Friday, October 9, 2009

पहले सिरदर्द देते हैं और फिर हैड मसाजर...


जी हां, अभी कुछ दिनों पहले मैंने एक पोस्ट में भारतीय बाजार में चीन की घुसपैठ पर चिंता जताई थी। सच, अपने हाथ में ज्यादा कुछ नहीं है, लेकिन सोचने और कोसने से तो कोई रोक नहीं सकता। एक सप्ताह बाद दिवाली आने वाली है। कोई जमाना था जब घी के दीये जलते थे, फिर तेल के दीये हुए और अब बिजली की जगमग की इस दुनिया में भावनाएं हमारी होंगी, लेकिन लड़ियां तो चीन की ही होंगी। हमारे नीति नियंता बिजली बचाने के लिए सीएफएल जलाने की सलाह देते हैं, लेकिन भारतीय सीएफएल इतने महंगे होते हैं कि आम भारतीय चाइनीज सीएफएल जलाकर ही बिजली बचाता है, जिससे हमारी बिजली बचे न बचे, चीन की कमाई तो हो ही जाती है। सो, मेरा कहना है कि चीन की इस घुसपैठ ने मुझ जैसे हजारों लोगों को सिरदर्द दिया हुआ है।
दिवाली की बात पर आऊं, तो हमारी गुलाबीनगरी भी इन दिनों ज्योति के इस उत्सव के उल्लास में सराबोर है। पिछले दिनों दिवाली पर खरीदारी के लिए आयोजित मेले में गया तो भीड़ में एक व्यक्ति ने मेरे बालों में कुछ फिराया। एकबारगी तो यह अच्छा लगा, लेकिन तुरत ही सिर चकराया पुराने अनुभव को याद करके। करीब पंद्रह साल पहले एक मित्र ने कलकत्ता यात्रा का एक संस्मरण सुनाया था। चलती ट्रेन में एक फेरीवाला आया और चीनी बाम-चीनी बाम कहते-कहते अपनी झोली में से एक डिबिया निकाली और ----एक बार लगाते ही सिरदर्द को जड़ से मिटा देगा यह चीनी बाम......कहकर यात्रियों के माथे और आंखों के ऊपर वह बाम लगाने लगा। बाम लगाते ही ऐसी जलन हुई कि यात्रियों की आंखें खुल नहीं पा रही थीं। उसी बीच उस तथाकथित फेरीवाले के कुछ साथी अचानक प्रकट हो गए और अल्पकालिक अंधे हुए उन यात्रियों का सामान पार कर ले गए तथा चेन पुलिंग कर उतर गए। यात्रियों की आंखों में जब तक ज्योति लौटी, तब तक उनका बहुत कुछ गायब हो चुका था। मेरा मित्र भी उसी ट्रेन की दूसरी बोगी में था, जिसे कलकत्ता उतरने पर इस वाकये का पता चला।
जब मैं दिवाली मेले में गया था, तो संयोग से उस दिन पांच सौ के तीन-चार नोट शर्ट की ऊपर वाली जेब में ही थे, सो डर लगा रहा था कि उसने सिर में जादू भरे तार फिराने की आड़ में पैसे तो पार न कर लिए हों। खाली जगह पर जाकर जेब चेक की तो संतोष हुआ। अब बारी थी पता करने की उस यंत्र के बारे में जिसे सिर में फिराने पर मालिश का सा अहसास हुआ था। मेले की एक रो में गया तो वहां कई सारी दुकानों पर वह यंत्र बिक रहा था, जिसके पैकेट पर Handy head massager लिखा हुआ था। पैकेट के नीचे छोटे अक्षरों में made in china छपा हुआ था।
यह देखकर मलाल हुआ कि चीन पहले तो अपनी करनी से चाहे सैन्य घुसपैठ हो या हमारे बाजार में सेंध लगाकर-पहले तो हमें सिरदर्द देता है और फिर उससे निजात पाने के लिए हैंडी मसाजर। हर किसी उत्पाद की नकल करने में सिद्धहस्त हमारे अपने देश के महारथी कब इन छोटी-छोटी चीजें बनाने में अपनी कुशल कला का परिचय देंगे, जिससे ऐसी चीजों पर खर्च होने वाला हमारा पैसा विदेशियों की जेब के बजाय हमारे अपने उद्यमी भाइयों की तिजोरी में जाएगा।
(संभव है आपमें से बहुतों को इस चाइनीज हैड मसाजर के बारे में काफी पहले से पता हो, लेकिन मैंने तो उस दिन पहली बार ही इसे देखा था, इसलिए ऐसे मित्रों से अपने अल्पज्ञान के लिए क्षमा चाहता हूं।)

Sunday, October 4, 2009

चांदनी रात में कुछ गीत गुनगुनाइए...


