Friday, December 10, 2010

घरेलू नौकरों के अपराध : दोषी कौन?

दास और गुलाम प्रथा के विरोध में न जाने विश्व में कितने आंदोलन हुए, लेकिन आजादी के छह दशक बीतने के बाद भी भारत में लाखों लोग घरेलू नौकर के रूप में पशुओं से भी बदतर जीवन जीने को विवश हैं। मानवाधिकार दिवस पर शुक्रवार को देशभर में आयोजित कार्यक्रमों में मानवाधिकार विशेषज्ञों, मानव मात्र के पैरोकारों और बुद्धिजीवियों ने मानवाधिकार की रक्षा के बारे में बड़ी-बड़ी बातें कीं। ऐसा होना भी चाहिए। आखिर आदमी ही तो आदमी के काम आता है। इसलिए मानवाधिकारों के हनन पर चिंता जताया जाना भी चाहिए।
मैं यहां दूसरे मुद्दे पर मुखातिब हूं और मेरा मानना है कि इस मुद्दे पर भी बात की जानी चाहिए। आए दिनों मीडिया में घरेलू नौकरों की ओर से किए जाने वाले अपराधों की खबरें आती रहती हैं। इनमें एकमत से किस्मत के मारे इन नौकरों को अविश्वसनीय, बेईमान, गद्दार, मौकापरस्त आदि विशेषणों से विभूषित किया जाता है। कोई भी यह सोचने की जुर्रत नहीं करता कि आखिरकार कौन से हालात उस बालक, किशोर या युवा को घरेलू नौकरी करने पर विवश करते हैं और किसी घर में नौकरी करते हुए एक लंबी अवधि बिताने के बाद वह क्योंकर अपराध करता है। जहां तक मैं समझता हूं, इन घरेलू नौकरों के साथ कहीं भी (अपवादस्वरूप दो-चार प्रतिशत को छोड़कर) अपनापन का व्यवहार नहीं किया जाता। आजकल तो बड़े घरानों में श्वान भी राजसी ठाठ से जीते हैं और उनकी देखरेख के लिए नियुक्त नौकर कुत्तों से भी बदतर जीवन जीने को बाध्य होते हैं।
घरेलू नौकर इन बड़ी अट्टालिकाओं में मालिकों को लाखों-करोड़ों में खेलते देखता है। मजबूरी के मारे कभी वह मालिक से अपनी तनख्वाह बढ़ाने की गुजारिश करता है तो उसे सिरे से नकार दिया जाता है। मालिकों के लिए भांति-भांति के व्यंजन बनाने वाले नौकर को अक्सर बासी, जूठे और बचे-खुचे भोजन से ही अपना पेट भरना होता है। ऐसे में कई बार उनकी सहनशक्ति जवाब दे जाती है और वे मालिकों से मुक्ति पाने या फिर उनके समकक्ष आने के लिए मौका देखकर अपराधों को अंजाम दे देते हैं।
चूंकि यह कदम भावावेश में उठाया गया होता है और पुलिस से बचने की तिकड़मों से अनजान ये बेचारे शीघ्र ही गिरफ्त में भी आ जाते हैं। इसके बाद इनकी यातना का दौर शुरू होता है। इनकी पीड़ा सुनने वाला कोई नहीं होता और न ही ये वकीलों के जरिये अदालत में अपना पक्ष रख पाते। अपराधियों को दंड देने का मैं कतई विरोध नहीं करता, लेकिन यह अपराध को मिटाने का उपाय नहीं है। ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए, जिसमें किसी के अपराधी बनने के मूल कारणों को खोजा जाए और उसे सुधारने के पर्याप्त अवसर दिए जाएं। उसे रोजगारोन्मुखी शिक्षण-प्रशिक्षण देकर उसके पुनर्वास के समुचित प्रयास किए जाएं। हां, इतना अवश्य किया जा सकता है कि पुलिस ऐसे लोगों की गतिविधियों पर लगातार नजर रखे और यदि कोई दुबारा अपराध की ओर अग्रसर हो तो उसके खिलाफ दंडात्मक रवैया अपनाया जाए। कुल मिलाकर जनकल्याणकारी सरकार का कर्तव्य अपराधियों को मिटाना नहीं, बल्कि अपराध को मिटाना ही होना चाहिए। हां, संगठित अपराधों के प्रति सरकार को किसी तरह की नरमी नहीं बरतनी चाहिए।

Wednesday, November 24, 2010

बिहार ने विकास को चुना


बिहार विधानसभा के लिए छह चरणों में करीब डेढ़ माह तक चली चुनाव प्रक्रिया की पूर्णाहुति बुधवार को हुई। बिहार के मतदाताओं ने एकमत से जद (यू)-भाजपा गठबंधन के पिछले पांच साल के दौरान किए गए कामकाज पर मुहर लगा दी और यह मुहर भी ऐसी कि प्रतिपक्ष का सारा गणित ही गड़बड़ा गया। चुनाव प्रचार के दौरान सोनिया-राहुल-मनमोहन समेत कांग्रेस के दिग्गजों के आरोपों और केंद्र सरकार की ओर से दी गई सहायता को सूबे के विकास में नहीं लगाने तथा अन्य आरोपों का नीतीश ने जिस शालीनता के साथ जवाब दिया, जनता शायद उससे रीझ सी गई। यही नहीं, लालू यादव-रामविलास पासवान भी अपनी आक्रामक शैली में राजग गठबंधन पर अनर्गल प्रलाप से कतई बाज नहीं आ रहे थे, लेकिन नीतीश कुमार ने न तो कभी अपना आपा खोया और न ही सलीका छोड़ा।
देश के राजनीतिक गलियारे में जैसा कि प्रचलित है, जिस धरती पर लोकतंत्र ने पहली सांसें लीं, जातिवाद का जहर भी सबसे अधिक उसी को भुगतना पड़ा, लेकिन इस चुनाव में बिहार ने इस कलंक को काफी हद तक धो डाला। तथाकथित कई बाहुबलियों और दिग्गजों की ऐसी भद्द पिटी कि इससे उबरने में उन्हें बरसों लग जाएंगे। लालू प्रणीत राजद के पंद्रह साल के शासन के दौरान बिहार की जनता ने प्रदेश की जो दुर्गति देखी थी, वे जद (यू)-भाजपा गठबंधन सरकार के पांच साल के कार्यकाल में हुए विकास कार्यों से सहज ही अभिभूत थे।
उन्हें लग रहा था कि विकास के इस पहिये को यदि गतिमान रखना है तो इस गठबंधन को एक और अवसर देना ही होगा। सुशासन के रथ को अग्रसर करने के लिए सारथि को बदलना कदापि बुद्धिमानी नहीं होती, जिसे बिहार के मतदाताओं ने अच्छी तरह समझा। लालू के राज में बिहारवासियों की पहचान ऐसी बन गई थी जो लालू रूपी जमूरे से परेशान होने के बावजूद चुनाव आने पर उसके इशारों पर करतब दिखाने (वोट देकर उसे दुबारा सत्तासीन करने) की मूर्खता करने को विवश था। इस चुनाव परिणाम ने उस पहचान से भी बिहारवासियों को मुक्ति दिलाई है। हां, चुनावी सभाओं के दौरान जनता ने लालू के मसखरेपन का भरपूर मजा लिया, जिससे लालू-रामविलास का मुगालता बना रहा, लेकिन बेहद चतुराई से जनता ने इसे वोट में परिणत नहीं होने दिया।
कांग्रेस का हश्र तो यही होना था
देश की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक चार दशक से अधिक समय तक कांग्रेस का एकछत्र राज रहा था और इसी अवधि में धीरे-धीरे बिहार पतन की ओर अग्रसर होता चला गया। श्रीकृष्ण सिंह के अलावा एक भी मुख्यमंत्री नहीं हुआ, जिसे बिहार में विकास कार्यों के लिए याद किया जाए। बिहार की जनता कांग्रेस को गांधी बाबा की पार्टी समझकर वोट देती रही और कांग्रेस ने इसे अपनी जागीर समझ लिया और सत्ता-लिप्ता में डूबे उसके आकाओं ने जनता को ही भुला दिया। लंबे समय तक किसी को बेवकूफ बनाना सर्वथा असंभव है, सो बिहार की वर्तमान पीढ़ी ने इस सत्य को समझ लिया कि कांग्रेस तो कब की गांधी को ही भूलकर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है तो फिर इसे परे झटकना ही श्रेयस्कर है।
विकास पुरुष बने रहेंगे आदर्श
नई पीढ़ी के मतदाता अपना हित-अहित अच्छी तरह समझते हैं। इन्हें मंडल-कमंडल, जाति-संप्रदाय के भुलावों से नहीं बहलाया जा सकता। जो अच्छे काम करेगा, वही राज करेगा। इसका प्रमाण सबसे पहले नरेंद्र मोदी ने दिया जो नॉन बीजेपी सभी दलों के सामूहिक प्रयासों के बावजूद तीन विधानसभा चुनावों से अपना परचम लहराए हुए हैं। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ में रमण सिंह, उड़ीसा में नवीन पटनायक आदि को विकास कार्यों की बदौलत ही जनता ने पंचवर्षीय परीक्षा में सौ में से सौ अंक दिए। जनता को चाहिए काम, काम और बस काम....और ऐसा नहीं करने वालों का मिट जाएगा नाम।
जनता को लगी अपनी जीत
चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में नीतीश कुमार ने इसे जनता की जीत बताया और जनता ने भी इसे अपनी जीत समझा। बिहार से बाहर रह रहे बिहार के लोग चुनाव परिणाम देखने के लिए सुबह से ही टेलीविजन के सामने बैठ गए थे और हर कोई बिहार स्थित अपने सगे-संबंधियों और मित्रों से फोन कर अपने गृह जिले के परिणाम को जानने को उत्सुक था। दोपहर बाद जब जद (यू)-भाजपा गठबंधन को आशातीत सफलता की पुष्टि हो गई तो एक-दूसरे को बधाई देने का सिलसिला शुरू हो गया। हर किसी को यही लग रहा था जैसे वह खुद जीत गया हो।

