Sunday, May 31, 2020

सबकी पुड़िया, हमारा सनेस

सबकी पुड़िया, हमारा सनेस

पुड़िया शब्द का जिक्र करते ही जेहन में कागज के छोटे टुकड़े का खयाल आता है, जिसमें परचून दुकानदार या पनसारी 25-50 ग्राम सामान लपेटकर ग्राहकों को देता है। मगर बिहार में "पुड़िया" शब्द एक विशेष अर्थ में प्रयोग किया जाता है। हमारे यहां चने की दाल भरी पूड़ी विशेष, सर्वप्रिय और सर्वकालिक-बारहमासी खाद्य पदार्थ है। इसके साथ यदि खीर की जुगलबंदी हो जाए तब तो अहोभाग्य। यही कारण है कि साल के बारह महीने में से करीब आठ महीने किसी न किसी पर्व के बहाने कुलदेवता को खीर-पूड़ी का भोग लगाया जाता है और प्रसाद के रूप में लोग जमकर इसका लुत्फ उठाते हैं।

अभी हाल ही मैंने फेसबुक पर " छींके पर टंगा मन"  शीर्षक पोस्ट में शादी-विवाह-उपनयन के अवसर पर रिश्तेदारों के यहां बहंगी या भार में नेवता की सामग्रीभेजे जाने का जिक्र किया था। हालांकि ऐसे सुअवसर तो अमूमन दो-चार वर्ष में एकाध बार ही आ पाते हैं। ऐसे में रिश्तेदारों के साथ संबंधों में प्रेम की ऊष्मा बनाए रखने के लिए सामान्य दिनों में भी बिना किसी प्रयोजन के भी उपहारों के परस्पर आदान-प्रदान का विधान गढ़ लिया गया। ...और ये उपहार खाद्य सामग्री के रूप में हों तो रिश्तेदार के परिवार ही नहीं, आस-पड़ोस तक भी इसकी खुशबू फैलनी स्वाभाविक है।

ऐसे में हमारे यहां विशेष रूप से नवविवाहिता बेटी और बहू के यहां वर्ष भर विशेष अवसरों पर अपने घर में बनी शुद्ध-स्वादिष्ट-विशिष्ट खाद्य सामग्री भेजने का सामाजिक चलन हो गया। मसलन छठ पूजा के अवसर पर ठकुआ, मकर संक्रांति पर चिउड़ा-दही, लाई-तिलवा आदि-इत्यादि। एक तथ्य यह भी कि चार-पांच दशक पहले नवविवाहिता बेटी या बहू महीनों की कौन कहे, तीन से पांच साल तक लगातार मायके या ससुराल में रहा करती थी। तब आज की तरह न तो यातायात के संसाधन थे कि सुबह जाकर शाम में लौट आएं या शाम में जाकर अगली सुबह लौट आएं। ऐसे में बड़े-बुजुर्गों के दिल में  जब ससुराल में रह रही बेटी या मायके में रह रही पतोहू (बहू) के प्रति प्रेम उमड़ने लगे तो खीर-पूड़ी तो भेजी ही जा सकती थी। इसमें भी पूड़ी की ही प्रधानता-अधिकता होने के कारण यह "पुड़िया" के रूप में ख्यात हो गया।

"पुड़िया"  यानी एक टोकड़ी में केले का पत्ता बिछाकर बाजाप्ता चारों तरफ पूड़ी और बीच में तसली में खीर रखी जाती। इसके ऊपर फिर सलीके से केले के पत्ते रखने के बाद इसे साफ कपड़े से अच्छी तरह बांधा जाता।  ...और फिर इसे एक आदमी अपने सिर पर रखकर पैदल ही निकल पड़ता। उसकी मंजिल तीन-चार किलोमीटर से लेकर चार-पांच कोस और कई बार इससे भी अधिक हुआ करती। तब आज की तरह मोबाइल तो था नहीं, चिट्ठी लिखना भी हर किसी के वश की बात नहीं थी। ऐसी स्थिति में पुड़िया ले जाने वाले के माध्यम से ही बेटी या बहू को जरूरी संदेश भी भेजे जाते। इसी से अपभ्रंश होकर संदेश शब्द सनेस बन गया।  

...और यह "पुड़िया" और "सनेस" ले जाने के लिए स्वभाव से धीर-गंभीर आदमी की दरकार होती थी जो मौखिक संदेश की अहमियत को समझते हुए उसे सही शब्दों में लक्ष्य तक पहुंचा सके। साथ ही उसका शरीर से मजबूत होना भी जरूरी होता था जो टोकड़ी में पर्याप्त मात्रा में रखी गई खीर-पूड़ी का वजन सिर पर उठाकर मीलों का सफर पैदल तय कर सके। हमारे यहां यह जिम्मेदारी अमूमन मल्लाह-निषाद समुदाय के कुछ विशिष्ट व्यक्ति निभाया करते थे और अन्य लोगों की अपेक्षा समाज में उनकी अच्छी पूछ-परख हुआ करती। 

"छींके पर टंगा मन" शीर्षक पोस्ट लिखते समय भी ये बातें मन में उमड़ घुमड़ रही थीं, लेकिन तब यदि इनका भी जिक्र करता तो पोस्ट अत्यधिक लंबा और ऊबाऊ हो जाता, इसलिए दूसरी कड़ी में आप सभी के सामने लेकर हाजिर हूं। आमीन...।

Wednesday, May 27, 2020

गुरु ही नहीं, नृत्यगुरु भी...

गुरु ही नहीं, नृत्यगुरु भी...

किस्मत के खेल निराले मेरे भैया...। नियति ने किसके लिए क्या लिख रखा है, कौन समझ पाया है। जन्मभूमि से लेकर कर्मभूमि तक प्रारब्ध के अनुसार ही तय होता है। आज से करीब पांच दशक पहले बिहार के वैशाली जिले के सुदूर पश्चिमी सीमावर्ती गांव से एक मास्टर साहब की नियुक्ति वैशाली जिले के करीब-करीब पूर्वी सीमा पर स्थित हमारे गांव के बीच वाले टोले के प्राथमिक स्कूल में हुई थी।

भारत ही नहीं, विश्व के पटल पर अपना विशिष्ट स्थान रखने वाली ऐतिहासिक वैशाली नगरी को इतिहासकार भले ही लोकतंत्र की जननी और वैभवशाली कहते हुए नहीं अघाते हों, लेकिन आधुनिक सत्तानशीनों ने इसकी उपेक्षा में कोई कोर कसर नहीं रखी। तभी तो आज भी बिहार के अन्य शहरों-कस्बों से वैशाली का सफर आसान नहीं है। वह तो भला हो जापान, श्रीलंका जैसे बौद्ध धर्मावलंबी देशों का, जहां की सरकारों ने पटना और मुजफ्फरपुर से वैशाली तक ढंग की सड़कें बनवा दीं। नीतीश कुमार ने रेल मंत्री रहते हुए वैशाली को रेलमार्ग से जोड़ने की घोषणा की थी, जिस पर अब अमल हो पाया है। हालांकि अब भी उस इलाके में रहने वाले हजारों लोगों को हाजीपुर-मुजफ्फरपुर रूट की ट्रेनों को वैशाली होकर चलाए जाने का आज भी इंतजार भी है।

तब मास्टर साहब के लिए हफ्ते-पंद्रह दिन में अपने गांव जाना कितना दुरूह रहा होगा, इसकी कल्पना भी कठिन है। खासी दूरी और अच्छी सड़क की कमी साइकिल से जाने की इजाजत भी नहीं देती रही होगी। ...और उस समय की तनख्वाह में एक शिक्षक के लिए मोटरसाइकिल खरीदना तो दूर, उसके बारे में सोचना भी संभव नहीं था। सो कुछ महीनों के बाद मास्टर साहब अपने परिवार को भी लेकर आ गए और हमारे गांव को ही अपना बसेरा बना लिया। उनका परिवार यहां के लोगों के साथ ऐसे घुल-मिल गया जैसे दूध में चीनी। उनके बच्चे यहीं अपने पापा के स्कूल में पढ़ने लगे।

तब हमारे गांव के पूर्वी छोर पर इकलौता मिडिल स्कूल था ( अब यह हाई स्कूल में प्रोन्नत हो गया है)। गांव भर के बच्चे अपने-अपने प्राइमरी स्कूलों की पढ़ाई पूरी करने के बाद इसी मिडिल स्कूल में नाम लिखवाते थे। मास्टर साहब के बच्चे भी बारी-बारी से इसी स्कूल में पढ़ने आए। बड़े भैया मेरे एडमिशन लेने से पहले मिडिल स्कूल से पास होकर पातेपुर हाई स्कूल में जा चुके थे। मास्टर साहब के मंझले बेटे ने मेरे साथ ही मिडिल स्कूल में एडमिशन लिया था। हाईस्कूल तक हम साथ पढ़े। उसका छोटा भाई मेरे छोटे भाई का और बहन मेरी छोटी बहन की क्लास फेलो रही।

मैं अपनी आदत के मुताबिक एक बार फिर अपने मूल विषय से भटक गया। मास्टर साहब से बात शुरू करके कहां वैशाली की व्यथा-कथा और फिर मास्टर साहब के परिवार तक की गाथा सुनाने लगा, जबकि इस पोस्ट का मूल मकसद मास्टर साहब की विशिष्टताओं से अवगत कराना था। 

अस्तु ... मास्टर साहब अध्यापन की मूल प्रवृत्ति के साथ ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। आस-पड़ोस में होने वाली शादी-विवाह समेत अन्य सामाजिक गतिविधियों में भी उनकी सक्रिय सहभागिता रहा करती थी। उस समय यज्ञ-प्रयोजन में आजकल की तरह हलवाई को बुलाने का चलन नहीं था। भोज-भात में लोग-बाग खुद ही मिल-जुलकर खाना बनाते थे। ...और ऐसे अवसरों पर विशेष रूप से सब्जी में तेल-मसाला-नमक आदि के सही अनुपात के निर्धारण में मास्टर साहब की पाक कला की निपुणता के लोग बरबस ही कायल हो जाते। 

मास्टर साहब को संगीत, अभिनय, नृत्य  कला में भी प्रवीणता हासिल थी। यही वजह थी कि अपने विद्यालय से लेकर अन्य विद्यालयों में भी सरस्वती पूजा आदि के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति में उनकी मदद अवश्य ही ली जाती थी। उन दिनों हमारे गांव का नवयुवक संघ कला-संस्कृति के क्षेत्र में अच्छी-खासी दखल रखता था। दुर्गा पूजा, दीपावली, छठ जैसे अवसरों पर नवयुवक संघ के बैनर तले नाटकों का मंचन हुआ करता था। नाटक के तीन-चार दृश्यों के बाद नृत्य-गायन-कॉमिक की प्रस्तुति हुआ करती थी, जिसका इंतजार बड़ी ही बेसब्री से दर्शकों को रहा करता। उसके बारे में फिर कभी...। अभी तो बस इतना ही कहना चाहूंगा कि मास्टर साहब ने इन रंगमंचों पर एक से बढ़कर एक प्रस्तुतियां दीं, जो आज भी वहां के लोगों के स्मृति पटल पर अंकित हैं। कल एक मित्र ने एक मशहूर नृत्यगुरु की प्रस्तुति का वीडियो व्हाट्सएप पर भेजा तो मुझे मास्टर साहब की अद्भुत अद्वितीय एकल नृत्य प्रस्तुति " महिषासुर मर्दिनी"  का सहसा ही स्मरण हो आया। 

चलते-चलते
बच्चों के हाई स्कूल पास करने के बाद उनकी पढ़ाई के मद्देनजर मास्टर साहब का परिवार मुजफ्फरपुर चला गया। इसके बावजूद मास्टर साहब हमारे गांव में ही बने रहे। इस बीच उनका तबादला पड़ोस के गांव के  मध्य विद्यालय में हो गया तथा वहीं से वे रिटायर भी हुए। उसके बाद से मास्टर साहब भी अपने बच्चों के साथ मुजफ्फरपुर में ही रहते हैं। इसके बावजूद हमारे गांव से उनका संबंध आज भी बरकरार है। हमारे गांव में होने वाले यज्ञ-प्रयोजन में उनके परिवार से कोई न कोई सदस्य अवश्य ही शामिल होता है और मास्टर साहब के परिवार में होने वाले आयोजनों में हमारे गांव वालों की सहभागिता जरूर रहती है। अफसोस...बढ़ती हुई उम्र के कारण मास्टर साहब कई तरह की शारीरिक परेशानियों से घिरे रहते हैं। ईश्वर से प्रार्थना है कि मास्टर साहब श्री शिवाकांत प्रसाद जी को बेहतर स्वास्थ्य और लंबी आयु प्रदान करें।

छींके पर टंगा मन

छींके पर टंगा मन...

आज से 40-45 साल पहले गांवों में अधिकतर मकान फूस के बने होते थे। कुछेक मकानों की दीवालें (भीत) जरूर मिट्टी की होती थीं, लेकिन उनके ऊपर भी फूस की ही छप्पर होती थी। हां, कुछ छप्परों की इज्जत खपड़े से ढंकी होती थी जो इनके खास होने का अहसास दिलाती थी। पक्की छत वाले मकान तो बस इक्के-दुक्के ही हुआ करते थे।

संयुक्त परिवार के उस जमाने में जब लोगों के रहने के लिए ही कमरे कम पड़ जाते थे तो अलग से रसोईघर की बात बेमानी ही होगी। हां, कुलदेवता के लिए एक कमरा अवश्य होता था, जिसे अग्नि देवता भी शेयर कर लिया करते थे। पर्व-त्योहार के सुअवसर पर विशेष व्यंजन देवता घर में रखे चूल्हे पर बनाए जाते। वैसे अमूमन सुबह-शाम आंगन में बने चूल्हे पर ही भोजन बनाया जाता। हां, बारिश और तेज धूप होने पर यह जिम्मेदारी बरामदे-ओसारे पर बने चूल्हे के ऊपर आ जाती। हर घर में एक दुअछिया चूल्हा (जिसमें एक ही आंच में दो चूल्हों पर खाना बन सके) जरूर होता था। इसके साथ एकाध स्पेयर चूल्हा भी होता था, मानों किसी कैबिनेट मंत्री के साथ राज्यमंत्री अटैच कर दिए गए हों। सब्जी तैयार होने या दूध उबालने के बाद उसे स्पेयर चूल्हे पर रख दिया जाता था।

तब दही तथा अन्य भोज्य पदार्थों को बच्चों और बिल्ली की पहुंच से बचाने की बड़ी समस्या हुआ करती थी। मगर जीवन में हर कदम पर समस्याओं का सामना करते रहने वाले गांव के लोग खुद इनका समाधान खोजने का भी माद्दा रखते हैं। सो पटुआ (जूट) की रस्सी से छींका (सिकहर) बनाकर उसे छप्पर से टांग दिया जाता और उस पर दही की छोटी मटकी आदि रख दी जाती। संभवतया इसी से  " बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना"  कहावत बनी होगी।

इसी छींके का थोड़ा संशोधित और विकसित रूप बहंगी थी। बांस के साढ़े तीन-चार हाथ लंबे टुकड़े को चीरकर उसे अच्छी तरह छील दिया जाता कि उसकी धार खत्म हो जाए। उसके दोनों छोर पर अपेक्षाकृत थोड़ी मजबूत रस्सी का छींका बनाया जाता। घर में लटकाए जाने वाले छींके से थोड़ा बड़ा, जिसमें बड़ी टोकरी, दही की हांडी या ऐसी ही चीजें अटकाई जा सकें। इस बहंगी को कंधे पर रखकर वस्तुएं एक से दूसरे स्थान पर पहुंचाई जातीं। श्रवणकुमार ने ऐसी ही बहंगी में माता-पिता को बिठाकर तीर्थाटन कराया और मातृ-पितृ भक्ति के अप्रतिम पर्याय बन गए।

