पिछले महीने उनके बेटे का उपनयन था। आयोजन बिहार स्थित पैतृक गांव में होना था। मैंने सहज ही पूछ लिया कि कितने दिन गांव में रुकेंगे तो बोले- मेरा तो ज्यादा दिन तक रुकना नहीं हो पाएगा, लेकिन पत्नी और बच्चे 10-15 दिन रुकेंगे। उनका बेटा 12वीं की परीक्षा दे चुका था, रिजल्ट आने में देरी थी और बिटिया की गर्मी की छुट्टी चल रही थी, सो कोई बाधा भी नहीं थी।
खैर, उन्होंने जिस तारीख को लौटने की बात कही थी, मैंने फोन किया तो पता चला कि कार्यक्रम बदल गया है। वहां बहुत गर्मी है। बिजली भी लगातार नहीं रहती। सभी परेशान हो गए। ऐसे में खुद का टिकट कैंसिल कराकर तत्काल में दो दिन बाद का टिकट लिया है। सभी साथ आ रहे हैं।
अभी तीन-चार दिन पहले एक बुजुर्ग सज्जन से बात हुई। वे करीब चार दशक पहले नौकरी के सिलसिले में रांची गए तो फिर वहीं के होकर रह गए। उन्हें भी जून में अपनी माताजी की बरसी के सिलसिले में मुजफ्फरपुर जाना था। उनके दूसरे भाई वहीं रहते हैं। उनसे पूछा कि गांव जाने का मौका मिला या नहीं, तो वे बोले-गया तो जरूर था, लेकिन महज तीन-चार घंटे ही रुक पाया। स्वास्थ्य ठीक नहीं रहने की वजह से यात्रा की अवधि में कटौती कर जल्दी ही रांची लौट गया।
ये दो उदाहरण तो महज बानगी हैं। कई अन्य मित्रों-प्रियजनों से बातचीत में अक्सर ऐसा ही सुनने को मिलता है। लंबी अवधि के बाद अपने गांव ही नहीं, कस्बे या शहर में भी अधिक दिनों तक रुकने का उनका मन नहीं होता। आखिर ऐसी क्या वजह है, जिसके चलते लोग उस धरती पर, उस परिवेश में नहीं रह पाते, जहां उन्होंने बचपन और किशोरावस्था ही नहीं, बल्कि जवानी के भी कुछ साल बिताए हों। तब तो वहां सुविधाएं भी आज की बनिस्पत काफी कम थीं।
जहां तक मैं सोच पाता हूं, इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अपनी जन्मभूमि से लोगों का लगाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। भारतीय संस्कृति में जन्मभूमि को मां का दर्जा दिया गया है...और जब हम इस मां से दूर होते जाते हैं तो एक समय ऐसा आ जाता है, जब यह जन्मभूमि रूपी मां भी हमें अपनाने से इनकार कर देती है। वहां की प्रकृति हमारी प्रकृति से मेल नहीं खाती और फिर एकमात्र उपाय बच जाता है वहां से खिसक लेने का। काश! ऐसा नहीं हो पाता।
15 July 2018 Lucknow
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