Thursday, July 30, 2020

बाबू आउटडेटेड हुए, ईया हुईं इतिहास

बाबू आउटडेटेड हुए, ईया हुईं इतिहास

दीदी की जब शादी हुई, तब मैं आठ-नौ साल का था। दीदी का मेरे प्रति  अत्यधिक स्नेह भाव मुझे बार-बार उससे मिलने के लिए विवश करता था, मगर अकेले बच्चे  को भेजना मुश्किल, उसे साथ कौन लेकर जाए, सो मन मारकर रह जाता। हालांकि थोड़े समय बाद ही बालमन फिर मचलने लगता, तो मां के माध्यम से दुबारा बाबूजी की अदालत में अर्जी डाल दी जाती। आस-पड़ोस के कई अन्य परिवारों की रिश्तेदारी भी दीदी की ससुराल वाले गांव में थी। सो यदि उनमें से कोई वहां जाने वाला होता तो जरूरी हिदायतें देकर मुझे भी उनके साथ कर दिया जाता। मुझे तो मानों मुंहमांगी मुराद मिल जाती। मेरे पहुंचते ही दीदी का चेहरा भी खिल उठता। फिर वहां से मेरे लौटने के लिए भी ऐसे ही किसी जुगाड़ की तलाश की जाती और तब तक मुझे दीदी के पास रहने का मौका मिल जाता।

एक दिन दीदी के यहां बैठा था कि कई मजदूर महिलाएं खेत से मूंग की छीमी तोड़कर लाईं और अपनी-अपनी टोकरी कतार से लगाकर रख दी। तब मजदूरी में पैसे देने का चलन नहीं था। जिस फसल का काम होता, उसी में से कुछ हिस्सा बतौर मजदूरी दे दिया जाता था। उन्हीं महिला मजदूरों में से एक मॉनीटर की तरह एक-एक का नाम पुकारती। जिसका नाम पुकारा जाता वह अपनी टोकरी लेकर आगे आती। दीदी के ससुर तोड़ी हुई मूंग की छीमी का आकलन कर उसकी मजदूरी के बदले मूंग की छीमी उसकी टोकरी में छोड़कर बाकी अपनी ढेरी पर रख लेते। मेरे लिए यह सब नई बात नहीं थी। हमारे गांव में भी यह सब आम था। 

आज से 35-40 साल पहले बिहार के वैशाली और आसपास के जिलों में महिलाओं की पहचान उनके मायके या बड़ी संतान के नाम से होती थी। तब हमारे यहां मां को "माय" कहने का चलन था। सो उन्हें पुकारा जाता - रमबतिया माय, संतिया माय या फिर अमरितपुर वाली, सरसौना वाली। मगर दीदी की ससुराल में मॉनीटर बनी महिला अपनी साथी मजदूरों को उसकी बच्चे की  "माय" की जगह "मतारी" शब्द बोल रही थी। यह सुनकर मुझे कुछ अजीब सा लगता था। शायद इसीलिए कहते हैं कोस-कोस पर पानी बदले, तीन कोस पर बानी।

आज तो शहरी कल्चर ने इस कदर गांवों में सेंधमारी कर दी है कि शब्दों का सोंधापन ही खो  गया है। मेरे बाद की पीढ़ी ने मां को माय की जगह मम्मी कहना शुरू कर दिया था और अब तो मम्मी शब्द से स्त्रीबोधक "ई" ध्वनि की भी विदाई कर दी गई। बच्चे मां को मम्मा कहने लगे हैं। वहीं, हमारे जमाने में बच्चे पिता को बाबू कहते थे। लड़कियां शादी के बाद माता-पिता-घर-परिवार छोड़कर भले ही ससुराल आ जाती हैं, लेकिन मायके के संस्कार को सहेजकर लाना नहीं भूलतीं। मेरी मां और मौसी-मामू मेरे नानाजी को बाबूजी कहकर बुलाते थे, शायद इसीलिए हम भाई-बहन भी अपने पिता को बाबूजी कहना सीख गए, लेकिन चाचाओं को बड़का बाबू और छोटका बाबू ही कहते थे। अफसोस, आजकल तो गांवों में बच्चे पिता को बाबू क्या, बाबूजी कहने में भी शर्म और पापा व डैडी कहने में शान महसूस करते हैं। हां, नई पीढ़ी अपने बच्चों को "बउआ" के बदले "बाबू" जरूर कहने लगी है।

एक और बात याद आती है। हमारी एक चाची को उनके बच्चे "ईया" कहकर बुलाते थे, सो हमलोग भी उन्हें "ईया" ही कहते थे। संभव है वो चाची अपनी मां को ईया कहती  रही हों और मायके से उनके साथ चलकर यह शब्द हमारे घर तक भी पहुंच गया हो। बरसों पहले इस दुनिया से ईया की रुखसती के साथ ही यह शब्द भी इतिहास बनकर  रह गया। तब दादा को "आजा" और दादी को "आजी" भी कहते थे। हालांकि किसी को  इन संबोधनों से अपने दादा-दादी को पुकारते हुए तो मैंने नहीं सुना, लेकिन कई बुजुर्ग महिलाओं के मुंह से किसी दूसरे के दादा-दादी के लिए आजा-आजी शब्द का जिक्र करते जरूर सुनता था। 

उस जमाने में कोई विशेष वस्तु भी किसी व्यक्ति की पहचान बन जाया करती थी। दफादार रहे मेरे एक बाबा लाठी टेकते हमारे घर के पास चौक पर आते थे। सो हम उन्हें "लाठी बाबा" कहकर पुकारते थे। इसी तरह हमारी पट्टीदारी के एक चाचा शिक्षक थे। उनका स्कूल  अपेक्षाकृत अधिक दूर था। तो शायद अपने परिवार में उन्होंने ही सबसे पहले साइकिल खरीदी, इसलिए बच्चों ने उनका नाम "साइकिल बाबा" रख दिया। इसी तरह परिवार में सबसे छोटे चाचा को पहले "लाल चाचा" और सबसे छोटी चाची को "कनिया चाची" कहते थे। ये संबोधन भी अब यादों में ही जिंदा हैं। ऐसे ही बहुएं अपनी सास को "सरकारजी' कहती थीं। हमारे देखते ही देखते सासू मां के लिए बहुओं का संबोधन "अम्माजी" से होता हुआ अब "मम्मीजी" तक पहुंच चुका है।   