गांव में शादी-विवाह-उपनयन आदि के अवसर पर होने वाले आयोजनों को यज्ञ कहते हैं, जो अपभ्रंश होकर जग बन जाता है। इसके साथ ही एक मान्यता जुड़ गई है ---जग के मालिक जगदीश। अब हर किसी की किस्मत तो भक्त शिरोमणि नरसी मेहता जैसी नहीं होती कि साक्षात श्रीकृष्ण भगवान बेटी की शादी में भात भरने के लिए पहुंच जाएं, लेकिन सामाजिक अर्थशास्त्र के जरिए इसका भी विकल्प खोज लिया गया। जिस परिवार में बेटी की शादी या बच्चों के उपनयन होने वाले हों, उसके सभी नाते-रिश्तेदार अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार दही, चिवड़ा, आटा, चावल सहित अन्य जरूरी सामान का इंतजाम कर लेते। और नेवता के रूप में जब दो-चार-छह लोग इन वस्तुओं को बहंगी में रखकर चलते तो क्या मनोहारी नजारा दिखता। इस तरह एक का बोझ दस की लाठी में बंट जाती। इस बहंगी को ले जाने की भी विशेष हिकमत हुआ करती थी और विशेष अवसरों पर इस हिकमत को जानने वाले विशेषज्ञों की पूछ-परख बढ़ जाया करती थी।

बीतते हुए समय के साथ गांवों में भी सब कुछ बदल गया। वहां भी सरकारी योजनाओं के तहत अब पक्के मकान बनाए जाते है। ऐसे में फूस के मकान तो बस गिनती के ही बचे हैं। जाली वाली आलमारी की कौन कहे, फ्रिज भी गांवों तक पहुंच गया है। ऐसे में पक्की छत वाले मकानों में छींके अनुपयोगी करार दिए जाने के बाद इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गए हैं। हालांकि शादी-विवाह-उपनयन के अवसर पर रिश्तेदारों के यहां नेवता के रूप में सामान भेजने की परंपरा अब भी बरकरार है, लेकिन इसे बहंगी में रखकर भेजने का चलन खत्म हो गया है। कोसों दूर तक बहंगी ले जाने वाले भी अब कहां बचे...! सो लोडिंग ऑटो या मिनी ट्रक में सारा सामान रखवाकर भेज दिया जाता है।

कल दोपहर यू ट्यूब पर श्रीकृष्णा धारावाहिक में बाल गोपाल की छींके से माखन चुराकर खाने की लीला देखते हुए अचानक ही यह छींका पुराण स्मरण हो आया और इसे आप मित्रों से साझा करने से खुद को नहीं रोक पाया। ...सो झेलिए..।

Saturday, May 23, 2020

सहयोग और साथ से पगा गांव का जीवन

गांव का जीवन ः एक-दूसरे की फिक्र
बचपन के दिनों को याद करता हूं तो कई घटनाएं स्मृति पटल पर किसी फिल्म के फ्लैशबैक सीन की तरह धमाचौकड़ी मचाने लगती हैं। करीब चार दशक पहले गांवों में गैस चूल्हा के बारे में लोग सोच भी नहीं सकते थे, गैस लाइटर की तो बात करना ही बेमानी होगी। माचिस भी हर घर में नहीं होता था। कई बार चूल्हा जलाने के लिए दूसरे के घर से आग मांगकर लानी पड़ती थी। अमूमन घर की चारदीवारी में कैद रहने वाली महिलाओं को इस बहाने एक-दूसरे से बोलने-बतियाने, उनके जीवन में झांकने का अवसर भी मिल जाया करता था।

तब आज की तरह पति-पत्नी और एक या दो बच्चों वाली न्यूक्लियर फैमिली का चलन नहीं था। संयुक्त परिवार में पंद्रह-बीस आदमी का खाना बनाना पड़ता था। फिर भी महिलाएं बिना किसी शिकवा-शिकायत के लकड़ी और गोबर के गोइठा (उपले) पर खाना बनाती थीं। सुबह खाना बनाने के बाद गर्म राख में छिपाकर अधसुलगे गोइठा का टुकड़ा रख दिया जाता था और उसी से शाम में चूल्हा जलाया जाता। ...और फिर रात में भी यह प्रक्रिया दुहराई जाती जिससे अगली सुबह चूल्हा जलाकर खाना बनाया जाता। राख में दबी आग की चिनगारी के साथ आपसी संबंधों की गर्माहट को भी संजोकर रखना लोग बखूबी जानते थे।

तब लोगों के मन में आतिथ्य की भावना बड़ी प्रबल 
हुआ करती थी। मगर संसाधनों का क्या किया जाए, उसकी सीमा तो हर देश-काल-परिस्थिति में रही है, मगर उसका समाधान खोजने में मनुष्य कब पीछे रहा है। गांव में घर ही आपस में एक-दूसरे से सटे हुए नहीं होते, लोगों के मन भी आपस में मिले होते हैं। सो किसी के घर में अचानक कोई मेहमान आ जाता तो आस-पड़ोस की महिलाएं अपने-अपने यहां से सब्जी, दही आदि लेकर आ जातीं और मेहमान के सामने कई तरह के व्यंजन परोसे जाने से उस परिवार की गरिमा अनायास ही बढ़ जाती।

एक बार की बात है। एक परिवार में लड़की की शादी थी। तब अपने टोले की कौन कहे, गांव भर की महिलाएं शादी के अगले दिन दूल्हे को देखने जाती थीं। उसके साथ लड़की के साथ भेजे जाने वाले सामान भी महिलाओं को दिखाए जाते। शाम तक यह सिलसिला चलता और अगले दिन भोर में लड़की की विदाई होती थी। मां जब दूल्हे को देखकर लौटी तो मुझे बुलाया और बिल्कुल नए-नवेले कवर में दो तकिए एक झोले में रखकर दिए। साथ ही हिदायत कि मैं शादी वाले घर में पिछले दरवाजे से जाकर लड़की की मां को एकांत में बुलाकर यह झोला थमा दूं। दरअसल लड़की को भेजे जाने वाले सामान में तकिया न देखकर मां की चिंता बढ़ गई थी और अपने स्तर से उन्होंने इसका समाधान निकाल लिया था।

उस जमाने में रेडिमेड कपड़े का चलन न के बराबर था। कपड़ा खरीदकर दर्जी से सिलवाया जाता था। बड़े परिवार में तो थान से कपड़ा कटवाकर लाते और परिवार के सभी बच्चे एक गणवेश में किसी बैंड पार्टी के सदस्यों की तरह दिखते। खैर, आम दिनों में सब कुछ सामान्य रूप से चलता, लेकिन पर्व-त्योहार (खासकर छठ महापर्व) के दौरान दर्जी के यहां भीड़ लग जाती, इसलिए लोगों की कोशिश होती कि काफी पहले कपड़ा खरीदकर दर्जी को दे दिया जाए। मगर हर किसी के लिए यह आसानी कब हुआ करती है। कई परिवार ऐसे भी होते, जिनके पास पैसों का जुगाड़ देर से होता। ऐसे में उन्हें सिलने से दर्जी हाथ खड़े कर देता। ऐसे में कई महिलाएं मेरी मां के पास आतीं और हंसते-हंसते उन्हें आश्वास्त करके भेज देतीं। मां के पास सिलाई मशीन नहीं थी,लेकिन ढिबरी की रोशनी में देर रात तक जगकर हाथ से ही कपड़े सिलती रहतीं। ... और इसका सुफल यह होता कि उन निराश महिलाओं के बच्चे भी छठ के घाट पर नए कपड़ों में सज-धज कर पहुंचते। तब उनकी मां के चेहरे पर संतोष का भाव और बच्चों के चेहरों पर खुशी की चमक देखते ही बनती थी। ...और मेरी मां के लिए यही उनका अमूल्य पारिश्रमिक होता था। 

मेरा मकसद अपनी मां का महिमा मंडन करना कतई नहीं है, कई अन्य परिवारों की महिलाएं भी अपने उदार और उदात्त स्वभाव के कारण ऐेसे ही अपने-अपने तरीके से लोगों की खुशियां बढ़ाती रही हों, इसमें कतई संदेह नहीं। 

पिछले दिनों मैंने अपनी फेसबुक वॉल पर अन्नदाता ही पेट भरेगा शीर्षक से अपनी मनोभावनाएं उकेरी थीं। तब एक मित्र ने फोन करके इससे नाइत्तफाकी जताई। संभव है शहर में पले-बढ़े होने के कारण ऐसा हो। हालांकि मेरे प्रति अपने स्नेह के कारण सौजन्य वश उन्होंने मेरी फेसबुक वॉल पर कमेंट के रूप में अपनी असहमति  दर्ज नहीं कराई। लेकिन उनके अंतर्मन में उठी शंका का समाधान करना मैं अपना फर्ज समझता हूं क्योंकि संभव है ये सवाल मेरे अन्य प्रियजनों के मन में भी वाा उठा हो, लेकिन मेरे प्रति सहृदयता के कारण उन्होंने इसे प्रकट नहीं किया हो, सो मैंने एक बार फिर आप सभी का बहुमूल्य समय जाया किया। 

Thursday, May 21, 2020

सहानुभूति जताने का सलीका

सहानुभूति जताने का सलीका
कोरोना वायरस संक्रमण की वैश्विक महामारी के इस दौर में जब अमेरिका-इंग्लैंड जैसे देशों के तुर्रम खां कहलाने वाले शासक हार मान चुके हैं, तो हम भारतीयों की विवशता का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। हालांकि ऐसे संकट काल में अकिंचन होते हुए भी हमारी सबसे बड़ी ताकत अपनों का हाल-चाल जानना अथ च अपनी कुशलता से उन्हें अवगत कराना है।
इसी स्वभाव के कारण कल सुबह अपने एक अग्रज मित्र को फोन किया था तो उन्होंने भाभी जी की तबीयत नासाज होने की बात कही। उन्होंने बताया कि सेहत संबंधी थोड़ी परेशानी होने पर फैमिली डॉक्टर को दिखाया तो उन्होंने ब्लड प्रेशर बढ जाने की बात कही और पहले से चल रही दवा की डोज थोड़ी बढ़ा दी। मैंने उनसे कहा कि इसमें चिंता की कोई बात नहीं है। आजकल तो आधी से अधिक आबादी लो या हाई ब्लड प्रेशर की समस्या से परेशान है और इसकी दवा उनकी दिनचर्या में शामिल हो चुकी है। मित्र ने भी मुझसे सहमति जताई और बोले, डॉक्टर से दिखलाकर आने के बाद सब कुछ सही था, लेकिन आस-पड़ोस की कुछ महिलाएं श्रीमतीजी का हाल पूछने आईं और उनसे कह दिया कि हाई ब्लड प्रेशर के मरीजों पर कोरोना का संक्रमण अपेक्षाकृत जल्द होता है। इसके बाद से श्रीमतीजी चिंता में घुली जा रही हैं।
मैंने मित्र को भरोसा दिलाया कि ऐसे ही किसी की बात में आकर अपनी सेहत बिगाड़ना अच्छी बात नहीं है। भाभीजी की चिंता बढ़ाने वाली महिलाएं कौन सी चिकित्सा विशेषज्ञ हैं कि उनकी बात को तवज्जो दी जाए। हां, आप अपने फैमिली डॉक्टर से सलाह अवश्य ले सकते हैं और मुझे पूरी उम्मीद है कि उनकी सलाह से भाभीजी के मन में बैठी दहशत दूर हो जाए।

उनसे बात करते हुए मुझे याद आ गई एक महिला की नासमझी से जताई गई सहानुभूति की वह बात जो एक  बुजुर्ग महिला के जीवन के अंत की वजह बन गई। हुआ यूं कि एक बुजुर्ग महिला की पाचन संबंधी परेशानियां जब नजदीक के शहर के डॉक्टरों की दवा के बावजूद महीने भर बाद भी दूर नहीं हुईं तो उनके दोनों बेटों ने  गैस्ट्रोएंट्रोलॉजिस्ट को दिखाने का फैसला किया। वहां जांच कराने के बाद पता चला कि बुजुर्ग महिला के पेट में कैंसर है और वह भी अंतिम स्टेज में। ऑपरेशन करवाने से भी कोई विशेष लाभ की उम्मीद नहीं थी। गैस्ट्रोएंट्रोलॉजिस्ट ने कुछ दवाएं लिख दीं और बुजुर्ग महिला के बेटों से कहा कि इससे तात्कालिक आराम मिल जाएगा, आगे ईश्वर की कृपा। हां, जितनी हो सके, इनकी सेवा कीजिए।   


 दोनों बेटे मां को लेकर घर आ गए और उन्हें कैंसर के बारे में कुछ नहीं बताया। दवा का असर कहें या सेवा का सुफल या फिर बेटों की प्रार्थना का कमाल, बुजुर्ग महिला के स्वास्थ्य में कुछ-कुछ सुधार होने लगा। समय अपनी गति से बीत रहा था कि अचानक उनके पास एक परिचित महिला का फोन आया। उसने सहानुभूति जताते हुए बुजुर्ग महिला से कहा कि ईश्वर भी कितना निष्ठुर है। आप तो जिंदगी भर दान-पुण्य, धर्म-कर्म करती रहीं। फिर भी आपको इतनी खराब बीमारी हो गई। बुजुर्ग महिला ने अनभिज्ञता जताई तो वह बोली कि शायद आपके बेटों ने आपको कैंसर की बात नहीं बताई। ... और उसी दिन बुजर्ग महिला ने जो खाट पकड़ी तो उनकी हालत बिगड़ती ही चली गई और आठ-दस दिन बाद उनकी अर्थी ही उठी।

ऐसी घटनाएं हमें बहुत कुछ सोचने को बाध्य करती हैं। किसी के प्रति हमदर्द तो होना ही चाहिए। यह मानव स्वभाव है। मगर संकट में पड़े किसी स्वजन-प्रियजन के प्रति सहानुभूति जताने के पहले सौ बार सोचना चाहिए। यदि उचित शब्द नहीं मिलें तो मौन सहानुभूति कहीं अधिक सार्थक और लाभप्रद है, बनिस्पत गलत शब्दों से सहानुभूति जताकर उसके जीवन के अंतिम पल को और नजदीक ला देने से से।

Wednesday, May 13, 2020

क से कोरोना, क से किसान

क से कोरोना, क से किसान

सत्संग-प्रवचन सनातन काल से भारतीय परंपरा के अभिन्न अंग रहे हैं। गांव-कस्बों से लेकर शहरों-महानगरों तक में सत्संग-प्रवचन के आयोजन होते ही रहते हैं। वैसे तो भारतीय कथा पुराणों में भगवान के दस अवतारों का उल्लेख है, मगर इनमें प्रभु श्रीराम और श्रीकृष्ण का स्थान सर्वोपरि है। मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम और प्रेम के प्रतिरूप श्रीकृष्ण जन-जन के मन में विराजते हैं। इन दोनों की लीलाएं ही संत-महात्माओं के प्रवचन के मुख्य विषय होते हैं। इन प्रवचनों में अक्सर ही सुनने को मिलता है कि आमजन के लिए अत्याचार के पर्याय बने रावण और कंस का अंत उनकी ही समान नामराशि के अवतारों क्रमशः राम और कृष्ण ने किया था।

मौजूदा माहौल में कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के कारण पूरी दुनिया खौफजदा है। हर आदमी दहशत में ...हर सांस सांसत में है। लॉकडाउन के कारण उत्पन्न विषम परिस्थितियों में पूंजीपतियों-उद्योगपतियों का असली चरित्र महज चंद ही दिनों में सामने आ गया है। नतीजतन उन पूंजीपतियों-उद्योगपतियों को अपना भाग्यविधाता समझ बैठे हजारों-हजार मजदूर भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने घर-अपने गांव के सफर पर निकल पड़े हैं। इस भरोसे के साथ कि अपनी जन्मभूमि पर उन्हें अवश्य ही ममतामयी छांव मिलेगी।

यह तो शाश्वत सत्य है कि मां अन्नपूर्णा ही अपने किसान पुत्रों के परिश्रम की बदौलत मनुष्य मात्र का पेट भरती हैं। तभी तो प्राचीन काल में "उत्तम खेती मध्यम बान, निर्घिन चाकरी भीख निदान" कहावत के जरिए समाज में खेती को सर्वोच्च सम्मान दिया गया था। इंद्रदेव की बेरुखी और सूरज का कोप चाहे उनकी फसलें सुखा दे या फिर बाढ़ उनकी कटने के लिए तैयार फसलों को बहा ले जाए, जीवट के धनी किसान थोड़े ही दिनों बाद परेशानियों की धूल को झाड़कर फिर से परिश्रम के पथ पर बढ़ चलते हैं। मेहनत के पसीने से जब खेत की मिट्टी गीली होती है तो किसानों के आंगन में खुशियों की अठखेलियां शुरू हो जाती हैं। आसमान में बैठकर धरती वासियों का भाग्य लिखने वाले विधाता को धता बताते हुए धरतीपुत्र अपना भाग्य खुद लिखते हैं।