गुलाबी नगर में 38 साल पहले साहित्य और संस्कृति से अंतर्मन से जुड़े कुछ लोगों ने तरुण समाज की स्थापना की थी। तभी से इस संगठन ने होली के अवसर पर महामूरख सम्मेलन और शरदोत्सव के रूप में गीत चांदनी का आयोजन शुरू किया। इन दोनों ही कवि सम्मेलनों की आज देश के गिने-चुने कवि सम्मेलनों में गिनती होती है। गुलाबी नगर के बाशिंदों को सालभर इसका इंतजार रहता है। इसके संस्थापक महानुभाव निस्संदेह अब मध्यवय के हो गए होंगे, लेकिन उनके हृदय में तरुणाई अभी शेष है और यह आयोजन अनवरत-अबाध रूप से जारी है। अभी कल शनिवार 3 अक्टूबर को आश्विन की पूनम पर शरद ऋतु की रात जयपुर के जय क्लब लॉन पर गीत चांदनी कवि सम्मेलन हुआ। आइए, गीत चांदनी के कुछ गीत आप भी हमारे साथ मिलकर गुनगुनाइए -
दिल्ली की डॉ. कीर्ति काले ने
जब बंधे बिजली स्वयं ही मोहपाशों में,
चांदनी छिप जाए शरमाकर पलाशों में,
जब छमाछम बाज उठे पायल घटाओं की,
मांग जब भरने लगे सूरज दिशाओं की।
तब हृदय के एक कोने में कोई कुछ बोल जाता है।
रचना से चांदनी और सौंदर्य व मोहब्बत का रिश्ता जोड़ा।

लखनऊ के देवल आशीष ने
हमने तो बाजी प्यार की हारी ही नहीं है,
जो चूके निशाना वो शिकारी ही नहीं है।
कमरे में इसे तू ही बता कैसे सजाएं,
तस्वीर तेरी दिल से उतारी ही नहीं है।।
के माध्यम से प्रेम को रवानी दी।

किशन सरोज ने
बिखरे रंग तूलिकाओं से, बना न चित्र हवाओं का,
इंद्रधनुष तक उड़कर पहुंचा, सोंधा इत्र हवाओं का...
से हवा की फितरत और वाराणसी के श्रीकृष्ण तिवारी ने
रेत पर एड़ी रगड़कर थक गया तो मन हुआ,
अब मैं नदी बनकर बहूं...बहने लगा।
हाथ में पत्थर लिए बच्चे मिले तो मन हुआ...
अब मैं दरख्तों सा फलूं, फलने लगा।।
के माध्यम से अपने ही रौ में बहने का अंदाजे बयां किया।

मेरठ से आए सत्यपाल सत्यम ने
हो गए संपन्न सब उपवास नभ में चांद निकला।।
बुझ गई अनगिन दृगों की प्यास नभ से चांद निकला।।
भावना जितनी अपावन थी सब हुई विसर्जित,
अब सुखद संभावना को रिक्त है मन।।
लहलहा उट्ठा है पतझर में बगीचा,
अब तो बारह मास सावन है या फागुन,
हर दिवस त्यौहार सा उल्लास, नभ में चांद निकला
से चांद के महत्व पर प्रकाश डाला।

इलाहाबाद से आई रागिनी चतुरवेदी ने
मेरे मन का फूल खिला है, हवा बताती है,
शायद तुमने याद किया है, हिचकी आती है।।
जिधर-जिधर जाती हैं नजरें, शगुन दिखाई देते,
फड़क रहीं पलकें रुक जाती नाम तुम्हारा लेते,
पिंजरे की चिड़िया भी कैसा पंख फुलाती है।।
...शायद तुमने याद किया, हिचकी आती है।।
के माध्यम से प्रियतम की यादें ताजी कीं।

बगड़ के भागीरथ सिंह भाग्य ने मीठी राजस्थानी में मरुथली माटी के सौंदर्य और महत्ता को कुछ इस तरह शब्द दिए -
म्हारे खेतां में मौसम मजूरी करे
बाजरो रात-दिन जी हजूरी करे
म्हारे खेतां री रेतां रमे रामजी
आज तन्ने रमा ल्याऊंली
चाल रे सातीड़ा म्हारे खेतां में आज
तन्नै काकड़ी खुआ ल्याऊं ली।।

ग्वालियर से आए रामप्रकाश अनुरागी ने सुनाया -
हम नदी बनकर बहे तो, सिंधु का जल हो गए।
आग सी दहती किरण से, लिपट बादल हो गए।।
फूल-फल-पत्ते टहनियां, हम तना, जड़ भी हम्हीं,
सृष्टि-बीजों को बचाने हम धरातल हो गए।।