Thursday, November 4, 2010

लीपने से विहंस उठता था आंगन


अपने देश में भले ही बड़ी-बड़ी आवासीय अट्टालिकाएं और व्यावसायिक कॉम्पलेक्स बन चुके हैं, इसके बावजूद सचाई यह है कि भारत की आत्मा आज भी गांवों में ही बसती है। बात दीगर है कि सबको पेट भरने वाले अन्नदाता किसान ही दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज हैं। खैर, अभी त्योहार का माहौल है और ऐसी गंभीर बातें करने का मेरा भी इरादा नहीं है, लेकिन इसे नकारा भी नहीं जा सकता।
मैं दिवाली की पूर्व संध्या पर आपसे अपनी पुरानी यादें शेयर करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। श्रीमतीजी कई दिनों से यथाशक्ति घर की साफ-सफाई में लगी हैं और मन ही मन हाथ न बंटाने के लिए मुझे कोसने से भी बाज नहीं आतीं।
गुलाबी नगर में लोगों ने एक-डेढ़ महीने पहले से घरों में रंग-रोगन का काम शुरू करवा दिया था और अब उन पर चीन से आई सस्ती बिजली की लड़ियां जगमगा रही हैं। इन घरों की आभा आंखों को भाती जरूर है, लेकिन उस उल्लास का उत्स कहीं नहीं दिखता। गांवों में ऐसे पर्व-त्योहारों पर घर-आंगन को गोबर से लीपा जाता है, तो उसे देखकर लगता है जैसे आंगन विहंस उठा हो। उसकी चमक और महक अतुलनीय होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में कहूं तो---चमन में फूल खिलते हैं, वन में हंसते हैं।--तो मुझे भी कुछ ऐसी ही अनुभूति इस महानगर में होती है। लगता है बहुत कुछ पीछे छूट गया है, जिसे चाहकर भी साथ में सहेजकर नहीं रखा जा सकता। हां, यादें हैं तो सांसों के साथ अंतिम समय तक बनी रहेंगी।
सभी ब्लॉगर साथियों को इन शब्दों में ज्योतिपर्व दीपावली की मंगलकामनाएं----------

फैले यश का उजास
पूरे हों सकल आस
इस बार की दिवाली
आपके लिए हो खास....
आप सब पर मां महालक्ष्मी की कृपा बनी रहे।

Friday, October 22, 2010

पूजा नहीं, पढ़ने के लिए हैं संस्कृत ग्रंथ


महर्षि वाल्मीकि जयंती पर शुक्रवार को जयपुर के सूचना केंद्र में पूर्व आईपीएस अधिकारी और बिहार राज्य धार्मिक न्यास परिषद के अध्यक्ष आचार्य किशोर कुणाल का व्याखान सुनने का सुअवसर राजस्थान संस्कृत अकादमी ने उपलब्ध कराया। कुणाल ने वाल्मीकि रामाय का सामाजिक महत्व पर अपने उद्बोधन में रामायण का जो नवनीत श्रोताओं के समक्ष रखा, वह इतना उत्कृष्ट था कि श्रोता उसमें निमग्न से होते रहे। किशोर वय से कुणाल के विषय में सुना था, उनकी ईमानदारी, संस्कृत प्रेम, मानव सेवा आदि के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। उनके अध्यात्म प्रेम का प्रमाण तो पटना जंक्शन पर उतरते ही होता है, जब महावीर मंदिर का गुंबद आपको नजर आता है। इस मंदिर में सब कुछ इतना व्यवस्थित है कि मन प्रफुल्लित और गौरवान्वित हो उठता है। महावीर मंदिर न्यास की ओर से पटना में ही संचालित महावीर कैंसर अस्पताल (हनुमानजी का एक नाम महावीर भी है) भी बिहार के कैंसर रोगियों के लिए वरदान सरीखा है। खैर, किशोर कुणाल के विषय में कुछ भी कहना सूरज को दीपक दिखाने के समान है, लेकिन भारतीय परंपरा इसकी भी अनुमति देती है।
कुणाल का कहना था कि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में राम का जो चरित्र उपस्थापित किया है, वह अतुलनीय है। महर्षि वाल्मीकि और महर्षि वेदव्यास ने क्रमशः रामायण और महाभारत के माध्यम से मानवता को जो सीख दी है, उस पर यदि अमल किया जाता तो यह धरती स्वर्ग हो जाती। रामायण में राम और भरत के माध्यम से बताया गया कि संबंध निर्वाह में स्वार्थपरता का कोई स्थान नहीं है और ऐसे में सर्वत्र मंगल ही मंगल होता है, त्याग की भावना के आधार पर ही सुदृढ़ समाज की रचना संभव है, जबकि महाभारत में दुर्योधन ने स्वार्थान्धता के कारण सूई की नोक के बराबर जमीन भी पांडवों को न देने की घोषणा करके जिस दुस्साहस का परिचय दिया, उसकी परिणति संपूर्ण भारत के महाविनाश से हुई। वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य से रचनात्मकता का संदेश दिया, जबकि व्यास ने चेतावनी दी कि स्वार्थ के वशीभूत रहोगे तो विनाश अवश्यंभावी है। आचार्य कुणाल के व्याख्यान में जो कुछ था, उसका अवगाहन ही किया जा सकता है, उसे शब्दों में बांधने का सामर्थ्य मुझमें कतई नहीं है। सीता निर्वासन प्रसंग की चर्चा के दौरान कुणाल इतने भावुक हो उठे कि उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली और गला रूंध सा गया।
इससे पहले राजस्थान विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्रोफेसर नंदकिशोर पाण्डेय ने रामायण में वर्णित राम-भरत मिलन के सूत्र को पकड़कर तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की अद्भुत व्याख्या की। चित्रकूट में राम-भरत संवाद के दौरान वर्णित श्लोकों की व्याख्या उन्होंने वर्तमान संदर्भ से जोड़ते हुए बखूबी किया। हिन्दी के साथ संस्कृत भाषा पर भी उनका अधिकार सुनते ही बनता था। उन्होंने कहा कि इसमें दो राय नहीं है कि तुलसीदास ने रामकथा को जन-जन तक पहुंचाया, लेकिन रामकथा तुलसी के प्रादुर्भाव से हजारों वर्ष पहले भी भारत ही नहीं, बल्कि भारत से बाहर भी प्रचलित थी। उन्होंने इसके पक्ष में कई प्रमाण भी दिए।
अध्यक्षीय उद्बोधन में संस्कृत मनीषी देवर्षि कलानाथ शास्त्री का कहना था कि कथा-प्रवचन सरीखे सार्वजनिक कार्यक्रमों में ऐसे विद्वानों के व्याख्यान होने चाहिए, ताकि आमजन संस्कृत और भारतीय संस्कृति में छिप गूढ़ तत्वों से अवगत होकर इसे आचरण में ला सके।
मैं समझता हूं कि भारतीय संस्कृत ग्रंथों में ज्ञान का जो खजाना भरा पड़ा है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। श्रीमद्भगवद्गीता और रामचरितमानस अमूमन प्रत्येक हिन्दू घर में अवश्य होता है, लेकिन अफसोस इसे लाल कपड़े में बांधकर पूजाघर में रख दिया गया है। परिवार के लोग प्रतिदिन स्नान के बाद इन ग्रंथों में अगरबत्ती दिखाना नहीं भूलते। अब जरूरत है कि इन ग्रंथों को पूजाघर से निकालकर ड्राइंग रूम और घर की पुस्तकालय में प्रतिष्ठित किया जाए और नियमित रूप से इनका स्वाध्याय किया जाए और इससे जीवन प्रबंधन और सफलता का नवनीत निकालकर उससे जीवन को धन्य किया जाए। माता-पिता खुद भी संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन करें औऱ अपनी संतान को भी इसके लिए प्रेरित करें।

Monday, October 18, 2010

हवा का रुख तो भांपो

बड़े-बुजुर्ग कहा करते हैं कि हवा का रुख भांपकर ही कोई काम करना चाहिए। किसानों के लिए तो यह कई मायने में बहुत ही जरूरी हुआ करता है। हवा का रुख देखकर ही तय करते हैं कि किस हवा का प्रभाव उनकी फसलों के लिए कैसा रहेगा। बारिश के मौसम में मैंने कई बार पिताजी को कहते सुना करता था कि किस नक्षत्र में किस हवा के प्रभाव से बरसात हुआ करेगी और यह अक्सर सच भी साबित हुआ करती थी। विशेषकर गेहूं और धान तैयार करते समय हवा की उपादेयता काफी महत्वपूर्ण हुआ करती है। अब तो कई बार किसानों को टेबल फैन या पेडेस्टल फैन लगाकर भी गेहूं से भूसा उड़ाते देखने का मौका मिल जाता है। समुद्र में मछली पकड़ने वाले मछुआरों के लिए हवा का रुख का आकलन जीविका ही नहीं, जीवन के लिहाज से भी काफी महत्वपूर्ण होता है।
हवा के रुख की महत्ता का अहसास आज सुबह बेटे ने कराया। वह अपनी कॉलोनी के सामुदायिक केंद्र में सामूहिक रूप से आयोजित रावण-दहन देखने गया था। वहां जब रावण के पुतले में आग लगाई गई तो आधा ही पुतला जल पाया। बच्चा कह रहा था कि आग लगाने वालों ने हवा का रुख भांपे बिना आग लगा दी, जिससे ऐसा हुआ और लोगों को रावण-दहन का पूरा मजा नहीं आया। कल रात को ऑफिस में भी फोटोग्राफर कह रहे थे कि कई स्थानों पर रावण के पुतले अधजले रह गए, या फिर उन्हें जलाने में अतिरिक्त मशक्कत करनी पड़ी और दर्शकों का मजा भी किरकिरा हुआ। ऐसे में यह सोचने पर विवश होना पड़ता है कि विज्ञान चाहे जितनी तरक्की कर ले लेकिन पुराने समय से चली आ रही मान्यताओं की उपयोगिता कभी खत्म नहीं हो सकेगी।

Saturday, October 16, 2010

ऐसे तो नहीं मरेगा रावण?