आज जब कोरोना वायरस रूपी शत्रु ने सारी दुनिया को अपने जानलेवा भुजपाशों में जकड़ रखा  है, ऐसे में चिकित्सा विशेषज्ञ और जीव वैज्ञानिक न जाने कब तक इसके खात्मे के लिए वैक्सीन और दवा का आविष्कार करें, किसान ही कोरोना से उपजी दुश्वारियों के दंश का खात्मा कर सकते हैं। लोगों का पेट भरने के साथ ही मौजूदा विषम परिस्थितियों की वजह से अपनी आजीविका का साधन खो देने वाले लाखों मजदूरों को खेती-किसानी के काम में रोजगार मुहैया कराया जा सकता है।

इसके लिए सरकारों को कुछ विशेष व्यवस्थाएं करनी होंगी। किसानों को पर्याप्त आर्थिक मदद के साथ ही अन्य रियायतें और कुछ विशेष अधिकार भी देने होंगे। मसलन किसानों को लागत के हिसाब से अपनी उपज का मूल्य तय करने का अधिकार मिले। जब फैक्टरियों में बनने वाले सामानों की कीमत उत्पादक कंपनियां तय करती हैं तो फिर किसानों की मेहनत से उपजाए गए अनाजों के समर्थन मूल्य की घोषणा सरकार क्यों करे। किसान अनाज लेकर मंडियों में क्यों रात-रात भर जगें। कंपनियां उनके दरवाजे पर आकर क्यों न अनाज खरीदें। जब गन्ना किसानों को मजदूरों को उनका मेहनताना और खाद-कीटनाशकों का नकद भुगतान करना पड़ता है तो फिर चीनी मिलों को उधार में गन्ना खरीदने की छूट क्यों मिले। बकाया गन्ना मूल्य भुगतान के लिए किसान वर्षों तक क्यों इंतजार करें।

ऐसी और भी कई सारी विसंगतियां हैं, जिन्हें दूर करके खेती को फायदे का सौदा तथा  किसानों को खुशहाल बनाने के साथ ही लाखों-लाख लोगों को पलायन की पीड़ा से मुक्त कराते हुए उन्हें अपने घर के पास ही रोजगार मुहैया कराया जा सकता है।

 ...और धूमिल के सवाल पर टूटेगा मौन

जब ये सारे कदम पूरी ईमानदारी के साथ उठाए जाएंगे तो हालात जरूर बदलेंगे। ...और क्रांतिधर्मी कवि सुदामा पांडेय को भी उनके सवाल का जवाब मिल जाएगा, जो शासन-व्यवस्था में व्याप्त विसंगतियों को देखते हुए करीब पचास साल पहले उन्होंने अपनी कविता " रोटी और संसद"  में उठाया था : 

रोटी और संसद

एक आदमी रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है,
न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं-
वह तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है।

( तस्वीरें इंटरनेट से साभार) 

Tuesday, May 12, 2020

एकदा नैमिषारण्ये...

एकदा नैमिषारण्ये....

सच बोलने को हम भले ही अपने आचरण में नहीं उतार पाए, लेकिन सत्य को ईश्वर का प्रतिरूप बनाकर उसे सत्यनारायण भगवान का रूप अवश्य दे  दिया। फलस्वरूप सत्यनारायण व्रत-कथा-पूजा हमारे सामाजिक चरित्र का हिस्सा बन गई। हमारे टोले में भी आए दिन कहीं न कहीं सत्यनारायण भगवान की पूजा होती और उसका हंकार (इसमें शामिल होने की सूचना)  मिलने पर वहां जाना पड़ता था। कहीं भी सत्यनारायण भगवान की पूजा की जानकारी मिलने के बाद दादीजी उस दिन उपवास रख लेती थीं, जिसका पारायण वे सत्यनारायण भगवान की पूजा के प्रसाद से ही किया करती थीं। ऐसे में हमारे परिवार के किसी सदस्य का पूजा में जाना और भी जरूरी हो जाता था। हाईस्कूल से आगे की पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर जाने के पहले कई बार ऐसी पूजा में शामिल होने का सुयोग मुझे भी मिला। 

वहां जाता तो कई बार पूजा शुरू हो चुकी होती थी तो कई बार शुरू करने की तैयारी चल रही होती। इसके तहत विभिन्न देवी-देवताओं का आवाहन और पंचोपचार पूजन का क्रम चलता, जो पंडितजी और यजमान के बीच अस्फुट वार्तालाप सरीखा होता। बचपन के दिनों में यह सब कुछ उसी तरह ऊबाऊ लगता, जैसे गायकों की मंडली का प्रस्तुति से पहले वाद्य यंत्रों पर धुन मिलाने से संगीत के अधकचरे  कद्रदानों को लगता है। 

...खैर, देवताओं के आवाहन-पूजन के बाद पंडितजी गला साफ करके बुलंद आवाज में कथावाचन शुरू करते ताकि उपस्थित जनसमुदाय का ध्यान कथा की ओर हो सके- " एकदा नैमिषारण्ये..."ये दो शब्द बालमन में स्मृतिपटल में जो अंकित हुए, वे आज भी अमिट हैं। कच्ची उम्र में संस्कृत की समझ तो नहीं थी, लेकिन गिनती जरूर आती थी। कथावाचन करते हुए पंडितजी हर अध्याय के बाद उसकी संख्या के हिसाब से शंख बजाते। पहले अध्याय के बाद एक बार, दूसरे के बाद दो बार और यह क्रम पांचवें अध्याय के बाद पांच बार शंख बजाने के साथ पूरा होता और हमें लग जाता कि कथा की पूर्णाहुति हो गई। फिर सत्यनारायण प्रभु की आरती उतारने के बाद हजाम (नाई) वहां उपस्थित लोगों के सामने आरती की थाली ले जाता और लोग अपनी हथेलियों से आरती की ज्योति को अपने आनन को छुआकर खुद को धन्य महसूस करते। कुछ लोग आरती की थाली में पांच पैसा, दस पैसा भी डाल देते। उस जमाने में पांच-दस पैसे की भी काफी वैल्यू हुआ करती थी। कई बार आरती की थाली में एक रुपये का सिक्का भी दिख जाता, लेकिन उसे डालने वाले की स्थिति भी दस पैसे से अधिक डालने की नहीं होती थी और वह बाकी के नब्बे पैसे बिना किसी संकोच के आरती की थाली से उठा लेता था। 

..और फिर शुरू होता छठा अध्याय

लोगों के बीच आरती की थाली घुमाने के बाद हजाम उसे पंडितजी के सामने लाकर रख देता। पंडितजी थाली में रखे पैसे गिनते और हजाम के साथ उसका बंटवारा करते। तब सोलह आने का रुपया ही अधिक प्रचलित था, सो पंडितजी कुल पैसों में से दस आने का शेयर खुद रखकर छह आना हजाम को देते। आज के  हिसाब से कहें तो सिक्सटी-फोर्टी। बस इसी बात को लेकर हजाम बिफर जाता। वह पंडितजी के सामने तर्क देने लगता कि आप तो बस शाम में आए और कथा बांच दी, लेकिन मैंने तो सुबह से ही पैदल चलकर लोगों को हंकार दिया है। हवन के लिए समिधा, नवग्रह की लकड़ी समेत सारी पूजन सामग्री जुटाई। इस तरह आधा पंडित मैं भी हूं और मुझे आठ आना हिस्सा चाहिए। काफी देर की तकरार के बाद किसी एक पक्ष के झुकने के साथ ही इस विवाद का अंत होता। 

हर आम-ओ-खास आज बन गया है नाई

उस जमाने में लोगों की दाढ़ी बनाने से लेकर बाल काटने तक का काम नाई के जिम्मे ही हुआ करता था। वह सप्ताह में एक बार आता और लोगों की दाढ़ी बनाने के साथ ही जरूरी होने पर बाल भी काट दिया करता था।   मगर पिछले बीस-पचीस वर्षों में काफी कुछ बदल गया है। अब तो शहरों की कौन कहे, गांवों में भी अधिकांश लोग शेविंग किट रखने लगे हैं और खुद ही दाढ़ी बनाकर नाई का आधा काम कर लेते हैं। बची-खुची कसर कोरोना वायरस की इस वैश्विक महामारी के कारण करीब डेढ़ महीने से चल रहे लॉकडाउन ने पूरी कर दी है। आज आम आदमी से लेकर सेलिब्रिटी तक कोई खुद अपने बाल काट रहा है तो कोई अपनों की मदद से इस काम को अंजाम दे रहा है। नाई के पास एक ही तौलिए के बार-बार इस्तेमाल के कारण कोरोना के संक्रमण की चिंता की वजह से लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी लोग सैलून में बाल कटाने से पहले सौ बार सोचेंगे। कई मित्रों ने तो ऑनलाइन ट्रिमर खरीदने का ऑर्डर भी दे दिया है। 

चलते-चलते
उन दिनों जगन्नाथ मिश्र बिहार के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और कर्पूरी ठाकुर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष। एक और कद्दावर नेता हुआ करते थे गुलाम सरवर, जो बाद में बिहार विधानसभा के अध्यक्ष भी बने। एक बार गुलाम सरवर ने चुनावी सभा में जगन्नाथ मिश्र और कर्पूरी ठाकुर दोनों को ही लपेटते हुए कहा था-एक पंडित और एक नाई ने पूरे बिहार को तबाह कर रखा है। लोगों को दिखाने के लिए ये दोनों दिन के उजाले में लड़ते हैं और रात के अंधेरे में दस आना-छह आना का बंटवारा करते हैं। कोरोना काल में आम आदमी के नाई की भूमिका भी निभाने को लेकर बचपन में सत्यनारायण पूजा की कथा के दौरान पंडितजी और नाई में दस आना-छह आना के बंटवारे के साथ ही एक बुजुर्ग से सुना हुआ यह प्रसंग भी याद आ गया तो सोचा आपलोगों से भी शेयर करूं।

बड़े मंगल की खो गई रौनक

बड़े मंगल की खो गई रौनक

18-20 साल पहले की बात है। जयपुर रहने के दौरान  एक मित्र के साथ किसी काम से परकोटे के बाजार में गया था। बृहस्पतिवार का दिन था। दोपहर का समय। चौड़ा रास्ता से गुजरते समय मित्र ने अचानक बाइक रोक दी और उतरने को कहा। इसके के साथ ही वह खुद भी उतर गए और बाइक खड़ी कर दी। मुझे अपने साथ आने का संकेत किया।

बरगद के एक बड़े वृक्ष के नीचे चबूतरे पर साईं बाबा के बहुत ही छोटे से मंदिर के सामने दस-बारह लोग लाइन में खड़े थे। हलवा-चने का प्रसाद बंट रहा था। जहां तक मैं याद कर पाता हूं, हम दोनों ही घर से भोजन करके चले थे और हमें निकले हुए बमुश्किल एक-डेढ़ घंटा ही हुआ होगा। सो भूख जैसी कोई बात भी नहीं थी। फिर भी मित्र का तर्क था कि इस तरह मांगकर खाने से व्यक्ति का अहंकार नष्ट होता है। उनकी बात में दम लगा, सो मैं भी उनके पीछे लाइन में लग गया और हम दोनों ने ही दोने में मिला प्रसाद ग्रहण किया। इसके बाद से जयपुर में जब भी कभी मौका मिलता, मंदिरों में अन्नकूट व पौषबड़ा महोत्सव आदि के अवसर पर अवश्य ही रुककर दोना प्रसाद ग्रहण करने को अपना सौभाग्य मानता।

उसके तीन-चार साल बाद मैं लखनऊ आ गया। यहां ज्येष्ठ महीने के मंगलवार को बड़ा मंगल कहा जाता है। इस दिन यहां मंदिर से लेकर मोहल्ले तक में जगह-जगह भंडारे का आयोजन होता है। विशेषकर हनुमानजी के मंदिरों की रौनक तो देखते ही बनती है। विपन्न से लेकर संपन्न तक, पैदल से लेकर बड़ी-बड़ी गाड़ियों में चलने वाले, बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक सभी कतारों में लगकर भंडारे का प्रसाद लेते हैं। 

एक तरह से यह लखनऊ का लोक उत्सव बन गया है। जबसे लखनऊ आया हूं, ज्येष्ठ महीने के किसी मंगलवार को खाना बनाने की जहमत नहीं उठानी पड़ी। मगर अफसोस, इस बार लखनऊ में बड़े मंगल की दशकों से चली आ रही परंपरा को कोरोना का ग्रहण लग गया है। लॉकडाउन के चलते मंदिरों के पट बंद हैं, भक्त घरों में कैद हैं, बड़े मंगल की रौनक कहीं गुम हो गई है। ऐसे में संकटमोचक हनुमानजी से यही प्रार्थना है कि मानवता पर आए कोरोना वायरस रूपी संकट का काल जल्द खत्म हो और आम जनजीवन पुराने ढर्रे पर लौट आए। जय बजरंगबली। 🙏🌹🙏

( चित्र पिछले साल लखनऊ में आवास के पास स्थित मंदिर के)

12 May 2020

Saturday, May 9, 2020

अन्नदाता ही पेट भरेगा





बिहार के वैशाली जिला स्थित मेरा गांव आस-पड़ोस के कई गांवों में अपेक्षाकृत काफी बड़ा है। बचपन के दिनों में खेती के कामों के लिए अपने गांव के अलावा आस-पड़ोस के गांवों से भी मजदूर बुलाए जाते थे। मजदूरों को लाने के लिए सुबह-सुबह जाना पड़ता था। पहले आओ, पहले पाओ के आधार पर बुकिंग होती थी। देर होने पर अगले दिन का इंतजार करना पड़ता। फसलों की कटाई और कमैनी ( निकाई-गुडाई) के समय अधिक मजदूरों की जरूरत होती, इसलिए हर किसी को काम मिल जाता था।

 वहीं बाकी दिनों में किसान अपेक्षाकृत अधिक मेहनतकश मजदूरों की ख्वाहिश रखते। ऐसे में पड़ोस के गांव की कई महिलाएं काम की आस में खुद ही चलकर आ जातीं। उनकी कमर से अटकी एक टोकरी होती, जिसमें एक अदद हंसुआ, खुरपी और पुराने कपड़े का एक टुकड़ा हुआ करता। 

तब पशुपालन खेती से जुड़ा हुआ था। बैल, गाय- भैंस जैसे पशु किसानों के जीवन के अभिन्न अंग थे। जानवरों के साथ रहने के कारण लोग उनके बारे में बहुत कुछ जानते थे और इसी कारण शायद पशुता से दूर रहा करते थे। ऐसे में ममता और सहृदयता से भरपूर कि‌सान परिवार उस मजबूर मजदूर को खेत में कोई काम न होने पर घर के आगे-पीछे बाड़ी-झाड़ी में फल-सब्जी की निकाई-गुड़ाई करने को कह देता या फिर गोइठा ( उपले) पाथने को कहा जाता। पुरुष मजदूर होने पर उसे जलावन की लकड़ी चीरने का काम दिया जाता। ऐसे काम बारहमासी हुआ करते थे और इस तरह उस महिला या पुरुष मजदूर की दिहाड़ी पक्की हो जाती। कहते हैं कि आदमी सुबह भूखा उठता है, लेकिन भगवान उसे रात को भूखे नहीं सोने देते। बचपन में गांव में किसानों को कुछ ऐसी ही भूमिका में मैंने देखा है। 
वहीं आज कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के दौर में शहरों में जब पूंजीपतियों- उद्योगपतियों ने जब अपनी जिंदगी समर्पित कर देने वाले मेहनतकश मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया है और वे बेबस भूखे-प्यासे सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने गांव-अपने देस जाने को मजबूर हैं, ऐसे में साधनविहीन किसानों की वह  सदाशयता बरबस ही याद आ गई है। 

हालांकि बदलते हुए समय के साथ आज गांवों में भी बहुत कुछ बदल गया है। मौजूदा माहौल में खेती फायदे का सौदा नहीं रही। मगर जिन कारणों से ऐसा हुआ है, सरकार यदि उन समस्याओं का समाधान कर‌ दे, उद्योगों की तरह खेती के प्रोत्साहन के लिए भी किसानों के साथ मिलकर मन से योजनाएं बनाई जाएं और ईमानदारी से उनका क्रियान्वयन किया जाए तो धरती माता अपनी हर संतान का पेट‌ भर सकती है। ... फिर किसी को पलायन की पीड़ा नहीं भुगतनी पड़ेगी।


मोर सैयां काहे न खाएत पान...