लंबे अंतराल के बाद किशनगंज से सुबह एक बिटिया ने फोन किया। उसका नंबर मेरे मोबाइल में सेव नहीं था। सो परिचय पूछने पर जब उसने मुझे मोहन काकू कहा तो 1991 से 1994 तक किशनगंज में बिताए सुनहरे दिनों की मीठी यादों के साथ ही बरसों पुराने ये संबोधन जेहन में सरगोशियां करने लगे। वरना आज तो भाई और दोस्तों के बच्चों की कौन कहे, बहनों और साले-सालियों के बच्चे भी मामा और फूफा-मौसा के बजाय अंकल ही बोलने लगे हैं। 

Thursday, July 23, 2020

आम की गुठली से निकलती मीठी तान

प्रकृति की लीला अपरंपार है। प्रकृति हमारी जरूरतों का न केवल ध्यान रखती है, बल्कि उन्हें पूरा भी करती है। तभी तो वैशाख-ज्येष्ठ में सूर्य का ताप जब हमारे लिए संताप का सबब बन जाता है, तो प्रकृति फलों के राजा आम का वरदान हमारी झोली में डाल देती है। जानलेवा लू से बचाव के लिए कच्चे आम को पकाकर उससे बने पना के ठेले जगह-जगह सड़कों के किनारे नजर आने लगते हैं। ..और फिर समय बीतने के साथ देखते ही देखते कुछ ही दिनों में आम हमारे जीवन में मिठास का अमृत घोलने के लिए हाजिर हो जाता है।

फिर तो आषाढ़-सावन की कौन कहे, भादो तक लोग आम की विभिन्न प्रजातियों का जमकर लुत्फ उठाते हैं। यही नहीं, इस मिठास को आम के सीजन के बाद भी संजोए रखने के लिए अमौट (मैंगो केक) भी बनाया जाता है। आजकल तो अत्याधुनिक तकनीक से बने मैंगो ड्रिंक और मैंगो जूस सालभर उपलब्ध रहते हैं। मगर अफसोस, मानव-मन मिठास की एकरसता से भी ऊब जाता है। ऐसे में चटपटी चटखार से भरपूर आम का अचार साल दर साल हमारे भोजन की थाली की शोभा बढ़ाता है। कहते हैं कि जितना पुराना अचार हो, उतना ही अधिक स्वादिष्ट होता है।

अस्तु, शहरों में तो लोग बस आम की मिठास से ही मतलब रखते हैं। आम का छिलका और गुठली उनके कचरापात्र का पेट भरती है। मगर गांवों में आदमी की बेकारी के अलावा और कुछ भी बेकार नहीं होता। वहां हर वस्तु की अपनी उपयोगिता होती है। गांवों में आम का छिलका पशुओं को खिला दिया जाता है तथा आने वाली पीढ़ियां भी आम की मिठास का लुत्फ उठा सकें, इसके लिए गुठलियां धरती मां को सौंप दी जाती हैं। धरती माता की गोद में ये गुठलियां जीवन पाकर धन्य हो जाती हैं।

हमारे गृहराज्य बिहार के वैशाली समेत आस-पड़ोस के जिलों में आम की गुठली से निकले पौधे को "अमोला" कहा जाता है। एक स्थान पर सैकड़ों गुठलियां होने के कारण अमोला का समुचित विकास नहीं हो पाता। इसलिए एक-डेढ़ फीट का होने पर अमोले को अन्यत्र रोप दिया जाता है। इसके साथ ही ये अमोला विशेष किस्म के आमों में कलम बांधने के भी काम आते हैं। शहरों के समीपवर्ती गांवों में तो नर्सरी वाले थोक के भाव अमोला खरीदकर ले जाते हैं। इस तरह लोगों को गुठलियों के भी दाम मिल जाते हैं। शायद इसीलिए कहा गया है-आम के आम, गुठली के दाम।

शहरों में तो संपन्न माता-पिता बच्चों के लिए ढेर सारे कीमती खिलौने खरीद लाते हैं, लेकिन गांवों में जब विपन्न अभिभावकों के लिए परिवार का पेट पालना ही समस्या हो, तो बच्चों के लिए खिलौने खरीदने की बात सोचना भी संभव नहीं। मगर, बच्चे तो बच्चे होते हैं। संपन्नता और विपन्नता की सीमाओं को बालमन क्या समझे। उसे तो मन बहलाने के लिए कुछ चाहिए। तभी तो शहर के बच्चे बंद कमरे की फर्श पर बैटरी की गाड़ियों को रिमोट से दौड़ाने में जो आनंद उठाते हैं, उससे कहीं अधिक आनंद गांव के बच्चे साइकिल के पुराने टायर को डंडे से मारकर भगाते हुए उसके पीछे दौड़कर उठाते हैं। गांवों के साधन विहीन बच्चे न जाने मनोरंजन के लिए ऐसे ही और कितने साधन ईजाद कर लेते हैं। इन्हीं में एक है आम की गुठलियों से बनने वाली सीटी।

बीज में वृक्ष के छुपे होने का दर्शन और आम की किस्मों को अगली पीढ़ियों के लिए महफूज रखने जैसे महान उद्देश्यों की बात तो बड़े-बुजुर्ग जानें, बच्चों को इनसे क्या काम। सो हम बच्चे अंकुर फूटती गुठलियों को निकाल लाते और उसका छिलका उतारकर गुठली के एक सिरे को ईंट या पत्थर पर घिसकर उसे सीटी की तरह बजाते। क्या खूब मीठी आवाज निकलती। हर बच्चा अपनी तरकीब से गुठली को घिसता और इससे निकलने वाली अलग-अलग आवाज समवेत रूप में अलग ही तरह का संगीत रचती। गुठलियों से बनी सीटी की वह मिठास आज भी दिल में रची-बसी है। अब जबकि आम का सीजन विदा लेने ही वाला है, बरबस ही बचपन में बजाई गुठलियों की सीटी की मिठास याद आ गई।  

विवाह की भविष्यवाणी

आम के पेड़ में बौर लगने के साथ ही हमारा दिल मानों आम की गाछी में ही अटका रहता था। जैसे ही टिकोला (अमिया) आकार लेता, हम बच्चे घर से नमक लेकर गाछी में पहुंच जाते। सितुआ (घोंघा की प्रजाति का एक जीव) में छेद कर उससे टिकोला को छीलते और उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता। फिर बाल मंडली उसमें नमक छिड़ककर चटखारे लेकर खाती। टिकोला को काटने पर उससे निकलने वाले बीज को हम "कोइली" कहते थे। वह बहुत चिकना होता था। उसे अंगूठे और तर्जनी में फंसाने के बाद किसी साथी का नाम का लेकर पूछते- इसकी शादी किस दिशा में होगी?  और फिर धीरे से दोनों अंगुलियों को धीरे से दबा देते। "कोइली" अंगुलियों से छिटककर जिस दिशा में जाती, हम समझते कि उस बच्चे की शादी उसी दिशा में होगी। ... तो इस तरह "कोइली" विवाह की भविष्यवाणी भी करती थी।

Tuesday, July 14, 2020

गोरलगाई, मुंहदिखाई


गोरलगाई, मुंहदिखाई...