मध्य प्रदेश के खरगौन से आए दर्द शुजालपुरी ने
उधर से तुम इधर आओ, इधर से हम उधर आएं,
हमारी राह-रोशन को सितारे भी उतर आएं।।
हमें दुनिया से क्या मतलब, हमें अपनों से क्या रिश्ता
हमें तुम ही नजर आओ, तुम्हें हम ही नजर आएं।।
के माध्यम से प्रेम में दो दिलों के एकाकार होने की कथा काव्य में कही।

गीत चांदनी का संचालन कर रहे जयपुर के हास्य व्यंग्य के कवि सुरेंद्र दुबे ने भी कुछ गंभीर पंçक्तयों से अपने फौलादी इरादों का इजहार किया -
मेरे कदमों का मंजिल से नाता है,
मुझको भी इतिहास बनाना आता है।।
हर इक बाधा शर्म से पानी-पानी है,
मेरी गति से दूरी को हैरानी है।।
हर पत्थर के मकसद से परिचित हूं मैं,
गड्ढों की फितरत जानी पहचानी है।।
मेरे पांवों से हर कांटा नजर चुराता है,
मुझको भी इतिहास बनाना आता है।।
मेरे कदमों का मंजिल से नाता है

Saturday, October 3, 2009

गांधी का गुणगान, लालबहादुर लापता


कल यानी शुक्रवार दो अक्टूबर को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती धूमधाम से मनाई गई। संयोग कहें या दुरयोग कि पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का जन्मदिवस भी इसी दिन था। कल के अखबारों में विभिन्न राज्य/केंद्र सरकारों और सरकारी संस्थाओं की ओर से भरपूर मात्रा में विज्ञापन प्रकाशित हुए। खलने वाली बात यह रही कि इस तुलना में लाल बहादुर शास्त्री को दस प्रतिशत भी तवज्जो नहीं दी गई। इस अवसर पर हुए आयोजनों के केंद्रबिंदु में भी महात्मा गांधी ही थे। शास्त्रीजी को याद करने के कार्यक्रम तो महज रस्म अदायगी जैसे थे। क्या लालबहादुर शास्त्री के महान व्यक्तित्व को हमारे नीति नियंताओं ने इतनी जल्दी भुला दिया। हालांकि ऐसा करने से शास्त्रीजी का कद कदापि छोटा नहीं पाएगा। शास्त्रीजी ने अपने चरित्र से जो मिसाल कायम की, उसे भुलाया नामुमकिन है। इक्के-दुक्के संगठनों को छोड़कर अधिकतर ने महात्मा गांधी पर केंद्रित कार्यक्रम ही आयोजित किए।
कायस्थ समाज से जुड़े कुछ संगठनों ने लालबहादुर शास्त्री को अवश्य याद किया, लेकिन यहां सोचने का विषय है कि क्या शास्त्रीजी को याद करने का दायित्व महज एक समाज विशेष का ही है। इसे हम देश की बदकिस्मती ही कहेंगे कि आजादी के बाद से सत्ता में आए लोगों ने जगह-जगह गांधी की प्रतिमाएं स्थापित कर, उनके नाम से संस्थाएं स्थापित कर, देश की करेंसी पर राष्ट्रपिता की फोटो छापकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, यदि वे गांधी के आदरशों को आचरण में लाते तो ऐसी महान विभूतियों को को इस तरह भुलाने की आदत उनमें नहीं पनपती।
अपने-अपने आराध्य
कांग्रेस ने अपने आकाओं को हर तरह से तवज्जो दी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। इसमें भी नेहरू परिवार से जुड़े नेताओं का नाम प्रथम गण्य है। भाजपा ने भी आरएसएस और जनसंघ के संस्थापकों और सरदार पटेल जैसे अपनी पसंद के नेताओं को ही अपना आराध्य समझा। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की मेहरबानी से पूरा सूबा बाबा साहब अंबेडकर की प्रतिमाओं के पार्क के रूप में विकसित हो रहा है। इतना ही नहीं, अपने अनुयायियों द्वार भुलाए जाने की आशंका से ग्रसित बसपा सुप्रीमो जीते जी अपनी प्रतिमाएं स्थापित करने में लगी हैं। हालात ऐसे हैं कि सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में दखल देना पड़ा।
नीतीश कुमार की सार्थक पहल
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शनिवार को घोषणा की कि भारत के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की समाधि स्थल को दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जाएगा। वे प्रथम राष्ट्रपति की 125 वीं जयंती के उपलक्ष में उनकी पुनर्प्रकाशित पुस्तकों के लोकार्पण अवसर पर बोल रहे थे।