धान की कटाई के समय तो पूरे गांव में डेढ़-दो महीने तक त्यौहार जैसा मौसम हुआ करता था। हर हाथ को काम मिलता। ...और शारीरिक मेहनत नहीं करने वालों को भी मां अन्नपूर्णा का भरपूर आशीर्वाद मिला करता था।‌ खलिहान में कोई नट अपने करतब दिखाकर किसानों और उनके बच्चों का मनोरंजन करता  तो कोई भाट मालिकों का यशोगान करता और भरपूर धान लेकर जाता।
भारत के एटलस पर महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला देसी-विदेशी पक्षियों के बसेरे के लिए मशहूर बरैला झील हमारे लिए महज चौड़ था, जहां पानी में नाव पर धान की कटाई होती। पनहेरी ( पान वाला) सुबह-सुबह आ जाता और दिन भर घूम-घूम कर लोगों को पान खिलाता। समय साथ दे और उपज अच्छी हो तो किसानों में छोटे-बडे का अधिक अंतर महसूस नहीं होता। तभी तो यह कहावत चलन में आ गई थी- " जब धाने के पान तऽ मोर सैयां काहे न खाएत पान।" दिसंबर में वार्षिक परीक्षा के बाद स्कूल से फ्री होने के कारण हम बच्चे भी जिद करके बड़े-बुजुर्गों के साथ धनकटनी में चले जाते। वहां से पान खाकर लौटते और गर्व से दूसरे भाई-बहनों को अपने लाल-लाल होठ और जीभ दिखाते, जिन्हें उस दिन धनकटनी में जाने का मौका नहीं मिल पाता था।

Friday, May 8, 2020

जननी का वक्ष याद आता है...

जननी का वक्ष याद आता है...

इसे नियति की विडंबना ही कहेंगे कि दिन के उजाले में जो खुद अपनी राह भूल गया, उसे रात के अंधेरे में दूसरों को रास्ता बताना पड़ता है। जी हां, पिछले दो-ढाई दशक से यह सिलसिला जयपुर से लेकर लखनऊ तक अनवरत जारी है। रात की पारी में काम के बाद दफ्तर से लौटते समय अक्सर ही कोई कार या ट्रक वाला रोककर रास्ता पूछ लिया करता था, मगर पिछले कुछ दिनों से हालात बदल गए हैं। 

कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के इस दौर में सड़कों पर गाड़ियां कम हो गई हैं , तो अब पैदल राहगीर रास्ता पूछ रहे हैं। चार-छह से लेकर पंद्रह-बीस के झुंड में चल रहे इन राहगीरों में से कोई दिल्ली, हरियाणा से तो कोई मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ से चला था और आगे उसे पूर्वांचल, बिहार या फिर पश्चिम बंगाल तक का सफर पैदल ही तय करना है। इनकी दुश्वारियों के बारे में सोचकर ही अात्मा रो पड़ती है, आंखें नम हो जाती हैं। इससे अधिक अपने हाथ में और है भी क्या?

मजबूर और मजदूर की केवल राशि ही एक नहीं होती, किस्मत भी एक जैसी ही होती है। हर कोई अपनी मां के लिए राजा बेटा ही होता है, मगर हालात उसे विवश कर देते हैैं। गांव में रोजगार के अवसरों की कमी (और कई बार स्थानीय समाज में लोकलाज का डर भी ) की वजह से ये माता-पिता, घर-परिवार सब कुछ छोड़कर बहुत दूर किसी शहर का रुख कर लेते हैं। ...और वहां अपनी मेहनत के पसीने के पारस से बदकिस्मती के लोहे को खुशहाली का सोना बनाने का जज्बा रखने वाले ये जांबाज अपने जीवन पथ पर अग्रसर रहते हैं। 
मगर अफसोस, आज जब हालात विपरीत हुए तो इनके मालिकों ने इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया। ...और सरकारी व्यवस्था तो भगवान भरोसे ही है। आकाश के फूल से जीवन में बहार की उम्मीद करना बेमानी ही कही जाएगी।

जब कोई रास्ता नहीं बचा तो अपनी बांहों के दम पर जीवन बसर करने वाले इन मेहनतकश मजदूरों ने अपने पांवों पर भरोसा किया और 1500-2000 किलोमीटर दूर स्थित अपने गांव के सफर पर पैदल ही निकल पड़े।

ऐसी ही विषम परिस्थितियों में होने वाली परेशानियों को  रूपायित करते हुए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी अमर काव्यकृति " उर्वशी" में लिखा है - 
असफलता में उसे जननि का वक्ष याद आता है,
संकट में युवती का शय्या-कक्ष याद आता है।

... तो मुसीबत के मारे समय से हारे ये मेहनतकश मजदूर   कदम दर कदम सड़कों को नाप रहे हैं। रास्ते में कहीं कोई ट्रक, हाफ डाला मिल गया तो उस पर सवार हो लिए। यहां तक कि दूध के टैंकर और कंक्रीट मिक्सर तक में बैठने से परहेज नहीं किया। इस दौरान उन्हें कितनी परेशानी झेलनी पड़ी होगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। 

काश! इन विषम परिस्थितियों से सबक लेकर भविष्य में कोई ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि हर किसी को उसके अपने गांव-कस्बे के आसपास ही उसकी योग्यता के हिसाब से रोजगार मिल सके। ...और घरों से दूर रहने वाले सभी कामगारों का डाटा सरकारों के पास हो, जिससे विपरीत हालात में उन्हें मदद पहुंचाई जा सके। नीति नियंताओं के ईमानदार प्रयासों से आज के इस अत्याधुनिक तकनीक के युग में कुछ भी असंभव नहीं है।

( तस्वीरें इंटरनेट और मित्र सुशील जी  Sushil Tiwari और हरेश जी Haresh Kumar की फेसबुक वॉल से साभार)

# Covid 19 # Corona pandemic

Tuesday, May 5, 2020

पेड़ों की मौज, परिंदों की पिकनिक

पेड़ों की मौज, परिंदों की पिकनिक

कोरोना की वैश्विक महामारी के चलते आम जनजीवन में व्याप्त चहल-पहल को मानो ग्रहण लग गया है। कहते भी हैं- मन खुशी तऽ गाई गीत। यहां तो हर शख्स हर पल चिंता और चिंतन में डूबा है। आपसी बातचीत में सबसे पहला सवाल यही होता है- आपका शहर-गांव तो कोरोना के कहर से बचा हुआ है न? और फिर इसके बाद एक-दूसरे को जरूरी सलाह- घर में ही रहिएगा। अपना ध्यान रखिएगा। 

जीवन से रौनक सिरे से गायब है। यदि किसी ने इसे बरकरार रखा भी है तो चेहरे पर लगे मास्क के कारण दिखता नहीं। वह तो भला हो सरकार बहादुर का कि शराब की बिक्री की अनुमति दे दी। इसकी वजह चाहे देश व राज्यों की डूबती अर्थव्यवस्था को सहारा देना हो या फिर सुरा प्रेमियों को गम गलत करने का सुअवसर प्रदान करना, मगर इस फैसले से करीब डेढ़ महीने के बाद मधुशालाओं पर गजब की रौनक देखने को मिली। सोमरस के प्रति लोगों में जैसी दीवानगी दिखी, वैसी ही दीवानगी यदि जीवन और जीवन मूल्यों के प्रति हो जाए तो कोरोना क्या, कोई भी परेशानी मानव और मानवता का बाल भी बांका नहीं कर सकेगी। 

खैर, मेरा मकसद अभी इस मुद्दे पर उपदेश झाड़ना नहीं है। मैं तो कोरोना काल के इस दौर में प्रकृति की उन्मुक्त हंसी आपसे शेयर करने के लिए मुखातिब हुआ हूं। मीडिया में आए दिन खबरें आ रही हैं कि ऋषिकेश में गंगा का प्रवाह इतना निर्मल हो गया है कि तलहटी के पत्थर नजर आने लगे हैं। पश्चिम बंगाल के रायगंज से कंचनजंघा की शफ्फाक चोटियां दिखने लगी हैं। और भी दूसरी जगहों से ऐसे ही सुहाने मनभावन समाचार। हालांकि जंगल में मोर नाचा किसने देखा... इसका सच्चा आनंद तो तब है जब खुद वहां जाकर प्रकृति में आए इस सुखद बदलाव का नजारा किया जाए। लॉकडाउन के चलते फिलहाल यह तो संभव नहीं, मगर अपने आसपास भी इसे महसूस किया जा सकता है। लखनऊ में मेरे आवास के सामने पार्क और दफ्तर के रास्ते में सड़क किनारे से लेकर डिवाइडर तक पर लगे पेड़ों की रौनक देखते ही बनती है। वाहनों से निकलने वाली जहरीली गैस से अब उनका दम नहीं घुट रहा। पहियों से उड़ने वाली धूल की परत उनके पत्तों पर नहीं जम रही। ... और रही-सही कसर बीच-बीच में होने वाली बरसात पूरी कर देती है। बारिश के बाद पेड़ों की हरियाली में क्या कमाल का निखार आ जाता है और वे मानो गाने लगते हैं -आज ही हमने बदले हैं कपड़े, 
आज ही हम नहाए हुए हैं।
फिल्म थ्री इडियट्स से कुछ पंक्तियां उधार लूं तो अहसास कुछ इस तरह होता है : 
शाखों पर पत्ते गा रहे हैं
फूलों पर भंवरे गा रहे हैं
दीवानी किरणें गा रही हैं
दो पंछी गा रहे हैं
दो फूलों की बगियों में
हो रही है गुफ्तगू...

...और पेड़ जब इस तरह मोद मनाते हैं तो उन पर आश्रय पाने वाले परिंदों की खुशी भी छिपाए नहीं छिपती। वे भी पिकनिक मनाने के मूड में आ जाते हैं। तभी तो यहां मेरे आवास के सामने पार्क में भोर की कौन कहे, दिन में भी पंछियों की मीठी चहचहाहट वातावरण को गुंजायमान किए रहती है। कोयल की लंबी कूक बरबस ही बचपन के दिनों में लौटा ले जाती है जब हम आम के बगीचे में उसके सुर में सुर मिलाया करते थे। तब कोयल भी शायद हम बच्चों की भावना को समझ जाती थी और एक सच्चे तथा अच्छे प्रतियोगी की तरह लगातार हमारी बेसुरी " कू " का जवाब अपनी मीठी कूक से दिया करती थी। 

चलते-चलते

किसान परिवार से होने के कारण आजकल की बेमौसम बारिश मुझे बिल्कुल भी नहीं भाती। रबी की फसलों को होने वाले नुकसान की आशंका से आंखें अनायास ही नम हो जाती हैं, मगर दुनियादारी की इस कड़वी हकीकत को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि एक के गम में दूसरे की खुशी छिपी होती है। प्रकृति के साथ मानव ने जो अन्याय, अनाचार-अत्याचार किया है, उसकी कीमत तो चुकानी पड़ेगी ही। आमीन।

( पक्षियों के चित्र इंटरनेट से साभार)

06 मई 2020

जीवन की डगर पर कदमों के निशां

जीवन की डगर पर कदमों के निशां...

मेरे बचपन के दिनों में मेरे गांव में दो महिलाएं आती थीं। एक पूरब दिशा से, दूसरी पश्चिम दिशा से। उनके घरों की दूरी हमारे गांव से करीब छह-सात किलोमीटर तो रही ही  होगी। परस्पर विपरीत दिशाओं से आने के बावजूद दोनों का मकसद समान था। गांव की गलियों में घूम-घूमकर सामान बेचना। पूरब से आने वाली महिला सब्जी (कभी-कभी सीजनल फल भी) बेचती और पश्चिम से आने वाली साड़ी तथा महिलाओं- बच्चों के कपड़े। दोनों की पहचान उनकी संतान के नाम से थी। सब्जी बेचने वाली के बेटे का नाम असगर था, सो महिलाएं उसे असगरूआ माय कहकर पुकारतीं। कपड़े बेचने वाली की बच्ची का नाम वैजयंती था, सो महिलाएं उसे वैजयंती माय कहकर बुलातीं। इन दोनों ही महिलाओं ने बीबीए-एमबीए का कोर्स नहीं किया था, लेकिन व्यापार की बारीकियां बखूबी जानती-समझती थीं। बारगेनिंग ( मोलभाव) से लेकर उधार का पैसा वसूलने तक में उन्हें महारत हासिल थी। 

उस जमाने में लोगों ने लॉक- डाउन का नाम नहीं सुना था, मगर संभ्रांत परिवारों की महिलाएं ही नहीं, मध्यम वर्गीय परिवारों की महिलाएं भी घरों में लॉक अप की स्थिति में ही रहती थीं। इसकी वजह पर्दा प्रथा का चलन था या फिर यातायात  के साधनों की कमी, सीमित आर्थिक हालात या कुछ और...यह अलग शोध का विषय हो सकता है।

खैर...महिलाओं के लिए तथाकथित लॉक अप के उस दौर में लगन-तिहार, पूजा-पर्व या अन्य अवसरों पर लेने-देने या फिर खुद के उपयोग हेतु साड़ी या बच्चों के लिए कपड़ों की खरीदारी के लिए वैजयंती माय ही इकलौती विकल्प हुआ करती थीं। और जहां तक तरकारी की बात है तो उन दिनों घर के आगे-पीछे बाड़ी-झाडी में उगाई गई सब्जियों से ही काम चल जाता था या यूं कहें कि चला लिया जाता था। इमरजेंसी में या विशिष्ट अतिथि के आने पर ही सब्जी खरीदने की जरूरत होती थी और ऐसे में असगरूआ माय का आना आज के जमाने की होम डिलीवरी सेवा सरीखी महसूस होती।

तब गांव में पर्दा प्रथा के प्रचलन के बावजूद फेरी लगाने वाली इन दोनों महिलाओं को स्त्री होने के कारण घरों के अंदर प्रवेश में कोई दिक्कत नहीं होती थी। यही नहीं,  इन दोनों का गांव भर की महिलाओं से एक तरह का बहनापा हो गया था। उन दिनों बोतल में पानी लेकर चलने का चलन तो था नहीं, सो सिर पर सामान लेकर चलने की वजह से भरी दोपहरी में इन दोनों में से कोई कभी प्यास बुझाने के लिए पानी मांगतीं तो घरों की महिलाएं उन्हें इसरार-मनुहार करके घर में जो भी कुछ रूखा-सूखा होता, खिलाने के बाद ही पानी पीने देतीं। आम दिनों में भी गांव की महिलाएं अपनी सिक्स्थ सेंस से बिना बताए ही इन दोनों कर्मठ महिलाओं का चेहरा पढ़कर उनकी परेशानी भांप लिया करतीं और खरीदारी की जरूरत न होने पर भी उन्हें बिठा लेतीं तथा कुछ खिला-पिलाकर ही जाने देतीं।

अपनी मेहनत की बदौलत सब्जी और कपड़े बेचने वाली इन दोनों महिलाओं ने अपने परिवारों का भरण-पोषण करने के साथ-साथ अपने सामर्थ्य के अनुसार बच्चों को पढ़ाया-लिखाया, उनके शादी-ब्याह तक किए। हालांकि आज से तीन-चार दशक पहले सब कुछ आज की तरह इतना आसान नहीं था। 

अभी गत फरवरी में भांजी की शादी में गया था तो मोटरसाइकिल पर पीछे बैठकर दस-बारह किलोमीटर का सफर तय करना पड़ा। इस दौरान रास्ते में तीन-चार जगह मोटरसाइकिल चलाने वाले के पीछे कपड़े का गट्ठर और उसके पीछे महिला बैठी हुई दिखी। मैं बिहार में पहली बार यह सब देख रहा था सो अपनी जिज्ञासा रोक नहीं सका। मैं जिनके साथ मोटरसाइकिल से जा रहा था, उनसे पूछा तो पता चला कि जमाने ने बहुत तरक्की कर ली है। प्रगति के साथ-साथ गति भी बढ़ गई है। पति-पत्नी दोनों सुबह मोटरसाइकिल पर कपड़े का गट्ठर लेकर निकलते हैं और गांव-गांव घूमकर बेचते हैं। पत्नी अपनी नारी सुलभ विशिष्टताओं से महिलाओं को कन्विंस करती है, वहीं पति की भूमिका मोटरसाइकिल चलाने तक सीमित रहती है। 

कल रात एक वकील मित्र ने लॉकडाउन की अवधि फिर से बढ़ाए जाने को लेकर अपनी पीड़ा साझा की तो मुझे इन फेरीवालों की तकलीफों का भी अहसास हुआ कि रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाले ये मेहनतकश भी इन दिनों कितनी परेशानी झेल रहे होंगे। ...और फिर बचपन के दिन सहसा ही दिमाग में धमाचौकड़ी मचाने लगे। लीजिए...आप भी झेलिए।

02मई 2020

बड़की भौजी जिंदाबाद

बड़की भौजी जिंदाबाद

जब भी किसी को बांसुरी पर  तान छेड़ते हुए सुनता हूं तो मन में भावना उठती है कि जब यह कलाकार इतनी मधुर धुन सुना रहा है तो सोलह कलाओं से परिपूर्ण वह मुरलीधर कृष्ण कितनी मधुर बांसुरी बजाता रहा होगा। एक सोच उभरती है कि काश ! हमारा जन्म द्वापर युग में हुआ होता तो हमें भी वंशीधर की बांसुरी की तान सुनने का सुख मिला होता...! 