भारतीय सनातन परंपरा में सोलह संस्कारों की बात कही गई है। हर संस्कार के साथ कई रस्में जुड़ी होती हैं और इन संस्कारों का असली आनंद इन्हीं रस्मों में छिपा होता है। इन सोलह संस्कारों में जन्म और विवाह के अवसर पर मनाई जाने वाली खुशियों के क्या कहने। हालांकि शिशु के जन्म के समय परिवार वाले भले ही उत्सव मनाते हों, मगर अबोध शिशु इन खुशियों का मतलब क्या समझे। हां, शादी के अवसर पर परिवारी जनों के साथ ही वर-वधू भी मोद-आनंद का भरपूर लुत्फ उठाते हैं।

विवाह में वर-वधू अग्नि के गिर्द सात फेरे लेकर अपनी अलग-अलग पहचान को उसी पवित्र अग्नि में होम करके दंपती के रूप में एकाकार हो जाते हैं, वहीं दोनों के परिवार भी संबंधों के अदृश्य डोर में बंध जाते हैं। मगर अफसोस, दो दिलों और दो परिवारों के जुड़ने के इस अमूल्य आनंद के उत्सव में दिखावे का चलन कहां से आ गया। तभी तो शादी में वधू के दरवाजे पर होने वाले थोड़ी देर के आयोजन में वर पक्ष वाले अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। गाड़ी-घोड़े के काफिले, बैंड-बाजे के साथ हर्ष फायरिंग तक दिखावे की हर रस्म निभाई जाती है। कई स्थानों पर तो कमर में तलवार लटकाए दूल्हा घोड़े पर बैठकर शादी करने जाता है और तोड़न मारकर ऐसा साबित करता है कि न जाने कितना बड़ा तीर मार दिया हो। 

संतोष की बात है कि बिहार में यह चलन नहीं है, इसलिए यह अपराध करने से मैं बच गया। मगर एक अन्य अपराधबोध आज भी सालता रहता है कि छठी से दसवीं तक रोजाना छह-सात किलोमीटर पैदल चलकर पातेपुर हाई स्कूल और फिर मुजफ्फरपुर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान किराए के आवास से करीब इतनी ही दूरी कदमों से नापने वाला मैं भी कार में बैठकर ही विवाह करने गया था। हांलाकि, यह अपराधबोध इस बात से थोड़ा कम अवश्य हो जाता है कि वह कार मेरे लंगोटिया यार के भैया की थी और मेरे प्रति सहज स्नेह के कारण भैया खुद उसे चलाकर ले गए थे।

अस्तु, वरमाला के आयोजन तक दूल्हे के चेहरे पर गजब सी शोखी छायी रहती है। मंडप पर पहुंचने के बाद शादी के दौरान पंडित जी के बोले गए मंत्रों को उनके पीछे-पीछे दुहराते हुए और उनके निर्देशों का पालन करते हुए दूल्हे की अकड़ ढीली पड़ने लगती है। इस दौरान कदम-कदम पर महिला मंडली की टोकाटाकी रही-सही कसर पूरी कर देती है। फिर तो वह सर्कस के शेर की तरह बिना किसी ना-नुकर के रिंग मास्टर बनी महिला मंडली के निर्देशों को चुपचाप मानता जाता है।...और फिर आ जाती है विदाई की वेला। आनंद के क्षण अचानक बंद। जाते हैं विरह की वेदना में । रोती हुई नववधू अपनी मां-बहन-भाई समेत सभी परिवारी जनों के गले लगकर विदा लेती है।
...और दूल्हा...उस बेचारे की स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे नाटक के मंचन के समय निर्देशक किसी पात्र को मूकदर्शक बनकर खड़े रहने को विवश कर दे। होना तो यह चाहिए कि विदाई के इन क्षणों में दूल्हा विवाह समारोह में आए बड़े-बुजुर्गों को प्रणाम कर नव गृहस्थ जीवन की सफलता के लिए उनका आशीर्वाद ले। मगर वधू पक्ष में सास-ससुर-साले-साली के अलावा उस परिवार के अधिक लोगों को वह जानता ही नहीं, सो किंकर्तव्यविमूढ़ सा टुकुर-टुकुर देखता रहता है। इस बीच वधू पक्ष के ज्येष्ठ-श्रेष्ठ लोग अपनी मुट्ठी में रखे हुए रुपये दूल्हे को थमाते हैं, तब दूल्हा तत्परता से झुककर उनके पैर छूता है। बिहार में हमारे यहां इसे गोरलगाई कहते हैं। ज्येष्ठ-श्रेष्ठ लोगों के पैर छूकर आशीर्वाद लेने की बात तो समझ में आती है, यह अच्छे संस्कार का परिचायक भी है, मगर रुपये देने के बाद औपचारिकतावश किसी के पैर छूना...कितना अव्यावहारिक लगता है...मगर आन-बान-शान और मान के साथ ससुराल की धरती पर पहला कदम रखने वाले दूल्हे को लौटते वक्त यह परंपरा निभानी पड़ती है। करीब 23 साल पहले मैंने भी निभाई थी...बेमन से ही सही।  
दुल्हन की बात करें तो माता-पिता के साथ ही अपना घर-परिवार छोड़कर एक नये जीवन के सफर पर चल देती है जहां सर्वथा अनजान परिवेश-परिवार से उसका सामना होता है। दुल्हन जब ससुराल आती है तो समारोहपूर्वक उसका स्वागत किया जाता है। बहू की सुन्दर सलोनी सूरत की एक झलक देखने के बाद सास उसे मनभावन उपहार देती है। फिर शादी समारोह में पहुंचीं महिलाओं के साथ ही टोले-मोहल्ले की महिलाएं एक-एक कर कोहबर घर में सिमटी सकुचाई नवविवाहिता दुल्हन को देखती हैं। गांवों में इसे मुंहदिखाई की रस्म कहा जाता है। रसिकहृदय सौंदर्य प्रेमियों ने रमणी की आंखों की व्याख्या अपनी-अपनी कल्पना और सौंदर्य बोध के हिसाब से की है। रूपसी की आंखों पर कवियों ने भी बहुत कुछ लिखा है, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, यह सब खुली आंखों के लिए ही कहा गया है। जबकि मुंहदिखाई की रस्म के दौरान दुल्हन अपनी आंखें बंद रखती हैं। इसके पीछे का तर्क मेरी समझ में आज तक नहीं आया।
कई मुंहफट महिलाएं दुल्हन के रूप-रंग को लेकर अव्यावहारिक टिप्पणी करने से बाज नहीं आतीं। सो मुंहदिखाई के समय दुल्हन की आंखें भले बंद रहती हों, लेकिन जहर बुझे ये बाण कानों से होकर उसके दिल में तो उतर ही जाते हैं। कई नवविवाहिताएं इस नकारात्मक टिप्पणी को चुनौती के रूप में लेते हुए आने वाले दिनों में अपने व्यवहार से सबका दिल जीत लेती हैं। तब पति या परिवार के अन्य सदस्यों के लिए उसके रूप-सौंदर्य की कमतरी कोई मायने नहीं रखती। ...और फिर आस-पड़ोस की महिलाओं के लिए वह आदर्श बन जाती हैं।