उन्होंने शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव को निर्देश दिया कि डॉ. राजेन्द्र बाबू की समाधि स्थल पर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी शिलालेख के माध्यम से उल्लिखित कराएं ताकि नई पीढ़ी को इस महान विभूति के बारे में जरूरी जानकारियां मिल सकें। नीतीश ने केन्द्र सरकार से भी राजेन्द्र बाबू के कृतित्व एवं व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को नयी पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए यथासंभव प्रचार-प्रसार कराए जाने का अनुरोध किया।

Friday, October 2, 2009

बापू के बहाने


आज शाम साढ़े चार बजे टेलीविजन का स्विच ऑन किया तो दूरदर्शन के नेशनल चैनल पर नई दिल्ली स्थित तीस जनवरी मार्ग से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जयंती पर आयोजित कार्यक्रम का सीधा प्रसारण चल रहा था। आज की ताजा खबरों से अवगत होने के लिए दूरदर्शन के न्यूज चैनल पर गया तो वह भी राष्ट्रीय धर्म का निर्वहन करते हुए इसी कार्यक्रम को लाइव टेलीकास्ट कर रहा था।
अच्छी बात है, राष्ट्रपिता और जन-जन के बापू के प्रति कृतज्ञता का भाव हमें प्रकट करना ही चाहिए, सो लाइव टेलीकास्ट ही देखता रहा। इस बीच सर्वधर्म प्रार्थना सभा शुरू हुई। इसमें विभिन्न धरमों के प्रतिनिधियों ने अपने-अपने धर्मग्रंथ से प्रार्थना-मंत्र आदि का वाचन किया। मुझे जो बात खली वो यह थी कि हममें से अधिकतर लोगों को अलग-अलग धरमों की प्रार्थना का शब्दार्थ या भावार्थ समझ में नहीं आया। (शायद मुझ सरीखे अन्य लोगों को भी यह बात खली हो।)
ऐसे में मेरी गुजारिश है कि इन धर्म विशेष की प्रार्थना का शब्दार्थ-भावार्थ भी यदि टेलीविजन स्क्रीन पर दिखाया जाए, तो लोग अन्य धरमों की प्रार्थना और उसमें दिए गए मानव-कल्याण के संदेश के बारे में जान और समझ सकेंगे। इससे सर्वधर्म प्रार्थना सभा अपने उद्देश्य में सफल हो सकेगी और देश में सर्वधर्म समभाव का वातावरण भी बन सकेगा। मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने से आयोजन में किसी प्रकार का विघ्न हो सकेगा।
...हो चुकी है शुरुआत
बचपन में गांव में सत्यनारायण भगवान की पूजा में जाता था तो पंडितजी संस्कृत में ही कथा का पाठ करते थे। तब अक्सर देखने में आता थी कि हम बच्चे ही नहीं, बल्कि बड़े-बुजुर्ग भी कथा का अर्थ समझें या न समझें, भक्ति भाव से हाथ जोड़े आरती होने और प्रसाद मिलने तक बैठे रहते थे। आजकल गांवों में ही नहीं, शहरों में भी कई बार देखने को मिलता है कि सत्यनारायण भगवान की पूजा के दौरान हिंदी में ही कथा होती है और लोग भक्ति भाव से साथ ही कथा का अर्थ भी समझ पाते हैं। ऐसे में निस्संदेह कथा से उनका जुड़ाव अधिक हो पाता है। हिंदू परिवारों के विवाह समारोहों में भी पंडितजी अक्सर संस्कृत मंत्रों के हिंदी अनुवाद भी बोलते हैं, जिससे परिणय सूत्र में बंधने वाला युगल अपने भावी जीवन के आदरशों को समझ पाता है और विवाह के आयोजन में शामिल होने वाले लोग भी इन वैदिक मंत्रों में निहित भावार्थ के बारे में जान पाते हैं।
...इनका क्या करें?
बापू को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित कार्यक्रम में एक केंद्रीय मंत्री बार-बार घड़ी देख रहे थे। उनकी यह मनोदशा मन को कचोटती है कि यदि इनके पास समय नहीं था तो महज दिखावे के लिए ऐसे कार्यक्रमों में आने की क्या जरूरत थी। यदि आप स्वर्ग में ही नहीं, बल्कि जन-जन के मन में विद्यमान इन महान विभूतियों के प्रति सच्ची श्रद्धा नहीं रखेंगे, तो आपके अनुयायियों या मतदाताओं में आपके प्रति आस्था कैसे जगेगी।