पश्चिम बंगाल के पड़ोस होने का प्रभाव कहा जाए कि बिहार में भी शक्ति की उपासना बड़े पैमाने पर होती है और हर पांच-छह किलोमीटर पर दुर्गा पूजा होती है, मेला भरता है। शारदीय नवरात्र के दौरान उत्सव का माहौल रहता है। इसे एक संयोग ही कहा जाएगा कि मेरे जन्म के साल ही गांव में नवयुवक संघ के बैनर तले दुर्गा पूजा और मेला शुरू हुआ। पांचवीं-छठी क्लास तक आते-आते मेरे जैसे बच्चों की भागीदारी भी मेले में होने लगी। चूंकि गांव में इतने पैसे नहीं होते, सो ग्रामीण नवयुवक ही मेले में लोगों के मनोरंजन के लिए सप्तमी से लेकर दशमी तक नाटकों का मंचन करते थे, सो मुझे भी इनमें अवसर मिला और मेरे अंदर का कलाकार निखरता रहा। बाद में नई दिल्ली में अखिल भारतीय स्तर पर संस्कृत नाटक प्रतियोगिता में भी हिस्सा लेने का अवसर मिला। खैर, मैं यहां अपनी नाट्य प्रतिभा का बखान नहीं करना चाहता, वह तो यूं ही बात निकली तो काफी पीछे तक चली गई।
जैसा मैंने शुरू में कहा कि बंगाल-बिहार-झारखंड-उत्तर प्रदेश में शक्ति स्वरूपा मां भगवती की आराधना की ही प्रधानता रहती है। जिधर से आप गुजरेंगे, नवरात्र के दौरान लाउडस्पीकर पर दुर्गा सप्तशती के श्लोक बरबस ही सुनाई देते हैं। वहां रावण के पुतले की दहन की परंपरा बहुत कम ही है। पहली बार जब मैं उपरोक्त नाट्य प्रतियोगिता के सिलसिले में विजयादशमी के दिन दिल्ली गया था तो लालकिले के सामने लाल जैन मंदिर की धर्मशाला में ठहरा था। पूरे देश के हमारे सहपाठी उसी में ठहरे थे। शाम को छत से देखा कि सामने काफी बड़ी भीड़ इकट्ठी है। रंग-बिरंगी आतिशबाजी के बीच शाम को रावण के पुतले का दहन हुआ। उसके डेढ़-दो साल बाद जयपुर आ गया। यहां भी नवरात्र के दौरान मां भगवती की आराधना में कहीं कोई कमी नहीं दिखती, लेकिन रावण के पुतले जलाने का उत्साह भगवती की भक्ति पर भारी पड़ती नजर आती है। हां, प्रवासी बंगालियों के समुदाय शहर में आधा दर्जन से अधिक स्थानों पर परंपरागत रूप से मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित करते हैं और सप्तमी से लेकर विजयादशमी तक अपनी संस्कृति को जीते हैं, लेकिन इन उत्सवों में स्थानीय निवासियों की भागीदारी न के बराबर होती है। हां, गुलाबी नगर में सैकड़ों स्थानों पर सार्वजनिक रूप से बड़े पैमाने पर रावण-मेघनाद-कुंभकर्ण-अहिरावण के पुतले जलाए जाते हैं। एक तरह की होड़ होती है आयोजकों में कि किसका रावण कितना ऊंचा होगा और कौन कितनी आतिशबाजी-बारूद फूंकता है। इतना ही नहीं, कॉलोनी से लेकर गली तक में बच्चे अपने स्तर पर रावण को जलाने में पीछे नहीं रहते।
अब मैं उस मूल मुद्दे पर आता हूं जिसके लिए मैंने आज यह संवाद छेड़ा है। भगवान राम ने त्रेता युग में रावण का संहार किया था और तब से हजारों साल बीत गए, हम रावण के पुतले जलाते जा रहे हैं, लेकिन वह हर साल और बड़े रूप में चिढ़ाता हुआ हमारे सामने आ खड़ा होता है। यह आलस्य, अविश्वास, कामचोरी, भ्रष्टाचार और न जाने हमारी किन-किन कमजोरियों के रूप में दस से भी अधिक सिरों के साथ हमारे अंदर कायम हो चुका है। हम यदि अपने अंदर निहित बुराई रूपी रावण को मार सकें तभी विजयादशमी मनाना सार्थक हो सकेगा। यदि हम खुद को पाक साफ मानते हैं तो बुराई करने वालों का ही सफाया कर दें ताकि उसे और पनपने का मौका नहीं मिले। रावण को समूल मिटाने का बस यही दो तरीका मेरी समझ में आता है, अन्यथा लकीर पीटने में हमारा सानी और कहां मिल पाएगा। विजयादशमी की ढेर सारी मंगलकामनाएं।

Tuesday, July 20, 2010

मैं एक अघोषित पागल हूं.

काफी दिनों से ब्लॉग जगत से गायब हूं। लिखने की कौन कहे, पढ़ने तक का समय नहीं मिल पाता। आज कहीं यह विचारों को उद्वेलित करने वाली कविता पढ़ी, तो सोचा कि आपसे भी शेयर करूं। वरिष्ठ समाजवादी नेता रामदत्त जोशी ने यह कविता लिखी थी। वे प्रजा समाजवादी पारटी के टिकट पर नैनीताल जिले काशीपुर से दो बार विधायक रहे। जैसा कि हमेशा से होता आया है, सिद्धांतों से समझौता नहीं करने वाला इस शख्स का दशकों पहले गरीबी और अभाव में निधन हो गया। श्रद्धांजलि सहित प्रस्तुत है उनकी यह कविता----

नैनीताल की शाम

मैं एक अघोषित पागल हूं. जो बीत गया मैं वो कल हूं.
कालांतर ने परिभाषाएं, शब्दों के अर्थ बदल डाले,

सिद्धांतनिष्ठ तो सनकी हैं, खब्ती हैं नैतिकता वाले,
नहीं धन बटोरने का शऊर, ज्यों बंद अकल के हैं ताले,

ईमानदार हैं बेवकूफ़, वह तो मूरख हैं मतवाले?
आदर्शवाद है पागलपन, लेकिन मैं उसका कायल हूं.
मैं एक अघोषित पागल हूं.

निर्वाचित जन सेवक होकर भी मैंने वेतन नहीं लिया,
जो फ़र्स्ट क्लास का नकद किराया भी मिलता था नहीं लिया,

पहले दरजे में रेल सफ़र की फ्री सुविधा को नहीं लिया,
साधारण श्रेणी में जनता के साथ खुशी से सफ़र किया,

जो व्यर्थ मरूस्थल में बरसा मैं एक अकेला बादल हूं.
मैं एक अघोषित पागल हूं.

जनता द्वारा परित्यक्त विधायक को पेनशन के क्या माने?
है एक डकैती-कानूनी, जनता बेचारी क्या जाने?

कानून बनाना जनहित में जिनका कत्तर्व्य वही जाने-
क्यों अपनी ही ऐवर्य वृद्धि के नियम बनाते मन-माने?

आंसू से जो धुल जाता है, दुखती आंखों का काजल हूं.
मैं एक अघोषित पागल हूं.

सादा जीवन, ऊंचे विचार, यह सब ढकोसले बाजी हैं?
अबके ज्यादातर नेतागण झूठे पाखंडी पाजी है,

कुर्सी पाने के लिए शत्रुवत सांप छछूंदर राजी हैं,
कोई वैचारिक-वाद नहीं, कोई सैद्धांतिक सोच नहीं,

सर्वोपरि कुर्सीवाद एका, जिसका निंदक मैं पागल हूं.
मैं एक अघोषित पागल हूं.

है राजनीति तिकड़म बाजी, धोखे, घपले, हैं घोटाले,
गिरते हैं इसी समुंदर में, सारे समाज के पतनाले,

गंगाजल हो या गंदाजल, हैं नीचे को बहने वाले,
संपूर्ण राष्ट्र का रक्त हो गया है विषाक्त मानस काले,

इसके दोषी जन प्रतिनिधियों को अपराधी कहता पागल हूं.
मैं एक अघोषित पागल हूं.

बापू के मन में पीड़ा थी, भारत में व्याप्त गरीबी की,
समृद्ध तबके के गांधी ने आधे वस्त्रों में रहकर ही,

ग्रामीण कुटीरों से फूंकीथी स्वतंत्रता की रणभेरी,
उनका संदेशा था ‘शासक नेताओं रहना सावधान’

सत्ता करती है भ्रष्ट, मगर यह पागलपन है, पागल हूं.
मैं एक अघोषित पागल हूं.