चलते-चलते

हमारे समाज में कोई भी परंपरा यूं ही बेमतलब नहीं हुआ करती। सबके पीछे कुछ न कुछ तर्क अवश्य ही होता है। पहले के जमाने में कहते थे-उत्तम खेती, मध्यम बान, निरघिन चाकरी, भीख निदान। तब खेती का समाज में सर्वोत्तम स्थान था। बान यानी व्यापार को मध्यम दर्जे का तथा नौकरी करने को निकृष्ट कर्म माना जाता था। तो खेती करने वाले परिवार के सद्य: विवाहित युवक के पास पैसे होना दूर की कौड़ी थी। ऐसे में नवविवाहिता पत्नी के लिए कोई उपहार लाने का मन हो या फिर दोस्तों को पार्टी-शार्टी देने की बात, तो उसके लिए गोरलगाई में मिला पैसा ही काम आता था। ऐसे ही मुंहदिखाई में मिले रुपये नवविवाहिता दुल्हन के लिए भी काफी महत्व रखते थे। बीतते हुए समय के साथ बहुत कुछ बदल गया है, लेकिन संतोष की बात है कि गांवों ने अब भी ये परंपराएं संजोए रखी हैं।     

Sunday, July 12, 2020

ठेले पर मलिहाबाद

आम बस नाम का ही आम है, वरना इसकी खासियतें तो अनगिनत हैं, अनमोल हैं। तभी तो इसे फलों के राजा का ताज मिला है। अपनी अल्पज्ञता के कारण मैं जहां तक समझ पाया हूं, यह इकलौता फल है जो पेड़ पर लगने के बाद से पककर स्वत: डाल से गिरने तक हर रूप में अपने लुत्फ से हमें आह्लादित करता है। बौर झड़ने के बाद पल्लवों के बीच जैसे ही टिकोला या अमिया स्वरूप लेता है, इसकी खटास सबसे पहले अपने उदर में नवजीवन का कोंपल संजोए ममतामयी मां की पसंद बनती है। फिर इसकी चटनी हर थाली की शोभा बढ़ाती है। टिकोले में जब गुठली पूरा आकार लेता है तो अचार के रूप में इसके स्वाद को आने वाले वर्षों के लिए सहेज कर रख लिया जाता है। आम का पना जहां जानलेवा लू से बचाता है, वहीं मैंगो शेक की तरावट के क्या कहने।...और जब आम अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो इसकी अमृत सरीखी मिठास को अभिव्यक्त करने में शब्द कम पड़ जाएं। सीजन के बाद भी इसकी मिठास का रसास्वादन करने के लिए अमौट (मैंगो केक) बनाकर रख लिया जाता है। यदि कहूं कि आम की मिठास को निकाल दिया जाए तो जीवन में काफी बड़ा खालीपन आ जाएगा, अतिशयोक्ति नहीं होगी।

गांवों में तो बगीचों में आम के जितने पेड़, उतनी ही प्रजातियां होती हैं। रंग-रूप से लेकर आकार-प्रकार और स्वाद में एक से बढ़कर एक। ... और इन्हीं खासियतों के आधार पर इनका नामकरण भी कर दिया जाता है। जैसे-केले के आकार का है तो केरवा, सिंदूर सा रंग है तो सेंदुरिया, अधिक सन (रेशे) हों तो सनहा, बेल (बिल्व) के आकार का हो तो बेलवा, गुच्छों में फलता हो तो बरबरिया, सीप के आकार का हो तो सीपिया, अत्यधिक मीठा हो तो पूरनी मिठूबा, पकने के बाद भी खट्टापन बना रहे तो खटूबा....। गाछी में आम के जितने गाछ, उतने नाम और अलग-अलग लोगों की गाछी में अलग-अलग गाछ के अलग-अलग नाम। इस तरह एक ही गांव में सैकड़ों प्रजातियां।

कुछ आम के नाम स्थान विशेष के नाम पर भी होते हैं। जैसे-बंबइया। इस आम का मायानगरी बंबई (तब मुंबई नहीं हुआ था) से क्या कनेक्शन है, इसका तो पता नहीं, लेकिन नाम की तरह ही इसके स्वाद में भी जादू होता है। यह कच्चे में भी मीठा लगता है। इसलिए बच्चों की पहुंच से इसे बचाने के लिए विशेष जतन करने पड़ते हैं। मीडियम साइज का यह बंबइया आम अन्य आमों की तुलना में सबसे पहले पकता है और इसका स्वाद भी निराला होता है।  

इसी तरह एक आम है मालदह। रंग-रूप-आकार-सुगंध और स्वाद में इसे आमों का सरदार कह सकते हैं। मुझे यह आम सर्वाधिक पसंद है, इसलिए संभव है मैं इसकी तरफदारी कर रहा होऊं, लेकिन इसके दीवाने मेरी तरह और भी बहुत सारे होंगे, इसमें कोई शक नहीं। इसके झक्क सफेद रंग की वजह से इसे सफेद मालदह भी कहते हैं। बिना रेशे के भरपूर गूदेदार इस आम की गुठली पहुत ही पतली होती है। ...और मिठास के तो कहने ही क्या। यह हमारे पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल के मालदा जिले से जुड़ा है और बिहार तक पहुंचते-पहुंचते इसका नाम मालदह हो गया। बंगाल और बिहार के अलावा भी इस आम का जादू बरकरार है, मगर अफसोस इन दोनों राज्यों की सीमा पार करने के बाद इसका नाम लंगड़ा हो जाता है। अब आम के पैर तो होने से रहे कि वह लंगड़ा हो, मगर लोगों का क्या, अंधे का नाम नयनसुख रखने वाले यदि भले-चंगे सर्वगुण संपन्न मालदह आम का नामकरण लंगड़ा कर दें तो कौन क्या करे।