खैर, जन्म पर तो अपना वश नहीं, लेकिन मैं इस बात के लिए खुद को खुशकिस्मत मानता हूं कि मैंने भले ही वंशीधर कृष्ण का बांसुरी वादन नहीं सुना, लेकिन गोविंदजी Govind Dutta Kumar का गायन सुना है। जी हां, हमारे गांव की विभूति स्वनामधन्य श्री गोविंदजी हारमोनियम बजाते हुए जब अपने मधुर स्वर में गीतों की प्रस्तुति देते तो सुनने वाले मंत्रमुग्ध हो उठते थे। हालांकि उनकी यह संगीत साधना बिल्कुल ही स्वान्त: सुखाय थी या फिर अपने इष्ट से एकाकार होने का साधन। 

...मगर ईश्वर की असीम कृपा से जब कोई किसी कला को साध लेता है तो वह भले ही इसे सबकी नजरों से कितना भी  बचाकर रखना चाहे, जमाने को खबर हो ही जाती है। और फिर गांव का जीवन, जहां आने वाला हर पल कभी बारिश, कभी सुखाड़ तो कभी ओलावृष्टि के रूप में वहां रहने वालों की कठिन परीक्षा लेने के लिए तैयार बैठा रहता है। वह तो ग्रामीणों की मेहनत से टपकते पसीने से उपजा जीवट उन्हें हर मुश्किल हालात से उबारकर एक नई शुरुआत के लिए तैयार कर देता है। " हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया" उनकी नियति बन जाती है और इसे हवा देने का काम करता है हर मुश्किल हालात में हंसी-मजाक खोज लेने का उनका जज्बा तथा जरूरी संसाधन न होने के बावजूद मनोरंजन पैदा करने का हुनर। 

इसी का परिणाम है कि गांवों में दुर्गा पूजा, दिवाली जैसे विशिष्ट अवसरों पर नाटकों का मंचन वहां के जनजीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन जाता है। नाटक के लगातार दृश्यों की एकरसता से दर्शकों को बोरियत न हो, इसके लिए बीच-बीच में गीत-संगीत का तड़का लगाना जरूरी हो जाता है। इसके लिए ऐसे किसी कलाकार को बुलाया जाता जो " कान्हा रे तू राधा बन जा" को आत्मसात करते हुए पुरुष होने के बावजूद स्त्री वेश में नाच-गाकर लोगों का मनोरंजन करता। कई बार अर्थाभाव या अन्य कारणों से ऐसे कलाकार को बुलाना संभव नहीं हो पाता तो आस-पड़ोस के ही किसी सुदर्शन लड़के को आयोजन समिति की प्रतिष्ठा का हवाला देकर नाचने-गाने के लिए तैयार किया जाता। चूंकि ऐसा लड़का कोई प्रोफेशनल तो होता नहीं कि उसके साथ हारमोनियम- ढोलक-तबले वाले भी हों, तो ऐसे में संकटमोचक के रूप में हारमोनियम समेत अवतरित होते श्री गोविंद जी। 

उनकी सधी हुईं अंगुलियां जब हारमोनियम पर अटखेलियां करतीं तो संगीत की ऐसी सरिता प्रवाहित होने लगती कि दर्शक वाह-वाह कर उठते। कई बार विशेष मनुहार पर जब हारमोनियम बजाने के साथ ही श्री गोविंद जी अपने मधुर स्वर में गीतों की भी प्रस्तुति देते तो लोग मंत्रमुग्ध हो जाते। स्कूल के दिनों में ऐसे ही , दुर्गा पूजा के मेले में आयोजित नाटक के दौरान एक बार उनका गाया " बड़का भैया इन्कलाब, बड़की भौजी जिंदाबाद" सुना था, जिसकी मधुर यादें आज भी स्मृति पटल पर उसी रूप में अंकित हैं। 

आज जब कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के चलते घोषित लॉकडाउन में हर आदमी अपने ही घरों में कैद होकर रह गया है। इससे होने वाली ऊब मिटाने के लिए या फिर समय बिताने के लिए लोग तरह तरह के जतन कर रहे हैं। ऐसे ही एक मित्र की फेसबुक वॉल पर उसके गायन का वीडियो क्लिप देखकर सहसा ही आदरणीय श्री गोविंद जी के गायन की याद आ गई। संभव है लॉकडाउन के इन क्षणों में श्री गोविंद जी भी संगीत की टेर छेड़ते हों, मगर उन्हें सुन पाने का सौभाग्य हर किसी के पास कहां....

26 अप्रैल 2020

कान का अहसान

कान का अहसान

बच्चा जब जन्म लेता है तो मां से उसका सबसे पहला संवाद शब्दों के जरिए ही होता है। कानों से होकर मां की मधुर वाणी उसके हृदय में उतरती चली जाती है और यह संबंध जन्म-जन्मांतर के लिए एक अदृश्य डोर में बंध जाता है। मां की लोरियां सुनकर वह सोता है और ताली की मधुर आवाज से उसकी नींद खुलती है। 

 ... और बच्चा जब धीरे-धीरे होश संभालता है तो " मामा- बाबा-दादा-नाना"  जैसे छोटे-छोटे शब्दों को मां से सुनकर अपने हृदय में उतारने के बाद जब उन्हें अपनी तोतली बोली में दुहराता है तो इस अलौकिक सुख का वर्णन करना बड़े-बड़े मनीषियों के लिए भी नामुमकिन हो जाता है। 

कुछ और बड़ा होने पर बच्चा जब शिक्षा प्राप्ति के लिए पाठशाला का रुख करता है तो वहां भी नर्सरी राइम्स सुनकर नये-नये शब्दों को सीखने में कानों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह सिलसिला समय बीतने के साथ-साथ आगे बढ़ता जाता है। फिर गोष्ठियों-सत्संगों से ज्ञान की गंगा श्रवणेन्द्रियों के रास्ते ही अंतर्मन में उतरती हैं। 

प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है- यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे अर्थात जो शरीर में है, वही ब्रह्माण्ड में है। यह बात मानवीय सद्भावनाओं में भी लागू होती है। उम्र बीतने के साथ जब आंखों की रोशनी कम होने लगती है। फिर न चाहते हुए भी चश्मा लगाना जरूरी हो जाता है। ऐसे में चश्मे की कमानी को संभालने की जिम्मेदारी ये कान ही निभाते हैं।

आज जब कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के इस दौर में पूरी मानवता ही संकट में आ गई है। सरकारों ने मास्क लगाना अनिवार्य कर दिया है। यहां तक कि मास्क न लगाने पर भारी-भरकम जुर्माना और जेल तक का प्रावधान कर दिया है। ऐसे में मास्क की डोरी को टिकाए रखने की जिम्मेदारी भी कान ही निभा रहे हैं। इसलिए हम सभी को कान का अहसान मानना ही चाहिए।

22 अप्रैल 2020

#Covid 19

लिपस्टिक अंडर माइ मास्क

लिपस्टिक अंडर माइ मास्क

कोरोना की वैश्विक महामारी के इस दौर में सबसे अधिक जरूरी खुद को सुरक्षित रखना और अपनों की कुशलता से अवगत होना है। मैं कई दिनों से अपने प्रिय मित्र टपलू की कुशलक्षेम जानने के लिए फोन कर रहा था, लेकिन उसका फोन लग ही नहीं रहा था। मन में तरह-तरह की आशंकाएं उठ रही थीं। इसी बीच कल सुबह मेरे मोबाइल के स्क्रीन पर उसका नाम चमका तो दिल खिल उठा। हालचाल पूछने के बाद मैंने उसे फोन न उठाने के लिए उलाहना दिया तो टपलू ने बताया कि उसका मोबाइल खराब हो गया था। आफत की इस घड़ी में मोबाइल का खराब होना किसी बड़ी विपत्ति से कम नहीं है। टपलू ने बताया कि उसके किसी पड़ोसी के पास की पैड वाला पुराना मोबाइल पड़ा हुआ था। आज वही मिलने पर उसने मुझे फोन लगाया।

खैर... बातचीत शुरू हुई तो इसका दायरा भी कोरोना, लॉकडाउन और इससे उत्पन्न हालात व समस्याओं के गिर्द ही सिमटा हुआ था। इसी बीच टपलू ने कहा कि सरकार ने आदेश जारी कर दिया है कि हालात काबू में आने और लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी लंबे समय तक सभी के लिए बाहर निकलने पर मास्क लगाना अनिवार्य होगा। कई राज्यों ने तो अभी से मास्क न लगाने पर भारी-भरकम जुर्माना और जेल तक का प्रावधान कर दिया है।

मैंने कहा, जब पूरी मानव जाति का जीवन संकट में हो तो लोगों के प्राणों की रक्षा के लिए ऐसा करना बहुत जरूरी है। टपलू मेरी बात काटते हुए बोला-पुरुष तो खैर जैसे-तैसे मास्क लगाने को तैयार भी हो जाएंगे, लेकिन रूपसी महिलाओं को मास्क लगाने के लिए राजी करना क्या इतना आसान होगा। जो महिलाएं बाल-विन्यास बिगड़ने के कारण बाइक पर पीछे बैठते समय हादसे की आशंका के बावजूद हेलमेट पहनने को तैयार नहीं होतीं, वे रूपसियां अपने होठों की सुंदरता में चार चांद लगाने वाले लिपस्टिक का मोह छोड़ पाएंगी जो अनचाहे ही मास्क के पीछे छिपकर रह जाएगा। 

मैं भी सोचने को विवश हो गया। लिपस्टिक के प्रति महिलाओं के प्रेम का ही परिणाम है कि बचपन से हम जिन सात रंगों की बात पढ़ते रहे, वे सात रंग लिपस्टिक की दुकान पर असंख्य रंगों में परिणत हो जाते हैं, जैसे कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने विराट रूप के दर्शन कराए थे। रूपसियों के इस लिपस्टिक प्रेम ने करोड़ों-अरबों रुपये का बाजार बना रखा है, मास्क की अनिवार्यता के बाद सब कुछ धराशायी हो जाएगा। ... और फिर लिपस्टिक बनाने वाली कंपनियां अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए नये कदम उठाएंगी। महिलाओं के लिए उनके ड्रेस से मैचिंग वाले नए-नए रंग व डिजाइन के मास्क बनाएंगी। ...और फिर रूपसियों के अधरों पर अलग-अलग रंग के लिपस्टिक के स्थान पर उनके चेहरे पर रंग-बिरंगे मास्क दिखाई देने लगेंगे।

20 अप्रैल 2020

अपशकुन का रुदन नहीं, भूख की चीख

अपशकुन का रुदन नहीं...भूख की चीख

पूस-माघ का महीना था। सर्दी चरम पर थी। घने कोहरे को चीरती हुई बाइक ने आठ-दस किलोमीटर की स्पीड से मुझे आखिरकार कमरे पर सकुशल पहुंचा दिया था।   
लखनऊ में मैं जहां रहता हूं, उस मकान के सामने बहुत ही अच्छा और खुशनसीब पार्क है। खुशनसीब इस मायने में कि जब यह कॉलोनी बसाई जा रही थी,  इस पार्क के गिर्द रहने वालों ने सरकार पर निर्भर होने के बजाय खुद ही इसके चारों ओर अपनी-अपनी पसंद के कई सारे पौधे लगाए और अपने बच्चों की मानिंद उनकी देखभाल की। नतीजतन वे पौधे आज अच्छे-खासे दरख़्त में तब्दील होकर परिंदों के बसेरे बन गये हैं। 

उस रात इन्हीं दरख्तों पर रहने वाले परिंदे न जाने क्यों बुरी तरह बोल रहे थे। यह उनकी चहचहाहट तो बिल्कुल नहीं थी, जो अपनी मिठास से बरबस ही मन मोह लेती है। ये परिंदे तो चीख रहे थे जिससे करुण क्रंदन का आभास हो रहा था। उनकी पीड़ा समझ पाने के बावजूद मैं उनकी परेशानी दूर न कर पाने को विवश था। इसी उधेड़बुन में न जाने कब नींद आ गई। सुबह जगा तो अपने बुजुर्ग मकान मालिक से रात वाला किस्सा बयां किया। उन्होंने बताया कि इन परिंदों को खाने के लिए कुछ नहीं मिला होगा। पेट खाली होने पर सर्दी ज्यादा सताती है। आज से मैं पार्क में वॉकिंग ट्रैक पर चावल के टुकड़े बिखेर दिया करूंगा। वाकई उसके बाद फिर कभी चिड़ियों की वैसी चीख सुनाई नहीं पड़ी।

कल देर रात दफ्तर से लौटा तो रास्ते में एक जगह कई सारे कुत्ते रो रहे थे। एकबारगी तो मेरे मन में भी किसी अपशकुन की आशंका गहराने लगी, क्योंकि बचपन से ही हमें ऐसी सीख दी गई है। हालांकि कमरे पर आने के बाद भी कुत्तों का करुण क्रंदन कानों में गूंजता रहा। सोने की कोशिश नाकाम हो गई। मन में तरह-तरह के ख्याल उभरने लगे। अचानक ही पूस-माघ वाली सर्द रात में परिंदों की चीख वाली बात याद आ गई।

 दिल के किसी कोने से आवाज आई- आज जब कोरोना की वैश्विक महामारी की वजह से लॉकडाउन के चलते लोग अपने घरों में कैद होकर रह गए हैं। चाय-कॉफी की थड़ी से लेकर रेस्तरां-होटल तक सभी बंद हैं, इन बेजुबानों को रोटी-बिस्कुट का एक टुकड़ा तक मिलना मुहाल है। ऐसे में यह भी तो हो सकता है कि भूख से बेबस होकर ये बिलख रहे हों। ऐसे में मेरा निवेदन है कि आज के इस विषम हालात में हम सभी अपने आस-पड़ोस में रहने वाले आवारा कुत्तों को एकाध रोटी जरूर दे दिया करें।

15 अप्रैल 2020

# Covid 19 # Lockdown

हरि अनाथ के नाथ

...हरि अनाथ के नाथ

कोरोना की वैश्विक महामारी के दौर में इसके जानलेवा संक्रमण से बचाव के लिए पूरे देश में लॉकडाउन घोषित कर दिया गया है। केंद्र सरकार व राज्य सरकारें लोगों को घरों से बाहर न निकलने और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने के सख्त निर्देश दे रही हैं। इसके बावजूद कोई पैसे के जोर पर तो कोई रसूख के बलबूते और कोई दीन-ईमान के नाम पर मनमानी करने को उतारू है। वह समझ नहीं पा रहा कि उसकी गलती दूसरों के साथ उसकी खुद की जिंदगी के लिए भी बड़ी मुसीबत बन सकती है।
वहीं ये बेजुबान आवारा पशु स्वविवेक से आत्म अनुशासन का परिचय देते हुए सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन कर रहे हैं। तभी तो रहीम ने लिखा है- 
रहिमन बहु भेषज करत, व्याधि न छांड़त साथ।
खग, मृग बसत अरोग वन, हरि अनाथ के नाथ।।
( भेषज = चिकित्सक)
 