Tuesday, May 25, 2010

पैसा दीजिए, पानी देखिए


पेयजल समस्या पर होने वाली सेमिनारों-संगोष्ठियों में वक्ता बड़ी संजीदगी से कहते हैं कि यदि पानी का मोल नहीं समझा, इसे व्यर्थ बहाना नहीं छोड़ा ...तो आने वाले दिनों में पानी के लिए विश्वयुद्ध लड़े जाएंगे। भविष्य की बातें तो भविष्य पर ही छोड़ दें, फिलहाल ख्यातनाम व्यंग्य लेखक शरद जोशी की एक अति लघु चुटीली रचना के सहारे अपनी बात कहना चाहता हूं। (स्मृति दोष के कारण संभव है इसमें कुछ त्रुटि भी हो)

18वीं सदी: दूध की नदियां बहती हैं, बच्चों को दूध में नहलाइए।
19 वीं सदी : दूध कुछ कम हुआ, बच्चों को दूध पिलाइए।
20वीं सदी : दूध और कम हो गया, बच्चों को दूध दिखाइए।
21 वीं सदी : दूध अब बीते दिनों की बात हो गई, बच्चों को दूध की कहानियां सुनाइए।

नित्य-प्रति दूध के बढ़ते दामों ने स्वर्गीय शरद जोशी की रचना को सच कर दिखाया है। कम से कम मध्यमवर्गीय परिवारों की तो ऐसी ही स्थिति हो गई है।

हां, तो मैं पानी की बात कह रहा था और रास्ता भटकर दूध पर आ गया। दूध की तो छोडि़ए, यह तो कुछ दिनों में विलासिता संबंधी वस्तु में शामिल कर ली जाएगी।
...तो मैं पानी पर ही आता हूं। गुलाबी नगर में प्यास के मारे लोगों की परेशानियों की खबर अखबारों की सुर्खियां बनी हुई हैं। ऐसे में नगरीय विकास के लिए जिम्मेदार सरकारी संस्था जयपुर विकास प्राधिकरण (जेडीए) ने शहर की मुख्य सड़क जवाहरलाल नेहरू मार्ग के किनारे ‘जलधारा’ परियोजना शुरू की है। यह शाम 5 से रात 9 बजे तक खुली रहती है। करीब आधा किलोमीटर लंबे नाले के किनारे लाइटें लगाई गई हैं और इसके दोनों ओर 15-20 फुट ऊंचे फव्वारे लगाए गए हैं। इसकी टिकट दर 10 रुपए प्रति व्यक्ति है, लेकिन जयपुरवासियों की इसके प्रति दीवानगी को देखते हुए शनिवार-रविवार और छुट्टियों के दिन यह दर दोगुनी अर्थात 20 रुपए कर दी गई है। इसके बावजूद इसके प्रति लोगों की दीवानगी कम नहीं हो पाई है।
इस तरह लोग पानी देखने के लिए पैसे दे रहे हैं। यदि ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले दिनों में अन्य स्थानों पर नदी की लहरों और समंदर में उठ रहे ज्वारभाटों को देखने के बदले भी पैसे देने पड़ेंगे। ईश्वर करे, ऐसा दिन नहीं आए और आने वाले मानसून में पर्याप्त बारिश हो, जिससे धरती संतृप्त हो, नदी-नालों में पानी भर जाए और हां, ...इतना पानी अवश्य ही बचे जो लोगों की आंखों में बना रहे।

Monday, May 10, 2010

आस्था अपार, भाषा बनी दीवार


विश्व क्षितिज पर गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने भारत को जो पहचान दिलाई, उसके लिए प्रत्येक भारतवासी उनके प्रति कृतज्ञ है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उनकी अमर कृति 'गीतांजलि ' अधिकतर बंगाली परिवारों में 'गीता' और 'रामचरितमानस' की तरह रखी जाती है। रेल मंत्री ममता बनर्जी ने बंगभूमि निवासिनी का कर्तव्य निभाते हुए रेलवे मंत्रालय की ओर से रवींद्र नाथ टैगोर की 150 वीं जयंती वर्ष के उपलक्ष में 9 मई को दिल्ली तथा राजस्थान से प्रकाशित होने वाले हिंदी के अखबारों में पूरे पृष्ठ का विज्ञापन प्रकाशित कराया। जिसे जैसे मौका मिलता है, अपनी जन्मभूमि, भाषा, आकाओं तथा जिस किसी के भी वह कृतज्ञ होता है, से उऋण होने के लिए इस प्रकार के प्रयास करता है। इससे मुझे कोई एतराज भी नहीं है, लेकिन हिंदी भाषी पाठक होने के नाते मेरी यह पीड़ा रही कि गुरुदेव के चित्र के नीचे बांगला भाषा में लिखी पंक्तियां मेरे लिए 'काला अक्षर भैंस बराबर' थीं। ममता बनर्जी को यदि यह राष्ट्रव्यापी विज्ञापन छपवाना ही था तो क्षेत्र विशेष की भाषा में यदि इसका लिप्यांतरण करवा देतीं तो अच्छा रहता।

Wednesday, April 14, 2010

बंद पिंजरे में तोता ने दिया अंडा!

टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में आजकल टेलीविजन पर तरह-तरह की अविश्वसनीय खबरों का प्रसारण आम बात है। कई बार तो इन पर भरोसा करना बहुत ही मुश्किल होता है, लेकिन प्रिंट मीडिया में काफी हद तक ऐसी खबरों से परहेज किया जाता है। बुधवार १४ अप्रेल की रात इंटरनेट पर दैनिक जागरण देख रहा था तो बिहार के समस्तीपुर जिले की खबरों में यह खबर दिखी। १० अप्रेल को यह खबर नेट पर डाली गई है और संभव है ९ या १० अप्रेल को बिहार से प्रकाशित दैनिक जागरण में प्रमुखता से छपी भी हो। आशा है,आप भी इस खबर से अचंभित हुए बिना नहीं रहेंगे। चूंकि इंटरनेट का विस्तार बहुत ही व्यापक है, संभव है समस्तीपुर में जिस स्थान की यह खबर है, उसके आसपास के किसी पाठक की नजर भी इस पर पड़े और इसकी सत्यता का राजफाश हो सके। प्रस्तुत है जस की तस दैनिक जागरण पर प्रकाशित खबर-


समस्तीपुर। आश्चर्य परंतु सत्य का दावा। दस वर्षो से पिंजरे में बंद एक तोते ने अंडा देकर लोगों को हैरत में डाल दिया है। इस कौतूहल को अपनी आंखों से देखने के लिए लोगों की भीड़ शुक्रवार को काशीपुर मोहल्ले में रहने वाले संवेदक मुरारी सिंह के आवास पर लगी रही। शहर के कृष्णापुरी मोहल्ला में रहने वाले श्री सिंह का कहना है कि इस पालतू तोता करीब दस वर्ष पूर्व उनके घर आया था। बच्चों ने उसे पिंजरे में बंद कर दिया। तब से वह पिंजरे में ही कैद है। तीन दिन पूर्व इस तोते ने पिंजरे में ही एक अंडा दिया। जिसे घर के किसी बच्चे ने नष्ट कर दिया था। जानकारी मिलने पर वे खुद आश्चर्य में पड़ गए थे। इसी बीच शुक्रवार को तोते ने फिर से एक अंडा दिया। यह पिंजरे में मौजूद है। बिना किसी दूसरे तोते के संपर्क का अंडा देना सबको आश्चर्य में डाल रहा है। दूसरी ओर इंडियन बर्ड कंजरवेशन नेटवर्क के स्टेट काडिनेटर अरविंद मिश्रा का कहना है कि बिना जोड़े का यह संभव नहीं है। अंडा देने से पूर्व पक्षी कई चरणों से गुजरता है। इसी तरह पक्षी विशेषज्ञ, बोटेनिस्ट सह एमआरएम कालेज, दरभंगा के प्राचार्य विद्या कुमार झा ने भी दावे को सिरे से खारिज किया है। पशुपालन पदाधिकारी डा. एके सिंह भी इससे इनकार करते हैं। वैसे उनका कहना है कि अंडा की जांच किये बिना कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा।

Wednesday, March 31, 2010

भगवान से बड़ा हो गया भक्त का कद


चैत्र पूर्णिमा पर मंगलवार को हनुमानजी की जयंती मनाई गई। जहां-जहां बजरंगबली के भक्त हैं, वहां-वहां उन्होंने अपने आराध्य के जन्मदिन पर अपने-अपने तरीके से उल्लास मनाया। छोटी काशी जयपुर के मंदिरों में तो एक दिन पहले यानी सोमवार अद्र्धरात्रि से ही हनुमानजी का अभिषेक शुरू हो गया था। मंगलवार को भी दिनभर मंदिरों में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी। पदयात्राएं-शोभायात्राएं निकलीं, झांकियां सजाई गईं। खैर, यहां मेरा मकसद आपलोगों को हनुमान जयंती पर हुए आयोजनों की जानकारी देना नहीं है। न ही मैं हनुमानजी की कृपा के चमत्कारों से आपको अवगत कराना चाहता हूं क्योंकि पवनपुत्र के पवन की गति से भी तेज चमत्कारों के बारे में मैं अपनी अल्पज्ञता जगजाहिर नहीं करना चाहता। यहां मैं किसी और उद्देश्य से आपसे मुखातिब हूं।
ज़हां तक मैं समझता हूं, हिंदू परिवारों में कोई भी परिवार ऐसा नहीं होगा, जहां हनुमानजी की पूजा नहीं होती हो। कोई भी साक्षर शायद ऐसा नहीं होगा, जिसकी दिनचर्या हनुमान चालीसा से शुरू न होती हो। साक्षर ही क्यों, मैंने तो कई ऐसे लोगों को भी देखा है जिन्हें बिल्कुल ही अक्षरज्ञान नहीं था और उन्हें हनुमान चालीसा ही नहीं, बल्कि सुंदरकांड की चौपाइयां और दोहे तक याद हैं। मेरे गांव में आज भी हर शनिवार और मंगलवार को सुंदरकांड के सामूहिक पाठ किए जाते हैं और इसके साथ सहज रूप से ही हनुमान चालीसा का भी पाठ होता है। बस, बाकी लोगों के साथ सुनकर और उनके ताल से ताल मिलाते हुए उन निरक्षर लोगों ने भी सहज रूप से हनुमान चालीसा और सुंदरकांड को कंठस्थ कर लिया।
गांवों-कस्बों में सहज रूप से ही हनुमानजी के मंदिर दिख जाते हैं और इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि हनुमानजी ने जिस समर्पण भाव से अपने स्वामी मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की भक्ति की, वह बेमिसाल हो गई। लंका में जब हनुमानजी सीता माता का दुख साझा करने की अशोक वाटिका पहुंचे तो उन्होंने रामदूत को अष्ट सिद्धियों और नव निधियों का वरदान दे दिया, जिन्हें हनुमानजी मुक्तहस्त से अपने भक्तों को लुटाने में कोई संकोच नहीं करते।
ऐसे में तो यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि भगवान बनना भले ही मुश्किल हो, लेकिन भक्त बनकर भी अपना कद ऊंचा बनाने की कला हनुमानजी से अवश्य ही सीखी जा सकती है।