मालदह आम की खासियत के चलते एक छोटे से जिले का नाम हो जाए, यह बात बंगाल की राजधानी को कैसे रास आती, सो आम की एक और प्रजाति है कलकतिया मालदह। हालांकि रंग-रूप-आकार-स्वाद और मिठास सभी में सफेद मालदह के सामने इसकी स्थिति कहां राजा भोज, कहां गंगुआ तेली जैसी ही है।

पटना-किशनगंज रेल रूट पर दालकोला के आगे सूर्यकमल स्टेशन के पास सुरजापुर गांव है। 1991 में जब किशनगंज गया तो इस सुरजापुर गांव के सुरजापुरी आम का जादू लोगों के सिर पर चढ़कर बोल रहा था। आस-पड़ोस के जिलों पूर्णिया, कटिहार, सिलीगुड़ी और इससे आगे तक के लोग इस आम के मुरीद हैं। मैं भी जब तक किशनगंज रहा, सुरजापुरी आम का जमकर लुत्फ उठाया।

स्थान के नाम से प्रसिद्धि पाने वाले आम की बात करूं तो मलिहाबादी दशहरी का नाम बरबस ही सामने आ जाता है। लखनऊ के मलिहाबाद कस्बे की पहचान ही दशहरी आम से है। देश की कौन कहे, विदेशों तक में लोगों को भी शिद्दत से इसका इंतजार रहता है। जून मध्य से लेकर जुलाई मध्य तक लखनऊ की सड़कों के किनारे ठेलों पर जिधर नजर जाती है, दशहरी आम ही नजर आते हैं। ऐसा लगता है जैसे मलिहाबाद के आम के बागों ने ठेले पर ठिकाना जमा लिया हो। हालांकि अफसोस की बात यह है कि कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी से उपजे संकट के इस दौर में हर शख्स बेजार है। बाजार की रौनक ही खो गई है। ऐसे में आम के ठेले पिछले वर्षों की तुलना में इस बाार कम नजर आते हैं और इसके साथ ही मलिहाबाद के आम बागवानों के चेहरों पर भी मायूसी है। आशा है, अगले साल से फिर सब सामान्य रहेगा।

Saturday, July 11, 2020

रॉन्ग नंबर

दादीजी से मिलने कभी-कभार एक बूढ़ी अम्मा आया करती थीं। आज से करीब चार दशक पहले हमारे गांव में न तो चाय का चलन था और न ही आज जैसी औपचारिक आवभगत की जरूरत। दादीजी हुक्का पीती थीं, सो बूढ़ी अम्मा के आने पर हुक्के के लिए आग की चिंगारियां लाने के लिए कहतीं। जब मैं चिंगारियां लेकर आता और बूढ़ी अम्मा के पैर छूता तो वे अपने सफेद बालों में से दो-चार बाल नोचकर मेरे सिर पर रख देतीं और कहतीं-लखिया हो। अक्षर ज्ञान से अनजान, मगर व्यावहारिक ज्ञान से परिपूर्ण इन वृद्धाओं की गिनती बीस से आगे नहीं बढ़ पाती थी। दैनंदिन जीवन में कोई वस्तु जब बीस से अधिक हो जाती तो वे एक बीस, दो बीस के हिसाब से गिनती आगे बढातीं। लेकिन ममता और आशीर्वाद का खजाना लुटाने में वे किसी सीमा का ध्यान नहीं रखती थीं। उनके आशीर्वाद का आशय लाख वर्ष की उम्र से होता था।

ऐसी ही एक दूसरी दादीजी मेरे किशोरावस्था के दौरान आशीर्वाद देतीं-भगवान जल्दी तुम्हें एक रोटपकाई (भोजन पकाने वाली पत्नी) दें। मगर, अफसोस, केवल आशीर्वाद से कुछ नहीं होता। खुद का प्रारब्ध भी तो कोई चीज होती है। तभी तो मेरे किसी साथी की मैट्रिक की परीक्षा देने के बाद रिजल्ट आने से पहले ही शादी हो गई तो कोई इंटरमीडिएट और ग्रेजुएशन करते-करते एक से दो हो गया। वहीं मुझे यूनिवर्सिटी की पढ़ाई पूरी करने के बाद भी कई वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। आखिरकार जब अपना भी नंबर आ ही गया तो राज  खुला कि पत्नी केवल रोटी ही नहीं पकाती, अपने पर आ जाए तो दिमाग भी पकाती है। यही नहीं, मूड बना ले तो पति को पानी पिलाने में भी पीछे नहीं रहतीं।

कई साल जयपुर में साथ-साथ रहने के बाद पिंकसिटी में पत्नी को छोड़कर लखनऊ में लोनली रहने लगा तो पता चला कि शहरों में पानी एक निश्चित समय में आता है। और शायद इसीलिए शहर के लोगों की आंखों में गांव वालों की तुलना में पानी थोड़ा कम हुआ करता है। सो साहब, अखबार की नौकरी में रात ढाई-तीन बजे दफ्तर से लौटने के बाद चार बजे तक सोना हो पाता है और न चाहते हुए भी पानी भरने के लिए बेमन से ही नहीं छह से सात बजे तक उठना ही पड़ता है।

ऐसे ही कल सुबह पानी भरने के बाद सो गया था। जैसे ही आंख लगी थी कि मोबाइल की घंटी बजी।  दूसरी तरफ से पूछा गया-सुरेंद्र? मैंने रॉन्ग नंबर की बात कहकर उसे मना कर दिया और सो गया। कच्ची नींद खुलने के बाद बेचैनी की पीड़ा के कभी न कभी आप सभी भुक्तभोगी रहे हैं, उसका जिक्र करना क्या? 15-20 मिनट तक करवटें बदलने के बाद दुबारा नींद आई ही थी कि फिर मोबाइल की घंटी बजी। उठाया तो आवाज आई- विकास से बात करा दो। मैंने कहा-विकास तो पुलिस के एनकाउंटर में मर गया। जाने अब तक कहां से कहां पहुंच गया होगा। कैसे बात कराऊं? फोन करने वाले ने कहा, मैं कानपुर वाले विकास दुबे की बात नहीं कर रहा। मैंने कहा, मैं तो पिछले कई दिनों से चहुंओर बस एक ही विकास का नाम देख-सुन रहा हूं। उसने कहा, समझने की कोशिश करो, मैं विकास दुबे की नहीं, विकास यादव से बात कराने के लिए कह रहा हूं।  अब तक मेरी नींद काफूर हो चुकी थी। मैंने कहा-भलेमानस, कहां से बोल रहे हो? उसने कहा- अलीगढ़ के सिकंदरपुर से। विकास यादव से जरूरी बात करनी है। मैंने कहा, जाओ, आंख-मुंह धोकर ठंडा पानी पीओ और फिर अच्छे से नंबर देखकर दुबारा फोन मिलाओ। ...और इस तरह उससे विदा लेने के बाद मैंने सोचा कि नींद तो इसने उड़ा ही दी। अब मैं भी कुछ नाश्ता-पानी का जुगाड़ करूं।