# Covid 19 #Pandemic#Lockdown

एक फरिश्ते की गुमनाम विदाई

एक फरिश्ते की गुमनाम विदाई

कभी कहीं पढ़ा था- सुख में जो साथ देते हैं, वे रिश्ते होते हैं और जो दुख में साथ देते हैं, वे फरिश्ते ...। ऐसे ही फरिश्ते थे हमारे मंझले मामू- सुरेश मामू। साधारण परिवार से ताल्लुक रखने की वजह से उनके पास किसी की मदद के लिए भरपूर संसाधन तो नहीं थे। इसके बावजूद वे संकट के क्षणों में हर किसी के साथ हमेशा असाधारण सहारा बनकर खड़े रहते थे। उनकी दी गई हिम्मत की बदौलत न जाने कितने ही लोगों ने अपनी डूबती हुई नैया को किनारे तक पहुंचाया।

बरसों पहले उनके मन में कैसी धुन सवार हुई कि उन्होंने खुद को अपने कुलदेवता की भक्ति में समर्पित कर दिया। खेती-किसानी के काम और माल-जाल की देखभाल के बाद जो भी समय बचता, वह अपने आराध्य के चरणों में समर्पित हो जाते। तड़के आंख खुलने के बाद से कुलदेवता की सेवा-टहल से लेकर रात को सोते समय भजनों से अपने आराध्य को रिझाने के साथ उनकी दिनचर्या पूरी होती थी। उनके स्वर का सान्निध्य पाकर वातावरण किस तरह दिव्य हो जाया करता था, उसे महसूस ही किया जा सकता था, उस दिव्यता को शब्दों में बयान करना नामुमकिन है। इससे मिली सिद्धि की बदौलत बहुतेरे लोगों का भला किया उन्होंने, लेकिन कभी लेशमात्र भी किसी लाभ-लोभ की कामना नहीं की। हमेशा खुद्दार बनकर रहे। यही वजह थी कि लोग उनके मुरीद हो जाते और ऐसे लोगों की संख्या दिनों-दिन बढ़ती ही गई। 

उनके जीवन की गाड़ी यूं ही कभी सरपट तो कभी हिचकोले खाती हुई चल रही थी कि अचानक मामी जी को कैंसर ने धर दबोचा। यह बीमारी सामान्य परिवार का जिस तरह सत्यानाश करती है, इनका भी किया। काफी इलाज के बावजूद वे नहीं बच पाईं। करीब दो साल पहले उन्होंने देह छोड़ दी। उनके जाने के बाद से मामू की आंखों में एक सूनापन भर आया था। हालांकि लोगों से बातचीत में वे इसे जाहिर नहीं होने देते थे। बीतता हुआ समय बड़े से बड़े घाव को भर देता है, या फिर बाहर से देखकर लोग ऐसा महसूस करने लगते हैं। भले ही गम उपले की आग के बुझने के बावजूद उसकी राख में अंदर ही अंदर कहीं दहकती रहती है।  धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा था। पोते की सेना में नौकरी लग जाने से जीवन को जैसे खुशियों का एक संबल मिल गया था। 

...मगर ये खुशियां ज्यादा दिनों तक साथ नहीं निभा सकीं। पिछले साल मई में मामू की तबीयत कुछ नासाज हुई तो डॉक्टर को दिखाया गया। पता चला कि आहारनली का कैंसर चौथे स्टेज में पहुंच चुका है। मेरे लिए भी वह बड़ा ही प्रतिकूल समय था। लोकसभा चुनाव के कारण यहां लखनऊ में पत्रकारीय दायित्व और उधर जयपुर में बेटे का बीटेक का एग्जाम। माताजी जयपुर में थीं। उनके बिना मामू से मिलने के लिए जाने की सोच भी नहीं सकता था। एक-एक दिन भारी पड़ रहा था। बेटे का एग्जाम खत्म होते ही श्रीमती जी जयपुर से माताजी को लेकर लखनऊ पहुंचीं और फिर अगले दिन मैं माताजी के साथ पटना के लिए रवाना हुआ। मामू प्राइवेट अस्पताल में भर्ती थे। कीमोथेरेपी चल रही थी। नौकरी की अपनी मजबूरियां होती हैं। एकाध दिन रुककर मैं लौट आया।

गत दिसंबर में मौसेरे भाई की शादी में गया तो मां के साथ मामू से मिलने पहुंचा। वे पहचान में ही नहीं आ रहे थे। कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी ने सारे शरीर का सत्व जैसे निचोड़ लिया था, मगर गाढे वक्त में दूसरों को हिम्मत बंधाने वाले मामू ने तब भी जीवट का दामन नहीं छोड़ा था। बड़े ही उत्साह से मिले और मां व मुझसे जमकर बातचीत की। दवाएं चल रही थीं, लेकिन दुआओं  का ही सहारा था। फरवरी के अंतिम सप्ताह में भांजी की शादी में गया तो अत्यंत व्यस्त शिड्यूल के बावजूद मामू का आशीर्वाद लेने पहुंचा। देखकर खिल से गये। बातें भी कीं। हिम्मत इतनी कि मना करने के बावजूद उस हाल में भी सड़क तक आए। 

...मगर अफसोस... रविवार सुबह व्हाट्सएप देख रहा था कि ममहर वाले ग्रुप पर मनहूस खबर दिखाई दी। सुरेश मामू नहीं रहे। काल ने उन्हें हम सबसे छीन लिया। जानकर सन्न रह गया। वे वर्तमान से इतिहास हो गये। किंकर्तव्यविमूढ़ हूं और नियति के सामने विवश भी...। जिस शख्स की अंतिम यात्रा में अपने गांव के अलावा आस-पड़ोस के दस-बीस गांवों के उनके चाहने वाले शामिल होते, कोरोना की वैश्विक महामारी के चलते घोषित लॉकडाउन के कारण अपने परिवार के सभी सदस्य भी उन्हें अंतिम विदाई नहीं दे सके। इस फरिश्ते की यह गुमनाम विदाई आजीवन हमें सालती रहेगी। परमपिता परमेश्वर उन्हें अपने चरणों में शरणागति प्रदान करें, यही प्रार्थना है। ॐ शान्ति...ॐ शान्ति...ॐ शान्ति।

07 अप्रैल 2020

वुहान, विश्व और वसुधैव कुटुंबकम्

वुहान, विश्व और वसुधैव कुटुंबकम्

मेरी दादीजी बड़ी भोली और सरल-सहज-सीधी स्वभाव की थीं। वे ज्यादा पूजा-पाठ नहीं किया करती थीं। हां, सुबह स्नान करने के बाद नियमित रूप से सूर्य भगवान को एक लोटा जल का अर्घ्य दिया करती थीं। इसके बाद भगवान सूर्य से मुखातिब होकर अस्फुट स्वर में वे कुछ बोला करती थीं। बाल-सुलभ जिज्ञासा के कारण मैं उनके पास खड़ा हो जाता यह जानने के लिए कि वे सूर्य भगवान से क्या कहती हैं। 

जो कुछ मैं समझ सका, उसका सार यही था कि हे सूर्यदेव, सारे संसार का भला करना, उसके पीछे मेरे बच्चों पर भी कृपा बनाए रखना।  किसी चालीसा, स्तोत्र, धर्मग्रंथ का पाठ नहीं, मगर भावना मानवता के सर्वोच्च स्तर पर- पूरे विश्व के कल्याण की आकांक्षा- वसुधैव कुटुंबकम् का इससे बढ़कर और कोई आदर्श हो सकता है क्या? संसार खुशहाल रहेगा तो हमारा जीवन भी सुखमय होगा, सुरक्षित होगा-इतनी उदात्त भावना।

जब हम पूरे विश्व को अपना परिवार समझने लगते हैं तो इसमें आसन्न संकटों से बचाव का दायित्व भी अधिक गुरुतर हो जाया करता है। ...तो इसका भी एक उदाहरण देखिए। उन दिनों हर किसान परिवार पशुपालक भी हुआ करता था। और सच कहूं तो पशु केवल पाले ही नहीं जाते थे, बल्कि वे परिवार के सदस्य हुआ करते थे। परिवार के सदस्यों की तरह पूरी जिम्मेदारी से उनकी देखभाल की जाती थी। उन दिनों पशुओं में "डकहा" नामक एक संक्रामक बीमारी हुआ करती थी। इसकी चपेट में आने पर देखते ही देखते मिनटों में ही पशु दम तोड़ देता था। आस-पड़ोस, टोला-मोहल्ले में ऐसी घटना होने पर लोग अपने पशुओं को उस बीमारी के संक्रमण से बचाने के लिए लाल रंग घोल कर पशुओं पर छिड़क दिया करते थे। यह महज टोटका था या एक तरह का वैक्सिनेशन, मगर था प्रभावी। 

अब मौजूदा परिदृश्य पर नजर डालें तो आधुनिक तकनीक की बदौलत हम ग्लोबल विलेज की परिकल्पना को साकार होते देखकर फूले नहीं समाते थे। दूर देश में हुए आविष्कार हमारी जीवन शैली को अपने तरीके से प्रभावित करने लगे थे, लेकिन उस अनुपात में हमने अपनी सहृदयता-उदारता का विस्तार नहीं किया। 

चीन का वुहान जब कोरोना वायरस की चपेट में आ गया तो वहां रोजाना दम तोड़ने वाले मरीजों की संख्या बाकी दुनिया के लिए महज एक संख्या भर मान ली गई। सारे देश अपने तईं निश्चिंत थे कि चीन की समस्या है तो वह भुगते या फिर बच ‌सके तो बचे। दुनिया के देश समझ नहीं पाए कि जब हवाई यातायात के जरिए वे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं तो यह जानलेवा वायरस चीन की सीमाएं लांघकर उन तक भी पहुंच सकता है। नतीजतन आज लगभग पूरा विश्व इस महामारी की चपेट में आकर कराह रहा है। ब्रिटेन के सर्व सुविधा संपन्न बकिंघम पैलेस से लेकर मुंबई की सर्व सुविधा विहीन धारावी के चॉल तक में कोरोना ने पांव पसार  लिए हैं।

मगर अफसोस, भीषण संकट की इस घड़ी में भी लोग इस अवसर को भुनाते हुए इसका  लाभ उठाने से बाज नहीं आ रहे। जमाखोरी, कालाबाजारी लोगों का स्थायी भाव बन गया है। ऐसे में खुद की भावनाओं का परिमार्जन बहुत ही जरूरी है। विज्ञान तो जब इस वायरस का समाधान खोज पाएगा, खोज ही लेगा, लेकिन तब तक हमें खुद को सुरक्षित रखते हुए अपने आस-पड़ोस में रहने वाले जरूरतमंदों को अपनी सामर्थ्य के हिसाब से यथासंभव मदद और खुद के साथ संपूर्ण मानवता के कल्याण की कामना अवश्य ही करनी चाहिए।

# Vuhan #Corona # pandemic

04 अप्रैल 2020

गांव का क्राइसिस मैनेजमेंट

गांव का क्राइसिस मैनेजमेंट

बुरा समय कभी मुनादी करके नहीं आता। इससे लड़ने की तैयारी को अपने दैनंदिन जीवन का हिस्सा बनाना पड़ता है। शहरों में जीवन अपेक्षाकृत ज्यादा आसान है, सुविधाओं से लेकर सरकारी सहायता तक की सुविधा  आसानी से हासिल हो जाती है। वहीं गांवों में खुद कुआं खोदकर प्यास बुझाने वाले हालात होते हैं। ऐसे में जरूरी संसाधनों से वंचित ग्रामीणों का सबसे बड़ा संबल उनकी हिम्मत ही हुआ करती है। वहां जीवट ही जीवन का पर्यायवाची बन जाता है। अपने हिसाब से वे ऐसी ईजाद कर लिया करते हैं जो संकट के समय में उनके सहायक बन जाते हैं।

आजकल लॉकडाउन शब्द सबसे अधिक चर्चा में है। कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी से बचाव के लिए इसे ब्रह्मास्त्र बताया जा रहा है और हर समझदार व्यक्ति पूरी शिद्दत से इसका पालन कर रहा है। वैसे अतीत में झांकें तो सबसे पहले द्वापर युग में लॉकडाउन के हालात ब्रजभूमि में तब पैदा होते हैं जब गोपाल श्रीकृष्ण की नव युगीन नीतियों से खफा होकर कई दिनों तक लगातार बारिश करवाने लगते हैं। मान्यताओं के अनुसार कृष्ण अपनी कानी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत को उठा लेते हैं, और उसके नीचे सभी व्रजवासी शरण लेते हैं। " संघे शक्ति " के इस अलौकिक प्रयोग के सामने इंद्र का कोप पानी भरने को विवश हो जाता है।

खैर, द्वापर युग तो बहुत दूर की बात है, लेकिन बचपन में सावन-भादो के महीनों में कई बार लगातार बारिश की वजह से गांव में अघोषित लॉकडाउन की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी। हथिया, पूरबा, कनहा नक्षत्र में ज्यादा बारिश कराने की होड़ सी लग जाती थी। घर से बाहर निकल पाना मुश्किल हो जाता था। मगर ऐसे विपरीत हालात में भी चहुं ओर व्याप्त पानी से पेट की आग नहीं बुझ पाती थी। हालांकि तब आटा घरों में ही पिस जाता था और धान की फसल तैयार होने के बाद चावल  कूटकर रख लिया जाता था। सो आटा-चावल की चिंता नहीं हुआ करती थी, लेकिन केवल रोटी-भात खाना भी तो आसान नहीं...सो सब्जी की समस्या हो जाती थी। जलभराव के कारण खेतों में लगी हरी सब्जियां गल जाती थीं और लगातार बारिश के कारण हाट न लगने की वजह से बाहर से सब्जी लाना मुश्किल होता था।

ऐसे में कुछ चीजें रेडिमेड सब्जी का काम किया करती थीं। इनमें सबसे ज्यादा काम आती थी तीसी , जिसे शहरों की सभ्य भाषा में अलसी कहा जाता है और नए जमाने के विशेषज्ञ चिकित्सक स्वास्थ्य के लिए गुणों की खान बताते हैं। इसी अलसी को भूनकर ओखल में कूट लिया जाता और इसमें नमक मिलाकर हमलोग रोटी और चावल दोनों ही भरपेट खा लिया करते थे। इसके बाद नंबर आता था आम के टिकोरे से बनी खटाई का। आंधी में गिरे टिकोरे हम बच्चे जब झोला भर-भर कर लाते तो उसे छीलने के बाद गुठली निकाल कर काट दिया जाता और हल्दी-नमक लपेटकर कई दिनों तक धूप में सुखाया जाता। बारिश के मौसम में तथाकथित लॉकडाउन में उसे सिलबट्टे पर पीस लिया जाता और यह सब्जी का सब्सिटीच्यूट बन जाता। इसके अलावा सीजन में सुखाकर रखी गई गोभी, मूली, बैंगन भी अपनी-अपनी  मात्रा के हिसाब से महत्वपूर्ण भूमिका निभाते। ...और इस तरह विषम परिस्थितियों में भी बिना किसी सरकारी-गैरसरकारी इमदाद के सबका काम चल जाता था।

मौजूदा माहौल में लॉकडाउन से उपजे हालात के बीच कल हैदराबाद में रह रहे ममेरे भाई ने जब सरसों तेल और नमक के साथ चावल खाने की चर्चा की तो सहज ही मुंह में पानी भर आया।...और बचपन के दिन याद आ गये जब बड़ी ही सहजता से हर मुश्किल को आसान बना लिया जाता था।

03 अप्रैल 2020

नो अप्रैल फूल प्लीज

नो अप्रैल फूल...प्लीज

दस-बारह साल पहले की बात है। तब आज जैसे स्मार्टफोन नहीं हुआ करते थे बड़ी स्क्रीन वाले। जिस मोबाइल फोन को आजकल डिब्बा वाला फोन कहकर हेय दृष्टि से देखा जाता है, उन्हीं की पैड वाले ब्लैक एंड व्हाइट फोन का सहारा था। एसएमएस के इस्तेमाल की शुरुआत के दिन थे। स्क्रीन छोटा होने से लंबे मैसेज को पढ़ने के लिए शब्द दर शब्द ऊपर से नीचे जाना पड़ता था। 
उन दिनों मेरा एक बहुत ही अजीज दोस्त अपने परिवार के साथ लंदन में रहता था। अंग्रेजी नववर्ष के आगमन की वेला थी। मेरे पास एक एसएमएस आया, जिसका लब्बोलुआब कुछ इस तरह था - 

आप लोगों के साथ जो समय बीता, अच्छा-बुरा जैसा भी रहा, कट गया। मुझे मेरी गलतियों के लिए माफ कर देना। मैं अब कुछ ही पलों का मेहमान हूं। फिर आप  सभी को अलविदा कह जाऊंगा। ... इसके अलावा भी काफी सारी बातें...और सबसे अंत में लिखा था - मैं हूं जाता हुआ साल....