Friday, March 19, 2010

'ढंग` और 'ढोंग` के संगम से मिलती है सफलता

कल एक चिकित्सक मित्र से मिलने गया तो वहां उच्च सरकारी सेवा के अंतिम पायदान पर खड़े एक महानुभाव के भी दर्शन हुए। बातों ही बात में मीडिया की भूमिका या कहें कि उपादेयता पर चर्चा छिड़ी तो उक्त महानुभाव ने बड़े पते की बात की। आप भी गौर फरमाएं। उन महानुभाव का कहना था कि किसी भी काम में सफलता के लिए 'ढंग` और 'ढोंग` का समन्वय जरूरी था। उन्होंने कहा कि किसी व्यक्ति में कितनी ही योग्यता क्यों न हो, यदि तथाकथित 'ढोंग` का सहारा लेकर उसने अपने चारों ओर विशेष आभामंडल नहीं बना रखा है तो उसकी ख्याति एक कमरे में ही सिमटकर रह जाएगी। हालांकि उनका यह भी कहना था कि इस 'ढोंग` के साथ यदि उचित मात्रा में योग्यता का समन्वय नहीं है तो भी यह 'ढोंग` अथ च चमत्कार अधिक दिनों तक नहीं चलने वाला।
इस पते की बात से मुझे किसी महान व्यक्ति की यह उक्ति सहसा ही याद आ गई - आप काफी आदमी को कुछ समय के लिए बेवकूफ बना सकते हैं और कुछ आदमी को काफी समय के लिए बेवकूफ बना सकते हैं। काफी आदमी को काफी समय के लिए बेवकूफ बनाना मुश्किल होता है, नामुमकिन भी यदि आप राजनेता नहीं हैं, क्योंकि राजनेता तो कुछ भी कर सकते हैं।

Friday, March 12, 2010

हींग की दाल, रुद्राक्ष की चटनी

इस पखवाड़े को यदि बजट पखवाड़ा कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी से लेकर विभिन्न राज्यों के वित्त मंत्री और मुख्यमंत्री (जो वित्त मंत्रालय भी देखते हैं) अपने-अपने राज्यों के बजट पेश करने में जुटे हैं। अब इन बजट से जनता का कितना भला हो पाता है, यह तो उसकी किस्मत ही है।
शुरुआत यदि केंद्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की ओर से प्रस्तुत आम बजट से करें तो उन्होंने उसमें कोई ऐसा प्रावधान नहीं किया जिससे महंगाई से पीडि़त लोगों को राहत मिल पाती। हां, डीजल तथा पेट्रोल पर केंद्रीय उत्पाद शुल्क में एक-एक रुपए प्रति लीटर की वृद्धि करने की भी घोषणा की, जिससे इनके मूल्यों में ढाई रुपए प्रति लीटर से अधिक की वृद्धि हो गई। अब इसके दूरगामी परिणाम एक के बाद एक सामने आने लगे हैं। ट्रक ऑपरेटर भाड़ा बढ़ाने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन की चेतावनी दे रहे हैं। ऑटो रिक्शा से लेकर स्कूल वैन और सवारी बसें चलाने वाली सरकारी निगम व निजी बस मालिक तक किराया बढ़ाने की बात कर रहे हैं। आम आदमी की जिजीविषा है कि इसके बावजूद वह जिंदा रहेगा। गृहिणियां रोज-रोज महंगी हो रही दाल में पानी मिलाते-मिलाते परेशान हैं। आखिर कितना पानी मिलाएं। पिछले दिनों अखबारों में खबर छपी थी कि प्रणव मुखर्जी की बिटिया ने वित्त मंत्री पापा को खुला पत्र लिखा था कि सड़कों पर लड़कियों को छेडऩे वालों पर टैक्स लगा दिया जाए। इसका तो मुखर्जी को ध्यान नहीं रहा, लेकिन घर में डाइनिंग टेबल पर हींग के बेस्वाद होने की बात उन्हें याद रही। शायद हींग की क्वालिटी अच्छी नहीं रही हो, सो उन्होंने बजट के दौरान दरियादिली दिखाते हुए हींग की कीमत में कभी की घोषणा कर दी। अब उन्हें कौन बताए कि दाल बनेगी तब तो हींग का छौंक लगेगा। जब लोगों की जेब में दाल खरीदने लायक ही पैसे नहीं होंगे तो सस्ती हींग किस काम की।
अन्य राज्यों के बजट में क्या कुछ हुआ, यह तो गहन अध्ययन का श्रमसाध्य विषय है, लेकिन राजस्थान के गांधीवादी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने हद के बाहर जाकर खाद्यान्न, दलहन, तिलहन सहित कई अन्य वस्तुओं पर वैट दर 4 से बढ़ाकर 5 प्रतिशत कर दी और गलती का पता चलने पर अगले ही दिन उन्हें यह घोषणा वापस लेने को बाध्य होना पड़ा। दरअसल सेल्स टैक्स एक्ट के तहत राज्य सरकार को इन वस्तुओं पर वैट बढ़ाने का हक ही नहीं था। गहलोत ने बजट भाषण के दौरान रुद्राक्ष को करमुक्त करने की घोषणा की। अब उन्हें कौन बताए कि भूखे भजन न होहिं गोपाला। जब पेट भरा होता है तभी भक्ति में भी मन रमता है। भूखे पेट भी उसी स्थिति में भजन हो पाता है जब भजन के बाद पर्याप्त फलाहार की संभावना हो।
हमारे आसमानी राजनेताओं की सोच देखकर तो यही लगता है जैसे वे कह रहे हों-हींग की दाल खाओ रुद्राक्ष की चटनी के साथ, भली करेंगे राम।

Friday, March 5, 2010

अनवांटेड 36 महीने मनमोहनी सरकार के


तत्कालीन प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर की सरकार से कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के बाद जब विश्वासमत पर लोकसभा में बहस हो रही थी, तो चन्द्रशेखर ने बड़े ही उदास स्वर में कहा था-
गैर मुमकिन है कि हालात की गुत्थी सुलझे,
अहले दानिश ने बड़ा सोच के उलझाया है।

आज सहसा ही चंद्रशेखर द्वारा उद्धृत ये पंक्तियां याद आ गईं। वर्तमान दौर में केन्द्र में यूपीए की गठबंधन सरकार सत्तासीन है और देश का मध्यमवरगीय परिवार दिनोंदिन महंगाई की चक्की में पिसता हुआ उपरोक्त पंक्तियों को ही दुहराता रहता है। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह पहला कार्यकाल कुशलतापूर्वक पूरा कर दूसरी पारी खेल रहे हैं। यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी के प्रति उनकी निष्ठा में कहीं कोई कोताही नहीं दिखती, सो उनकी कुरसी को तो कोई खतरा नहीं दिखता, लेकिन वर्तमान दौर में आमजन का पेट भरना मुश्किल हो गया है। सरकार न जाने क्या कर रही है? रही-सही कसर वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी ने आम बजट में पूरी कर दी। पेट्रोल-डीजल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी के कारण प्रत्यक्ष रूप में वाहनों से प्रति सौ रुपए मिलने वाला एवरेज तो कम हो ही गया है, वहीं इसका परोक्ष प्रभाव भी आने वाले दिनों में वस्तुओं के परिवहन की लागत बढ़ने से सामने आएगा।
यह सब तो अर्थशास्त्रियों के चिन्तन का विषय है, लेकिन आम आदमी की चिन्ता को भी कैसे नकार दिया जाए। मैं भी अपनी पीड़ा को दबा नहीं पाता हूं और लिखना कुछ चाहता हूं, लिखने कुछ और ही लगता हूं।
खैर, अब आज की उस खबर पर आता हूं, जिसने मुझे इन पंक्तियों को लिखने के लिए झकझोरा। राजस्थान के सर्वाधिक प्रसारित-प्रतिष्ठित अखबार राजस्थान पत्रिका में शुक्रवार को अन्तिम पृष्ठ पर ---गर्भनिरोधक गोलियों के विज्ञापन पर रोक---शीर्षक खबर ने सहसा ही ध्यान खींचा। खबर में यौन संपर्क के 72 घंटे में गोली लेने पर गर्भ नहीं ठहरने का दावा करने वाले विज्ञापन पर रोक की बात कही गई थी। इस गोली का नाम शायद ---अनवांटेड 72---है। अपने देश में बहुसंख्यक बीपीएल परिवारों के मनोरंजन का सहारा दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल पर इसके इतने विज्ञापन आते थे कि पूछो मत। खबर में खुलासा था कि केन्द्रीय स्वास्थ्य मन्त्रालय की बजाय अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर केन्द्र सरकार के औषधि नियन्त्रक ने वर्ष 2007 में इमरजेंसी गर्भनिरोधक गोलियों के विज्ञापन दिखाए जाने की छूट दी थी। इसमें उक्त गोलियां बनाने वाली कंपनी के अलावा तथाकथित औषधि नियन्त्रक का हित कितना सधा, यह तो जांच का विषय है। 2007 से अब तक सोचें तो लगभग 36 महीने बाद आखिरकार मनमोहनी सरकार चेत पाई। हालांकि यह इकलौता मामला नहीं है। कई अन्य दवाओं के विज्ञापन भी टेलीविजन पर बेधड़क दिखाए जा रहे हैं और सैकड़ों लोग उनके साइड इफेक्ट से जूझने को विवश हैं। आशा है सरकार इन मामलों पर भी ध्यान देगी और लोगों को उनके घर के पास सस्ती और अच्छी क्वालिटी वाली स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराएगी, जिससे आमजन विज्ञापनों की बजाय सरकारी अस्पतालों और डॉक्टरों पर यकीन करके इलाज कराने के लिए कदम बढ़ा सकें।