इससे याद आया। 14-15 साल की बात है। दोपहर में खाना खाकर सोया था कि किसी महिला का फोन आया। श्रीमती ने फोन उठाया तो उधर से कोई महिला जीजाजी से बात कराने के लिए कह रही थी। अब किसी पुरुष के जीजाजी होने की तस्दीक पत्नी से बेहतर कौन कर सकता है। सो श्रीमती जी ने रॉन्ग नंबर कहकर मना कर दिया। लेकिन दुबारा-तिबारा वह रिंग करती रही और श्रीमती जी बार-बार मना करती रहीं। इस दौरान झल्लाहट की वजह से श्रीमती जी की आवाज का वॉल्यूम बढ़ जाने के कारण मेरी भी नींद खुल गई। पूछने के बाद माजरा समझ में आता तब तक फिर मोबाइल की घंटी बजने लगी। मैंने खुद कॉल रिसीव कर समझाने की कोशिश करनी चाही तो वह दक्षिण भारतीय महिला टूटी-फूटी हिंदी में मुझे ही कहने लगी, जीजाजी, आप झूठ बोल रहे हो। फोन ही नहीं उठाते हो।  बात नहीं करना चाहते। क्या बताऊं साहब, कैसे पिंड छुड़ा पाया। स्मार्ट फोन आने के बाद ट्रू कॉलर की सुविधा होने के बाद कॉल करने के बारे में पता चल जाता है, लेकिन क्या बताऊं, फीचर फोन से अपना पुराना नाता है और बात करने के लिए अमूमन मैं उसे ही उपयोग में लेता हूं।  संयोग ही कहें कि आज ही अमर उजाला में खबर देखी-स्मार्टफोन में जल्द बदल जाएंगे सभी फीचर फोन...तो उम्मीद जगी कि शायद आने वाले दिनों में रॉन्ग नंबर की परेशानी खत्म हो जाए...मगर अफसोस इसके साथ वर्षों से हमारा साथ निभा रहा फीचर फोन भी पेजर और टेलीग्राम की तरह अतीत की बात बन जाएगा।

Thursday, July 9, 2020

...कुशल चाहता हूं

बचपन के दिनों की बात है। कई महिलाएं अपने पति या बेटे के नाम चिट्ठी लिखवाने के लिए बड़का बाबू (ताऊजी) के पास आती थीं। मैं जब पांचवीं-छठी में आया होऊंगा तो बाबू ने उनकी चिट्ठियां लिखने का जिम्मा मुझे सौंप दिया।

"सोसती सिरी लिखा, यहां सब कुशल है, आपकी कुशलता के लिए भगवान से मनाते हैं"  से इन पत्रों की शुरुआत होती। हालांकि इन आठ-दस शब्दों में ही कुशलता की भावना दम तोड़ने लगती और पीड़ा का प्रवाह शुरू हो जाता। पिछले महीने ननकिरबा (नन्हा बेटा) बीमार हो गया था। महाजन से पैसा लेकर इलाज कराया। उसके लिए दूध भी उठौना लेना पड़ रहा है। भगवान की कृपा से अब वह ठीक है, लेकिन महाजन सुबह-शाम पैसे के लिए तगादा करने लगा है। खाद-बीज के लिए पैसे की दरकार, बूढ़ी मां की दवाई, जवान होती बेटी की शादी... परिवार का पेट भरने के लिए अनाज, गाय-बैल के चारे की चिंता... आदि इत्यादि...हर महिला की अपनी अनंत पीड़ा होती...कहां तक गिनाऊं। सारी जरूरतों का हिसाब लगाते हुए एक निश्चित रकम की उम्मीद भरी मांग के साथ पत्र का अंत होता। 

पोस्टकार्ड की कीमत तो कम होती थी, लेकिन उसमें सारी बातें समेटना संभव नहीं होता, फिर उसमें अपने दिल की बात बेगानों की नजर में आने का भी खतरा रहता था। वहीं लिफाफे की कीमत अधिक होती और उसमें डालने के लिए अलग से कागज की भी दरकार होती। ऐसे में बीच का रास्ता अपनाते हुए  अंतर्देशीय पत्र ही चिट्ठी लिखवाने के लिए सर्वोत्तम विकल्प हुआ करता था। कई बार इन पत्रों में पैसे के साथ बेटे या पति को बुलाने की मनुहार भी होती। 

कुल मिलाकर ये चिट्ठियां शुगर कोटेड कुनैन की कड़वी गोलियों की तरह होती जिनकी शुरुआत और अंत ममता और प्रेम की मिठास भरे दो-चार शब्दों से होती, मगर मध्य में ये चिट्ठियां अथाह पीड़ा समेटे होती थीं।

एक बात और... उन महिलाओं को शुद्ध हिंदी या खड़ी बोली नहीं आती थी, सो वे बिहार के वैशाली जिला स्थित हमारे गांव की स्थानीय बोली वज्जिका में अपनी बात कहतीं और मैं उसे हिंदी में लिखता जाता। लिखने के बाद उनकी तसल्ली के लिए हिंदी में लिखी चिट्ठी को वज्जिका में पढ़कर उन्हें सुनाता। इस तरह कच्ची उम्र में ही ग्रामीण जीवन की त्रासदी को महसूस करते हुए पत्र लिखने के साथ अनुवाद की कला भी अनायास ही सीख गया। उस जमाने में अकुशल मजदूरों के लिए नौकरी का मतलब कलकत्ता जाना ही हुआ करता था। इसलिए इन पत्रों की मंजिल अमूमन कलकत्ता ही होता। जब इन पत्रों के जवाब में मनीऑर्डर आ जाता और वे महिलाएं दुबारा पत्र लिखवाने आतीं तो उनके चेहरे की खुशी और आंखों में उतर आया कृतज्ञता का भाव देखते ही बनता था।