मैंने लंदन वाले अपने दोस्त को वह एसएमएस फॉरवर्ड कर दिया। चंद सेकंड में ही उसका फोन आया। उसकी आवाज काफी मायूसी और परेशानी भरी थी। दुआ-सलाम के बजाय उसने पूछा- क्या हुआ? सब कुशल तो है? उसके सवालों से मैं अचकचा गया। मैंने कहा- हां भाई, सब कुशल है। तुम इतने परेशान क्यों हो रहे हो? उसने कहा कि अभी-अभी तुम्हारा एसएमएस मिला, उसमें तुमने क्या अनाप-शनाप लिखा है, कुछ ही पलों का मेहमान हूं! 
मैंने कहा कि तुमने पूरा एसएमएस नहीं पढ़ा शायद। उसने हामी भरते हुए कहा कि शुरुआत के कुछ शब्द पढ़कर ही मैं चिंतित-विचलित हो गया। मैंने उसे बताया कि परेशान मत हो भाई, एसएमएस को पूरा पढ़ो, यह नये साल का मैसेज है। बीता साल विदाई ले रहा है, मैं दुनिया को अलविदा नहीं कह रहा। तबसे मैंने कसम खा ली कि भावनाओं को उद्वेलित करने वाले ऐसे मैसेज किसी को कभी नहीं भेजूंगा। 

मौजूदा माहौल में कोरोना की महामारी के कारण जब पूरी दुनिया दहशत में है, लॉकडाउन के चलते हम सभी अपने-अपने घरों में कैद होकर रह गए हैं, मेरा आप सभी से निवेदन है कि इस बार किसी को भी अप्रैल फूल न बनाएं, प्लीज। फेसबुक, व्हाट्सएप या दूसरे किसी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अप्रैल फूल वाले संदेश न पोस्ट करें। किसी अनहोनी की वजह से बाद में पछताने से अच्छा है पहले ही संभल जाइए। किसी शायर ने कहा भी है -

चांदनी रात हो तो बरसात बुरी लगती है
घर में अर्थी हो तो बारात बुरी लगती है
दिल में गम हो तो मेरे दोस्त
दुनिया की हर बात बुरी लगती है।

01 अप्रैल 2020

सबको खुश रखने वाला रूलाकर चला गया

सबको खुश रखने वाला रुलाकर चला गया

वर्ष था 1991। जून का महीना। गर्मी अपने रंग दिखा रही थी। मैं बीए की परीक्षा देने के बाद गांव आ गया था। रिजल्ट छह-आठ महीने बाद ही आना था। जीवन के महासमर में उतरने के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं के चक्रव्यूह को भेदने की शुरुआत हो चुकी थी। मगर इसी बीच हालात कुछ ऐसे बदले कि मंजिल ही बदल गई। अब तक बाबूजी से हर महीने मिलने वाले पैसे से पढ़ाई की गाड़ी खींच रहा था। अब मुझे जीविकोपार्जन की छोटी-सी शुरुआत के सिलसिले में किशनगंज जाना पड़ गया। रात करीब आठ बजे हाजीपुर से सिलीगुड़ी की बस पकड़ी। पहली बार बस में इतना लंबा सफर। बस कहीं मेरे गंतव्य से आगे न बढ़ जाए। इसलिए आंखें नींद से बोझिल होने के बावजूद डर के मारे सो नहीं पा रहा था। पूर्णिया पार करते ही रिमझिम बरसात के सामने जून की गर्मी ने हार मान ली थी। मौसम सुहाना हो गया था। ...और शायद यह नियति का संकेत था कि आगे भी सब कुछ मनभावन होने वाला है।

सूरज की पहली किरण उगने के साथ ही मैं किशनगंज की धरती पर था। नई जगह। नया परिवेश। नए लोग। 
... और काम तो अलहदा था ही। कॉलेज लाइफ से परे दुनियादारी के जीवन में पहला कदम। वहां मिले कई सारे लोगों में से एक थे दास बाबू। सीएल दास। मोहल्ले के लोगों के लिए चुन्नी दा और बच्चों के लिए हर पल प्यार लुटाने वाले मिस्टर इंडिया जैसे चुन्नी काकू। उनसे मिलकर ऐसा लगता कि यह आदमी सामने वाले की भावनाओं का सच्चा कद्रदान है। पहली मुलाकात में ही उन्होंने अपने स्नेह का पिटारा मेरे लिए खोल दिया।  फिर उसके बाद तो उनकी मदद से मेरे लिए हर राह हमवार होती चली गई। 

मैट्रिक पास करने के बाद ही  आगे की पढ़ाई के लिए गांव छोड़कर मुजफ्फरपुर चला गया था। उसके बाद बीए करने तक करीब सात साल अकेले वहां रह चुका था। हालांकि हफ्ते-पंद्रह दिन...ज्यादा हुआ तो महीने में एक बार घर चला ही आता था। मगर अब किशनगंज से हर महीने घर जाना संभव नहीं था। 
तुलसी बाबा ने लिखा है - जा पर कृपा राम के होई। ता पर कृपा करे सब कोई। ... तो कुछ उसी तर्ज पर दास बाबू का स्नेह भाजन  समझकर उनके परिवार वालों से लेकर मित्रों तक ने मुझ पर इस कदर अपना प्यार-दुलार लुटाया कि मुझे कभी घर से दूर रहने का अहसास नहीं हुआ। इस दौरान मैंने देखा कि पर्याप्त धन-संसाधन न होने के बावजूद लोगों की मदद के लिए दास बाबू किस तरह तत्पर रहा करते थे। उन सभी के साथ रहकर बंगाली समाज और उसके रहन-सहन को करीब से जानने-समझने का सुअवसर मिला, जिसके बारे में अब तक शरदचंद्र के उपन्यासों में ही पढ़ा था। 

समय अपनी गति से बड़े ही खुशगवार तरीके से बीत रहा था कि एक बार फिर हालात ने पलटा खाया और नई शुरुआत के लिए मुझे किशनगंज छोड़ना पड़ा। बस स्टैंड में बिताए गए दर्द से बोझिल वो विदाई के पल आज तक नहीं भूले हैं। तब मोबाइल का जमाना नहीं था, सो पत्रों के माध्यम से ही कुशलता का आदान-प्रदान होता। यादों ने जब काफी सताया तो आठ-दस साल बाद समय निकाल कर किशनगंज गया। बता नहीं सकता, दास बाबू और किशनगंज के और मित्र कितने खुश हुए। पिछले कुछ वर्षों में मोबाइल आ जाने के बाद यदा-कदा बात हो जाया करती थी। हर बार एक ही मनुहार-एक बार परिवार के साथ किशनगंज आइए। मैं हामी तो भर देता, लेकिन अपने मन मुताबिक कर पाने का अवकाश हर किसी को कहां मिल पाता है। 

पिछले दिनों बार-बार फोन करने के बावजूद कॉल रिसीव न हो पाने से मेरी बेचैनी बढ़ गई थी। बदलते हुए समय के साथ रोजी-रोजगार के सिलसिले में किशनगंज के दूसरे मित्रों का ठिकाना भी बदल गया। सो काफी प्रयासों के बाद दास बाबू के मोहल्ले के एक लड़के का मोबाइल नंबर मिल पाया। उससे बात हुई तो पता चला कि दास बाबू को पैरालिसिस का अटैक पड़ गया है और वे बिस्तर पर हैं। तभी से सोच रहा था कि एक बार जाकर उनसे मिलूं, लेकिन एक के बाद एक व्यस्तता कदम रोकती रही। किशनगंज के ही एक बच्चे को जन्मदिन की बधाई देने के लिए कल रात फोन किया तो पता चला कि दास बाबू नहीं रहे। इसके साथ ही उनके साथ बिताए गए पल स्मृति पटल पर चलचित्र की तरह दृश्य दर दृश्य आते जा रहे हैं। दिल कहता है कि यह सूचना गलत हो, मगर ... काश ! ऐसा हो पाता। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सबको खुश रखने वाले दास बाबू को अपने चरणों में खुशनुमा माहौल प्रदान करें।
ॐ शान्ति शान्ति शान्ति।

21 मार्च 2020

अथ श्री पेड़ा पुराण

अथ श्री पेड़ा पुराण

कबिरा जब हम पैदा हुए...तब मिठाइयों की कल्पना शादी-विवाह, उपनयन-द्विरागमन के अवसर पर ही हो पाती थी। समाज भी तब इतना अधिक समृद्ध नहीं था। सो अतिथि अपनी चरणों की धूलि को ही मेजबान के लिए सबसे बड़ी भेंट मानते थे। इक्का-दुक्का कोई अतिथि थोड़ी मेहरबानी भी करता तो ब्रिटानिया कंपनी की मिल्क बिकिज बिस्किट ले आता जो तब शायद दो रुपये का मिलता था। दो-एक साल में कभी हम बच्चों की किस्मत ज्यादा जोर मारती तो कोई मेहमान नाइस बिस्किट का डिब्बा लेकर आता। उस बिस्किट पर लगे चीनी के दाने की मिठास आज की क्रीम वाली बिस्किट में कहां। एक बुजुर्ग जब आते तो अपनी जेब में रखी मिश्री की डली निकालते और टुकड़े करके हमें देते। मगर हमारे दिल के टुकड़े तो उनके आगमन मात्र से ही हो जाया करते थे।

...मगर मांएं तो अपने बच्चों का मन पढ़ लिया करती हैं। सो बिना किसी विशेष अवसर के बच्चों का मुंह मीठा कराने के लिए जतन करने से कैसे बाज आ जातीं। ऐसे में देवताओं की शरण में जाने के अलावा उनके पास दूसरा कोई उपाय नहीं होता। वे कुलदेवी-कुलदेवता, ग्राम देवता या मंदिर में स्थापित देवताओं से मनौती मान देतीं। तब आसपास की दुकानों में मनौती पूरी करने के लिए देवताओं को चढ़ाने के लिए मिठाई के नाम पर बताशे और पेड़े के अलावा कुछ मिलता भी नहीं था। खालिश चीनी से बने बताशे की बिसात ही क्या...मगर पेड़े का स्वाद बचपन में ही जुबान पर बखूबी चढ़ गया। 

जहां तक याद कर पाता हूं, मेरे बचपन के दिनों हमारे घर के पास बड़े ही वृहद स्तर पर गायत्री महायज्ञ का आयोजन हुआ था। उसके मुख्य कर्ता-धर्ता मौनी बाबा के पास जब हम जाते तो पीतल के डब्बे से निकाल कर जो पेड़ा देते, आज तक फिर कभी वैसा स्वाद नहीं मिला। बाबाधाम (देवघर) से आने वाले श्रद्धालुओं के हाथों प्रसाद स्वरूप मिलने वाले पेड़े का स्वाद भी आज तक भूल नहीं पाया हूं। रक्षाबंधन पर दीदी के यहां जाता तो राखी बांधने के बाद वह अपने हाथों से बनाया हुआ जो पेड़ा खिलाती थीं, उसका भी कोई जवाब नहीं। 

हमारे गांव के चूल्हा बाबा-नूजा बाबा के पेड़ों का जलवा भी कुछ कम नहीं था। उनके अवसान के साथ ही वह स्वाद भी इतिहास होकर रह गया। उमाशंकर भाई ने काफी हद तक उनकी परंपरा को निभाने की कोशिश की, मगर वैसी कामयाबी हासिल नहीं कर सके। पड़ोसी गांव बरडीहा और महेयां के एकाध दुकानदार ने भी अपनी विशिष्ट पहचान बनानी चाही, मगर अधिक दिनों तक इसे बरकरार नहीं रख सके। कभी हाजीपुर के पास स्थित दिग्घी के पेड़े ने ललचाया तो कभी मुजफ्फरपुर के पेड़े ने बहलाया, मगर दर-दर भटकने वाले मुझ खानाबदोश की बराबर इनका लुत्फ उठाने की किस्मत कहां। 

अभी होली के बाद जयपुर से लौटने पर एक मित्र ने पेड़े खिलाए तो काफी दिनों बाद मिले इस विशिष्ट स्वाद ने पुरानी यादें ताजा कर दीं । ... और पेड़ा पुराण लेकर आपके सामने हाजिर हो गया।

14 मार्च 2020

अपनों के आने की आहट

अपनों के आने की आहट

प्यार, स्नेह, ममता...इन शब्दों का जिक्र आते ही सहज ही जेहन में मां का चेहरा आ जाता है। फिर जहां मां का जन्म हुआ हो, वहां प्यार, स्नेह और ममता की भावनाओं का कितना बड़ा खजाना होगा, इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है। तभी तो ननिहाल में मिले स्नेह-सुख को हम आजीवन भूल नहीं पाते हैं। मेरा जन्म ननिहाल में ही हुआ था, लेकिन बचपन के जिन दिनों की बातें याद कर पाता हूं, मुझे लगातार लंबे समय तक कभी ननिहाल में रहने का सुअवसर नहीं मिला। मगर जितने भी वहां बिताए, उनकी अमिट छाप स्मृति पटल पर आज भी अंकित है।

तब कहीं आने-जाने के लिए आज की तरह सुविधा नहीं थी। दिन भर में हाजीपुर से समस्तीपुर जाने वाली केवल दो बसों का ही सहारा था। अपने घर से बस से मुसरीघरारी और फिर वहां से रिक्शा से ननिहाल। हालांकि कई बार मां के साथ अपने घर से भी रिक्शे पर नॉन स्टॉप ननिहाल जाने का मौका मिला। तब न जमाना उतना एडवांस हुआ था और न लोग ही मेहनत से बचने वाले। खेती-किसानी वाले परिवारों में बहुतेरे काम घरों में भी हुआ करते थे। इनमें खलिहान से आने वाले अनाज को चुन-बीछकर साफ करने से लेकर मकई को उलाने (भूनने), पीसने, गेहूं पीसने, धान कूटने आदि का काम महिलाओं के जिम्मे हुआ करता था। खाना बनाना तो रुटीन वर्क था ही। 

...तब तैयार अनाज को आंगन से उठाकर कोठी में रखने और फिर जरूरत पड़ने पर कोठी से निकालने के लिए बांस के बने सूप, डगरा, टोकरी आदि इस्तेमाल की जाती थी। बांस की टोकरी के कितनी भी महीन और बेहतरीन बुनाई के बावजूद छोटे अनाज गिरने का डर रहता था, सो महिलाएं उन टोकरियों को गोबर से लीप देती थीं। इससे सारे छेद बंद हो जाते और फिर अनाज की कौन कहे, आटा भी इससे नहीं गिर पाता था।

ग्रामीण जीवन में बहुत से प्रतिमान गढ़ लिए जाते हैं। मसलन, कौए के बोलने से किसी प्रियजन के शुभागमन की कल्पना, दाहिनी आंख फड़कने से किसी शुभ कार्य होने की आशा का संचार आदि। ...तो मेरी नानी ने भी कुछ ऐसा ही प्रतिमान गढ़ रखा था। जैसे ही दरवाजे पर रिक्शा रुकता, सूप-डगरा आदि लीपना छोड़कर हमारे पास आ जातीं और कहतीं- मैंने जब इन्हें लीपना शुरू किया था, मुझे लग गया था कि बेटी आएगी। यह सुनकर हमें बहुत ही अच्छा लगता। संभव है कुछ ऐसा ही अहसास मेरी मौसियों और मौसेरे भाई- बहनों को भी हुआ हो।

रात को अपेक्षाकृत जल्दी सो जाने के कारण नींद खुल गई तो मोबाइल पर बहुचर्चित फिल्म " थप्पड़" देखने लगा। इसके एक दृश्य में नायिका के अचानक ससुराल से सब कुछ छोड़कर आ जाने पर दुनियादारी के सिद्धांतों की बोझ तले दबी मां की ममता से अधिक पिता का स्नेह उमड़ पड़ता है। ...और फिर उस  बोझिल वातावरण को सामान्य बनाने के लिए वह जो कुछ बोलते हैं, उसे सुनकर मुझे नानी और उनकी बात याद आ गई। ... फिर मैं बची हुई फिल्म छोड़कर अपनी यादों को सहेजने में जुट गया।