Saturday, February 27, 2010

होली तो भौजी और साली के संग


जहां तक मैं समझ पाया हूं, पर्व-त्यौहार अप्राप्य को पाने का अवसर प्रदान करते हैं। इन विशेष अवसरों पर अपने इष्ट से अभीष्ट तथा सुख-समृद्धि का वरदान मांगते हैं। जहां तक होली की बात है, तो यह ऐसा पर्व है, जिसमें प्रकृति भी अपने विशेष रंग में रंगी नजर आती है। ऐसा लगता है, मानो प्रकृति पर वसंत का रंग छा गया हो। पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं और नई कोंपलें नए जीवन का संदेश देती प्रतीत होती हैं। माघ शुक्ल पंचमी (वसंत पंचमी) के बाद दिन अनुदिन गर्म होने लगते हैं और फागुन पूर्णिमा के आते-आते सूर्य के ताप का साथ पाकर जब फगुनहट बयार चलती है तो पूरे वातावरण में ही मस्ती घोल देती है।
जब बाहर की प्रकृति बौरा जाए तो मनुष्य के अंदर की प्रकृति कहां स्थिर रह पाती है। आम तौर पर साल के तीन सौ चौंसठ दिन मितभाषी रहने वाला भी होली के दिन वाचाल हो जाता है। बड़े-बड़े मुद्दों पर जो अपनी राय देने में हमेशा कृपणता बरतते हैं, वे भी होली पर ऐसी टिप्पणी कर बैठते हैं कि लोग दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर हो जाते हैं। तभी तो कहते हैं--भर फागुन बुढ़वा देवर लागे....।
फिर हमारी संस्कृति तो और भी निराली है। हम जो भी अच्छा-बुरा करते हैं, उसके पीछे अपना हाथ तो कभी नहीं मानते, बस परंपरा का निर्वहन करते हैं। तभी तो होली के गीतों में राधा-कृष्ण, राम-सीता, शंकर-पार्वती ही हमारे आदर्श हैं। त्रेता में देवर लक्ष्मण ने भाभी सीता को रंग डाला, तो द्वापर में भगवान कृष्ण ने गोपियों पर इस तरह रंग उड़ेला कि घर के लोग पहचान ही न पाएं। हम तो बस उनके अनुयायी हैं और उनकी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। भोले बाबा की बूटी भंग की ठंडाई का असर ज्यों-ज्यों होता है, होली का रंग चोखा होता जाता है।
अप्राप्य को पाने की इच्छा का ही असर है कि होली गीतों में पति-पत्नी की होली कहीं ठहर नहीं पाती। हर पद में हर छंद में देवर-भाभी की ठिठोली ही होली का आदर्श हुआ करती है। इसके बाद साली का नंबर आता है। साली के संग होली खेलने का आनंद तो अवर्णनीय है। एक मित्र से बात हुई, उनकी दो-दो सालियां हैं और होली पर उनका रंगमर्दन करने के लिए वे आज ही ससुराल पहुंच गए थे। अपनी साली का आकर्षण तो यह हुआ, लेकिन भैया की साली के संग होली का आनंद तो सोने पर सुहागा के समान होता है। अब बेचारे भैया होली के इस रंगीले त्यौहार में पत्नी और साली दोनों से वंचित होकर अपने भाग्य को कोसें तो कोसते रहें।
तो आप सबको होली की रंगभरी मंगलकामनाएं। ईश्वर से प्रार्थना करें कि इस जन्म में जिनके साली और देवर नहीं हैं, उन्हें अगले जन्म में यह सुख अवश्य प्राप्त हो। कुछ अतिशयोक्ति हो तो इतना ही कहना चाहूंगा-बुरा न मानो होली है।

Thursday, February 25, 2010

'करप्ट' हो गई खेती ?

भारतीय जनजीवन में अंग्रेजी और भ्रष्टाचार गड्डमड्ड हो गए हैं। अंग्रेजी के बिना कई स्थानों पर काम नहीं चलता तो भ्रष्टाचार के बिना हम काम चलाना चाहते ही नहीं। कई मामलों में ऐसा भी देखने में आया है कि महज सामाजिक रुतबे के लिए लोग अंग्रेजी अखबार मंगवाते हैं और ड्राइंग रूम में टेबिल पर अंग्रेजी की विशिष्ट पत्रिकाएं सजाकर रखते हैं। भ्रष्टाचार का आलम तो यह है कि पिता खुद ही अपनी संतान को इसके लिए प्रेरित करता है।
महज थोड़ी सी सुविधा या समय बचाने के लिए लोग भ्रष्टाचार को जान-बूझकर बढ़ावा देते हैं। मेरा तो मानना है कि हर आदमी यदि अपनी जगह पर ईमान पर चलना चाहे और भ्रष्टाचार को बढ़ावा न देने की ठान ले, तो इस संक्रामक बीमारी को मिटाने में देर नहीं लगेगी अन्यथा यह घुन की तरह पूरी व्यवस्था को ही अंदर ही अंदर चट कर जाएगी।
खैर, अब मैं उस मुद्दे पर आता हूं, जिसने मुझे इन पंक्तियों को लिखने के लिए प्रेरित किया। पिछले दिनों बिहार प्रवास के दौरान एक मित्र से मिलने उनके गांव गया। मित्र घर पर नहीं थे, सो उनके पिताजी से वार्तालाप का दौर शुरू हो गया। बिहार की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक चर्चा के बाद खेती-किसानी का प्रसंग भी सामने आया। मैंने इस वर्ष धान की फसल के बारे में पूछा तो बड़ी ही सहजता से उन्होंने कहा कि मेरे बेटे तो करप्ट खेती करते हैं, धान-गेहूं को कम ही तवज्जो देते हैं। उसमें लाभ कम होता है। मैं समझ नहीं पा रहा था कि खेती कैसे करप्ट हो गई और फिर यह फायदे का सौदा कैसे हो गई। उनकी नजर में खुद को नासमझ साबित करना मुझे भी नागवार गुजरा, सो मैं बातचीत को यूं ही खींचने लगा। मसलन, इस समय उनकी खेतों में कौन सी फसलें उगी हुई हैं आदि-इत्यादि। उन्होंने टमाटर, गोभी, मिर्च जैसी सब्जियों के नाम गिनाए तब मेरी समझ में आया कि वे कैश क्रॉप की बात कर रहे थे। 9वीं-10 वीं में अर्थशास्त्र भी एक विषय हुआ करता था तो खाद्य फसल और व्यावसायिक फसलों के बारे में पढ़ा था। व्यावसायिक फसलों को ही वे कैश क्रॉप की बजाय करप्ट खेती कह रहे थे। वाकई खाद्य फसलों की तुलना में व्यावसायिक फसलें अधिक लाभप्रद होती हैं, यदि सब कुछ उसके अनुकूल हो।
जानकर संतोष हुआ कि कीटनाशकों और उर्वरकों के प्रयोग से फसलें भले ही हानिकारक हो गई हों, लेकिन यह किसी भी रूप में 'करप्ट' होने से बची हुई है। हां, सब्जियों का आकार समय से पहले बढ़ाने तथा दुधारू पशुओं में दूध बढ़ाने के लिए कुछ किसान अवश्य ही घातक ऑक्सिटोसिन का प्रयोग करते हैं, लेकिन यह अपवादस्वरूप ही हैं। सरकारों को यह व्यवस्था करनी चाहिए कि किसानों को उनकी लागत और मेहनत के अनुपात में उनकी उपज का उचित मूल्य मिले तो यह चलन भी रुक सकता है।

