Saturday, October 26, 2019

गांती की गरमाहट


बचपन के दिनों में सर्दी का मौसम शुरू होते ही दादीजी सुबह-शाम हम भाई-बहनों को रोजाना ही तय नियम के तहत ‘गांती’ बांध देती थीं। ‘गांती’ यानी चादर को सिर पर लपेटने के बाद दोनों खूंट को गरदन पर बांध देना। ऐसा माना जाता है कि कान में ही सबसे अधिक सर्दी लगती है। बच्चे यदि चादर ओढ़ें तो इसके सिर से ढरकने का अंदेशा बना रहता है। ऐसे में‘गांती’ बांध देने से उसके सिर से न गिर पाने और कान में सर्दी न लगने की गारंटी हो जाया करती थी। हालांकि तब ‘गांती’बंधवाना हमें सबसे अधिक परेशानी का काम लगता था। इच्छा होती कि कब बड़े हों और‘गांती’ बंधवाने से मुक्ति मिले। उन दिनों ‘गांती’ के लिए चादर भी बाजार से नहीं खरीदी जाती थी। अमूमन हर घर में नियमित रूप से चरखा चलता था। तब आज की तरह न तो मोबाइल फोन थे कि बेबात के बतियाने में महिलाओं का समय जाया हो और न ही टेलीविजन थे, जिनके घरफोड़ू धारावाहिकों से गुरुज्ञान लेने की जरूरत हो। सो कुटाई-पिसाई के साथ ही खाना बनाने से फारिग होने के बाद वे सूत कातने बैठ जातीं। मेरी मां और दीदी भी नियमित रूप से चरखा काततीं। उसी सूत के बदले खादी भंडार से बच्चों की उम्र के हिसाब से अलग-अलग नाप की चादर लाई जाती। पिछले तीन-चार दिन से सर्दी का सितम सताने लगा है, ऐसे में अनायास ही यह प्रसंग याद आ गया। दरअसल सर्दी का मौसम सबसे अधिक कष्टप्रद होता भी है। गर्मी के दिनों में तो हम किसी पेड़ की छाया में बैठकर लू के थपेड़ों से अपना बचाव कर सकते हैं। बरसात के मौसम में सरेराह चलते हुए अचानक बारिश आ जाने पर किसी की छत के नीचे शरण ली जा सकती है, लेकिन सर्दी के मौसम में बर्फीली हवाओं की चुभन से खुद को बचा पाना वाकई काफी मुश्किल होता है। नाइट शिफ्ट में काम करने वालों की परेशानी तो कुछ और भी बढ़ जाती है, जब रात के दो-ढाई बजे हाड़ कंपाती सर्दी में बाइक से दफ्तर से घर लौटना होता है। कड़कड़ाती सर्दी की कहानी आज की बात नहीं, यह युगों-युगों से चली आ रही है । तभी तो त्रेता युग में इस भयावहता का अहसास सोने की लंका में रहने वाली सर्वसुविधा संपन्न दशानन की पत्नी को भी था। और वह दूसरे की पत्नी के अपहरण के फलस्वरूप होने वाली दुश्वारियों का संकेत करते हुए पति को सावचेत करती है - ‘ सीता सीत निसा सम आई’। January 2018 Lucknow

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