Saturday, October 26, 2019

शरबत के बहाने


जेठ की तपती दुपहरी। एक-डेढ बज रहे थे। एक मित्र के परिवार का कोई मुकदमा चल रहा था। कचहरी में सुबह से ही चक्कर लगा-लगाकर हम हलकान हो चुके थे। एक सीनियर वकील से कुछ सलाह लेनी थी। सो कचहरी का टाइम खत्म होने के बाद वकील साहब के पास पहुंचे। थोड़ी देर बाद उनका नौकर एक ट्रे में शीशे के चार गिलास में शरबत लाया। रूह आफजा के कारण पानी का रंग गंवई न रहकर शहरी हो गया था। हम तीन थे और चौथे वकील साहब। गर्मी के मारे प्यास से हमारा गला सूख रहा था, लेकिन एक गिलास से ज्यादा की न कोई गुंजाइश थी न ही उम्मीद। हम ठहरे गांव वाले। हमारे यहां यदि ऐसी गर्मी में कोई अतिथि आता तो लोटे भर पानी में चीनी घोलकर शरबत बनता और फिर उसमें नींबू निचोड़कर उसे गिलास में ढालकर तब तक पिलाया जाता, जब तक अतिथि तृप्त न हो जाए। मेहमानों की संख्या अधिक होने पर लोटे की जिम्मेदारी बाल्टी को संभालनी पड़ती, लेकिन शरबत की मात्रा में कटौती नहीं होती। पर यहां तो हम शहर में थे, सो एक गिलास लाल शरबत से ही शिष्टाचार निभाते हुए संतोष करना था। बाद में चलकर महसूस हुआ कि शहरों का यही रिवाज है। वहां मेहमानों की संतुष्टि नहीं, महज औपचारिकता का निर्वाह करना ही मुख्य मकसद होता है। समय बीतने के साथ मैं भी शहर में रहने लगा, लेकिन अपना प्रयास होता है कि मेहमानों की खातिरदारी में महज औपचारिकता नहीं निभाई जाए। बल्कि उनकी तृप्ति और संतुष्टि का भी ध्यान रखा जाए। आज जब सारी दुनिया मुरली मनोहर भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मना रही है, लखनऊ के अखबारों के दफ्तरों में भी अवकाश है। इसी का लाभ उठाते हुए किसी प्रियजन के घर पहुंचा तो वहां लोटा और गिलास में भरकर जब शरबत सामने आया तो वकील साहब के पच्चीस-तीस साल पुराने उस शरबत का प्रसंग बरबस ही याद आ गया। 24 August 2019

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