रेल बजट में राजनीति हावी

रेलवे स्टेशनों पर रेलवे का ध्येय वाक्य-संरक्षा, सुरक्षा, समय पालन-लिखा रहता है, लेकिन रेल मंत्री ममता बनर्जी के बजट में इस ध्येय वाक्य पर अमल करने की कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखी या कहें कि इस पर ध्यान देना भी उचित नहीं समझा गया। हालांकि ममता ने अपने बजट भाषण में रेलवे के सामाजिक उत्तरदायित्व का जिक्र अवश्य किया, लेकिन उस पर भी राजनीतिक उत्तरदायित्व बाजी मार गया।
पूर्ववर्ती बड़बोले रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने बिहार का बेड़ा गर्क करने के बाद सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए यात्री किराये में वृद्धि नहीं करने की परिपाटी शुरू की थी और अब शायद पश्चिम बंगाल और बिहार में अगले कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ममता बनर्जी भी किराया बढ़ाने की हिम्मत नहीं जुटा सकीं। इसी कड़ी में खाद्यान्नों और किरासन तेल की भाड़ा दरों में 100 रुपए प्रति माल डिब्बा कटौती किए जाने का प्रस्ताव भी आमजन के हित में कम, तृणमूल कांग्रेस व यूपीए के पक्ष में ही अधिक दिखता है।
जहां तक मैं समझता हूं, रेलवे के ध्येय वाक्य का पालन रेल मंत्री की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए थी। कोई भी आदमी जब ट्रेन से सफर करता है तो उसका पहला उद्देश्य तय समय में सुरक्षित अपने गंतव्य पर पहुंचना होता है, भले ही उसे 500 रुपए के स्थान पर 502 या 503 रुपए खर्च करने पड़ें, लेकिन लगता है कि रेलवे मंत्रालय को इससे कुछ भी लेना नहीं है। तथाकथित सुपरफास्ट ट्रेनों का भी 8-10 घंटे लेट होना आम बात हो गई है। रेलवे मंत्रालय को इन राजनेताओं ने अपनी लोकप्रियता कमाने का जरिया बना लिया है। तभी तो लोकसभा चुनाव के बाद रेल मंत्रालय को प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया जाता है।
कुछ बातें इस बजट में अच्छी भी हैं, जिनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। मसलन, एक निश्चित समयावधि में बिना चौकीदार वाले रेलवे क्रॉसिंग पर चौकीदारों की नियुक्ति करना, कैंसर रोगियों को नि:शुल्क यात्रा की सुविधा मुहैया करवाना, बड़े रेलवे स्टेशनों पर अंडरपास व सीमित ऊंचाई वाले सब-वे का निर्माण, सरप्लस रेल भूमि पर अस्पताल और स्कूल-कॉलेज खोलना, लाइसेंसधारी कुलियों, वेंडरों व हॉकरों के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना का विकास जैसे कदम अवश्य ही सराहनीय हैं।

Saturday, February 20, 2010

बारह बजे लेट नहीं, चार बजे भेंट नहीं

इस बार पटना से वापसी में अकेला ही था। हावड़ा-जम्मूतवी हिमगिरि एक्सप्रेस से लखनऊ तक आना था। सफर दिन का था और मैं अकेले ही था, सो सहयात्रियों से बातचीत शुरू हो गई। सहयात्रियों में पटना सचिवालय में कार्यरत दो बड़े अधिकारी थे। इनमें से एक अपनी बिटिया को बैंक पीओ की लिखित परीक्षा दिलवाने के लिए लखनऊ जा रहे थे, तो दूसरे बिटिया को बैंक पीओ के लिए ही ज्वाइन कराने जा रहे थे। आपस में उनकी भी जान-पहचान नहीं थी, लेकिन जब उनकी बातचीत शुरू हुई, तो पता चला कि वे दोनों एक ही स्थान पर काम करते हैं। एक वित्त विभाग में थे तो दूसरे अभियन्त्रण सेवा में।
मेरी सहज जिज्ञासा वर्तमान दौर में सरकारी कामकाज के बारे में जानने की हुई, तो एक अधिकारी की बिटिया के मुंह से सहज ही निकल पड़ा-बारह बजे लेट नहीं, चार बजे भेंट नहीं। मैंने इसे थोड़ा और स्पष्ट करने को कहा तो उसका कहना था कि पहले तो यह आलम यह था कि सरकारी दफ्तरों में अधिकारियों-कर्मचारियों को केवल वेतन से ही वास्ता था, काम से उनका कोई लेना-देना नहीं होता था। राज्य प्रशासन के सबसे बड़े दफ्तर शासन सचिवालय में दोपहर 12 बजे तक तो कर्मचारी-अधिकारी पहुंचते ही नहीं थे और पहुंचते भी थे तो आपस में गप्पें हांकने और चाय-नाश्ता करने के बाद चार बजे तक विदा हो लेते थे।
मैंने अभियन्त्रण सेवा के अधिकारी से इन दिनों सचिवालय में उनकी उपस्थिति समय के बारे में पूछा तो मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार की सख्ती से चिढ़े हुए से लगे। उन्हें शिकायत थी कि वर्तमान में तो सवेरे साढ़े नौ बजे ऑफिस में आ ही जाना पड़ता है। 10 मिनट से अधिक देरी होने पर उपस्थिति पंजिका सीनियर अधिकारी के पास चली जाती है और अगले दिन स्पष्टीकरण देना पड़ता है।
जहां तक मैं समझता हूं, माता-पिता अपनी सन्तान के लिए पहले रोल मॉडल होते हैं। यदि सन्तान ही माता-पिता की कर्तव्यहीनता या कामचोरी का मजाक बनाए, तो इससे बुरी बात और कोई नहीं हो सकती। यदि माता-पिता के आचरण में ही कमी होगी, तो वे अपनी सन्तान के लिए रोल मॉडल कैसे बन पाएंगे और उनके लिए आदर्श कैसे स्थापित कर पाएंगे। राज्य और राष्ट्र के चरित्र और विकास की बात तो तब की जाए, जब इसकी सबसे छोटी इकाई परिवार में सब कुछ उचित और सन्तुलित हो।

Thursday, February 18, 2010

बिहार - समय के साथ बदल रहा है स्वाद

बीतते हुए समय के साथ बिहार में बहुत कुछ बदलता जा रहा है। वंशवृद्धि के कारण हुए बंटवारे से खेत भले ही सिकुड़ती जा रही हो, उपज काफी बढ़ गई है। पिताजी ने बताया कि पहले जब लोगों के पास काफी खेत थे तो बहुत बड़ी आबादी मड़ुवा, जनेरा, सामा-कोदो खाने को विवश थी। जो यह सब भी नहीं खरीद पाते थे, उनके लिए गूलर और बरगद के फल भी प्रकृति के वरदान से कम नहीं हुआ करते थे। शकरकन्द, खेसारी और मड़ुवा की स्थिति ऐसी थी कि कई गांवों की पहचान ही इसी से होती थी। मसलन जिस गांव में मड़ुवा की खेती अधिक होती थी, वहां के अधिकतर लोग घेंघा रोग से पीçड़त होते थे। इसी तरह खेसारी की उपज अधिक मात्रा में होती थी, वहां के लोगों में जोड़ों में ददॅ की समस्या आम थी। ऐसे गांवों के लोगों के पैर अमूमन टेढ़े हो जाया करते थे, जिस कारण चलने में उन्हें असह्य पीड़ा होती थी। नई पीढ़ी को तो इन अभिशापों से मुक्ति मिल चुकी है, लेकिन पुरानी पीढ़ी के लोग आज भी इस पीड़ा का दंश झेलते देखे जा सकते हैं। आज की तारीख में कोई भी मोटा अनाज खाना पसन्द नहीं करता और करे भी तो ये मोटे अनाज बड़ी मुश्किल से मिलते हैं क्योंकि किसानों ने घाटे का सौदा समझकर इन्हें उपजाना ही बन्द कर दिया है। पहले मजबूरी में सत्तू खाते थे और-अभावे शालिचूर्णम्-कहावत आम थी, लेकिन आज सत्तू रंगीन पॉलिथिन में गैस्टि्रक की औषधि के रूप में 200-250 ग्राम पैकिंग में बिकता है। इसी तरह गरीबी का सहारा भुना हुआ मक्का पॉप कॉर्न बनकर इतरा रहा है।

चना आउट, राजमा इन


दो-ढाई दशक पहले गांव छूटने के कारण वहां से जुड़ी कई चीजें भी छूट गईं। कई स्वाद अविस्मरणीय हैं, लेकिन जबान को उन्हें चखने का अवसर ही नहीं मिल पाता। इस बार जनवरी में गया तो चने का साग खाने की इच्छा बरबस ही बलवती हो उठी। छोटे भाई को पूछा तो पता चला कि अब अपने खेतों में तो क्या, पूरे गांव में ही कहीं चने की खेती नहीं होती। इस तरह मन की बात मन में ही रह गई। भला हो भतीजे का जो पटना में रहकर प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी कर रहा है। उसे फोन कर दिया था तो वह ट्रेन में बिठाने आया तो चने का साग खरीदकर ले आया, जो बिहार से जयपुर के लिए महत्वपूर्ण सौगात था हमारे लिए।
हां, इस बार गांव में कई स्थानों पर एक नई फसल देखी। पूछने पर पता चला कि यह राजमा है। कभी अरहर की दाल किसी घर में बनती थी तो उसकी सोंधी महक पूरे मोहल्ले में फैल जाती थी, अब राजमे की खुशबू का विस्तार इस तरह होता है या नहीं, यह तो मुझे नहीं पता, लेकिन यह तो पक्का है कि अरहर की जगह लोगों की जीभ को राजमा का स्वाद भी भा गया है।

Wednesday, February 17, 2010

बिहार - समृद्धि आई तो भागे अपराध

सूरज की किरणें जब अपना उजास फैलाती हैं, तो घटाटोप अंधकार का साम्राज्य भी खत्म हो जाता है। सरकारी कायदा जब सुधरता है तो बहुत सारी व्यवस्थाएं खुद-ब-खुद पटरी पर आ जाती हैं। पिछले डेढ़-दो दशक में जिस तरह अपहरण काण्ड कुटीर उद्योग की श्रेणी में आ गए थे और इनसे सम्बंधित खबरें रोज अखबारों की लीड बना करती थीं, अब वह स्थिति नहीं है। बहुत हद तक अपराध पर काबू पा लिया गया है। वर्तमान महानिदेशक आनन्द शंकर (जो सम्भवतया सेवानिवृत्ति के करीब ही हैं) कृष्णभक्ति के साथ अपनी ईमानदारी के लिए भी जाने जाते हैं। इसी का परिणाम है कि पटना में स्थान-स्थान पर पुलिस के जवान मुस्तैद नज़र आते हैं। लालू प्रसाद यादव की रहनुमाई वाले राष्ट्रीय जनता दल की ओर से गत 28 जनवरी को आहूत बिहार बन्द के दौरान नीतीश सरकार और आनन्द शंकर का ही प्रताप था कि पटना में कोई अप्रिय वारदात नहीं हुई। बन्द के बावजूद मैंने एक मित्र के साथ मोटरसाइकिल पर 20-25 किलोमीटर की यात्रा की, लेकिन कहीं किसी ने बदतमीजी नहीं की। ऐसा लग रहा था कि दुकानदारों ने भी बेमन से ही अपने प्रतिष्ठान बन्द कर रखे थे। जिस किसी से बात की, वह महंगाई से तो त्रस्त तो था, लेकिन इसके लिए राज्य की नीतीश सरकार को जिम्मेदार नहीं मान रहा था। शाम 4 बजते-बजते तो सब कुछ सामान्य हो गया था।

