Saturday, October 26, 2019

रिश्तों में बढ़ती दूरी


उससे बात किए काफी दिन हो गए थे। रविवार शाम फोन किया तो उधर से आवाज साफ नहीं आ रही थी। शायद बैकग्राउंड में बहुत ही तेज म्यूजिक बज रहा था। पूछने पर उस नौजवान ने बताया कि कलकत्ता में हूं। चाचा की बेटी की शादी है। उसी में आया हूं। आवाज ठीक से सुनाई नहीं देने के कारण ‘बाद में बात करते हैं’ कहकर मैंने फोन काट दिया, लेकिन मेरे मन में एक हलचल सी मच गई। उसने बहन की शादी या फिर चचेरी बहन की शादी कहने के बजाय चाचा की बेटी की शादी क्यों कहा, जबकि उसके एक ही सगे चाचा हैं। विचारों का झंझावात कुछ इस तरह उमड़ने-घुमड़ने लगा मानों फोन के उस तरफ का कोलाहल मेरे मन में उतर आया हो। गत फरवरी में मेरे भतीजे की शादी थी। शादी की तारीख चूंकि काफी पहले तय हो गई थी और इसमें मुझे जाना ही था। आम तौर पर घर से दूर रहने वाले जब अपनों से बात करते हैं तो पहला सवाल यही होता है कि गांव कब जा रहे हो? ...तो जब भी ऐसे प्रियजनों से मेरी बात होती और मैं कहता कि भतीजे की शादी में जाना है तो वे पलटकर दूसरा सवाल दाग देते-तुम्हारा भतीजा तो अभी बहुत छोटा है। उनका कहना भी गलत नहीं था क्योंकि मेरे सहोदर छोटे भाई का बेटा बमुश्किल 12 साल का है। ...लेकिन चचेरे भाइयों के बेटों से लेकर आस-पड़ोस के भाइयों के बच्चे भी मेरे भतीजे ही तो हैं। यही नहीं, फुफेरे-ममेरे-मौसेरे भाइयों के बेटों तथा जीवन के अब तक केसफर में मिले मित्रों के बेटों को क्या भतीजे से इतर मान सकता हूं मैं। ऐसे में अपने प्रियजनों की शंका का समाधान करते हुए बताता कि बड़े भैया के बेटे की शादी है। तब जाकर उनकी जिज्ञासा का शमन हो पाता। ऐसे में उस नौजवान से बात करने के बाद मैं सोचने लगा कि आखिर रिश्तों के दायरे इस कदर क्यों सिमटते जा रहे हैं? वसुधैव कुटुंबकम् का मंत्र देने वाली भारतभूमि के बाशिंदों ने अपनी सोच को इतना संकुचित क्यों कर दिया है? उम्मीद है इन सवालों का जवाब मिलेगा...लोगों के सोच का दायरा विस्तृत होगा। ...आखिर उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है। अगली कड़ी प्यार बांटते चलो .... 23 April 2019 Lucknow

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