मैट्रिक पास करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए मुजफ्फरपुर चला गया। शुरुआत के महीनों में तो कुछ दिनों के अंतराल पर घर आ जाता और पैसे लेकर लौट जाता, लेकिन धीरे-धीरे यह अंतराल बढ़ता गया। ऐसे में क़िताबें खरीदने समेत अन्य आवश्यकताओं का जिक्र करते हुए पैसे के लिए बाबूजी को पत्र लिखता। हालांकि ये पत्र डाक के बजाय गांव जा रहे किसी व्यक्ति के हाथों ही भेजे जाते। 

हां, कॉलेज के इन्हीं दिनों में कई मित्र अपनी गर्ल फ्रेंड या पत्नी को लिखे पत्र की झलक दिखाकर उपकृत करते, जिसमें एक शेर कॉमन होता :
कुशल ही कुशल है, कुशल चाहता हूं
दिल में लगन है, मिलन चाहता हूं।
कॉलेज की पढ़ाई के बाद आजीविका के सिलसिले में तीन-चार साल के लिए किशनगंज के प्रवास पर रहा तो उस दौरान मां-बाबूजी और दोस्तों को खूब पत्र लिखे। इस बीच छोटी बहन की शादी हो गई तो उसे भी पत्र लिखता रहा। पत्र लिखने के बाद शिद्दत से जवाब मिलने का इंतजार और पत्रोत्तर पाने के बाद मिले आनंद को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकता। इसी आनंद को पाने की तड़प थी कि 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंस के बाद किशनगंज में रहते हुए पहली बार कर्फ्यू से सामना हुआ और कई दिनों के बाद कर्फ्यू में ढील की मुनादी होने पर लोग जहां अपनी-अपनी जरूरतों का सामान खरीदने के लिए निकले, वहीं मैं सबसे पहले भागकर मेन पोस्ट ऑफिस ही गया था कि कोई चिट्ठी तो नहीं आई है। इसके बाद हरियाणा और राजस्थान के मित्रों से संपर्क हुआ तो उनसे मिलने वाले पत्रों की शुरुआत "अत्र कुशलं तत्रास्तु" से हुआ करती थी। कुल मिलाकर पत्रों में सैकड़ों-हजारों शब्द लिखे हों, मगर उनकी मूल भावना महज अपनों की कुशलता की कामना ही होती है।

कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी के चलते आज पूरी मानवता पर ही संकट के बादल छाए हुए हैं। "आपदा को अवसर में बदलने" के महामंत्र का अर्थ कुछ विशेष सामर्थ्यवान "विभूतियों" ने अपने-अपने हिसाब से लगाते हुए स्वार्थपरता की सारी सीमाएं लांघ दी हैं। ऐसे में बाकी लोगों के सामने अंतहीन परेशानियां उत्पन्न हो गई हैं, जिनका जिक्र संभव नहीं है। अधिकांश लोग अवसाद में जीने को विवश हैं। आए दिन प्रतिभावान युवा-युवतियों के आत्महत्या करने की खबर मीडिया की सुर्खियां बन रही हैं। अब चिट्ठियों का जमाना तो रहा नहीं, सो कठिनाइयों के इस दौर में हमारी जिम्मेदारी बनती है कि मोबाइल फोन, व्हाट्सएप के जरिए अपनों से हरसंभव संपर्क बनाए रखें। खुद की स्थिति बेहतर हो तो आगे बढ़कर मदद के लिए हाथ बढ़ाएं, अन्यथा परेशानी के क्षणों में केवल हालचाल  पूछ लेने से भी बड़ी तसल्ली मिलती है। अन्यथा परेशानियों से अशांत होकर हमारा कोई अपना यदि "सुशांत" हो गया, तो बाद में चाहे हम कितने भी आंसू बहा लें, खुद को माफ नहीं कर पाएंगे।

Sunday, July 5, 2020

उत्सव के बहाने, बहाने से उत्सव

उत्सव के बहाने, बहाने से उत्सव

गांव का जीवन यदि कठिनाइयों के खारेपन के समंदर जैसा होता है, तो वहां रहने वाले लोगों के मन में उन कठिनाइयों से पार पाने का जीवट भी पहाड़ सा विशाल होता है। परेशानियों से अशांत मन कहीं "सुशांत" न हो जाए, इसलिए उत्सवप्रियता को वह अपने स्वभाव में सहेज लेता है। बात-बेबात में उत्सव की खुशियां अपने चारों ओर संजो लेता है। 
शादी-विवाह में दर्जनों रस्मों से उसका मन नहीं भरता। बहू पहली बार खाना बनाती है तो परिवार में एक बार फिर से उत्सव का माहौल उत्पन्न हो जाता है। इसके कुछ महीनों बाद बच्चे के जन्म का उत्सव, बच्चे के पहली बार अन्न ग्रहण करने पर अन्नप्राशन उत्सव, अक्षर आरंभ करने पर विद्यारंभ संस्कार का उत्सव, उपनयन-यज्ञोपवीत संस्कार का उत्सव...एक लंबी शृंखला का सिलसिला यूं ही अनवरत चलता रहता है।

खेतीबाड़ी-बागवानी-पशुपालन की वजह से गांवों के लोग प्रकृति से सीधे जुड़े होते हैं। मौसम के विभिन्न रंग अपनी अनुकूलता से उसके जीवन में खुशियों के रंग भर देते हैं। ...और इसमें भी बरसात के मौसम पर तो उसका सब कुछ निर्भर रहता है। साल के 365 दिन में 27 नक्षत्र अपनी-अपनी भौगोलिक दशा के हिसाब से मानव मात्र को प्रभावित करते हैं, मगर इन नक्षत्रों में आर्द्रा (जिसका अपभ्रंश गांव में अदरा अधिक प्रचलित है।) बारिश की पहली बूंदों का उपहार लेकर आता है। वैशाख-जेठ की भीषण गर्मी से राहत मिलती है तो इसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के लिए गांवों में आर्द्रा के आगमन के सुअवसर को उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा बना ली गई।  ...और गांव में उत्सव का मतलब खीर...सो खीर बना-खाकर मोद मनाते हैं। मेरे बाबूजी का तो नियम था कि शाम को मृगशिरा नक्षत्र का दूध संजोकर रख लिया जाए और अगले दिन आर्द्रा नक्षत्र के प्रवेश पर उसी दूध में खीर बनाई जाए।