डीजीपी आनन्द शंकर
अपराधों पर अंकुश लगा है तो इसका कारण लोगों को रोजगार मिलना भी माना जा सकता है। पूरे बिहार में जिस बड़े पैमाने पर सड़कें बन रही हैं और दूसरे भी काम हो रहे हैं, उसमें हजारों लोगों को रोजगार मिला है। इसके अलावा राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (जिसमें महात्मा गांधी के नाम की बैसाखी भी लग गई है) से भी लोगों को जीने का सहारा मिला है। आमदनी बढ़ी है तो खर्च के रास्ते भी खुलने लगे हैं। कम दूरी की पैसेंजर बसों और जीपों में भी मोबाइल की बार-बार बजती रिंगटोन से सहज ही इसका अहसास हो जाता है। पिंकसिटी जयपुर में रहते हुए जितनी मोबाइल कंपनियों के बारे में जानता था, उनके अलावा भी यूनिनॉर, एसटेल सहित कई सारी मोबाइल कंपनियों ने बखूबी अपनी उपस्थिति बनाए रखी है। इनकी आपसी जंग में उपभोक्ताओं को अच्छी और बेहतर संचार सेवाएं मिल रही हैं। जो गांव पचासों वर्ष से टेलीफोन के खंभे के लिए तरस गए थे, उन्हीं गांवों में आज तीन-चार कंपनियों के टावर कोसों दूर से नज़र आते हैं। नेटवर्क की कहीं कोई समस्या नहीं है। हां, बिजली की कमी के कारण कई बार सेलफोन को चार्ज करने की समस्या उत्पन्न हो जाती है। आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है, इस तर्ज पर मोहल्लों में जेनरेटर प्रदाताओं ने शाम के समय महज दो-तीन रुपए रोजाना की दर पर अंधेरा भगाने की व्यवस्था कर रखी है। मोबाइल हैण्डसेट बनाने वाली कंपनियां नित नए ऐसे हैण्डसेट लांच कर रही हैं, जिनके सहारे बिहार में बिजली सप्लाई की अव्यवस्था के बावजूद मोबाइल निष्प्राण नहीं हो।

Monday, February 15, 2010

शिक्षा को मिल रही गति

मेरे जमाने में बच्चे सरकारी स्कूल में ही पढ़ा करते थे और यह माता-पिता के लिए भी किसी तरह से कमतरी का द्योतक नहीं होता था। मेरी स्कूली शिक्षा पूरी होने तक ही नहीं, बल्कि कॉलेज शिक्षा तक यह हाल बना रहा। वर्ष 1990 के बाद सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर कुछ इस तरह गिरता गया कि अभिभावक संसाधन नहीं होने के बावजूद बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना मजबूरी होने लगी थी। इसके फलस्वरूप सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या दिन-ब-दिन कम होने लगी। पिछले 10-15 साल में जब भी गांव जाता था तो मित्रों की बातचीत में शिक्षा का गिरता स्तर महत्वपूर्ण हुआ करता था, लेकिन जब नीतियां बनाने वाले ही इन बातों से अनभिज्ञ हों तो आम आदमी क्या कर सकता है। इस बार पड़ोस की कई लड़कियों को स्कूल यूनिफॉर्म में देखा तो बरबस ही पूछ बैठा कि आसपास कोई कॉन्वेंट या प्राइवेट स्कूल खुला है क्या? पता चला कि इन लड़कियों को सरकार की ओर से स्कूल यूनिफॉर्म के लिए राशि उपलब्ध कराई जा रही है। इतना ही नहीं, सरकारी स्कूलों में कक्षा 9-10 में पढ़ने वाली लड़कियों को सरकार की ओर से साइकिल भी उपलब्ध कराई जा रही है, ताकि घर से स्कूल की दूरी उनकी शिक्षा में बाधक नहीं बने। यह भी पता चला कि मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने इस योजना का विस्तार कर लड़कों के लिए भी साइकिल उपलब्ध कराने की घोषणा कर दी है, जिसे शीघ्र ही अमली जामा पहनाया जाएगा। जानकर खुशी हुई कि प्रदेश में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार कुछ कर तो रही है। इसके साथ ही अपना गुजरा जमाना भी याद आ गया, जब अपने गांव से हम दर्जनों साथी पैदल ही चार-पांच किलोमीटर की दूरी तय कर बिना नागा हाई स्कूल जाया करते थे।
शिक्षा के प्रति लोगों का रुझान इस कदर बढ़ गया है कि स्कूलों के भवन छोटे पड़ने लगे हैं। इसे देखते हुए बड़े विजन वाले मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने स्कूलों को क्रमोन्नत करने और उसी अनुपात में संसाधन उपलब्ध कराने के प्रयास भी जारी रखे हैं। यदि यह सब इसी तरह जारी रहा तो उम्मीद की जा सकती है कि शिक्षा को वांछित गति मिलेगी और बिहार एक बार फिर नालन्दा, तक्षशिला के गौरवशाली पथ पर अग्रसर हो सकेगा।

Sunday, February 14, 2010

बिहार - गांवों की चमाचम सड़कें करती हैं स्वागत


करीब 18 माह के लंबे अरसे के बाद पिछले दिनों बिहार जाने का सुअवसर मिला। वैसे गत वर्ष मई में भी गया था, लेकिन समयाभाव में पटना से ही लौट आने के कारण यह लकीर छूकर आने भर की यात्रा रह गई थी। इस बार दर्जनों गांवों की यात्रा के क्रम में डेढ़-दो सौ किलोमीटर का सफर मोटरसाइकिल और बसों से किया। मैंने पहले भी कई बार कहा है कि किसी राजनीतिक दल से मेरा वास्ता नहीं है, लेकिन आंखों देखी सच को झुठलाना भी पाप से कम नहीं है। सो इस बार गांवों में जो तस्वीर दिखी, उसके लिए बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार वाकई प्रशंसा के हकदार हैं। जी हां, जिन गांवों में पहले कच्ची सड़क से जाना पड़ता था, (जो कई स्थानों पर पगडण्डी सी हुआ करती थी), वहां इस बार पक्की चमचमाती सड़क से हमने सफर किया। इसमें न तो कहीं धचके थे और न ही धूल हमारे सिर पर सवार होने को आतुर थी। हां, कहीं-कहीं धूल थी भी, तो वहां सड़क के लिए हो रही मिट्टी भराई के कारण थी। स्थानीय बाशिन्दों में इस बात का सन्तोष और खुशी थी कि उनके गांव में भी अब पक्की सड़क होगी। बिहार के बड़बोले तत्कालीन मुयमन्त्री लालू प्रसाद यादव ने अपने शासनकाल में सूबे की सड़कों को हेमामालिनी के गाल जैसी करने के दावे किए थे, लेकिन तब वहां की सड़कों के गड्ढे चेचक के दाग से भी कहीं अधिक गहरे हुआ करते थे। बस, ट्रक, जीप, कार से तीस-चालीस किलोमीटर के सफर में टायरों का एक-दो बार पंचर होना लाजिमी था। ऐसे में मितभाषी मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार ने सड़कों का कायकल्प कर दिया है।
पटना में भी सड़कों का स्तर काफी सुधर गया है। यहां की सड़कों को देखकर लगता है कि आप किसी बड़े प्रदेश की राजधानी में हैं। ऐसा नहीं है कि कमियां नहीं हैं, अभी भी पटना में ही बहुत सुधार की दरकार है, लेकिन जिस गति से काम हो रहा है, यदि यह सब अबाध गति से चलता रहा तो आने वाले तीन-चार साल में हालात और भी बेहतर होंगे।
मुंह चिढ़ाता राजधानी का बस स्टैण्ड
पहले पटना रेलवे जंक्शन से बाहर निकलते ही महावीर मन्दिर से थोड़ी दूर पर ही वीर कुंवर सिंह बस स्टैण्ड हुआ करता था, जिसे शहर में होने वाले ट्रैफिक जाम से निजात दिलाने के लिए अब जंक्शन के दक्षिणी ओर करबिगहिया में शिफ्ट कर दिया गया है। वहां कम स्थान होने के कारण पहले बहुत सारी दिक्कतें थीं, लेकिन नए स्टैण्ड पर काफी जगह होने के बावजूद अव्यवस्थाएं भी उसी अनुपात में पसरी हुई हैं। गन्दगी का आलम ऐसा है कि वहां जाकर अगले गन्तव्य के लिए बस पकड़ना काफी मुसीबत भरा होता है। यह तो पक्की बात है कि आज के दौर के राजनेता बस से सफर नहीं करते, तो उन्हें बस स्टैण्ड के हालात से वास्ता नहीं पड़ता होगा, लेकिन आमजन को होने वाली परेशानियों से उनका बेखबर रहना तो किसी भी सूरत में अच्छी बात नहीं है। विशेष रूप से तब, जब इस तथाकथित अन्तरराज्यीय बस स्टैण्ड के पास ही चाणक्य राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय भी शुरू किया गया है, इस ओर से नीति नियन्ताओं का आंखें मून्दे रहना कदापि शोभनीय नहीं है। आशा की जानी चाहिए, अगली यात्रा तक बस का सफर तो सुहाना होगा ही, बस स्टैण्ड के हालात भी अवश्य ही सुधर जाएंगे।