत और वक्त-बेवक्त लगने वाले जाम से तय होता है। सो दोपहर में पहुंचने की सोचकर घर से निकला था, लेकिन सूर्यास्त होने तक मंजिल दूर थी। नया शहर, अनजान डगर, सो मित्र बाइक लेकर बस स्टैंड आ गये थे। उनके आवास पर पहुंचा, तो आदत के अनुकूल बिजली गुल थी। रात के अंधकार को मिटाने के लिए मोमबत्ती का संघर्ष जारी था। ऐसे में जब मित्र ने मेरा परिचय कराया तो उनके दोनों ही बच्चे बोल पड़े-चिट्ठी वाले अंकल! भाभीजी ने भी बताया कि उन्होंने मेरे भेजे गए पत्र आज तक संजोकर रखे हुए हैं। दरअसल उन्होंने पत्रों को नहीं, बल्कि हमारी भावनाओं और दोस्ती को सहेजकर रखा है। आज सुबह एक मित्र को फोन किया तो कॉॅलेज में पढ़ने वाली उसकी बिटिया बोल उठी-पापा, जन्मदिन पर काव्यमय बधाई देने वाले अंकल का फोन है। ऐसे में सहसा ही यह वाकया याद आ गया। January 05 2018

गांती की गरमाहट


बचपन के दिनों में सर्दी का मौसम शुरू होते ही दादीजी सुबह-शाम हम भाई-बहनों को रोजाना ही तय नियम के तहत ‘गांती’ बांध देती थीं। ‘गांती’ यानी चादर को सिर पर लपेटने के बाद दोनों खूंट को गरदन पर बांध देना। ऐसा माना जाता है कि कान में ही सबसे अधिक सर्दी लगती है। बच्चे यदि चादर ओढ़ें तो इसके सिर से ढरकने का अंदेशा बना रहता है। ऐसे में‘गांती’ बांध देने से उसके सिर से न गिर पाने और कान में सर्दी न लगने की गारंटी हो जाया करती थी। हालांकि तब ‘गांती’बंधवाना हमें सबसे अधिक परेशानी का काम लगता था। इच्छा होती कि कब बड़े हों और‘गांती’ बंधवाने से मुक्ति मिले। उन दिनों ‘गांती’ के लिए चादर भी बाजार से नहीं खरीदी जाती थी। अमूमन हर घर में नियमित रूप से चरखा चलता था। तब आज की तरह न तो मोबाइल फोन थे कि बेबात के बतियाने में महिलाओं का समय जाया हो और न ही टेलीविजन थे, जिनके घरफोड़ू धारावाहिकों से गुरुज्ञान लेने की जरूरत हो। सो कुटाई-पिसाई के साथ ही खाना बनाने से फारिग होने के बाद वे सूत कातने बैठ जातीं। मेरी मां और दीदी भी नियमित रूप से चरखा काततीं। उसी सूत के बदले खादी भंडार से बच्चों की उम्र के हिसाब से अलग-अलग नाप की चादर लाई जाती। पिछले तीन-चार दिन से सर्दी का सितम सताने लगा है, ऐसे में अनायास ही यह प्रसंग याद आ गया। दरअसल सर्दी का मौसम सबसे अधिक कष्टप्रद होता भी है। गर्मी के दिनों में तो हम किसी पेड़ की छाया में बैठकर लू के थपेड़ों से अपना बचाव कर सकते हैं। बरसात के मौसम में सरेराह चलते हुए अचानक बारिश आ जाने पर किसी की छत के नीचे शरण ली जा सकती है, लेकिन सर्दी के मौसम में बर्फीली हवाओं की चुभन से खुद को बचा पाना वाकई काफी मुश्किल होता है। नाइट शिफ्ट में काम करने वालों की परेशानी तो कुछ और भी बढ़ जाती है, जब रात के दो-ढाई बजे हाड़ कंपाती सर्दी में बाइक से दफ्तर से घर लौटना होता है। कड़कड़ाती सर्दी की कहानी आज की बात नहीं, यह युगों-युगों से चली आ रही है । तभी तो त्रेता युग में इस भयावहता का अहसास सोने की लंका में रहने वाली सर्वसुविधा संपन्न दशानन की पत्नी को भी था। और वह दूसरे की पत्नी के अपहरण के फलस्वरूप होने वाली दुश्वारियों का संकेत करते हुए पति को सावचेत करती है - ‘ सीता सीत निसा सम आई’। January 2018 Lucknow

घटता संवाद, परेशानी का सबब


संवादहीनता चाहे-अनचाहे हमारे स्वभाव में शामिल हो गई है। हर आदमी अपनी धुन में मगन है। खुशियां बांटने की कौन कहे, लोग अपनी परेशानी तक किसी से शेयर करने की जरूरत नहीं समझते। हाल ही ट्रेन में सफर के दौरान सहयात्री युवक की परेशानी को मैं भुला नहीं पा रहा हूं। उसकी मां कानपुर जंक्शन पर एस्केलेटर से गिरकर घायल हो गई थीं और उसे बिना इंतजार किए अगली सफर पर रवाना होना था। उसके पास मां के उपचार के लिए समय नहीं था। उसकी माताजी की चोट कितनी गहरी थी, इसका अंदाजा लगाना मेरे लिए क्या, किसी के लिए भी असंभव था। बेटे को बेबस जान कोई मां अपनी पीड़ा को कहीं अभिव्यक्त कर पाती है ? वह तो गनीमत रही कि समय रहते मेरी नींद खुल गई और युवक की सहायता के लिए मुझसे जो बन पड़ा, मैंने किया। इसके बावजूद कई सवाल मेरे मन को मथे हुए हैं। मैं उनसे उबर नहीं पा रहा। ट्रेन के उस डिब्बे में मैं उस युवक के सर्वाधिक नजदीक वाली बर्थ पर था। भले ही मैं सोया हुआ था, लेकिन वह मुझे जगाकर मुझसे अपनी परेशानी शेयर कर सकता था। इसके बावजूद उसने मुझे जगाना उचित नहीं समझा। शायद उसने मेरी असमर्थता भांप ली हो। सही भी है, हममें से कितने लोगों को प्राथमिक उपचार का एबीसीडी भी पता है ? उसके मन में यह भाव भी आया हो कि आजकल दूसरों की पीड़ा से कौन मतलब रखता है ? शायद मैं भी उसकी परेशानी सुनने के बावजूद मुंह फेर लूं। इसके बावजूद उसे कोशिश तो करनी ही चाहिए थी । मैं न सही, किसी और से उसे मदद मिल जाती। बात जब एक से दूसरे तक पहुंचती तो संभव था कि यात्रियों में से ही कोई डॉक्टर भी निकल आता। और घायल मां को दर्द से तत्काल राहत मिल जाती। December 30 2017