09 मार्च 2020

तकनीक का सहारा

तकनीक का सहारा

ट्रेन का सफर हर बार नए अनुभव कराता है। और सर्वाधिक प्रभावित करने वाले अनुभव स्लीपर कोच में होते हैं। हालांकि जनरल कोच में और भी विरल अनुभूति हो सकती है, मगर इतनी हिम्मत कहां। मगर हालात अनुकूल हों तो ट्रेन के सफर में मैं स्लीपर कोच को ही वरीयता देता हूं। सो गुलाबी नगर जाने के लिए एक बार फिर मरुधर एक्सप्रेस में बैठा हूं। बाहर का नजारा देखकर मन दुखी है। कल तक गेहूं की जो लहलहाती फसल आंखों को सुकून देने के साथ ही किसानों के अरमानों को नई उड़ान देती थीं, कल उन पर ओलों ने ऐसी चोट की कि फसलें जहां की तहां औंधी लेट गईं। इसके साथ ही हजारों किसानों के सपनों की भी हत्या हो गई। 
चूंकि खेती-किसानी से बचपन से ही नाता रहा है, सो किसानों की पीड़ा का झंझावात मन में हलचल मचाए था। इसी बीच नबी की शान में गाए जाने वाली कव्वाली की आवाज कान में पड़ी। 
पिछले आठ-नौ साल से इस ट्रेन में सफर करते हुए यही समझ पाया हूं कि इसमें अधिकांश सवारियां मेहंदीपुर बालाजी के श्रद्धालुओं और फिर उसके बाद अजमेर शरीफ दरगाह जाने वालोंं की होती है। ऐसे में ईश्वर-अल्लाह के नाम पर मांगकर गुजारा करने वालों के लिए ये सॉफ्ट टारगेट होते हैं। पहले देखा करता था कि दो लोग एक हरा चादर फैलाए हुए यात्रियों के बीच से गुजरते हुए चलते थे, जिस पर उर्दू में कुछ लिखा होता था था। इसके साथ वे नबी की शान में कुछ गाते भी थे। 

मगर इस बार तो यह बंदा अकेले ही था। सुनहरे रंग की चादर फैलाए इस शख्स  के होठों पर भी कोई जुंबिश नहीं दिख रही थी और काफी बुलंद आवाज में कव्वाली के अल्फाज पूरी बोगी को गुंजायमान किए थे। तभी मेरी नजर उसके कमर में लटके यंत्र पर पड़ी। तब मेरी समझ में आया कि तकनीक की कश्ती पर सवार इस शख्स को इस छोटे से साउंड सिस्टम ने जहां किसी और को अपनी कमाई में साझीदार बनाने से बचाया, वहीं दिन भर तेज आवाज में चिल्ला-चिल्लाकर गला खराब होने की परेशानी से भी बचा दिया। जय तकनीक...जय विज्ञान।

07 मार्च 2020

खाजा का समोसा अवतार

खाजा का समोसा अवतार

खाजा बचपन से ही मुझे मिठाइयों में सर्वाधिक पसंद है। या फिर कहें कि यह सबसे अधिक खाने को मिलता था। जलेबी-रसगुल्ला सरीखी मिठाइयों के दर्शन शादी-विवाह-उपनयन के विशेष अवसरों पर ही हो पाते थे, वहीं खाजा के लिए इन विशेष अवसरों का इंतजार नहीं करना पड़ता था। यह कभी भी हमारी खुशी के लिए मुंह मीठा कराने आ जाता। हमारे यहां तब बहू-बेटी की विदाई के समय उसके साथ भेजने के लिए निश्चित तौर पर खाजा जरूर बनाया जाता था। 

...और समाज में जब इसका प्रचलन था, तो आस-पड़ोस से लेकर पट्टी-पट्टीदारी और टोला-मोहल्ले में कोई भी बहू-बेटी आती तो बायना में उसके घर से खाजा जरूर आता, जिस पर हम बच्चों का ही पहला अधिकार हुआ करता। ...तो इस तरह इसका स्वाद बचपन में ही जुबान पर चढ़ गया। आज भी गांव जाता हूं तो पूछने से बाज नहीं आता कि कहीं से खाजा आया है क्या।

तब काफी लंबे-चौड़े और अच्छी खासी आबादी वाले हमारे बड़े गांव में खाजा बनाने के इकलौते स्पेशलिस्ट हलवाई हुआ करते थे गरभू साह। जब भी किसी घर में खाजा बनाने की बात होती तो उन्हें ही याद किया जाता। दुबले पतले, लंबे कद के श्याम वर्णी गरभू साह लंबी मूंछों के नीचे होठों के बीच बीड़ी के कश खींचते हुए दरमियानी कद के गोल-मटोल असिस्टेंट के साथ अस्त्र-शस्त्र लेकर प्रकट हो जाते। उनके अस्त्र-शस्त्रों में बड़ा सा छनौटा, रोज-रोज तेल पीने से काला हो चुका करीब चार-पांच फीट लंबा और एक फीट चौड़ा लकड़ी का तख्ता, जो खाजा को बेलने के लिए चकले के काम आता, बेलन आदि शामिल थे। आते ही सबसे पहले अपने असिस्टेंट की मदद से धरती खोदकर चूल्हा बनाते और फिर अपने काम में जुट जाते। और हम बच्चे इसके बाद वहीं मंडराते रहते। 

द्विज प्रजाति की इस मिठाई की कई खासियतें हैं। मसलन, इसका कुरकुरा होना, मिठास की सीमित मात्रा, गांव-देहात में जहां आज से चालीस-पचास साल पहले फ्रिज आदि के बारे में सोचना तो दूर, हम जानते भी नहीं थे, कई दिनों तक यह यूं ही ताजा बना रहता है, बिना किसी विशेष साधन-संसाधन के। 

लखनऊ में कल शाम मुंशी पुलिया पर मिठाई की दुकान पर होली की विशेष मिठाई गुझिया की कई प्रजातियों के बीच काउंटर पर रखे खाजा देखकर मन प्रसन्न हो गया।  मैंने पूछा कि यह खाजा है ? तो सेल्समैन ने बताया कि खाजा नहीं, यह मीठा समोसा है। इसके अंदर कराची हलवा भरा गया है। अब इसका नाम और तासीर भले ही बदल गया हो, लेकिन शक्ल मेरी महबूबा मिठाई खाजा से मिलती जुलती थी, सो इसके प्रति अपने मोहब्बत की रस्म निभाते हुए साथ ले आया। स्वाद वैसा ही कुरकुरा... हालांकि कराची हलवा नाम मात्र का ही था।

06 मार्च 2020

असीम संभावनाओं से भरे संत का असमय अंत

असीम संभावनाओं से भरे संत का असमय अंत

करीब ढाई दशक पहले की बात है। नई जगह, अनजान डगर। फिर बस के सफर में आदमी पूरी तरह बेबस हो जाता है। किताबों में ही राजस्थान का नाम सुना था। भरसक कोशिश थी कि दिन रहते पहुंच जाऊं, लेकिन लोकल बस का हाल ऐसा कि जरा-सी स्पीड पकड़ते ही रोकने के लिए कोई पैसेंजर आवाज लगा देता। टेढ़े-मेढ़े रास्ते पर बस चली जा रही थी। शाम के धुंधलके में चार मंजिला मंदिर थोड़ी दूर से नजर आने के बाद जान में जान आई। खड़ी सीढ़ियां चढ़ते हुए सांस फूल गई। वहां जाकर पता चला महंतजी ध्यान में बैठे हैं।

महज 17-18 साल की उम्र। चेहरे पर अद्भुत अद्वितीय तेज। बैठे हुए होने के बावजूद करीब छह फीट की लंबाई अलग ही अहसास करा रही थी। दंडवत प्रणाम करके सामने बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी साधना पूरी हुई और वे मुझसे मुखातिब हुए। होठों पर स्मित मुस्कान के साथ मधुर धीमी आवाज में ऐसा जादू कि सीढ़ियां चढ़ने की सारी थकान तत्काल ही काफूर हो गई। एक दिन रुकने के बाद चलने लगा तो बोले, छुट्टी हो तो चले आया कीजिए। मंदिर परिसर का वातावरण इतना पवित्र और आनंददायक था कि एक निश्चित अंतराल के बाद वहां आना-जाना लगा रहा। उनका सान्निध्य मन में सहज ही आश्वस्ति का भाव जगाता था।

निम्बार्क संप्रदाय के तहत संन्यास की दीक्षा ग्रहण करने के बाद उन्हें नाम मिला था - रसिक बिहारी शरण दास। ...और फिर जयपुर-रामगढ़-आंधी मार्ग पर स्थित अस्थल (थौलाई) के श्री गोपालजी के मंदिर के महंत के रूप में वे मंदिर के जीर्णोद्धार-उन्नयन के साथ ही खुद को भी साधना-मार्ग का सच्चा पथिक बनाने के लिए सदैव प्रयासरत रहे। धर्मग्रंथों के सम्यक अनुशीलन के लिए संस्कृत में निष्णात होने के लिए कभी पाणिनि के सूत्रों का अवगाहन तो कभी श्री राधाकृष्ण को भक्ति भाव से रिझाने की ललक के साथ संगीत की शिक्षा के लिए सरगम के धुनों में खुद को समर्पित कर देना। नामजप तो दिनचर्या का हिस्सा ही था। श्री गोपाल सहस्त्रनाम के कितने पारायण उन्होंने किए होंगे, इसकी गिनती मुश्किल है।

बीतते हुए समय के साथ मेरी भी व्यस्तताएं बढ़ती गईं और इसके फलस्वरूप धीरे-धीरे अस्थल जाने का अंतराल बढ़ता चला गया। लखनऊ आने के बाद रही-सही कसर भी खत्म-सी हो गई। इसके बावजूद मेेरे प्रति उनका स्नेह भाव कभी कम नहीं हुआ। मोबाइल की सुविधा होने के बाद यदा-कदा बात हो जाया करती थी। लंबे अंतराल के बाद दो साल पहले अन्नकूट पर परिवार के साथ अस्थल मंदिर जाने का सुअवसर मिला था। देखकर जैसे खिल गए।  बोले-कम से कम श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, नंदोत्सव, अन्नकूट पर तो आ ही जाया कीजिए। ...मगर मेरी मजबूरियां...खैर...।

डेढ़-दो महीने बाद पिछले गुरुवार 20 फरवरी को फोन किया तो राधे-राधे कहते ही पूछ बैठे- आ रहे हैं क्या? जब मैंने लखनऊ होने की बात कही तो बोले, अगली बार कब जयपुर आएंगे? मैंने होली पर आने की बात कही तो बोले, इस बार जरूर मिलेंगे। आपको फुरसत नहीं होगी तो मैं ही जयपुर आ जाऊंगा।

मगर अफसोस... दो दिन बाद ही 22 फरवरी को पता चला कि काल के क्रूर हाथों ने उन्हें सदा-सदा के लिए हमसे छीन लिया। आठ दिन हो गए, लेकिन दिल अब भी मानने को तैयार नहीं है कि वे अब हमारे बीच नहीं हैं। उनके अवसान के साथ ही असीम संभावनाओं से भरे एक महान संत का असमय अंत हो गया। जिन्होंने अपना जीवन ईश्वर की सेवा में समर्पित कर रखा था, उनके लिए  मैं ईश्वर से क्या प्रार्थना करूं। ऊं शांति... शांति... शांति

01 मार्च 2020

सशक्त नारी, सशक्त समाज

सशक्त नारी, सशक्त समाज

बिहार के जिस क्षेत्र से मेरा ताल्लुक है, वहां वसंत पंचमी से ही होली की शुरुआत हो जाती है। बचपन में वर्षों अपने टोले के शिवालय में वसंत पंचमी पर फाग के गीत सुनता रहा। होली उमंग-उत्साह का त्योहार है। मगर औरतें आपस में ही होली खेलती हैं। हां, देवर-भाभी, साली-बहनोई और सलहज-ननदोई के बीच होली में यह वर्जना अवश्य ही टूट जाया करती है।  मगर जहां तक होली के गीतों की बात है तो आम तौर पर हमारे यहां यह जिम्मा पुरुषों ने ही उठा रखा है।

भांजी की शादी के उत्सव में भागीदारी के लिए आज दोपहर पहुंचा तो महिलाओं की टोली शिव-चर्चा में लीन थीं। हमारे यहां महिलाएं शादी-विवाह के गीत गाते समय या प्रभु के भजन-कीर्तन करते समय ढोल-मंजीरे का उपयोग नहीं करतीं। उनके समवेत स्वर से जो मधुर संगीत निकलता है, उसके सामने किसी साज की जरूरत महसूस भी नहीं होती। 

...तो यहां शिव चर्चा की पूर्णाहुति के बाद महिलाओं ने जब फाग गीतों की टेर छेड़ी तो मुझे सहज ही सुखद आश्चर्य का अहसास हुआ। पहले ही फाग गीत का आशय था कि भगवान शिव बड़े ही रंगरसिया हैं कि उन्होंने फागुन के महीने में गिरिराजसुता गौरी संग शादी रचाई। इसके बाद महिलाओं ने कई प्रचलित फाग गीत गाये, जिन्हें आज तक मैं पुरुषों के समवेत स्वर में ही सुनता रहा हूं। बहन के गांव में यह अभिनव पहल आश्वस्त करती है जहां नारी सशक्त है, वह समाज अवश्य ही सशक्त होगा।

24 फरवरी 2020

शब्दों का खेल... कभी कमाल, कभी मलाल

शब्दों का खेल : कभी कमाल, कभी मलाल

" बाल की खाल" मुहावरे का जन्म कैसे हुआ, यह तो पता नहीं, लेकिन हमारे शरीर से जुड़ा यह शब्द है ही ऐसा। आइए, आज बाल की खाल निकालते हैं। 

यह सिर की शोभा बढ़ाता है तो बाल, केश कहलाता है। आंखों के पास आकर यह कभी भौं दिखाने लगता है तो कभी पलकों के रूप में अपनी पहचान बताता है। चेहरे पर आने पर दाढ़ी बन जाता है तो नाक के नीचे आने से इंसान की प्रतिष्ठा का परिचायक बन मूंछ पर ताव देने लगता है। हाथ-पैरों में आने के बाद खुशियां मिलने पर रोम-रोम से दुआएं देता है तो कभी परेशानियों से घबराकर रोंगटे बन खड़ा हो जाता है। ...तो बाल की खाल निकालने के इस सिलसिले को अब यहीं रोकते हैं। इस पर फिर कभी बात करेंगे।

अब कुछ ऐसे शब्दों की चर्चा करते हैं, जो संदर्भ बदलने के साथ ही अपना अर्थ बदल लेते हैं।

"डिस्चार्ज" शब्द का इस्तेमाल यदि किसी की नौकरी के साथ होने पर तो सहज ही उस व्यक्ति की नाकाबिले माफी गलती और उसके बदले की गई कड़ी कार्रवाई का अहसास होता है। वहीं अस्पताल में भर्ती किसी मरीज के साथ जब " डिस्चार्ज" शब्द जुड़ता है तो यही निराशाजनक शब्द जीवन में नई आशा-उत्साह का संचार करने लगता है। 

छोटे बच्चे जब बड़ों के सवालों के जवाब देते हैं तो मन प्रफुल्लित हो जाता है। लेकिन वही बच्चा जब बड़ा होने पर माता-पिता की किसी बात का जवाब देता है तो इसे अनुशासनहीनता मान लिया जाता है। ... और यह जवाब यदि बहू ने दे दिया तब तो परिवार और समाज इसे अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा कहकर परिभाषित करने में तनिक भी देर नहीं लगाता।

एकेडमिक और प्रतियोगितात्मक परीक्षाओं में दिए जाने वाले जवाब कॅरिअर संवार सकते हैं। मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट में आजकल जितनी कड़ी प्रतिस्पर्धा है, उसमें एक-एक सवाल का जवाब परीक्षा में शामिल होने वालों के भविष्य के लिए निर्णायक बना रहता है। वही विद्यार्थी जब मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट पास करके नामी डॉक्टर बन जाता है और उसके पास कोई मरीज आता है और उसकी क्रिटिकल पोजिशन देखकर जब डॉक्टर जवाब दे देता है तो इसके साथ ही मरीज ही नहीं, उसके परिजनों की भी आशाएं दम तोड़ देती हैं।

ऐसे और भी शब्द हैं, जिनके अर्थ संदर्भ बदलने के साथ ही बदल जाया करते हैं। उनकी चर्चा फिर कभी...

14 फरवरी 2019