जहां तक घड़ी पर्व और अदरा का उत्सव मनाने की बात है तो दोनों में कई मूलभूत अंतर हैं। मसलन घड़ी पर्व आषाढ़ या सावन के शुक्ल पक्ष में मनाया जाता है, वहीं अदरा मनाने के लिए शुक्ल पक्ष की कोई बाध्यता नहीं होती। घड़ी पर्व आषाढ़ और सावन में मनाया जाता है, वहीं दोमास होने के कारण आर्द्रा नक्षत्र कई बार जेठ महीने में भी आ जाता है। घड़ी पर्व अक्सर दिन के तीसरे पहर में मनाया जाता है, जब कुलदेवता को खीर-पूड़ी चढ़ाने के बाद परिवार के लोग प्रसादस्वरूप उसे ग्रहण करते हैं, वहीं अदरा में न तो सुबह, शाम और रात के रूप में समय का बंधन होता है, न ही कुलदेवता को चढ़ाने की बाध्यता।

"खेतों में रोपते खुशियां, घरों में मनता घड़ी पर्व" शीर्षक पोस्ट पर कुछ गुरुजनों ने इसे अदरा मनाने के रूप में व्याख्यायित किया था। ऐसे में इस बारीक अंतर को रेखांकित करने की धृष्टता के लिए सादर क्षमाप्रार्थी हूं। किसी शायर के शब्दों को उधार लूं 
तो यही कह सकता हूं : 

नजर उठा के बड़ों को कभी नहीं देखा
हम आसमान को पानी में देख लेते हैं।

Thursday, July 2, 2020

खेतों में रोपते खुशियां, घरों में मनता घड़ी पर्व

किसानों की आशाओं को नई ऊंचाइयां देने वाला आषाढ़ महीना विदा होने को है। उमड़ते-घुमड़ते बादलों के फूल लिए आकाश मनभावन सावन का स्वागत करने को आतुर है। ये दोनों महीने किसानों के जीवन में सर्वाधिक महत्व रखते हैं। इन्हीं महीनों में वे धान के बिचड़े के रूप में खेतों में अपनी खुशियां रोपते हैं। ... और खुशियों का यह उत्सव बिहार स्थित मेरे गृहजिला वैशाली के साथ ही पड़ो के समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर आदि जिलों के घरों में "घड़ी पर्व" के रूप में मनाने की परंपरा है। स्थानीय बोली में घड़ी पर्व को "घड़ी पवनी" कहा जाता है। कई स्थानों पर आषाढ़ तो कई स्थानों पर सावन के महीने के शुक्ल पक्ष में अलग-अलग दिन यह पर्व मनाया जाता है। इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह उक्ति प्रचलित हो गई- घर छोड़ी तऽ छोड़ी, घड़ी पवनी न छोड़ी....

पहले गांवों में लोगों के पास नकदी का अभाव था। ऐसे में खुशियां मनाने के लिए अपने खेत में खुद की मेहनत से उपजाई फसलों का ही सहारा था। सो घड़ी पवनी में कुलदेवता को गुड़ की खीर और चने की दाल की पूड़ी चढ़ाई जाती और प्रसाद स्वरूप परिवार के लोग इसका लुत्फ उठाते। हालांकि बदलते हुए समय के साथ खीर में गुड़ का स्थान अब चीनी ने ले लिया है। इसके बावजूद घड़ी पवनी आज भी उसी मान्यता और श्रद्धाभाव से मनाया जाता है।

लड़कियों की हथेली, पुरुषों के तलवों में मेहंदी

रूपसियों के सौंदर्य में रंग भरने के साथ ही मेहंदी पुरुषों की पीड़ा कम करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मनचाहे वर की प्राप्ति के लिए लड़कियां सावन के महीने में सोमवार का व्रत रखती हैं। इस दौरान झूला झूलने तथा मेहंदी लगाने का भी काफी क्रेज है। आज से तीस-चालीस साल पहले गांवों में आजकल बाजार में बिक रही कोन वाली रेडिमेड मेहंदी नहीं पहुंची थी। तब हम बच्चे दीदी के लिए आस-पड़ोस में लगी झाड़ियों में से मेहंदी के पत्ते तोड़कर लाते। चटख रंग उभरकर आए, इसके लिए उसमें पुराने छप्पर की फूस, खपड़ा मिलाकर उसे सिलबट्टे पर पीसा जाता और फिर उसमें नींबू का रस मिलाकर दीदी अपनी हथेलियों पर मेहंदी रचाती। वहीं, धनरोपनी के दौरान लगातार पानी में खड़े रहने से पुरुषों के पैरों में पानी लग जाता, जिससे भयंकर खुजली होती। कई बार तो तलवे की खाल में छोटे-छोटे गड्ढे से पड़ जाते। अंगुलियों के बीच की चमड़ी बिल्कुल सफेद पड़ जाती। इस पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए वे रात को तलवों में मेहंदी लगाते, जिससे पानी का असर कुछ कम होता।

खुद की ही नहीं, बैलों की भी फिक्र

पहले खेत को जोतने से लेकर गेहूं और धान की फसल पकने के बाद उसकी दवनी (थ्रेशिंग) तक की जिम्मेदारी बैलों के कंधे पर थी। किसान अपने परिवार के सदस्यों की तरह ही बैलों का भी खयाल रखते थे। धनरोपनी के दौरान लगातार हो रही बरसात के बीच खेत की जुताई के कारण बैलों को सर्दी लगने का डर बना रहता था। ऐसे में शाम को बैलों की सींग में सरसों तेल लगाने के साथ ही गर्मी पहुंचाने के लिए उसे भूसे में महुआ मिलाकर दिया जाता था। अब तो ट्रैक्टर ने सारी जिम्मेदारी संभाल ली है। बैल पुराने जमाने की बात हो गए। हर घर की कौन कहे, पूरे गांव में बमुश्किल एकाध जोड़ी बैल बचे हों।

जुबां पर नक्षत्र, आसमां पर निगाहें  

सनातन परंपरा में 27 नक्षत्रों का जिक्र आता है। बच्चे के जन्म पर नामकरण तथा उसके भविष्य के बारे में जानने की उत्कंठा लिए परिवार वाले पंडितजी के पास जाते। दिन और समय के हिसाब से पंडितजी बताते कि बच्चे का जन्म फलां नक्षत्र में हुआ है। लेकिन बारिश के मौसम में कब कौन-सा नक्षत्र आएगा, इसके बारे में जानने के लिए कभी किसी किसान को पंडितजी से पूछने या पंचांग-पतरा देखने की जरूरत नहीं होती थी। रोहिणी से लेकर मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा, उत्तरा, हथिया, चित्रा और स्वाति नक्षत्र में से कब कौन नक्षत्र चल रहा है, यह उनकी जुबान पर रहा करता था। नक्षत्र के हिसाब से आसमां का रंग और बादलों की अठखेलियां देखकर वे बता देते थे कि कितनी देर में और कितनी बरसात होगी।